क्या है निधि वन का रहस्य?वृन्दावन के प्रमुख मंदिर कौन-कौन से हैं?
राधे-राधे जगतजननी श्री राधा-रानी की जय,
निधि वन का रहस्य;-
12 FACTS;-
1-वृन्दावन मे निधिवन का अपना ही महत्व है। स्वामी हरिदासजी की अनन्य भक्ति से उनके आराध्य श्रीबांकेबिहारीजी इसी निधिवन में प्रकट हुए। भगवान श्रीकृष्ण यहां श्रीराधा के साथ रास रचाया करते थे। आज भी ऐसा माना जाता है कि श्रीराधा-कृष्ण का रात्रिशयन निधिवन में ही होता है। श्रीराधाकृष्ण के अनन्य भक्तों को रात्रि में कन्हैया की वंशी व नृत्य करती हुई गोपियों के पायल की आवाज आज भी सुनाई देती है। स्वामी हरिदासजी ललिता सखी का अवतार माने जाते हैं अत: यहां वीणावादिनी ललिताजी अपने प्यारे श्यामा-कुंजबिहारी को लाड़ लड़ाती हैं। जब स्वामी हरिदास विभोर होकर संगीत की रागिनी छेड़ते तो उनके आराध्य उनकी गोद में आकर बैठ जाते थे।
2-एक दिन स्वामीजी ने ऐसा गाया कि निधिवन में एक लता के नीचे से सहसा एक प्रकाशपुंज प्रकट हुआ और एक-दूसरे का हाथ थामे प्रिया-प्रियतम प्रकट हुए। श्रीराधा-कृष्ण की अद्भुत छवि को देखकर स्वामीजी ने कहा–’क्या आपके अद्भुत रूप व सौंदर्य को संसार की नजरें सहन कर पाएंगी?’ स्वामीजी ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा–’मैं संत हूं। मैं आपको तो लंगोटी पहना दूंगा, किन्तु श्रीराधारानी को नित्य नए श्रृंगार कहां से करवाऊंगा।’ स्वामीजी की विनती पर प्रिया-प्रियतम एक-दूसरे में समाहित होकर एक रूप हो गये। अर्थात् श्यामा-कुंजबिहारी श्रीबांकेबिहारी के रूप में प्रकट हो गये। ऐसा कहा जाता है कि ठाकुर श्रीबांकेबिहारी की गद्दी पर स्वामीजी को प्रतिदिन बारह स्वर्ण मोहरें रखी हुई मिलती थीं, जिन्हें वे उसी दिन बिहारीजी के भोग लगाने में व्यय कर देते थे।
3-भारत में कई ऐसी जगह है जो अपने दामन में कई रहस्यों को समेटे हुए है ऐसी ही एक जगह है वृंदावन स्थित निधि वन ।जिसके बारे में मान्यता है कि यहाँ आज भी हर रात कृष्ण गोपियों संग रास रचाते है। यही कारण है कि सुबह खुलने वाले निधिवन को संध्या आरती के पश्चात बंद कर दिया जाता है। उसके बाद वहां कोई नहीं रहता है यहाँ तक की निधिवन में दिन में रहने वाले पशु-पक्षी भी संध्या होते ही निधि वन को छोड़कर चले जाते है। 4-जो भी देखता है रासलीला हो जाता है पागल : वैसे तो शाम होते ही निधि वन बंद हो जाता है और सब लोग यहाँ से चले जाते है। लेकिन फिर भी यदि कोई छुपकर रासलीला देखने की कोशिश करता है तो पागल हो जाता है। ऐसा ही एक वाक़या करीब 10 वर्ष पूर्व हुआ था जब जयपुर से आया एक कृष्ण भक्त रास लीला देखने के लिए निधिवन में छुपकर बैठ गया। जब सुबह निधि वन के गेट खुले तो वो बेहोश अवस्था में मिला, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ चूका था।
4-1-ऐसे अनेकों किस्से यहाँ के लोग बताते है। ऐसे ही एक भक्त है .. पागल बाबा जिनकी समाधि भी निधि वन में बनी हुई है। उनके बारे में भी कहा जाता है कि उन्होंने भी एक बार निधि वन में छुपकर रास लीला देखने की कोशिश की थी। जिससे कि वो पागल हो गए थे।वो कृष्ण के अनन्य भक्त थे इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात मंदिर कमेटी ने निधि वन में ही उनकी समाधि बनवा दी। 5-रंगमहल में सज़ती है सेज़ : निधि वन के अंदर ही है ‘रंग महल’ जिसके बारे में मान्यता है की रोज़ रात यहाँ पर राधा और कन्हैया आते है। रंग महल में राधा और कन्हैया के लिए रखे गए चंदन की पलंग को शाम सात बजे के पहले सजा दिया जाता है। पलंग के बगल में एक लोटा पानी, राधाजी के श्रृंगार का सामान और दातुन संग पान रख दिया जाता है। सुबह पांच बजे जब ‘रंग महल’ का पट खुलता है तो बिस्तर अस्त-व्यस्त, लोटे का पानी खाली, दातुन कुची हुई और पान खाया हुआ मिलता है।
5-1-रंगमहल में भक्त केवल श्रृंगार का सामान ही चढ़ाते है और प्रसाद स्वरुप उन्हें भी श्रृंगार का सामान मिलता है।रंग महल में आज भी प्रसाद प्रतिदिन रखा जाता है, शयन के लिए पलंग लगाया जाता है और सुबह बिस्तरों के देखने से प्रतीत होता है कि यहां निश्चित ही कोई रात्रि विश्राम करने आया तथा प्रसाद भी ग्रहण किया है | इतना ही नहीं, अंधेरा होते ही इस मंदिर के दरवाजे अपने आप बंद हो जाते हैं इसलिए मंदिर के पुजारी अंधेरा होने से पहले ही मंदिर में पलंग और प्रसाद की व्यवस्था कर देते हैं | 6-लगभग दो ढ़ाई एकड़ क्षेत्रफल में फैले निधिवन के वृक्षों की खासियत यह है कि इनमें से किसी भी वृक्ष के तने सीधे नहीं मिलेंगे तथा इन वृक्षों की डालियां नीचे की ओर झुकी तथा आपस में गुंथी हुई प्रतीत होते हैं | प्रतिदिन रात्रि में होने वाली श्रीकृष्ण की रासलीला को देखने वाला अंधा, गूंगा, बहरा, पागल और उन्मादी हो जाता है, ताकि वह इस रासलीला के बारे में किसी को बता ना सके | इसी कारण रात्रि 8 बजे के बाद पशु-पक्षी, परिसर में दिनभर दिखाई देने वाले बन्दर,भक्त, पुजारी इत्यादि सभी यहां से चले जाते हैं और परिसर के मुख्यद्वार पर ताला लगा दिया जाता है | उनके अनुसार यहां जो भी रात को रुक जाते है वह सांसारिक बन्धन से मुक्त हो जाते हैं और जो मुक्त हो गए हैं, उनकी समाधियां परिसर में ही बनी हुई है | 7-पेड़ बढ़ते है जमीन की और ... निधि वन के पेड़ भी बड़े अजीब है जहाँ हर पेड़ की शाखाएं ऊपर की और बढ़ती है वही निधि वन के पेड़ो की शाखाएं नीचे की और बढ़ती है। हालात यह है की रास्ता बनाने के लिए इन पेड़ों को डंडों के सहारे रोक गया है। 8-तुलसी के पेड़ बनते है गोपियाँ .. निधि वन की एक अन्य खासियत यहाँ के तुलसी के पेड़ है। निधि वन में तुलसी का हर पेड़ जोड़े में है। इसके पीछे यह मान्यता है कि जब राधा संग कृष्ण वन में रास रचाते हैं तब यही जोड़ेदार पेड़ गोपियां बन जाती हैं। जैसे ही सुबह होती है तो सब फिर तुलसी के पेड़ में बदल जाती हैं। साथ ही एक अन्य मान्यता यह भी है की इस वन में लगे जोड़े की वन तुलसी की कोई भी एक डंडी नहीं ले जा सकता है। लोग बताते हैं कि जो लोग भी ले गए वो किसी न किसी आपदा का शिकार हो गए। इसलिए कोई भी इन्हें नहीं छूता। वन के आसपास बने मकानों में नहीं हैं खिड़कियां : 9-वन के आसपास बने मकानों में खिड़कियां नहीं हैं। यहां के निवासी बताते हैं कि शाम सात बजे के बाद कोई इस वन की तरफ नहीं देखता। जिन लोगों ने देखने का प्रयास किया या तो अंधे हो गए या फिर उनके ऊपर दैवी आपदा आ गई। जिन मकानों में खिड़कियां हैं भी, उनके घर के लोग शाम सात बजे मंदिर की आरती का घंटा बजते ही बंद कर लेते हैं। कुछ लोग तो अपनी खिड़कियों को ईंटों से बंद भी करा दिया है। 10-वंशी चोर राधा रानी का भी है मंदिर : निधि वन में ही वंशी चोर राधा रानी का भी मंदिर है। यहां के महंत बताते हैं कि जब राधा जी को लगने लगा कि कन्हैया हर समय वंशी ही बजाते रहते हैं, उनकी तरफ ध्यान नहीं देते, तो उन्होंने उनकी वंशी चुरा ली। इस मंदिर में कृष्ण जी की सबसे प्रिय गोपी ललिता जी की भी मूर्ति राधा जी के साथ है। 1 1-विशाखा कुंड : निधिवन में स्थित विशाखा कुंड के बारे में कहा जाता है कि जब भगवान श्रीकृष्ण सखियों के साथ रास रचा रहे थे, तभी एक सखी विशाखा को प्यास लगी। कोई व्यवस्था न देख कृष्ण ने अपनी वंशी से इस कुंड की खुदाई कर दी, जिसमें से निकले पानी को पीकर विशाखा सखी ने अपनी प्यास बुझायी। इस कुंड का नाम तभी से विशाखा कुंड पड़ गया 12-बांकेबिहारी का प्राकट्य स्थल : विशाखा कुंड के साथ ही ठा. बिहारी जी महाराज का प्राकट्य स्थल भी है। कहा जाता है कि संगीत सम्राट एवं धु्रपद के जनक स्वामी हरिदास जी महाराज ने अपने स्वरचित पदों का वीणा के माध्यम से मधुर गायन करते थे, जिसमें स्वामी जी इस प्रकार तन्मय हो जाते कि उन्हें तन-मन की सुध नहीं रहती थी। बांकेबिहारी जी ने उनके भक्ति संगीत से प्रसन्न होकर उन्हें एक दिन स्वप्न दिया और बताया कि मैं तो तुम्हारी साधना स्थली में ही विशाखा कुंड के समीप जमीन में छिपा हुआ हूं। 13-स्वप्न के आधार पर हरिदास जी ने अपने शिष्यों की सहायता से बिहारी जी को वहां से निकलवाया और उनकी सेवा पूजा करने लगे। ठा. बिहारी जी का प्राकट्य स्थल आज भी उसी स्थान पर बना हुआ है। जहा प्रतिवर्ष ठा. बिहारी जी का प्राकट्य समारोह बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। कालान्तर में ठा. श्रीबांकेबिहारी जी महाराज के नवीन मंदिर की स्थापना की गयी और प्राकट्य मूर्ति को वहा स्थापित करके आज भी पूजा-अर्चना की जाती है। जो आज बाकेबिहारी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। 14-संगीत सम्राट स्वामी हरिदास जी महाराज की समाधि :-
कहते हैं कि वृदांवन शहर को बसाने में निम्बार्क संप्रदाय के स्वामी हरिदास (संगीत सम्राट तानसेन के गुरु) का अहम योगदान था। लोग तो यहां तक मानते हैं कि हरिदास और कोई नहीं बल्कि पिछले जन्म में भगवान श्रीकृष्ण की एक गोपी, ललिता थे। 15वीं सदी में जब उनका जन्म मथुरा के करीब एक गांव में हुआ तो, वे कृष्ण भगवान और राधा की भक्ति में डूब गए। संगीत सम्राट स्वामी हरिदास जी महाराज की भी समाधि निधि वन परिसर में ही है। स्वामी हरिदास जी श्री बिहारी जी के लिए अपने स्वरचित पदों के द्वारा वीणा यंत्र पर मधुर गायन करते थे तथा गायन करते हुए ऐसे तन्मय हो जाते की उन्हें तन मन की सुध नहीं रहती। प्रसिद्ध बैजूबावरा और तानसेन इन्ही के शिष्य थे। 14-1-अपने सभारत्न तानसेन के मुख से स्वामी हरिदास जी की प्रशंसा सुनकर सम्राट अकबर इनकी संगीत कला का रसास्वादन करना चाहते थे। किन्तु स्वामी जी का यह दृढ़ निश्चय था की अपने ठाकुर के अतिरिक्त वो किसी का मनोरंजन नहीं करेंगे। इसलिए एक बार सम्राट अकबर वेश बदलकर साधारण व्यक्ति की भांति तानसेन के साथ निधिवन में स्वामी हरिदास की कुटिया में उपस्थित हुए। तानसेन ने जानभूझकर अपनी वीणा लेकर एक मधुर पद का गायन किया। अकबर तानसेन का गायन सुनकर मुग्ध हो गए। इतने में स्वामी हरिदास जी तानसेन के हाथ से वीणा लेकर स्वयं उस पद का गायन करते हुए तानसेन की त्रुटियों की और इंगित करने लगे। उनका गायन इतना मधुर और आकर्षक था की वन के पशु पक्षी भी वहां उपस्तिथ होकर मौन भाव से श्रवण करने लगे। सम्राट अकबर के विस्मय का ठिकाना नहीं रहा।
15-एक सुन्दर परकोटे से घिरी यहां की झुकी हुई वृक्षावली मानो तपस्यारत व्रज-साधक ही हैं, जो आज भी तप कर रहे हैं। लताओं के रूप-रंग भी यहां गौर-स्याम की युगल जोड़ी के समान एक ही टहनी में श्याम-पीत रंग के हैं। मध्यभाग में स्वामीजी का समाधिस्थल है।
वृन्दावन की महिमा;-
06 FACTS;-
1-वृन्दावन की महिमा अतुलनीय है... एक प्रसंग है .. एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन के कालीदह के निकट राम्गुलैला के स्थान में रुके थे , उस समय वृन्दावन के संत नाभा जी जिन्होंने ने भक्तमाल ग्रन्थ लिखा है, ने उस समय वृन्दावन में भक्तो का बहुत बाद भंडारा किया, तुलसीदास उस समय वृन्दावन में ही ठहरे थे , भगवन शंकर ने गोस्वामी जी से कहा की आप भी जाये नाभा जी के भंडारे में, तुलसीदास जी ने भगवन शंकर की आज्ञा का पालन किया और नाभा जी के भंडारे में जाने के लिया चल दिए ।
1-2-जब वो वह पहुंचे तो थोडा बिलम्ब हो गया था जब गोस्वामी जी वह पहुंचे तो वह संतो की बहुत भीड़ थी उनको कही बैठने की जगह नहीं मिली तो जहा संतो के जूते-चप्पल पड़े थे वो वही ही बैठ गए ,अब संत लोग भंडारा प़ा रहे थे,पहले ज़माने में संत लोग स्वयं आपने बर्तन लेकर जाया करते थे,आज भी वृन्दावन की रसिक संत भंडारे में अपने-अपने पात्र लेकर जाते है ,अब भंडारा भी था तो खीर का था क्योकि हमारे बांकेबिहारी को खीर बहुत पसंद है आज भी राजभोग में १२ महीने खीर का ही भोग लगता है।
1-3-अब जो प्रसाद बाट रहा था वो गोस्वामी जी के पास आये और कहा बाबा -तेरो पात्र कहा है तेरो बर्तन कहा है अब तुलसीदास जी के पास कोई बर्तन तो था नहीं तो उसने कहा की बाबा जाओ कोई बर्तन लेकर आओ, मै किस्मे तोहे खीर दू इतना कह कर वह चला गया थोड़ी देर बाद फिर आया तो देखा बाबा जी वैसे ही बैठे है , फिर उसने कह बाबा मैंने तुमसे कह था की बर्तन ले आओ मै तोहे किस्मे खीर दू ।
1-4-इतना कहने के बाद तुलसी दास मुस्कराने लगे और वही पास में एक संत का जूता पड़ा था वो जूता परोसने वाले के सामने कर दिया और कहा इसमें खीर डाल दो तो वो परोसने वाले ने कहा की बाबा पागल होए गयो है का इसमें खीर लोगे तो गोस्वामी जी के आँखों में आशू भर आये और कहा की ये जूता संत का है और वो भी वृन्दावन के रसिक संत का , और इस जूते में ब्रजरज पड़ी हुई है और ब्रजरज जब खीर के साथ अंदर जाएगी तो मेरा अन्ताकरन पवित्र हो जायेगा, धन्य है वृन्दावन , धन्य है वह रज जहा पर हमारे प्यारे और प्यारी जू के चरण पड़े है, ये भूमि राधारानी की भूमि है। 2-वृन्दावन का नामकरण ;– वृन्दावन पावन स्थली का नामकरण वृन्दावन कैसे हुआ इसके बारे में अनेक मत है। वुन्दा तुलसी को कहते है- पहले यह तुलसी का घना वन था इसलिए वृन्दावन कहा जाने लगा। वृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी वृंदा अर्थात राधा है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार श्री राधा रानी के सोलह नामो में से एक नाम वृंदा भी है। 2-ब्रज का हृदय; – वृन्दावन को ब्रज का हृदय कहते है जहाँ श्री राधाकृष्ण ने अपनी दिव्य लीलाएँ की हैं। इस पावन भूमि को पृथ्वी का अति उत्तम तथा परम गुप्त भाग कहा गया है। पद्म पुराण में इसे भगवान का साक्षात शरीर, पूर्ण ब्रह्म से सम्पर्क का स्थान तथा सुख का आश्रय बताया गया है। इसी कारण से यह अनादि काल से भक्तों की श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है।
3-चैतन्य महाप्रभु, स्वामी हरिदास, श्री हितहरिवंश, महाप्रभु वल्लभाचार्य आदि अनेक गोस्वामी भक्तों ने इसके वैभव को सजाने और संसार को अनश्वर सम्पति के रूप में प्रस्तुत करने में जीवन लगाया है। यहाँ आनन्दप्रद युगलकिशोर श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा की अद्भुत नित्य विहार लीला होती रहती है। 4-प्राकृतिक छटा ;– वृन्दावन की प्राकृतिक छटा देखने योग्य है। यमुना जी ने इसको तीन ओर से घेरे रखा है। यहाँ के सघन कुंजो में भाँति-भाँति के पुष्पों से शोभित लता तथा ऊँचे-ऊँचे घने वृक्ष मन में उल्लास भरते हैं। बसंत ॠतु के आगमन पर यहाँ की छटा और सावन-भादों की हरियाली आँखों को शीतलता प्रदान करती है, वह श्रीराधा-माधव के प्रतिबिम्बों के दर्शनों का ही प्रतिफल है।
5-वृन्दावन का कण-कण रसमय है। यहाँ प्रेम-भक्ति का ही साम्राज्य है। वृन्दावन में श्रीयमुना के तट पर अनेक घाट हैं। वृन्दावन की गलिया बड़ी प्रसिद्ध है और इन गलियों को कुंज गलिया कहते है।
6-श्रीचैतन्य महाप्रभु का योगदान;-
मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के प्रमुख भक्तों में श्रीचैतन्य महाप्रभु का योगदान वृन्दावन की खोज, उसके स्वरूप व गौरव को फिर से प्रतिष्ठित करने में प्रमुख रहा है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जब वृन्दावन आए तो यहां एक निर्जन सघन वन था। उन्होंने यहां यमुना किनारे इमली के पेड़ के नीचे विश्राम किया था, वह स्थान इमली तला के नाम से जाना जाता है। इमलीतला के बारे में कहा जाता है कि एक दिन श्रीकृष्ण यमुना किनारे राधाजी के साथ रास रचा रहे थे। तभी वहां गोपियां आ गईं। इससे श्रीकृष्ण रुष्ट होकर इमलीतला घाट पर जाकर विरह में ‘राधा-राधा’ पुकारने लगे। यह इमलीतला एक सिद्धस्थान है। यहां सच्ची साधना की जाए तो मनोरथपूर्ति के साथ ही सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है।
6-1-अपनी तीर्थयात्रा के बाद जैसे ही श्रीचैतन्य महाप्रभु नवद्वीप लौटे तो उन्होंने अपने छह विद्वान अनुयायियों को भगवान श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलास्थलियों की खोज व पुनरुद्धार के लिए वृन्दावन भेजा। ये छह गोस्वामी थे–श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, श्रील रघुनाथभट्ट गोस्वामी, श्रील जीव गोस्वामी, श्रील गोपालभट्ट गोस्वामी और श्रील रघुनाथदास गोस्वामी।
6-2-श्रीमहाप्रभु और इन्हीं छह गोस्वामियों की प्रेरणा से ही यहां भव्य मन्दिरों का निर्माण हुआ और श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा हुई। अत: यह कहना गलत न होगा कि इन्हीं के प्रयासों से आज वृन्दावन एक वैष्णव तीर्थ के रूप में विख्यात है। यद्यपि इन गोस्वामियों ने भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया, परन्तु वे स्वयं छोटी कुटिया में ही रहकर भजन व लेखन करते थे।
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7-वृन्दावन में संतों द्वारा स्थापित भगवान श्रीकृष्ण के विग्रहों में सात ऐसे प्रमुख विग्रह हैं, जो स्वयं प्रकट हैं–श्रीगोविन्ददेवजी, श्रीमदनमोहनजी, श्रीगोपीनाथजी, श्रीजुगलकिशोरजी, श्रीराधारमणजी, श्रीराधाबल्लभजी, और
श्रीबांकेबिहारीजी।श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभजी ने इसी वृन्दावन में गोविन्ददेव प्रतिष्ठित किए थे। कहा जाता है कि श्रृंगारवट नामक स्थान पर ग्वालबाल गोचारण के समय विश्राम करते थे।
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12 FACTS;- 1-वृन्दावन का प्रमुख दर्शनीय मन्दिर श्री बांके बिहारी मन्दिर है। स्वामी हरिदास जी द्वारा निर्मित यह मन्दिर अति प्राचीन है। मन्दिर की स्थापित श्री विग्रह निधिवन से प्रकट हुए थे जिसे स्वामी हरिदास ने यहा स्थापित किया था।
2-श्रीकृष्ण को बांके बिहारी क्यों कहा जाता है?..इसके पीछे कोई राज़ नहीं, वरन् कृष्णजी की रोचक लीलाओं का ही असर है।उनके नटखट अंदाज़ ने ही उन्हें श्री बांके बिहारी का नाम दिया है। दरअसल ‘बांके’ शब्द का अर्थ होता है तीन जगह से मुड़ा हुआ और बिहारी का अर्थ होता है- श्रेष्ठ उपभोक्ता। आम भाषा में बिहारी शब्द का संबंध उससे किया जा सकता है जो जीवन का श्रेष्ठतम आनंद जानता हो।और कुछ ऐसे ही थे श्रीकृष्ण... उनके लिए जीवन एक आनंद था। और जो उनके हिसाब से आनंद शब्द का अर्थ जान ले, उसका जीवन सफल माना जाता है। कहते हैं श्री बांके बिहारी मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति त्रिभंग आवस्था में खड़ी है।
3-श्रीस्वामी हरिदासजी का जन्म संवत 1535 में हरिदासपुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आशुधीरजी और माता का नाम गंगा देवी था। इनके भाइयों का नाम श्रीजगन्नाथ जी एवं श्री गोविंद जी था। 25 वर्ष की अवस्था में अपने समस्त धन-धाम का परित्याग कर श्रीस्वामी हरिदासजी अपने पूज्य पिता श्रीआशुधीर जी महाराज से दीक्षा लेकर श्रीधाम वृन्दावन में परम रमणीय़ श्रीनिधिवन नामक नित्यविहार की भूमि में आकर निवास करने लगे। उनके साथ उनके भतीजे बीठलविपुल जी भी आये थे।
4-उस समय संवत 1560 में वृन्दावन एक गहन वन था एवं वृन्दावन में भवन व सड़कें भी नहीं थी। श्रीस्वामी हरिदासजी ने वृन्दावन में निवास किया और वहाँ परम विलक्षण रस-रीति का प्रवर्तन किया। श्रीस्वामी हरिदासजी महाराज नित्य-निकुँज लीलाओं में ललिता स्वरूप हैं व नित्यविहार के नित्य सागर में रसमग्न रहकर प्रिया-प्रियतम का साक्षात्कार करते हुए उन्हीं की केलियों का गान करते हैं।
5-स्वामी जी जब भी अपने तानपुरे पर संगीत की आलौकिक स्वर लहरियाँ बिखेरते थे तब सम्पूर्ण वृन्दावन थिरकने लगता था, एक आलौकिक छटा बिखर जाती थी, सभी पशु-पक्षी भी मंत्र मुग्ध होकर उनका संगीत सुनने लगते थे। उनके भतीजे बीठलविपुल जी हमेशा सोचते थे कि स्वामी जी का संगीत किसके लिये समर्पित है। उसी प्रश्न के साथ एक प्रश्न और जुड़ गया कि स्वामीजी जिस निकुंज के द्वार पर बैठकर संगीत की रागिनी छेड़ते हैं, उसके भीतर कौन विद्यमान है जिससे वे एकान्त में बातें भी करते हैं।
6-श्री बीठलविपुलजी ने अनेक बार उसके भीतर झाँककर देखा था –किन्तु अंधेरे के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं दिया था ।
एक दिन स्वामी हरिदासजी ने बीठलविपुल जी को अपने पास बुलाया और पूँछा – “जानते हो, आज क्या है?”
बीठलविपुलजी ने कहा, – “नहीं तो, मुझे तो आप बताओ आज क्या है”
हरिदासजी ने उत्तर दिया – “देखो आज तुम्हारा जन्मदिन है और इस अवसर पर मैं तुम्हें कुछ सौगात देना चाहता हूँ।”
बीठलविपुल जी बोले – “मुझे कोई सौगात नहीं चाहिये। मैं तो उस निकुंज द्वार का रहस्य जानना चाहता हूँ और आपके प्राणाराध्य श्यामा-कुंजबिहारी के स्वरूप की एक झलक पाना चाहता हूँ।”
स्वामी जी बोले – “वही तो मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। बुलाओ जगन्नाथ जी को और भी सबको।”
7-यह सुनकर बीठलविपुल जी बहुत खुश हुए। हरिदासजी के भ्राता जगन्नाथ जी भी वहीं आ गये और भी समाज जुड़ गया। स्वामीजी नेत्र मूँदे तानपुरा लेकर बैठे थे। सभी विमुग्ध थे और रस में डूबे थे। संगीत के स्वरों के आरोह के साथ ही सबने अपने अन्तर में एक अद्भुद प्रकाश का अनुभव किया। तभी उस नूतन निकुँज में नील-गौर-प्रकाश की कोमल किरणें फ़ैलने लगीं। सब एक टक होकर देख रहे थे, कुछ दिव्य घटित होने जा रहा था। प्रकाश बढ़ता गया और इसी बीच परस्पर हाथ थामे श्यामा-कुँजबिहारी जी के दर्शन हुए। स्वामी जी ने गाया –
8-माई री सहज जोरी प्रकट भई जु रंग की गौर श्याम घन-दामिनि जैसें।
प्रथम हूँ हुती, अबहूँ आगे हूँ रहिहै, न टरिहै तैसें॥
अंग-अंग की उजराई, सुघराई, चतुराई, सुन्दरता ऐसें।
श्री हरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजविहारी सम वैस वैसे॥
9-पद समाप्त होते ही श्री श्यामा-कुंजबिहारीजी बोले – “तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हुई। अब हम यहाँ इसी रूप में अवस्थित रहेंगे।”
स्वामीजी बोले – “प्राणाराध्य, आप ऐसे ही…….। निकुंज के बाहर आपकी सेवा कैसे होगी? विष्णु-शिव-इन्द्र आदि की सेवा का तो वैदिक विधान है।”
श्रीबिहारीजी बोले – “सेवा तो लाड़ प्यार की होगी।”
10-तभी स्वामीजी ने निवेदन किया, ” आपके सौंदर्य को लोक सहन नहीं कर पायेगा। अतः आप एक ही रूप में प्रकाशित होकर दर्शन दें।” तभी श्यामा-कुंजबिहारी की युगल छवि बाँकेबिहारीजी के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। स्वामीजी और बाँकेबिहारीजी की महिमा जब हरिदासपुर पहुंची तो जगन्नाथ जी के तीनों पुत्र – श्रीगोपीनाथजी, श्री मेघश्यामजी एवं श्रीमुरारीदासजी वृन्दावन आ गये।
11-स्वामी हरिदासजी की केवल एक ही इच्छा थी कि बिहारीजी की सेवा लाड़-प्यार से हो। स्वामीजी ने बिहारीजी की तीन आरतियों का क्रम निर्धारित किया था-सुबह श्रृंगार आरती, मध्याह्न राजभोग आरती और रात को शयन आरती। स्वामीजी ने बिहारीजी की सेवा श्रीजगन्नाथ जी एवं उनके तीनो पुत्रों को सौंप दी। तभी से जगन्नाथ जी के वंशज श्रीबिहारीजी की परम्परागत सेवा करते आ रहे हैं।
12-कई वर्षों तक श्रीबिहारी जी की सेवा का क्रम निधिवन में ही चलता रहा। कालान्तर में आवश्यकता के अनुसार उन्हें सन् 1864 में इस भव्य मन्दिर में स्थानान्तरित कर दिया, जहाँ वे आज विराजमान हैं। इस मन्दिर का निर्माण गोस्वामियों द्वारा तन-मन-धन से सहयोग देकर कराया गया।
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भतरोड़बिहारी मन्दिर यज्ञ पत्नियों द्वारा कृष्ण-बलराम को कराये गये भोजन (भात) का स्मृतिचिह्न है। 6-इस्कॉन मन्दिर;- वृन्दावन के आधुनिक मन्दिरों में यह एक भव्य मन्दिर है। इसे अंग्रेज़ों का मन्दिर भी कहते हैं। केसरिया वस्त्रों में हरे रामा–हरे कृष्णा की धुन में तमाम विदेशी महिला–पुरुष यहाँ देखे जाते हैं। मन्दिर में राधा कृष्ण की भव्य प्रतिमायें हैं और अत्याधुनिक सभी सुविधायें हैं। 7-मदन मोहन मन्दिर;- श्रीकृष्ण भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर मथुरा ज़िले के वृंदावन धाम में विद्यमान है। विशाल कायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। पुरातनता में यह मंदिर गोविन्द देव जी के मंदिर के बाद आता है 8-राधा दामोदर मंदिर;- वृन्दावन के इस मंदिर में अंकित है कृष्ण के चरण चिन्ह वृन्दावन के राधा दामोदर मंदिर में एक गिर्राज शिला रखी हुई है, इस शिला की चार परिक्रमा करने पर गिर्राज परिक्रमा का पुण्य तथा मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलता है।भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं श्रील सनातन गोस्वामी से कहा था कि इस शिला की चार परिक्रमा कर लेने मात्र से उन्हें गोवर्धन की सप्तकोसी परिक्रमा का पुण्य फल प्राप्त होगा। 8-1-वृन्दावन के राधा दामोदर मंदिर में एक गिर्राज शिला रखी हुई है जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने भक्त सनातन गोस्वामी को दिया था। सनातन गोस्वामी वृन्दावन से नित्य गोवर्धन पैदल जाते थे तथा वहां पर सप्तकोसी परिक्रमा कर वापस फिर वृन्दावन राधा दामोदर मंदिर में आ जाते थे। अत्यन्त वृद्ध होने पर एक बार जब वे थककर परिक्रमा मार्ग में बैठ गए तो ठाकुर जी साधारण मानव के रूप में उनके सामने प्रकट हो गए। 8-2-इस शिला पर स्वयं भगवान कृष्ण ने अंकित किए थे अपने चरण चिन्ह उन्होंने वृद्धावस्था के कारण थके हुए सनातन से परिक्रमा न करने को कहा तो सनातन के अश्रुधारा बह निकली। इसके बाद ठाकुर के रूप में आए भगवान कृष्ण ने एक शिला उठाई। ज्योंही उन्होंने उस पर अपने चरणकमल रखे कि शिला मोम की तरह पिघल गई और उस पर उनके चरण कमल बन गए। इसके बाद वंशी बजाकर उन्होंने सुरभि गाय को बुलाया और उसका खुर उस पर रखकर उसका निशान अंकित कर दिया। श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी और लकुटी का चिन्ह अंकित कर वह शिला सनातन को दे दी तथा अपना विराट रूप दिखाया। 8-3-श्रीकृष्ण ने भक्त सनातन को कहा कि इस शिला को वहां रख दें जहां वृन्दावन में वह रहते हैं। इसकी चार परिक्रमा करने पर उनकी एक गिर्राज परिक्रमा हो जाएगी। यही शिला आज भी राधा दामोदर मंदिर वृन्दावन में रखी है तथा तड़के चार बजे से इस शिला की परिक्रमा शुरू हो जाती है।अधिक मास में जो लोग गोवर्धन की सप्तकोसी परिक्रमा नही कर पाते वे या तो इस मंदिर में या श्रीकृष्ण जन्मस्थान स्थित गिर्राज मंदिर की चार परिक्रमा नित्य करते हैं तो उनकी एक परिक्रमा हो जाती है। 8-4-मलमास/ पुरुषोत्तम मास में
गिर्राज शिला की परिक्रमा का है विशेष महत्व.... चूंकि भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गिर्राज गोवर्धन की पूजा की थी और द्वापर में गोवर्धन पूजा के समय एक स्वरूप से गिर्राज गोवर्धन में प्रवेश कर गए थे इस कारण गोवर्धन को साक्षात श्रीकृष्ण भी माना जाता है इसलिए इसकी परिक्रमा करने की होड़ लग जाती है। ऐसे में गिर्राज तलहटी में परिक्रमार्थियों की न टूटने वाली ऐसी माला बन जाती है जहां पर अपने पराये का भेद मिट जाता है। 9-राधा रमन मंदिर;-- वृंदावन स्थित राधा रमन मंदिर एक प्रसिद्ध प्रचीन हिंदू मंदिर है। इसका निर्माण 1542 में किया गया था और इसे वृंदावन का सबसे पूजनीय और पवित्र मंदिर माना जाता है। मंदिर में की गई खूबसूरत नक्काशी से आरंभिक भारतीय कला, संस्कृति और धर्म की झलक मिलती है। इसका निर्माण गोपाल भट्ट के निवेदन पर किया गया था और इसे बनाने में कई साल लग गए।
10-श्रीगोपीश्वर महादेव;-
महारास के दर्शन के लिए गोपीवेश में पधारे भगवान शंकर गोपेश्वर महादेव मन्दिर में वंशीवट पर विराजित हैं। ये मन्दिर 5500 वर्ष से भी अधिक पुराना है। ऐसा माना जाता है कि आज भी वृन्दावन में श्रीगोपीश्वर महादेव महारास देख रहे हैं।
10-1-एक बार शरदपूर्णिमा के दिन यमुना किनारे वंशीवट पर जब महारास में श्रीकृष्ण ने वेणुनाद किया तो कैलास पर्वत पर भगवान शंकर का मन भी श्रीराधाकृष्ण व गोपियों की दिव्यलीला देखने के लिए मचल उठा और वे वृन्दावन की ओर चल पड़े। पार्वतीजी ने बहुत समझाया पर वे नहीं माने और अपने परिवार के साथ वृन्दावन के वंशीवट पर आ गये। पार्वतीजी तो महारास में प्रवेश कर गईं पर गोपियों ने शंकरजी को रोक दिया और कहा–’श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष महारास में प्रवेश नहीं कर सकता।’ शंकरजी ने गोपियों को कोई उपाय बताने के लिए कहा।
10-2-तब ललिता सखी ने कहा–’यदि आप महारास देखना चाहते हैं तो गोपी बन जाइए।’ यह सुनकर भगवान शंकर अर्धनारीश्वर से पूरे नारी बन गये। नारी बने शंकरजी ने यमुनाजी से कहा–’पार्वतीजी तो महारास में चली गयीं हैं। हम केवल भस्म लगाना जानते हैं, आप हमारा सोलह श्रृंगार कर दीजिए।’ यमुनाजी ने शंकरजी का श्रृंगार कर दिया और गोपी बने शंकरजी महारास में प्रवेश कर गये और नृत्य करने लगे।
10-3-नाचते-नाचते शंकरजी का घूंघट हट गया और उनकी जटाएं बिखर गयीं। श्रीकृष्ण ने गोपी बने शंकरजी का हाथ पकड़कर आलिंगन करते हुए कहा–’व्रजभूमि में आपका स्वागत है, महाराज गोपीश्वर !’ भगवान शंकर ने श्रीराधाकृष्ण से वर मांगा कि–’मैं सदैव वृन्दावन में आप दोनों के चरणों में वास करूं।’ यही एक ऐसा मन्दिर है जहां भगवान शिव लहंगा, ओढ़नी, ब्लाउज, नथ, बिन्दी, टीका, कर्णफूल पहने हुए गोपी के रूप में विराजित हैं।
11-ज्ञान गुदड़ी;-
ज्ञान गुदड़ी वह स्थान है, जहां जब उद्धवजी श्रीकृष्ण का संदेश लेकर आए तो उद्धवजी का सारा ज्ञान गोपियों की पवित्र प्रेमधारा के सामने बौना बनकर गुदड़ी के रूप में बदल गया।
12;-मां कात्यायनी का मन्दिर ;-
वृन्दावन में यमुना के निकट राधाबाग में प्राचीन सिद्धपीठ के रूप में मां कात्यायनी का मन्दिर है। ये व्रज की अधिष्ठात्री देवी हैं। भगवान श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए व्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा यमुनातट पर की थी।
13-श्रीगोरे दाऊजी मन्दिर (श्रीअटलबिहारी मन्दिर);-
वृन्दावन के सभी स्थलों से श्रीराधा-कृष्ण की कोई-न-कोई लीला जुड़ी हुई है। ऐसी ही एक मधुरलीला श्रीगोरे दाऊजी मन्दिर (श्रीअटलबिहारी मन्दिर) के सम्बन्ध में कही जाती है–अटल वन में भगवान श्रीकृष्ण बलदाऊजी व सखाओं के साथ गाय चराने जाते थे और वहां कदम्ब के वृक्ष के नीचे बैठकर विश्राम करते थे। एक दिन बलदेवजी गाय चराने नहीं आये और सखा भी गाय चराते हुए दूर निकल गये। कदम्ब के वृक्ष के नीचे श्रीकृष्ण अकेले हैं, यह बात श्रीराधाजी की सखियों को पता चल गई।
13-1-ललिता सखी के कहने पर श्रीराधा ने गोरे बलदाऊजी का भेष धारण किया और श्रीकृष्ण से मिलने पहुंच गयीं। श्रीराधा ने भेष तो बदल लिया पर नाक की नथ उतारना भूल गयीं। जब दाऊजी के भेष में श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा–’मेरा इंतजार किये बगैर मुझे छोड़कर वन में आ गये।’ तब श्रीकृष्ण तो श्रीराधा को पहचान गये और उन्होंने गोरे दाऊजी (श्रीराधा) का हाथ पकड़कर कहा–’भैया, कुछ देर तो मेरे पास बैठो।’ पोल खुल जाने के डर से जब किशोरीजी जाने लगीं, तब श्रीकृष्ण ने कहा–’मेरी प्रिया, तुम कहां जाती हो, अब तो इस वन में ही स्थापित हो जाओ और मुझे रोजाना दर्शन देती रहना।’ इस पर राधाजी ने कहा–’आपके बिना इस वन में मैं कैसे रहूंगी, आपको भी यहीं अटल आसन लगाना होगा।’ इस प्रकार इसका अटलबिहारी व गोरे दाऊजी मन्दिर नाम पड़ा।
14-वृन्दावन का सेवाकुंज/निकुंजवन;-
श्रीहितहरिवंशजी गोस्वामी की साधनाभूमि है। यह वृन्दावन की प्राचीनतम सेवा-स्थलियों में से है। कहा जाता है रात्रि में यहां प्रिया-प्रियतम रासक्रीडा करते हैं। यहां श्रीकृष्ण करुणामयी श्रीराधा की चरण-सेवा करते हुए विराजित हैं। कहा जाता है कि एक रात्रि में रास रचाते-रचाते जब श्रीराधाजी थक गईं, तो श्रीकृष्ण ने श्रीराधा के चरण सेवाकुंज में ही दबाए थे। कहते हैं कि आज भी हर रात्रि श्रीकृष्ण व श्रीराधा की दिव्य रासलीला सेवाकुंज में होती है।
14-1-रात्रि में यहां कोई मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी नहीं ठहरते हैं।सेवाकुंज में ललिताकुंड है। कहते हैं खेल के वक्त ललिता सखी को जब प्यास लगी तो श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी से पृथ्वी पर वार करके जल निकाला, जिसे पीकर ललिता सखी ने प्यास बुझाई। उसी जल स्त्रोत का नाम ललिताकुण्ड पड़ गया। यहां ताल और कदम्ब का पेड़ है, कोने में एक छोटा सा मन्दिर है। कहा जाता है कि रात्रि में यहां राधा जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण विहार करते है। यहां रात्रि में रहना वर्जित है। शाम ढलते ही मन्दिर से सभी जीव जन्तु स्वत: ही अपने आप चले जाते है यह अपने आप में अचरज की बात है।
15-भांडीर वन
03 FACTS;-
1-गर्ग संहिता के अनुसार मथुरा के पास स्थित भांडीर वन में भगवान श्री कृष्ण और देवी राधा का विवाह हुआ था। इस संदर्भ में कथा है कि एक बार नंदराय जी बालक श्री कृष्ण को लेकर भांडीर वन से गुजर रहे थे। उसे समय आचानक देवी राधा प्रकट हुई। देवी राधा के दर्शन पाकर नंदराय जी ने श्री कृष्ण को राधा जी की गोद में दे दिया।
2-श्री कृष्ण बाल रूप त्यागकर किशोर बन गए। तभी ब्रह्मा जी भी वहां उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी ने कृष्ण का विवाह राधा से करवा दिया। कुछ समय तक कृष्ण राधा के संग इसी वन में रहे। फिर देवी राधा ने कृष्ण को उनके बाल रूप में नंदराय जी को सौंप दिया।
16-वंशीवट(वटवृक्ष) ;-
03 FACTS;-
1-वंशीवट में से आती है मृदंग की आवाज ...वंशीवट मथुरा जिले में वृंदावन के यमुना के किनारे स्थित है। यहां इसी स्थान पर द्वापर युग में श्रीकृष्ण अपने बालपल में खेला करते थे और गायों को चराते हुए विश्राम करते थे। इसी स्थान पर रास बिहारी ने तरह-तरह की लीलाएं कीं।
2-तहसील मांट मुख्यालय से एक किमी दूर यमुना किनारे यह वह स्थान है जहां पर कन्हैया नित्य गाय चराने जाते थे। बेणुवादन, दावानल का पान, प्रलम्बासुर का वध तथा नित्य रासलीला करने के साक्षी रहे इस वट का नाम वंशीवट इसलिए पड़ा क्योंकि इसकी शाखाओं पर बैठकर श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे और गोपियों को रिझाते थे।
3-माना जाता है कि इस वटवृक्ष से आज भी कान लगाकर ध्यान से सुनने पर आपको ढोल, मृदंग और वंशी की आवाज सुनाई देगी। हालांकि दुख की बात है कि स्थानीय प्रशासन ने इस पौराणिक धरोहर को संजोने के लिए किसी भी प्रकार का कोई कदम नहीं उठाया है। वंशीवट को देखने हर साल बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
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वन्दनीय है वृन्दावन ;-
06 FACTS;-
1-श्रीवृन्दावन में आज भी अनेक शान्त एवं एकान्त स्थल हैं (कृष्णरसिक संतजनों की भजन व समाधि स्थलियां, वन-उपवन जहां युगल सरकार की चिन्मयी लीलाएं हुईं, यमुनाजी का पावन पुलिन, आदि) जहां जाकर आज भी मन किसी अलौकिक सुख में डूब जाता है।
2-वृन्दावन के यमुनाघाट भी श्रीकृष्ण की किसी-न-किसी लीला से सम्बन्धित हैं। गोविन्दघाट पर गोस्वामी हितहरिवंशजी द्वारा स्थापित व्रज का प्राचीन रासमण्डल है। चीरघाट का कदम्ब का वृक्ष श्रीकृष्ण की चीरहरण लीला का साक्षी है। धीरसमीर घाट श्रीकृष्ण की मधुर वंशी से, केशीघाट केशी वध से, मदनटेर गोचारण लीला से, कालीदह कालियानाग दमन से, वंशीवट श्रीकृष्ण के वेणुवादन से, जगन्नाथ घाट भगवान जगन्नाथ से जुड़ा है। और भी न जाने कितने घाट व स्थल है। कहना होगा वृन्दावन का कण-कण चिन्मय है जो किसी-न-किसी रूप में श्रीकृष्ण से जुड़ा है, अत: वन्दनीय है।
3-कई बार मन में ऐसा भाव उठता है, बुद्धि कहती है कि वृन्दावन अब कहां?, गोविन्द, उनका वेणुवादन, कदम्ब-तमाल-करील के सघन कुंज अब कहां? अब तो वृन्दावन कंक्रीट का जंगल है, शानदार आश्रम हैं, डूपलेक्स फ्लैट्स हैं, हर स्थान पर अधिकार की लड़ाई है, देवदूत होने की भयंकर प्रतिस्पर्धा है। अब व्रज ‘व्रज’ नहीं रहा।
4-परन्तु दूसरी ओर व्रजवासियों का अखण्ड विश्वास है–’लाला (श्रीकृष्ण) अभी भी यहीं है, लाली (श्रीराधा) ही श्रीवृन्दावन की धरती बन गयी है, लाला इस धरती को छोड़कर जायेंगे कहां? अक्रूर के साथ जो गये थे वे विष्णु के वैभवशाली चतुर्भुजरूप थे। वह किशोर चपल बालक तो श्रीवृन्दावन में ही रह गया। वह तो वृन्दावन के कण-कण में रचा-बसा है, बस जरूरत है उन चर्मचक्षुओं की जो उन्हें ढूंढ़ सकें।’
5-श्रीकृष्ण ने भी वृन्दावन की प्रशंसा करते हुए कहा है–’मैं गोलोक छोड़कर ब्रज-गोपियों के अनन्य प्रेम के कारण इस क्षेत्र में अवतरित हुआ हूँ। ऐसा दिव्यप्रेम संसार में अन्यत्र कहीं नहीं दिखायी देता।’ वृन्दावन को छोड़कर श्रीकृष्ण एक पग भी बाहर नहीं जाते। ‘वृन्दावनं परितज्य पादमेकं न गच्छति।’श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में रास के प्रसंग में यह सिद्धान्त स्पष्ट है जब श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो जाते हैं तब गोपियां असहाय होकर उन्हें पुकारती हैं तो उनके प्राणधन श्रीकृष्ण वहीं प्रकट हो गये और कहने लगे–मेरी प्रेयसी गोपियों, मैं कहीं गया नहीं था, यहीं तुम्हारे मध्य ही था। बस, अदृश्य हो गया था।’श्रीकृष्ण आज भी वहीं हैं बस, अदृश्य हैं। रोकर अनन्यता से पुकारो तो आज भी प्रकट हैं
6-वृन्दावन में सर्वत्र श्रीराधिका का ही पूर्ण राज्य है। वह वृन्दावनेश्वरी कहलाती हैं। भुक्ति-मुक्ति की यहां तनिक भी नहीं चलती। धर्म-कर्म भी यहां ‘जेवरी बंटते’ अस्तित्वहीन नजर आते हैं। यहां के मनुष्य ही नहीं; वृक्षों के डाल-डाल और पात-पात पर भी सदा ‘राधे-राधे’ का शब्द गुंजायमान रहता है।
वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय।
डाल-डाल और पात-पात पर राधे ही राधे होय।।
...राधे राधे...