गुप्त नवरात्री ...द्वितीय महाविद्या माँ उग्रतारा मन्त्र साधना ..PART-02
- Chida nanda
- Dec 13, 2023
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‘अष्ट तारा’ साधना;- तारा देवी Tara Devi अन्य आठ स्वरूपों में ‘अष्ट तारा’ समूह का निर्माण करती है तथा विख्यात हैं, 1. तारा 2. उग्र तारा 3. महोग्र तारा 4. वज्र तारा 5. नील तारा 6. सरस्वती 7. कामेश्वरी 8. भद्र काली-चामुंडा । मुख्य नाम :- तारा। अन्य नाम : उग्र तारा, नील सरस्वती, एकजटा।
भैरव :- अक्षोभ्य शिव, बिना किसी क्षोभ के हलाहल विष का पान करने वाले।
भगवान विष्णु के 24 अवतारों से सम्बद्ध : -भगवान राम।
कुल : -काली कुल।
दिशा : -ऊपर की ओर।
स्वभाव :- सौम्य उग्र, तामसी गुण सम्पन्न।
वाहन : -गीदड़।।
कार्य :- मोक्ष दात्री, भव-सागर से तारने वाली, जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्त करने वाली।
देवी तारा ;-
03 FACTS
1-देवी तारा अपने मुख्य तीन स्वरूप से विख्यात हैं, उग्र तारा, नील सरस्वती तथा एक-जटा । प्रथम ‘उग्र तारा’, अपने उग्र तथा भयानक रूप हेतु जानी जाती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत उग्र तथा भयानक हैं, ज्वलंत चिता के ऊपर, शव रूपी शिव या चेतना हीन शिव के ऊपर, देवी प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी हैं। देवी उग्र तारा, तमो गुण सम्पन्न हैं तथा अपने साधकों-भक्तों के कठिन से कठिन परिस्थितियों में पथ प्रदर्शित तथा छुटकारा पाने में सहायता करती हैं। द्वितीय ‘नील सरस्वती, इस स्वरूप में देवी संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त ज्ञान की ज्ञाता हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ज्ञान इधर-उधर बिखरा हुआ पड़ा हैं, उन सब को एकत्रित करने पर जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं, वे ये देवी नील सरस्वती ही हैं। इस स्वरूप में देवी राजसिक या रजो गुण सम्पन्न हैं। देवी परम ज्ञानी हैं, अपने असाधारण ज्ञान के परिणाम स्वरूप, ज्वलंत चिता के शव को शिव स्वरूप में परिवर्तित करने में समर्थ हैं। एकजटा, यह देवी का तीसरे स्वरूप या नाम हैं, पिंगल जटा जुट वाली यह देवी सत्व गुण सम्पन्न हैं तथा अपने भक्त को मोक्ष प्रदान करती हैं ..मोक्ष दात्री हैं।
2-ज्वलंत चिता में सर्वप्रथम देवी, उग्र तारा के रूप में खड़ी हैं। द्वितीय नील सरस्वती, शव को जीवित कर शिव बनाने में सक्षम हैं तथा तीसरे स्वरूप में देवी एकजटा जीवित शिव को अपने पिंगल जटा में धारण करती हैं या मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी अपने भक्तों को मृत्युपरांत, अपनी जटाओं में विराजित अक्षोभ्य शिव के साथ स्थान~ प्रदान करती है। दस महाविद्याओं में दुसरे स्थान पर तारा साधना मानी जाती हैं ! इस साधना को आप चैत्र व् आश्विन नवरात्रि में या गुप्त नवरात्रि में कर सकते है ! साधना महाविद्यायों में द्वितीय स्थान पर विद्यमान, महाविद्या तारा, मोक्ष दात्री एवं सर्व ज्ञान संपन्न है! साधना माँ श्री दुर्गा जी का द्वितीय उग्र रूप है !! प्रचंड अनुभूतियाँ होंगी। माँ के दर्शन भी हो सकते हैं.. योग्यता अनुसार। साधना के बाद माला समेत पूरी सामाग्री इसी वस्त्र में बांधकर नदी में तालाब में या किसी कुएं में विसर्जित कर देनी है।
3-महत्वपूर्ण ....एक छोटी सी कन्या जो निर्धन हो जिसकी आयु 5 वर्ष से कम की हो उसके हाथ में लाल वस्त्र रखें। वस्त्रों के ऊपर सवा किलो मीठा, पांच जासोन के फूल ,कुछ दक्षिणा, एक मेहंदी का पैकेट, एक माहुर का और एक बिंदी का पैकेट लाल चूड़ियों के साथ दान अवश्य करें ! माँ के दर्शन हो जाएं तो महाविद्या माँ तारा का तेज साधक के शरीर में रम जाता है। भैरव बन जाता है, तारा नंदन बन जाता है।असाध्य कार्य को भी सिद्ध करने की क्षमता आ जाती है।धन वैभव एवं ज्ञान में अतुलनीय वृद्धि होती है।जीवन में फिर किसी भी विकट से विकट परिस्थिति से निपटने की क्षमता आ जाती है।और भी अनंत लाभ हैं, जो निशब्द है जिन्हें बोला ही नहीं जा सकते। उग्र तारा तंत्र साधना;-
उग्र तारा अघोर साधना जोकि बहुत उग्र साधना बहुत ही अच्छी और शीघ्र सफलता प्रदान करने वाली साधना है ,नवीन साधकों को इस साधना को करने से पहले अपने आधार को मजबूत कर लेना चाहिए। इसके लिये मंत्र सिद्ध यंत्र माला लेकर साधना शुरू करें।नहा धोकर साफ प्लेट में तारा देवी का तारा यंत्र सामने रक्ख कर धुप दीप लगा कर ही मंत्र जाप करें। साधना को करने के पहले गणेश, शिव व चामुंडा गुरू मंत्र का जाप होना अति आवश्यक है जिससे इस साधना की ऊर्जा को शरीर में ग्रहण कर सके, ग्रहण काल में करें तो ज्यादा अच्छा है तथा पूज्य गुरुदेव से अनुमति प्राप्त करके ही इस साधना में संलग्न होना चाहिए । गणेश मंत्र;- ऊँ गं गणपत्ये नमः 5 माला शिव मंत्र;- ऊँ नमः शिवाय 10 माला जाप गुरू मंत्र;- ऊँ ह्रीं गुरूवे नमः 5 माला जाप के बाद ही मिल मंत्र का जाप करें। उग्र तारा महामंत्र:- 1-ॐ ह्ल्रीं ह्ल्रीं उग्र तारे क्रीं क्रीं फट् ।। 2-ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट् अक्षोभ्य मंत्र:- ।। ॐ स्त्रीं आं अक्षोभ्य स्वाहा । माला लाल हकीक अथवा रुद्राक्ष । दिशा दक्षिण।आसन मृगचर्म का हो तो अति उत्तम है नहीं तो ऊनी लाल आसन का उपयोग कर सकते हैं। तिथि ग्रहण काल;- जाप संख्या 108 माला। उग्र तारा तंत्र मंत्र साधना;- सर्वप्रथम गुरु मंत्र से हवन करो और भस्म बनाओ ।ये क्रिया ग्रहण काल से पहले किसी दिन कर लेना।ग्रहण के दिन उस भस्म में सिंदूर और शुध्द जल व इत्र घोलकर एक पिंड बनाओ ।पिंड का निर्माण करते समय पिंड में माँ तारा एवं गुरुदेव का ध्यान करो यही पिंड माँ तारा का प्रतीकात्मक यन्त्र है।अब इसी पिंड से सिन्दूर लेकर अपने मस्तक पर तिलक करो।पिंड को लाल कपड़ा बिछाकर जो की श्रुति हो एक मिटटी के बर्तन या मिट्टी की प्लेट में स्थापित करना है और पंचोपचार पूजन कर लाल पुष्प अर्पित करन हैं ।शरीर पर कमर से ऊपर कोई भी सिला हुआ वस्त्र नहीं होना चाहिए ।लाल धोती का उपयोग कर सकते हैं अगर बंद कमरे में दिगंबर अवस्था में कर सको तो सर्वोत्तम है।साधना से पूर्व गुरु मंत्र की 11 माला और अक्षोभ्य मंत्र की 11 माला अवश्य करना।साधना की समाप्ति पर गुरुदेव को जप समर्पित करो, माँ को दंडवत प्रणाम करो और माँ से अपने हृदय कमल में निवास करने हेतु प्रार्थना करो। नील तारा देवी;- देवी तारा अपने मुख्य तीन स्वरूप से विख्यात हैं, उग्र तारा, नील सरस्वती तथा एक-जटा । प्रथम ‘उग्र तारा’, अपने उग्र तथा भयानक रूप हेतु जानी जाती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत उग्र तथा भयानक हैं, ज्वलंत चिता के ऊपर, शव रूपी शिव या चेतना हीन शिव के ऊपर, देवी प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी हैं। देवी उग्र तारा, तमो गुण सम्पन्न हैं तथा अपने साधकों-भक्तों के कठिन से कठिन परिस्थितियों में पथ प्रदर्शित तथा छुटकारा पाने में सहायता करती हैं।द्वितीय ‘नील सरस्वती, इस स्वरूप में देवी संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त ज्ञान कि ज्ञाता हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ज्ञान इधर-उधर बिखरा हुआ पड़ा हैं, उन सब को एकत्रित करने पर जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं, वे ये देवी नील सरस्वती ही हैं। इस स्वरूप में देवी राजसिक या रजो गुण सम्पन्न हैं। देवी परम ज्ञानी हैं, अपने असाधारण ज्ञान के परिणाम स्वरूप, ज्वलंत चिता के शव को शिव स्वरूप में परिवर्तित करने में समर्थ हैं। एकजटा, यह देवी का तीसरे स्वरूप या नाम हैं, पिंगल जटा जुट वाली यह देवी सत्व गुण सम्पन्न हैं तथा अपने भक्त को मोक्ष प्रदान करती हैं मोक्ष दात्री हैं। ज्वलंत चिता में सर्वप्रथम देवी, उग्र तारा के रूप में खड़ी हैं, द्वितीय नील सरस्वती, शव को जीवित कर शिव बनाने में सक्षम हैं तथा तीसरे स्वरूप में देवी एकजटा जीवित शिव को अपने पिंगल जटा में धारण करती हैं या मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी अपने भक्तों को मृत्युपरांत, अपनी जटाओं में विराजित अक्षोभ्य शिव के साथ स्थान प्रदान करती हैं या कहदेवी तारा अपने मुख्य तीन स्वरूप से विख्यात हैं, उग्र तारा, नील सरस्वती तथा एक-जटा । प्रथम ‘उग्र तारा’, अपने उग्र तथा भयानक रूप हेतु जानी जाती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत उग्र तथा भयानक हैं, ज्वलंत चिता के ऊपर, शव रूपी शिव या चेतना हीन शिव के ऊपर, देवी प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी हैं। देवी उग्र तारा, तमो गुण सम्पन्न हैं तथा अपने साधकों-भक्तों के कठिन से कठिन परिस्थितियों में पथ प्रदर्शित तथा छुटकारा पाने में सहायता करती हैं। द्वितीय ‘नील सरस्वती, इस स्वरूप में देवी संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त ज्ञान कि ज्ञाता हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ज्ञान इधर-उधर बिखरा हुआ पड़ा हैं, उन सब को एकत्रित करने पर जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं, वे ये देवी नील सरस्वती ही हैं। इस स्वरूप में देवी राजसिक या रजो गुण सम्पन्न हैं। देवी परम ज्ञानी हैं, अपने असाधारण ज्ञान के परिणाम स्वरूप, ज्वलंत चिता के शव को शिव स्वरूप में परिवर्तित करने में समर्थ हैं।क्योंकि उनका रंग नीला है, जिसके सम्बन्ध में कथा आती है कि जब सागर मंथन हुआ तो सागर से हलाहल विष निकला, जो तीनों लोकों को नष्ट करने लगा, तब समस्त राक्षसों देवताओं ऋषि मुनिओं नें भगवान शिव से रक्षा की गुहार लगाई, भूत बावन शिव भोले नें सागर म,अन्थान से निकले कालकूट नामक विष को पी लिया, विष पीते ही विष के प्रभाव से महादेव मूर्छित होने लगे, उनहोंने विष को कंठ में रोक लिया किन्तु विष के प्रभाव से उनका कंठ भी नीला हो गया, जब देवी नें भगवान् को मूर्छित होते देख तो देवी नासिका से भगवान शिव के भीतर चली गयी और विष को अपने दूध से प्रभावहीन कर दिया, किन्तु हलाहल विष से देवी का शरीर नीला पड़ गया, तब भगवान शिव नें देवी को महानीला कह कर संबोधित किया, इस प्रकार सृष्टि उत्तपत्ति के बाद पहली बार देवी साकार रूप में प्रकट हुई। दस्माहविद्याओं में देवी तारा की साधना पूजा ही सबसे जटिल है। देवी के तीन प्रमुख रूप हैं... 1)उग्रतारा 2)एकाजटा और3) नील सरस्वती वाक् सिद्धि विकास हेतु श्री तारा साधना;- देवी तारा दस महाविद्याओं में से एक है इन्हे नील सरस्वती भी कहा जाता है ! ये सरस्वती का तांत्रिक स्वरुप है अब आप एक एक अनार निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ गणेश जी व् अक्षोभ पुरुष को काट कर बली दे .. ॐ गं उच्छिस्ट गणेशाय नमः भो भो देव प्रसिद प्रसिद मया दत्तं इयं बलिं गृहान हूँ फट . .ॐ भं क्षं फ्रें नमो अक्षोभ्य काल पुरुष सकाय प्रसिद प्रसिद मया दत्तं इयं बलिं गृहान हूँ फट .. अब आप इस मंत्र की एक माला जाप करे .. ॥क्षं अक्षोभ्य काल पुरुषाय नमः स्वाहा॥ फिर आप निम्न मंत्र की एक माला जाप करे .. ॥ह्रीं गं हस्तिपिशाची लिखे स्वाहा॥ इन मंत्रो की एक एक माला जाप शरू में व् अंत में करना अनिवार्य है क्यों नील तारा देवी के बीज मंत्र की जाप से अत्यंत भयंकर उर्जा का विस्फोट होता है शरीर के अंदर .. ऐसा लगता है जैसे की आप हवा में उड़ रहे हो .. एक हि क्षण में सातो आसमान के ऊपर विचरण की अनुभति होती है, दुसरे ही क्षण अथाह समुद्र में गोता लगाने की .. इतना उर्जा का विस्फोट होगा की आप कमजोर पड़ने लग जायेंगे आप के शारीर उस उर्जा का प्रभाव व् तेज को सहन नहीं कर सकते इस के लिए ही यह दोनों मात्र शुरू व् अंत में एक एक माला आप लोग अवस्य करना .. ..
3)नील सरस्वती ;-
देवी सकल ब्रह्म अर्थात परमेश्वर की शक्ति है.साधना से आप कुंडलिनी के पांच मूलाधार चक्र जाग्रत हो जाते है तो आप स्वंय ही समझ सकते हैं कि इस मंत्र में कितनी उर्जा निर्माण करने की क्षमता है .. एक एक चक्र को उर्जाओ के तेज धक्के मार मार के जागते है ..। देवी की प्रमुख सात कलाएं हैं जिनसे देवी ब्रहमांड सहित जीवों तथा देवताओं की रक्षा भी करती है।ये सात कला सात शक्तियां हैं... 1)परा 2)परात्परा 3)अतीता 4)चित्परा 5तत्परा 6)तदतीता 7)सर्वातीता, इन कलाओं सहित देवी का धन करने या स्मरण करने से उपासक को अनेकों विद्याओं का ज्ञान सहज ही प्राप्त होने लगता है। देवी तारा के भक्त के बुद्धिबल का मुकाबला तीनों लोकों मन कोई नहीं कर सकता। भोग और मोक्ष एक साथ देने में समर्थ होने के कारण इनको सिद्ध विद्या कहा गया है। मूल मंत्र;- ॥स्त्रीं ॥ जप के उपरांत रोज देवी के दाहिने हाथ में समर्पण व क्षमा प्रार्थना करना ना भूले ..साधना समाप्त करने की उपरांत यथा साध्य हवन करना .. एंव एक कुमारी कन्या को भोजन करा देना ..अगर किसी कन्या को भोजन करने में कोई असुविधा हो तो आप एक वक्त में खाने की जितना मुल्य हो वो आप किसी जरुरत मंद व्यक्ति को दान कर देना।जब भगवती का बीजमंत्र का एक लाख से ऊपर जप पूर्ण हो जाये तब उनके अन्य मंत्रो का जाप लाभदायी होता है।कुछ लॊग अपने आपको व्यक्त नहीं कर पाते, उनमे बोलने की क्षमता नहीं होती ,उनमे वाक् शक्ति का विकास नहीं होता ऐसे जातको को चाहिए कि वह बुधवार के दिन तारा यंत्र की स्थापना करनी चाहिए ! उसका पंचोपचार पूजन करने के पश्चात स्फटिक माला से इस मंत्र का 21 माला जप करना चाहिए । मंत्र – ॐ नमः पद्मासने शब्दरुपे ऐं ह्रीं क्लीं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा। सिद्धि नील सरस्वती तारा साधना;- 1-नील सरस्वती तारा का विषेश रूप माना जाता है। ये माता प्रचंड ज्ञान की देवी मानी जाती है। हमारे जीवन में मानसिक शक्ति का कितना और क्या महत्त्व है यह हम स्वयं ही समझ सकते है क्यों की शायद एक तरह से यह पूरा जीवन ही मानसिक शक्ति के ऊपर टिका हुआ है। मनुष्य का जब जन्म होता है तो जन्म के साथ ही हमारे मस्तिष्क का जो विकास हुआ होता है उसके ऊपर ही हमारे स्मरण की शक्ति का आधार होता है, यही आधार कुछ सालो में स्थायी हो जाता है। और यही हमारी याद शक्ति बन जाती है जो की एक निश्चित सीमा में बंद हो जाती है। यह ईश्वर की देन है की किसी को कम तो किसी को ज्यादा मात्र में स्मरण शक्ति की प्राप्ति होती है। लेकिन अगर हम इसी शक्ति का पूर्ण विकास कर ले तो? निश्चय ही सिद्धो के मध्य देवी का नीलसरस्वती का स्वरुप कई विशेषताओ के कारण प्रसिद्ध है जिसमे से एक है स्मरण शक्ति। देवी तारा तथा उनके विशेष रूप आदि की साधना करने पर साधक की स्मरण शक्ति तीव्र होने लगती है तथा जैसे जैसे साधना तीव्र होती जाती है वैसे वैसे साधक की स्मरणशक्ति का विकास होता जाता है। वस्तुतः हमारी स्पर्शेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रियो के कारण ही हम देखा, सुना, या स्पर्श याद रखते है। इन इन्द्रियों की एक निश्चित क्षमता होती है जिसका अगर विकास कर लिया जाए तो साधक को कई प्रकार से जीवन में सुभीता की प्राप्ति होती है। और निश्चय ही एक अच्छी स्मरण शक्ति साधक को भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही पक्षों में पूर्ण सफलता प्रदान करने में बहुत ही बड़ा योगदान दे सकती है। फिर नील सरस्वती देवी से सबंधित यह साधना तो अति गुप्त है।
2-पारद की चैतन्यता एवं देवी के एक विशेष एवं गुप्त तीव्र मन्त्र के सहयोग से साधक की दसो इन्द्रियों की चैतन्यता का यह नील सरस्वती तारा साधना साधक किसी भी शुभ दिन या मंगलवार या शुक्ल पक्ष की पंचमी से शुरू कर सकता है। समय रात्रीकालीन रहे।साधक स्नानशुद्धि कर पीले वस्त्र धारण कर पीले रंग के आसन पर उत्तर की तरफ मुख कर बैठ जाए। सर्व प्रथम गुरुपूजन गुरु मन्त्र का जाप कर साधक गणेश एवं भैरव पूजन करे। अपने सामने साधक ‘पारद तारा गुटिका’ अथवा “नील मेधा यंत्र स्थापित करे तथा देवी का पूजन करे।पूजन के बाद साधक न्यास करे। करन्यास;- ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॐ कूं तर्जनीभ्यां नमः ॐ कैं मध्यमाभ्यां नमः ॐ चां अनामिकाभ्यां नमः ॐ चूं कनिष्टकाभ्यां नमः ॐ ह्रीं स्त्रीं हूं करतल करपृष्ठाभ्यां नमः हृदयादिन्यास;- ॐ ऐं हृदयाय नमः ॐ कूं शिरसे स्वाहा ॐ कैं शिखायै वषट् ॐ चां कवचाय हूं ॐ चूं नेत्रत्रयाय वौषट् ॐ ह्रीं स्त्रीं हूं अस्त्राय फट् न्यास करने के बाद साधक देवी का ध्यान करे। अटटाटटहास्निर्तामतिघोररूपाम् | व्याघ्राम्बराम शशिधरां घननीलवर्नाम कर्त्रीकपालकमलासिकराम त्रिनेत्रां मालीढपादशवगां प्रणमामि ताराम इसके बाद साधक भगवती तारा के विग्रह पर त्राटक करते हुए निम्न मन्त्र की ११ माला करे। इस साधना के लिए साधक शक्ति माला, पीले हकीक माला या फिर स्फटिक माला का साधना करे। ॐ ऐं कूं कैं चां चूं ह्रीं स्त्रीं हूं (OM AING KOOM KAIM CHAAM CHOOM HREENG STREEM HOOM) जिन साधको को मन्त्र विज्ञान की जानकारी है वह इस नील सरस्वती तारा मन्त्र की तीव्रता एवं दिव्यता का आकलन कर सकते है, पूरी तरह से श्रद्ध रखकर अगर इस नील सरस्वती तारा साधन को संपन्न किया जाय तो इसके प्रभाव को देखकर साधक आश्चर्य रह जाता है।इस प्रकार साधक यह दिव्य मन्त्र की 11 माला पूर्ण कर लेने पर देवी को वंदन करे।साधक को यह क्रम 5 दिन तक करना है। 5दिन इस प्रकार करने पर यह साधना पूर्ण होता है। तारा देवी तंत्र मंत्र साधना;- ध्यान;- माँ तारा का ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है- ध्यायेत् कोटि-दिवाकरद्युति-निभां बालेन्दुयुक्छेखरां रक्ताङ्गीं रसनां सुरक्त वसनां पूर्णेन्दुबिम्बाननां। पाशं कर्तृ-महाङ्कुशादि-दधतीं दोर्भिश्चतुर्भिर्युतां नानाभूषण-भूषितां भगवतीं तारां जगत्तारिणीं॥ अर्थात् करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान कान्ति से युक्त, मस्तक पर बालचन्द्र धारण करने वाली, रक्तिम विग्रह तथा रसना वाली, सुन्दर लाल वस्त्र धारण किये हुए, पूर्णिमा के चन्द्रमा सदृश मुख वाली, अपने चारों हाथों में पाश, कर्तरि[कैंची], महान् अंकुश आदि को धारण करने वाली, नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत, जगत् को तारने अर्थात् मोक्ष प्रदान करने वाली भगवती तारा का भजन करना चाहिये। महाअंक-देवी द्वारा उत्पन्न गणित का अंक जिसे स्वयं तारा ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है –“1” विशेष पूजा सामग्रियां-पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है। सफेद या नीला कमल का फूल चढ़ाना। रुद्राक्ष से बने कानों के कुंडल चढ़ाना। अनार के दाने प्रसाद रूप में चढ़ाना। सूर्य शंख को देवी पूजा में रखना। भोजपत्र पर ह्रीं लिख करा चढ़ाना। दूर्वा,अक्षत,रक्तचंदन,पंचगव्य,पञ्चमेवा व पंचामृत चढ़ाएं।पूजा में उर्द की ड़ाल व लौंग काली मिर्च का चढ़ावे के रूप प्रयोग करें।सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें- ॐ क्रोद्धरात्री स्वरूपिन्ये नम: 1)देवी तारा मंत्र-ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट 2)देवी एक्जता मंत्र-ह्रीं त्री हुं फट 3)नील सरस्वती मंत्र-ह्रीं त्री हुं. सभी मन्त्रों के जाप से पहले अक्षोभ्य ऋषि का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए। सबसे महत्व पूर्ण होता है देवी का महा यंत्र जिसके बिना साधना कभी पूरण नहीं होती इसलिए देवी के यंत्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें।यन्त्र के पूजन की रीति है- पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं यंत्र पर. ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय........ कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है यदि आप बिधिवत पूजा नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें।तारा शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं। तारा शतनाम को इस रीति से गाना चाहिए- तारणी तरला तन्वी तारातरुण बल्लरी, तीररूपातरी श्यामा तनुक्षीन पयोधरा, तुरीया तरला तीब्रगमना नीलवाहिनी, उग्रतारा जया चंडी श्रीमदेकजटाशिरा, देवी को अति शीघ्र प्रसन्न करने के लिए अंग न्यास व आवरण हवन तर्पण व मार्जन सहित पूजा करें। देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र;- 1) देवी तारा का भय नाशक मंत्र ॐ त्रीम ह्रीं हुं नीले रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अर्पित करें।पुष्पमाला,अक्षत,धूप दीप से पूजन करें।रुद्राक्ष की माला से 6 माला का मंत्र जप करें।मंदिर में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है।नीले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें पूर्व दिशा की ओर मुख रखें।आम का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं। 2) शत्रु नाशक मंत्र;- ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौ: हुं उग्रतारे फट नारियल वस्त्र में लपेट कर देवी को अर्पित करें।गुड से हवन करें।रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें। एकांत कक्ष में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है।काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें।उत्तर दिशा की ओर मुख रखें।पपीता का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं।
3) जादू टोना नाशक मंत्र;- ॐ हुं ह्रीं क्लीं सौ: हुं फट देसी घी ड़ाल कर चौमुखा दीया जलाएं।कपूर से देवी की आरती करें।रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें 4) लम्बी आयु का मंत्र;- ॐ हुं ह्रीं क्लीं हसौ: हुं फट रोज सुबह पौधों को पानी दें।रुद्राक्ष की माला से 5 माला का मंत्र जप करें।शिवलिंग के निकट बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है।भूरे रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें।पूर्व दिशा की ओर मुख रखें।सेब का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं। 5) सुरक्षा कवच का मंत्र;- ॐ हुं ह्रीं हुं ह्रीं फट देवी को पान व पञ्च मेवा अर्पित करें।रुद्राक्ष की माला से 3 माला का मंत्र जप करें।मंत्र जाप के समय उत्तर की ओर मुख रखें। किसी खुले स्थान में बैठ कर मंत्र जाप से शीघ्र फल मिलता है।काले रग का वस्त्र आसन के रूप में रखें या उनी कम्बल का आसन रखें।उत्तर दिशा की ओर मुख रखें।केले व अमरुद का फल प्रसाद रूप में चढ़ाएं। देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध;- बिना “अक्षोभ ऋषि” की पूजा के तारा महाविद्या की साधना न करें।किसी स्त्री की निंदा किसी सूरत में न करें।साधना के दौरान अपने भोजन आदि में लौंग व इलाइची का प्रयोग न करें।देवी भक्त किसी भी कीमत पर भांग के पौधे को स्वयं न उखाड़ें।टूटा हुआ आइना पूजा के दौरान आसपास न रखें. वाक् सिद्धि विकास हेतु श्री तारा साधना;- देवी तारा दस महाविद्याओं में से एक है इन्हे नील सरस्वती भी कहा जाता है ! ये सरस्वती का तांत्रिक स्वरुप है अब आप एक एक अनार निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ गणेश जी को बली दे ..बली में नारियल भी दे सकते हैं ,या आटे की मूर्ति बना कर बलि प्रदान करें। ॐ गं उच्छिस्ट गणेशाय नमः भो भो देव प्रसिद प्रसिद मया दत्तं इयं बलिं गृहान हूँ फट . .ॐ भं क्षं फ्रें नमो अक्षोभ्य काल पुरुष सकाय प्रसिद प्रसिद मया दत्तं इयं बलिं गृहान हूँ फट .. अब आप इस मंत्र की एक माला जाप करे .. ॥क्षं अक्षोभ्य काल पुरुषाय नमः स्वाहा॥ फिर आप निम्न मंत्र की एक माला जाप करे .. ॥ह्रीं गं हस्तिपिशाची लिखे स्वाहा॥ इन मंत्रो की एक एक माला जाप शरू में व् अंत में करना अनिवार्य है क्यों नील तारा देवी के बीज मंत्र की जाप से अत्यंत भयंकर उर्जा का विस्फोट होता है। शरीर के अंदर .. ऐसा लगता है जैसे की आप हवा में उड़ रहे हो .. एक ही क्षण में सातो आसमान के ऊपर विचरण की अनुभति। तो दुसरे ही क्षण अथाह समुद्र में गोता लगाने की .. इतना उर्जा का विस्फोट होगा की आप कमजोर पड़ने लग जायेंगे आप के शरीर उस उर्जा का प्रभाव व् तेज को सहन नहीं कर सकते। इसके लिए ही यह दोनों मंत्र शुरू व् अंत में एक एक माला जाप अवश्य करना .. नहीं तो आप को विक्षिप्त होने से स्वं माँ भी नहीं बचा सकती ..इस साधना से आप के पांच चक्र जाग्रत हो जाते है। तो आप स्वं ही समझ सकते हो इस मंत्र में कितनी उर्जा निर्माण करने की क्षमता है .. एक एक चक्र को उर्जाओ के तेज धक्के मार मार के जागते है । मूल मंत्र;- ॥स्त्रीं ॥ जप के उपरांत रोज देवी के दाहिने हाथ में समर्पण व् क्षमा प्रार्थना करना ना भूले। जाप साधना समाप्त करने की उपरांत यथा साधक हवन करना .. एवं एक कुमारी कन्या को भोजन करा देना ।अगर किसी कन्या को भोजन करने में कोई असुविधा हो तो आप एक वक्त में खाने की जितना मुल्य हो वो आप किसी जरुरत मंद व्यक्ति को दान कर देना चाहिए। जब भगवती का बीजमंत्र का एक लाख से ऊपर जप पूर्ण हो जाये तब उनके अन्य मंत्रो का जाप लाभदायी होता है। वाक् शक्ति;- कुछ लॊग अपने आपको वयक्त नहीं कर पाते, उनमे बोलने की छमता नहीं होती ,उनमे वाक् शक्ति का विकास नहीं होता ऐसे जातको को बुधवार के दिन तारा यन्त्र की स्थापना करनी चाहिए ! उसका पंचोपचार पूजन करने के पश्चात स्फटिक माला से इस मंत्र का २१ माला जप करना चाहिए – मंत्र; – ॐ नमः पद्मासने शब्दरुपे ऐं ह्रीं क्लीं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा|| 21वे दिन हवन सामग्री मे जौ-घी मिलाकर उपरोक्त मंत्र का 108 आहुति दे और पूर्ण आहुति प्रदान करे !इस साधना से वाक् शक्ति का विकास होता है , आवाज़ का कम्पन जाता रहता है !यह मोहिनी विद्या है एवं बहुत से प्रवचनकार,कथापुराण वाचक इसी मंत्र को सिद्ध कर जन समूह को अपने शब्द जालो से मोहते हैं !!प्रतिदिन साधना से पूर्व माँ तारा का पूजन कर एक -एक माला (स्त्रीम ह्रीं हुं )और तारा कुल्लुका ( अं मं अक्षोभ्य श्री ) की अवश्य करे. हरी तारा मंत्र;-
ग्रीन तारा मां, करुणा की देवी मानी जाती हैं और इस कारण इस मंत्र के जाप से आपका हार्ट चक्र भी जागृत होता है। 2. यह मंत्र इतना प्रभावशाली है कि यह न केवल आपको भय और असुरक्षा से मुक्ति दिलाता है बल्कि इससे हार्ट और माइंड के ब्लॉकेज भी खत्म हो जाते हैं। ॐ तारे तुत्तरे तुरे स्वाहा (Oṃ tāre tuttāre ture svāhā) ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, श्रीमद् उग्रतारा पुरश्चरण विधि;-
44 FACTS;-
जय माँ तारा ! जय गुरु देव !!समुद्रमथने देवि कालकूटं समुत्थितम् |सर्वे देवाश्च देव्यश्च महाक्षोभमवाप्नुयुः ||क्षोभादिरहितं यस्मात् पीतं हालाहलं विषम् |अत एव महेशानि अक्षोभ्यः परिकीर्तितः |तेन सार्धं महामाया तारिणी रमते सदा ||हे माँ तारा ! जब तुम्हें याद करता हूँ तो मन भर जाता है और शब्द निकल नहीं पाते क्या लिखूँ तारा माँ तुम्हारे बारे में।प्रेम की पराकाष्ठा हो तुम,परम प्रेममयी हो और सबको तारने वाली प्यारी माँ हो। महर्षि वशिष्ठ के द्वारा तुम्हारी साधना करने पर भी जब तुम्हारी सिद्धि नहीं हो पाई तो तुम्ही को किलित करने लगे। तब तुमने आकाशवाणी कर बताया कि चीनाचार विधि से तुम्हारी साधना सफल हो पायेगी तब जाकर वे तारा की सिद्धि कर पाये और साधना स्थान रहा "तारापीठ की वीरभूमी" जहाँ पंचमुंडी आसन पर बैठकर वे साधना कर पाए। द्वापर युग में कृष्ण के आने पर तुम्हारी साधना के कीलन टुट गये और तुम्हारी साधना सबके लिए सुलभ हो पाया। तुम्हारे परम साधक,भक्त तारापीठ के वामाखेपा जी हुए जिन्होने मंत्र विधि से, प्रेम और भक्ति से ही तुम्हें प्राप्त कर लिया।तुम अपने भक्तों का विशेष ख्याल रखती हो कारण तुम बहुत ममतामयी माँ हो।जय हो माँ तारा की..। 1) आचमन- निम्न मंत्र पढ़ते हुए तीन बार आचमन करें- ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। फिर यह मंत्र बोलते हुए हाथ धो लें--ॐ ह्रीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा। 2) पवित्रीकरण- बाएँ हांथ मे जल लेकर दाहिनी मध्यमा, अनामिका द्वारा अपने सिर पर छिड़कें- ॐ अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि :॥ ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः॥ 3) जल शुद्धि - तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम कृत्वा ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः पंचपात्र के ऊपर हुङ् ईति अवगुंठ, वं इति धेनुमुद्रा, मं इति मत्स्य मुद्रा.....१० बार ईष्ट मन्त्र जप । फिर पंचपात्र के ऊपर दाहिनी अंगुष्ठा को हिलाते हुए निम्न मंत्र को पढ़ें— “ ॐ गंगेश यमुनाष्चैव गोदावरी सरस्वती । नर्मदे सिंधु कावेरी जलेहस्मिन सन्निधिम कुरु ॥ 4) आसन शुद्धि – ॐ आसन मंत्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषि सुतलं छन्द कूर्म देवता आसने उपवेसने विनियोग: - पंचपात्र मे से एक आचमनी जल छोड़ें- आसन के नीचे दाहिनी अनामिका द्वारा -तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम कृत्वा ॐ ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः असनं स्थापयेत । आसन को छूकर - ॐ पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ बाएँ हांथ जोड़कर – बामे गुरुभ्यो नमः , परमगुरुभ्यो नमः , परात्पर गुरुभ्यो नमः , परमेष्ठि गुरुभ्यो नमः । दाहिने हांथ जोड़कर – श्रीगणेशाय नमः । सामने हांथ जोड़कर सिर मे सटाकर – मध्ये श्रीमद् उग्रतारा देव्यै नमः 5) स्वस्तिवाचन :- ॐ स्वस्ति न:इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ 6) गुरुध्यान :- (कूर्म मुद्रा मे) ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्। एकं नित्यं विमलमचलं सर्वाधिसाक्षिभूतं, भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं त्वं नमामि।। 7) मानस पूजन:-
अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें- ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि। ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि। गुरु प्रणाम:- दोनों हांथ जोड़कर-- ॐअखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः । तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः । मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः । भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ अनेकजन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने । आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ 9) गणेशजी का ध्यान :- विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय, लम्बोदराय सकलाय जगत् हिताय । नागाननाय श्रुतियज्ञभूषिताय, गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥ 10) मानस पूजन:-
अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें- ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि। ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि। 11) गणेश प्रणाम:- प्रणम्य शिरसा देवं, गौरीपुत्रं विनायकम। भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु: कामार्थसिद्धये।। वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसंप्रभ:। निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।। लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकंप्रियं। निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।। सर्वविघ्नविनाशाय, सर्वकल्याणहेतवे। पार्वतीप्रियपुत्राय, श्रीगणेशाय नमो नम: ।। गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्। 12) ईष्टदेवी प्रणाम:- ॐ प्रत्यालीढ़पदेघोरे मुण्ड्माला पाशोभीते । खरवे लंबोदरीभीमे श्रीउग्रतारा नामोस्तुते ॥ 13) संकल्प:-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यश्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रेदेशे------प्रदेशे------मासे-----राशि स्थिते भास्करे----पक्षे-----तिथौ----वासरे अस्य-----गोत्रोत्पन्न------नामन:/नाम्नी अस्य श्रीमद्उग्रतारा संदर्शनं प्रीतिकाम: सर्वसिद्धि पूर्णकाम: मन्त्रस्य दशसहस्रादि जप तत् दशांश होमं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश तर्पणम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश अभिसिंचनम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश ब्राह्मण भोजनं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप पंचांग पुरश्चरण कर्माहम् करिष्ये। 14)भूतपसारन :-
दाहिने हांथ में जल लेकर निम्न मन्त्र को पढ़कर अपने सिर के ऊपर से दशों दिशाओं मे छोडना है --- ॐ आपः सर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिता । या भूता विघ्नकर्तारंते नश्यंतु शिवाग्या ॥ ॐ बेतालाश्च पिशाचाश्च राक्षाशाश्च सरीसृपा । आपःसर्पन्तु ते सर्वे चंडिकास्त्रेन ताडिता: ॥ ॐ विनायका विघ्नकरा महोग्रा यज्ञद्विषो ये । पिशितानाश्च सिद्धार्थकैवज्रसमानकल्पैमया नीरिस्ता विदिश: प्रयान्तु ॥ 15) भूतशुद्धि :- 1. ॐ भूतशृंगाटाच्छिर सुषुम्नापथेन जीवशिवं परमशिव पदे योजयामी स्वाहा । 2. ॐ यं लिंगशरीरं शोषय शोषय स्वाहा । 3. ॐ रं संकोचशरीरं दह दह स्वाहा । 4. ॐ परमशिव सुषुम्नापथेन मूलशृंगाटमूल्लसोल्लस ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल सोऽहं हंस: स्वाहा। 16) ऋषयादिन्यास;- ॐ श्रीमद् उग्रतारा मंतरस्य अक्षोभ्य ऋषि, विहति छन्द: , श्रीमदेकजटा देवता, हूँ बीजं , फट् शक्ति , ह्रीं स्त्रीं कीलकम, मम धर्मार्थकाममोक्षार्थे , सर्वाभीष्ट सिध्यर्थे जपे विनियोग:(पंचपात्र से थोड़ा जल सामने पात्र मे छोड़े ) ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: - शिरसे । ॐ विहति छन्दसे नम: - मुखे । ॐ श्रीमदेकजटा देवतायै नम: - ह्रदये। ॐ हूँ बीजाय नम: - गुह्ये (फिर हाथ धोए)। ॐ फट् शक्तये नम: - पादयो । ॐ ह्रीं स्त्रीं लकाय नम: - सर्वाङ्गे। 17) करन्यास :- ॐ ह्रां एक्जटाय अंगुष्ठाभ्यां नम:। ॐ ह्रीं तारिण्यै तर्जनीभ्यां स्वाहा । ॐ ह्रूं बज़्रोदके मध्यमाभ्यां वषट्। ॐ ह्रऐं उग्रजटे अनामिकाभ्यां हूम। ॐ ह्रौं महाप्रतिशरे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। ॐ ह्र: पिंग्रोंग्रैकजटे करतलकरपृष्ठाभ्याम् अस्त्राय फट्। 18) अंगन्यास :- ॐ ह्रां एक्जटाय हृदयाय नम:। ॐ ह्रीं तारिण्यै शिरसे स्वाहा । ॐ ह्रूं बज़्रोदके शिखायै वषट्। ॐ ह्रऐं उग्रजटे कवचाय हूम। ॐ ह्रौं महाप्रतिशरे नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ ह्र: पिंग्रोंग्रैकजटे अस्त्राय फट्। 19) तत्वन्यास:- ॐ ह्रीं आत्मतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर पैर से नाभि तक स्पर्श करे ] ॐ ह्रीं विद्यातत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर नाभि से हृदय तक स्पर्श करे ] ॐ ह्रीं शिवतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर हृदय से सहस्त्रसार तक स्पर्श करे ] 20) व्यापक न्यास:- “ह्रीं” मन्त्र से ७ बार 21) माँ उग्रतारा ध्यान:- (कूर्म मुद्रा में) प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासापरा, खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा । खर्वानीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता, जाड्यनन्यस्य कपालिकेत्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं॥ 22) माँ उग्रतारा मानसपूजन:- अपने गोद पर दायीं हथेली पर बाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें- ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि । ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि । ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि । 23)प्राणायाम :- “ह्रीं” मन्त्र से ४/१६/८ । 24)डाकिन्यादि मंत्रो का न्यास:-(तत्वमुद्रा द्वारा) मूलाधार में डां डाकिन्यै नम:। स्वाधिष्ठान में रां राकिन्यै नम:। मणिपुर में लां लाकिन्यै नम:। अनाहत में कां काकिन्यै नम:। विशुद्ध में शां शाकिन्यै नम:। आज्ञाचक्र में हां हाकिन्यै नम:। सहस्रार में यां याकिन्यै नम:। 25) मन्त्र शिखा:- श्वास को रुधकर भावना द्वारा कुलकुण्डलिनी को बिलकुल सहस्रार में ले जाये एवं उसी क्षण ही मूलाधार में ले आये। इस तरह से बार बार करते करते सुषुम्ना पथ पर विद्युत की तरह दीर्घाकार का तेज लक्षित होगा। 26) मन्त्र चैतन्य :- “ईं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ईं ” मन्त्र को हृदय में 7 बार जपे। 27) मंत्रार्थ भावना:- देवता का शरीर और मन्त्र अभिन्न है, यही चिंतन करें। 28) निंद्रा भंग:- “ईं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ईं” मन्त्र को ह्रदय में 10 बार जपे । 29) कुल्लुका:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ” मन्त्र को मस्तक पर 7 बार जपे। 3०) महासेतु:- “हूँ” मन्त्र को कंठ में 7 बार जपे। 31) सेतु:- “ॐ ह्रीं ” मन्त्र को ह्रदय में 7 बार जपे । 32) मुखशोधन:- “ ह्रीं हूँ ह्रीं ” मन्त्र को मुख में 7 बार जपे। 33) जिव्हाशुद्धि:- मत्स्यमुद्रा से आच्छादित करके “हें सौ:” मन्त्र को 7 बार जपे । 34) करशोधन:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ” मन्त्र को कर में 7 बार जपे । 35) योनिमुद्रा मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र पर्यंत अधोमुख त्रिकोण एवं ब्रह्मरंध्र से लेकर मूलाधार पर्यंत उर्ध्वमुख त्रिकोण अर्थात् इस प्रकार का षट्कोण की कल्पना कर बाद मे ऐं मन्त्र का 10 बार जप करे। 36) अशौचभंग:- “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ॐ” मंत्र को हृदय में 7 बार जप करें । 37) मन्त्रचिंता:- मन्त्रस्थान में मन्त्र का चिंतन करे। अर्थात रात्रि के प्रथम दशदण्ड(4 घंटे) में ह्रदय में, परवर्ती दशदण्ड में विन्दुस्थान(मनश्चक्र के ऊपर), उसके बाद के दशदण्ड के बीच कलातीत स्थान में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के प्रथम दशदण्ड के बीच ब्रह्मरंध्र में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के द्वितीय दशदण्ड में ह्रदय में एवं तृतीय दशदण्ड में मनश्चक्र में मन्त्र का चिंतन करे। 38) उत्कीलन :- देवता की गायत्री 10 बार जपे। “ॐ ह्रीं उग्रतारे विद्महे शमशान वासिनयै धीमहि तन्नो स्तारे प्रचोदयात्।” 39) दृष्टिसेतु:- नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में दृष्टि रखते हुए १० बार प्रणव का जप करे। 40) जपारंभ:- सहस्रार में गुरु का ध्यान, जिव्हामूल में मन्त्रवर्णो का ध्यान और ह्रदयमें ईष्टदेवता का ध्यान करके बाद में सहस्रार में गुरुमूर्ति तेजोमय, जिव्हामूल में मन्त्र तेजोमय और ह्रदयमें ईष्टदेवता की मूर्ति तेजोमय, इस तरह से चिंतन करे। अनंतर में तीनों तेजोमय की एकता करके, इस तेजोमय के प्रभाव से अपने को भी तेजोमय और उससे अभिन्न की भावना करे। इसके बाद कामकला का ध्यान करके अपना शरीर नहीं है अर्थात् कामकला का रूप त्रिविन्दु ही अपना शरीर के रूप में सोचकर जप का आरम्भ कर दे। 41) पुन: प्राणायाम:- ह्रीं मंत्र से 4/16/8 42) पुन: कुल्लुका, सेतु, महासेतु, अशोचभंग का जप :- कुल्लुका:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ” मन्त्र को मस्तक पर 7 बार जपे। महासेतु:- “हूँ” मन्त्र को कंठ में 7 बार जपे। सेतु:-“ॐ ह्रीं ” मन्त्र को ह्रदय में 7 बार जपे । अशौचभंग:- “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ॐ” मंत्र को हृदय में 7 बार जप करें । 43) जपसमर्पण :- एक आचमनी जल लेकर निम्न मंत्र पढ़कर सामने पात्र मे जल छोड़ दें - " ॐ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ॥" 44) क्षमायाचना :- अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥१॥ आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२॥ मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥३॥ अपराधशतं कृत्वा जगदंबेति चोचरेत् । यां गर्ति समबाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ॥४॥ सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जग ड्रदानीमनुकंप्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ॥५॥ अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् च । तत्सर्व क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ॥६॥
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जग कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानंदविग्रहे । गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ॥७॥
NOTE;-
देवी भगवती के किसी भी स्तोत्र का पाठ करने के बाद अंत में साधक को दुर्गा क्षमा प्रार्थना का पाठ करना चाहिए। इसके मंत्रो को पढ़ते हुए साधक को अपने द्वारा किये गये पापों के लिए क्षमा मांगनी चाहिए।
क्षमा प्रार्थना ;-
परमेश्वरि ! मेरे द्वारा रात-दिन सहस्रों (हजारों)रों अपराध होते रहते हैं। 'यह मेरा दास है' - यों समझकर मेरे उन अपराधों को तुम कृपापूर्वक क्षमा करो।1। परमेश्वरि! मैं आवाहन नहीं जानता, विसर्जन नहीं जानता तथा पूज करने का ढंग भी नहीं जानता । क्षमा करो।2। देवि! सुरेश्वरि! मैंने जो मन्त्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो।3। सैकड़ों अपराध करके भी जो तुम्हारी शरण में जाकर 'जगदम्ब' पुकारता है, उसे वह गति प्राप्त होती है जो ब्रह्मादि देवताओं के लिए भी सुलभ नहीं है।4। जगदम्बिके! मैं अपराधी हूँ,किन्तु तुम्हारी शरण में आया हूँ। इस समय दया का पात्र हूँ । तुम जैसा चाहो वैसा करो।5। देवि! परमेश्वरि! अज्ञान से, भूल से अथवा बुद्धि भ्रांत होने के कारण मैंने जो न्यूनता या अधिकता कर दी हो, वह सब क्षमा करो और प्रसन्न होओ।6। सच्चिदानंदरूपा परमेश्वरि! जगन्माता कामेश्वरि! तुम प्रेम पूर्वक मेरी यह पूजा स्वीकार करो और मुझ पर प्रसन्न रहो।7। देवि! सुरेश्वरि! तुम गोपनीय से भी गोपनीय वस्तु की रक्षा करने वाली हो। मेरे निवेदन किये हुए इस जप को ग्रहण करो। तुम्हारी कृपा से मुझे सिद्धि प्राप्त हो।8। 45) प्रणाम :- ॐ प्रत्यालीढ़पदेघोरे मुण्ड्माला पाशोभीते । खरवे लंबोदरीभीमे श्रीउग्रतारा नामोस्तुते ॥ 46) जप के पश्चात स्त्रोत, ह्रदय आदि का पाठ करना चाहिए । 47) आसन छोडे:- आसन के नीचे १ आचमनी जल छोडकर दाहिनी अनामिका द्वारा ३ बार “शक्राय वषट” कहकर उसी जल द्वारा तिलक कर तभी आसन छोड़ें। ऐसा नही करने पर इन्द्र आपकी सारी पुण्य को ले जाते हैं । NOTE :- यह क्रिया पूर्णतः तांत्रिक है । किसी कौलचार्य से शाक्ताभिषेक या पूर्णाभिषेक दीक्षा लेकर ही उपरोक्त अनुष्ठान करें तभी फल लाभ की आशा की जा सकती है।उग्रतारा पुरश्चरण मे ९ दिन मे कम से कम १ लाख मंत्र जप होना अनिवार्य है। उग्रतारा देवी के मन्त्र रात्रि के समय जप करने से शीघ्र सिद्धि प्रदान करती है। वे सभी साधकों के लिए सिद्धिदायक है। "कोई भी साधना नेटवर्किंग साइट पर देखकर नही हो सकती। यदि इस प्रकार कोई साधना होती तो सभी सिद्ध हो जाते। साधना संबंधी लेख का तात्पर्य है उक्त देव या देवी के विषय मे ज्ञान प्राप्त करना , उनके विषय मे जानना । साधना करने के लिए सद्गुरु का होना परम आवश्यक है । शक्ति साधना करने के लिए शक्तभिषेक , पूर्णाभिषेक का भी होना परमावश्यक है । " अतएव आप किसी कौलचार्य के मंत्र ग्रहण कर साधना करे तो उसका परिणाम बहुत ही लाभदायक होगा ।"
तारा देवी कवचम;-
ॐ कारो मे शिर: पातु ब्रह्मारूपा महेश्वरी ।
ह्रींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी ।।
स्त्रीन्कार: पातु वदने लज्जारूपा महेश्वरी ।
हुन्कार: पातु ह्रदये भवानीशक्तिरूपधृक् ।
फट्कार: पातु सर्वांगे सर्वसिद्धिफलप्रदा ।
नीला मां पातु देवेशी गंडयुग्मे भयावहा ।
लम्बोदरी सदा पातु कर्णयुग्मं भयावहा ।।
व्याघ्रचर्मावृत्तकटि: पातु देवी शिवप्रिया ।
पीनोन्नतस्तनी पातु पाशर्वयुग्मे महेश्वरी ।।
रक्त वर्तुलनेत्रा च कटिदेशे सदाऽवतु ।
ललज्जिहव सदा पातु नाभौ मां भुवनेश्वरी ।।
करालास्या सदा पातु लिंगे देवी हरप्रिया ।पिंगोग्रैकजटा पातु जन्घायां विघ्ननाशिनी ।।
खड्गहस्ता महादेवी जानुचक्रे महेश्वरी ।
नीलवर्णा सदा पातु जानुनी सर्वदा मम ।।
नागकुंडलधर्त्री च पातु पादयुगे तत: ।
नागहारधरा देवी सर्वांग पातु सर्वदा ।।
ॐ कारा मेरे सिर की रक्षा करें, और महेश्वरी, जो ब्रह्मा का रूप हैं, मेरे सिर की रक्षा करें। बीज रूपी माहेश्वरी हृंकारा मेरे माथे पर मेरी रक्षा करें।लज्जा स्वरूपा देवी महाश्वरी मेरे मुख की रक्षा करें। भवानी का रूप, देवी की शक्ति, मेरे हृदय में मेरी रक्षा करे।समस्त सिद्धियों का फल प्रदान करने वाला फटकरा मेरे पूरे शरीर में मेरी रक्षा करे।मेरे गालों पर विकराल रूप धारण करने वाली नील देवी मेरी रक्षा करें। लम्बोदरी सदैव कानों के जोड़े की रक्षा करें और वह भयावह हो।भगवान शिव की प्रिय देवी शिवा, बाघ की खाल से ढकी मेरी कमर की रक्षा करें।
माहेश्वरी रस्सियों के जोड़े में अपने मोटे और उभरे हुए स्तनों की रक्षा करें।लाल गोल आँखें सदैव कमर की रक्षा करें।जीभ की नाभि में ब्रह्मांड की शर्मीली देवी मां भुवनेश्वरी हमेशा मेरी रक्षा करें।देवी हरप्रिया सदैव लिंग में करालस्य की रक्षा करें तथा विघ्ननाशक देवी जंघाओं में मेरी रक्षा करें।हाथ में तलवार पकड़े हुए, महादेवी, अपने घुटनों पर थी।नीलवर्णा हर समय मेरे घुटनों की रक्षा करे।सर्प कुंडल धारण करने वाली देवी मेरे चरणों में मेरी रक्षा करें।सर्पों का हार पहनने वाली देवी मेरे सम्पूर्ण शरीर पर सदैव मेरी रक्षा करें।
...SHIVOHAM....
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