ज्ञान गंगा-19.....गुरु- शिष्य वार्तालाप
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1-भटकाव से ही ठहराव होता है।मनका- मनका जोड़कर माला मलाई।फिर क्यों मन अशांत है?एक बकरे की जान में और तुम्हारी जान में कोई अंतर नहीं है।क्या अपना आशियाना बनाने के लिए किसी की जान ले लोगे?अपने ही प्राण की तरह उसके प्राणों को भी समझो।अपना काम बनाने के लिए किसी की जान लेना एक राक्षसी प्रवृत्ति है। समय आने पर माता तुम्हें उसका दंड भी देंगी।तुमने माता के लिए बकरे को छोड़ा अब उनकी जिम्मेदारी!तुमने काम बनाने के लिए बकरे को काटा? यह तुम्हारी जिम्मेदारी! और समय आने पर तुम्हें उसका फल भोगना पड़ेगा।
2-उन्ही शब्दों का प्रयोग किया जाता है।जिन शब्दों को तुम जानते हो? शब्द इस संसार का निर्माण भी करते हैं और विनाश भी!अंतर्मन में प्रवेश किया हुआ शब्द एक मृत व्यक्ति को जीवन दे सकता है।और एक जीवित व्यक्ति को मृत बना सकता है।शब्दों का महाजाल है।नवरात्रि चल रहे है.. माता वर्तमान में रहती हैं।इसलिए कभी भी उनसे भविष्य की प्रार्थना मत करो।क्योंकि भविष्य में जब उनका मन होगा.. तो करेंगी ।उनसे यही प्रार्थना करो कि मेरा फसा पैसा मिल गया है। मेरी अज्ञानता का नाश हो गया है।मेरे अष्ट विकार आराध्य के आराध्य में समर्पित हो गए हैं।वर्तमान में प्रार्थना करने से सकारात्मकता प्राप्त होती है।और वह सकारात्मकता अवश्य ही कार्य बनाती है।स्वयं से ही प्रार्थना करो।आत्मा भी तुम परमात्मा भी तुम!सांसों को सांसों में ढलने दो जरा।आंखों में आंखों को उतरने दो जरा।हम तुम,तुम और हम?
3-इस संसार में सभी फूलों को ही चुनना चाहते हैं।फिर कांटों को चुनेगा?चाहे साधना हो या धन ...जो भी चीज आसानी से मिल जाती है, व्यक्ति उसका सम्मान नहीं करता।गुरु के दिए मंत्र को पब्लिक में नहीं बोलना चाहिए।एक ही घर के 10 लोगों को अगर एक ही मंत्र दिया गया है तो उन्हें भी आमने- सामने नहीं बोलना चाहिए।ओम एक सार्वजनिक मंत्र है।परंतु तुम अपने मुख से ओम का मंत्र भी नहीं बोल सकती।अगर व्यक्ति उसका दुरुपयोग करता है तो तुम्हारी उर्जा चली जाएगी और दंड भी तुम्हें ही मिलेगा।पुराने समय में जब गुरु मंत्र देता था;तब घंटे घड़ियाल बजाए जाते थे।सिर के ऊपर कपड़ा डालकर मंत्र दिया जाता था ताकि कोई सुन ना ले।जिस तरह से एक नियम बनाकर एक मां बच्चों को अनुशासित करती है उसी प्रकार से जगत माता भी संतानों को अनुशासित करती हैं ताकि बच्चे अराजक ना हो जाए।
4-ईश्वर प्रेम का अनंत सागर है।संगीत जीवन का आधार है। प्रसन्नता किसी के कहने से या सोचने से नहीं आती।प्रसन्नता आती है अंतर्मन की गहराई से।गहरा विश्वास ,प्रेम ,समर्पण, स्थिरता..जब आ जाती है;तब प्रेम को आकार मिल जाता है।सत्य को भ्रम मत समझो और भ्रम को सत्य मत समझो।जब विचार हीन हो जाओगी तो सत्य और भ्रम का अंतर समझ में आ जाएगा।प्रार्थना के माध्यम से प्रेम को बांटो...उनके लिए जिन्हें तुम जानती हो और उनके लिए भी जिन्हें तुम नहीं जानती हो!प्रेम का दूसरा नाम ही करुणा है।काले रंग से ही सभी रंग बनते हैं।प्रेम को मापा नहीं जा सकता।अपने आराध्य से जुड़े रहना ही अंतर्मन की गहराई से जुड़े रहना है।अंतर्मन की गहराई में सहजता से जाओ...सरलता से जाओ।उस पर विचार मत करो।प्रसन्नता से आनंद मिलता है।आनंद ही परमानंद है और परमानंद ही तुम्हारे आराध्य हैं।
6-स्वयं की खोज ही स्वयं का भोज है।स्वयं की खोज में इतना डूब जाओ कि भूख प्यास सब भूल जाओ।परस्पर प्रेम में भय नहीं होना चाहिए।सभी रंगों का आधार तो काला ही है। साधना में जब हम चरम अंधकार में प्रवेश करते हैं ;तभी तो प्रकाश मिलता है।अंधकार में प्रवेश आपके भाव पर निर्भर करता है कि आप आत्मा का उत्थान करना चाहते हैं अथवा दूसरे का अहित करना चाहते हैं।काले रंग से ही आत्मा का उत्थान होता है और काले रंग से ही दूसरों का अहित भी होता है।श्री कृष्ण पांडवों को सिखा रहे थे कि प्रेम का विस्तार करो।परंतु पांडव यह नहीं कर पाए।वह प्रतिशोध में फंस गए।जहां पर प्रतिशोध है वहां प्रेम कैसे हो सकता है?इसीलिए बाद में वह कृष्ण को ढूंढते ही रहे।हरि को सिखाना था और हर को विस्तार करना था।परंतु जब पांडव हरि को ही नहीं समझ पाए तो हर को क्या समझ पाते?
7-अनंत की यात्रा शुरू हो रही है।परंतु स्वयं का अंत नहीं हो रहा।ईश्वर के चरित्र का स्मरण करने से ही स्वयं का अंत हो सकता है।सर्वत्र आराध्य ही आराध्य है।जियो तो उनके लिए जियो और प्राण छोड़ो तो उनसे मिलन के लिए छोड़ो।तुम्हारी सांसों में ही तुम्हारे आराध्य की सांसे है। उसे महसूस करो!संसार के कण-कण में तुम्हारे आराध्य ही हैं। आराध्य से मिलन को अपनी जिद्द बना लो! परीक्षाएं कठिन होती जाएंगी।परंतु निकल पाओगे या नहीं, यह तो समय बताएगा।अपने अंतर्मन की गहराई में अपने आराध्य को देखो और आनंदित रहो!आनंद ही परमानंद है और परमानंद ही आराध्य।आंखें बंद हो या आंखें बंद करो तो सिर्फ आराध्य ही दिखाई दे।प्रेम को प्रेम बनकर अनुभूति करो तो परमानंद की प्राप्ति होती है।
8-पुत्र या पुत्री संतान में कोई अंतर नहीं होता।सिर्फ अंतर्मन का अंतर होता है।जिन्हें मुक्त करना होता है, उन्हें सिर्फ पुत्री संतान दी जाती है।पुत्री मोह से मुक्त कर देती है और पुत्र मोह में फसा देता है।किसी कन्या को सकारात्मक भाव से देना गलत कैसे हो सकता है?तुम्हारी चीजें सकारात्मक होती हैं।लेकिन जो तुम्हारी चीजों को नकारात्मक भाव से लेता है?तो उसके पास वह चीजें टिकती भी नहीं है।नटराजन मंदिर जाने की प्रबल इच्छा हो जाएगी तो वहां अवश्य पहुंच जाओगे।जब- जब साधना बढ़ती है तो संसार आकर खड़ा हो जाता है।यह सब चलता ही रहता है।उससे बाहर निकलो!जब तुम डिस्टर्ब होती हो तो तुम्हारे साथ जुड़े लोग भी डिस्टर्ब हो जाते हैं।सबको अपने अपने कर्मों के हिसाब से सभी योनियो में जाना पड़ता है।समय के चक्र से कोई नहीं बच पाता...चाहे कोई साधक हो या साधन या कोई साधारण व्यक्ति ।जो दूसरों के दिल को दुखाता है।समय आने पर वही स्वयं उसके साथ भी होता है।जब आराध्य के प्रति कठोर दृढ़ विश्वास होता है;तब कठोर परीक्षा ली जाती है।जो उस कठोर परीक्षा में विश्वास बनाए रहता है।तब उसके बाद भक्त और भगवान दोनों ही एक दूसरे पर विश्वास बनाए रखते हैं ।जो सच्चा भक्त होता है वह कभी इश्वर से मांगता नहीं।वरना बहुत से भक्त तो ईश्वर से लेनदेन करते हैं।जल चढ़ाया तो यह काम हो जाना चाहिए।एक भक्त नकारात्मकता में भी सकारात्मकता ढूंढ ही लेता है।
9-जब एक साधक प्रसन्न रहता है तो उसके पास एक प्रसन्नता का प्रकाश होता है।उस प्रकाश से उसके आसपास रहने वाले भी प्रभावित होते हैं।वैराग्य में रस नहीं होता।परंतु प्रकृति की गोद में रस ही रस होते हैं।साधना का आधार है... प्रेम, विश्वास, समर्पण।तीनों में से एक भी गड़बड़ होता है तो दूसरा अपने आप गड़बड़ हो जाता है।समर्पण कमजोर होता है तो प्रेम कमजोर हो जाता है और प्रेम कमजोर होता है तो विश्वास टूट जाता है।जो हो रहा है उसे देखो।समस्या इसलिए भी हुई है कि प्रेम कमजोर हो गया था।जब प्रेम का आधार कमजोर होता है तो प्रेम का आकार भी कमजोर हो जाता है।उनका प्रेम कमजोर हो गया था इसलिए ऐसा हुआ है।साधना किसी को डिस्टर्ब नहीं करती परन्तु साधना कर्मों का दंड अवश्य देती है।जब प्रेम का आकार मजबूत होता है ..तभी प्रेम आकार लेता है।और तब गलती नहीं होती।यदि गलती हुई तो समझ में आ जाएगा।
स्त्रियों को सिंगार प्रिय है।क्या फूल कभी मुरझाए हुए अच्छे लगते हैं?सच्चा भक्त मांगता नहीं वरना बहुत से भक्त तो ईश्वर से लेनदेन करते हैं।जल चढ़ाया तो यह काम हो जाना चाहिए।
10-यह अंत से अनंत की यात्रा है।इसमें कठिनाइयां तो बहुत हैं।मार्ग पता है, चलते रहो।जीवन का अर्थ जीवन को व्यर्थ समझने में नहीं है।जब कोई व्यक्ति अपने आप को कोसता है तो अप्रत्यक्ष रूप से ईश्वर को ही कोसता है।ईश्वर को भी कष्ट होता है।इसलिए कभी भी स्वयं को कोसना नहीं चाहिए।हमेशा आनंदित रहो।जीवन को ऐसे जियो जैसे जीवन है ही नहीं और जीवन को इस तरीके से वही जी सकता है जो आनंदित हो।अगर किसी को तुमसे बात करके शांति मिल रही है तो यही मानवता है । मानवता और नैतिकता में क्या अंतर है? मानवता हृदय से होती है और नैतिकता दिमाग से।अगर किसी को कष्ट में देखकर तुम्हें कष्ट हो रहा है तो यह मानवता है।और यदि तुम सामान्य हो या तुम्हें कष्ट नहीं हो रहा तो यह नैतिकता है।तुम्हारे मन में यह विचार क्यों आ रहा है कि नहीं सो पाए? क्या तुम ध्यान में जाते ही योग निद्रा नहीं चली जाती थी?योग निद्रा में नहीं चली जाती थी। 8 घंटे की नींद 2 घंटे में ले लेती थी।अगर किसी कारणवश मन को व्यथित कर लिया तो मां चाहे जितनी भी थपकी दें...बच्चा सो नहीं पाता।स्पर्श की अनुभूति सबसे बड़ी होती है।
11-बिन मांगे मोती मिले।मांगे मिले ना भीख। प्रेम में मन की बात कहने की आवश्यकता नहीं होती है।जब स्वयं को जानोगे तो पहचान जाओगेऔर जब स्वयं को पहचान जाओगे तो मान जाओगे।ज्ञान और अनुभूति को एक कर दो।प्रेम का आधार भी प्रेम ही है और प्रेम का आकार भी प्रेम ही है।जीवन को ऐसे जियो जैसे कि है ही नहीं।इसका अर्थ है कि दृष्टा बनकर जियो। कल क्या होगा किसी को पता नहीं ;पर उस पर विचार करने की जरूरत नहीं।कल क्या हुआ था?अथार्त बीता हुआ कल भी नकारात्मकता ही देता है।ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्ति खराब अनुभूति ही याद रखता है ।इसलिए कल क्या हुआ?..भूल जाओ!
आज की.. वर्तमान की खुशी का आनंद लो!प्रेम में अधिकार समझना ही प्रेम का सबसे बड़ा विकार है।प्रेम स्वतंत्र है...मुक्त है।
12-स्वयं का अंत कैसे करे?
स्वयं का अंत करना ही साधना का सार है;साधना का मार्ग है और साधना का त्याग है।त्याग से तात्पर्य है कि जब स्वयं का अंत कर दिया तो आत्मा परमात्मा में विलय हो गई।यही है महावतार बाबा का क्रिया योग।अधिकार मनुष्यता का स्वभाव है।मनुष्यों में विकार कभी कम होते हैं तो कभी ज्यादा।सब में शिव है और सभी शिव है।सभी में शिव भी हैं और शक्ति भी।जब शक्ति प्रसन्न होती है तो शिव प्रसन्न होते हैं।और जब शिव प्रसन्न होते हैं तो पूरा ब्रह्मांड प्रसन्न होता है;सम्मोहित होता है।ना भूतकाल में जाना है और ना ही भविष्य में।भविष्य तुम जानते नहीं।वर्तमान में रहो।भूतकाल में तुम जिनसे भी नाराज हुए हो;उसी समय कल्पना में जाकर उसके कार्यों के लिए उसे माफ करके अपने कार्यों के लिए माफी मांग लो।पैर पकड़ कर माफी मांगनी है।जब तुम किसी को माफ कर देते हो और पैर पकड़ कर माफी मांग लेते हो तो उस चक्र से बाहर निकल आते हो।किसी व्यक्ति ने जो किया है उसका कर्म फल तो उसे ईश्वर देंगे ही!प्रकृति ही देती है और प्रकृति ही लेती है।एक दिन जब उस व्यक्ति की यात्रा पूरी होने का समय आएगा तो वह व्यक्ति भी तुमसे माफी मांगेगा।जैसे ही तुमने ऐसा किया.. तुम्हारी नकारात्मकता समाप्त हो जाएगी।तुम्हारा मन शुद्ध हो जाएगा और स्वयं का अंत हो जाएगा।जब तुम अपने पुत्र और पुत्रवधू में स्वयं को देखने लगो!यहां तक कि एक वृक्ष में भी स्वयं को देखने लगो ..तो समझ लेना स्वयं का अंत हो गया। और आत्मा परमात्मा से एकाकार होने का समय आ गया।जब मन व्यथित होता है तो कोई गीत भी नहीं अच्छा लगता।मन की शुद्धता ही मुक्ति सरोवर है!और यह मुक्ति सरोवर तुम्हारे शरीर के अंदर ही स्थित है।संसार में प्रेम का विस्तार करना ही प्रेम का आधार है।
13-संसार से भागा नहीं जाता..मुकाबला किया जाता है।संसार में जिन चीजों से भागोगे..वो पहले ही सामने आ जाएंगे।
अगर किसी के पैर पकड़कर माफी मांगने में दुख हो रहा है।तो उन्हें अपने आराध्य के चरण मान लो।तब तो तुम उन चरणों को छोड़ोगे ही नहीं।साधना भी कमल के फूल की तरह होती है।जिस तरह कमल के फूल में कितने रंग होते हैं..उसी प्रकार साधना के भी रंग होते हैं।अभी जिनके लिए न्याय समाधान मांग रही हो उनसे माफी मांगने की आवश्यकता नहीं। जब समाधान हो जाए तब विचार करना।मन का शुद्धिकरण करना ही कुंडलिनी साधना है।मन में बसे लोग आते जाते रहते हैं।
परंतु ह्रदय सबसे शुद्ध स्थान रहता है।हृदय में अशुद्धि नहीं होनी चाहिए।वास्तव में हृदय में तो ईश्वर का ही स्थान है।
यदि कोई ऐसी परिस्थिति हो कि मन कहे.. करो! और दूसरा मन कहे कि मत करो।तो क्या करोगी? ऐसी परिस्थिति में ...
यदि कोई विकल्प नहीं है तो अपने आराध्य को समर्पित कर दोगे और दृष्टा बन जाओगे।उसमें दृष्टा बनना ही उचित निर्णय है।
जहां तुमने कोई गलती ही नहीं की है..वहां तो कसकर पैर पकड़ना चाहिए..कि मैंने कोई गलती नहीं की है। फिर भी मैं तुमसे माफी मांगती हूं।
14-यह पंच दिवसीय पर्व है..प्रेम और करुणा का।कोई भी त्यौहार शिव शक्ति के बिना नहीं होता।जीवन में उमंग ही जीवन का रहस्य है।जब जीवन में उमंग होती है तब जीवन में तरंगे होती है।प्रसन्नता ही जीवन का आधार है।सकारात्मक सोच तुम्हारे अंतर्मन को सकारात्मक कर देती है।तब प्रेम का आनंद अंतर्मन की गहराई में फैलता है और नृत्य होता है।प्रेम सकारात्मकता का संचार करता है।प्रेम से जब हम एक निर्जीव वस्तु में भी हाथ फिराते हैं तो वह वस्तु भी सकारात्मक हो जाती है।जिज्ञासा और इच्छा तब मिल जाते हैं।
प्रेम का त्रिशूल।
प्रेम की बांसुरी!
प्रेम का डमरु।
प्रेम का अनहद नाद और प्रेम का ब्रह्मांड!दीपावली प्रेम के आनंद का त्यौहार है।प्रेम को जिओ! प्रेम को पियो!
प्रेम को बहाओ! जो भूल गई हो वह तुम्हारे लिए नहीं था।जब कभी निराश होना तब यह अवश्य ही याद रखना
कि प्रेम प्रसन्नता सिखाता है।साधना है... स्वयं को बदलने की यात्रा।जब हम अनंत से प्रेम करते हैं तो प्रेम में डूबे रहते हैं।
तब हमें ना किसी की बात बुरी लगती है और ना ही किसी की बात दिल दुखाती है।पर साधना के द्वारा ऐसा होने में समय लगता है।सब धीरे-धीरे होता है।
15-इस संसार में ना कुछ अच्छा है और ना ही कुछ बुरा।सभी शिव है।इसलिए ना किसी को आशीर्वाद दो ना किसी को श्राप दो।यह सोचो कि जब वे स्वयं ही शिव है तो हम इन्हें क्या आशीर्वाद दे और क्या श्राप!खुश रहो का आशीर्वाद देना तो अच्छी बात है।यह आशीर्वाद तो वही दे सकता है जो स्वयं प्रसन्न हो।बड़े-बड़े ब्रह्म ज्ञानी भी अंत समय में फंस जाते हैं।ब्रह्म ज्ञान करने का क्या अर्थ है ...ब्रह्मा थोड़ी ही ना हो गए।केवल ब्रह्मा का ज्ञान कर लिया।ज्ञान में फसना है या प्रेम में विलय करना है यह निर्णय आत्मा का होता है।ज्ञान फसाना चाहता है और प्रेम विलय करना चाहता है।प्रेम में कोई तेरह .. 40 दिन नहीं है।प्रेम में हर पल अनंत के साथ हैं।चुनाव आत्माओं को करना होता है।प्रयास निरंतर करने चाहिए।चाहे मन की शुद्धि करनी हो या प्रेम को पाना हो अथवा स्वयं को पाना हैं।
16-अंतर्मन की गहराइयों में प्रवेश करो।वहां के प्रवेश से ही जीवन बदलेगा।विचित्र अनुभूतियां होंगी।क्या अपने अंतर्मन में जाकर तुम किसी से मिल सकते हो?फिर भ्रम क्यों?स्वयं पर विश्वास क्यों नहीं है? अंतर्मन की गहराई का विश्वास क्यों नहीं है?शरीर लेटता है ..मन नहीं!शरीर बैठता है..मन नहीं!मन को बंधन मुक्त करो।जब जब संसार में ज्यादा प्रवेश करोगे...तब -तब इस प्रकार की समस्याएंआएंगी।कुंडलिनी गलत बात बर्दाश्त नहीं करती।कम से कम यही अच्छा है कि तुम ने स्वयं को हर्ट नहीं किया।अगर कोई साधक के प्रति भाव खराब करेगा;तो कोई जाने या ना जाने ;अंदर रहने वाली शक्तियां जान जाती है।लेकिन स्वयं पर नियंत्रण करना अति आवश्यक है।एक साधक के प्रति अगर कोई भाव खराब करता है तो उसका कल्याण प्रारंभ हो जाता है।इसका अर्थ है कि उसका नीचे गिरना प्रारंभ हो जाता है। क्रोध आसुरी प्रवृत्ति है।जब जब क्रोध में जाओगे ;तब तक दिव्यता दूर चली जाएगी।तुम्हारे गुरु ने जो कहा, वह सत्य कहा।माता-पिता को नियम तो बनाने ही पड़ते हैं..समझा दो!समझ ले तो ठीक!वरना समय समझा देता है।मां कभी संतान के लिए गलत नहीं सोचती।...गालियां भले ही दे दे।परंतु संतान पर जब नियंत्रण किया जाता है तो वह सोच लेती है कि यह मर क्यों नहीं जाते?
17-स्पर्श शरीर भाव है।परंतु मिलन आत्मा में होता है। दीपावली की साधना में तुमने जो पाया था वह सब इस समय गवा दिया।अब उसके लिए तुम्हें फिर से मेहनत करनी पड़ेगी।स्वयं पर नियंत्रण रखना आवश्यक है।आपस में बात करने से कम से कम से कम से 1 दिन और बर्बाद नहीं किया।संसार में उतना ही घुसना चाहिए जितना आवश्यक है।एक साधक के लिए यह अति आवश्यक है।तुमने अपने मन को बंधन में बांध दिया है।मन के उस बंधन को.. तुम्हें स्वयं ही तोड़ना होगा।माता और पिता को धैर्य की आवश्यकता होती है। माता-पिता को नियम तो बनाने ही पड़ते हैं..समझा दो!समझ ले तो ठीक!वरना समय समझा देता है।मन के उस बंधन से निकलने के लिए पॉइंट तुम्हें.. समय स्वयं ही देगा।तुम्हारी प्रसन्नता से किसी के प्रेम को आधार मिलता है।और जब प्रेम को आधार मिलता है;तब प्रेम को आकार मिल जाता है।किसी को समझाने के लिए अगर तुम्हें अपने पास्ट में उतरना पड़ा तो यह तुम्हारा परोपकार है..गलती नहीं!एक गुरु को यह करना पड़ता है।अपने आराध्य को अपने हृदय में बसा लो।अच्छाई बुराई से ऊपर उठ जाओ।इसका अर्थ है कि अच्छे कर्म करो!और अच्छाई बुराई की ओर ध्यान मत दो।राम अच्छाई का प्रतीक है तो रावण बुराई का।रावण को क्या दंड दिया गया..यह सब जानते हैं।युगों से राम की पूजा हो रही है और युगों से रावण के साथ क्या हो रहा है... सब जानते हैं।बुरे कर्म का बुरा फल तो मिलता ही है।प्रेम के आधार में जब स्वयं के आधार को मिला दोगी तो तुम्हारा पुनर्जन्म हो जाएगा।स्वयं का आधार क्या है? वह है किसी शत्रु के प्रति भी प्रेम और करुणा के भाव रखना।
18-ईश्वर अनंत प्रेम के पुजारी हैं।जो भी करो और जो भी सोचो! अपने आराध्य के लिए करो और सोचो!कल जहां जा रही हो वहां तुम्हारे आराध्य ने ही बुलाया है।फिर मन विचलित क्यों?स्वयं का निर्माण करो।इसका अर्थ है किअपने अंतर्मन में जाओ।
प्रत्येक क्षण का आनंद लो।सभी ज्योतिर्लिंग भक्ति और शक्ति का प्रतीक हैं।सभी ज्योतिर्लिंग भक्तों के द्वारा ही प्रकट किए गए हैं।इसलिए उनमें भक्तों की भक्ति है और शक्ति भी है।राधा रानी तो अपने शत्रु के लिए भी प्रेम ही रखती हैं।हृदय में तो भोलापन ही होता है।लेकिन माता....माता के दृष्टिकोण से सोचती हैं।संतान अगर गलत करती है तो माता क्या करती है?संतान की कुटाई करती है।इसलिए मूर्ति हटवा दी।वह अपने गुरु के आदेश के बिना कुछ नहीं करते।उनके घर में कलह थी तो उनके घर में प्रेम की स्थापना करवा दी।वास्तव में,उन मूर्तियों में ऊर्जा थी।तो उस उर्जा को संभालने के लिए उसी प्रकार का भक्त भी होना चाहिए।यदि भक्त दुष्ट प्रवृत्ति का है तो फिर उसको परेशानी तो उठानी ही पड़ेगी।यदि मन को विचलित किया
तो उसी प्रकार के सपने आएंगे।यदि मन को आनंदित किया तो उस प्रकार के सपने आएंगे।कुंजी तुम्हारे हाथ में है।
19-यह यात्रा अनंत प्रेम की यात्रा है।अनंत प्रेम में बस जाओ!यात्रा के लिए कुछ भी समान रखो तो यह सोच कर के रखो किअनंत प्रेम के लिए रखना है।शांत रहो, मन को एकाग्र करें।एकाग्र मन में संयम आ जाता है।अंतर्मन की यात्रा भाव विभोर होकर प्रेम में डूब जाने की यात्रा है।रास करना साधना का अंतिम पड़ाव है।काम चोरी तो प्रारब्ध में है ।यह सत्य की यात्रा है।
यदि भ्रम मान लिया तो भ्रम है। और सत्य मान लिया तो सत्य है। प्रेम की धड़कन सुने बिना नींद नहीं आती।शालिग्राम और शिवलिंग दोनों एक ही है।एक में त्रिशूल है और एक में चक्र है।परंतु दोनों ही एक है।दोनों में भेद नहीं करना चाहिए।
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1-प्रेम और भक्ति में संतुलन होना चाहिए।वृंदावन प्रेम की जगह है और बालाजी भक्ति की जगह।वह सत्य है.. जो नित्य है और जो सत्य है वह अप्रत्यक्ष है।सत्य में दृष्टि नहीं होती केवल उसकी अनुभूति होती है।हृदय तो केवल प्रेम जानता है।मन को अच्छा बुरा पता होता है।मन की गहराई नहीं होती और हृदय की सीमा नहीं होती।हृदय के प्रेम को बांधा नहीं जा सकता।हृदय के प्रेम की गहराई में उतरते जाओ।जब गहराई में उतर जाओगी तो अप्रत्यक्ष भी प्रकट हो जाएगा।पुराणों में लिखा है भगवान ने दर्शन दिए।दर्शन उन्हें ही हुए जिनकी अनुभूति की गहराई बढ़ चुकी थी।जब अनुभूति की गहराई बढ़ जाती है तो प्रत्यक्ष भी अप्रत्यक्ष हो जाता है।इसलिए अनुभूति की गहराई में उतरते जाओ।
2-नियति से प्रीति कर लो। वर्तमान में रहो।प्रेम पूरे ब्रह्मांड की कुंजी है। प्रेम तो स्वयं में ही भरा हुआ है।ज्ञान वह क्रिया है
जो तुम्हारे प्रतिक्रिया करने के ढंग को ,तुम्हारे भाव को ..बदल सकती है।और प्रेम वह प्रक्रिया है जो तुम्हारे आधार को
बदल सकती है।उसने वह किया जो उसकी आत्मा ने कहा।तो जो आत्मा ने कहा, वह गलत कैसे हो सकता है? उसके फैसले की वैल्यू रही हो या ना रही हो परंतु उसने काम तो वही किया जो उसकी आत्मा ने कहा।बात वैल्यू की है या आत्मा की आवाज सुनने की? प्रेम की गहराई को समझना है।जो प्रेम की गहराई को पकड़ लेते हैं.. उनका मन कभी बेचैन नहीं होता।प्रेम की अनुभूति अच्छी ही होती है।परंतु मन जीने नहीं देता।
3-प्रेम भी प्रकृति से...।
जीवन भी प्रकृति से...।
और अनंत भी प्रकृति से...।
प्रेम सब तालो की कुंजी है।प्रेम से किसी भी लोक का दरवाजा खुल जाता है।प्रेम अगर आधार है, तो सारे विकार दूर हो जाते हैं।अनंत की यात्रा में मार्गदर्शन दिया जाता है। जो आवश्यक होता है वह प्रत्यक्ष हो जाता है।और जो अनावश्यक होता है वह प्रत्यक्ष होते हुए भी अप्रत्यक्ष हो जाता है।प्रार्थना ही एक मार्ग है...पेड़ों की उन अनंत आत्माओं के लिए।सभी ईश्वर पर समर्पित कर दो।प्रेम अगर आधार है तो सारे विकार दूर हो जाते हैं।अनंत की यात्रा में मार्गदर्शन दिया जाता है।
4-यदि समय से पार जाना है तो प्रत्येक क्षण का आनंद लो।यदि प्रत्येक क्षण का आनंद नहीं लिया तो वह पास्ट हो जाएगा और कुछ भी देने नहीं लायक नहीं होगा।आनंद से परमानंद में जाओ।जब तुम अंतर्मन में अपने आराध्य से बातें कर रहे हो?आराध्य में खोए हुए हो ;उनके प्रेम में डूबे हो..तो तुम परमानंद में हो।जो परमानंद में है वह समय से पार है।कुछ चीजें समय पर छोड़ देना जाती चाहिए।
....SHIVOHAM....
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