तत्व ज्ञान का क्याअर्थ है?भारतीय अवैदिक दर्शनों का विकास का क्या अर्थ है ?
वैदिक दर्शन;-
05 FACTS;-
1-वेद पुरातन ज्ञान विज्ञान का अथाह भंडार है। इसमें मानव की हर समस्या का समाधान है।एक ग्रंथ के अनुसार ब्रह्माजी के चारों मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई।... वेद सबसे प्राचीनतम पुस्तक हैं।वेद ईश्वर द्वारा ऋषियों को सुनाए गए ज्ञान पर आधारित है इसीलिए इसे श्रुति कहा गया है। सामान्य भाषा में वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है।
2-ईश्वर के संबंध में वेद में बहुत ही विस्तार रूप में प्रकट किया गया है। वेद का सर्वप्रथम ज्ञान चार ऋषियों ने प्राप्त किया अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य। वेद तो एक ही है जिसे ऋग्वेद कहा गया। ऋग्वेद के ज्ञान को ही बाद में भगवान राम के काल में तीन भागों में विभाजित किया गया। इसे ऋषि पुरुरवा ने जब विभाजित किया, तब उसे वेदत्रयी के नाम से जाना जाने लगा।
3-इसके बाद महाभारत काल में 14वें वेद व्यास हुए जिनका नाम कृष्ण द्वैपायन था, उन्होंने वेद को चार भागों में विभाजित कर उसके ज्ञान को व्यवस्थित किया। ये चार भाग हैं:- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।
वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।
4-वेदों के उपवेद :-
ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।
वेद के चार विभाग है... ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गतिशील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।
5-वेद के चार विभाग ;-
04 FACTS;-
1-ऋग्वेद :-
02 POINTS;-
1-ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है। इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 11 हजार मंत्र हैं। इस वेद की 5 शाखाएं हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है।
2-इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है।ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है।इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है।औषधि में सोम का विशेष वर्णन है।ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है।
2-यजुर्वेद :-
02 POINTS;-
यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यदु का अर्थ ‘यज्ञ’ होता है। इस वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है।
2-तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रह्माण, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान।यजुर्वेद ऐसा वेद है जिसे गद्य और पद्य दोनों में लिखा गया है।यजुर्वेद कर्मकांड प्रधान ग्रंथ है। इसका पाठ करने वाले ब्राह्मणों को ‘अध्वर्यु‘ कहा जाता है।यजुर्वेद में दो शाखा हैं : दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा।
3-सामवेद :-
साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं।इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं।
4-अथर्वदेव :-
थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कर्म करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसके 20 अध्यायों में 5687 मंत्र है। इसके आठ खण्ड हैं जिनमें भेषज वेद और धातु वेद ये दो नाम मिलते हैं।
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तत्वज्ञान का क्या अर्थ है?-
'त' अर्थात परमात्मा , 'त्व 'अर्थात जीवात्मा ! जीवात्मा और परमात्मा के एक होने पर ही तत्व ज्ञान होता है! तत्व ज्ञान बोध कराता है कि सृष्टि का सार तत्व क्या है, निर्माण का रहस्य क्या है और हमारे अस्तित्व के उद्देश्य अर्थात आत्मा के सत्य से हमें परिचित कराता है।तत्व ज्ञान को सहज करने के लिए पांच भागो में सत्य को विभक्त किया गया है -
1-परमात्मा
2-प्रकृति
3-जीव
4-समय
5-कर्म
तत्वज्ञान का वर्णन ;-
05 FACTS;-
1-परमात्मा;-
04 POINTS;-
1-परमात्मा स्वतंत्र है , परम शुद्ध और समस्त गुणों से परे है।वह सृष्टि के रचियता , संरक्षक और विनाशक है ।परमात्मा पर समय और स्थान का बंधन नहीं होता है वह सर्वव्यापी और अविनाशी है।जो पूर्ण है वही परमात्मा है... जो अपूर्ण है वह परमात्मा हो नहीं सकता। परमात्मा कोई वस्तु, व्यक्ति , देवता या प्रेषित भी नहीं है..क्योंकि ये सब स्थल और समय से बंधे हुए है। परमात्मा स्थल और समय से परे है।.
2-ऐसा कोई समय नहीं था, जब परमात्मा का अस्तित्व नहीं था और ऐसा कोई समय नहीं आयेगा जब परमात्मा का अस्तित्व नहीं होगा। वो कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ परमात्मा न हो। परमात्मा कोई अलग चीज है हीं नहीं... ये सारी सृष्टि ही परमात्मा है। बाकी जो भी चल अचल, दृष्टिगोचर अदृष्टिगोचर, शास्वत अशास्वत, मर्त्य अमर है, वह सब परमात्मा के अवयव है।
3-जैसे सागर का पानी मेघ बनकर बरसता है ।वो पानी पर्वत पहाडों से नदी नालो मे और फिर नदियों में मिल जाता है फिर वही नदियाँ वापस सागर में मिल जाती है। वैसे ही हर एक जीव परमात्मा से उत्पन्न होता है, और मृत्यु के बाद फिर परमात्मा में ही विलीन होता है ।इसलिए ना परमात्मा हमसे कोई अलग चीज है ना हम परमात्मा से अलग है। उपनिषदों ने कहा है "एकोहंम बहुस्याम" ब्रह्म एक था, उसमे इच्छा हुई एक से अनेक होने की, और इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई। यही शंकराचार्य का "अद्वैत" है । परमात्मा को प्राप्त करने के लिए उसको जानना जरूरी है।
4-जैसे एक बीज 🌱अंकुरित होता है और उससे तने, डालियाँ, पत्ते, फूल निर्माण हो कर एक पूर्ण पेड़ तयार होता है। लेकिन अगर कोई तना या डाली अपने आपको पेड़ से अलग समझ ले या फिर अपने आपको ही संपूर्ण पेड़ समझ ले तो यह उनका अज्ञान है। इसी अज्ञान के
कारण मनुष्य परमात्मा को जान नहीं पाता। इस अज्ञान को दूर करके "शिवोऽहम्" भाव जागृत होने पर ही परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। परमात्मा को प्राप्त करने का कोई एक साधन नहीं है ।और हम लोग तो साधनों में ही उलझ गये और साध्य को हीं भूल गये। हमारा लक्ष्य उस अंहकार को मिटाना है जिसके कारण अज्ञान निर्माण हुआ है।शुरुआत "कोऽहम" से करनी है ताकि अंत "शिवोऽहम्" में हो जाए।.
2-प्रकृति;-
07 POINTS;-
1-ईश्वर से ही जीव और प्रकृति की उत्पत्ति हुई है।प्रकृति को शक्ति भी कहते है। इस प्रकृति अर्थात शक्ति के दो रूप है - अविद्या और विद्या। अविद्या प्रकृति का निम्न स्वरुप है और विद्या प्रकृति का उच्चतम स्वरुप है।अविद्या को अपरा विद्या और विद्या को परा विद्या के नाम से भी जाना जाता है।
2-प्रकृति के अविद्या स्वरुप को ही माया कहते है।माया अर्थात जो सत्य नही किन्तु सत्य प्रतीत होता है वही माया है ! ईश्वर को सृष्टि की रचना के लिए अपनी माया रुपी शक्ति का ही आश्रय लेना पड़ता है। प्रकृति का स्वभाव जड़ है अर्थात प्रकृति स्वयं से कुछ निर्माण नहीं करती है । प्रकृति को गति, चेतना से अर्थात परमात्मा के संकल्प से प्राप्त होती है । जब सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हुई होती है तो ईश्वर की यह दिव्य शक्ति साम्यावस्था में रहती है अर्थात इसके तत्व सत्व रज और तम समान मात्रा में उपस्थित रहते है।
3-ईश्वर जब सृष्टि की रचना का संकल्प लेते है तब इन तत्वों में विषमता उत्पन्न होती है। सत्व रज और तम के विभिन्न आनुपातिक संयोग सृष्टि को विभिन्नता प्रदान करते है।सृष्टि के आदिकाल का प्रथम तत्व तमस है।तम से ही क्रमिक रूप से आकाश तत्व, आकाश से वायु, वायु से अग्नि , अग्नि से जल और जल से पृथ्वी तत्वों की उत्पत्ति होती है जिससे समस्त सृष्टि का प्रादुर्भाव होता है। पञ्च भूत तथा इन्द्रियों के भोग के विषय अर्थात रूप रस गंध, स्पर्श शब्द यह सब अविद्या माया के स्वरुप है । इस संसार में जो भी इन्द्रियों द्वारा अनुभूत किया जा सकता है सब माया के अंतर्गत आता है।
4-माया ईश्वर की अद्वितीय शक्ति है और यह संसार में ऐसे समाई हुयीं है जैसे गर्मी/उर्जा के साथ अग्नि ! अगर अग्नि में से समस्त ऊष्मा को निकाल लिया जाये तो उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता है ! जिस तरह ताप के बिना अग्नि की कल्पना नहीं कर सकते उसी प्रकार ईश्वर की माया भी ऐसी ही शक्ति है जिसके बिना संसार की कल्पना करना भी असंभव है ! अविद्या माया के कारण मनुष्य के अहंकार की पुष्टि होती है और अहम् के साथ इर्ष्या, लोभ , क्रोध इत्यादि का भी जीवन में प्रवेश हो जाता है । माया के कारण ही मनुष्य नाशवान संसार को सत्य मानकर भौतिकता में उलझा रहता है। अविद्या अज्ञान पैदा करती है जो ईश्वर को भुला देती है !
5-जीव आत्मा ईश्वर का ही अंश है किन्तु माया का प्रभाव दिव्य गुणों को आच्छादित कर अज्ञान को पैदा करती है जो जीव को संसार की ओर उन्मुख कर ईश्वर से दूर कर देता है।
परा विद्या को ब्रह्म विद्या भी कहते है क्योकि विद्या रूप में शक्ति जीव के अन्दर सद्गुणों को विकसित करती है और सत्संग की इच्छा ज्ञान भक्ति प्रेम वैराग्य जैसे गुण प्रदान कर ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग दिखाती है। इन गुणों का विकास होने पर जीव ईश्वर दर्शन का अधिकारी होता है ! विद्या रुपी शक्ति जीव में ईश्वरत्व की अनुभूति करा कर उसको स्वतंत्र और सामर्थ्यवान बनाती है। 6-आदि शक्ति का अविद्या रूप भी आवश्यक है। जिस तरह किसी भी फल का छिलका रहने पर फल बढता है और फल जब तैयार हो जाता है तो छिलका फेंक देना पड़ता है ! इसी तरह माया रूपी छिलका रहने पर धीरे- धीरे मर्म ज्ञान होता है ! जब ज्ञान रुपी फल परिपक्व हो जाता है तब अविद्या रूपी छिलके का त्याग कर देना चाहिए। प्रकृति की कोई भी बाधा वास्तव में बाधा नहीं होती जो भी बाधा दिखाई पड़ती है वह शक्ति को जगाने की चुनौती होती है !
7-उदाहरण के लिए बीज को जमीन में दबाने पर मिटटी की परत, जो बीज के ऊपर दिखती है, बाधा की तरह दिखाई देती है किन्तु सत्य तो यह होता है की जमीन बीज को दबा कर उसे अंकुरित होने में सहायता करती है ! इसलिए शक्ति के दोनों रूप आवशयक है। बंधन और मुक्ति दोनों ही प्रदान करने वाली.. 'आदि शक्ति' है । उनकी माया से संसारी जीव माया में बंधा होता है, पर उनकी दया हो जाये तो वह बंधन से छूटने में सहायता भी करती है । यही कारण है कि माया के प्रभाव से मुक्त होने के लिए देवी की आराधना की जाती है। 3-जीवात्मा
आत्मा के दो रूप होते है - एक तो सार्वभौम सर्वोच्च आत्मा और दूसरी विशेष व्यक्तिगत आत्मा अर्थात जीव आत्मा। आत्मा अपने सर्वोच्च रूप में अकर्ता, अभोक्ता , अपरिवर्तनशील,शाश्वत , अजन्मा, अविनाशी, और समस्त विश्वो का सार है। जीवरूप में आत्मा को परिवर्तनशील, अनित्य,कर्मो का सम्पादन करने वाला और उनके फलो का भोग करने वाला, पुनर्जनम लेने वाला, और शरीर में सीमित माने गया है। वस्तुत जब अविद्या के कारण आत्मा शरीर से सम्बंधित हो जाता है तो वह जीव आत्मा कहलाता है।
4-समय;-
04 POINTS;-
1-समय निर्बाधगति से निरंतर चलता रहता है। वर्तमान में प्रयुक्त हो रहे समय के मानक मनुष्य ने अपनी सुविधा के अनुसार बनाये है किन्तु इन मानको का आधार सूर्य आदि ग्रह ही है। हर गृह की गति भिन्न होती है और यही विभिन्न गतियाँ समय में भिन्नता प्रतीत कराती है। उदाहरण के लिए एक दिन और रात्रि का निर्धारण सूर्य और पृथ्वी की घूर्णन गति और उनकी सापेक्ष स्थिति पर निर्भर है। इसी तरह चंद्रमा की स्थिति के आधार पर शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष का निर्धारण किया जाता है।
2-मौसम का परिवर्तन और धरती पर होने वाली अन्य घटनाये ग्रहों के कारण ही घटित होती है। ज्योतिष विज्ञान में विभिन्न घटनाओ का समय निर्धारण का आधार भी गृह नक्षत्र और
उनकी विभिन्न गतियाँ है।समय दो रूपों में अभिव्यक्त होता है - पदार्थ परक और व्यक्तिपरक। पदार्थ परक समय वह समय है जो सबके द्वारा मानी है जैसे घड़ी में सेकंड मिनट और घंटे का समय। व्यक्ति परक समय वह समय होता है जो मन को महसूस होता है। उदाहरण के लिए दुःख का समय मन को अधिक लम्बा प्रतीत होता है। 3-समय के और सुविधाजनक प्रयोग के लिए उसे तीन भागों में विभक्त करते है - वर्तमान, भूत और भविष्य। समय का वह भाग जो हम उसी क्षण अनुभव करते है वर्तमान कहलाता है। यह समय अत्यंत अल्प होता है। उदाहरण के लिए जो विचार अथवा कर्म जिस पल आता है वर्तमान होता है । उस पल के ख़त्म होते ही वह जो समाप्त हो गया भूतकाल कहलाता है। काल का वह भाग जो अनुभव में अभी नहीं आया है भविष्य कहलाता है।
4-इस सृष्टि के अन्दर की समस्त वस्तुए चाहे वह जड़ हो अथवा चेतन समय के द्वारा प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए मनुष्य , जंतु वृक्ष इत्यादि सब जन्म लेने के उपरांत विभिन्न स्थितियों को प्राप्त करते है जैसे बचपन, यौवन अवस्था और वृद्ध अवस्था । इसी प्रकार घर जो की निर्जीव वस्तुओ के प्रयोग से बना होता है किन्तु वह भी समय व्यतीत होने पर क्षीणता को प्राप्त होता है। हर वस्तु अथवा व्यक्ति अपने गुण और धर्म के अनुसार समय से प्रभावित होता है। जैसे पत्थर में परिवर्तन के लिए अधिक समय की आवश्यकता होती है किन्तु पुष्प कम समय में प्रभावित हो जाते है।
5-कर्म;-
06 POINTS;-
1-यह सम्पूर्ण प्रकृति कर्म नियम द्वारा ही संचालित है। व्यक्ति को अपने किये गए कर्म का फल अवश्य मिलता है क्योंकि बिना भोगे कर्म के फल का नाश नही होता । कर्म का फल यदि किसी कारण से इस जनम में नही भोग पाये तो वह अगले जनम में भोगना पड़ता है।
कर्म गुणवत्ता के आधार पर मुख्यतः दो प्रकार के होते है। वह कर्म जो की फल की प्राप्त करने की आशा में किये जाते है सकाम कर्म कहलाते है। इस प्रकार के करम ही व्यक्ति को सुख और दुःख देते है । किसी भी करम करने के पीछे व्यक्ति का स्वार्थ छिपा होता है तो वह सकाम कर्म कहलाता है।
2-सकाम कर्मो के दो भेद होते है सत्कर्म और दुष्कर्म ।मनुष्य दिव्य प्राणी तो है परन्तु उसमे असत का भी तत्व है जो उसे बुराई का शिकार होने देता है। अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए जब अशुभकर्म किया जाता है उदहारण के लिए धन प्राप्ति के लिए झूठ बोलना , वह दुष्करम कहलाता है। अपने सुख के लिए जब दान पुण्य इत्यादि किये जाते है तो वह सत्कर्म किये जाते है। यह सत्य है कि सत्कर्म शुभ होते है लेकिन वह मोक्ष दायक नहीं होते है। क्यूंकि फल प्राप्ति की इच्छा से जो भी क्ररम किये जाते है वह सदैव बंधनकारी होते है। वह कर्म जिन्हें व्यक्ति अपना कर्त्तव्य समझ कर बिना फल प्राप्ति की इच्छा से करता है वह निष्काम कर्म कहे जाते है। ऐसे करम व्यक्ति को बंधन में नहीं बांधते है एवं मोक्ष दायक होते है।
3-कर्म उसके फल के दृष्टिकोण से तीन प्रकार के होते है ....
संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म, क्रियमाण कर्म। 3-1-संचित कर्म ;-.
किसी मनुष्य के द्वारा वर्तमान समय में किया गया जो कर्म है चाहे वह इस जनम में किया गया हो अथवा पूर्व जनम में, वह उसका संचित कर्म कहलाता है। व्यक्ति द्वारा किये गए समस्त कर्मो का संग्रह संचित कर्म होते है। 3-2-प्रारब्ध कर्म ;--
संचित कर्मो का फल भोगना प्रारंभ हो जाता है तो उन्हें प्रारब्ध कर्म कहते है। 3-3-क्रियमाण कर्म; -
जो कर्म वर्तमान काल में हो रहा है या किया जा रहा है उसे क्रियमान कर्म कहते है। ये क्रियमाण कर्म ही भविष्य में संग्रहित हो कर संचित कर्म बनते है और संचित कर्म ही फिर भविष्य में प्रारब्ध कर्म बनते है।
4-कर्म क्रियान्वय की दृष्टि में तीन प्रकार से निष्पादित होते है - शारीरिक , मानसिक और वाचिक । शारीरिक कर्म ज्ञानेन्द्रियो द्वारा देखे जा सकते है जैसे भवन का निर्माण इत्यादि कार्य।मानसिक कर्म में विभिन्न विचारो का चिंतन, कल्पनाशीलता और इच्छाओ आदि का समावेश होता है । वाचिक कर्म वह होते है जो वाणी द्वारा संपादित किये जाते है। जैसे भवन निर्माण में मुख्य शिल्पिकार वाणी का प्रयोग कर दिशा निर्देश करता है । शारीरिक कर्म किसी न किसी रूप में चिन्हित किये जा सकते है। यदि कोई व्यक्ति ह्रदय रोग से पीड़ित होता है तो यह अनुमान स्वभावतः आता है कि आहार और विहार का ध्यान नहीं रखा गया है। वाणी द्वारा किये गए कर्म भी कुछ समय तक अनुभव किये जा सकते है जैसे किसी पर यदि कटु शब्दों का प्रयोग किया जाये तो कहने वाले और सुनने वाले दोनों पर इसका प्रभाव स्पष्ट रहता है। इन दोनों के विपरीत मानसिक कर्मों के उद्गम को चिन्हित करना अत्यंत कठिन होता है क्योकि मन का क्षेत्र अत्यंत विशाल होता है।
5-कर्म के समस्त रूप कम या अधिक मात्रा में एक दुसरे में निहित होते है। उदाहरण के लिए विद्याध्यन मुख्यतः मानसिक कर्म है । यद्यपि बैठना भी एक प्रकार का शारीरिक कर्म है किन्तु इसमें शारीरिक श्रम कम मात्रा में होता है। अध्ययन यदि अच्छी पुस्तको का किया जाये तो सत्कर्म हो जाता है किन्तु यदि विषय आत्मा की उन्नति के अनुकूल नहीं हो तो यही कर्म दुष्कर्म बन जाता है। बचपन में किया हुआ अध्ययन संचित कर्म के रूप में एकत्र होता है और युवावस्था में व्यवसाय में सहयोग कर उसका फल प्रदान करता है। 6-कर्म को सक्रिय रूप अदृश्य मानसिक इच्छाए देती है. अतः कर्म की गुणवत्ता सत्व , रज और तम प्रवृत्ति अर्थात इच्छा के अनुसार होती है। मनुष्य की वर्तमान प्रकृति अर्थात स्वाभाव का आधार पूर्व जन्म के कर्म होते है। कुछ कर्म जिनका फल किसी कारणवश वर्तमान में नहीं मिल पाता है वह मनुष्य के कार्मिक खाते में बीज रूप में जमा हो जाते है और समय आने पर प्रवृत्ति और परिस्थितियों के रूप में फल देते है।जब तक सभी कर्मो का फल प्राप्त नहीं कर लिया जाता कर्म और फल को संतुलित नहीं कर लिया जाता , जन्म और मरण की प्रक्रिया चलती रहती है।
ईश्वर , समय , जीव , कर्म और प्रकृति में समन्वय ;-
02 POINTS;-
1-जैसे जल बिना किसी प्रयोजन के नीचे की और ही बहता है क्यूंकि नीचे की और बहना पानी की प्रकृति है। वैसे ही सृष्टि रचना करना ब्रह्म की प्रकृति है। जीवात्मा का वास्तविक स्वरुप ब्रह्म है ।ब्रह्म ही सर्वोच्च आत्मा है। लेकिन अज्ञानवश जीवात्मा को यह अहम् होता है की वह ब्रम्ह से पृथक अपना अलग अस्तित्व रखता है। इसी अज्ञान के कारण वह संसार के बंधन में बंधता है।
2-आत्मा का यह कर्तत्व और भोगत्व प्रकृति के गुणों के साथ उसके संयोगके कारण उत्पन होता है। आत्मा अकर्ता होते हुए भी माया के ही कारण अहम् भाव से प्रकृति की क्रियाओं में स्वयं को कर्ता मान लेता है और विभिन प्रकार के कर्म करने में व्यस्त हो जाता है। यद्यपि वह अपने यथार्थ स्वरुप में न वह करता है न भोगता है... केवल दृष्टा है।किन्तु अहंकार के कारण कर्म पर भाव आरोपित करने के कारण वह उन कर्मो का भोक्ता बन जाता है। यह कर्म का नियम है की जो करता है वह ही फलो को भोगता भी है।
3-जिस प्रकार किसी व्यक्ति के बाहरी कार्य शरीर के द्वारा किये जाते है किन्तु उन कार्यो पर नियन्त्रण बुद्दि करती है उसी तरह जीव के द्वारा किये हुए कार्यो का नियमन परमात्मा करता है ! यद्यपि ईश्वर का यह अनुमोदन जीव की इच्छा के अनुसार ही होता है ! कोई जीव यदि बुरा कर्म करना चाहता है तो भी ईश्वर उसको उसी दिशा में अनुमति प्रदान कर देता है ! ईश्वर का यह नियमन जीव के द्वारा भूतकाल के में किये गये कर्मो के आधार पर होता है ! यद्यपि कर्मो का जीव स्वामी है किन्तु कर्मो के फल का अधिकार इश्वर को है। जीव स्वयं अपने कर्म के फल को निर्धारित नही कर सकते ! क्योकि यदि जीव को यह स्वतंत्रता मिल जाये तो वह केवल अच्छे फलो का ही भोग लेंगे और बुरे कर्म दूसरो पर आरोपित कर देंगे ! इसके कारण सम्पूर्ण सृष्टि के असंतुलित हो जाएगी ।
4-प्रकृति भी स्वभावतः जड़ होने के कारण कर्म फलो की व्यवस्था नही कर सकती ! कर्म स्वयम में जड़ है। अतः यह भी अपने आप संचालित नहीं होते। केवल परमात्मा ही जीवो के कर्मफल के भोग की व्यवस्था करता है। इन कर्मो का प्रथम गतिदाता स्वयं ब्रम्ह है। वह एक बार कर्मो का संचालन करके फिर स्वयम उससे निवृत्त हो जाते है। सृष्टि संचालन के लिए ब्रह्म एक तत्व का दूसरे तत्व से संयोग करवा देते है। अतः कर्मो में प्रथम गति सृष्टि के प्रारंभ करने के बाद वह जीवात्मा पर छोड़ देता है कि अब उसे कौन से कर्म करने है। मनुष्य की स्वतंत्रता केवल कर्म का चुनाव करने में स्वीकार की गयी है।
5-जीवात्मा को अपने निर्णयों से कर्म का चुनाव कर्म स्वातंत्र कहलाता है। किन्तु कर्म के फलो का अधिकार सिर्फ ईश्वर के पास ही है। ऐसा नहीं हो सकता की जीव कर्म कुछ और करे और फल उसे कुछ और मिले। जिस प्रकार आम पक कर अपने स्वभाव से आम ही बनता है अनार नहीं उसी प्रकार जीव को वही फल मिलता है जो उसने किया और ईश्वर उसे उसका फल प्रदान करते है। कर्म के सहारे ही जीव इस संसार व् संसारिकता से सम्बंधित होता है। मृत्यूपरांत शरीर के समस्त तत्व सृष्टि के उन तत्वों में विलीन हो जाते है जिनसे वह बने होते है किन्तु कर्म ही ऐसे होते है जिनका नाश नहीं होता। और यही पुनर्जनम का आधार बनते है।
6-कर्मों का फल ईश्वर समयानुसार दो गुणों के आधार पर देते है - प्रथम कर्म की तीव्रता एवं गुणवत्ता, द्वितीय जीव की पात्रता और सहन करने की क्षमता । यही कारण है कि समस्त कर्मो का फल तत्काल नहीं मिलता है ।कुछ कर्म जो बलवान नहीं होते है, तुरंत फलदायी होते है। कुछ कर्म जो बलवान तो होते है किन्तु उनके फलीभूत होने के लिए परिस्थितिया नहीं होती है वह फल देने में समय लेते है। कुछ कर्मो का फल क्षणिक होता है और कुछ फल दीर्घकाल तक भोगने पड़ते है।
7-यह समय कर्म और मनुष्य संकल्प् अर्थात इच्छा शक्ति के आधार पर निर्धारित होता है। जैसे क्षुधा शांत करने के लिए भोजन से कुछ समय की शांति होती है और उसके लिए पुनः कर्म करना पड़ता है। किन्तु नौकरी प्राप्त करने हेतु लम्बे समय तक अध्ययन करना पड़ता है और उसके परिणाम भी दीर्घकालिक होते है। जब कर्म के शारीरिक , मानसिक और वाचिक तीनो रूपों की उर्जा को संकल्पशक्ति की सहायता से एक लक्ष्य की प्राप्ति में संचालित की जाती है तो फल अधिक शुभ और स्थायी परिणाम देने वाले होते है।
अवैदिक दर्शनों का विकास;-
04 FACTS;-
1-उपनिषदों के अध्यात्मवाद तथा तपोवाद में ही वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध एक प्रकट क्रांति का रूप ग्रहण कर लिया। उपनिषद काल में एक ओर बौद्ध और जैन धर्मों की अवैदिक परंपराओं का आविर्भाव हुआ तथा दूसरी ओर वैदिक दर्शनों का उदय हुआ। ईसा के जन्म के पूर्व और बाद की एक दो शताब्दियों में अनेक दर्शनों की समानांतर धाराएँ भारतीय विचारभूमि पर प्रवाहित होने लगीं। बौद्ध और जैन दर्शनों की धाराएँ भी इनमें सम्मिलित हैं।
2-जैन धर्म का आरंभ बौद्ध धर्म से पहले हुआ। महावीर स्वामी के पूर्व 23 जैन तीर्थकर हो चुके थे। महावीर स्वामी ने जैन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध उनके समकालीन थे। दोनों का समय ई.पू. छठी शताब्दी माना जाता है। इन्होंने वेदों से स्वतंत्र एक नवीन धार्मिक परंपरा का प्रवर्तन किया। वेदों को न मानने के कारण जैन और बौद्ध दर्शनों को "नास्तिक दर्शन" भी कहते हैं।
3-इनका मौलिक साहित्य क्रमश: महावीर और बुद्ध के उपदेशों के रूप में है जो क्रमश: प्राकृत और पालि की लोकभाषाओं में मिलता है तथा जिसका संग्रह इन महापुरुषों के निर्वाण के बाद कई संगीतियों में उनके अनुयायियों के परामर्श के द्वारा हुआ।
4-बुद्ध और महावीर दोनों हिमालय प्रदेश के राजकुमार थे। युवावय में ही सन्यास लेकर उन्होने अपने धर्मो का उपदेश और प्रचार किया। उनका यह सन्यास उपनिषदों की परंपरा से प्रेरित है। जैन और बौद्ध धर्मों में तप और त्याग की महिमा भी उपनिषदों के दशर्न के अनुकूल है। अहिंसा और आचार की महत्ता तथा जातिभेद का खंडन इन धर्मों की विशेषता है। अहिंसा के बीज भी उपनिषदों में विद्यमान हैं। फिर भी अहिंसा की ध्वजा को धर्म के आकाश में फहराने का श्रेय जैन और बौद्ध संप्रदायों को देना होगा।
जैन दर्शन ;-
06 FACTS;-
1-महावीर स्वामी के उपदेशों से लेकर जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है। महावीर स्वामी के उपदेश 41 सूत्रों में संकलित हैं, जो जैनागमों में मिलते हैं। उमास्वाति का "तत्वार्थाधिगम सूत्र" (300 ई.) जैन दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्र है।
2-सिद्धसेन दिवाकर (500 ई.), हरिभद्र (900 ई.), मेरुतुंग (14वीं शताब्दी), आदि जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी तथा दसरी ओर भौतिकवादी है। वह आत्मा और पुद्गल (भौतिक तत्व) दोनों को मानता है।
3-जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान व्यापक और विस्तारशील है। पुनर्जन्म में नवीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और विस्तार होता है। स्वरूप से वह चैतन्य स्वरूप और आनंदमय है। वह मन और इंद्रियों के माध्यम के बिना परोक्ष विषयों के ज्ञान में समर्थ है।
4-इस अलौकिक ज्ञान के तीन रूप हैं - अवधिज्ञान, मन:पर्याय और केवलज्ञान। पूर्ण ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह निर्वाण की अवस्था में प्राप्त हाता है। यह सब प्रकार से वस्तुओं के समस्त धर्मों का ज्ञान है। यही ज्ञान "प्रमाण" है।
5- किसी अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म का ज्ञान "नय" कहलाता है। "नय" कई प्रकार के होते हैं। ज्ञान की सापेक्षता जैन दर्शन का सिद्धांत है। यह सापेक्षता मानवीय विचारों में उदारता और सहिष्णुता को संभव बनाती है। सभी विचार और विश्वास आंशिक सत्य के अधिकारी बन जाते हैं। पूर्ण सत्य का आग्रह अनुचित है। वह निर्वाण में ही प्राप्त हो सकता है। निर्वाण आत्मा का कैवल्य है।
6-कर्म के प्रभाव से पुद्गल की गति आत्मा के प्रकाश को आच्छादित करती है। यह "आस्रव" कहलाता है। यही आत्मा का बंधन है। तप, त्याग और सदाचार से इस गति का अवरोध "संवर" तथा संचित कर्मपुद्गल का क्षय "निर्जरा" कहलाता है। इसका अंत "निर्वाण" में होता है। निर्वाण में आत्मा का अनंत ज्ञान और अनंत आनंद प्रकाशित होता है।
बौद्ध दर्शन ;-
09 FACTS;-
1-बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है।
2-उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है। बाह्य पदार्थ "स्वलक्षणों" के संघात हैं। आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके "अनात्मवाद" की स्थापना की गई है।
3-फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने सन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।
4-अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किन्तु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए।
5-सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है।वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं।
6-सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं।
7-योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है।
8-माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।
9-इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है।
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