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क्या है सात तालों की एक ही तालीऔर कैसे खुलते हैं ये ताले ? क्या है कुण्डलिनी जागरण ?-PART-02

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Jun 6, 2018
  • 32 min read

कुण्डलिनी जागरण का अनुभव :-

04 FACTS;-

1-ध्यान में होने वाले अनुभव कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं. अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है. यह शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है.

2-जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं. परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुदा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है. यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है. यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है.

3-जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है. यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है. फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है. जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है, यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है.

4-इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है. इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है. कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं.

कुण्डलिनी जागरण के लक्षण :

कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं : ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना, मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है.

18 FACTS;-

1-एक से अधिक शरीरों का अनुभव होना :-

03 POINTS;-

1-कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है. यानि एक तो यह स्थूल शारीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर. तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है. परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है.

2-एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है. दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि. परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है.

3-तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं. मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है. इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं..

2-दो शरीरों का अनुभव होना :-

03 POINTS;-

1-अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है. कई बार साधकों को लगता है जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकलर कर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है. उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है. इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं.

2-कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और वह शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है.कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी.

3-ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है. "स्थूल शरीर मैं ही हूँ" ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है. कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं, ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है. उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है.

3- दिव्य ज्योति दिखना :-

1-सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है. यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है. उस तेज को सहन करना कठिन होता है. लगता है कि आँखें चौंधिया गईं हैं और इसका अभ्यास न होने से ध्यान भंग हो जाता है. वह तेज पुंज आत्मा व उसका प्रकाश है. इसको देखने का नित्य अभ्यास करना चाहिए. समाधि के निकट पहुँच जाने पर ही इसका अनुभव होता है.

4-अलग-अलग चक्रों का विशेष ध्यान ;-

04 POINTS;-

1-ध्यान में कभी ऐसे लगता है जैसे पूरी पृथ्वी गोद में रखी हुई है या शरीर की लम्बाई बदती जा रही है और अनंत हो गई है, या शरीर के नीचे का हिस्सा लम्बा होता जा रहा है और पूरी पृथ्वी में व्याप्त हो गया है, शरीर के कुछ अंग जैसे गर्दन का पूरा पीछे की और घूम जाना, शरीर का रूई की तरह हल्का लगना, ये सब ध्यान के समय कुण्डलिनी जागरण के कारण अलग-अलग चक्रों की प्रतिभाएं प्रकट होने के कारण होता है.

2-परन्तु साधक को इनका उपयोग नहीं करना चाहिए, केवल परमात्मा की प्राप्ति को ही लक्ष्य मानकर ध्यान करते रहना चाहिए. इन प्रतिभाओं पर ध्यान न देने से ये पुनः अंतर्मुखी हो जाती हैं.

3-कभी-कभी साधक का पूरा का पूरा शरीर एक दिशा विशेष में घूम जाता है या एक दिशा विशेष में ही मुंह करके बैठने पर ही बहुत अच्छा ध्यान लगता है अन्य किसी दिशा में नहीं लगता. यदि अन्य किसी दिशा में मुंह करके बैठें भी, तो शरीर ध्यान में अपने आप उस दिशा विशेष में घूम जाता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आपके ईष्ट देव या गुरु का निवास उस दिशा में होता है जहाँ से वे आपको सन्देश भेजते हैं.

4-कभी-कभी किसी मंत्र विशेष का जप करते हुए भी ऐसा महसूस हो सकता है क्योंकि उस मंत्र देवता का निवास उस दिशा में होता है, और मंत्र जप से उत्पन्न तरंगें उस देवता तक उसी दिशा में प्रवाहित होती हैं, फिर वहां एकत्र होकर पुष्ट (प्रबल) हो जाती हैं और इसी से उस दिशा में खिंचाव महसूस होता है.

5-संसार (दृश्य) व शरीर का अत्यंत अभाव का अनुभव :-

05 POINTS;-

1-साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है तो इस संसार (दृश्य) व शरीर के अत्यंत अभाव का अनुभव होता है. यानी एक शून्य का सा अनुभव होता है. उस समय हम संसार को पूरी तरह भूल जाते हैं (ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं). सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है, क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है?वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं.

2-यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें. यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद् पैदा होता है. वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है, इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है.

3-इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है.इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें व धीरे-धीरे समाधी का अभ्यास करता रहे और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बारात रहे हैं, करता रहे और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे.

4-साथ ही इस समय उसे तत्त्वज्ञान की भी आवश्यकता होती है जिससे उसके मन के समस्त द्वंद् शीघ्र शांत हो जाएँ. इसके लिए योगवाशिष्ठ (महारामायण) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें. उमें बताई गई युक्तियों "जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही मिट्टी की सेना है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर ही यह जगत है." का बारम्बार चिंतन करता रहे तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है, सारा संसार ईश्वर का रूप प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है.

5- चलते-फिरते उठते बैठते यह महसूस होना कि सब कुछ रुका हुआ है, शांत है, "मैं नहीं चल रहा हूँ, यह शरीर चल रहा है", यह सब आत्मबोध के लक्षण हैं यानि परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर यह अनुभव होता है.

6-शक्तिपात :-

1-हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं. उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है. ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो. वह आनंद वर्णनातीत होता है. इसे शक्तिपात कहते है.

2-जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है. उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है. इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं.

3-ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है. साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है. उस समय शरीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है.

4-उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंग भी फड़कते हुए देखे जाते हैं.यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे.

7- केवल आवाज सुनकर चेहरा, रंग, कद, आदि का प्रत्यक्ष दर्शन;-

02 POINTS;-

1-कई साधकों को किसी व्यक्ति की केवल आवाज सुनकर उसका चेहरा, रंग, कद, आदि का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है और जब वह व्यक्ति सामने आता है तो वह साधक कह उठता है कि, "अरे! यही चेहरा, यही कद-काठी तो मैंने आवाज सुनकर देखी थी, यह कैसे संभव हुआ कि मैं उसे देख सका?"

2-वास्तव में धारणा के प्रबल होने से, जिस व्यक्ति की ध्वनि सुनी है, साधक का मन या चित्त उस व्यक्ति की भावना का अनुसरण करता हुआ उस तक पहुँचता है और उस व्यक्ति का चित्र प्रतिक्रिया रूप उसके मन पर अंकित हो जाता है. इसे दिव्य दर्शन भी कहते हैं.

8-आँखें बंद होने पर भी बाहर का सब कुछ दिखाई देना;-

आँखें बंद होने पर भी बाहर का सब कुछ दिखाई देना, दीवार-दरवाजे आदि के पार भी देख सकना, बहुत दूर स्थित जगहों को भी देख लेना, भूत-भविष्य की घटनाओं को भी देख लेना, यह सब आज्ञा चक्र (तीसरी आँख) के खुलने पर अनुभव होता है.

9-व्यक्तियों के मन की बात जान लेना;-

02 POINTS;-

1-अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के मन की बात जान लेना या दूर स्थित व्यक्ति क्या कर रहा है (दु:खी है, रो रहा है, आनंद मना रहा है, हमें याद कर रहा है, कही जा रहा है या आ रहा है वगैरह) इसका अभ्यास हो जाना और सत्यता जांचने के लिए उस व्यक्ति से उस समय बात करने पर उस आभास का सही निकलना, यह सब दूसरों के साथ अपने चित्त को जोड़ देने पर होता है.

2-यह साधना में बाधा उत्पन्न करने वाला है क्र्योकि दूसरों के द्वारा इस प्रकार साधक का मन अपनी और खींचा जाता है और ईश्वर प्राप्ति के अभ्यास के लिए कम समय मिलता है और ध्यान कम हो पाता है जिससे साधना दीरे-धीरे क्षीण हो जाती है. इसलिए इससे बचना चाहिए. दूसरों के विषय में सोचना छोड़ें. अपनी साधना की और ध्यान दें. इससे कुछ ही दिनों में यह प्रतिभा अंतर्मुखी हो जाती है और साधना पुनः आगे बदती है.

10- ईश्वर के सगुण स्वरुप का दर्शन :-

05 POINTS;-

1-ईश्वर के सगुण रूप की साधना करने वाले साधानकों को, भगवान का वह रूप कभी आँख वंद करने या कभी बिना आँख बंद किये यानी खुली आँखों से भी दिखाई देने का आभास सा होने लगता है या स्पष्ट दिखाई देने लगता है. उस समय उनको असीम आनंद की प्राप्ति होती है. परन्तु मन में यह विश्वास नहीं होता कि ईश्वर के दर्शन किये हैं. वास्तव में यह सवितर्क समाधि की सी स्थिति है जिसमे ईश्वर का नाम, रूप और गुण उपस्थित होते हैं.

2-ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में इसे सवितर्क समाधि कहा है. ईश्वर की कृपा होने पर (ईष्ट देव का सान्निध्य प्राप्त होने पर) वे साधक के पापों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार चित्त में आत्मभाव से उपस्थित होकर दर्शन देते हैं और साधक को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और खींचते हैं. इसमें ईश्वर द्वारा भक्त पर शक्तिपात भी किया जाता है जिससे उसे परमानन्द की अनुभूति होती है.

3-कई साधकों/भक्तों को भगवान् के मंदिरों या उन मंदिरों की मूर्तियों के दर्शन से भी ऐसा आनंद प्राप्त होता है. ईष्ट प्रबल होने पर ऐसा होता है. यह ईश्वर के सगुन स्वरुप के साक्षात्कार की ही अवस्था है इसमें साधक कोई संदेह न करें.

4- कई सगुण साधक ईश्वर के सगुन स्वरुप को उपरोक्त प्रकार से देखते भी हैं और उनसे वार्ता भी करने का प्रयास करते हैं. इष्ट प्रबल होने पर वे बातचीत में किये गए प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हैं, या किसी सांसारिक युक्ति द्वारा साधक के प्रश्न का हल उपस्थित कर देते हैं. यह ईष्ट देव की निकटता व कृपा प्राप्त होने पर होता है. इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए.

5-साधना में आने वाले विघ्नों को अवश्य ही ईश्वर से कहना चाहिए और उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए. वे तो हमें सदा राह दिखने के लिए ही तत्पर हैं परन्तु हम ही उनसे राह नहीं पूछते हैं या वे मार्ग दिखाते हैं तो हम उसे मानते नहीं हैं, तो उसमें ईश्वर का क्या दोष है? ईश्वर तो सदा सबका कल्याण ही चाहते हैं.

11-अश्विनी मुद्रा, मूल बांध का लगना :-

04 POINTS;-

1-श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं. कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं.

2-अश्विनी मुद्रा का अर्थ है "अश्व यानि घोड़े की तरह करना". घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है. इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है. यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं. विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. 3-स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता.प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है, उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें. सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती. मन एकाग्र होता है. साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे. जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है.

4-इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है.मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है. इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर - ऊपर की और खींचा जाता है.यह साधना में उर्ध्वमुखी बनाता है .यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है. इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं.

12-गुरु या ईष्ट देव की प्रबलता :-

03 POINTS;-

1-जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं. अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना.

2-कोई व्रत या उपवास स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है.

3-वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा. किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा.

13-ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम :-

03 POINTS;-

1-कई बार साधकों को ईष्ट भ्रष्टता का भ्रम उपस्थित हो जाता है. उदाहरण के लिए कोई साधक गणेशजी को इष्ट देव मानकर उपासना आरम्भ करता है. बहुत समय तक उसकी आराधना अच्छी चलती है, परन्तु अचानक कोई विघ्न आ जाता है जिससे साधना कम या बंद होने लगती है. तब साधक विद्वानों, ब्राह्मणों से उपाय पूछता है, तो वे जन्मकुंडली आदि के माध्यम से उसे किसी अन्य देव (विष्णु आदि) की उप्पसना के लिए कहते हैं.

2-कुछ दिन वह उनकी उपासना करता है परन्तु उसमें मन नहीं लगता. तब फिर वह और किसी की पास जाता है. वह उसे और ही किसी दुसरे देव-देवी आदि की उपासना करने के लिए कहता है. तब साधक को यह लगता है की मैं अपने ईष्ट गणेशजी से भ्रष्ट हो रहा हूँ. इससे न तो गणेशजी ही मिलेंगे और न ही दूसरे देवता और मैं साधना से गिर जाऊँगा.

3-यहाँ साधकों से निवेदन है की यह सही है की वे अपने ईष्ट देव का ध्यान-पूजन बिलकुल नहीं छोड़ें, परन्तु वे उनके साथ ही उन अन्य देवताओं की भी उपासना करें. साधना के विघ्नों की शांति के लिए यह आवश्यक हो जाता है. उपासना से यहाँ अर्थ उन-उन देवी देवताओं के विषय में जानना भी है क्योंकि उन्हें जानने पर हम यह पाते हैं की वस्तुतः वे एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं (जैसे पानी ही लहर, बुलबुला, भंवर, बादल, ओला, बर्फ आदि है). इस प्रकार ईष्ट देव यह चाहता है कि साधक यह जाने. इसलिए इसे ईष्ट भ्रष्टता नहीं बल्कि ईष्ट का प्रसार कहना चाहिए.

14- शरीर का हल्का लगना :-

03 POINTS;-

1-जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक "मैं यह स्थूल शरीर हूँ" ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है. परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से "मैं शरीर हूँ" ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि "मैं सूक्ष्म शरीर हूँ" या "मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ" ऎसी भावना दृढ हो जाती है.

2-यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है. दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है. यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी "मैं शरीर हूँ" इस भावना का नाश करती है, जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है. 3-ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है, ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है. परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए.

15-हाथ के स्पर्श के बिना केवल दूर से ही वस्तुओं का

खिसक जाना :-

02 POINTS;-

1-कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे किसी हलकी वास्तु को उठाने के लिए जैसे ही अपना हाथ उसके पास ले जाते हैं तो वह वास्तु खिसक कर दूर चली जाती है, उस समय साधक को अपनी अँगुलियों में स्पंदन (झन-झन) का सा अनुभव होता है. साधक आश्चर्यचकित होकर बार-बार इसे करके देखता है, वह परीक्षण करने लगता है कि देखें यह दुबारा भी होता है क्या. और फिर वही घटना घटित होती है.

2-तब साधक यह सोचता है कि अवश्य ही यह कोई दिव्य घटना उसके साथ घटित हो रही है. वास्तव में यह साधक के शरीर में दिव्य उर्जा (कुंडलिनी, मंत्र जप, नाम जप आदि से उत्पन्न उर्जा) के अधिक प्रवाह के कारण होता है. वह दिव्य उर्जा जब अँगुलियों के आगे एकत्र होकर घनीभूत होती है तब इस प्रकार की घटना घटित हो जाती है.

16- रोगी के रुग्ण भाग पर हाथ रखने से उसका स्वस्थ

होना :-

03 POINTS;-

1-कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे अनजाने में किसी रोगी व्यक्ति के रोग वाले अंग पर कुछ समय तक हाथ रखते हैं और वह रोग नष्ट हो जाता है. तब सभी लोग इसे आश्चर्य की तरह देखते हैं. वास्तव में यह साधक के शरीर से प्रवाहित होने वाली दिव्य उर्जा के प्रभाव से होता है. 2-रोग का अर्थ है उर्जा के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाना. साधक के संपर्क से रोगी की वह रुकी हुई उर्जा पुनः प्रवाहित होने लगती है, और वह स्वस्थ हो जाता है. मंत्र शक्ति व रेकी चिकित्सा पद्धति का भी यही आधार है कि मंत्र एवं भावना व ध्यान द्वारा रोगी की उर्जा के प्रवाह को संतुलित करने की तीव्र भावना करना.

3-आप अपने हाथ की अंजलि बनाकर उल्टा करके अपने या अन्य व्यक्ति के शरीर के किसी भाग पर बिना स्पर्श के थोडा ऊपर रखें. फिर किसी मंत्र का जप करते हुए अपनी अंजलि के नीचे के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करें और ऐसी भावना करें कि मंत्र जप से उत्पन्न उर्जा दुसरे व्यक्ति के शरीर में जा रही है. कुछ ही देर में आपको कुछ झन झन या गरमी का अनुभव उस स्थान पर होगा. इसे ही दिव्य उर्जा कहते हैं. यह मंत्र जाग्रति का लक्षण है.

17- अंग फड़कना :-

02 POINTS;-

1-शिव पुराण के अनुसार यदि सात या अधिक दिन तक बांयें अंग लगातार फड़कते रहें तो मृत्यु योग या मारक प्रयोग (अभिचारक प्रयोग) हुआ मानना चाहिए. कोई बड़ी दुर्घटना या बड़ी कठिन समस्या का भी यह सूचक है. इसके लिए मा काली से रक्षार्थ प्रार्थना करें ,उपासना करें .इसके अतिरिक्त दुर्गा सप्तशती में वर्णित रात्रिसूक्तम व देवी कवच का पाठ करें.

2-दांयें अंग फड़कने पर शुभ घटना घटित होती है, साधना में सफलता प्राप्त होती है. यदि बांया व दांया दोनों अंग एक साथ फडकें तो समझना चाहिए कि विपत्ति आयेगी परन्तु ईश्वर की कृपा से बहुत थोड़े से नुक्सान में ही टल जायेगी. एक और संकेत यह भी है कि कोई पूर्वजन्म के पापों के नाश का समय है इसलिए वे पाप के फल प्रकट तो होंगे किन्तु ईश्वर की कृपा से कोई विशेष हानि नहीं कर पायेंगे. इसके अतिरिक्त यह साधक के कल्याण के लिए ईश्वर के द्वारा बनाई गई योजना का भी संकेत है.

18-गुरु/ईष्ट के परकाय प्रवेश द्वारा साधक को परमात्मबोध की प्राप्ति :-

04 POINTS;-

1-गुरु या ईष्ट देव अपने सूक्ष्म शरीर से साधक के शरीर में प्रवेश करते हैं और उसे प्रबुद्ध करते हैं. प्रारम्भ में साधक को यह महसूस होता है कि आसपास कोई है जो अदृश्य रूप से उसके साथ साथ चलता है. कभी कोई सुगंध, कभी कोई स्पर्श, कभी कोई ध्वनि सुनाई दे सकती है, जिसका पता आसपास के किसी आदमी को नहीं लगेगा, उनका कोई वास्तविक कारण प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देगा.

2-इसके बाद जब यह अभ्यास दृढ हो जाता है तो शरीर का कोई अंग तेजी से अपने आप हिलना, रोकने की कोशिश करने पर भी नहीं रुकना और उस समय एक आनंद बना रहना, इस प्रकार के अनुभव होते हैं. तब साधक यह सोचता है कि यह क्या है? कहीं साधना में कुछ गलत तो नहीं हो रहा. यह किसी दैवीय शक्ति का प्रभाव है या आसुरी शक्ति का?

3-तो इसका उत्तर है कि यदि दांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि दैवीय शक्ति का प्रभाव है और यदि बांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति का प्रभाव है और वह शरीर में प्रवेश करना चाहती है. साथ ही यदि एक आनंद बना रहे तो समझें कि दैवीय शक्ति प्रवेश करना चाहती है. किन्तु यदि क्रोध से आँखें लाल हो जाएँ, मन में बेचैनी जैसी हो तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति है.

4-इस प्रकार जब पहचान हो जाए तो यदि आसुरी शक्ति हो तो उसे बलपूर्वक रोकना चाहिए. इसके लिए भगवान् व गुरु से प्रार्थना करें कि वह इस आसुरी शक्ति से हमारी रक्षा करें व उसे सदा के लिए हमसे दूर हटा दें. यदि दैवीय शक्ति है तो आपको प्रयत्न करने पर शीघ्र ही यह पता लग जाएगा कि वे कौन हैं और आगे आपको क्या करना चाहिए. ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

कुण्डलिनी साधक कबीर दास ;-

06 FACTS;-

1-कबीर दास जी का जन्म संवत 1455 में वाराणसी नगरी में हुआ था। गंगा तट के निकट अस्सी घाट पर उनका वास था। अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए वे अपने हाथ से कपड़ा बुन कर बाजार में बेचते थे। यही उनकी कमाई का साधन था।

2-कबीर दास ऐसे समय में हुए, जब भारतवर्ष में रूढ़िवादिता, साम्प्रदायिकता एवं धार्मिक प्रदर्शन का बोलबाला था। धार्मिक आडम्बरों के कारण सत्य छिप सा गया था। वह सच्चे संत थे। साथ ही वे सच्चे कर्मयोगी भी थे। वे ब्रह्म की उपासना में मगन रहते थे। वे भगवान के ऐसे भक्त थे, जिन्हें भगवान हर घट में दिखलाई पड़ता था।

3-आडम्बर से दूर निगरुण-निराकार ब्रह्म का दर्शन अपने भीतर प्राप्त करते हुए उनकी भक्ति में निमग्न रहते थे। अपने अनुयायियों को धर्म की सही दिशा देते रहते थे। वे कहते थे - ‘कहैं कबीर बिचारि के जाके बरन न गांव । निराकार और निरगुणा है पूरन सब ठांव॥’

4-उनकी मान्यता थी कि ईश्वर प्राप्ति के लिए सतगुरु की कृपा प्राप्त करना आवश्यक है। सतगुरु ही ऐसा मल्लाह है, जो शिष्य को भवसागर से पार लगा देता है । ’ स्वामी रामानन्द जी जैसे संत उनके गुरु थे। उन्होंने संन्यास धारण नहीं किया। वे सच्चे सद्गृहस्थ वैरागी संत थे। उन्होंने आडम्बर व दिखावा करने वालों को खूब फटकार लगाई।

उनका कहना था -

''केसो कहा बिगाड़िया जो मूड़े सौ बार। मन को काहे न मूड़िये जामें विषय विकार।। मन मथुरा दिल द्वारका काया काशी जानि। दसवां द्वार देहुरा तामें ज्योति पिछानि॥''

5-वे समता, सहिष्णुता, प्रेम व परस्पर सहयोग की भावना को पोषित करने में सदैव प्रयत्नशील रहते थे।वे एक ही परमात्मा को सर्वत्र सब में देखते थे। यही उपदेश वे सबको देते थे कि सभी घट में रमने वाले उस राम को अपने हृदय में प्रेम से ढूंढ़ो, तुम्हें वह मिल जाएगा। अंतर में रहने वाले उस राम को तो कोई पहचानता नहीं।

वे कहते हैं-

राम नाम सब कोई बखाने राम नाम का मरम न जानै॥

6-अपनी अनुभूतियों को वे बोल कर प्रकट किया करते थे और आनंदिक अनुभूतियों को अपने मुख से गाया करते थे। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में काशी को छोड़ कर मगहर की ओर प्रस्थान किया। संवत 1575 को वहीं उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। कबीर दास जैसे संत के लिए काशी और मगहर एक ही समान थे।

इसीलिए उन्होंने स्वयं कहा-

''क्या काशी क्या उसर मगहर राम हृदय बस मोरा। जो काशी तन तजै कबीरा रामे कौन निहोरा॥''

कबीर साहिब की कुण्डलिनी जागरण की प्रसिद्ध रचना;-

कबीर साहिब ने अपनी निम्नलिखित प्रसिद्ध रचना ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ में सब कमलों का वर्णन विस्तार पूर्वक इस प्रकार किया है-

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कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥टेक॥

काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।

मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥

धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।

कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥

मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।

देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥

स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।

उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥

नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा ।

हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥

द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।

सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥

षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।

हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥

ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।

निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥

कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।

सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥

आंख कान मुख बंद कराओ अनहद झिंगा सब्द सुनाओ ।

दोनों तिल इकतार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ॥10॥

चंद सूर एकै घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ ।

तिरबेनी के संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है ॥11॥

घंटा संख सुनो धुन दोई सहस कँवल दल जगमग होई ।

ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है ॥12॥

डाकिन साकिनी बहु किलकारें, जम किंकर धर्म दूत हकारें ।

सत्तनाम सुन भागें सारे, जब सतगुरु नाम उचारा है ॥13॥

गगन मंडल विच उर्धमुख कुइआ, गुरुमुख साधू भर भर पीया ।

निगुरे प्यास मरे बिन कीया, जा के हिये अंधियारा है ॥14॥

त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा ।

लाला बरन सूरज उजियारा, चतुर कंवल मंझार सब्द ओंकारा है ॥15॥

साध सोई जिन यह गढ़ लीना, नौ दरवाजे परगट चीन्हा ।

दसवां खोल जाय जिन दीन्हा, जहां कुंफुल रहा मारा है ॥16॥

आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई ।

हंसन मिल हंसा होइ जाई, मिलै जो अमी अहारा है ॥17॥

किंगरी सारंग बजै सितारा, अच्छर ब्रह्म सुन्न दरबारा ।

द्वादस भानु हंस उजियारा, खट दल कंवल मंझार सब्द रंकारा है ॥18॥

महासुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुर पावै नाही बाटी

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कुण्डलिनी साधना की महत्ता एवं कठिनाइयाँ;-

05 FACTS;-

1-जो साधक मूलाधर व अनाहत की विकृति से बच निकलते हैं, कई बार आज्ञा चक्र पर आकर उलझ जाते हैं। ऐसा साधक शक्तिशाली होता है अनेक प्रकार की शक्तियां, सिद्धियाँ जब उसको मिलने लगती हैं तो वह अहंकारी होने लगता है। मैं इतना शक्तिशाली हूं। लोग मुझे इतना मानते हैं। मैं यह कर सकता हूं आदि-आदि। इस प्रकार के विचारों को पालना प्रारम्भ कर देता है। अपने अहं में वह व्यर्थ में दूसरों से टकराने लग जाता है। ऐसे व्यक्ति की ऊर्जा तीन बातों में बिखरने लग जाती है ।-

2-एक तो वह अनावश्यक अपने को बड़ा सिद्ध करने के चक्कर में दूसरों को नीचा दिखाने लगता है। दूसरे कई बार उसके पास महिलाएं बड़ी संख्या में एकत्र होने लगती हैं जिनमें वह रस लेने लग जाता है, यह पुन: उसको वासना के दलदल में खींच सकता है।

3-तीसरे कई बार वह बहुत क्रोधी हो जाता है, मान-अपमान के चक्कर में जा फंसता है। छोटी-छोटी बातों में लोगों का अहित करने लगता है। इस संदर्भ में राजा विश्वरथ का उदाहरण सटीक है।

वे ऋषि स्तर तक पहुंचने की साधना कर रहे थे व मूलाधर व अनाहत से ऊपर जाकर सिद्धियाँ अर्जित करने लगे थे। उस समय उन्होंने उल्टे-सीधे संकल्पों में अपनी ऊर्जा खर्च करना प्रारम्भ कर दिया। वशिष्ठ को नीचा दिखाने के चक्कर में उन्होंने त्रिशंकु​ को जीते जी स्वर्ग में भेजने का संकल्प कर डाला। जब उसमें सफल नहीं हुए तो नयी सृष्टि की रचना करना प्रारम्भ कर दिया। अपने अहम् को सन्तुष्ट करने के लिए वो परमात्मा के विधान के विपरीत कार्यों में ऊर्जा लगाने लगे। इसी प्रकार तरह-तरह की अप्सराएं उनके पास आने लगी और वो उनमें से एक अप्सरा, (मेनका) के चक्कर में फंसकर अपना तेज खो बैठे। महर्षि दुर्वासा भी इसी प्रकार क्रोध के वश होकर अपनी ऊर्जा नष्ट करते रहते थे।

4-इस प्रकार की उलझनों से बचने का एक ही मार्ग है- ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। तभी साधक की ऊर्जा आज्ञा चक्र से सहस्त्रार में पहुंचेगी व सहस्त्रदल कमल का विकास होगा। स्वयं के भीतर उसको गुरु को/ मार्ग-दर्शक को/ ईश्वरी सत्ता को विकसित करना चाहिए। उन्हीं को कर्त्ता मानना चाहिए। साधक को भावना करनी चाहिए।

‘मैंसमाप्तहोताहूं, आपजीवितहोतेहैं।’

5-ऊर्जा का सहस्त्रार में गमन बड़ा ही आनन्ददायी होता है। इसे ब्रह्मानन्द की संज्ञा दी जाती है। बड़ी ही सुखद व शान्ति की स्थिति होती है। बाह्य जगत् व उसकी समस्त गतिवि​धियों से वह कट जाता है। इसे ही पूर्ण अन्तर्मुखी अवस्था अथवा पूर्ण èयान की अवस्था कहा जाता है। कहते हैं यदि कुछ क्षण (Seconds) भी èयान लग जाए तो बड़ी शक्ति उत्पन्न होती है। यह इसी अवस्था में सम्भव है। कुण्डलिनी आकर सहस्त्रादल कमल में बैठ जाती है व साधक शक्तियों, सिद्धियाँ का असीम भण्डार बनता चला जाता है।

कुण्डलिनी जागरण की पात्रता;-

07 FACTS;-

1-जो अपने को सुपात्र समझते हों व इस ओर कदम बढ़ाने का साहस करना चाहते हों, उनके लिए सर्वसुलभ विधि वर्णन किया जाएगा। इससे पूर्व एक पौराणिक कथा का वर्णन करना आवश्यक है। संक्षेप में कथा इस प्रकार है-

एक बार देवताओं व असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन करने की ठानी गई। मदिराचल पर्वत के चारों ओर शेषनाग को लपेटकर विशाल मथानी बनायी। एक सिरा देवताओं ने पकड़ा, दूसरा सिरा दानवों ने। समुद्र मंथन के दौरान अनेक बहुमूल्य रत्नों की प्राप्ति हुई। ये रत्न देव-दानवों ने आपस में बांट लिये। हलाहल विष भी निकला जिसको भगवान् शिव पी गए। अमृत निकला जिसको दानवों से बचाकर देवताओं को पिलाया गया जिससे देवता अमर हो गए। परन्तु एक दो असुर (राहु, केतु) भी अमृत पी गए, जिस कारण वो भी अमर हो गए।

2- इसका तत्व दर्शन इस प्रकार है। समुद्र मंथन से तात्पर्य कुण्डलिनी मंथन/जागरण से है। कुण्डलिनी मंथन के लिए देव व दानव दोनों प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता होती है। देव शक्ति प्रतीक हैं- दिव्य गुणों की दिव्य भावनाओं की। साधक के भीतर दिव्य भावनाओं का स्त्रोत विद्यमान होना चाहिए। दिव्य भावनाओं से अर्थ है- परमार्थ की भावना, सबके भले की भावना,संतोष की भावना, त्याग की भावना, सहयोग की भावना, नि:स्वार्थ प्रेम की भावना,क्षमाशीलता की भावना, पवित्राता की भावना आदि-आदि।

3-इसी प्रकार असुर शक्ति प्रतीक है- तप, कठोरता,संकल्प शक्ति, बलिदान, वीरता और निर्भयता का। साधक जहां दिव्य भावनाओं से परिपूर्ण हो वहां कठोर तपस्वी भी होना चाहिए। साधक में असुर भाव का समावेश भी होना चाहिए। यहाँ असुर भाव से अर्थ है- पुरुषाथी होना चाहिए, साहसी होना चाहिए, कठिनाइयों में घबराना नहीं चाहिए, कष्ट सहिष्णु होना चाहिए, इन्द्रिय संयमी होना चाहिए, मन की इच्छाओं के प्रतिकूल चलने वाला होना चाहिए, दृढ़ संकल्पी होना चाहिए, वीर भाव से ओत-प्रोत होना चाहिए, आत्मविश्वासी व धेर्यवान होना चाहिए।

4-ऐसा साधक, जिसमें देव व दानव दोनों तत्वों का समावेश हो, ही कुण्डलिनी मंथन करने में सक्षम व सफल हो सकता है। यही इसका आधर है। मदिराचल के चारों ओर शेषनाग लिपटे हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति के ही आकार (Shape) का वर्णन हैं जो सूक्ष्म शरीर में विराजमान हैं। कुण्डलिनी मंथन के दौरान अनेक प्रकार की शक्तियों का विकास होने लगता है। ये दिव्य रत्न हैं जिनको देव व दानव दोनों अर्जित करना चाहते हैं अर्थात् रत्नों/शक्तियों के सदुपयोग व दुरुपयोग की सम्भावना विद्यमान है।

5-इतना ही नहीं यह साधना कभी-कभी अनियन्त्रित (Uncontrolled) भी हो जाती है जिससे कभी-कभी साधक की बड़ी दुर्दशा होती है। यह अनियन्त्रण ही हलाहल विष है जिसको निपटाने के लिए शिव चाहिए। शिव उस आध्यात्मिक शक्ति/गुरु का नाम है जो लोक कल्याण के लिए पूर्णत: समर्पित है। ऐसा सक्षम/समर्थ गुरु ही इस विष का पान कर सकता है अर्थात् इस दुर्गति से साधक को उबार सकता है।

6-अन्त में अमृत अर्थात् अमरता की उपलब्धि होती है अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अमृत देवताओं में बंट जाता है अर्थात् धरती पर सदा देवत्व (सतोगुण) विराजमान/प्रधन रहेगा। अमृत छल से दो असुर (राहु, केतु) भी पी गए। वो भी अमर हैं अर्थात् धरती पर असुरता (तमोगुण) भी रहेगा, परन्तु अल्प मात्रा में।

7- कभी-कभी ग्रहण लगता है अर्थात् देवत्व पर असुरत्व हावी होने का प्रयास करता है यह स्थिति बहुत थोड़े समय ही रह पाती है जैसे ग्रहण का प्रभाव कुछ ही समय रहता है। आज भी असुरता देवत्व को निगलने का प्रयास कर रही है। इस कारण ज्ञान का प्रकाश धीमा पड़ गया है। जब ग्रहण लगता है तो सूर्य व चन्द्रमा की रोशनी मंद होने लगती है। इस कथन के माध्यम से हमारे ऋषियों ने बड़े ही अलंकारिक ढ़ंग से कुण्डलिनी जागरण व समाज की स्थिति का चित्रण किया है।

कुंडलिनी साधना कैसे ?;-

07 FACTS;-

1-इन साधनाओं में प्राण-संधान और त्राटक सिद्धि की क्रिया प्रमुख रहती है। इसलिए कुंडलिनी साधना मेंत्राटक और प्राणायाम का विशिष्ट स्थान है। जो इन कठिन साधनाओं में प्रवेश करना न चाहें वे यदि नियमित मंत्र उपासना करते रहें तो भी वही अपेक्षायें पूर्ण होती हैं। सांसारिक जीवन इस विकास क्रम में कहीं भी बाधक नहीं होता।

2-सोऽहम जप, शक्तिचालिनी मुद्रा, त्राटक नाद योग विन्दु साधना आदि अनेक प्रकार के अभ्यास कुण्डलिनी जागरण के लिये किये जाते हैं। प्राणायाम में लोम विलोम सूर्य वेधन प्राणायाम का सर्वाधिक अभ्यास करना पड़ता है। इसमें एक बार बांये एक बार दाहिने स्वर से वायु लेने और छोड़ने की क्रिया लगातार करनी पड़ती है। इस मंथन का ‘प्रहार’ मूलाधार में प्रसुप्त महा अग्नि पर प्रसुप्त सर्पिणी पर करना पड़ता है।

3-ऑक्सीजन के सहयोग में अग्नि भड़कती है। प्राण की अभीष्ट मात्रा प्रसुप्त अग्नि चिनगारी को मिलते रहने से उसके भड़कने और दावानल का रूप धारण करने में देर नहीं लगती। यही प्राण प्रहार प्रक्रिया सूर्य भेदन प्राणायाम का मुख्य प्रयोजन है। अग्नि और प्राण के संयोग एवं प्रहार क्रम को प्रहार प्रताड़ना आदि नाम दिये गये हैं। जागरण के इस प्रयोग का उल्लेख इस प्रकार मिलता है। 4-शिव संहिता के अनुसार ;-

प्राणवायु के आघात से चक्रों के मध्य रहने वाले देवता जागते हैं और महामाया कुण्डलिनी कैलाश पति शिव से जा मिलती है। 5-हत्रिशिखब्राह्मणोपनिषद् के अनुसार ;-

योगाभ्यास द्वारा प्राण वायु तथा अग्नि से प्रदीप्त यह महासती कुण्डलिनी ऊपर उठकर हृदयाकाश में पहुंचती है और वहां अत्यन्त प्रकाशपूर्ण नाग के रूप में स्फुरित होती है।

6-ध्यानबिन्दूपनिषद् के अनुसार ;-

जिस मार्ग से ब्रह्मस्थान तक सुगमता से जाया जा सकता है, उस मार्ग का द्वार परमेश्वरी कुण्डलिनी अपने मुंह से ढंके सोयी हुई है। अग्नि तथा मन प्रेरित प्राणवायु के सम्मिलित योग से वह जागृत होती है और जैसे सुई के साथ धागा जाता है, उसी प्रकार प्राणवायु के साथ वह कुण्डलिनी सुषुम्ना पथ के ऊपर जाती है। जैसे कुंजी से हठात् द्वार खोल दिया जाता है, वैसे ही योगी कुण्डलिनी शक्ति से मोक्षद्वार को भेदते हैं। 7-योगकुंडल्युपनिषद् के अनुसार ;-

अग्नि और प्राणवायु दोनों के आघात से सुप्ता कुण्डलिनी जाग पड़ता है और ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि, रुद्रग्रन्थि तथा षट्चक्र का भेदन करती हुई सहस्रार कमल में जा पहुंचती है। वहां यह शक्ति शिव के साथ मिलकर आनन्द की स्थिति में निवास करती है। वही श्रेष्ठ परा स्थिति है यही मोक्ष का कारण है।

8-योग कुण्डल्युपनिषद् के अनुसार ;-

प्राण और अपान के संयोग से महाअग्नि दीप्तिवान होती है और कुंडलिनी जगती है। प्राणवायु में तीव्रता आने से अग्नि भी तीव्र होती जाती है और अपना क्षेत्र विस्तार करती है।

9-योग रसायनम् के अनुसार ;-

अग्नि के ताप तथा प्राण के संघर्षण से उत्पन्न ऊर्जा से कुंडली प्रबुद्ध होकर वैसे ही सीधी हो जाती है जैसे दण्ड से आहत सर्पिणी।

10-हठयोग प्रदीपिका के अनुसार ;-

''प्राणवायु के प्रहार से अग्नि शिखा प्रदीप्त होती है और उसकी गर्मी से प्रसुप्त कुंडलिनी जाग

पड़ती है।''

11-सूर्यवेधन प्राणायाम द्वारा अग्नि उत्पन्न करने के जिन उपकरणों से रगड़ उत्पन्न करनी पड़ती है वे इड़ा और पिंगला नामक दो प्राण प्रवाह हैं। जो सुषुम्ना के—मेरुदंड के मध्य में रहते हैं। सामान्यतया उनकी गतिशीलता इतनी ही रहती है कि शरीर निर्वाह के लिए जितनी आवश्यक है उतनी ऊर्जा उत्पन्न होती रहे।

12-अधिक मात्रा में प्राण उत्पादन अभीष्ट हो तो इन प्रवाहों को अधिक सक्रिय करना पड़ता है। मन्दी आग पर कुछ पकाना हो तो चूल्हे में सामान्य गर्मी बनाये रहने से काम चल जाता है किन्तु यदि खौलने योग्य ताप की आवश्यकता हो तो अधिक ईंधन डालने तथा हवा धोंकने का प्रबन्ध करना पड़ता है। इस प्रयोजन के लिए इड़ा और पिंगला को अधिक गतिशील बनाने के लिए सूर्यवेधन प्राणायाम का आश्रय लिया जाता है। इड़ा, पिंगला का महत्व बताते हुए कहा गया है।

13-शिव स्वरोदय के अनुसार ;-

वाम नाड़ी का प्रवाह करने वाला चन्द्रमा शक्तिरूप से और दक्षिण नाड़ी का प्रवाहक सूर्य शिव रूप से स्थित रहता है।

14-मेरुदंड के बाहर बांई ओर चन्द्रमा के प्रकाश के समान इड़ा नाड़ी, सूर्य के प्रकाश के समान पिंगला नाड़ी है। इड़ा से शक्ति रूप और पिंगला से शिवरूप का बोध होता है। मेरुदंड के भीतर अग्नि रूप सुषुम्ना है। भ्रू मध्य भाग में इन तीनों का संगम होता है। यह तीनों नाड़ियां जननेन्द्रिय मूल में स्थित धतूरे के पुष्प के समान कन्द से उत्पन्न होकर ऊपर मस्तक तक जाती हैं।

15-प्राणायाम में श्वास को खींचना फेंकना भर ही नहीं होता वरन् उसके आवागमन की गति को नियन्त्रित रखना होता है। उनकी चाल एक जैसी रहनी चाहिए। कुम्भक के प्रहार रुकने का समय और वापसी की प्रवाह प्रक्रिया इन सब में समय एवं गति की क्रमबद्धता बनी रहनी आवश्यक है। अस्त–व्यस्तता से अनियमितता और नियन्त्रण न रहने से प्राण योग का आधार ही नष्ट हो जाता है और वह मात्र गहरी सांस लेने की—डीप ब्रीदिंग की सामान्य व्यायाम परिपाटी मात्र बन कर स्वल्प फलदायक रह जाती है।

16-तात्त्विकी प्राणायामों में श्वास क्रिया की एक सुनिश्चित क्रम व्यवस्था बना कर उसमें ‘ताल’ उत्पन्न किया जाता है। संगीत शास्त्र के जानकार समझते हैं कि ‘ताल’ किसे कहते हैं? उसके आधार पर ही ताल वाद्य बजाने की शिक्षा दी जाती है और स्वर लहरी का सौंदर्य निखरता है। ताल का ज्ञान न होने पर ढोलक, तबला, मजीरा, करताल आदि बजाये जायं तो उससे कर्ण कटु कर्कशता ही उत्पन्न होगी और सुनने वालों के कानों को अखरेगी।

17-महत्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए की गई प्राण योग की साधना में जहां श्रद्धा विश्वास भरी संकल्प शक्ति का समावेश करना है वहां उसकी ताल बद्धता का अभ्यास करना भी आवश्यक

होता है।ताल से कितनी प्रचंड शक्ति उत्पन्न होती है उसे विज्ञान वेत्ता भली प्रकार जानते हैं। पुलों पर से सेना को लेफ्टराइट करते हुए नहीं निकलने दिया जाता है। उन पर से गुजरते हुए वे चाल को अस्त-व्यस्त रखते हैं। ताल बद्ध कदम पड़ने से उत्पन्न सूक्ष्म तरंगें पुल में दरारें डाल सकतीं हैं।

18-एक भारी गार्डर छत में लटका दिया जाय और उस पर कार्क जैसी हलकी वस्तु के तालबद्ध आघात पड़ते रहने की यान्त्रिक व्यवस्था करदी जाय तो उन स्वल्प आघातों से भी उत्पन्न प्रचण्ड शक्ति के फलस्वरूप गार्डर में थरथराहट दृष्टिगोचर होने लगेगी।

19-एक नियत गति से कांच के गिलास के पास ध्वनि की जाय तो वह उन आघातों से टूट जायगा। संगीत का शारीरिक और मानसिक प्रभाव होता है उसका स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिये रोग निवारण के लिए सफल प्रयोग हो रहा है। पशुओं का दूध और पक्षियों की प्रजनन क्षमता बढ़ाने में क्रमबद्ध संगीत के लाभ देखे गये हैं। पेड़-पौधों को कृषि उपज को बढ़ाने में भी संगीत का उत्साहवर्धक उपयोग होता है।

20-अनुलोम विलोम प्राणायाम क्रम में यह ताल प्रक्रिया विशेष रूप से उत्पन्न होती है। एक ही क्रम बना रहने से घुमावदार सर्किट बनता है। पर उलट-पुलट का क्रम दुहराने से ‘ताल’ की उत्पत्ति होती है। सूर्यवेधन प्राणायाम में ताल बद्धता का उत्पन्न करना स्थूल शरीरगत ऊर्जा को एकत्रित, प्रज्ज्वलित और प्रखर बनाता है। संकल्प शक्ति के आधार पर खींचा हुआ दिव्य प्राण आत्म प्राण की मूलाधार स्थिति को प्रज्वलित करता है। इसी आधार पर प्रसुप्ति जागृति में परिणित होती है और साध को आत्म सत्ता के अन्तर्गत दिव्य ऊर्जा का अभिवर्धन दृष्टिगोचर होता है।

21-योग शास्त्र में दिव्य प्राण को देवता—कुंडलिनी अग्नि को दिव्य अग्नि कहा गया है और उसके जागरण से अनेकों दिव्य लाभ मिलने की बात कही गई है।

त्राटक क्या है?-

02 FACTS;-

1-जब कोई इंसान चरम बिंदु पर एकाग्रचित्त होकर ध्यानस्थ होता है तो वह बोध अवस्था में होकर भी आसपास के वातावरण से निरपेक्ष हो जाता है। ऐसे में उसकी समस्त चेतना का केन्द्र बिंदु अंतः की ओर रूपायित होने लगता है। यही वह उच्चतर अवस्था होती है जबकि साधनारत इंसान की संपूर्ण शक्तियां एकाकार होने लगती हैं।

2-त्राटक साधना सहज सिद्ध होने वाली साधना है किंतु इसके लिए कुछ निर्धारित नियमों का कड़ाई से अनुपालन करना होता है।

त्राटक साधना विधि:-

02 FACTS;-

1-इस साधना के लिए माध्यम कुछ भी अपनाया जा सकता है किंतु इसके लिए प्रज्वलित, अग्निमय अथवा अस्थिर बिंदु वाले माध्यमों का प्रयोग करना श्रेयस्कर है।आप घी के दीपक का प्रयोग करें तो अत्युत्तम होगा। दीपक बड़ा हो और पूर्ण रूप से घी से भरा हो, दीपक में बाती का प्रयोग सावधानी पूर्वक करना चाहिए ताकि वह साधना काल में जलता रहे..

2-अंधेरे कक्ष में आप नितांत अकेले होकर दीपक जला लें.........दीपक की लौ को निहारने की कोशिश करें....... और गहरे उतरें और गहरे...... लौ के व्यतिक्रम को निहारें......निहारते रहें..... आत्म चिंतन की अवस्था में शून्य की तरफ बढ़ने की कोशिश जारी रखे...... धीरे-धीरे आप स्वयं के आज्ञाचक्र में झांकने की शक्ति अर्जित कर लेंगे हालांकि आरम्भिक दौर में ये शक्ति अल्पकाल के लिए अर्जित होगी किंतु ये क्रिया निरंतर दोहराते रहने से आप इसे स्थायी बना सकते हैं।

त्राटक के लाभ:-

02 FACTS;-

1-त्राटक का सर्वप्रथम लाभ है कि सिद्धि के पश्चात आपकी तरफ देखने वाला जनसमूह आपका विरोध नहीं कर सकता है। सामने उपस्थित भीड़ आपके अनुकूल होने के लिए बाध्य हो जाती है।

2- दूसरा बड़ा लाभ ये है कि आप भविष्य में घटने वाली किसी भी घटना का पूर्वानुमान लगा सकने में सक्षम हो जाते हैं।

कुण्डलिनी जागरण की विधि;-

06 FACTS;-

1-कुण्डलिनी के उपरोक्त दर्शन को समझते हुए यदि कुण्डलिनी जागरण का क्रिया-योग अपनाना चाहते हैं तो दोनों भौहों के बीच आज्ञा चक्र वाले स्थान में किसी ज्योति का अथवा उगते हुए सूर्य का, किसी प्रकाशपुंज का अथवा किसी देवी-देवता, महापुरुष का ध्यान करें, साथ-साथ मन्त्र का जाप करें। लगभग आध घण्टा तक यह जप, ध्यान किया जा सकता है यदि हिमालय की ऋषि आत्माएं चाहेंगी अथवा पूर्ण जन्मों की पात्रता होगी तो यह बिन्दु फलित होने लगेगा।

मंत्र;-

ॐ सत्- चित् -एकम ब्रह्म

2-इस आज्ञा चक्र वाले स्थान पर कुछ लक्षण प्रकट होने लगेंगे। इस बिन्दु पर मीठा-मीठा दर्द होना प्रारम्भ हो सकता है जो कुछ समय पश्चात तीव्र भी हो सकता है। इस बिन्दु पर कुछ प्रकाश दिखायी दे सकता है। इस बिन्दु पर हल्की-हल्की गुदगुदी/खुजली भी हो सकती है। फव्वारा छूटते दिखना अथवा चीटियां काटने जैसी अनुभूति भी हो सकती है। यदि इस प्रकार का कोई लक्षण उभरने लगे तो जप, ध्यान बढ़ाना चाहिए।

3-आधा घण्टा इस बिन्दु पर ध्यान करने के पश्चात् ऊपर सहस्त्रार में ध्यान करना चाहिए। सहस्त्रार चोटी वाले स्थान पर थोड़ा नीचे की ओर होता है। यही अनुभूतियां (दर्द/ज्योति आदि) सहस्त्रार की ओर गतिमान हो सकती है। फिर यह दर्द सहस्त्रार से नीचे मूलाधर की ओर गतिमान हो जाता है।

4-मूलाधर पर प्रसुप्त कुण्डलिनी पर चोट करके यह दर्द कुण्डलिनी को जगा देता है और यह कुण्डलिनी ऊपर उठकर सहस्त्रार की ओर भागती है। विशुद्धि चक्र तक इसका पथ चौड़ा होता है। आराम से वहां तक पहुंच सकती है, परन्तु इसके ऊपर का मार्ग अति संकीर्ण हो जाता है, अत: कुण्डलिनी जब अधिक शक्तिवान होती है तभी विशुद्धि से ऊपर की नाड़ियों को भेद पाती है।

5-कुण्डलिनी जागरण की इस प्रक्रिया में पहले दो-चार बार नाड़ी शोधन प्राणायाम कर लिया जाए तो मन शान्त होता है व शक्ति जागरण में सहायक होता है। आसन शारीरिक दृष्टि से तो लाभप्रद है, परन्तु कुण्डलिनी जागरण में महत्वपूर्ण नहीं है। किसी भी आसन में (जिसमें सुख से बैठा जा सके) बैठा जा सकता है। यहां पर जो विधि सामान्य तौर (General/Common) पर अपनायी जा सकती है, केवल उसका वर्णन किया गया है।

6- कुण्डलिनी जागरण करने के बहुत सारे और भी उपाय हैं विभिन्न प्रकार के कठोर अभ्यासों से कुण्डलिनी जागरण सम्भव है। बिना उचित मार्ग दर्शक के एवं बिना उचित मनोभूमि के इस प्रकार के अभ्यासों को नहीं अपनाना चाहिए।

सावधानी;-

03 FACTS;-

1-कुण्डलिनी के दर्शन को आत्मसात करना भी बहुत आवश्यक है तभी इससे महत्वपूर्ण सपफलताएं अर्जित की जा सकती हैं।

बहुत से लोग हठ योग द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत करती हैं। इससे कुछ साधको का तंत्रिका -तंत्र विकृत (Nervous Breakdown) हो जाता है। 2-यदि साधक साल-दो-साल तक अपने अथक प्रयासों के बावजूद भी कुण्डलिनी की ऊर्जा संभालने में सफल रहे तो उसे कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास को छोडकर तुरंत निष्काम कर्म योग की ओर समर्पित हो जाना चाहिए।

3-स्थिति बिगड़ते देख चिकित्सकों की शरण में जाने में भी संकोच नहीं करना चाहिए। यद्यपि कुण्डलिनी जागरण को चिकित्सक (Medical Doctors) स्वीकार नहीं करते परंतु दवाओं के द्वारा साध्क की अशांत अवस्था (Disturbed State) को नियंत्रित कर देते है। इस प्रकार की समस्याएं वहीं पर अधिक उत्पन्न होती हैं जहाँ-पर बिना उपयुक्त

मनोभूमि का निर्माण हुए कुण्डलिनी महा शक्ति जाग जाती है।

कुण्डलिनी जागरण -मंत्र जप की विधि ;-

02 FACTS;-

ॐ सत्- चित् -एकम ब्रह्म 1-महानिर्वाण तंत्र के अनुसार;- ''भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर भगवान सदाशिव व्आदि- शक्ति पराम्बा की पूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती''| इसीलिए देवी व् शिवभक्त भस्म, त्रिपुंड और मस्तक पर सिन्दूर का टीका व् रुद्राक्ष माला धारण करते हैं| यह ब्रह्मचर्य और वैराग्य की महिमा को भी प्रकाशित करती है| ... 2-रुद्रयामल तंत्र में शिवजी ने कहा भी है - ‘‘हे प्राणवल्लभे। अवैष्णव, नास्तिक, गुरु सेवा रहित, अनर्थकारी, क्रोधी आदि ऐसे अनाधिकारी को मंत्र अथवा नाम जप की महिमा अथवा विधि कभी न दें। कुमार्गगामी अपने पुत्र तक को यह विद्या न दें। ’’ जप /पुरुश्चरण क्रिया की विधि क्या है ?-

04 FACTS;- 1-किसी भी देवी-देवता का सतत् नाम जप यदि लयबद्धता से किया जाए तो वह अपने में स्वयं ही एक सिद्ध मंत्र बन जाता है। जप की शास्त्रोक्त विधि तो बहुत ही क्लिष्ट है। किसी नाम अथवा मंत्र से इक्षित फल की प्राप्ति के लिए उसमें पुरुश्चरण करने का विधान है। पुरुश्चरण क्रिया युक्त मंत्र शीघ्र फलप्रद होता है। मंत्रादि की पुरुश्चरण क्रिया कर लेने पर कोई भी सिद्धी अपने आराध्य मंत्र के द्वारा सरलता से प्राप्त की जा सकती है। 2-पुरुश्चरण के दो चरण हैं। किसी कार्य की सिद्धी के लिए पहले से ही उपाय सोचना, तदनुसार अनुष्ठान करना तथा किसी मंत्र, नाम जप, स्तोत्र आदि को अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए नियमपूर्वक सतत् जपना इष्ट सिद्धि की कामना से सर्वप्रथम मंत्र, नामादि का पुरश्चरण कर लें। मंत्र में जितने अक्षर हैं उतने लाख जप करें अर्थात 11लाख । 3-मंत्र का दशांश अर्थात दसवां भाग हवन करें। हवन के लिए मंत्र के अंत में ‘स्वाहा’ बोलें। हवन का दशांश तर्पण करें। अर्थात मंत्र के अंत में ‘तर्पयामी’ बोलें। तर्पण का दशांश मार्जन करें अर्थात मंत्र के अंत में ‘मार्जयामि’ अथवा ‘अभिसिन्चयामी’ बोलें। मार्जन का दशांश साधु ब्राह्मण आदि को श्रद्धा भाव से भोजन कराएं, दक्षिणादि से उनको प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद लें। इस प्रकार पुरुश्चरण से मंत्र साधक का कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता। 4-अपने-अपने बुद्धि-विवेक अथवा संत और गुरु कृपा से आराध्य देव का मंत्र, नाम, स्तोत्रादि चुनकर आप भी उसे सतत् जपकर जीवन को सार्थक बना सकते हैं। लम्बी प्रक्रिया में न जाना चाहें तो अपने आराध्य देव के शत, कोटि अथवा लक्ष नाम जप ही आपके लिए प्रभावशाली मंत्र सिद्ध हो सकते हैं। : जप माला कैसे?-

03 FACTS;- 1-जाप शुरू करें । एक माला में 108 दाना होता है । आठ में गुरू ऋण, पितृ ऋण, देव ऋण, मातृ ऋण, देश के शासक का ऋण, जिस कुल में बैठा रहता हूँ उसका भी ऋण चुकाना पड़ता है और जिसका अन्न खाता हूँ उसका भी ऋण चुकाना पड़ता है । 2-ऐसे कर के आठ दाना का जो जाप है, वह इन्हीं लोगों में बट जाता है । रहता है यही सौ जिनकी गिनती कर के संकल्प चाहे 10 हजार का किये हों या लाख का किये हों, उसके पूरा होने पर उसका दसांश हवन करते हैं, जिसे पुरश्चरण कहते हैं । 3-दसांश हवन करने के लिये हमारे पास उतनी सामग्री नहीं है, समय भी बहुत लगेगा । इसलिये हम फिर दसांश जाप कर देते हैं । यदि साधन नहीं है तो फिर जाप करके उसका दसांश हवन कर देते हैं ।किसी ऐसे स्थान पर जहाँ हवन संभव नहीं है वहाँ पर हवन न कर के तर्पण करते हैं । अच्छत, गुण, घी आदि से जल में, जल से तर्पण करते हैं ।

......SHIVOHAM...


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