तांत्रोत्क श्री-विद्या-साधना का क्या रहस्य है ? क्या है श्रीविद्या-साधना की प्रमाणिकता एवं सिद्धांत
श्रीविद्या साधना की प्रमाणिकता एवं प्राचीनता;- 03 FACTS;- 1-एक बार पराम्बा पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि आपके द्वारा प्रकाशित तंत्रशास्त्र की साधना से मनुष्य समस्त आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता से मुक्त हो जायेगा। किंतु सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, उन्नति, समृद्धि के साथ जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति कैसे प्राप्तहो इसका कोई उपाय बताईये। भगवती पार्वती के अनुरोध पर कल्याणकारी शिव ने श्रीविद्या साधना प्रणाली को प्रकट किया। 2-श्रीविद्या साधना भारतवर्ष की परम रहस्यमयी सर्वोत्कृष्ट साधना प्रणाली मानी जाती है। ज्ञान, भक्ति, योग, कर्म आदि समस्त साधना प्रणालियों का समुच्चय (सम्मिलित रूप) ही श्रीविद्या-साधना है। 3-श्रीविद्या साधना की प्रमाणिकता एवं प्राचीनता जिस प्रकार अपौरूषेय वेदों की प्रमाणिकता है उसी प्रकार शिव प्रोक्त होने से आगमशास्त्र (तंत्र) की भी प्रमाणिकता है। सूत्ररूप (सूक्ष्म रूप) में वेदों में, एवं विशुद्ध रूप से तंत्र-शास्त्रों में श्रीविद्या साधना का विवेचन है। श्रीविद्या एवं श्रीयंत्र का जनक;- श्रीयंत्र अथवा श्रीचक्र स्वयं में अनेकानेक रहस्यों को समेटे हुए है। एक बार जब भगवान ने सभी मंत्रों को दैत्यों द्वारा दुरुपयोग से बचाने के लिए कीलित कर दिया था, तब महर्षि दत्तात्रेय ने ज्यामितीय कला के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, चाप अर्धवृत्त, चतुष्कोण आदि को आधार बनाकर बीज मंत्रों से इष्ट शक्तियों की पूजा हेतु यंत्रों का आविष्कार किया। इसलिए महर्षि दत्तात्रेय को श्रीविद्या एवं श्रीयंत्र का जनक कहा जाता है। श्रीविद्या साधना के उपासक;- 06 FACTS;- 1-श्रीविद्या का साहित्य विशाल है। अलग-अलग ग्रन्थों में इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित कुछ अलग-अलग बातें कहीं गयी हैं किन्तु इसके सामान्य सिद्धान्त काश्मीरी शैव सम्प्रदाय के सिद्धान्तों के समान ही हैं। 2-श्रीविद्या के भैरव हैं- त्रिपुर भैरव (देव शक्ति संगमतंत्र)। महाशक्ति के अनन्त नाम और अनन्त रूप हैं। इनका परमरूप एक तथा अभिन्न हैं। त्रिपुरा उपासकों के मतानुसार ब्रह्म आदि देवगण त्रिपुरा के उपासक हैं। उनका परमरूप इंद्रियों तथा मन के अगोचर है। एकमात्र मुक्त पुरूष ही इनका रहस्य समझ पाते हैं। यह पूर्णाहंतारूप तथा तुरीय हैं। देवी का परमरूप वासनात्मक है, सूक्ष्मरूप मंत्रात्मक है, स्थूलरूप कर-चरणादि-विशिष्ट है। 3-श्रीविद्या के उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है। यह देवी गुहय विद्या प्रवर्तक होने के कारण विश्वेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी के बारह मुख और नाम प्रसिद्ध हैं। 4-शास्त्रों में श्रीविद्या के बारह उपासक बताये गये है- मनु, चन्द्र, कुबेर, लोपामुद्रा,मन्मथ, अगस्त्य अग्नि, सूर्य, इन्द्र, स्कन्द,शिव और दुर्वासा ये श्रीविद्या के द्वादश उपासक है। इन लोगों ने श्रीविद्या की साधना से अपने अधिकार के अनुसार पृथक् फल प्राप्त किया था। 5-श्रीविद्या के उपासक आचार्यो में दत्तात्रय, परशुराम, ऋषि अगस्त, दुर्वासा, आचार्य गौडपाद, आदिशंकराचार्य, पुण्यानंद नाथ, अमृतानन्द नाथ, भास्कराय, उमानन्द नाथ प्रमुख है। 6-इस प्रकार श्रीविद्या का अनुष्ठान चार भगवत् अवतारों दत्तात्रय, श्री परशुराम,भगवान ह्यग्रीव और आद्यशंकराचार्य ने किया है। श्रीविद्या साक्षात्ब्रह्मविद्या है।श्रीविद्या साधना समस्त ब्रह्मांड प्रकारान्तर से शक्ति का ही रूपान्तरण है। श्रीविद्या-साधना और शक्ति का सन्तुलन ;- 12 FACTS;- 1-सारे जीव-निर्जीव, दृश्य-अदृश्य, चल-अचल पदार्थो और उनके समस्तक्रिया कलापों के मूल में शक्ति ही है।शक्ति ही उत्पत्ति, संचालन और संहार का मूलाधार है।जन्म से लेकर मरण तक सभी छोटे-बड़े कार्योके मूल में शक्ति ही होती है। शक्ति की आवश्यक मात्रा और उचित उपयोग ही मानव जीवन में सफलता का निर्धारण करती है, इसलिए शक्ति का अर्जन और उसकी वृद्धि ही मानव की मूल कामना होती है। 2- धन, सम्पत्ति, समृद्धि,राजसत्ता, बुद्धि बल, शारीरिक बल,अच्छा स्वास्थ्य, बौद्धिक क्षमता, नैतृत्वक्षमता आदि ये सब शक्ति के ही विभिन्नरूप है। इन में असन्तुलन होने पर अथवा किसी एक की अतिशय वृद्धि मनुष्य के विनाश का कारण बनती है। 3-सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है कि शक्ति की प्राप्ति पूर्णता का प्रतीक नहीं है, वरन् शक्ति का सन्तुलित मात्रा में होना ही पूर्णता है। शक्ति का सन्तुलन विकास का मार्गप्रशस्त करता है। वहीं इसका असंतुलन विनाश का कारण बनता है। समस्त प्रकृति पूर्णता और सन्तुलन के सिद्धांत पर कार्य करती है। 4-मनुष्य के पास प्रचुर मात्र में केवल धन ही हो तो वह धीरे-धीरे विकारों का शिकार होकर वह ऐसे कार्यों में लग जायेगा जो उसके विनाश का कारण बनेगें। इसी प्रकार यदि मनुष्य के पास केवल ज्ञान हो तो वह केवल चिन्तन और विचारों में उलझकर योजनाएं बनाता रहेगा। साधनों के अभाव में योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं हो पायेगा। यदि मनुष्य में असिमित शक्ति हो तो वह अपराधी या राक्षसी प्रवृत्ति का हो जायेगा। इसका परिणाम विनाश ही है। 5-जीवन के विकास और उसे सुन्दर बनाने केलिये धन-ज्ञान और शक्ति के बीच संतुलन आवश्यक है। श्रीविद्या-साधना वही कार्य करती है, श्रीविद्या-साधना मनुष्य को तीनों शक्तियों की संतुलित मात्रा प्रदान करती है और उसके लोक परलोक दोनों सुधारती है। 6-जब मनुष्य में शक्ति संतुलन होता है तो उसके विचार पूर्णतः पॉजिटिव (सकारात्मक,धनात्मक) होते है। जिससे प्रेरित कर्म शुभहोते है और शुभ कर्म ही मानव के लोक-लोकान्तरों को निर्धारित करते है तथा मनुष्य सारे भौतिक सुखों को भोगता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है। 7-श्रीविद्या-साधना ही एक मात्र ऐसी साधना है जो मनुष्य के जीवन में संतुलन स्थापित करती है। अन्य सारी साधनाएं असंतुलित या एक तरफा शक्ति प्रदान करती है। इसलिए कई तरह की साधनाओं को करने के बाद भी हमें साधकों में न्यूनता (कमी) के दर्शन होते है। वे कई तरह के अभावों और संघर्ष में दुःखी जीवन जीते हुए दिखाई देते है और इसके परिणाम स्वरूप जन सामान्य के मन में साधनाओं के प्रति अविश्वास और भय का जन्म होता है और वह साधनाओं से दूर भागता है। 8-भय और अविश्वास के अतिरिक्त योग्य गुरू का अभाव, विभिन्न यम-नियम-संयम, साधना की सिद्धि में लगने वाला लम्बा समय और कठिन परिश्रम भी जन सामान्य को साधना क्षेत्र से दूर करता है। किंतु श्रीविद्या-साधना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अत्यंत सरल, सहज और शीघ्र फलदायी है। सामान्य जन अपने जीवन में बिना भारी फेरबदल के सामान्य जीवन जीते हुवे भी सुगमता पूर्वक साधना कर लाभान्वित हो सकते है। 9-श्रीविद्या साधना जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे ,व्यक्ति के सर्वांगिण विकास में सहायक है। कलियुग में श्रीविद्या की साधना ही भौतिक, आर्थिक समृद्धि और मोक्ष प्राप्ति का साधना है। 10-देवताओं और ऋषियों द्वारा उपासित श्रीविद्या-साधना वर्तमान समय की आवश्यकता है। यह परमकल्याणकारी उपासना करना मानव के लिए अत्यंत सौभाग्य की बात है। 11-श्रीविद्या-साधक के लिए अब कुछ भी असंभव नहीं है, चाहें वह सुख-समृद्धि हो, सफलता, शांति ऐश्वर्य या मुक्ति (मोक्ष) हो। ऐसा नहीं कि साधक के जीवन में विपरीत परिस्थितियां नहीं आती है। विपरीत परिस्थितियां तो प्रकृति का महत्वपूर्ण अंग है। संसार में प्रकाश है तो अंधकार भी है। सुख-दुःख, सही-गलत, शुभ-अशुभ, निगेटिव-पॉजिटिव, प्लस-मायनस आदि। प्रकाश का महत्व तभी समझ में आता है जब अंधकार हो।सुख का अहसास तभी होता हैं जब दुःख का अहसास भी हो चुका हो। 12-श्रीविद्या-साधक के जीवन में भी सुख-दुःख का चक्र तो चलता है, लेकिन अंतर यह है कि श्रीविद्या-साधक कीआत्मा व मस्तिष्क इतने शक्तिशाली हो जाते है कि वह ऐसे कर्म ही नहीं करता कि उसे दुःख उठाना पड़े किंतु फिर भी यदि पूर्व जन्म के संस्कारों, कर्मो के कारण जीवन में दुःख संघर्ष है तो वह उन सभी विपरीत-परिस्थितियों से आसानी से मुक्त हो जाता है। वह अपने दुःखों को नष्ट करने में स्वंय सक्षम होता है। श्रीविद्या-साधना के सिद्धांत;- 07 FACTS;- 1-संतुलन का सिद्धांत;- शक्ति के सभी रूपों में धन-समृद्धि, सत्ता, बुद्धि, शक्ति, सफलता के क्षेत्र में। 2-संपूर्णता का सिद्धांत- धर्म-अर्थ-काम- मोक्ष की प्राप्ति। 3-सुलभता का सिद्धांत- मिलने में आसान। 4-सरलता का सिद्धांत- करने में आसान। 5-निर्मलता का सिद्धांत- बिना किसी दुष्परिणाम के साधना। 6-निरंतरता का सिद्धांत- सदा, शाश्वत लाभ और उन्नति। 7-सार्वजनिकता का सिद्धांत-हर किसी के लिए सर्वश्रेष्ठ साधना । श्रीविद्या के मुख्य संप्रदाय;- 09 FACTS;- 1-श्रीविद्या के मुख्य 12 संप्रदाय हैं,इनमें से बहुत से संप्रदाय लुप्त हो गए है,केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामुद्रा का संप्रदाय अभी जीवित है। कामराज विद्या (कादी) और पंचदशवर्णात्मक तंत्र राज, और त्रिपुरउपनिषद के समान लोपामुद्रा विद्या आदि भी पंचदशवर्णात्मक हैं। 2-कामेश्वर अंकस्थित कामेश्वरी की पूजा के अवसर पर इस विद्या का उपयोग होता है,लोपामुद्रा अगस्त की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय पराशक्ति के प्रति भक्ति संपन्न हुई थीं। 3-त्रिपुरा की मुख्य शक्ति भगमालिनी है। लोपामुद्रा के पिता भगमालिनी के उपासक थे। लोपामुद्रा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना देखकर भगमालिनी की उपासना प्रारंभ कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पदसेवा का अधिकार उन्हें दिया था। 4-त्रिपुराविद्या का उद्धार करने पर उनके नाम सेलोपामुद्रा ने ऋषित्व प्राप्त किया।अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से उन्होंने दीक्षा ली। 5-दुर्वासा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है। श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है। यही आत्मशक्ति है। 6-अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थें, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की उपासना और पूजा होती चली आ रही है।त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति का नाम ललिता है। ऐसी किवदंती है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घूमते समय जीवों के दु:ख देखकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपुर में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तुष्ट किया था। उस समय महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति ललिता का माहात्म्य वर्णित किया जिस प्रसंग में भंडासुर वध प्रभृति का वर्णन था। 7-श्रीविद्या का एक भेद कादी है, एक हादी और एक कहादी। श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है।यह चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है।प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री वेद का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना। दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है। 8-कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है।गौड संप्रदाय के अनुसार श्रेष्ठ मत कादी है, परंतु कश्मीर और केरल में प्रचलित शाक्त मतों के अनुसार श्रेष्ठ मत त्रिपुरा और तारा के हैं। कादी देवता काली है। हादी उपासकों की त्रिपुरसंदरी हैं और कहादी की देवता तारा या नील सरस्वती हैं। 9-श्री विद्या उपासना श्री योगेश्वरानंद सभी शंकरपीठों में भगवती त्रिपुरसुंदरी की उपासना श्रीयंत्र में की जाती है, जिसे श्री चक्र भी कहा जाता है। यह श्रीयंत्र अथवा श्रीचक्र भगवान शिव और मां शिवा दोनों का शरीर है, जिसमें ब्रह्मांड और पिंडांड की ऐक्यता है। एक स्थान पर स्वयं भगवान आद्य शंकराचार्य ने कहा है कि ‘‘मेरे संपूर्ण साधना-जीवन का सारांश यह है कि संसार की समस्त साधनाओं में भगवती त्रिपुरसुंदरी साधना स्वयं में पूर्ण है, अलौकिक है, अद्वितीय है और आश्चर्यजनक रूप से सिद्धि प्रदान करने वाली है।’’
श्रीविद्या की पीठ, मंदिर एवं पूजा स्थल;-
05 FACTS;-
यद्यपि यह संपूर्ण विश्व ही भगवती त्रिपुर संदुरी का निवास है फिर भी स्थूल दृष्टि से उनके कुछ प्रमुख स्थानों का विवरण यहां प्रस्तुत है।
1-श्री विंध्यवासिनी क्षेत्र में अष्टभुजा के मंदिर के पास भैरव कुंड नामक स्थान है। यहां एक खंडहर में विशदाकार श्रीयंत्र रखा हुआ है।
2- एक अन्य श्रीयंत्र फर्रुखाबाद जनपद के तिरवा नामक स्थान पर है। वहां एक विशाल मंदिर है, जिसे माता अन्नपूर्णा का मंदिर कहा जाता है। लेकिन वास्तव में वह त्रिपुरा का मंदिर है। यहां एक ऊंचे से चबूतरे पर संगमरमर पत्थर पर बहुत बड़ा श्रीयंत्र बना हुआ है और उसके केंद्र बिंदु पर पाशांकुश एवं धनुर्बाण से युक्त भगवती की बहुत ही सुंदर चतुर्भुजी प्रतिमा है। इस मंदिर का निर्माण राजा तिरवा ने लगभग सवा सौ वर्ष पूर्व किसी तांत्रिक महात्मा के निर्देशानुसार कराया था। यह स्थान 51 शक्तिपीठों में से एक है।
3-इसी प्रकार महाराष्ट्र में मोखी नगर में भगवती का विशाल मंदिर है, जहां बहुत ही सुन्दर श्रीयंत्र बना हुआ है। इस मंदिर को कामेश्वराश्रम के नाम से जाना जाता है।
4-इसी प्रकार जबलपुर के पास परमपूज्य गुरुदेव जगद् गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने भी सुरम्य वनाच्छादित प्रदेश में परमहंसी गंगा आश्रम की स्थापना की थी जहां मंदिर की ऊंचाई लगभग 218 फुट ऊंची है और उसके गर्भ गृह में भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुरसुंदरी की पांच फुट ऊंची दिव्य एवं मनोहर प्रतिमा है। यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला की अनुपम कृति है, जो मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के झोटेश्वर नामक स्थान पर है।
5- इनके अतिरिक्त कुछ अन्य सुरम्य स्थलों पर भी भगवती त्रिपुरसुंदरी के पीठ स्थापित हैं, जिनमें वाराणसी में केदारघाट पर श्रीविद्या मठ, पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कोन्नगर स्थान पर राजराजेश्वरी सेवा मठ, मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में मोहनगढ़ में राजराजेश्वरी मंदिर, कोलकाता के श्रीरामपुर में श्रीमाता कामकामेश्वरी मंदिर और जनपद मेरठ के सम्राट पैलेस स्थान पर भगवती राजराजेश्वरी मंदिर प्रमुख हैं।
श्रीयंत्र विद्या की पात्रता-
04 FACTS;-
1-श्रीयंत्र यंत्रों में सर्वश्रेष्ठ है। परंतु आजकल प्रायः ‘श्रीचक्र’ ही देखने में आते हैं, जो बीज, शक्ति, मंत्र आदि से रहित होते हैं। बीजाक्षर शक्ति, मंत्र और यंत्र की आत्मा तथा प्राण होते हैं। श्रीचक्र इतना प्रभावशाली होता है कि उसके प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक दर्शनमात्र से ही कुछ समय के उपरांत मनोकामना पूर्ण होने लगती है। इस यंत्रराज की स्वामिनी भगवती त्रिपुरसुंदरी हैं, जो दश महाविद्याओं में तृतीय महाविद्या हैं और षोडशी स्वरूपा हैं।
2-तंत्र अथवा मंत्र की सिद्धि के लिए दीक्षा प्राप्त करना आवश्यक है। फिर श्रीविद्या तो एक गुह्य विद्या है, जिसे गुरु से दीक्षा लेकर अभ्यास द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। एक बड़े कवि ने यह भी कहा है कि श्रद्धा से भी सब कुछ संभव है। उनके शब्दों में - ‘‘श्रद्धा मनुष्य जीवन का मेरूदंड है। जिस प्रकार मेरुदंड’’ के बिना मनुष्य अशक्त होता है, उसी प्रकार श्रद्धा रहित मनुष्य का जीवन भी शक्ति और तेज से हीन रहता है।’’
3-श्रीयंत्र की स्वामिनी भगवती ललिता की उपासना के लिए दीक्षा एक अनिवार्य शर्त है, परंतु यदि कोई योग्य गुरु न मिलें तो श्रीयंत्र की पूजा श्रद्धा और विश्वासपूर्वक जन सामान्य भी कर सकते हैं। इससे सुख-समृद्धि के साथ-साथ मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग भी स्वतः ही खुलने लगता है। भगवती ललितांबा शक्ति संपन्न वैष्णवी शक्ति हैं, वे ही विश्व की कारण भूता परामाया हैं, भोग और मोक्ष की दाता हैं और संपूर्ण जगत् को मोहित किए हुए हैं। सभी विद्याएं उनके ही स्वरूप हैं, उन्होंने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है।
4-श्रीयंत्र की साधना किसी भी आयु, वर्ग अथवा जाति का साधक कर सकता है। स्त्री-वर्ग के विषय में तो स्पष्ट कहा गया है कि- ‘‘यदि कोई साधिका केवल पूर्णमासी की रात्रि को ही इस साधना को संपन्न कर ले तो वह विश्व की विजेता बन सकती है।‘
भगवती त्रिपुर सुन्दरी की उपासना का महत्व ;-
09 FACTS;-
1-श्री विद्या ललिता त्रिपुर सुन्दरी धन, ऐश्वर्य, भोग एवं मोक्ष की अधिष्ठाता देवी हैं। अन्य विद्याओं की उपासना मंत या तो भोग मिलता है या फिर मोक्ष, लेकिन श्री विद्या का उपासक जीवन पर्यन्त सारे ऐश्वर्य भोगते हुए अन्त में मोक्ष को प्राप्त करता है। इनकी उपासना तंत्र शास्त्रों में अति रहस्यमय एवं गुप्त रूप से प्रकट की गयी है। पूर्व जन्म के विशेष संस्कारों के बलवान होने पर ही इस विद्या की दीक्षा का योग बनता है।
2-ऐसे बहुत ही कम लोग होते हैं जिन्हे इस जीवन में यह उपासना करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। मुख्य रूप से इनके तीन स्वरूपों की पूजा होती है। प्रथम आठ वर्षीया स्वरूप बाला त्रिपुरसुन्दरी, द्वितीय सोलह वर्षीया स्वरूप षोडशी, तृतीय युवा अवस्था स्वरूप ललिता त्रिपुरसुन्दरी। श्री विद्या साधना में क्रम दीक्षा का विधान है एवं सर्वप्रथम बाला सुन्दरी के मंत्र की दीक्षा साधको को दी जाती है।
3-आदिगुरू भगवत्पाद शंकराचार्य ने सौन्दर्य लहरी नामक ग्रन्थ में मां त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उनके अनिवर्चनीय स्वरूप का वर्णन करने के लिए ही उन्होंने सौन्दर्य लहरी ग्रन्थ की रचना की जिसमें उन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से मां की स्तुति की है। वास्तव में इसके दो खण्ड हैं…..आनन्द लहरी और सौन्दर्य लहरी। इन दोनों को एकत्र करके ही सौन्दर्य लहरी का नाम दिया गया है। इसमें प्रस्तुत स्तुति बहुत ही प्रभावी और रहस्यों से परिपूर्ण है। इससे कई साधनांए एवं ऐसे प्रयोग सिद्ध होते हैं, जो मानव जीवन के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हैं।
4-भगवती त्रिपुर सुन्दरी की इस स्तुति से साधकों को अत्यन्त ही सुख, शांति एवं परम ज्ञान की प्राप्ति होती है। उस परम शक्ति के प्रकाश से सम्पूर्ण जगत प्रकाशमान है। यन्त्र, मन्त्र एवं तन्त्र के माध्यम से हम उनकी उपासना बाह्य रूप में करते हैं। यन्त्रों की उत्पत्ति भगवान शिव के ताण्डव नृत्य से मानी जाती है। मन्त्रों के साथ यन्त्रों का प्रयोग आदि काल से होता रहा है। अतः साधक दोनों का प्रयोग करें।
5-जो साधक श्रीयंत्र के माध्यम से त्रिपुरसुंदरी महालक्ष्मी की साधना के लिए प्रयासरत होता है, उसके एक हाथ में सभी प्रकार के भोग होते हैं, तथा दूसरे हाथ में पूर्ण मोक्ष होता है. आशय यह कि श्रीयंत्र का साधक समस्त प्रकार के भोगों का उपभोग करता हुआ अंत में मोक्ष को प्राप्त होता है. इस प्रकार यह एकमात्र ऐसी साधना है जो एक साथ भोग तथा मोक्ष दोनों ही प्रदान करती है, इसलिए प्रत्येक साधक इस साधना को प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है.
6-यह विश्व ही श्री विद्या का गृह है। यहां ‘विश्व’ शब्द का तात्पर्य पिंडांड और ब्रह्मांड दोनों से है। इस प्रकार श्रीयंत्र जैसे विश्वमयी है, उसी प्रकार शब्द सृष्टि में मातृकामयी है। त्रिपुरसुंदरी चक्र ब्रह्मांडाकार है। इस यंत्र की रचना दो त्रिकोणों की परस्पर संधि से होती है, जो एक दूसरे से मिले रहते हैं। इससे ब्रह्मांड में पिंड का और पिंडांड में ब्रह्मांड का ज्ञान होता है। यह यंत्र शिव और शक्ति की एकात्मता को भी प्रदर्शित करता है।
7-श्रीविद्या साधना संसार की सर्वश्रेष्ठ साधनाओ मे से एक हैं। ध्यान के बिना केवल मन्त्र का जाप करना श्री विद्या साधना नही है.बिना ध्यान के केवल दस प्रतिशत का ही लाभ मिल सकता है। श्रीविद्या साधना में ध्यान का विशेष महत्व हैं। इसलिए पहले ध्यान का अभ्यास करे व साथ-साथ जप करे,अन्त मे केवल ध्यान करें।
8-श्री विद्या में ध्यान के लिए श्रीयन्त्र का महत्वपूर्ण योगदान है। श्री विद्या साधना श्रीयन्त्र के बिना सम्पन्न नही हो सकती. श्री विद्या साधना करने वाले साधको को चाहिए पहले श्रीयन्त्र लें। श्रीयन्त्र को ऊपर से व अन्दर की तरफ से अच्छी तरह मन व बुद्धि में बैठा ले. उस के अन्दर के आकार को अच्छी तरह ध्यान मे बैठा लें।
9-श्रीयन्त्र को अन्दर से व ऊपरी भाग को ध्यान से देखें इस के अन्दर की तरफ आप को तीन रेखा दिखाई देंगीं। इन रेखाओ के ऊपर बिन्दु हैं.त्रिकोण के ऊपर बिन्दु हैं। इन दो चिन्हों का विशेष महत्व है। साधना आरम्भ करने से पहले आप धारणा करें कि हमारा शरीर व ब्रह्माण्ड दोनो ही श्रीयन्त्र के आकार के हैं। CONTD.
....SHIVOHAM...