जन्माष्टमी स्पेशल... क्या है भगवान श्री कृष्ण के रहस्य ?PART-01
THE KEY POINTS;-
1-हिंदू धर्म शास्त्रों में कूट भाषा ( code language) का प्रयोग किया गया है ताकि अयोग्य व्यक्तियो द्वारा दुरुपयोग न किया जा सके।साधना सिद्ध या संपन्न करने की क्रिया को कहानियाँ के द्वारा बताया गया है।
2-कबीर जी इस दोहे द्वारा मनुष्यों को प्रयत्न करने के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं कि..
''जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ''।
अर्थ : -
जिन खोजा: जिसने कोशिश की
तिन पाइया: उसने पा लिया
गहरे पानी पैठ: गहरे पानी मे उतरकर
मैं बपुरा: मैं असहाय
बूडन डरा: डूबने से डरता
रहा किनारे बैठ: किनारे पर बैठा रहा
परमेश्वर और महाविष्णु ;-
0 7 FACTS;-
1-यह अनंत ब्रह्माण्ड अलख-निरंजन परब्रह्म परमात्मा का खेल है। जैसे बालक मिट्टी के घरोंदे बनाता है, कुछ समय उसमें रहने का अभिनय करता है और अंत मे उसे ध्वस्त कर चल देता है। उसी प्रकार परब्रह्म भी इस अनन्त सृष्टि की रचना करता है, उसका पालन करता है और अंत में उसका संहार कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। यही उसकी क्रीडा है, यही उसका अभिनय है, यही उसका मनोविनोद है, यही उसकी निर्गुण-लीला है जिसमें हम उसकी लीला को तो देखते हैं, परन्तु उस लीलाकर्ता को नहीं देख पाते।
2-परब्रह्म परमात्मा का प्रकृति के असंख्य ब्रह्माण्डों को बनाने-बिगाड़ने का यह अनवरत कार्य कब प्रारम्भ हुआ और कब तक चलेगा, यह कोई नहीं जान सकता। उनके लिए सृष्टि, पालन एवं संहार–तीनों प्रकार की लीलाएं समान हैं। जब प्रकृति में परमात्मा के संकल्प से विकासोन्मुख परिणाम होता है, तो उसे सृष्टि कहते हैं और जब विनाशोन्मुख परिणाम होता है, तो उसे प्रलय कहते हैं। सृष्टि और प्रलय के मध्य की दशा का नाम स्थिति है।
3-वैदिक समय से ही श्रीहरि विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं।हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में
बहुमान्य पुराणानुसार श्रीहरि विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति श्रीविष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है।
4-मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं।
5-पुराणानुसार श्रीहरि विष्णु की पत्नी माता लक्ष्मी हैं। कामदेव श्रीविष्णु जी का पुत्र है। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं।
वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल) , अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं।
6-विष्णु का सम्पूर्ण स्वरूप ज्ञानात्मक है। पुराणों में उनके द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों तथा आयुधों को भी प्रतीकात्मक माना गया है :-
6-1-कौस्तुभ मणि = जगत् के निर्लेप, निर्गुण तथा निर्मल क्षेत्रज्ञ स्वरूप का प्रतीक
6-2-श्रीवत्स = प्रधान या मूल प्रकृति
6-3-गदा = बुद्धि
6-4-शंख = पंचमहाभूतों के उदय का कारण तामस अहंकार
6-5-शार्ंग (धनुष) = इन्द्रियों को उत्पन्न करने वाला राजस अहंकार
6-6-सुदर्शन चक्र = सात्विक अहंकार
6-7-वैजयन्ती माला = पंचतन्मात्रा तथा पंचमहाभूतों का संघात [वैजयन्ती माला मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील तथा हीरा -- इन पाँच रत्नों से बनी होने से पंच प्रतीकात्मक]
6-8-बाण = ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय।
6-9-खड्ग = विद्यामय ज्ञान {जो अज्ञानमय कोश (म्यान) से आच्छादित रहता है।}
6-10-शेषनाग= इनके सहस्र (हजार) फणों के कारण इनका दूसरा नाम 'अनंत' है। यह सदा पाताल में ही रहते थे और इनकी एक कला क्षीरसागर में भी है जिसपर विष्णु भगवान शयन करते हैं। अपनी तपस्या द्वारा इन्होंने ब्रह्मा से संपूर्ण पृथ्वी धारण करने का वरदान प्राप्त किया था।
7-सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु को दो रूपों में वर्णित किया गया जिसमें एक है उनका शांत और सहज रूप और दूसरा, जिसमें उन्हें कालस्वरूप शेषनाग के ऊपर बैठा दिखाया गया है; जीवन का हर क्षण कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को अपने अंदर स्मेटे होता है, जिनमें सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व होता है परिवार और समाज के प्रति. सच यह भी है कि इन सभी जिम्मेदारियों को निभाने में कई परेशानियों का भी सामना करना पड़ता है और शेषनाग रूपी परेशानियों को अपने नियंत्रण में रखकर भगवान विष्णु यही संदेश देते हैं कि मुश्किल से मुश्किल समय में भी शांत रहकर कार्य करना चाहिए, इससे परेशानियां आसानी से हल हो जाती है.
क्या है चैतन्य?-
04 FACTS;-
1-मात्र ईश्वर के अस्तित्व से ब्रह्मांड निरंतर बना हुआ है ।ईश्वर की शक्ति जो ब्रह्मांड को चलाती है उसे चैतन्य कहते है । एक व्यक्ति के विषय में, चैतन्य को चेतना कहते हैं और यह ईश्वरीय शक्ति का वह अंश है जो मनुष्य की क्रियाओं के लिए चाहिए होती है ।
2-यह चेतना दो प्रकार की होती है और अपनी कार्य करने की अवस्था के आधार पर, इसे दो नाम से जाना जाता है ..
2-1-क्रियाशील चेतना; –
यह प्राण शक्ति भी कहलाती है । प्राण शक्ति स्थूल देह, मनोदेह, कारण देह और महाकारण देह को शक्ति देती है । यह चेतना शक्ति की सूक्ष्म नालियों द्वारा फैली होती है जिन्हें नाडी कहते हैं । यह नाडी पूरे देह में फैली होती हैं और कोशिकाओं, नसों, रक्त वाहिनी, लसिका (लिम्फ) इत्यादि को शक्ति प्रदान करती हैं ।
2-2-सुप्त चेतना ( कुंडलिनी )- जो कुंडलिनी कहलाती है । कुंडलिनी एक आध्यात्मिक शक्ति है तथा यह सामान्य व्यक्ति में सुप्त अवस्था में, सर्पीले आकार में सुषुम्ना नाडी के मूल में (मूलाधार चक्र) रहती है । साधना से यह रीढ के मूल से ऊपर की ओर सुषुम्ना नाडी से होते हुए मस्तिष्कतक जाती है । जब वह ऐसा करती है तब कुंडलिनीमार्ग में प्रत्येक चक्र को जागृत करती हुई जाती है ।
3-जब कुंडलिनी सुषुम्ना नाडी से प्रवाहित होते हुए प्रत्येक चक्र से गुजरती है, तब एक पतला सूक्ष्म द्वार रहता है जिसे प्रत्येक चक्र पर खोलकर वह अपनी आगे की ऊपर की दिशा में यात्रा करती है । जब वह द्वार को बार-बार धकेलती है तब कभी कभी सुष्मना नाडी के द्वारा उस चक्र पर आध्यात्मिक उर्जा का प्रमाण बढ जाता है। तब कहीं और जाने का मार्ग न मिलने पर वह आसपास की सूक्ष्म वाहिनियों में प्रवाहित होने लगती है और प्राण शक्ति में परिवर्तित होती है । उस समय व्यक्ति उस क्षेत्र से संबंधित महानतम क्रियाकलापों का अनुभव लेता है ।
4-भक्तिमार्ग के अनुसार कहा जाता है कि साधक का भाव जागृत हुआ है ।
ज्ञानमार्ग के अनुसार साधक को दिव्य ज्ञान की अनुभूति होने लगती है
कुंडलिनी आपके भीतर वह खजाना है, जिसका अब तक इस्तेमाल नहीं हुआ है, जिसका अब तक लाभ नहीं उठाया गया है। आप उस ऊर्जा का इस्तेमाल करके उसे बिल्कुल अलग आयाम में रूपांतरित कर सकते हैं, एक ऐसे आयाम में जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते।
क्षीर सागर,शेषनाग तथा कुण्डलिनी जागरण का क्या सम्बन्ध है?-
02 POINTS;-
1-शेषनाग भगवान की सर्पवत् आकृति विशेष होती है। सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात् भी ये बचे रहते हैं, इसीलिए इनका नाम 'शेष' हैं। सर्पाकार होने से इनके नाम से 'नाग' विशेषण जुड़ा हुआ है। शेषनाग स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। शेष नाग के हज़ार मस्तक हैं। वे नील वस्त्र धारण करते हैं तथा समस्त देवी-देवताओं से पूजित हैं।रात्रि के समय आकाश में जो वक्राकृति आकाशगंगा दिखाई पड़ती है और जो क्रमश: दिशा परिवर्तन करती रहती है, यह निखिल ब्रह्मांडों को अपने में समेटे हुए हैं। उसकी अनेक शाखाएँ दिखाई पड़ती हैं। वह सर्पाकृति होती है। इसी को शेषनाग कहा गया है।पुराणों तथा काव्यों में शेष का वर्ण श्वेत कहा गया है। आकाशगंगा श्वेत होती ही है। यहाँ 'ऊँ' की आकृति में विश्व ब्रह्मांड को घेरती है। 'ऊँ' को ब्रह्म कहा गया है। वही शेषनाग है।
2-आज इंसान परमाणु विज्ञान की खोज में लगा हुआ है। परमाणु को आप देख भी नहीं सकते, लेकिन अगर आप इस पर प्रहार करें, इसे तोड़ दें तो एक जबर्दस्त घटना घटित होती है। जब तक परमाणु को तोड़ा नहीं गया था तब तक किसी को पता भी नहीं था कि इतने छोटे से कण में इतनी जबर्दस्त ऊर्जा मौजूद है।इसी तरह से इंसान भी एक जैविक परमाणु है, जीवन की एक इकाई है। इंसान के भीतर भी वैसी ही जबर्दस्त ऊर्जा मौजूद है। कुंडलिनी जागरण का मतलब यह है कि आपने उस अपार ऊर्जा के इस्तेमाल की तकनीक को पा लिया है।कुंडलिनी जागरण अथवा कुंडलिनी साधन के दो मुख्य मार्ग हैं |योग द्वारा कुंडलिनी जागरण और तंत्र द्वारा कुंडलिनी जागरण ...... सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है| सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है।
कुण्डलिनी जागरण का क्या रहस्य है ?
05 FACTS;-
1-कुण्डलिनी जागरण क्या है ..इसके लिए एक पौराणिक कथा का वर्णन करना आवश्यक है। संक्षेप में कथा इस प्रकार है-
एक बार देवताओं व असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन करने की ठानी गई। मदिराचल पर्वत के चारों ओर शेषनाग को लपेटकर विशाल मथानी बनायी।शेषनाग के साड़े तीन फेरे उस पर्वत पर लगाये गये और उसके द्वारा मन्थन कार्य सम्पन्न हुआ ।
एक सिरा देवताओं ने पकड़ा, दूसरा सिरा दानवों ने। समुद्र मंथन के दौरान अनेक बहुमूल्य रत्नों की प्राप्ति हुई। ये रत्न देव-दानवों ने आपस में बांट लिये। हलाहल विष भी निकला जिसको भगवान् शिव पी गए। अमृत निकला जिसको दानवों से बचाकर देवताओं को पिलाया गया जिससे देवता अमर हो गए। परन्तु एक दो असुर (राहु, केतु) भी अमृत पी गए, जिस कारण वो भी अमर हो गए।
2-इसका तत्व दर्शन इस प्रकार है। समुद्र मंथन से तात्पर्य कुण्डलिनी मंथन/जागरण से है। कुण्डलिनी मंथन के लिए देव व दानव दोनों प्रकार की शक्तियों की आवश्यकता होती है। देव शक्ति प्रतीक हैं- दिव्य गुणों की दिव्य भावनाओं की। साधक के भीतर दिव्य भावनाओं का स्त्रोत विद्यमान होना चाहिए। दिव्य भावनाओं से अर्थ है- परमार्थ की भावना, सबके भले की भावना, संतोष की भावना, त्याग की भावना, सहयोग की भावना, नि:स्वार्थ प्रेम की भावना, क्षमाशीलता की भावना, पवित्रता की भावना आदि-आदि।
3-इसी प्रकार असुर शक्ति प्रतीक है- तप, कठोरता,संकल्प शक्ति, बलिदान, वीरता और निर्भयता का। साधक जहां दिव्य भावनाओं से परिपूर्ण हो वहां कठोर तपस्वी भी होना चाहिए। साधक में असुर भाव का समावेश भी होना चाहिए। यहाँ असुर भाव से अर्थ है- पुरुषाथी होना चाहिए, साहसी होना चाहिए, कठिनाइयों में घबराना नहीं चाहिए, कष्ट सहिष्णु होना चाहिए, इन्द्रिय संयमी होना चाहिए, मन की इच्छाओं के प्रतिकूल चलने वाला होना चाहिए, दृढ़ संकल्पी होना चाहिए, वीर भाव से ओत-प्रोत होना चाहिए, आत्मविश्वासी व धैर्यवान होना चाहिए।
4-ऐसा साधक, जिसमें देव व दानव दोनों तत्वों का समावेश हो, ही कुण्डलिनी मंथन करने में सक्षम व सफल हो सकता है। यही इसका आधर है। मदिराचल (SPINE)के चारों ओर शेषनाग लिपटे हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति के ही आकार (Shape) का वर्णन हैं जो सूक्ष्म शरीर में विराजमान हैं। कुण्डलिनी मंथन के दौरान अनेक प्रकार की शक्तियों का विकास होने लगता है। ये दिव्य रत्न हैं जिनको देव व दानव दोनों अर्जित करना चाहते हैं अर्थात् रत्नों/शक्तियों के सदुपयोग व दुरुपयोग की सम्भावना विद्यमान है।इतना ही नहीं यह साधना कभी-कभी अनियन्त्रित (Uncontrolled) भी हो जाती है जिससे कभी-कभी साधक की बड़ी दुर्दशा होती है। यह अनियन्त्रण ही हलाहल विष है जिसको निपटाने के लिए शिव चाहिए।शिव उस आध्यात्मिक शक्ति का नाम है जो लोक कल्याण के लिए पूर्णत: समर्पित है। ऐसा सक्षम/समर्थ गुरु ही इस विष का पान कर सकता है अर्थात् इस दुर्गति से साधक को उबार सकता है।
5-अन्त में अमृत अर्थात् अमरता की उपलब्धि होती है अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अमृत देवताओं में बंट जाता है अर्थात् धरती पर सदा देवत्व (सतोगुण) विराजमान/प्रधन रहेगा। अमृत छल से दो असुर (राहु, केतु) भी पी गए। वो भी अमर हैं अर्थात् धरती पर असुरता (तमोगुण) भी रहेगा, परन्तु अल्प मात्रा में। कभी-कभी ग्रहण लगता है अर्थात् देवत्व पर असुरत्व हावी होने का प्रयास करता है यह स्थिति बहुत थोड़े समय ही रह पाती है जैसे ग्रहण का प्रभाव कुछ ही समय रहता है।आज भी असुरता देवत्व को निगलने का प्रयास कर रही है। इस कारण ज्ञान का प्रकाश धीमा पड़ गया है। जब ग्रहण लगता है तो सूर्य व चन्द्रमा की रोशनी मंद होने लगती है। इस कथन के माध्यम से हमारे ऋषियों ने बड़े ही अलंकारिक ढ़ंग से कुण्डलिनी जागरण व समाज की स्थिति का चित्रण किया है। कुण्डलिनी जागरण साधना में काम-वासना का निग्रह समुद्र-मंथन की भूमिका प्रस्तुत करता है।
परमात्मा श्रीकृष्ण ;-
02 FACTS;-
1-संसार परमात्मा की अनूठी कृति है। वन, पर्वत, नदी, सागर, हिमालय, वनस्पति, जीव-जंतु एवं मानव यह इसकी शोभा हैं। यदि इनमें किसी भी प्रकार का विकार पैदा होता है तो परमात्मा की यह अनूठी रचना विनाश के कगार पर आ जाती है। इसी विकार को, जो वृहद् रूप ले चुका होता है, संतुलन में लाने के लिए कोई ऐसी शक्ति इस धरा में उतर आती है जिसे हम भगवान का अवतार कहते हैं, उसे पूजते हैं। उसे अपना आदर्श मानते हैं।द्वापर में एक ऐसी ही विभूति भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मध्यरात्रि में अवतरित होती है जिसे "कृष्ण" कहा जाता है।
2-भगवान कृष्ण ने अवतार से लीला संवरण तक एक भी ऐसा कर्म नहीं किया जो मानवता के उद्धार के लिए न हो।इसके अलावा भगवान श्री कृष्ण के नाम का अर्थ ही अंधकार में विलीन होने वाला और संपूर्ण को अपने आप में समा लेने वाला है.राधा शब्द भी धारा से उल्टा है. जहां धारा किसी चीज से बाहर आती है, वही राधा अपने स्रोत में वापस समा जाती है.
श्रीराधा का प्राकट्य;-
03 FACTS;-
1-पौराणिक कथाके अनुसार सबकी सृष्टि करके भगवान सभी देवी-देवताओं के साथ रासमण्डल में आए। उस रासमण्डल का दर्शन कर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। वहां श्रीकृष्ण के वामभाग से कन्या प्रकट हुई, जिसने दौड़कर फूल ले आकर भगवान के चरणों में अर्घ्य प्रदान किया। क्योंकि ये रासमण्डल में धावन कर (दौड़कर) पहुंचीं अत: इनका नाम ‘राधा’ हुआ। वह परम सुन्दरी थीं। कोटि चन्द्र की प्रभा को लज्जित करने वाली शोभा धारण किए वे अपनी मन्द-मन्द गति से राजहंस और गज के गर्व को दूर करने वाली थी। रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ, वे रासेश्वरी, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लादस्वरूपा, संतोष तथा हर्षरूपा हैं।वे श्रीकृष्ण की सहचरी और सदा उनके वक्ष:स्थल पर विराजमान रहती हैं। उनका दर्शन ईश्वरों, देवेन्द्रों और मुनियों को भी दुर्लभ है। वे भगवान श्रीकृष्ण की अद्वितीय दास्यभक्ति और सम्पदा प्रदान करने वाली हैं। ये निर्गुणा (लौकिक त्रिगुणों से रहित), निर्लिप्ता (लौकिक विषयभोग से रहित), निराकारा (पांचभौतिक शरीर से रहित, दिव्यचिन्मयस्वरूपा) व आत्मस्वरूपिणी (श्रीकृष्ण की आत्मा) नाम से विख्यात हैं।ये अग्निशुद्ध नीले रंग के दिव्य वस्त्र धारण करती हैं। इन्हें परावरा, सारभूता, परमाद्या, सनातनी, परमानन्दस्वरूपा, धन्या, मान्या और पूज्या कहा जाता है।
2-भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर वे रत्नमय सिंहासन पर बैठ गईं। उन किशोरी के रोमकूपों से लक्षकोटि गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष में उन्हीं के समान थीं तथा गोलोक में उनकी प्रिय दासियों के रूप में रहती थी ।श्रीराधिका प्रेममयी है और श्रीकृष्ण आनन्दमय है। जहाँ आनन्द है वहीं प्रेम है, जहाँ प्रेम है वहीं आनन्द है।श्री राधा का अर्थ श्री कृष्ण तथा श्री कृष्ण का अर्थ श्री राधा है तथा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों में से किसी एक के बिना किसी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। रा और धा के शब्दों से ही राधा की उत्पत्ति हुई रा का सरल अर्थ है कृष्ण तथा धा का शाब्दिक अर्थ है धारण करना अर्थात श्री कृष्ण की धारणा ही वास्तव में राधा है। राधा के बिना श्री कृष्ण अपूर्ण हैं तथा श्री कृष्ण के बिना राधा। एक दूसरे के बिना दोनों ही अधूरे हैं। दोनों ही मिलकर संसार के रहस्य के तत्वज्ञान को प्रकट करके सभी को मनवांछित फल प्रदान करते हैं।श्री राधा और श्रीकृष्ण का प्रेम इस लोक का नहीं बल्कि पारलौकिक है।
3-शास्त्रों में श्री राधा जी की अत्यधिक महिमा है क्योंकि वह श्रीकृष्ण की आत्मा हैं तथा अपनी आत्मा में रमण करने के कारण ही श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। श्रीराधा कृष्ण का नित्य मिलन ही श्री राधा का रहस्य है तथा वही श्री राधा रानी का हर क्षण मिलन एवं दर्शन है। नटवर नागर कहलाने वाले श्रीकृष्ण समस्त संसार का संचालन राधा रानी की प्रेरणा से करते हैं क्योंकि श्री राधारानी श्री कृष्ण की प्रेरणा हैं। जीवन को भयमुक्त रखने तथा मोक्ष के द्वार तक पहुंचाने में राधाकृष्ण का कृपा प्रसाद ही फलदायी होता है।श्री राधा और श्री कृष्ण की कहानी में आत्मा के विकास का रहस्य निहित है - एक आत्मा अपने आधार स्तर से उठती है, और मोक्ष की ओर.. ऊपर की ओर यात्रा करती है। भगवान विष्णु खुद को क्रमशः कृष्ण और राधा की पुरुष और महिला ऊर्जा में विभाजित करते हैं, दो विभाजित ऊर्जाएं सर्प (कुंडलिनी शक्ति) की। इस नाग को सक्रिय करने वाली ऊर्जा है 'प्रेम'।
क्या भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानिया अष्ट (देह) प्रकृति का प्रतीक है?-
07 FACTS;-
1- विद्वानों के कहे अनुसार भगवान की प्रमुख रानियां केवल 8 ही थी बाकी 16100 रानियां प्रतीकात्मक थी।भगवान कृष्ण की आठ पटरानियां है.. इन पटरानियों में रुक्मणी, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रवृंदा, सत्या, रोहिणी और लक्ष्मणा शामिल है. इनमें से रुक्मणी को भगवान श्री कृष्ण के प्रमुख पटरानी माना जाता है।भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानिया आत्मा के विकास का प्रतीक है।जिसमे तंत्र योग, कुण्डलिनी शक्ति जागरण और मोक्ष का रहस्य छिपा है।यह हिंदू धर्म से परे ..आत्मा-विकास के बारे में सार्वभौम(यूनिवर्स) सत्य है।मोक्ष की ओर ले जाने वाली ऊपर की ओर यात्रा है।(Soul’s evolution towards soul-mates, soul-twin & ultimately God).
2-अष्ट (देह) प्रकृति अर्थात ..
1. पृथ्वी, 2.जल , आप, 3. अग्नि, 4 वायु
5. आकाश, 6. मन, 7. बुद्धि, 8. अहंकार
3- सभी देवता अष्ट प्रकृति का प्रतीक है। इसीलिए राधा रानी की अष्ट सखी है.. 1. ललिता सखी
2. विशाखा सखी
3.चम्पकलता सखी
4. चिता सखी
5. तुगंविधा सखी
6. इन्दुलेखा सखी
7. रगंदेवी सखी
8.सुदेवी सखी
4-इसीलिए तांत्रिक ग्रंथों में अष्ट भैरव के नामों की प्रसिद्धि है। वे इस प्रकार हैं-
1. असितांग भैरव,
2. चंड भैरव,
3. रूरू भैरव,
4. क्रोध भैरव,
5. उन्मत्त भैरव,
6. कपाल भैरव,
7. भीषण भैरव
8. संहार भैरव।
5-इसीलिए श्री गणेश अष्टविनायक हैं,अष्टविनायक से अभिप्राय है- “आठ गणपति”।गणेश पुराण के अनुसार भगवान श्री गणेश के अष्ट नाम अष्ट नामाष्टक –स्त्रोत है |वे इस तरह है :गनेशमेकदंत च हेरम्बम विध्ननाशकंलम्बोदरं शूर्पकर्णम गजवक्त्रं गुहाग्रजम |
1- गणेश
2- एकदंत
3- हेरम्ब
4-विध्ननाशक
5- लम्बोदर
6-शूर्पकर्ण
7- गजवक्त्र
8-,गुहाग्रज
6-वेद भगवान् ने शरीर रूपी इस नगरी का वर्णन करते हुए कहा है-
''आठ चक्रों और नौ द्वारा वाली यह वह पुरी है, जिसे कोई जीत नहीं सकता। इसमें एक चमकते हुए प्रकाश में परमात्मा के प्रकाश से आवृत वह आत्मा बैठा रहता है, जो अपने-आप में सुख-रूप है''।जिस नगरी का वेद भगवान् ने वर्णन किया है, वह मनुष्य का यह शरीर है। इसके नौ द्वार हैं- दो आँखें, दो कान, दो नथुने, एक मुख और दो मल और मूत्र त्यागने के द्वार। यह हैं नौ द्वारों वाली अयोध्या नगरी।इसमें आठ चक्र हैं-मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूरक चक्र, अनाहत चक्र,विशुद्धि चक्र , तालु चक्र,आज्ञाचक्र, ब्रह्मचक्र।इस नौद्वारों और आठ चक्रों वाली नगरी में दस इन्द्रियां उसके दस सेवक है। और पांच प्राण-पॉंच फनों वाला वह सर्प है, जो इस नगरी की रक्षा करता है।
7-प्रभु सर्वव्यापक है , हमारे शरीर में भी है , सभी की आत्मा प्रभु का ही स्वरुप है जो अखंड और ,अविनाशी है.. हमारे शरीर में 16108 नाडिया ( नसें ) है यही 16,108 नारिया है आत्मा ही जीवन का मूल है और सभी नाड़ियो में आत्मा ही ,खून के प्रवाह से , शरीर में हर जगह शक्ति प्रदान करते हुए हर समय ,हर जगह मौजूद रहता है। अगर कही किसी नाड़ी में ब्लोकेज आ जाए तो वह स्थान मृत समान हो जाता है ,जिसे लकवा लगना भी कहते है।इस प्रकार आत्मा प्रभु का अंश श्री कृष्ण स्वरुप है तथा शरीर की नाडिया आत्मा की शक्ति वाहिनी नारिया है ।सभी में हर समय हर जगह जीवन प्रदान करते हुए , आत्मा रुपी श्री कृष्ण उपस्थित रहते है। योग की बात करे तो यह 16,108 मानव शरीर की रक्त वाहिनी नाडिया (नसे ) है जिन पर प्रभू का पूर्ण नियंत्रण था -इसीलिये तो वे योगेश्वर /योगिराज कहलाये क्योंकि हमारे शरीर के मेरुदंड पर 16,108 नाड़ी हैं। जब प्रत्येक नाड़ी को हम ईश्वर की तरफ मोड़ देते हैं तो हमें योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं।
आखिर क्या हैं ये नाड़ी ?
04 FACTS;-
1-योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह मार्ग है जिससे होकर शरीर की ऊर्जा प्रवाहित होती है। योग में यह माना जाता है कि नाडियाँ शरीर में स्थित नाड़ीचक्रों को जोड़तीं है।अध्यात्म विज्ञानियों के अनुसार हमारे समस्त शरीर में नाडियों का एक प्रकार का जाल बिछा हुआ है। यह केंद्र के स्थान से निकल कर पूरी काया में फैली हुई है। इसकी संख्या 72 हजार बतायी जाती है।हमारे शरीर के मेरुदंड पर मुख्य 16,108 नाड़ी हैं।साधना विज्ञानियों का कहना है कि नाडी जाल देह में नाडी गुच्छक के रूप में फैला होता है इन्हें अध्यात्म की भाषा में उपत्यिका कहते हैं। इनकी कई जातियाँ है। कई स्थानों पर ज्ञान तंतुओं जैसी बहुत पतली नाड़ियां परस्पर चिपकी रहती है। कई बार यह रस्सी की तरह आपस में लिपटी और बटी होती है।कई स्थानों पर गुच्छक गाँठ की तरह ठोस गोली जैसे बन जाते हैं। कितनी ही बार यह साँप की तरह समानाँतर लहराते हुए चलते हैं। अनेक जगहों में इनसे बरगद की भाँति शाखा प्रशाखाएँ निकलती दिखाई पड़ती है। कितने ही अवसरों पर अनेक प्रकार के गुच्छक परस्पर मिलकर एक घेरे का निर्माण कर लेते हैं।
2-कई योग ग्रंथ १० नाड़ियों को प्रमुख मानते हैं । इनमें भी तीन का उल्लेख बार-बार मिलता है - ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। ये तीनों मेरुदण्ड से जुड़े हैं। अस्तित्व में सभी कुछ जोड़ों में मौजूद है - स्त्री-पुरुष, दिन-रात, तर्क-भावना आदि। इस दोहरेपन को द्वैत भी कहा जाता है। हमारे अंदर इस द्वैत का अनुभव हमारी रीढ़ में बायीं और दायीं तरफ मौजूद नाड़ियों से पैदा होता है।
रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इड़ा और पिंगला, यानी बायीं और दाहिनी नाड़ियां हैं।इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति या श्रीकृष्ण एवं राधा का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं।सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता। लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है।
3-प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो आपमें पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।शिव स्वरोदय, ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है। इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है - जो मेरुदण्ड के सबसे नीचे स्थित है। पिंगला धनात्मक ऊर्जा का संचार करती है। इसको सूर्यनाड़ी भी कहा जाता है। यह शरीर में जोश, श्रमशक्ति का वहन करती है और चेतना को बहिर्मुखी बनाती है।पिंगला का उद्गम मूलाधार के दाहिने भाग से होता है जबकि पिंगला का बाएँ भाग से।
4-अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं, मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। लेकिन सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।मेरुरज्जु (spinal card) में प्राणों के प्रवाह के लिए सूक्ष्म नाड़ी है जिसे सुषुम्ना कहा गया है। इसमें अनेक केंद्र हैं। जिसे चक्र अथवा पदम कहा जाता है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, जीवन असल में तभी शुरू होता है।मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती। वह एक तरह की शून्यता या खाली स्थान है। अगर शून्यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें वैराग्य आ जाता है। ‘राग’ का अर्थ होता है, रंग। ‘वैराग्य’ का अर्थ है, रंगहीन यानी आप पारदर्शी हो गए हैं।सुषुम्ना नाड़ी मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। इड़ा को गंगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है। इन तीन नाड़ियों का पहला मिलन केंद्र मूलाधार कहलाता है। इसलिए मूलाधार को मुक्तत्रिवेणी और आज्ञाचक्र को युक्त त्रिवेणीकहते हैं।
आखिर क्या हैं ये चक्र?-
02 FACTS;-
1-सूक्ष्म शरीर(Astral body) और स्थूल शरीर जिन केन्द्रों पर मिलते हैं उनको चक्र कहा जाता है वैसे तो चक्र का मतलब होता है पहिया या गोलाकार | क्योंकि इसका सीधा संबंध शरीर में एक आयाम से दूसरे आयाम की ओर गति से है | इसलिए इसे चक्र कहते हैं | पर विज्ञानं की ओर से देखा जाए तो यह एक त्रिकोण है। मनुष्य के शरीर में कुल मिलाकर 114 चक्र हैं। आप इन्हें नाड़ियों के संगम या मिलने का स्थान कह सकते हैं। यह संगम हमेशा त्रिकोण की शक्ल में होते हैं।चक्र, कुंडलिनी तंत्र की मध्यनाडी अर्थात सुषुम्ना नाडी पर स्थित ऊर्जाकेंद्र है । सुषुम्ना नाडी पर मुख्यतः आठ कुंडलिनी चक्र होते हैं । ये चक्र शरीर के विभिन्न अंगों तथा मन एवं बुद्धि के कार्य को सूक्ष्म-ऊर्जा प्रदान करते हैं ।114 चक्र में से दो चक्र हमारे भौतिक शरीर से बाहर रहते हैं शेष 112 में से 108 कार्यशील रहते हैं बाकी चार इनके सक्रिय होने पर फलीभूत होने लगते हैं। ये 108 का आंकड़ा भौतिक विज्ञानों से लेकर अध्यात्म -विद्या तक बड़ा एहम माना गया है।
2-सूर्य के व्यास से पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी 108 गुना ज्यादा है . सूर्य का व्यास पृथ्वी के व्यास से 108 गुना है। पृथ्वी और चंद्र के बीच की दूरी चंद्र व्यास से 108 गुना है। सौर -परिवार की निर्मिति में इस प्रकार इस नंबर108 की बड़ी भूमिका रही है हमारे शरीर के लिए भी यह संख्या इसलिए महत्वपूर्ण है। हमारी जैव -घड़ी को भी पृथ्वी की सूर्य के गिर्द गति और नर्तन ही तो चलाये हुए हैं।आगम -निगमों के अंतिम भाग यानी 'वेदों की क्रीम' वेदांत के रूप में वेदों के सार तत्व के रूप में हमारे पास 108 उपनिषद हैं। यूं हमारे शरीर के संचालन के लिए हमें कुदरत ने 114 पावर -हाउस या ऊर्जा -सेंटर दिए हैं । बहत्तर हज़ार नाड़ियों का संगम स्थल हैं ये ऊर्जा घर जिन्हें हम कुंडली चक्र (ऊर्जा केंद्र )कहते हैं । कई नाड़ियों के एक
स्थान पर मिलने से इन चक्रों अथवा केंद्रों का निर्माण होता है। कुंडलिनी जब चक्रों का भेदन करती है तो उस में शक्ति का संचार हो उठता है, मानों कमल पुष्प प्रस्फुटित हो गया और उस चक्र की गुप्त शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं।
कुण्डलिनी चक्र कौन-कौन से है?-
04 FACTS;-
1-तंत्र ग्रन्थों में ऐसे चक्रों का वर्णन है जहाँ उनकी संख्या पाँच बताई गई हैं वहाँ पाँच कोशों का नहीं वरन् भिन्न आकृति-प्रकृति के अतिरिक्त चक्रों का वर्णन है । (1) त्रिकुट (2) श्रीहाट (3) औट (4) पीठ (5) भ्रमर गुफा इनके नाम हैं । इनकी व्याख्या पाँच प्राण एवं पाँच तत्वों की विशिष्ट शक्तियों के रूप में की गई है । इनके स्थान एवं स्वरूप हठयोग में वर्णित षट्चक्रों से
भिन्न हैं ।
2-अथर्ववेद के अनुसार ;,
आठ चक्र, नव द्वार वाली यह अवोह या नगरी, स्वर्ण कोश और स्वर्गीय ज्योति से आवृत्त है ।
3-शक्ति सम्मोहन तंत्र में उनकी संख्या ९ मानी गई है । कुण्डलिनी को 'नव चक्रात्मिका देवी' कहा गया है । नौ चक्र इस प्रकार गिनाये गये हैं-(1) आनन्द चक्र (2) सिद्धि चक्र (3) आरोग्य चक्र (4) रक्षा चक्र (5) सर्वार्थ चक्र (6) सौभाग्य चक्र (7) संशोक्षण चक्र (8) शाप चक्र (9) मोहन चक्र । यह नामकरण उनकी विशेषताओं के आधार पर किया गया है ।
4-सिद्ध सिद्धान्त पद्धति के अनुसार ;,
नवचक्र, त्रिलक्षं, सोलह आधार, पाँच आकाश वाले सूक्ष्म शरीर का जो जानता है उसी को योग को योग में सिद्धि मिलती है ।
एक स्थान पर उनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं-(1) ब्रह्म चक्र (2) स्वाधिष्ठान चक्र (3) नाभि चक्र (4) हृदय चक्र (5) कण्ठ चक्र (6) तालु चक्र (7) भूचक्र (8) निर्वाण चक्र (9) आकाश चक्र बताये गये हैं । यह उल्लेख सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में विस्तारपूर्वक मिलता है
क्या है कुण्डलिनी चक्र?-
11 POINTS;-
1-मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है ।
2-हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । लम्बी मंजिलें पूरा करने के लिए लगातार ही नहीं चला जाता । बीच-बीच में विराम भी लेने होते हैं । रेलगाड़ी गन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशनों पर रुकती-कोयला, पानी लेती चलती है । इन विराम स्थलों को 'चक्र ' कहा गया है ।
3-चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है ।
4-रामचन्द्रजी ने बाली को मार सकने की अपने क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था । उन्होंने सात ताड़ वृक्षों का एक बाण से वेधकर दिखाया था । इसे चक्रवेधन की उपमा दी जा सकती है । भागवत माहात्य में धुन्धकारी प्रेत के बाँस की सात गाँठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है । इसे चक्रवेधन का संकेत समझा जा सकता है ।
5-चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं । उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है ।
6- पहला चक्र है मूलाधार, जो गुदा और जननेंद्रिय के बीच होता है। स्वाधिष्ठान चक्र जननेंद्रिय के ठीक ऊपर होता है। मणिपूरक चक्र नाभि के नीचे होता है। अनाहत चक्र हृदय के स्थान में पसलियों के मिलने वाली जगह के ठीक नीचे होता है। विशुद्धि चक्र कंठ के गड्ढे में होता है। आज्ञा चक्र/भृकुटि चक्र दोनों भवों के बीच होता है। ललाट चक्र- यह चक्र ललाट यानि माथे के बीच स्थित होता है। जबकि सहस्रार चक्र, जिसे ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं, सिर के सबसे ऊपरी जगह पर होता है, जहां नवजात बच्चे के सिर में ऊपर सबसे कोमल जगह होती है।
7-आध्यात्मिक यात्रा 'मूलाधार' से 'सहस्रार' तक का सफर है।यह ऊपर हिमालय से आये पानी को उसके स्रोत तक ले जाना है।
हिमालय से एक हिमनद पिघला है नीचे आ गया है आप जैसे एक बाँध बनाके इस जलराशि को दोबारा हिमालय पर ही ले जाना चाहते हैं। वर्तंमान परिदृश्य में तो यह बहुत कठिन” है।
8-साधना करने पर यह ऊर्जा मूलाधार से सहस्राकार में पहुंच जाती है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति साधना नहीं करता है तब क्या होता है? तब जिस व्यक्ति को बचपन से जैसे संस्कार और विचार दिए गए हैं उस अनुसार उसकी ऊर्जा का केंद्र कोई एक चक्र बन जाता है। इसका यह मतलब नहीं कि उस केंद्र पर ऊर्जा एकत्रित होने से वह चक्र सक्रिय हो गया हो और वह व्यक्ति उस चक्र की सिद्धि प्राप्त कर गया हो।
9-इन्हीं ऊर्जा चक्रों का सूक्ष्म प्रकटीकरण- 'क्षेत्र' कहलाता है।'क्षेत्र' का मतलब होता है रहने की जगह। भगवद्गीता में इस शरीर को 'क्षेत्र' तथा इसे जानने वाले 'पुरुष' (आत्मा )को 'क्षेत्रज्ञ' कहा गया है।
10-इन्हें निम्न या उच्च ऊर्जा केंद्र कहना भ्रामक सिद्ध हो सकता है। जैसे हम किसी इमारत की नींव और उसकी छत की परस्पर तुलना नहीं कर सकते वैसी ही स्थिति यहां है। कोई किसी से हेय नहीं है सबका अपना महत्व है भले ऊर्जा का बंटवारा इनमें परस्पर विषम रहा हो।
11-ऊर्जा के आठ - स्तर या आठ चक्र है और चक्रों पर सक्रिय ऊर्जा के अनुसार होता है व्यक्ति का स्वभाव और निर्मित होता भविष्य..अर्थात प्रतीकात्मक रूप से श्रीकृष्ण की आठ पत्नियां रुक्मणि, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा।
CONTD..
...SHIVOHAM...