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योग व अष्टांग योग क्या है? इसके अंगों के क्या अर्थ हैं? इसकी क्या महत्ता है ?PART-01

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Jan 10, 2019
  • 10 min read

योग व अष्टांग योग का अर्थ;-

05 FACTS;-

1-गणित की संख्याओं को जोड़ने के लिए भी ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया जाता है परन्तु आध्यात्मिक पृष्ठ भूमि में जब ‘योग’ शब्द का प्रयोग किया जाता है तब उसका अर्थ आत्मा को परमात्मा से जोड़ना होता है।

2- महर्षि पंतजलि ने आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की क्रिया को आठ भागों में बांट दिया है। यही क्रिया अष्टांग योग के नाम से प्रसिद्ध है। आत्मा में बेहद बिखराव (विक्षेप) है जिसके कारण वह परमात्मा, जो आत्मा में भी व्याप्त है, की अनुभूति नहीं कर पाता। यूँ भी कहा जा सकता है कि अपने विक्षेपों (बिखराव) के समाप्त होने पर आत्मा स्वत: ही परमात्मा को पा लेता है।

3-योग के आठों अंगों का ध्येय आत्मा के विक्षेपों को दूर करना ही है। परमात्मा को प्राप्त करने का अष्टांग योग से अन्य कोर्इ मार्ग नहीं। अष्टांग योग के पहले दो अंग-यम और नियम हमारे संसारिक व्यवहार में सिद्धान्तिक एकरूपता लाते हैं। अन्य छ: अंग आत्मा के अन्य विक्षेपों को दूर करते हैं।

4-महर्षि पंतजलि द्वारा वर्णित योग के आठ अंगो के क्रम का भी अत्यन्त महत्त्व है। हर अंग आत्मा के विशिष्ट (खास तरह के) विक्षेपों को दूर करता है परन्तु तभी, जब उसके पहले के अंग सिद्ध कर लिए गए हों। उदाहरणार्थ यम और नियम को सिद्ध किए बगैर आसन को सिद्ध नहीं किया जा सकता।

5-सभी मत वाले इस बात को मानते हैं कि केवल असत्य, हिंसा आदि की राह पर चलने वाले र्इश्वर को कभी नहीं पास करते। यह इस बात की पुष्टि ही है कि र्इश्वर को पाने का अष्टांग योग एक मात्र रास्ता है।

अष्टांग योग क्या है?-

अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है। योग के ये आठ अंग हैं:-

1)-यम

2) नियम

3) आसन

4) प्राणायाम

5) प्रत्याहार

6) धारणा

7) ध्यान

8) समाधि

अष्टांग योग की व्याख्या;-

1-योग का पहला अंग-यम;-

पहला अंग 'यम' का अर्थ हैं ''आत्म संयम'' अथार्त जीवन को एक दिशा देना। आत्म संयम का अर्थ है, केंद्र में प्रतिष्ठित होना।जब तुम अपने जीवन को दिशा देते हो, तो तुरंत तुम्हारे भीतर एक केंद्र बनना शुरू हो जाता है। दिशा से निर्मित होता है केंद्र; फिर केंद्र देता है दिशा।और वे परस्पर एक दूसरे को बढ़ाते हैं। जब तक तुम आत्म संयमी नहीं होते, दूसरी बात की संभावना नहीं है। इसीलिए महृषि पतंजलि उसे पहला चरण कहते हैं।

यम के पांच विभाग है; -

(1) अहिंसा

(2) सत्य

(3) अस्तेय

(4) ब्रह्मचर्य

(5) अपरिग्रह

1-अहिंसा क्या है?-

10 FACTS;-

1-अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। जैन धर्म एवंम हिन्दू धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। जैन धर्म के मूलमंत्र में ही अहिंसा परमो धर्म:(अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है।

2-हिंदू शास्त्रों की दृष्टि से "अहिंसा" का अर्थ है सर्वदा तथा सर्वदा (मनसा, वाचा और कर्मणा) सब प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव। अहिंसा के भीतर इस प्रकार सर्वकाल में केवल कर्म या वचन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करने की बात समाविष्ट नहीं होती, प्रत्युत मन के द्वारा भी द्रोह के अभाव का संबंध रहता है।

3-योगशास्त्र में निर्दिष्ट यम तथा नियम अहिंसामूलक ही माने जाते हैं। यदि उनके द्वारा किसी प्रकार की हिंसावृत्ति का उदय होता है तो वे साधना की सिद्धि में उपादेय तथा उपकार नहीं माने जाते। "सत्य" की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाता है तो वहाँ सत्य वस्तुत: सत्य न होकर सत्याभास ही माना जाता है।

4-सत्य आदि बाकि चारों यम व शौच आदि पांचों नियम अहिंसा पर ही आधारित हैं। अहिंसा को पुष्ट करना ही उनका मुख्य लक्ष्य है। अहिंसा की सिद्धि के लिए उनका आचरण किया जाता है।

5-हिंसा मात्र से पाप कर्म का बंधन हाता है। इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किंतु हिंसा के कारण अनेक होते हैं, इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जानबूझकर हिंसा करता है, तो कोई अनजान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोगजनवश करता है, तो कोई बिना प्रयोजन भी।

6-हमें विचारना चाहिये कि इतनी योनियों में ये अगणित प्राणी जो कष्ट भोग रहे हैं इसका कारण क्या है ? तब हमें पता चलेगा कि हिंसा क्या है ? और अहिंसा क्या है ? यह अहिंसा है जिसके कारण हम उत्तम योनि में आकर सुख भोग रहे हैं। यह हिंसा है जिसके कारण अनेकों निकृष्ट योनियों में पड़े असंख्य जीव दारूण दु:ख भोग रहे हैं।

7-वेद व ऋषियों का मन्तव्य यही कहता है कि, हिंसा व अहिंसा अन्याय व न्याय पर खड़ी है। न्याय पूर्वक दण्ड-कष्ट देना भी अहिंसा है व अन्याय पूर्वक पुरस्कार-सुख देना भी हिंसा है।जितने भी गलत कार्य हैं उन सब का मूल हिंसा ही है और जितने भी उत्तम कार्य हैं उन सबका मूल अहिंसा ही है।

8-यहां एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जिसके विषय में आज समाज में भ्रान्तिपूर्ण माहौल है पर प्रकाश डालना आवश्यक है। स्वयं हिंसा न कर दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने को मूक द्रष्टा बन देखते रहना भी हिंसा ही है। हिंसा का मूल ‘अन्याय’ है। दूसरो पर होते अन्याय का उचित प्रतिरोध न करना हिंसा का समर्थन करना ही है।

9-अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है। वह एक ओर अखंड है, किंतु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना ही नाश होता है उतना ही उसका विकास। इस मोहविलय के तारतम्य पर उसके दो रूप निश्चित किए गए हैं : (1) अहिंसा महाव्रत, (2) अहिंसा अणुव्रत। इनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्रा (परिमाण) का भेद है।

10-इसलिए यह आवश्यक है कि अहिंसा का व्रत लेने वाला व्यक्ति स्वंय हिंसा न करने के साथ-साथ दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ भी उठाए। हाँ, इसका दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ उठाना उतना ही सार्थक होगा जितना वह स्वंय दूसरों के प्रति हिंसा नहीं करता होगा।

(2) सत्य क्या है?-

06 FACTS;-

1-सत्य बोलना अच्छी बात है यह एक साधारण ज्ञान है । परन्तु सत्य क्या है ? सत्य एक भाव है जो निश्छलता, पवित्रता और अहिंसा का प्रतीक है । जैन धर्म में सत्य की परिभाषा है निरवद्य प्रवृत्ति । निरवद्य अर्थात पवित्र भाव, सावद्य अर्थात अपवित्र भाव ।

2-हिंसा, कपट, चोरी, अप्रामाणिकता, परिग्रह, काम वासना, क्रोध, अहंकार, हीनभावना, भय, घृणा, लोभ, मिथ्या धारणा, निन्दा करना, चुगली करना, राग-द्वेष, कलह आदि अपवित्र भाव हैं । इनमें प्रवृत्ति करना असत्य आचरण है ।

3-अहिंसा, मैत्री, प्रामाणिकता, निःस्पृहता, अनासक्ति, संतोष, शान्ति, अभय, करूणा, वीतरागता, प्रेम, संयम, अनुशासन आदि पवित्र भाव हैं । इनमें प्रवृत्ति करना सत्य आचरण है ।

4-किसी की गुप्त बात को प्रकाशित कर उसे अपमानित कर देना सत्य आचरण नही है । किसी में सुधार की भावना से बिना उसे अपमानित किए उसकी गल्ती की ओर इंगित करना सत्य आचरण है ।

5-सत्य भाषण का अर्थ है - वाणी का संयम, भाषा का विवेक । आज बहुत से कलह भाषा विवेक के अभाव में होते हैं ।

6-'सत्यमेव जयते' मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र है।इसका अर्थ है : सत्य ही जीतता है / सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है।पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:-

सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।

येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्॥

अर्थात अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

3-अस्तेय क्या है?-

04 FACTS;-

1-अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना। किसी दूसरे की वस्तु को पाने की इच्छा करना मन द्वारा की गर्इ चोरी है। शरीर से अथवा वाणी से तो दूर, मन से भी चोरी न करना। किसी की कार को देखकर उसे पाने की इच्छा करना, किसी सुन्दर फूल को देखकर उसे पाने की चाह करना आदि चोरी ही तो है।

2-अस्तेय का वास्तविक तात्पर्य है-अपना वास्तविक हक खाना धर्म पूर्वक जो वस्तु जितनी मात्रा में अपने को मिलनी चाहिए उसे उतनी ही मात्रा में लाना, पूरा एवज चुकाकर किसी वस्तु को ग्रहण करने का ध्यान रखा जाय तो चोरी से सहज ही छुटकारा मिल सकता है ।

3-इन पाँच प्रश्नों की कसौटी पर यदि अपनी प्राप्त वस्तु को कस लिया जाय तो यह मालूम हो सकता है कि इसमें चोरी तो नहीं है या चोरी का कितना अंश है ..

A-जो कुछ आपको मिल रहा है उसके बारे में विचार कीजिए कि क्या वास्तव में इस वस्तु पर मेरा धर्म पूर्वक हक है?

B-किसी दूसरे का भाग तो नहीं खा रहा हूँ?

C-जितनी मुझे मिलनी चाहिए उससे अधिक कर रहा हूँ?

D-अपने कर्तव्य में कमी तो नहीं ला रहा हूँ?

E-जिनको देना चाहिए उनको दिए बिना तो नहीं ले रहा हूँ?

F-किसी का ताला तोड़कर या जेब काटकर कुछ तो चोरी है ही, साथ ही कर्तव्य में त्रुटि रखना और हक से अधिक लेना भी चोरी है । इन चोरियों से बचते हुए अपनी पसीने की कमाई पर निर्भर रहना चाहिए ।

4-स्वयं चोरी न करना और न दूसरों को करने देना यह एक ही अस्तेय धर्म के दो अंग हैं, योग मार्ग के साधक को दोनों ओर उसी प्रकार ध्यान रखना चाहिए जैसे साइकिल चलाने वाला दोनों पैरों को समान रूप से घुमाता है ।

4-ब्रह्मचर्य क्या है?-

10 FACTS;-

1-आमतौर से ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्य पात न करना समझ जाता है । जो व्यक्ति स्त्री सम्पर्क से बचते हैं, उन्हें ब्रह्मचारी कहा जाता है । यह आधा अर्थ हुआ । ब्रह्म का अर्थ है परमात्मा में आचरण करना जीवन लक्ष में तन्मय हो जाना, सत्य की शोध में सब ओर चित्त हटाकर जुट पड़ना, ब्रह्म का ही आचरण है । इसके साधनों में वीयर्पात न करना भी एक है ।ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ है ...ब्रह्म की-सत्य की शोध में चर्या अर्थात तत्सम्बन्धी आचार ।

2-शरीर के सर्वविध सामर्थ्यों की संयम पूर्वक रक्षा करने को ब्रह्मचर्य

कहते हैं।इन्द्रियों पर जितना संयम रखते हैं उतना ही ब्रह्मचर्य के पालन में सरलता रहती है। इन्द्रियों की चंचलता ब्रह्मचर्य के पालन में बाधक है। अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहते हुए सदा पुरुषार्थी रहने से ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है। महापुरुषों, वीरों, ऋषियों, आदर्श पुरूषों के चरित्र को सदा समक्ष रखना चाहिए। मिथ्या-ज्ञान (अशुद्ध-ज्ञान) का नाश करते हुए शुद्ध-पवित्र-सूक्ष्म विवेक को प्राप्त करने से वीर्य रक्षा में सहायता मिलती है।

3-इन्द्रिय संयम का तात्पर्य है, विवेक के साथ मर्यादा के अन्तर्गत इन्द्रियों का उपयोग होना । इन्द्रियों के आधीन अपने को इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि भोगेच्छा को रोका न जा सके।जीवन सम्पदा के चार क्षेत्र हैं- इंद्रिय शक्ति, समय शक्ति, विचार शक्ति, धन (साधन) शक्ति। आरंभ की तीन तो ईश्वर प्रदत्त हैं। चौथी इन तीनों के संयुक्त प्रयत्न से भौतिक क्षेत्र में पुरुषार्थ द्वारा अर्जित की जाती हैं।

4-ब्रह्मचर्य की कितनी महिमा है। ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यरूपी तपस्या से ऐसे गुणों को अपने अन्दर धारण करता है, कि उससे वह मृत्यु को यूँ उठाकर के फेंक देता है जैसे तिनके को उठाकर के फैंकते हैं। शास्त्र कहते हैं-''ये जो

वीर्य है ये आहार का परम धाम है, उत्कृष्ट सार है, यदि तू वास्तव में अमृत पाना चाहता है तो उसकी रक्षा किया कर। यदि उसका क्षय तूने कर लिया असंयम से, तो दुनिया भर के रोग आ जायेंगे तुझे।''

5-शास्त्रों की सूक्ष्म-बातें सूक्ष्म-बुद्धि से ही समझी जा सकती है। बुद्धि सूक्ष्म तब होती है जब हमारे शरीर में भोजन का सार प्रचुरता से होगा। भोजन का सार सूक्ष्म तत्त्व है ‘शुक्र’। शुक्र सुरक्षित रहेता है ब्रह्मचर्य पालन से।

6-सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह योग के प्रथम अंग-यम के विभाग हैं और एक विभाग का उतना ही महत्त्व है जितना दूसरे विभाग

का।दस इंद्रियों में दो प्रमुख हैं, जिनमें से एक जिह्वा तथा दूसरी जननेन्द्रिय है। जिसने इनको वश में कर लिया, समझो उसने शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त कर लिया है। जिह्वा संयम से शारीरिक स्वास्थ्य तथा जननेन्द्रिय के संयम से मनोबल अक्षुण्ण रहता है। जिह्वा का शरीरगत स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। जिह्वा स्वाद को प्रधानता देकर ऐसे पदार्थों को खाती रहती है, जो अनावश्यक ही नहीं, हानिकारक भी होते हैं। स्वाद- स्वाद में भोजन की मात्रा बढ़ने से पेट खराब तथा असंख्य रोग हो जाते हैं।

7-जीभ के चटोरपन की प्रेरणा से किसी भी वस्तु को खाने से इन्कार कर देना चाहिए । चटपटे, मीठे,खारी, खट्टे, चिकने पदार्थों को देखकर चटोरे मनुष्यों के मुँह में पानी भर आता है, इस वृत्ति को रोकना चाहिए ।

जब इस प्रकार मन चल रहा हो तो हठात् उस वस्तु को न खाने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए और दृढ़तापूर्वक उसका पालन करना चाहिए । कुछ समय के लिए बीच-बीच में कुछ समय तक नमक और मीठा छोड़ने का प्रयोग करते रहना चाहिए जो वस्तु आवश्यक और लाभदायक हो उसे स्वाद रहित होते हुए भी सेवन करना चाहिए ।

8-इसी प्रकार गृहस्थ होते हुए भी कभी-कभी कुछ समय के लिए ब्रह्मचर्य से रहने के व्रत उन्हें पूरा करते रहना चाहिए । अन्य स्त्रियों को बहिन या पुत्री की दृष्टि से देखना चाहिए । कुदृष्टि के उत्पन्न होते ही अपना एक कान ऐंठ कर अपने आप जोर से चपत लगानी चाहिए । गन्दी पुस्तकों से, तस्वीरों से और संगीत से बचना चाहिए ।

9-इस प्रकार धीरे-धीरे स्वाद और कामवासना पर विजय प्राप्त की जा सकती है । किसी बात को पूरा करने के लिए मनुष्य दृढ़ प्रतिज्ञा हो जाय और प्रयत्न बराबर जारी रखें तो कोई कारण नहीं कि उसमें सफलता प्राप्त न हो ।

10- ब्रह्मचर्य स्वास्थ्य और आध्यात्मिक प्रगति के लिए अत्यंत सहायक है। ब्रह्मचर्य की सही और संपूर्ण समझ अंत में मोक्ष तक ले जाती है। ब्रह्मचर्य केवल शरीर से नहीं मानसिक भी होता है। ब्रह्मचर्य को सही तरह से समझने के बाद ही किसी व्यक्ति को ब्रह्मचर्य के रास्ते पर चलने की प्रेरणा मिलेगी और वह हर प्रकार से विषय का विरोध करेगा।

5-अपरिग्रह क्या है?-

06 FACTS;-

1-मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों का संग्रह न करने को अपरिग्रह कहते हैं।हमारी अधिक संग्रह करने की

भावना से अनावश्यक उत्पादन बढ़ता जा रहा है। जिससे पन्च भूतों (पृथ्वी, जल आदि) की हाऩि होती जा रही है। ऐेसा न हो कि हम क्षणिक सुख के लिए विपुल मात्रा में हिंसा कर बैठें।

2-अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। परिग्रह सदैव दूसरों को पीड़ा देकर ही किया जाता है। अनावश्यक वस्तुओं का, अनावश्यक विचारों का, उचित-अनुचित स्थानों से निरूद्देश्य संग्रह करना परिग्रह है। इसके विपरीत ऐसा न करने को अपरिग्रह कहते हैं।

3-यदि कभी अधिक संग्रह भी हो जाये तो शेष को दान करते रहना चाहिए। इस दान से उपजे आत्म संतुष्टि के भाव का मूल्य संसार के मूल्यवान पदार्थों से भी अधिक ही रहेगा।

4-ये प्रश्न हमें स्वयं से पूछने चाहिए–आखिर इतना संग्रह किसके लिए करता हूँ ? क्यों करता हूँ व कब तक करता रहूँगा ? मैं कहाँ था ? कब आया, क्यों आया ? पहले का संग्रह कहाँ है ? इस प्रकार के संग्रह से क्या होगा ? कब तक संग्रह करूँ ? इस प्रकार आत्मा का बोध होता है।अपरिग्रह का अर्थ है किसी भी विचार, व्यक्ति या वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रखना या मोह नहीं रखना ही अपरिग्रह है।

5-जो व्यक्ति निरपेक्ष भाव से जीता है वह शरीर, मन और मस्तिष्क के आधे से ज्यादा संकट को दूर भगा देता है। जब व्यक्ति किसी से मोह रखता है तो मोह रखने की आदत के चलते यह मोह चिंता में बदल जाता है और चिंता से सभी तरह की समस्याओं का जन्म होने लगता है।

6-वैज्ञानिक कहते हैं कि 70 प्रतिशत से अधिक रोग व्यक्ति की खराब मानसिकता के कारण होते हैं। योग मानता है कि रोगों की उत्पत्ति की शुरुआत मन और मस्तिष्क में ही होती है। यही जानकर योग सर्वप्रथम यम और नियम द्वारा व्यक्ति के मन और मस्तिष्क को ही ठीक करने की सलाह देता है।

उक्त पाँच 'यम' कहे गए है यह अष्टांग योग का पहला चरण है। यम को ही विभिन्न धर्मों ने अपने-अपने तरीके से समझाया है किंतु योग इसे समाधि तक पहुँचने की पहली सीढ़ी मानता है।

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योग का दूसरा अंग — नियमCONTD..

.....SHIVOHAM...

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