योग व अष्टांग योग क्या है? इसके अंगों के क्या अर्थ हैं? इसकी क्या महत्ता है ?PART-02
नियम क्या है?-
यम की तरह ‘नियम’ भी दुखों को छुड़ाने वाला है।
यम व नियम में अन्तर;-
यम का संबंध मुख्य रूप से अन्यों के साथ है और नियम का संबंध मुख्य रूप से व्यक्तिक जीवन के साथ है। विशेष रूप से स्वयं के दु:खों से छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहते हैं।
नियम के पाँच विभाग हैं :-
(1) शौच
(2) संतोष
(3) तप
(4) स्वाध्याय
(5) ईश्वर' -प्रणिधान
1-शौच क्या है?-
11FACTS;-
1-शुद्धि-निर्मलता-पवित्रता को ‘शौच’ कहते हैं। शुद्धि दो प्रकार की होती है-
1. बाह्य शुद्धि
2.आभ्यन्तर शुद्धि।
1-1-बाह्य शद्धि;-
वस्त्र, पात्र, स्थान, खान-पान एवं धनोपार्जन को पवित्र रखना तथा शरीर को बाहर से पवित्र (निर्मल) रखना।
1-2-आन्तरिक शुद्धि;-
विद्या, ज्ञान, सत्संग, संयम, स्वाध्याय, सत्य और धर्म से मन व बुद्धि को पवित्र रखना।
2-मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण है परन्तु मानव जीवन के अधिक साधन-समय, धन आदि शरीर की शुद्धि में ही लगाए जा
रहें हैं।बाहर की शुद्धि रखना आवश्यक है किन्तु इतना आवश्यक नहीं जितना कि अन्दर की शुद्धि रखना। बिना स्नान के चल सकता है परन्तु बिना मन की शुद्धि के नहीं। मन की शुद्धि के बिना शान्ति, तृप्ति, सन्तोष, उपासना आदि नहीं हो सकते हैं।
3-बाह्य शुद्धि से-स्वयं व अन्यों के प्रति आसक्ति नहीं होती है।
शरीर व अन्य वस्तुओं की नश्वरता का बोध होता है।
नित्य पदार्थों के प्रति आकर्षण, प्रेम, श्रद्धा व लगाव उत्पन्न होता है।
आत्म-तत्व के लिए अधिक समय मिलता है।
4-आन्तरिक शुद्धि से मन प्रसन्न होता है। मन की प्रसन्नता से एकाग्रता,
एकाग्रता से इन्द्रिजय, इन्द्रिजय से समाधि व समाधि में आत्मा व परमात्मा का दर्शन होता है।
5-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है।सभी शुद्धियों में धन
की शुद्धि बड़ी मानी गयी है। इसलिए यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ करना चाहिए ।
6-मनुष्य जीवन का एक प्रमुख आधार धन है। यह धन हृदय की भांति है। जिस प्रकार हृदय दूषित हो जाने से शरीर सुचारु से नहीं चल सकता, उसी प्रकार धन के दूषित होने से मनुष्य जीवन सुचारु रूप से नहीं चल सकता। इसी कारण महर्षि मनु ने स्वीकारा है कि सभी शुद्धियों में अर्थ = धन की शुद्धि सर्वोत्कृष्ट है। धन को अशुद्ध रखते हुए अन्य पदार्थों की शुद्धि कितनी भी करें, मनुष्य अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता।
7-धन इसलिए दूषित होता है कि-
7-1-धन को प्राप्त करने के लिए मानव हिंसा का आश्रय लेता है।
7-2-धन को प्राप्त करने के लिए असत्य-झूठ को जीवन का अङ्ग बना लेता है।
7-3-धन को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार की चोरियाँ-जिसमें बिक्रीकर, आयकर आदि की चोरी भी शामिल है- करता है।
7-4-धन प्राप्त करने के लिए व्याभिचार किया जाता है।
7-5-व्यायाम, भक्ति, परोपकार, कर्तव्य-कर्म आदि को त्याग कर धनार्जन करता है।
8 -मनुष्य का धन अशुद्ध है तो;-
8-1-उसका ज्ञान भी अशुद्ध होगा। जिसका ज्ञान अशुद्ध है उसकी आत्मा अपवित्र ही रहेगी।
8-2-उसके कर्म अशुद्ध ही होंगे। अशुद्ध कर्म करने वाले की आत्मा मलिन ही होती है।
8-3-उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी। जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करने हेतु हानि-लाभ, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्दों को सहन करने का सामर्थ्य उत्पन्न नहीं होगा।
8-4-उसका आहार अशुद्ध होगा। उस आहार से शरीर रोगग्रस्त ही रहेगा।
8-5- उसे समय (काल) का बोध नहीं होगा। परिणामतः एक-एक पल का सदुपयोग नहीं कर सकता।
9-हमारा धन बिना क्रूरता, हिंसा व घिनोने कर्म के विशुद्ध रूप से अहिंसक धन बन सके। हमारा धन छल-कपट, ठगी, भ्रान्ति व झूठ रहित हो, वह पवित्र धन बन सके। हमारा धन दूसरों के खून व पसीने की कमाई न होकर स्पष्ट संवैधानिक चोरी रहित धन बन सके। हमारा धन स्त्री-मात्र को अपनी माता, बहन, पुत्री मानकर प्राप्त किया गया बन सके। हमारा धन सभी कर्तव्य कर्मों को करते हुए प्राप्त किया गया बन सके। ऐसी प्रक्रिया में हमारा मन प्रसन्न, शान्त, निर्मल, पवित्र बन पायेगा। जिससे आत्मा शुद्ध, पवित्र, निर्मल होकर अविद्या, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार से रहित होकर अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकता है।
10-आज जिस तीव्रता से मानव ने धरती व आसमान को एक करके नवीन-नवीन साधनों का अविष्कार करके, शरीर को बाहर से सुन्दर व पवित्र बनाने का प्रयास किया। काश! ऐसा प्रयास अन्दर की शुद्धि के लिए किया होता, तो जीवन से बेचैनी, चिन्ता, तनाव, दबाव, अवसाद, अकर्मण्यता, चंचलता, हताशा, निराशा, क्रूरता, अमानवीयता आदि दूर होकर आन्तरिक पवित्रता आ जाती। आज मानव जीवन में जिस प्रकार काम, क्रोध्, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अभिमान आदि का ताण्डव हो रहा है, यह सुनिश्चित करता है कि मानव ने अन्दर की शुद्धि को त्याग कर बाहर की शुद्धि पर ही ध्यान दिया है।
11-मानव अपने शरीर को बाहर से जितनी इच्छा, पुरुषार्थ, समय व धन खर्च करके शुद्ध व स्वस्थ रखने का यत्न कर रहा है, उससे अधिक इच्छा, पुरुषार्थ व समय देते हुए किन्तु कम धन खर्च करके शरीर को अन्दर से शुद्ध व स्वस्थ बनाने का यत्न करे तो अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकता है।
2-संतोष क्या है?-
10 FACTS;-
1-अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरुषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं।मनुष्य को सुखी करने में संतोष का महत्वपूर्ण योगदान है। सन्तोष के बिना जीवन दुःखमय बन जाता है। उपलब्ध ज्ञान, बल, सामर्थ्य व साधनों के अनुरूप कर्म (पुरुषार्थ) करने पर जो भी प्रतिफल न्यायोचित मिलता है उसी में खुश (तृप्त) रहने को सन्तोष कहते हैं।
2-हताश-निराश न होकर, अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर, और अधिक पुरुषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरुषार्थ करके संतोष कर लेता है, जो आत्मदर्शन में अत्यन्त बाधक है।
3-सन्तोष-पालन के लाभ..
3-1-अत्यन्त सुख की प्राप्ति होती है।
3-2-मन शान्त, प्रसन्न, एकाग्र रहता है।
3-3-अधिक पुरुषार्थ करने की प्रेरणा मिलती है।
3-4-आत्म-विश्वास बढ़ता है।
3-5-मन के विचार पवित्र रहते हैं।
3-6-शरीर पर सुप्रभाव होता है जिससे व्यक्ति स्वस्थ रहता है। असंतोष के कुप्रभाव से बच जाता है।
3-7-संतोष का पालन करने से अहिंसा पालन में वृद्धि होती है।
4-संसार में ऐसे लोग भी होते हैं, जिनके पास न खाने-पीने को, न पहनने को, न रहने को पर्याप्त होता है, फिर भी वे सन्तुष्ट होते हैं। आज जिनके पास सब कुछ होता है, वे भी असन्तुष्ट होते हैं। इसके पीछे कहीं यह कारण तो नहीं है कि उनकी जीवन शैली अनुचित है, जीने की दृष्टि असंयमित है। 5-संसार के वैभव का होना या न होना कोई मान्य नहीं रखता, मान्य रखता है मन की प्रसन्नता व आत्म-सन्तोष का होना। मन व आत्मा में तृष्णा बनी रहे तो कितना ही वैभव पास में हो, तो भी दरिद्रता ही मानी जायेगी और यदि तृष्णा ही समाप्त हो गयी हो, तो वैभव की न्यूनता में भी मनुष्य अर्थवान् (धनवान्) माना जायेगा।
6-जीवन शैली को समुचित रूप में चलाने के लिए सन्तोष अद्भुत उपाय है। जिसने भी सन्तोष को जीवन में धारण किया है। उसे अपार सुख मिला है और मिलेगा। यदि वर्त्तमान में भी पालन करे, तो वर्त्तमान में भी मिलेगा।
7-तुष्टि-दोष का अर्थ है- मनुष्य अपनी इच्छा, प्रयत्न, बल, सामर्थ्य, ज्ञान व साधनों का पूर्ण प्रयोग न करके, कम प्रयोग करता हुआ स्वयं को धन्य
मानता है।मनुष्य को सन्तोष का पालन करते हुए यह सतत् बोध रखना पड़ता है कि मेरे जीवन में तुष्टि दोष तो नहीं आ रहा है।
8-यह न विचार कर लें कि इच्छा, प्रयत्न, ज्ञान, बल व साधनों को बढ़ा देने से जीवन में असन्तोष उत्पन्न होगा। ऐसा कदापि न होगा। क्यों? यह ही योग का आश्चर्य है। क्योंकि योग मनुष्य को सदा ‘सम’ (सन्तुलित) बनाये रखता है। योगाभ्यास मनुष्य को न तुष्टि -दोष में धकेलता है और न ही असन्तोष उत्पन्न करता है।
9-जीवन में यदि असंतोष है तो यह असंतोष लोभ को व्यक्त करता है, लोभ से हम उस परम-सुख को नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं। जब कभी हम लोभ करते हैं या लोभ करने की चेष्टा करते हैं तब इसीलिए करते हैं कि मेरे को वह परम-सुख चाहिए। यानि सुख के लिए लोभ किया जाता है। जबकि जिस सुख के लिए लोभ किया जा रहा है, उसी सुख (परमानन्द) से लोभ हमको दूर करता है।यानि लोभ के कारण से अनावश्यक अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पड़ता है। फिर वो लोभ उस परम-सुख से हमें दूर भी करवा रहा है। इस बात को समझने का प्रयत्न करना चाहिये।
10-असंतोष का मूल लोभ है।यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को समाप्त कर देता है तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता। संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति ईश्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। उसे यह निश्चिंतता होनी चाहिए कि उसके कर्मों का न न्यून न अधिक फल.. मिलता रहा है और मिलता रहेगा।;
3-तप की परिभाषा क्या है?-
07 FACTS;-
1-जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दु:ख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।
2-आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन (कार आदि), पंखा, कूलर, ए.सी. कमरा आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं।
3-अतपस्वी व्यक्ति को योग की सिद्धि नहीं होती अर्थात वह ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। आन्तरिक निर्मलता, आन्तरिक पवित्रता बिना तपस्या के नहीं हो सकती। संसार में रहते हुए जिन-जिन पदार्थों, वस्तुओं, व्यक्तियों के साथ हम जुड़े हुए हैं उनको छोड़ नहीं पाते हैं, उनका त्याग नहीं कर पाते हैं। त्याग की भावना हमारे में नहीं आ पा रही है जिसके कारण से हम तपस्या नहीं कर पा रहे हैं। त्याग नहीं, अतः तपस्या नहीं।
4-तपस्या का विधान इसलिये किया है कि बिना तप के चित्त की अशुद्धि छिन्न-भिन्न नहीं हो पाती। अनादि काल से हम कर्म करते हुए आ रहे हैं, जो राग व द्वेष के कारण बन रहे हैं। राग या द्वेष से युक्त हो कर जिन कार्यों को हम कर रहे हैं वे हमको ईश्वर से दूर कर रहे हैं।
5-क्लेशों के कारण जिन कर्मों को करते जा रहे हैं उनको करते हुए हमारे मन के ऊपर संस्कार पड़ते हैं, वे भी अनादि काल से पड़ते आ रहे हैं। हमें जिन संस्कारों को मिटाना चाहिये था। जिनको ज्ञान व विवेक रूपी हथौड़े से चोट मार-मार के नष्ट करना चाहिये था उनको और पुष्ट करते जा रहे हैं।पाँचों विषयों से सम्बन्धित संस्कारों को और पुष्ट करते जा रहे हैं। इतने अधिक संस्कारों को मिटाना हो तो वह बिना तपस्या के हो नहीं सकता।
6-जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते।यदि आप योगार्थी बनना चाहते
हो तो आपको सुख को त्याग करना पड़ेगा।इतना त्याग न करें कि आपका
उद्देश्य धरा का धरा रह जाय, इतनी तपस्या न करें कि तपस्या से उद्देश्य ही धूमिल हो जाय। तपस्या करो... लेकिन चित्त की प्रसन्नता बनी रहे।
7-तप-पालन के लाभ..
7-1-शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक सामर्थ्य बढ़ता है।
7-2-पहाड़ जैसे दुःखों व समस्याओं का सामना करने का सामर्थ्य बढ़ता है।
7-3-शारीरिक, मानसिक व आत्मिक विश्वास बढ़ता है।
7-4-आत्म-दर्शन व प्रभु-दर्शन के अधिकारी बनते हैं।
7-5-असंयम द्वारा दूसरों को कष्ट-पीड़ा-दुःख नहीं देने से अहिंसा सुदृढ़ बनती है।
4- स्वाध्याय की परिभाषा क्या है?
11 FACTS;
1-समस्त दुःखों से छुड़ाने वाले अर्थात् मुक्ति के बारे में बताने वाले शास्त्रों का अध्ययन करना तथा प्रणव (ओउ्म) आदि पवित्र शब्दों-मन्त्रों का जप करना स्वाध्याय कहलाता है।
2-भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोई भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।
2-शास्त्र दो प्रकार के होते हैं।
A-सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ज्ञान व जीवनयापन करने हेतु विभिन्न शास्त्र।
B-आत्मा व परमात्मा से सम्बन्धित शास्त्र।
3-वेदों में दोनों भौतिक विधा व अध्यात्मिक विद्या है। विद्वान लोग वेदों के अध्ययन को ही स्वाध्याय मानते हैं। कुछ विद्वान लोग ऋषि कृत ग्रन्थों (व्याकरण, निरुक्त आदि, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द आदि) के अध्ययन को भी स्वाध्याय के अन्तर्गत लेते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी अविधा से युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने में सहायता मिलती है।
4-प्रणव आदि पवित्र वचनों-मंत्रों का जप करना व मोक्ष विषयक ग्रंथों को पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है। परमपिता परमात्मा का मुख्य निज नाम प्रणव है।प्रणव ‘ओ३म्’ को कहते हैं। प्रणव शब्द से ओ३म् का ही ग्रहण होता है। ओ३म् का उच्चारण हम चाहे वाणी से करें चाहे मन से। जब हम उच्चारण करते हैं तो अर्थ की भावना भी करें।
5-जब अर्थ सामने न हो यानि ईश्वर सामने न हो, तब हम अपने मन को इधर-उधर अन्यत्र जिसमें हमारा प्रेम-आकर्षण होता है, लगाव होता है वहाँ ले जाते हैं, उस विषय के बारे में विचार करने लगते हैं। यदि ईश्वर को सामने उपस्थित रखते हैं तो इधर-उधर सोचने पर निश्चित रूप से हम ईश्वर के दण्ड से डरेंगे। जैसे- शिक्षक के सामने बच्चा शब्द को बोलते हुए, अर्थ को समझते हुए, शिक्षक की अनुभूति सतत् बनाए रखता है वैसे ही हमें जप के समय करना होता है। ईश्वर सर्वरक्षक है ,शक्तिशाली है,आन्दस्वरूप है ,इसकी सतत् अनुभूति करते हुए जप करते जाना है।
6-जप करने से आत्मा का साक्षात्कार होगा, परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार होगा। चेतन का अधिगम, चेतन की प्राप्ति, आत्मा की प्राप्ति, परमात्मा की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं उसके साथ में एक महत्वपूर्ण बात और भी कही है,''जितनी भी बाधाएँ हैं, जितने भी विघ्न हैं, जिन के कारण से आज हम ईश्वर का दर्शन नहीं कर पा रहे हैं, जप से उन सब विघ्नों को समाप्त किया जा सकता है''।
7-स्वाध्याय के दूसरे अर्थ को बताते हुए महर्षि वेद व्यास जी लिखते है कि मुक्ति को दिलाने वाले शास्त्रों का अध्ययन करो। जब तक हम शास्त्रों का अध्ययन नहीं करेंगे, तब तक हमें वह ज्ञान नहीं मिलेगा, जिस ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से हम ईश्वर तक पहुँच सकते हैं।
8-व्याधि एक बड़ा जबरदस्त अन्तराय है, विघ्न है, बाधक है, रोड़ा है, जो हमको आगे नहीं बढ़ने दे रहा है। व्याधि के कारण हम रुक जाते हैं। मुक्ति तो बहुत दूर की बात है, आदमी व्याधि के कारण अपने दैनिक कार्यों को भी ढंग से नहीं कर पाता। व्याधियों को दूर करने के लिए हमें जानकारी चाहिए। शरीर के एक-एक अङ्ग से सम्बन्धित जितने भी रोग उभर कर सामने आ रहे हैं, वे समस्त रोग हमें ग्रस्त न करें, बाधा न करें, उसके लिए हमें जानकारी चाहिए। इसलिए स्वाध्याय करना होगा।
9-मैं अकर्मण्य हूँ या नहीं हूँ, इसकी जानकारी पाने के लिए शास्त्रों से तुलना करनी पड़ेगी। शास्त्रों को पढ़ने से पता चलेगा कि मैं कर्मठ हूँ या संशय भी एक अन्तराय है।इस तरह एक-एक अकर्मठ।अन्तराय को
दूर करने के लिए विचार करें, तो बहुत जानकारी हमको चाहिए।इस प्रकार से जप और शास्त्रों का अध्ययन दोनों को मिलाकर रखेंगे, तो इसका एक बहुत ऊँचा परिणाम है।
10-ओ३म् का, गायत्री मंत्र का, असतो मा सद्गमय का वा इसी तरह जो मंत्र, जो वाक्य, जो शब्द हमको ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं, जिनसे हम सबसे ज्यादा मन लगाकर ध्यान कर सकते हैं उन मंत्रों, उन वाक्यों, उन शब्दों का निरंतर जप करें और मोक्ष-शास्त्रों का अध्ययन करें। यह हमें मुक्ति की ओर ले जाने वाला है।
11-स्वाध्याय करने के लाभ-
11-1-स्वाध्याय करने से जीवन में काम आने वाले पदार्थों का शुद्ध ज्ञान होता है।
11-2-हानिकारक वस्तुओं से मिलने वाले दुःखों से बचते हैं।
11-3-लाभकारक वस्तुओं से मिलने वाले सुख का उपभोग कर सकते हैं।
11-4-जीवन में सुखी, शान्त, प्रसन्न, तृप्त रहकर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं।
11-5-आत्मा व परमात्मा के दर्शन के अधिकारी बनते हैं।
11-6-स्वाध्याय माता के समान सतत् रक्षा करता है, हम पतन से बचे रहते हैं।
11-7-एकाग्रता बढ़ती है। ईश्वर के प्रति प्रेम-श्रद्धा-रुचि बढ़ती है।
5- ईश्वर'प्रणिधान परिभाषा क्या है?-
13 FACTS;-
1- ईश्वर' प्रणिधान का अर्थ है — समर्पण करना।मन, वाणी व शरीर से करने वाले समस्त कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित करना, उन कर्मों का लौकिक (सांसारिक) फल न चाहते हुए मुक्ति की इच्छा रखना। प्रत्येक कर्म को करते हुए ‘ईश्वर मुझे देख, सुन व जान रहे हैं, मैं परमेश्वर की उपस्थिति में उपस्थित हो कर कर्म कर रहा हूँ’ ऐसी अनुभूति बनाये रखने को ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं।
2-यदि कोई मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, ईश्वर का दर्शन करना चाहता है तो उसकी विधि क्या होनी चाहिए, उसकी पद्धति क्या होनी चाहिए, किस तरह मनुष्य अपने सांसारिक कार्यों को करते हुए, संसार में रहते हुए, ईश्वर को प्राप्त कर सकता है? योग के आठों अगों को समझाते हुए महर्षि पतञ्जलि जी ने अनेक उपाय ऐसे प्रस्तुत किये जिससे कि आत्मा शीघ्रता से ईश्वर को प्राप्त कर सके। ईश्वर प्रणिधान एक ऐसा उपाय है जिससे जीवात्मा शीघ्रता से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।इसको प्रारम्भ में बार-बार अभ्यास करके करना चाहिए।
3-इसलिए ईश्वर' प्रणिधान के लिए यह आवश्यक है कि हम ईश्वरीय आज्ञायों के बारे में जानें। ईश्वर' की आज्ञा के अनुसार चलना होगा तो हम हर वक्त ईश्वर' को सामने रखेंगे और अपनी वाणी, सोच व कर्मों को अच्छी ओर लगाएंगे।ईश्वर' आज्ञाओं का पालन करने में उनसे मिलने वाले फल की इच्छा नही करनी चाहिए।
4-फल को न चाहने का अर्थ क्या है?
फल न चाहें ऐसा तो कोई कर नहीं सकता।जो कुछ भी कार्य करने
पर मिलता है-जड़ पदार्थ-उसको ही अंतिम फल समझ कर कार्य करें तो उससे आत्मा को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती।
5-इसलिये वह फल चाहना, जिस फल को प्राप्त करने से पूर्ण तृप्ति मिले। उस फल को प्राप्त करने की इच्छा रखो जिससे पूर्ण संतोष मिल जाये, पूर्ण संतुष्टि मिल जाये, पूर्ण तृप्ति मिल जाये, पूर्ण प्रसन्नता मिले, पूर्ण निर्भयता की प्राप्ति हो और आनन्द की प्राप्ति हो। फल ऐसा चाहो जिससे आत्मा की अभिलाषा की पूर्ति हो सके। उसकी पूर्ति होती है ईश्वरीय आनन्द को पाने से।
6-कर्म को ईश्वर के लिए करें, ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने के लिए करें। लौकिक पदार्थों को, सांसारिक पदार्थों को, जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से यदि हम कर्म कर रहे हैं तो फिर ईश्वरीय आनन्द हमको नहीं मिल पायेगा। कर्मों को जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से न करके ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने के लिए करना चाहिए। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म करने का भी यहीं अभिप्राय है।
7-इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने 'भक्ति-विशेष' शब्द का प्रयोग किया है।
भक्ति=समर्पण=आज्ञा पालन
ईश्वर'-प्रणिधान के अन्तर्गत अपना सब कुछ-बल, धन, योग्यता, ज्ञान आदि ईश्वर' को समर्पित कर दें। व्यक्ति जब ऐसा करने लगता है तो उसको डर लगता है । यदि मैं सब कुछ समर्पित कर दूँ, तो मेरे लिए कुछ बचेगा ही नहीं।
8- ईश्वर' -प्रणिधान करने पर भी समस्त धन रहेगा तो आपके पास ही, लेकिन उसे ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रयोग करना होगा। जैसे उदाहरण के लिए एक मकान में एक किराएदार रहता है। वह किराएदार उस मकान का अधिक से अधिक प्रयोग करता है और उसका अधिक से अधिक सुख लेने का प्रयत्न करता है, लेकिन अपना नहीं मानता। मकान उसी के पास है, वह ही प्रयोग करता है परन्तु उसे अपना नहीं मानता, उसके बारे में उसको कोई चिन्ता नहीं रहती। किसी कारण से बिगड़ भी जाए तो उसको दु:ख बिलकुल भी नहीं होता। क्योंकि उसने उसे अपना तो कुछ माना ही नहीं था।
9-अपने जीवन में यह भाव लाने से कि मेरा सब कुछ प्रभु का है एक बहुत बड़ा लाभ होगा कि वो जैसा हमको कहेगा हम वैसा अपने साधनों का प्रयोग करेंगे। जिम्मेदारी अपनी नहीं रहेगी।समर्पण का अर्थ हमने किया 'भक्ति-विशेष' अर्थात ईश्वर' की आज्ञा-पालन।
10-उसकी आज्ञा के अनुसार चलना होगा तो पूछना पड़ेगा और पूछना हो तो पूछे जाने वाले को सामने रखना होगा। तो ईश्वर-प्रणिधान का दूसरा विभाग है ईश्वर को हर समय सामने रखना। हम ईश्वर को सामने रखते हैं तो एकाग्र बने रहेंगे। मन ईश्वर में रहेगा तो ईश्वर के आदेश को देख-देख के क्रियाओं को करेंगे।
11-जैसे छोटा सा बच्चा होता है, उसको जब हम काम कहते हैं, काम कराते हैं तो वो बार-बार हमें देखता रहता है। ठीक करता हूँ? बताओं, ऐसे करूँ? बताओं, ऐसा न करूँ? उसको हर बात बतायी जाती है, और वो ऐसे ही करता हुआ अपना कुछ मानता ही नहीं, और उसको कोई परेशानी भी नहीं होती, कोई तनाव नहीं होता, सारी जिम्मेदारी कराने वाले की होती है।
12-सब कुछ समर्पण कर दिया, स्वयं का कुछ नहीं रखा। मैं -मैं नहीं रहा मैं आप हो गया, अब आप जो कहेंगे मुझे वैसा ही करना है। मेरा अस्तित्व होते हुए भी नहीं रहा, मैंने आपको ही समर्पित कर दिया। अब आपकी भक्ति अर्थात् आज्ञापालन में ही तत्पर रहूँगा। बतायें मुझे क्या करना है? यह है समर्पण। इस तरह यदि हम ईश्वर-समर्पण करेंगे तो निश्चित रूप से ईश्वर का दर्शन होगा, यही हमको करना है।
13-जब हम ईश्वर' – समर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे तो मुक्ति-पथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।
ईश्वर-प्रणिधान के लाभ क्या है?
04 FACTS;
1-ममत्व (मैं और मेरे) की भावना समाप्त हो जाती है।
2-प्रत्येक वस्तु (जड़ व चेतन) में प्रभु का आभास होता है। जिससे सब के साथ समुचित व्यवहार कर पाते हैं।
3-ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रत्येक कार्य को करने के कारण किसी प्रकार का अनुचित -पापकर्म नहीं होता । जिससे ईश्वर-प्रणिधान करने वाला व्यक्ति पूर्ण अहिंसक बनता है।
4-ईश्वर-प्रणिधान करने वाले व्यक्ति को ईश्वर वरण कर (चुन) लेता है।
प्रभु अपना दर्शन कराते हैं।
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योग का तीसरा अंग — आसन
03 FACTS;-
1-आज आसन को योग का पर्याय और आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना माना जाने लगा है। आसन करने पर गौण रूप से शारीरिक लाभ भी होते हैं। परन्तु आसन का मुख्य उद्देश्य प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। जिस शारीरिक मुद्रा में स्थिरता के साथ लम्बे समय तक सुख पूर्वक बैठा जा सके उसे आसन कहा गया है।
2-शरीर की स्थिति, अवस्था व साम्थर्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न-भिन्न आसनों की चर्चा की गई है। चलते-फिरते, उछलते — कूदते, नाचते-गाते हुए ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान के लिए बैठना आवश्यक है। मन को अगतिशिल ईश्वर' में लगाना तभी सम्भव है जब हम अपने शरीर को स्थिर अथवा अचल करें। अचलता से ही पूर्ण एकाग्रता मिलती है। उछलते, कूदते-नाचते हुए मन को पूरा रोकना, पूर्ण एकाग्र करना सम्भव ही नहीं है।
3-योगी खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेटे हुए, बात करते, किसी भी कार्य को करते हुए सतत् ईश्वर'की अनुभूति बनाए रखते हैं। ईश्वर' की उपस्थिति में ही समस्त कार्यों को करते हैं। किन्तु इसे ईश्वर'-प्रणिधान कहते हैं, यह समाधि नहीं है। समाधि व ईश्वर' प्रणिधान अलग-अलग हैं, कोई यह न समझे कि योगी चलते-फिरते समाधि लगा लेता है। समाधि के लिए तो योगियों को भी समस्त वृत्तियों को रोककर मन को पूर्ण रूप से ईश्वर' में लगाना होता है, जिससे समाधि लग सके और इसके लिए शरीर की स्थिरता आवश्यक है।
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योग का चौथा अंग ...प्राणायाम;-
02 FACTS;-
1-प्राणायाम शब्द के संबंध में बहुत भ्रम फैला हुआ है। इस भ्रम का कारण यह है कि आज लोग प्राण शब्द के अर्थ को प्राय: भूल गए हैं। बहुत से ऐसे लोग भी, जो अपने को योगी कहते हैं, इस शब्द के संबंध में भूल करते हैं। योगी को इस बात का प्रयत्न करना होता है कि वह अपने प्राण को सुषुम्ना में ले जाय। सुषुम्ना वह नाड़ी है जो मेरुदंड की नली में स्थित है और मस्त्तिष्क के नीचे तक पहुँचती है। यह कोई गुप्त चीज नहीं है। आँखों से देखी जा सकती है। करीब-करीब कनष्ठाि उँगली के बराबर मोटी होती है, ठोस है, इसमें कोई छेद नहीं है। प्राण का और साँस या हवा कहने वालों को इस बात का पता नहीं है कि इस नाड़ी में हवा के घुसने के लिये और ऊपर चढ़ने के लिये कोई मार्ग नहीं है।
2-प्राण को हवा का समानार्थक मानकर ही ऐसी बातें कही जाती हैं कि अमुक महात्मा ने अपनी साँस को ब्रह्मांड में चढ़ा लिया। साँस पर नियंत्रण रखने से नाड़ी-संस्थान को स्थिर करने में निश्चय ही सहायता मिलती है, परंतु योगी का मुख्य उद्देश्य प्राण का नियंत्रण है, साँस का नहीं। प्राण वह शक्ति है जो नाड़ीसंस्थान में संचार करती है। शरीर के सभी अवयवों को और सभी धातुओं को प्राण से ही जीवन और सक्रियता मिलती है। जब शरीर के स्थिर होने से ओर प्राणायाम की क्रिया से, प्राण सुषुम्ना की ओर प्रवृत्त होता है तो उसका प्रवाह नीचे की नाड़ियों में से खिंच जाता है। अत: ये नाड़ियाँ बाहर के आधातों की ओर से एक प्रकार से शून्यवत् हो जाती हैं।
प्राणायाम का महत्व;-
13 FACTS;-
1-प्राणायाम से ज्ञान का आवरण जो अज्ञान है, नष्ट होता है। ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर से वैराग्य उपजता है। कपाल-भाति, अनुलोम-विलोम आदि प्राणायाम नहीं बल्कि श्वसन क्रियाएं हैं। ये क्रियाएं हमें अनेको रोगों से बचा सकने में सक्ष्म है परन्तु इन्हें अपने आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानने-समझने व जटिल रोगों में आयुर्वेद की सहायता लेने का विकल्प समझना हमारी भूल होगी। प्राणायाम सबके लिए महत्त्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया है।
2-मोटे तौर पर नाक से साँस खींचने की, छोड़ने की और रोकने की विधि विशेष को प्राणायाम कहते हैं। खींचने को पूरक, रोकने को कुम्भक और छोड़ने को रोचक कहा जाता है। रोकने के दो तरीके हैं-एक साँस को भीतर भर कर रोके रहना जिसे अन्तः कुम्भक कहते हैं। दूसरा साँस को निकाल देने के बाद बाहर की हवा को भीतर प्रवेश करने से रोकना-बिना साँस लिए काम चलाना इस बाह्य कुम्भक कहते हैं। दो प्रकार का कुम्भक और एक एक प्रकार के पूरक रेचक, इस प्रकार प्राणायाम को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है।
2-1-यों यह, चारों ही क्रियाएँ अपने ढंग से स्वतः ही होती रहती हैं और उनका ध्यान भी नहीं रहता। पर जब उसी प्रक्रिया को विशेष क्रम से, विशेष ध्यानपूर्वक, विशेष भावना और उत्कंठा के साथ सम्पन्न किया जाता है तो उसे प्राणायाम कहा जाता है।प्राणों को अधिक देर तक रोकने में
शक्ति न लगाकर विधि में शक्ति लगायें और कुशलता के प्रति ध्यान दें।
3-‘प्राण’ का अर्थ है-वह जीवन तत्व जो प्रकृत पदार्थों के साथ सम्बद्ध होते हुए प्राणियों के शरीरों से लेकर निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। इस सम्बन्ध में एक भ्रामक मान्यता यह है कि प्राण सम्भवतः साँस के साथ चलने वाली वायु का नाम है। सम्भवतः यह भ्रम ‘प्राण वायु’ शब्द के प्रचलन से फैला है। वायु में प्राण घुला हो सकता है, पर स्वयं प्राण वायु के सीमा बन्धन में सीमित नहीं है। यों आक्सीजन को भी प्राण वायु कहने का रिवाज है। इस आक्सीजन में जीवन धारण करने वाली क्षमता का संकेत भर है। प्राण को अमुक गैस या वायु में सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता।
4-प्राण की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहता है- प्राणयति जीवयति इति प्राण।” अर्थात् जो प्राणि मात्र के जीवन का आधार बनकर रहता है वह प्राण है।
वायु और प्राण का परस्पर वैसा ही सम्बन्ध है जैसा शब्द और वायु का। ध्वनि प्रवाह वायु के द्वारा ही होता है। चन्द्रमा पर हवा नहीं है, अस्तु वहाँ दो व्यक्ति अति समीप खड़े होने पर भी परस्पर वार्तालाप नहीं कर सकते। होठ, जीभ आदि सब कुछ चलने और बोलने का पूरा प्रयत्न करने पर भी मुँह से शब्द नहीं निकलेंगे और दूसरे के कानों तक बिना हवा के किसी ध्वनि का पहुँच सकना सम्भव न होगा।
5-रेडियो प्रवाह से बहने वाली विद्युतधारा शब्द को तरंगों में बदल कर सुदूर स्थानों तक ले जाती है और फिर अभीष्ट स्थान पर उसे फिर से शब्द में बदल लिया जाता है वह विज्ञान अलग है। पर सामान्यतया वायु और शब्द की संगति स्पष्ट है। इसी प्रकार वायु के साथ प्राण तत्व के घुले रहने की बात भी स्पष्ट है।
6-शक्ति के बल पर ही संसार के सारे क्रिया कलाप चलते हैं। जीवनी शक्ति के बल पर व्यक्तित्व के विकास की संभावनाएं बनती हैं। प्राण इसी जीवनी शक्ति का नाम है। वह शरीर के जिस भी अवयव में-जितनी अधिक मात्रा में विद्यमान रहता है वह उतना ही सक्षम एवं विकसित देखा जाता है। मस्तिष्क में उसकी ज्योति ज्ञान बनकर चमकती है। हृदय में दृढ़ता और पराक्रम उत्पन्न करती है। नेत्रों में प्रतिभा-वाणी में प्रभावशीलता के रूप में उसे देखा जा सकता है। होठों पर मुसकान और ललाट पर आशा की किरणों में उसे प्रकट होते हुए देखा जा सकता है।
7-शरीर यात्रा को चलाते रहने योग्य प्राण तो हर किसी को मिला है। उसे व्यक्तिगत विद्युत, जीवनी शक्ति एवं शक्ति ऊर्जा के रूप में मापा आँका जा सकता है। इस सामान्य से आगे बढ़ कर जब असामान्य मात्रा में उसे ग्रहण और धारण करने की इच्छा होती है तो फिर प्राणायाम विज्ञान का आश्रय लिया जाता है।
8-प्राणायाम का श्वास-प्रश्वास क्रिया से बहुत थोड़ा सम्बन्ध है। फेफड़ों में अधिक हवा भरना ताकि उनके कुछ भाग जो पूरी साँस न लेने से निष्क्रिय एवं अशक्त पड़े रहते हैं उन्हें क्रियाशील बनाना-गहरी श्वास प्रश्वास क्रिया का प्रधान प्रयोजन है। जल्दी साँस लेने से रक्त संचार की गति में तीव्रता आने से भी थोड़ा लाभ हो सकता है, पर यह सामान्य शारीरिक लाभ है। इन्हें दूसरे व्यायामों में भी किया जा सकता। प्राणायाम की गरिमा का मुख्य कारण यह है कि अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में फैले हुए प्राण तत्व ( वाइटल फोर्स) का अधिक मात्रा में आकर्षित करना और उसके द्वारा शरीर और मन के कतिपय शक्ति संस्थानों को समर्थ एवं नियन्त्रित बनाना।
9-स्वसंचालित श्वास प्रश्वास क्रिया- वेगस नर्व के द्वारा गतिशील रहती है और इस ‘वेगस नर्व’ का सीधा सम्बन्ध अचेतन मन से है। इसे सामान्य इच्छा शक्ति से घटाया, बढ़ाया या रोका, चलाया नहीं जा सकता। इसे प्राणायाम द्वारा आहूत प्राण तत्व ही प्रभावित कर सकता है। कहना न होगा कि इस क्रिया में जितनी सफलता मिलती जाती है उतना ही प्राणतत्त्व का वेगसनर्व के माध्यम से समस्त शरीर पर अधिकार होता चला जाता है। उस सफलता के बाद साँस केवल साँस नहीं रह जाती मात्र वायु का आवागमन और रक्त में से दूषित तत्व छाँटने, निकालने के अतिरिक्त एक नया आधार और मिल जाता है। तब साँस के साथ प्राण तत्व की एक विशेष विद्युत घुली रहती है और उसका प्रभाव किसी भी अंग पर कुछ भी हो सकता है।
10-स्वसंचालित नाड़ी संस्थान (ओटोनाभिक नर्वस सिस्टम) जो किसी अन्य उपाय से नियन्त्रण में नहीं आता प्राण तत्व का प्रभाव स्वीकार कर लेता है। तब नाड़ी तन्तुओं के सहारे प्राण की एक विलक्षण शक्ति किसी भी प्रत्यक्ष परोक्ष अवयव में भेजी जा सकती है और उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध किये जा सकते हैं। शरीर शास्त्री जानते हैं कि शरीर में रहने वाली क्रिया शक्ति से मस्तिष्कीय ज्ञान शक्ति की समर्थता दस गुनी अधिक है और उससे भी दस गुनी अधिक सामर्थ्य स्वसंचालित नाड़ी प्रक्रिया में है। अर्थात् शारीरिक क्षमता की तुलना में स्वसंचालित क्षेत्रों में सौ गुनी सामर्थ्य काम करती है।
11-उसे यदि नियन्त्रण में लेकर इच्छानुसार प्रयुक्त किया जा सके तो मनुष्य सामान्य क्रियाशीलता की अपेक्षा सौ गुनी क्रियाशीलता अपने में विकसित कर सकता है। हारमोन जैसे तत्व जो शारीरिक और मानसिक विकास को जादुई ढंग से प्रभावित करते हैं, अन्य किसी उपाय से भी दवादारू से भी प्रभावित नहीं होते, पर यदि नाड़ी तन्तुओं, श्वास प्रश्वास लहरियों और माँस पेशियों के आकुंचन प्रकुञ्चन द्वारा उन तक प्राण तत्व का प्रभाव पहुँचाया जा सके तो हारमोन, नाड़ी गुच्छक, उपत्यिकाएँ ग्रन्थियाँ, कोशिकाएँ तथा अवयवों की कार्य पद्धतियाँ निश्चित रूप से प्रभावित की जा सकती हैं।
12-प्राण तत्व को कई बार दैवी शक्ति (कास्मिक एनर्जी) कहा जाता है और कई मानव तत्त्ववेत्ता उसे प्रत्यक्ष जीवन (विजुअल लाइफ) कहते हैं।प्रत्येक साँस के साथ हम आकाश
से हवा ही नहीं खीचते उसके साथ एक विद्युत भी खींचते हैं। यह विशेष विद्युत सामान्य बिजली की तरह जड़ तत्वों के अंतर्गत नहीं आती क्योंकि उसमें जीवन भी भरा रहता है। ऐसा जीवन जो जीवाणुओं की तरह हलचल ही नहीं करता, वरन् उसमें चेतना और विचारणा भी भरी पड़ी है।
13-यह दिव्य विचारकर्ता ईश्वरीय प्रवाह है जो यदि हम उसे ग्रहण कर सकने की स्थिति में हों तो ईश्वरीय सन्देशों तथा उसके द्वारा चल रहे इस जगत या अन्य लोकों में क्रिया कलापों को देखने, सुनने और समझने में समर्थ हो सकते हैं। प्राणायाम हमें प्राण को उन सूक्ष्म तरंगों से
भी सम्बद्ध कर सकता है जिसके माध्यम से विश्व व्यापी हलचलें हो रही हैं। इन सूक्ष्म प्राण तरंगों से सम्बन्ध बनाया जा सके तो इस विश्व के घटना क्रमों तथा व्यक्तियों के आन्तरिक ढाँचों में आश्चर्यजनक हेर फेर प्रस्तुत किया जाना सम्भव हो सकता है।
प्राणायाम के भेद;-
04 FACTS;-
1-प्राणायाम के अनेकों भेद उपभेद हैं। साधारणतया 84 प्राणायाम की चर्चा होती रहती हैं। उनमें से शीतली, सीत्कारी, उज्जयी, भस्त्रिका आदि आठ मुख्य हैं। उनके भिन्न भिन्न विधान, प्रयोजन तथा परिणाम हैं। पर सभी में एक बात समान यह विश्वास विकसित किया जाता है कि नाक के साथ अन्दर प्रवेश करने वाली वायु के साथ प्रचुर परिमाण में प्राण तत्व भरा पड़ा है और वह प्राणायाम क्रिया करते समय उद्दीप्त हुई संकल्प शक्ति के सहारे भीतर खिंचता चला आ रहा है और उसकी प्रतिष्ठापना शरीर के रोम रोम में होती चली जा रही है। यह अभिव्यक्ति जितनी ही प्रखर होगी उसी अनुपात से उभरा हुआ संकल्प संव्याप्त प्राण को अधिक मात्रा में खींचने और धारण करने में सफल हो सकेगा।
2-साँस खींचते समय प्राण तत्व का प्रचुर परिमाण में खिंचना, रोकते समय उसका रोम रोम में बस जाना, छोड़ते समय अन्तर की विकृतियों को अपने साथ घसीटते हुए ले चलना और ऐसे सुदूर क्षेत्र में फेंक देना जहाँ से फिर लौटने की सम्भावना न हों। यही तीन संकल्प पूरक, कुम्भक और रेचक के साथ साथ किये जाते हैं। संकल्प में जितनी प्रखरता होगी प्राणायाम उतना ही सफल रहेगा। यदि ऐसे ही उथले मन से साँस खींचते, छोड़ते रहा जाय तो उसके क्रमबद्ध होने पर मात्र फेफड़ों का व्यायाम भर हो सकता है। प्राणायाम का वह लाभ नहीं मिल सकता जिसकी साधना विज्ञान में बढ़ी चढ़ी महिमा बताई गई है।
3-साधारणतया लोग हल्की साँस लेते हैं और उससे फेफड़ों का मध्य भाग ही प्रभावित होता है। उनके ऊपर नीचे के भागों में थोड़ी सी ही हवा पहुँचती है, अस्तु वहाँ एक प्रकार से निष्क्रियता ही छाई रहती है। जहाँ निष्क्रियता होगी वहाँ स्वभावतः दुर्बलता रहेगी। क्षय, खाँसी, दमा, प्लूरिसी, साँस फूलना, व्रोंकाइटिस आदि रोग फेफड़ों की दुर्बलता के कारण ही बढ़ते हैं और यह दुर्बलता फेफड़ों के पूरे भाग को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन की कमी तथा समुचित श्रम करने का अवसर न मिलने से उत्पन्न होती है।
4-इस विपत्ति बचने के लिए गहरी साँस लेने के जो तरीके खोजे गये हैं, आरोग्य विज्ञान के क्षेत्र में उन्हीं को प्राणायाम कहा जात है। इस दृष्टि से भी उनकी उपयोगिता है, पर अध्यात्म क्षेत्र में प्राणायाम को जिस आधार पर महत्व दिया जाता है वह जीवनी शक्ति का सम्बन्ध ही है। इसमें अंतरात्मा के विकास का अवसर मिलता है और बढ़ती हुई प्रखरता के आधार पर आत्मोत्कर्ष का वह द्वार खुलता है जिसमें प्रवेश करने के उपरान्त ही जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकना सम्भव होता है।
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योग का पांचवा अंग ..प्रत्याहार;-
07 FACTS;-
1-प्राणयाम का अभ्यास करना और प्राणायाम में सफलता पा जाना दो अलग अलग बातें हैं। परंतु वैराग्य और तीव्र संवेग के बल से सफलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ज्यों-ज्यों अभ्यास दृढ़ होता है, त्यों-त्यों साधक के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। एक और बात होती है। वह जितना ही अपने चित्त को इंद्रियों और उनके विषयों से दूर खींचता है उतना ही उसकी ऐंद्रिय शक्ति भी बढ़ती है अर्थात् इंद्रियों की विषयों के भोग की शक्ति भी बढ़ती है। इसीलिये प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का नाम लिया जाता है।
2-योग का पांचवां अंग है प्रत्याहार— स्रोत पर लौट आना यह मन की उस क्षमता की पुनर्स्थापना है जिससे बाह्य विषय जनित विक्षेपों से मुक्त हो इंद्रियां वश में हो जाती हैं।प्रत्याहार का अर्थ है इंद्रियों को उनके विषयों से खींचना।आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के ही समुच्चय का नाम हठयोग
है।जब तक तुम बाहरी चीजों से होने वाले चित्त विक्षेपों से नहीं छूटते, तुम भीतर नहीं जा सकते, क्योंकि वे चीजें तुम्हें बार बार बुलाती रहेंगी। यह ऐसा ही है जैसे तुम ध्यान कर रहे हो, लेकिन टेलीफोन भी तुमने ध्यान कक्ष में रख लिया है। वह बार बार बजता है, तो कैसे तुम ध्यान कर सकते हो... तुम्हें अपना टेलीफोन हटा देना है।
3-और यह कोई एक टेलीफोन की बात नहीं है।जब तुम ध्यान करने की कोशिश कर रहे हो; तो तुम्हारे आस पास लगातार लाखों चीजें चल रही हैं ।तुम्हारे मन में हजारों बातें चलती रहती हैं। वे सब बातें तुम्हारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास कर रही हैं। यदि यही चलता रहा, तो प्रत्याहार संभव नहीं है। पतंजलि कहते हैं, 'प्राणायाम के बाद, फिर उस आवरण का विसर्जन हो जाता है, जो प्रकाश को ढंके हुए है।’आवरण का विसर्जन'—प्रकाश की उपलब्धि नहीं हैं.. ये दोनों अलग बातें हैं। आवरण का हटना एक नकारात्मक उपलब्धि है, वह प्रकाश पाने की संभावना निर्मित करती है। ।
4-आंख, कान, नासिका आदि दसों इन्द्रियों को ससांर के विषयों से हटाकर मन के साथ-साथ रोक (बांध) देने को प्रत्याहार कहते हैं।
प्रत्याहार का मोटा स्वरूप है संयम रखना, इन्द्रियों पर संयम रखना। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मीठा बहुत खाता है कुछ समय बाद वह अपनी मीठा खाने की आदत में तो संयम ले आता है परन्तु अब उसकी प्रवृति नमकीन खाने में हो जाती है। यह कहा जा सकता है कि वह पहले भी और अब भी अपनी रसना इन्द्रिय पर संयम रख पाने में असफल रहा। उसने मधुर रस को काबू करने का प्रयत्न किया तो उसकी इन्द्रिय दूसरे रस में लग गई ।
5-इसी भांति अगर कोई व्यक्ति अपनी एक इन्द्रिय को संयमित कर लेता है तो वह अन्य इन्द्रिय के विषय (देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्ष करना आदि) में और अधिक आनन्द लेने लगता है। अगर एक इन्द्रिय को रोकने में ही बड़ी कठिनाई है तो पाँचों ज्ञानोन्द्रियों को रोकना तो बहुत
कठिन हो जायेगा।इन्द्रियों को रोकना हो तो अन्दर भूख उत्पन्न करनी होगी।इनको जीतना हो तो तपस्या करनी पड़ती है और तपस्या के पीछे त्याग की भावना लानी पड़ती है।वैसे हम तपस्या बहुत करते हैं।दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो तपस्या करता ही न हो।पैसे की भूख है तो हम पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं। कहाँ-कहाँ से लाते हैं।क्या-क्या करते हैं। सुबह से लेकर रात्रि में सोने तक और जब होश में हैं तब से आज तक हम उसी के लिए लगे हैं।
6- ईश्वर को प्राप्त करने की ऐसी भूख नहीं है। जब ईश्वर को प्राप्त करने के लिए भूख नहीं है तो इन्द्रियों के ऊपर संयम नहीं कर पायेंगे हम।
कोई चेतन अन्य चेतन को नचा दे तो समझ में आता है, (जैसे मदारी, भालू, बन्दर आदि को नचाता है), लेकिन कोई जड़ किसी चेतन को नचा
दे, समझना बड़ा कठिन है। लेकिन हो यही रहा है।हम अपने जड़ मन को अपने अधिकार में नहीं रख पा रहे हैं। बल्कि यह जड़ मन हमें नचा रहा है।
कैसे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए, इस बात को प्रत्याहार में समझाया है। एक को रोकते हैं तो दूसरी इन्द्रिय तेज हो जाती है। दूसरी को रोकें तो तीसरी, तीसरी को रोकें तो चौथी, तो पाँचों ज्ञानेनिद्रयों को कैसे रोकें ?
7-इसके लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण देकर हमें समझाया जाता है जैसे जब रानी मक्खी कहीं जाकर बैठ जाती है तो उसके इर्द-गिर्द सारी मक्खियाँ बैठ जाती हैं। उसी प्रकार से हमारे शरीर के अन्दर मन है। वह रानी मक्खी है और बाकी इन्द्रियाँ बाकी मक्खियाँ हैं। संसार में से उस रानी मक्खी को हटाकर भगवान में बिठा दो।फिर यह अनियंत्रित देखना, सूंघना
व छूना आदि सब बन्द हो जायेंगे।प्रत्याहार की सिद्धि के बिना हम अपने मन को पूर्णत्या परमात्मा में नहीं लगा सकते।प्रत्याहार तुम्हें मालिक बना देता है। प्रत्याहार का अर्थ है ..अब तुम किसी चीज के पीछे नहीं भटक रहे हो। वही ऊर्जा जो संसार में भटक रही थी, अब केंद्र पर लौट आती है। जब ऊर्जा केंद्र में लौटती है, तब रहस्यों पर रहस्य खुलते चले जाते हैं।
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योग का छठा अंग ...धारणा;-
10 FACTS;-
1-अपने मन को अपनी इच्छा से अपने ही शरीर के अन्दर किसी एक स्थान में बांधने, रोकने या टिका देने को धारणा कहते हैं।वैसे तो शरीर में
मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है।
2-हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है।जहां धारणा की जाती है
वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है जहां आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान हैं। इसलिए शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।
3-निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते -
3-1-मन जड़ है को भूले रहना।।
3-2-भोजन में सात्विकता की कमी।।
3-3-संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना।।
3-4- ईश्वर कण -कण में व्याप्त है को भूले रहना
3-5-बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना।।
3-6-मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना।।
4-बहुत से योग साधक बिना धारणा बनाए ध्यान करते रहते हैं। जिससे मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है।
जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगो को सिद्ध किया होता है। उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है। जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह ईश्वर पर निशाना लगाने ( ईश्वर को पाने) के लिए हमारे मन को एक स्थान पर टिका देना अति आवश्यक है।
5-पतंजलि केअनुसार,'' चित्त का देश विशेष में बँध जाना धारणा है''। यम, नियम, आसन, प्राणायम और प्रत्याहार को क्रमश: धारणा के समुद्र में छलाँग लगाने की तैयारी मात्र माना गया है। धारणा से ही कठिन परीक्षा और सावधानी की शुरुआत होती है। जिसे धारणा सिद्ध हो जाती है, कहते हैं कि ऐसा योगी अपनी सोच या संकल्प मात्र से सब कुछ बदल सकता है। ऐसे ही योगी के आशीर्वाद या शाप फलित होते हैं।
6 -निगाहें स्थिर : इस अवस्था में मन पूरी तरह स्थिर तथा शांत रहता है। जैसे कि बाण के कमान से छूटने के पूर्व लक्ष्य पर कुछ देर के लिए निगाहें स्थिर हो जाती हैं, जैसे कि तूफान के आने से पूर्व कुछ देर हवाएँ स्थिर हो जाती हैं, जैसे कि दो भीमकाय बादलों के टकराने के पूर्व दोनों चुपचाप नजदीक आते रहते हैं। ठीक उसी तरह योगी के मन की अवस्था हो चलती है, जबकि उसके एक तरफ संसार होता है तो दूसरी तरफ रहस्य का सागर। यह मन से मुक्ति की शुरुआत भी है। धारणा सिद्ध व्यक्ति कीपहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। 7-दृड़ निश्चियी : धारणा के संबंध में भगवान महावीर ने बहुत कुछ कहा है। श्वास-प्रश्वास के मंद व शांत होने पर, इंद्रियों के विषयों से हटने पर, मन अपने आप स्थिर होकर शरीर के अंतर्गत किसी स्थान विशेष में स्थिर हो जाता है तो ऊर्जा का बहाव भी एक ही दिशा में होता है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। जो लोग दृड़ निश्चिय होते हैं, अनजाने में ही उनकी भी धारणा पुष्ट होने लगती है। 8-योगभ्रष्ट : हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म अनुसार धारणा सिद्ध व्यक्ति को योगी, अवधूत, सिद्ध, संबुद्ध कहते हैं। यहीं से धर्म मार्ग का कठिन रास्ता शुरू होता है, जबकि साधक को हिम्मत करके और आगे रहस्य के संसार में कदम रखना होता है। कहते हैं कि यहाँ तक पहुँचने के बाद पुन: संसार में पड़ जाने से दुर्गति हो जाती है।ऐसे व्यक्ति को योगभ्रष्ट कहा जाता है, इसलिए ऐसे साधक या योगी को समाज जंगल का रास्ता दिखा देता है।इसे ऐसा समझ लीजिए कि अबआप वन-वे ट्रैफिक में फँस गए हैं, अब पीछे लौटना याने जान को जोखिम में डालना ही होगा।
9-धारणा केवल एकाग्रता नहीं है ...एकाग्रता से बहुत बड़ी बात है।
धर्म भी धारणा से आता है। धारणा का अर्थ होता है... धारण करने की क्षमता, गर्भ बनने की पात्रता। जब प्राणायाम के बाद तुम समग्र के साथ लयबद्ध हो जाते हो, तो तुम गर्भ बन जाते हो—धारण करने की विराट क्षमता बन जाते हो।तुम इतने विराट हो जाते हो कि समग्र को/सब कुछ
समाहित कर सकते हो।लेकिन 'धारणा' का अनुवाद 'एकाग्रता' की भांति किया जाता रहा है क्योंकि एक ही विचार को लंबे समय तक धारण किए रहना एकाग्रता है।
10-मन के लिए बड़ा कठिन है किसी एक चीज पर एकाग्र रहना। मन बहुत संकुचित है। वह किसी चीज के साथ कुछ क्षणों के लिए ही रह सकता
है,लंबे समय तक नहीं।मन विराट नहीं है ।धारणा का अर्थ है धारण करने की क्षमता। क्योंकि यदि तुम परमात्मा को जानना चाहते हो, तो तुम्हें उसे धारण करने की क्षमता जुटानी होगी। यदि तुम अपने अंतरस्थ केंद्र को जानना चाहते हो, तो तुम्हें उसके लिए गर्भ होने की क्षमता निर्मित करनी होगी।तुम्हें स्वयं को पुन: जन्म देना होगा।एकाग्रता तो केवल उसका एक हिस्सा है।धारणा बहुत व्यापक/विराट शब्द है ; एकाग्रता तो केवल उसका एक हिस्सा है।जिस मन में मां की भांति गहन धैर्य है ;जो प्रतीक्षा कर सकता है, स्थिर रह सकता है, केवल वही मन जान सकता है ...अपने शिवत्व को।
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योग का सातवां अंग ..ध्यान;-
09 FACTS;-
1-ध्यान का अर्थ है अपनी विचार प्रक्रिया के साथ तादात्मय तोड़ना, पूर्णतया संबंध तोड़ना, शांत रहना, स्थिर रहना।ध्यान अपने मन के प्रति जागरूक होने की साधारण सी प्रक्रिया है। मन के साथ लड़ना नहीं। न ही इसे वश में करने का प्रयास।बस वहां होना, चुनाव रहित
साक्षी।जो भी हो रहा है,उसे देखो, उसके पक्ष या विपक्ष में बिना किसी पूर्वाग्रह के। इसे कोई नाम न दो कि यह मेरे मन में नहीं उठना चाहिये,कि यह एक घिनौना विचार है और यह बहुत सुंदर और पवित्र विचार है। तुम्हें कोई निर्णय नहीं लेना चाहिये। तुम्हें निर्णय-रहित होना चाहिये। क्योंकि जैसे ही तुम निर्णय लेते हो, ध्यान खो जाता है। तुम्हारा तादात्मय हो जाता है। या तो तुम मित्र बन जाते हो या शत्रु। तुम संबंध स्थापित कर लेते हो।
2-जो भी हो रहा है उसके प्रति साक्षी भाव रखना। और तब एक चमत्कार घटता है। धीरे-धीरे व्यक्ति बोधपूर्ण होता है कि विचार कम होते जा रहे हैं। यह ऐसा ही है मानो ट्रैफिक तुम्हारे बोध पर निर्भर करता है। जब तुम पूर्णतया बोधपूर्ण होते हो, चाहे एक मिनट के लिये ही क्यों न हो, सब विचार समाप्त हो जाते हैं। तत्क्षण अचानक सब कुछ रुक जाता है। और सड़क खाली हो जाती है। उस क्षण को ध्यान कहते हैं। धीरे- धीरे यह क्षण बार बार आने लगते हैं। वो खाली अंतराल बार- बार आने लगते हैं और लम्बे समय के लिये रहते हैं। और तुम उन खाली अंतरालों में आसानी से विचारने के योग्य हो जाते हो, बिना किसी प्रयास के।
3-तो जब भी तुम चाहते हो तुम उन अंतरालों में प्रवेश कर सकते हो बिना किसी प्रयास के। वे तुम्हें ताजा करते हैं , नया करते हैं और वे तुममें बोध जगाते हैं कि तुम कौन हो। मन से मुक्त होकर तुम उन सब विचारों से भी मुक्त हो जाते हो जो तुम्हारे अपने बारे में हैं। अब तुम बिना किसी पूर्वाग्रह के देख पाते हो कि तुम कौन हो। स्वयं को जानना वह सब जानना है जो जानने योग्य है। और स्वयं के बारे में न जानना कुछ भी नहीं जानना। व्यक्ति संसार के बारे में सब जान सकता है, लेकिन यदि वह स्वयं को नहीं जानता तो वह पूर्णतया अज्ञानी है।वे भीड़ का अनुसरण करते हैं। वे स्वतंत्र नहीं हैं।
4-और फिर कुछ विद्रोही लोग हैं। रूढ़िमुक्त, निरंकुश लोग- कलाकार, चित्रकार, संगीतकार, कवि। उनहें लगता है कि वे स्वतंत्रता में जी रहे हैं। लेकिन यह केवल उनकी धारणा है। परंपरा के खिलाफ विद्रोह करने से ही तुम स्वतंत्र नहीं हो जाते। तुम अभी भी अपनी मूल प्रव्रतियों के गुलाम हो।बोध के बिना स्वतंत्रता मात्र एक खोखला विचार है। इसमें कुछ भी नहीं है। बिना बोधपूर्ण हुए तुम सचमुच स्वतंत्र हो ही नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारा अवचेतन तुम पर हावी रहता है। तुम्हारा अवचेतन तुम्हें चलाता है। तुम सोच सकते हो, तुम यह विश्वास कर सकते हो कि तुम स्वतंत्र हो लेकिन तुम स्वतंत्र हो नहीं। तुम बस मूल प्रवृतियों, अंधी प्रवृतियों के शिकार हो।
5-तो दो प्रकार के लोग होते हैं। अधिक लोग परंपरा, समाज, शासन का अनुसरण करते हैं। और काम,वासना, और महत्वाकांक्षा से ग्रस्त है। और तुम इनके मालिक नहीं हो, तुम गुलाम हो।स्वतंत्रता केवल बोध से आती है। जब तक व्यक्ति मूर्च्छा को जागरूकता में रूपांतरित नहीं करता, कोई स्वतंत्रता नहीं है। और इसमें बहुत कम लोग सफल हुए हैं। कोई जीसस, कोई लाओत्सु,,कोई बुद्ध। बस कुछ थोड़े से लोग जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। वे सचमुच स्वतंत्रता से जी सके क्योंकि वे बोधपूर्ण जीए। हरेक साधक का यही कार्य होना चाहिये। अधिक से अधिक बोध जगाना। तब स्वतंत्रता स्वयं ही आ जाती है। स्वतंत्रता जागरूकता के फूल की सुवास है।
6- ध्यान का मतलब, किसी को स्मरण में लाना नहीं है। ध्यान का मतलब, सब जो हमारे स्मरण में हैं, उनको गिरा देना है; और एक स्थिति लानी है कि केवल चेतना मात्र रह जाए, केवल कांशसनेस मात्र रह जाए, केवल अवेयरनेस मात्र रह जाए। यहां हम एक दीया जलाएं और यहां से सारी चीजें हटा दें, तो भी दीया प्रकाश करता रहेगा। वैसे ही अगर हम चित्त से सारे आब्जेक्ट्स हटा दें, चित्त से सारे विचार हटा दें, चित्त से सारी कल्पनाएं हटा दें, तो क्या होगा? जब सारी कल्पनाएं और सारे विचार हट जाएंगे, तो क्या होगा? चेतना अकेली रह जाएगी। चेतना की वह अकेली अवस्था ध्यान है। 7-ध्यान किसी का नहीं करना होता है। ध्यान एक अवस्था है, जब चेतना अकेली रह जाती है। जब चेतना अकेली रह जाए और चेतना के सामने कोई विषय, कोई आब्जेक्ट न हो, उस अवस्था का नाम ध्यान है। जो हम प्रयोग करते हैं, वह ठीक अर्थों में ध्यान नहीं, धारणा है। ध्यान तो उपलब्ध होगा। जो हम प्रयोग कर रहे हैं—समझ लें, रात्रि को हमने प्रयोग किया चक्रों पर, सुबह हम प्रयोग करते हैं श्वास पर—यह सब धारणा है, यह ध्यान नहीं है।
8-इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी, श्वास भी विलीन हो जाएगी। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी कि शरीर भी विलीन हो जाएगा, विचार भी विलीन हो जाएंगे।जब सब विलीन हो जाएगा, तो क्या शेष रहेगा? जो शेष रहेगा, उसका नाम ध्यान है। जब सब विलीन हो जाएंगे, तो जो शेष रह जाएगा, उसका नाम ध्यान है। धारणा किसी की होती है और ध्यान किसी का नहीं होता।ध्यान में निर्विषय होने का अभिप्राय यह है कि जिसका ध्यान करते हैं, उससे भिन्न कोई विषय नहीं हो।
9-ध्यान को ही उपासना कहा जाता है।यधपि ध्यान का सर्वोत्तम समय सुबह का है फिर भी ध्यान दिन के किसी भी समय, कितनी ही बार किया जा सकता है परन्तु प्राणायाम को ध्यान की प्रक्रिया में तभी शामिल करें यदि वह समय प्राणायाम के नियमों के अनुकूल हो।आप जब भी बिस्तर पर सोने जाएं तब आंखे बंद करके उल्टे क्रम में अपनी दिनचर्या के घटनाक्रम को याद करें। जैसे सोने से पूर्व आप क्या कर रहे थे फिर उससे पूर्व क्या कर रहे थे तब इस तरह की स्मृतियों को सुबह उठने तक ले जाएं। दिनचर्या का क्रम सतत जारी रखते हुए 'मोमोरी रिवर्स' को बढ़ाते जाए। ध्यान के साथ इस स्मरण का अभ्यास जारी रखने से एक माह बाद जहां मोमोरी पॉवर बढ़ेगा वहीं कुछ माह बाद यह आपमें गजब की स्मरणशक्ति का विकास कर देगा।
NOTE;-
धारणा, ध्यान और समाधि को एक दूसरे से बिल्कुल पृथक करना असंभव है। धारण पुष्ट होकर ध्यान का रूप धारण करती है और उन्नत ध्यान ही समाधि कहलाता है।महृषि पतंजलि ने तीनों को सम्मिलित रूप से संयम कहा है।
......SHIVOHAM..