समाधि का क्या रहस्य है?आत्म-साक्षात्कार का क्या अर्थ होता है ?-PART 03
योग का आठवां अंग — समाधि
क्या हैं समाधि?-
04 FACTS;-
1-जब किसी स्थान पर किसी व्यक्ति को दफनाया जाता है और उसके ऊपर किसी तरह का स्मारक बनाया जाता है, तो उसे समाधि कहा जाता है। मगर ‘समाधि’ मानव चेतना की उस सबसे ऊंची अवस्था को भी कहते हैं, जिसे व्यक्ति प्राप्त कर सकता है।समाधि समयातीत है जिसे मोक्ष कहा जाता है। इस मोक्ष को ही जैन धर्म में कैवल्य ज्ञान और बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा गया है। योग में इसे समाधि कहा गया है। इसके कई स्तर होते हैं।
2-समाधि योग का सबसे अंतिम पड़ाव है। समाधि की प्राप्ति तब होती है, जब व्यक्ति सभी योग साधनाओं को करने के बाद मन को बाहरी वस्तुओं से हटाकर निरंतर ध्यान करते हुए ध्यान में लीन होने लगता है।मोक्ष एक ऐसी दशा है जिसे मनोदशा नहीं कह सकते।
3-मोक्ष या समाधि का अर्थ अणु-परमाणुओं से मुक्त साक्षीत्व पुरुष हो जाना। तटस्थ या स्थितप्रज्ञ अर्थात परम स्थिर, परम जाग्रत हो जाना। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाना। इसी में परम शक्तिशाली होने का 'बोध' छुपा है, जहाँ न भूख है न प्यास, न सुख, न दुख, न अंधकार न प्रकाश, न जन्म है, न मरण और न किसी का प्रभाव। हर तरह के बंधन से मुक्ति। परम स्वतंत्रता अतिमानव या सुपरमैन।
4-संपूर्ण समाधि का अर्थ है मोक्ष अर्थात प्राणी का जन्म और मरण के चक्र से छुटकर स्वयंभू और आत्मवान हो जाना है। समाधि चित्त की सूक्ष्म अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दु:ख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती।ऐसा व्यक्ति शक्ति संपन्न बनकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। उसके जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।
क्या हैं समाधि की परिभाषा ?-
09 FACTS;-
1-‘समाधि’ शब्द सम और धी को जोड़ कर बना है। सम का मतलब है, समानता, धी का अर्थ है बुद्धि।अगर आप बुद्धि की एक समानतापूर्ण अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं, तो इसे समाधि कहते हैं। जब आपकी बुद्धि जाग्रत होती है, तो आप एक चीज को दूसरी से अलग करने में समर्थ होते हैं। यह एक वस्तु है और वह दूसरी, इस तरह का भेदभाव सिर्फ बुद्धि के सक्रिय होने के कारण ही संभव है।जैसे ही आप बुद्धि से परे हो जाते हैं, यह भेदभाव समाप्त हो जाता है। सब कुछ एक हो जाता है, जो कि वास्तविकता में है।
2-ध्यान का अभ्यास करते-करते साधक ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है कि उसे स्वयं का ज्ञान नहीं रह जाता और केवल ध्येय मात्र रह जाता है, तो उस अवस्था को समाधि कहते हैं।इस अवस्था में समय और स्थान का बोध नहीं होता। आपको भले लगे कि कोई व्यक्ति तीन दिन से समाधि में बैठा है, मगर उसके लिए यह कुछ पलों के बराबर होता है। समय बस यूं ही निकल जाता है। जो है और जो नहीं है, वह उसकी दुविधा से परे चला जाता है। वह इस सीमा से परे जाकर उसका स्वाद चखता है, जो नहीं है, जिसका कोई आकार-प्रकार, रूप-गुण, कुछ नहीं है।समूचा अस्तित्व, सृष्टि के कई रूप तभी तक मौजूद होते हैं, जब तक बुद्धि सक्रिय रहती है। जैसे ही आप अपनी बुद्धि को विलीन कर देते हैं, सब कुछ एक में विलीन हो जाता है।
3-समाधि, वो अवस्था है जब मनुष्य शरीर अपने आराध्य के साथ एकाकार हो जाता है, व्यक्ति और ईश्वर में बिल्कुल दूरी नहीं रह जाती। जो मनुष्य इस अवस्था को पा जाता है उसमें स्पर्श , गंध, भूख, प्यास, रूप, शब्द, इन सभी की कोई परवाह नहीं रहती। वह अनिश्चित काल तक अपने आराध्य के साथ संबंध बनाकर रखता है।समाधि की अवस्था में सभी इन्द्रियां मन में लीन हो जाती है। व्यक्ति समाधि में लीन हो जाता है, तब उसे रस, गंध, रूप, शब्द इन 5 विषयों का ज्ञान नहीं रह जाता है। उसे अपना-पराया, मान-अपमान आदि की कोई चिंता नहीं रह जाती है।
4-समाधि समय की स्थिति है....जब पूर्ण रूप से सांस पर नियंत्रण हो जाता है और मन स्थिर व सन्तुलित हो जाता है, तब समाधि की स्थिति कहलाती है। प्राणवायु को 5 सैकेंड तक रोककर रखना 'धारणा' है, 60 सैकेंड तक मन को किसी विषय पर केंद्रित करना 'ध्यान' है और 12 दिनों तक प्राणों का निरंतर संयम करना ही समाधि है।
5-हर धर्म में समाधि को अलग-अलग नामों से जाना गया है, जैसे जैन धर्म में इसे कैवल्य ज्ञान माना गया है। वहीं बौद्ध धर्म में इसे निर्वाण और योग में इसे समाधि की अवस्था माना गया है। समाधि के भी अलग-अलग स्तर होते
हैं।स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी भागवत गीता में समाधि के विषय में बताया है। इसके अलावा योग में भी समाधि के दो प्रकारों की चर्चा की गई है - सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात।
6-जहां एक ओर सम्प्रज्ञात समाधि.... वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। वहीं असम्प्रज्ञात समाधि में सात्विक, राजस और तमस सभी वृत्तियों का निरोध माना गया है।हिन्दू पुराणों में समाधि के
छ: प्रकार बताए गए हैं, इन्हें छ: मुक्ति भी कहा गया है। पहला है, साष्ट्रि यानि ऐश्वर्य, दूसरा, सालोक्य यानि लोक की प्राप्ति, सारूप का अर्थ है ब्रह्मस्वरूप, चौथा है सामीप्य जिसका अर्थ है ब्रह्म के पास, पांचवां है साम्य ब्रह्म जैसी समानता और अंतिम है लीनता या सायुज्य जिसका अर्थ है ब्रह्म में समाकर उसमें लीन हो जाना।
7-जब व्यक्ति प्राणायाम, प्रत्याहार को साधते हुए ध्यान के सभी पड़ाव पार कर लेता है तभी वह समाधि लेने के योग्य बन जाता है। समाधि लेने के लिए व्यक्ति के मन में किसी भी बाहरी विचार का प्रवेश वर्जित होता है।जिस
प्रकार आग में पड़ा कोयला अग्नि रूप हो जाता है और उसमें अग्नि के सभी गुण आ जाते हैं। उसी प्रकार समाधि में ,जीवात्मा के अंदर ईश्वर के सभी गुण प्रतिबिंम्बित होने लगते हैं।
8-जीवात्मा का मात्र एक प्रयोजन ..मुक्ति प्राप्ति है और योगी इस प्रयोजन को समाधि से पूर्ण करता है।सब विषयों को पूर्णतया जानना जीवात्मा के लिए वैसे ही असम्भव है जैसे समुद्र का सारा पानी एक कुंए में नहीं समा सकता परन्तु कुंआ समुद्र के पानी से लबालब भरा तो जा सकता है। इसी तरह समाधि के माध्यम से आत्मा को ज्ञान से लबालब भर दिया जाता है।
9-जिस भी विषय के लिए समाधि लगाई जाती है। उस विषय का ज्ञान आत्मा में आ जाता है।इस तरह समाधि के माध्यम से आत्मा अनगणित विषयों में पारंगत हो सकता है।यह कथन कि 'सारा ज्ञान अथवा सारे वेद हमारी आत्मा में हैं 'का तात्पर्य यह है कि ज्ञान स्वरूप परमात्मा हमरी आत्मा में पूर्णतया व्याप्त है परन्तु परमात्मा, जो ज्ञान का अथाह भण्डार है, को पाने के लिए हमें उचित ज्ञान चाहिए ।
वास्तविक समाधि क्या है?-
07 FACTS;-
1-किसी ने कहा बूंद का सागर में मिल जाना समाधि है। किसी ने कहा सागर का बूंद में उतर जाना समाधि है।वास्तव में बूंद और सागर का मिट जाना ही समाधि है। जहां न बूंद है, न सागर है, वहां समाधि है। जहां न एक है, न अनेक है, वहां समाधि है। जहां न सीमा है, न असीम है, वहां समाधि है। समाधि सत्ता के साथ ऐक्य है। समाधि सत्य है। समाधि चैतन्य है। समाधि शांति है।
2-'साधक ' समाधि में नहीं होता है , वरन जब 'साधक ' नहीं होता है, तब जो है, वह समाधि है।'मैं' की दो सत्ताएं हैं : अहं और ब्रह्मं। अहं वह है, जो 'मैं 'नहीं'है , पर जो 'मैं' जैसा भासता है। ब्रह्मं वह है, जो 'मैं 'हूं, लेकिन जो 'मैं' जैसा प्रतीत नहीं होता है। चेतना, शुद्ध चैतन्य ब्रह्मं है। 'मैं' शुद्ध ,साक्षी, चैतन्य है ; पर विचार-प्रवाह से तादात्म्य के कारण वह दिखाई नहीं पड़ता है। विचार स्वयं चेतना नहीं है। विचार को जो जानता है, वह चैतन्य है।
3-विचार विषय है, चेतना विषयी है। विषय से विषयी का तादात्म्य मूर्छा है। यही समाधि है। यही प्रसुप्त अवस्था है। विचार विषय के अभाव में जो शेष है, वही चेतना है। इस शेष में ही होना समाधि है। विचार-शून्यता में जागरण सतता के द्वार खोल देता है। सत्ता अर्थात वही 'जो है'। उसमें जागो- यही समस्त जाग्रत पुरुषों की वाणी का सागर है। "
4-पतंजलि योग सूत्र के अनुसार;- (‘विभूतिपाद’- 53) क्षणतत्कमयौ: संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्। ‘वर्तमान क्षण पर संयम साधने से क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे ज्ञान को लेकर आता है।’ यदि तुम समय की प्रक्रिया पर, उस क्षण पर जो है, उस क्षण पर जो चला गया, उस क्षण पर जो आने वाला है, अपनी समाधि चेतना को ले आओ, अचानक परम तत्व का ज्ञान हो जाता है। क्योंकि जिस क्षण तुम समाधि के साथ देखते हो-वर्तमान, भविष्य और भूत का विभेद खो जाता है, वे विलय हो जाते हैं। उनमें विभाजन झूठा है। अचानक तुम शाश्वत के प्रति बोधपूर्ण हो जाते हो तिब समय समकालिकता है। कुछ भी जा नहीं रहा है, कुछ भी भीतर नहीं आ रहा है, सब कुछ है, मात्र है। 5-यह ‘है—पन’ परमात्मा के रूप में जाना जाता है; यही ‘है-पन’ ईश्वर की अवधारणा है। ‘वर्तमान क्षण पर संयम साधने से क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे शान को लेकर आता है।’यदि तुम समय को , समाधि कीआंखों से देख सको, समय तिरोहित हो जाता है।लेकिन यह अंतिम चमत्कार है, इसके उपरांत सिर्फ कैवल्य, मुक्ति है।जब समय खो जाता है, सब कुछ खो जाता है—क्योंकि इच्छा, महत्वाकांक्षा, प्रेरणा का सारा संसार वहां है, क्योंकि हमारे पास समय ही गलत अवधारणा है। समय निर्मित किया गया है; समय एक प्रक्रिया की भांति-भूत, वर्तमान, के रूप में-इच्छाओं द्वारा निर्मित किया गया है।
6-पूरब के संतों की श्रेष्ठतम अंतर्दृष्टियों में से एक बात यही है कि प्रक्रिया के रूप में समय वास्तव में इच्छा का प्रक्षेपण है। क्योंकि तुम किसी चीज की इच्छा रखते हो, तुम भविष्य निर्मित करते हो। और क्योंकि तुम आसक्त होते हो, तुम अतीत निर्मित करते हो। क्योंकि तुम उसे नहीं छोड़ सकते जो अब तुम्हारे सामने नहीं रहा, और तुम इससे चिपके रहना चाहते हो, तुम स्मृति निर्मित करते हो। और क्योंकि वह जो अभी नहीं आया तुम इसकी अपने निजी ढंग से अपेक्षा करते हो, तुम भविष्य निर्मित करते हो। भविष्य और अतीत मन की अवस्थाएं हैं, समय के भाग नहीं हैं। समय शाश्वत है। यह बंटा हुआ नहीं है। यह एक है, समग्र है। 7-जिसने यह जान लिया कि क्षण और समय की प्रक्रिया क्या है, वह परम के प्रति बोधपूर्ण हो जाता है; समय के बोध से व्यक्ति को परम का बोध प्राप्त हो जाता है।क्योंकि परम की सत्ता. वास्तविक समय की भांति है।
आत्म-साक्षात्कार का क्या अर्थ होता है ?-
contd...
.....SHIVOHAM..