विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 33वीं,34वीं विधियां(देखने की सात विधियां) का क्या विवेचन है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 33;-
10 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''बादलों के पार नीलाकाश को देखने से शांति को सौम्यता को उपलब्ध होओ।'' 2-ये विधि बहुत सरल है और इसे हम अपने आप ही कर सकते है।यह विधि कहती है कि केवल आकाश को,
बादलों के पार ...नीलाकाश को देखते-देखते कोई शांत को उपलब्ध हो जाए,आप्तकाम हो जाए ।इस सूत्र में बुनियादी रूप से विचार नहीं करना है,बल्कि देखना है। आकाश असीम है; उसका कहीं अंत नहीं है। उसे महज देखो। वहां कोई विषय वस्तु नहीं है। यही कारण है कि आकाश चुना गया है। भाषागत रूप से आकाश विषय है; लेकिन अस्तित्व में कोई विषय नहीं है।
लेकिन यदि तुम्हें Significance of life Teachings और Death के तीन सूत्र याद रहें तो यह विधि तुम्हें तुरंत भीतर की तरफ मुड़ने में सहायता देगी।वास्तविक परम मृत्यु, जिसको हम समाधि कहते हैं, न केवल शरीर की मृत्यु है बल्कि यह मन की भी मृत्यु है ।मन की भी मृत्यु से तुम्हें आनंद मिलता है; क्योंकि केवल उसी से जीवन में सार्थकता आती है ।
3-विषय वह है जिसका आरंभ और अंत हो। तुम किसी विषय के चारों और घूम सकते हो; लेकिन आकाश की परिक्रमा नहीं कर सकते। तुम आकाश में ही हो, लेकिन, लेकिन तुम आकाश के चारों और घूम नहीं सकते। तुम आकाश के विषय बन सकते हो। लेकिन आकाश तुम्हारा विषय नहीं बन सकता। आकाश में तो तुम झांक सकते हो; उसका कोई अंत नहीं है।
तो नीले आकाश को देखो और देखते ही रहो और उसके संबंध में सोच-विचार मत करो कि यह कितना सुंदर है या कितना मोहक है। उसके रंगों की प्रशंसा करोगे तो सोचना शुरू हो जाएगा। और सोचना शुरू करते ही देखना बंद हो जाता है। इसलिए सिर्फ देखो ;अनंत आकाश में गति करो। विचार मत करो ;शब्द मत बनाओ क्योंकि शब्द बाधा बन जाते है। इसलिए सिर्फ देखो और यह भी मत कहो कि यह नीलाकाश है। केवल इस नीलाकाश का निर्दोष दर्शन होने दो ...।
4-आकाश का कहीं भी अंत नहीं है। इसलिए तुम्हारे देखने का भी अंत नहीं आ सकता। तुम देखते ही जाओगे क्योंकि वहां कोई विषय नहीं है। मात्र शून्य है, इसलिए अचानक तुम अपने प्रति जाग जाओगे। क्योंकि शून्य में इंद्रियाँ व्यर्थ हो
जाती है।अगर तुम किसी फूल को देख रहे हो तो वह किसी विषय को देखना हुआ।यदि कोई विषय हो तो इंद्रियाँ की
सार्थकता है।आकाश का अर्थ जगह या स्थान होता है।हम आकाश उसे कहते है ; 'जो है नहीं'। सभी चीजें आकाश में है। लेकिन आकाश स्वयं कोई पदार्थ या विषय नहीं है। आकाश शून्य है , रिक्तता है ,खाली स्थान है ; जिसमें विषय हो सकता है। आकाश स्वयं शुद्ध रिक्तता है ; इस शुद्ध रिक्तता को देखो।इसलिए सूत्र कहता है कि बादलों के पार नीलाकाश को देखो।
5- बादल आकाश नहीं है; वे आकाश में तैरते हुए विषय है। तुम बादलों को भी देख सकते हो; लेकिन उससे कुछ नहीं होगा। बादलों को नहीं, चाँद-तारों को भी नहीं , वरन विषय-शून्यता को देखना है, विराट रिक्तता को देखना है। उसे ही देखो।वास्तव में, उस शून्य में इंद्रियों के पकड़ने के लिए कोई विषय नहीं है।और जब पकड़ने को, कोई विषय न हो, तो इंद्रियाँ
बेकार हो जाती है। और अगर तुम नीलाकाश को बिना सोचे-विचारे देखते ही चले जाओ तो अचानक किसी क्षण तुम्हें लगेगा कि सब कुछ विलीन हो गया है। सिर्फ शून्य बचा है। और इस विलीनता में , इस शून्य में तुम्हें अपना बोध होगा। तुम अपने प्रति जाग जाओगे। रिक्तता को देखते-देखते तुम भी रिक्त हो जाओगे।
6-वास्तव में, तुम्हारी आंखें दर्पण की भांति है। उनके सामने जो कुछ भी प्रकट होता है;दर्पण उसे प्रतिबिंबित कर
देता है।अगर कोई दुःखी आदमी तुम्हारे कमरे में प्रवेश करता है तो तुम भी दुःखी हो जाते हो क्योंकि तुम्हारी आंखें दर्पण की भांति है। इसलिए दुःख तुममें प्रतिबिंबित हो जाता है। कोई व्यक्ति दिल खोलकर हंसता है और अचानक तुम भी हंसी से भर
जाते हो।वास्तव में,तुम दर्पण की तरह हो; तुम चीजों को प्रतिबिंबित करते हो। तुम कोई सुंदर चीज देखते हो; वह चीज तुममें प्रतिबिंबित हो जाती है। तुम कोई कुरूप चीज देखते हो; वह चीज भी तुममें प्रतिबिंबित हो जाती है। तुम जो कुछ भी देखते हो वह तुम्हारे भीतर गहरे रूप से प्रविष्ट हो जाता है; वह तुम्हारी चेतना का हिस्सा बन जाता है।
7-अगर तुम रिक्तता को, शून्य को देख रहे हो तो कुछ भी प्रतिबिंबित होने जैसा नहीं है क्योंकि वहाँ। या है तो सिर्फ अनंत नीलाकाश है। और अगर यह असीम नीलाकाश तुममें प्रतिबिंबित हो जाए, तुम अपने अंतस में उस आकाश को अनुभव कर सको। तो जो कुछ भी देखते हो वह तुम्हारे भीतर गहरे रूप से प्रविष्ट हो जाता है; वह तुम्हारी चेतना का हिस्सा बन जाता है।
और अगर यह असीम नीलाकाश तुममें प्रतिबिंबित हो जाए, अगर तुम अपने अंतस में उस आकाश को अनुभव कर सको तो
तुम शांत ,सौम्य हो जाओगे क्योंकि आकाश शांत और सौम्य है। और तुम शून्य को अनुभव कर सकते हो ..जहां नीलिमा है। आकाश में सब कुछ विलीन हो जाता है। तो तुम्हारे अंतस में भी वह शून्य प्रतिबिंबित होगा। और शून्य में मन सक्रिय और तनावग्रस्त नहीं हो सकता है क्योंकि शून्य में मन ठहर जाता है। और मन के विदा होते ही तुम शांति को उपलब्ध हो जाते हो।
8-एक महत्वपूर्ण बात यह है कि शून्य जब अंतस में प्रतिबिंबित होता है, तो Unshakeable बन जाता है।Desire / Wish ही तनाव है।Wish करते ही तुम चिंताग्रस्त हो जाते हो।तुम्हें एक सुंदर मकान दिखाई पड़ता है और तुम उसे पाना चाहते हो। तुम्हारे पास से एक सुंदर कार निकलती है और तुम्हें इच्छा पकड़ती है कि मैं भी इस कार में बैठकर चलू।Wish.. Passion में बदल जाती है और Passionके साथ ही मन चिंतित हो उठता है कि उसे कैसे पाया जाए, क्या किया जाए। मन आशावान हो या निराशावान; लेकिन दोनों हालातों में वह सपने देख रहा है। जब Wish.. Passion में बदलती है तो तुम उपद्रव में
पड़ते हो। मन अनेक खंडों में टूट जाता है और अनेक योजनाएं और सपने शुरू हो जाते हैअथार्त पागलपन शुरू हो
जाता है।Desire पागलपन/lunacy का बीज है।
9-लेकिन शून्य कोई विषय नहीं है। वह बस शून्य है। तुम शून्य को देखते हो तो कोई Desire नहीं पैदा हो सकती है।न तुम शून्य पर अधिकार करना चाहते हो; न तुम शून्य को प्रेम करना चाहते हो। क्योंकि शून्य में मन की सब गति रूक जाती है ;कोई कामना नहीं उठती है। और जहां कामना नहीं है वहीं शांति है। तुम सौम्य और शांत हो जाते हो। तुम्हारे भीतर सहसा
शांति का विस्फोट होता है। तुम आकाशवत हो जाते हो ।दूसरी बात कि तुम जिस चीज का भी मनन चिंतन करते हो, तुम उसके जैसे ही हो जाते हो। तुम वहीं हो जाते हो क्योंकि मन अनंत रूप धारण कर सकता है। जो व्यक्ति धन के पीछे भागता है, उसका मन धन ही बन जाता है।तुम उसके भीतर केवल रुपयों की झनझनाहट ही सुनोंगे और कुछ नहीं । तुम जो भी चाहते हो, तुम वहीं हो जाते हो। इसलिए अपनी Wish के प्रति सावधान रहो।
10-आकाश सर्वथा रिक्त है, खाली है। उससे ज्यादा रिक्त और कुछ नहीं हो सकता है, और वह तुम्हारे बिलकुल निकट है। उसके लिए कुछ खर्चा करने की या उसे पाने के लिए तुम्हें हिमालय जाने की भी जरूरत नहीं है।तुम आकाश का उपयोग कर सकते हो। उसे देखो, उसमे प्रवेश करो ,उसमें गहरे डूबो। लेकिन याद रहे, यह देखना निर्विचार देखना हो। तब तुम अपने अंतस में उसी आकाश को ,उसी आयाम को अनुभव करोगे। तब वह विराट आकाश , वहीं नीलिमा, वही शून्य
तुम्हारे भीतर होगा।यही कारण है कि भगवान शिव कहते है: ‘’बादलों के पार नीलाकाश को देखने मात्र से शांति को, सौम्यता को उपलब्ध होओ।‘’
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 34;-
07 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’जब परम रहस्यमय उपदेश दिया जा रहा हो, उसे श्रवण करो। अविचल, अपलक आंखों से; अविलंब परम मुक्ति को उपलब्ध होओ।‘’
2-‘यह एक गुह्म विधि है। इस गुह्म तंत्र में गुरु तुम्हें अपना उपदेश या मंत्र गुप्त ढंग से देता है। जब शिष्य तैयार होता है तब गुरु उसे एक परम रहस्य या मंत्र संप्रेषित करता है। वह उसके कान में चुपचाप कह दिया जाएगा या फुसफुसा दिया जाएगा। यह
विधि उस फुसफुसाहट से संबंध रखती है।जब गुरु निर्णय करे कि तुम तैयार हो और उसके अनुभव का गुह्म रहस्य तुम्हें बताया जा सकता है। जब समझो कि वह क्षण आ गया है कि तुम्हें वह कहा जा सकता है ... जो अकथनीय है। तब इस विधि
का उपयोग होता है।जब गुरु अपना गुह्म ज्ञान या मंत्र तुम्हारे कान में कहे तो तुम्हारी आंखों को बिलकुल स्थिर रहना चाहिए।
उनमें किसी तरह की भी गति नहीं होनी चाहिए।इसका मतलब है कि मन निर्विचार हो, शांत हो। पलक भी नहीं हिले; क्योंकि पलक का हिलना आंतरिक अशांति का लक्षण है। जरा सी गति भी न हो। केवल कान बन जाओ। भीतर कोई भी हलचल न रहे। और तुम्हारी चेतना निष्क्रिय अवस्था में रहे।
3-जब ऐसा होगा, जब वह क्षण आएगा जिसमें तुम Overall रिक्त होते हो, निर्विचार होते हो। जब यह अचल , ठहरा हुआ क्षण घटित होगा, तो सब कुछ ठहर जाता है, समय का प्रवाह बंद हो जाता है, और तब अ-मन का जन्म होता है। और अ- मन
में ही गुरु उपदेश प्रेषित करता है।और गुरु कोई लंबा प्रवचन नहीं देगा। वह बस दो या तीन शब्द ही कहेगा। उस मौन में उसके वे एक या दो या तीन शब्द तुम्हारे अंर्तमन में उतर जाएंगे। केंद्र में प्रविष्ट हो जायेंगे। और वे वहां बीज बनकर रहेंगे।इस
निष्क्रिय जागरूकता में,इस मौन में मन से मुक्त होकर ही कोई मुक्त हो सकता है। मन से मुक्ति ही एकमात्र मुक्ति है; और कोई मुक्ति नहीं है, मन ही बंधन है, दासता है, गुलामी है।इसलिए शिष्य को गुरु के पास उस सम्यक क्षण की प्रतीक्षा में रहना
होगा.... जब गुरु उसे बुलाएगा और उपदेश देगा। उसे पूछना भी नहीं है क्योंकि पूछने का मतलब कामना है। उसे अपेक्षा भी नहीं करना है; क्योंकि अपेक्षा का अर्थ शर्त है । उसे सिर्फ अनंत प्रतीक्षा में रहना है और जब वह तैयार होगा तो गुरु कुछ करेगा। कभी-कभी तो गुरु छोटी सी चीज करेगा और बात घट जाएगी।
4-परंतु Proper land हो ;तो ही बीज जीवित हो उठेगा। तुम पत्थर पर बीज बोओ ,तो क्या होगा।हमारे भारत में गुरुकुल परम्परा सबसे पुरानी व्यवस्था है।गुरुकुल वैदिक युग से ही अस्तित्व में है।उपनिषदों में लिखा गया है कि माता-पिता, गुरु और अतिथि संसार में ये चार प्रत्यक्ष देव हैं, इनकी सेवा करनी चाहिए।इनमें भी माता का स्थान पहला, पिता का दूसरा, गुरु का
तीसरा और अतिथि का चौथा है।गुरुकुल का अर्थ है वह स्थान या क्षेत्र, जहां गुरु का कुल यानी परिवार निवास करता है। जब तक भारत मे गुरुकुल व्यवस्था थी ;तब तक भारत विश्व गुरु था।8 वर्ष की आयु के बाद ही छात्र गुरुकुल में प्रवेश करते थे तथा 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्या ग्रहण करते थे। धर्म शास्त्र के अध्ययन से अस्त्र विद्या पढ़ाई जाती थी। योग साधना और यज्ञ गुरुकुल का एक अभिन्न अंग माना जाता है।अब इस परम्परा का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है।एक सौ बारह विधियां बीज है;परंतु सम्यक भूमि भी तो हो;तभी कुछ बात घट सकती है।
5-और सामान्यत: यदि भगवान शिव एक सौ बारह विधियां भी समझा दें तो भी कुछ नहीं होगा क्योंकि तैयारी नहीं है। उसमें बीज का दोष भी नहीं है।ऋतु के बाहर बीज बोने से कुछ नहीं होता है। उसमे बीज का दोष नहीं है। सम्यक मौसम , सम्यक घड़ी , सम्यक भूमि चाहिए तो ही बीज जीवित होगा, रूपांतरित होगा। तो कभी-कभी छोटी सी चीज काम कर जाती
है।उदाहरण के लिए, एक फकीर जब ज्ञान को प्राप्त हुए ;तब वह अपने गुरु के दालान में बैठे थे। गुरु आये, उन्होंने फकीर की आंखों में देखा और ठहाका मारकर हंसे।फकीर भी हंसे और गुरु के चरणों में सिर रखा और वहां से विदा हो गये।
वह फकीर छह वर्षों से मौन प्रतीक्षा में थे। गुरु रोज आते थे और फकीर को आँख उठाकर भी नहीं देखते थे।दो वर्षों के बाद गुरु ने पहली बार उसे देखा। और जब दो वर्ष बीते तो उसने उसकी पीठ थपथपाई। और फकीर प्रतीक्षा करता रहा, करता रहा। छह वर्ष पूरे हुए और तब एक दिन सहसा गुरु आया और उसने फकीर की आंखों में झाँका।फकीर की आंखें भी सहसा ठहर गई होगी ..अचल हो गई होगी। यही छह वर्षों की तपस्या के फल का क्षण था। फकीर की आंखों में जरा भी गति नहीं थी। गति होती तो वह चूक जाता। सब कुछ मौन हो चुका था। और तब अचानक गुरु पागल की तरह हंसने लगा। और वह हंसी फकीर के अंर्तमन से सुनी गई होगी।
6-वास्तव में, शब्द जरूरी नहीं थे ...मात्र हंसी से काम हो गया। अचानक वह हंसी फूटी और फकीर के भीतर कुछ घटित हो गया।फकीर ने सिर झुकाया, वह भी हंसा और विदा हो गया। उसने लोगो को बताया कि मैं अब नहीं हूं..कि मैं मुक्त हो गया।
वास्तव में, वह अब नहीं था, यही मुक्ति का अर्थ है। तुम मुक्त नहीं होते, तुम अपने से मुक्त होते हो।और छह वर्षों तक प्रतीक्षा
करते-करते तुम ध्यान में उतर ही जाओगे। जब फकीर से लोगो ने पूछा कि तुम्हें क्या हुआ था तो उसने कहा: ‘’जब मेरे गुरु हंसे तो सहसा मुझे प्रतीति हुई कि सारा संसार एक मजाक है। उनकी हंसी में संदेश था और उस प्रतीति के साथ गंभीरता विदा हो गई। मैं सोचता था कि मैं बंधन में हूं और इसलिए मैं बंधन-मुक्त होने की चेष्टा करता था । गुरु की हंसी के साथ बंधन गिर गया।
7-कभी-कभी इतनी छोटी-छोटी बातों से घटना घट जाती है कि उसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसी अनेक कहानियां है।एक झेन गुरु ,मंदिर के घंटे की आवाज सुनकर संबोधि को प्राप्त हो गया। घंटे की आवाज सुनते-सुनते उसके भीतर कुछ चकनाचूर हो गया। एक झेन साध्वी पानी की बहँगी ढो रही थी। और ज्ञान को प्राप्त हो गई। एकाएक बांस टूट गया। और घड़े फूट गये। उसकी आवाज, घड़ों का फूटना पानी का बहना, और साध्वी आत्मोपलब्ध हो गई।
तुम बहुत से घड़े फोड़ सकते हो, और कुछ नहीं होगा। लेकिन साध्वी के लिए ठीक क्षण आ गया था। वह पानी भरकर लौट रही थी।उसके गुरु ने कहा था, आज रात मैं तुम्हें गुह्म मंत्र देने वाला हूं। इसलिए जाकर स्नान कर ले और मेरे लिए दो घड़े पानी ले आ। मैं भी स्नान कर लुंगा। और तब तुम्हें वह मंत्र बताऊंगा जिसके लिए तुम इंतजार कर रही थी।‘’ साध्वी जरूर आह्लादित हो उठी होगी कि सौभाग्य का क्षण आ गया। उसने स्नान किया, घड़े भरे और उन्हें लेकर वापस चली।
पूर्णिमा की रात थी। और जब वह नदी से आश्रम को जा रही थी कि राह में ही बांस टूट गया। और जब वह पहुंची तो गुरु उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। गुरु ने उसे देखा और कहा कि अब जरूरत न रही; घटना घट गई। अब मुझे कुछ नहीं कहना।
तुमने पा लिया।वह बूढी साध्वी कहा करती थी कि बांस के टूटने के साथ ही मेरे भीतर कुछ टूट गया, मेरे भीतर भी कुछ मिट गया। ये दो घड़े क्या फूटे मेरा शरीर -भाव ही टूट गिरा। मैने आकाश में चाँद को देखा और पाया कि मेरे भीतर सब कुछ शांत हो गया। और तब से मैं नहीं हूं। मुक्त या मोक्ष का यही अर्थ है।
...SHIVOHAM.....