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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 102,103 वीं ( आत्‍मा संबंधी चार विधियां) विधियां क्या है?




NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...…

विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 102;-

14 FACTS;-

1-पहली विधि..भगवान शिव कहते है:-

‘'अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्‍मा की कल्‍पना करो। जब तक कि संपूर्ण अस्‍तित्‍व आत्‍मवान न हो जाए।’'

2-पहले तो तुम्‍हें समझना है कि कल्‍पना क्‍या है। आजकल बहुत ही निंदित शब्‍द है यह। जैसे ही ‘कल्‍पना’ शब्‍द सुनते हो, तुम कहते हो यह तो व्‍यर्थ है। हम कुछ वास्‍तविकता चाहते है ..काल्‍पनिक नहीं। लेकिन कल्‍पना तुम्‍हारे भीतर की एक वास्‍तविकता , एक क्षमता है, एक संभावना है। इस कल्‍पना के द्वारा तुम स्‍वयं को नष्‍ट कर सकते हो और स्‍वयं को निर्मित भी कर सकते हो। यह तुम पर निर्भर करता है। कल्‍पना बहुत शक्‍तिशाली क्षमता है। यह छिपी हुई शक्‍ति है। यह किसी धारणा में इतना गहरे चले जाना है कि वह धारणा ही वास्‍तविकता बन जाए। उदाहरण के लिए, तिब्‍बत में एक विधि प्रयोग की जाती है।वे उसे ऊष्‍मा योग कहते है। सर्द रात है, बर्फ गिर रही है। और तिब्‍बतन लामा खुले आकाश के नीचे निर्वस्त्र खड़ा हो जाता है। तापमान शून्‍य से नीचे है।हम ये नहीं कर सकते , जम जायेगे। लेकिन लामा एक विधि का अभ्‍यास कर रहा है।

3-विधि यह है कि वह कल्‍पना कर रहा है कि उसका शरीर एक लपट है। और उसके शरीर से पसीना निकल रहा है। और सच ही उसका पसीना बहने लगता है जबकि तापमान शून्‍य से नीचे है और खून तक जम जाना चाहिए। यह पसीना वास्‍तविक है, उसका शरीर वास्‍तव में गर्म है, लेकिन यह वास्‍तविकता कल्‍पना से पैदा की गई है।तुम कोई सरल सी विधि करके देखो। ताकि तुम महसूस कर सको कि कल्‍पना से वास्‍तविकता कैसे पैदा की जा सकती है। जब तक तुम यह महसूस न कर लो, तुम इस विधि का उपयोग नहीं कर सकते। कमरे में बैठ जाओ और अपनी धड़कन को गिनो। और फिर पाँच मिनट के लिए कल्‍पना करो कि तुम दौड़ रहे हो। कल्‍पना करो कि तुम दौड़ रहे हो, गर्मी लग रही है, तुम गहरी श्‍वास ले रहे हो, तुम्‍हारा पसीना निकल रहा है। और तुम्‍हारी धड़कन बढ़ रही है, पाँच मिनट यह कल्‍पना करने के बाद फिर अपनी धड़कन गिनो। तुम्‍हें अंतर पता चल जायेगा। तुम्‍हारी धड़कन बढ़ जाएगी। यह तुमने कल्‍पना करके ही कर लिया, तुम वास्‍तव में दौड़ नहीं रहे थे।

4-प्राचीन तिब्‍बत में बौद्ध भिक्षु कल्‍पना द्वारा ही शारीरिक अभ्‍यास किया करते थे। और वे विधियां आधुनिक मनुष्‍य के लिए बड़ी सहयोगी हो सकती है। क्‍योंकि सड़कों पर दौड़ना , दूर तक घूमने जाना अब कठिन है। कोई निर्जन जगह खोज पाना कठिन है। तुम बस अपने कमरे में फर्श पर लेट कर एक घंटे के लिए यह कल्‍पना कर सकते हो कि तुम तेजी से चल रहे हो। कल्‍पना में ही चलते रहो। और अब तो चिकित्‍सा विशेषज्ञ कहते है कि उसका प्रभाव सच में चलने के समान ही होगा। एक बार तुम अपनी कल्‍पना से लयवद्ध हो जाओ तो शरीर काम करने लगता है।तुम पहले ही कितने ऐसे काम कर रहे हो जो तुम्‍हें पता नहीं तुम्‍हारी कल्‍पना कर रही है। कई बार तुम कल्‍पना से ही कई बीमारियां पैदा कर लेते हो। तुम कल्‍पना करते हो कि फलां बीमारी,जो संक्रामक है, सब और फैली हुई है। तुम ग्रहणशील हो गए, अब पूरी संभावना है कि तुम बीमारी पकड़ लोगे। और वह बीमारी वास्‍तविक होगी। लेकिन यह कल्‍पना से निर्मित हुई थी। कल्‍पना एक शक्‍ति ,एक ऊर्जा है और मन उससे चलता है। और जब मन उससे चलता है तो शरीर अनुसरण करता है।

5-अमेरिका के एक यूनिवर्सिटी होस्‍टल में एक बार ऐसा हुआ कि चार विद्यार्थी सम्‍मोहन का प्रयोग कर रहे थे। सम्‍मोहन और कुछ नहीं कल्‍पना शक्‍ति ही है। जब तुम किसी व्‍यक्‍ति को सम्‍मोहित करते हो तो वास्‍तव में वह गहन कल्‍पना में चला जाता है। और तुम जो भी सुझाव देते हो, वह होने लगता है।चार लड़कों ने एक लड़के पर सम्‍मोहन का प्रयोग किया। तो जिस लड़के को उन्‍होंने सम्‍मोहन किया हुआ था, उसे कई सुझाव दिए। उन्‍होंने कई बातें करके देखी। वे जो भी कहते, लड़का तत्‍क्षण अनुसरण करता। जब वे कहते, ‘ कूदो’ तो लड़का कूदने लगता। जब वे कहते ‘रोओ’ लड़का रोने लगता। जब उन्‍होंने कहा, ‘तुम्‍हारी आंखों से आंसू गिर रहे है।’ तो उसकी आंखों से आंसू बहने लगते। फिर बस एक मजाक की तरह उन्‍होंने कहा, ‘अब तुम लेट जाओ, तुम मर गये।’ लड़का लेटा और मर गया।यह उन्‍नीस सौ बावन में हुआ। इसके बाद अमेरिका में सम्मोहन के विरूद्ध कानून बना दिया गया। जब तक कोई शोध-कार्य न चलता हो ; जब तक कोई मेडिकल इंस्टीट्यूट, या किसी यूनिवर्सिटी का मनोविज्ञान विभाग तुम्‍हें अधिकृत न करे, तुम कोई सम्‍मोहन का प्रयोग नहीं कर सकते। वरना तो यह बड़ा खतरनाक है, उस लड़के ने तो बस विश्‍वास किया, कल्‍पना की.. कि वह मर गया है और वह मर गया।यदि कल्‍पना में मृत्‍यु हो सकती है तो अधिक जीवन क्‍यों नहीं मिल सकता।

6-यह विधि कल्‍पना –शक्‍ति पर आधारित है: ‘अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्‍मा की कल्‍पना करो, जब तक कि संपूर्ण अस्‍तित्‍व आत्‍मवान न हो जाए।’बस किसी निर्जन स्‍थान पर बैठ जाओ जहां तुम्‍हें कोई परेशान न करे। किसी एकांत कमरे से भी काम चलेगा।लेकिन जब तुम प्रकृति के समीप होते हो तो अधिक कल्‍पनाशील होते हो। जब तुम्‍हारे आस-पास बस मनुष्‍य निर्मित चीजें होती है तो तुम कम कल्‍पनाशील होते हो। प्रकृति स्‍वप्‍न देख रही है और तुम्‍हें स्‍वप्‍न देखने की शक्‍ति देती है। अकेले तुम अधिक कल्‍पनाशील हो जाते हो।इसीलिए तो तुम जब अकेले होते हो तो डरते हो। ऐसा नहीं है कि कोई भूत तुम्‍हें परेशान करेंगे, लेकिन तुम्‍हारी कल्‍पना काम कर सकती है। और तुम्‍हारी कल्‍पना भूत या जो भी तुम चाहो, पैदा कर सकती है। जब तुम अकेले होते हो तो तुम्‍हारी कल्‍पना की संभावना ज्‍यादा होती है। जब कोई और साथ होता है तो तुम्‍हारी बुद्धि नियंत्रण में होती है। क्‍योंकि बुद्धि के बिना तुम दूसरों से नहीं जुड़ सकते। जब कोई दूसरा साथ होता है तो तुम प्राणों के गहरे कल्‍पनाशील तलों की और लौट जाते हो। जब तुम अकेले होते हो, कल्‍पना काम करने लगती है।

7-इंद्रियगत संवेदनाओं के अभाव पर बहुत प्रयोग किए गए है। यदि किसी व्‍यक्‍ति को सभी संवेदनात्‍मक उत्‍तेजनाओ से वंचित कर दिया जाए ...तुम्‍हें किसी साउंड-प्रूफ कमरे में बंद दिया जाए जिसमें कोई प्रकाश न आता हो, जिसमें दूसरें मनुष्‍यों से जुड़ने की कोई संभावना न हो, दीवारों पर कोई तस्‍वीर न हो, कुछ न हो जिससे तुम जुड़ सको ...तो एक,दो या तीन घंटे बाद तुम स्‍वयं से जुड़ने लगोगे। तुम कल्‍पनाशील हो जाओगे। तुम स्‍वयं से बातें करने लगोगे। तुम्‍हीं प्रश्‍न पूछोगे और तुम्‍हीं उत्‍तर दोगे। एकल-संवाद शुरू हो जाएगा। जिसमें तुम बंट जाओगे।फिर तुम अचानक कई चीजें अनुभव करने लगोंगे जो तुम समझ नहीं पाओगे।तुम्‍हें ध्‍वनियां सुनाई पड़ने लगेंगी, जबकि कमरा साउंड-प्रूफ है, कोई ध्‍वनि भीतर नहीं आ सकती। अब तुम कल्‍पना कर रहे हो। हो सकता है तुम्‍हें सुगंध आने लगे। जबकि वहां कोई सुगंध नहीं है। अब तुम कल्‍पना कर रहे हो। संवेदनाओं के परिपूर्ण आभाव के छत्‍तीस घंटे बाद कल्‍पना वास्‍तविक बन जातीहै । वास्‍तविकता कल्‍पना लगने लगती है।यही कारण है कि पुराने दिनों में साधक पर्वतों पर निर्जन स्‍थानों पर चले जाते थे। जहां वे वास्‍तविक और अवास्‍तविक के बीच के भेद को गिरा सकते थे। एक बार भेद गिर जाए तो तुम्‍हारी कल्‍पना प्रबल हो जाती है। अब तुम इसका उपयोग कर सकते हो और इसके द्वारा कुछ भी निर्मित कर सकते हो।

8-इस विधि के लिए किसी एकांत स्‍थान पर बैठ जाओ; यदि आस-पास प्राकृतिक स्‍थान हो तो अच्‍छा है, नहीं तो कमरे से भी काम चलेगा। फिर आंखें बंद कर लो और कल्‍पना करो कि तुम्‍हारे भीतर और बाहर एक आत्‍मिक शक्‍ति का आभास हो रहा है। तुम्‍हारे भीतर चेतना की एक नदी बह रही है और वह सारे कमरे में भर रही है। फैल रही है। भीतर और बाहर तुम्‍हारे आस-पास सब जगह शक्‍ति , ऊर्जा उपस्‍थित है। और केवल मन में ही इसकी कल्‍पना मत करो, शरीर में भी अनुभव करना शुरू करो।तुम्‍हारा शरीर आंदोलित होने लगेगा। जब तुम्‍हें लगे कि शरीर आन्दोलित होने लगा तो उससे पता चलता है कि कल्‍पना ने काम करना शुरू कर दिया। अनुभव करो कि पूरा जगत धीरे-धीर आत्‍मवान होता जा रहा है। सब कुछ कमरे की दीवारें, तुम्‍हारे आस-पास के वृक्ष ..सब कुछ अभौतिक ऊर्जा रह जाती है। जिसमें कोई सीमाएं नहीं होती।कल्‍पना के द्वारा तुम इस बिंदु पर पहुंच रहे हो जहां अपने चेतन प्रयास से तुम बुद्धि के ढांचे, बुद्धि के ढर्रे को नष्‍ट कर रहे हो। तुम अनुभव करते हो कि पदार्थ नहीं है। केवल ऊर्जा है, केवल आत्‍मा है ..भीतर भी, बाहर भी। जल्‍दी ही तुम अनुभव करोगे कि भीतर तथा बाहर समाप्‍त हो गए है। जब तुम्‍हारा शरीर आत्‍ममय हो जाता है और तुम्‍हें लगता है कि यह ऊर्जा ही है, तो भीतर तथा बाहर में कोई भेद नहीं रहता। सीमाएं खो जाती है। केवल तरंगायित, आंदोलित ऊर्जा का एक महासागर बचता है। यही सत्‍य भी है। तुम कल्‍पना के द्वारा सत्‍य तक पहुंच रहे हो।

9-कल्‍पना केवल पुरानी धारणाओं को, पदार्थ को मन के पुराने ढंगों को नष्‍ट कर रही है जो चीजों को एक खास दृष्‍टि कोण से देखते है। कल्‍पना उनको नष्‍ट कर रही है। और तब सत्‍य प्रकट होगा।'‘अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्‍मा की कल्‍पना करो, जब तक कि संपूर्ण अस्‍तित्‍व आत्‍मवान न हो जाए।’'जब तक तुम्‍हें यह न लगने लगे कि सब भेद समाप्‍त हो गए। सब सीमाएं विलीन हो गई और जगत केवल ऊर्जा का एक महासागर रह गया है। यही वास्‍तविकता भी है। लेकिन विधि में तुम जितने गहरे उतरोगे, उतने ही भयभीत हो जाओगे। तुम्‍हें लगेगा कि तुम पागल हो रहे हो। क्‍योंकि तुम्‍हारी बुद्धि इस तथाकथित भेदों से बनी है, और जब यह वास्‍तविकता समाप्‍त होने लगती है तो साथ ही तुम्‍हें लगता है कि तुम्‍हारी बुद्धि भी नष्‍ट हो रही है।संत और पागल दोनों ऐसे जगत में जीते है जो हमारी तथाकथित वास्‍तविकता के पार होता है। दोनों ही पार के जगत में जीते है, लेकिन पागल नीचे गिर जाता है, और संत ऊपर उठ जाते है। भेद छोटा सा है। लेकिन बहुत बड़ा है। यदि बिना किसी प्रयास के तुम मन और वास्‍तविक तथा अवास्‍तविक के भेद खो दो तो तुम विक्षिप्‍त हो जाओगे। लेकिन यदि चेतन प्रयास से तुम धारणाओं को नष्‍ट कर दो तो तुम विमुक्‍त हो जाओगे.. विक्षिप्‍त नहीं। यह विमुक्तता ही धर्म का आयाम है। यह बुद्धि के पार है। लेकिन चेतन प्रयास चाहिए। तुम शिकार न बनो,मालिक ही बने रहो। जब तुम्‍हारा प्रयास मन के सारे आकारों को नष्‍ट करता है तो तुम निराकार सत्‍य का साक्षात्‍कार करते हो।

10-उदाहरण के लिए, बौद्ध कहते है कि संसार में कोई पदार्थ नहीं है। संसार केवल एक प्रक्रिया है। कुछ भी वास्‍तविक नहीं है। सब कुछ गतिमान है। या गतिमान कहना भी ठीक नहीं है, मात्र गति है। जब हम कहते है कि सब कुछ गतिमान है तो वही पुरानी भूल हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे कि कुछ है जो गतिमान है। बुद्ध कहते है, कुछ भी गतिमान नहीं है। केवल गति ही है , इसके अलावा कुछ नहीं है।तो थाईलैंड या बर्मा जैसे बौद्ध देशों में, उनकी भाषा में ‘है’ के लिए कोई शब्‍द नहीं है। जब बाइबिल पहली बार थाई में अनुवादित हुई तो उसे अनुवादित करना बड़ा कठिन हो गया, क्‍योंकि बाइबिल में तो कहा गया है ‘परमात्‍मा है’। बर्मीज या थाई में तुम यह नहीं कह सकते कि ‘परमात्‍मा है’। तुम जो भी कहोगे उसका अर्थ होगा, ‘परमात्‍मा हो रहा है।’ सब कुछ हो रहा है। कुछ भी'है नहीं है'। जब एक बर्मा निवासी संसार की ओर देखता है तो गति की और देखता है। जब हम देखते है, तो कोई प्रक्रिया नहीं होती ..केवल वस्‍तु होती है। केवल मृत वस्‍तुएं है, गति नहीं है।

11-जब तुम नदी की और देखते हो तो नदी को ‘है’ की तरह देखते हो। नदी है नहीं... नदी का अर्थ तो बस एक गति है। कुछ ...जो सतत हो रहा है। और कोई बिंदु नहीं आता जहां तुम कहो कि यह होना पूरा हो गया। यह एक अंतहीन प्रक्रिया है। जब हम एक वृक्ष की ओर देखते है तो कहते है कि वृक्ष है। बर्मी भाषा में कहते है कि वृक्ष हो रहा है। वृक्ष बह रहा है। वृक्ष बढ़ रहा है। वृक्ष प्रक्रिया है। तो संसार और यथार्थ बिलकुल भिन्‍न होंगे। तुम्‍हारे लिए यह भिन्‍न है। और यथार्थ तो एक ही है। लेकिन इसकी व्‍याख्‍या किस तरह करते हो... उससे सब बदल जाता है।एक मूल बात ध्‍यान रखो: जब तक तुम्‍हारे मन के ढांचे को मिटा न दिया जाए, जब तक तुम उस ढाँचे से मुक्‍त न हो जाओ, जब तक तुम्‍हारे संस्‍कार न पोंछ दिए जाएं और तुम निर्सस्‍कार न हो जाओ। तब तक तुम्‍हें पता नहीं चलेगा कि वास्‍तविकता क्‍या है। तुम केवल व्‍याख्‍याएं ही जानते हो। वे व्याख्याएं तुम्‍हारे मन के ही खेल है। निराकार सत्‍य ही एकमात्र वास्‍तविकता है। और यह विधि तुम्‍हें निर्धारण होने में,निर्संस्‍कार होने में तुम्‍हारे मन पर इकट्ठे हो गए शब्‍दों को हटाने में मदद देने के लिए है। उनके कारण तुम देख नहीं पाते। जो भी तुम्‍हें सत्‍य जैसा लगता है उसे मिट जाने दो।

12 -ऊर्जा की कल्‍पना करो ...पदार्थ की नहीं । वरन प्रक्रिया की, गति की, लय की, नृत्‍य की ... और कल्‍पना करते रहा जब तक कि पूरा जगत आत्‍मवान न हो जाए। यदि तुम धैर्यपूर्वक लगे रहे तो तीन महीने के एक घंटा प्रतिदिन सघन प्रयास के बाद, तुम इस आभास को पा सकते हो। तीन महीने के भीतर अपने आस-पास के सारे अस्‍तित्‍व का तुम एक दूसरा ही अनुभव कर सकते हो। पदार्थ नहीं बचा, मात्र अभौतिक, महासागरीय अस्‍तित्‍व बचा ...केवल लहरें केवल कंपन।जब यह अनुभव होता है तभी तुम जानते हो कि परमात्‍मा क्‍या है। ऊर्जा का यह महासागर ही परमात्‍मा है। परमात्‍मा कोई व्‍यक्‍ति नहीं है। परमात्‍मा कहीं स्‍वर्ग में किसी सिंहासन पर नहीं बैठा है। वहां कोई भी नहीं बैठा है। लेकिन हमारे सोचने का एक ढंग है। हम कहते है कि परमात्‍मा सृष्‍टा है। परमात्‍मा स्‍त्रष्‍टा नहीं है बल्‍कि सृजनात्‍मक शक्‍ति है, स्‍वयं सृजन ही है।हमारे मन पर बार-बार थोपा गया है कि कहीं अतीत में परमात्‍मा ने संसार की रचना की। और फिर वहीं सृजन समाप्‍त हो गया। ईसाइयों की कहानी है कि परमात्‍मा ने छ: दिन में संसार बनाया और सातवें दिन विश्राम किया। इसीलिए तो सातवां दिन, रविवार, छुट्टी का दिन है। परमात्‍मा ने उस दिन छुट्टी ली। छ: दिन में उसने हमेशा-हमेशा के लिए संसार को बनाया और तब से कोई सृजन नहीं हुआ।

13-शिव हैं अविभाजित चैतन्य- जिनमें दोनों ही- रौद्र व आनंद प्रकट हो रहे हैं, जिस तरह किसी शांत झील में लहरें पैदा हो रही हों। यह संसार ही इन दोनों तांडवों की अभिव्यक्ति है। यहां प्रतिपल सृजन चलता रहता है, साथ ही विनाश भी। इस संसार की पृष्ठभूमि हैं शिव... वह अनादि चेतना जिसमें निर्माण-संहार का खेल होता हुआ जान पड़ रहा है। संसार का अर्थ है जो निरंतर सरकता रहे, परिवर्तित होता रहे। लेकिन बदलाव तभी देखा जा सकता है, जब उसके पीछे एक ऐसी पृष्ठभूमि हो जिसमें बदलाव न हो रहा हो- यही अपरिवर्तनीय चेतना शिव है।मानवीय भाषा में शिव का यह जो ‘करना’ व ‘होना’ है, उनकी जो अभिव्यक्ति है- वही शक्ति है। उसी अविभाजित पृष्ठभूमि में बदलाव की प्रतीति शक्ति है। यूं कहें कि शिव और शक्ति कोई दो अलग सत्ताएं नहीं हैं।जब शिव अभिव्यक्त होता है तो शक्ति हो जाता है और जब शक्ति अभिव्यक्ति समेट ले तो शिव हो जाती है। नटराज रूप में हमें शिव और शक्ति ..एक साथ मिल जाते हैं।नटराज की लयबद्ध नृत्यरत स्थिति स्वयं में ब्रहाण्ड की लयबद्धता की उद्घोषणा करती है। अपनी इस स्थिति के द्वारा नटराज ये सिद्ध करते हैं बिना गति के कोई भी जीवन नहीं और जीवन के लिए लयबद्धता अनिवार्य है।आधुनिक भौतिक विज्ञान हमें बताता है कि निर्माण और प्रलय की प्रक्रिया सिर्फ ब्रह्मांड में जीवन के आरंभ और अंत से ही नहीं जुड़ी हुई है, बल्कि ये पूरी सष्टि के कण-कण से जुड़ी हुई है।'' ''क्वांटम फील्ड थ्योरी के अनुसार 'डांस ऑफ क्रियेशन एंड डिस्ट्रक्शन' ही सभी तत्‍वों के होने का आधार है। आधुनिक भौतिकशास्त्र हमें बताता है कि हर उप-परमाणविक कण ना केवल एक 'ऊर्जा-नृत्य' करता है, बल्कि यह खुद भी एक 'ऊर्जा-नृत्य' ही है। सृजन और विनाश की एक सतत प्रक्रिया।''

14- तंत्र कहता है परमात्‍मा सृजनात्‍मकता ही है। सृष्‍टि कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है। जो कि अतीत में कभी घटी, यह हर क्षण घट रही है। परमात्‍मा हर क्षण सृजन कर रहा है। इससे ऐसा लगता है कि परमात्‍मा कोई व्‍यक्‍ति है जो सृजन करता रहा है। नहीं ,वह सृजनात्‍मकता जो हर क्षण घटती है ; वह सृजनात्‍मकता ही परमात्‍मा है। तो तुम हर क्षण सृजन में हो।यह बड़ी जीवंत धारणा है। ऐसा नही है कि परमात्‍मा ने कहीं कुछ बनाया और तबसे परमात्‍मा और मनुष्‍य के बीच कोई संवाद नहीं रहा, कोई संपर्क, कोई संबंध नहीं रहा; उसने सृजन किया और बात समाप्‍त हो गई। तंत्र कहता है कि तुम हर क्षण निर्मित हो रहे हो। हर क्षण तुम दिव्‍य के साथ, सृजनात्‍मकता के स्‍त्रोत के साथ गहन संबंध में हो। यह बहुत ही जीवंत धारणा है।इस विधि के द्वारा तुम भीतर ओर बाहर सृजनात्‍मक शक्‍ति की झलक पाओगे। एक बार तुम सृजनात्‍मक शक्‍ति और उसके स्‍पर्श, उसके प्रभाव को महसूस कर लो तो तुम बिलकुल भिन्‍न हो जाओगे। तुम फिर वही नहीं रह जाओगे। परमात्‍मा तुममें प्रवेश कर गया। तुम उसके निवास बन गए।'अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्‍मा की कल्‍पना करो। जब तक कि संपूर्ण अस्‍तित्‍व आत्‍मवान न हो जाए।’'

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 103;-

07 FACTS;-

1-दूसरी विधि..भगवान शिव कहते है:-

''अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही जानो।''

2-इस विधि के संबंध में मूल बात है ‘संपूर्ण चेतना’। यदि तुम किसी भी चीज पर अपनी संपूर्ण चेतना लगा दो तो वह एक रूपांतरणकारी शक्‍ति बन जाएगी। जब भी तुम संपूर्ण होते हो, किसी चीज में भी, तभी रूपांतरण होता है। लेकिन यह कठिन है। क्‍योंकि हम जहां भी है, बस आंशिक ही है। समग्रता में नहीं है।यहां तुम यह विधि पढ़ रहे हो। यह पढ़ना ही रूपांतरण

हो सकता है। यदि तुम समग्रता से पढ़ो , इस क्षण में अभी और यहीं, यदि पढ़ना तुम्‍हारी समग्रता हो, तो वह पढ़ना एक ध्‍यान बन जाएगा। तुम आनंद के अलग ही आयाम में, एक दूसरी ही वास्‍तविकता में प्रवेश कर जाओगे।लेकिन तुम समग्र नहीं हो। मनुष्‍य के मन के साथ यही मुश्‍किल है, वह सदैव आंशिक ही होता है। एक हिस्‍सा सुन रहा है। बाकी हिस्‍से शायद कहीं और हो, या शायद सोए ही हुए हों, या सोच रहे हो कि क्‍या कहा जा रहा है। या भीतर विवाद कर रहे हो। उसमें एक विभाजन पैदा होता है और विभाजन से ऊर्जा का अपव्‍यय होता है।तो जब भी कुछ करो, उसमे अपने पूरे प्राण डाल दो। जब तुम कुछ भी नहीं बचाते, छोटा सा हिस्‍सा भी अलग नहीं रहता, जब तुम एक समग्र, संपूर्ण छलांग ले लेते हो। तुम्‍हारे पूरे प्राण उसमें लग जाते है। तभी कोई कृत्‍य ध्‍यान पूर्ण होता है।

3- उदाहरण के लिए,एक बार एक झेन गुरु रिंझाई अपने बग़ीचे में काम कर रहा था ..और कोई आया। वह व्यक्ति कुछ दार्शनिक प्रश्‍न पूछने आया था। उसे नहीं पता था कि जो व्यक्ति बग़ीचे में काम कर रहा है वही रिंझाई है। उसने सोचा कि यह कोई माली है। कोई नौकर होगा। तो उसने पूछा, ‘रिंझाई कहां है?’ रिंझाई ने कहां, ‘रिंझाई तो हमेशा यहीं है।’ स्‍वभावत: उस व्यक्ति ने सोचा कि माली कुछ पागल लगता है। क्‍योंकि उसने कहा रिंझाई तो हमेशा यही है। तो उसने सोचा कि इस व्यक्ति से और कुछ पूछना ठीक नहीं होगा। और वह किसी दूसरे से पूछने के लिए जाने लगा।गुरु रिंझाई ने कहा, ‘कहीं मत जाओं क्‍योंकि तुम उसे कहीं भी नहीं पाओगे।’ लेकिन वह तो उस पागल व्यक्ति से बच कर भाग गया।फिर उसने औरों से पूछा तो वे बोले, ‘जिस पहले व्‍यक्‍ति से तुम मिले थे वहीं तो गुरु रिंझाई है।’ तो वह वापस आया और बोला, ‘मुझे क्षमा करे, बहुत खेद है मुझे, मैंने सोचा कि आप पागल है। मैं कुछ पूछने आया हूं। मैं जानता चाहता हूं कि सत्‍य क्‍या है। उसे जानने के लिए मैं क्‍या करूं?’ रिंझाई ने कहा, ‘तुम जो करना चाहो वहीं करो, लेकिन समग्रता में रहो।सवाल यही नहीं है कि तुम क्‍या करते हो। वह बात ही असंगत है।

4-सवाल यह है कि तुम उसे समग्रता से करो।‘उदाहरण के लिए’, गुरु रिंझाई बोला, जब मैं यह गड्ढा खोद रहा था। तो मेरी समग्रता गड्ढा खोदना हो गई थी। पीछे कोई रिंझाई नहीं था। पूरा का पूरा खोदने में लग गया है। असल में कोई खोदने वाला नहीं बचा। बस खोदने की क्रिया ही बची है। यदि खोदने वाला बचे तो तुम बंट गए।‘तुम यह विधि पढ़ रहे हो, यदि पढ़ने वाला बचे तो तुम समग्र नहीं हुए। यदि केवल पढ़ना ही हो और पीछे कोई पढ़ने वाला न बचे तो तुम समग्र हो गए। अभी और यही। फिर यह क्षण ही ध्‍यान बन जाता है।इस सूत्र में भगवान शिव कहते है, ‘अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के,जानने के आरंभ में ही जानो।’यदि तुम्‍हारे भीतर कोई कामना उठे तो तंत्र उससे लड़ने को नहीं कहता। वह व्‍यर्थ है। कामना से कोई भी नहीं लड़ सकता। वह मूर्खता भी है, क्‍योंकि जब भी अपने भीतर तुम किसी चीज से लड़ने लगते हो तो तुम स्‍वयं से ही लड़ रहे हो। तुम विक्षिप्‍त हो जाओगे, तुम्‍हारा व्‍यक्‍तित्‍व खंडित हो जाएगा।और इन सारे तथाकथित धर्मों ने मनुष्‍यता को धीरे-धीरे विक्षिप्‍त होने में सहयोग दिया है। हर कोई बंटा हुआ है। हर कोई खंडित है और स्‍वयं से लड़ रहा है। क्‍योंकि तथाकथित धर्मों ने तुम्‍हें बताया है कि यह बुरा है, यह मत करो। लेकिन यदि कामना उठती है तो तुम क्‍या कर रहे हो। तुम कामना से लड़ रहे हो। तंत्र कहता है कि कामना से मत लड़ो।

5-लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उसके शिकार हो जाओ कि तुम उसमें लिप्‍त हो जाओ। तंत्र तुम्‍हें बड़ी सूक्ष्‍म विधि देता है।जब कामना उठे तो आरंभ में ही अपनी समग्रता से जागरूक हो जाओ। अपनी समग्रता से उसको देखो.. बस दृष्‍टि बन जाओ।द्रष्‍टा को पीछे मत छोड़ो। अपनी समग्रता से उसका देखो। बस दृष्‍टि बन जाओ।अपनी पूरी चेतना को इस उठती हुई कामना पर लगा दो। यह बड़ा सूक्ष्‍म उपाय है। लेकिन बहुत अद्भुत है। इसके प्रभाव चमत्‍कारिक है।तीन बातें समझने जैसी है।पहली, जब कामना उठ ही रही है तो तुम कुछ कर नहीं सकते। तब वह अपना रास्‍ता पूरा करेगी। अपना वर्तुल पूरा करेगी। और तब भी तुम कुछ नहीं कर सकते।आरंभ में ही कुछ किया जा सकता है। बीज को तभी.. और वही जला देना चाहिए। एक बार बीज अंकुरित हो जाए और वृक्ष विकसित होने लगे तो कुछ करना कठिन होगा, लगभग असंभव ही होगा। तुम जो भी करोगे उससे और संताप ही पैदा होगा। ऊर्जा ही नष्‍ट होगी। विक्षिप्‍तता, निर्बलता ही पैदा होगी। तो जब कामना उठे आरंभ ही हो। पहली झलक में ही पहले आभास में ही कि कामना उठ रही है। अपनी संपूर्ण चेतना को, अपने प्राणों की समग्रता को उसे देखने में लगा दो। कुछ भी मत करो। और कुछ करने की जरूरत भी नहीं।

6-समग्र प्राणों से देखने पर दृष्‍टि इतनी आग्‍नेय हो जाती है कि बिना किसी संघर्ष के, बिना किसी विवाद के, बिना किसी विरोध के, बीज जल जाता है। समग्र प्राणों से गहरे देखने की बात है। और उठती हुई कामना पूरी तरह दग्‍ध हो जाती है।और जब कामना बिना किसी संघर्ष के समाप्‍त हो जाती है तो वह तुम्‍हें इतना शक्‍ति शाली कर जाती है। इतनी उर्जा से, इतने गहन होश से भर देती है कि तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकते। यदि तुम लड़ोगे तो हारोगे। यदि तुम न भी हारों और कामना ही हार जाए तब भी बात वही होगी। कोई ऊर्जा नहीं बचेगी। चाहे तुम जीतों चाहे हारों। तुम थके हारे ही अनुभव करोगे। दोनों ही बातों में तुम अंत में कमजोर रह जाओगे। क्‍योंकि कामना तुम्‍हारी उर्जा से लड़ रही थी। और तुम भी उसी ऊर्जा से लड़ रहे थे।ऊर्जा एक ही स्‍त्रोत से आ रही थी। तुम एक ही स्‍त्रोत से उलीच रहे थे। तो कुछ भी परिणाम हो, स्‍त्रोत निर्बल ही होगा।लेकिन यदि कामना आरंभ में ही समाप्‍त हो जाए, बिना विरोध के ...तो याद रखो,यह मूल बात है । बस देखने भर से... उस समग्र दृष्‍टि की सघनता से ही बीज जल जाता है। और जब कामना उठती हुई कामना, आकाश में धुएँ की तरह विलीन हो जाती है तो तुम एक अद्भुत ऊर्जा से भर जाते हो। वह ऊर्जा ही आनंद है। वह तुम्‍हें एक सौंदर्य,एक गरिमा देगी।

7-जो अपनी कामनाओं से लड़ रहे है, कुरूप है।कुरूप से अर्थ है वे सदैव क्षुद्र से उलझे है, संघर्ष कर रहे है। उनका पूरा व्‍यक्‍तित्‍व गरिमाहीन हो जाता है।और वे हमेशा कमजोर होते है। हमेशा ऊर्जा की कमी होती है। क्‍योंकि उनकी सारी ऊर्जा अंतर्युद्ध में नष्‍ट हो जाती है।बुद्ध पुरूष बिलकुल भिन्‍न होता है। और बुद्ध के व्‍यक्‍तित्‍व में जो गरिमा प्रकट है ..तो वह संघर्ष या युद्ध के बिना ,किसी अंतर्हिंसा के... नष्‍ट हो गई कामनाओं के कारण है।‘अपनी संपूर्ण चेतना से कामना है, जानने के आरंभ में ही जानो।’उसी क्षण में बस जानो, अवलोकन करो, देखो। कुछ भी मत करो। और कुछ भी नहीं चाहिए। बस इतना ही चाहिए कि तुम्‍हारे समग्र प्राण वहां उपस्‍थित हो। तुम्‍हारी पूर्ण उपस्‍थिति चाहिए। बिना किसी हिंसा के परम बुद्धत्‍व उपलब्‍ध करने का यह एक राज है।और याद रखो, परमात्‍मा के राज्‍य में तुम हिंसा से प्रवेश नहीं कर सकते।वे द्वार तुम्‍हारे लिए कभी नहीं खुलेंगे, भले तुम कितनी ही दस्‍तक दो। खटखटाओं और खटखटाते ही जाओ। तुम अपना सिर फोड़ ले सकते हो लेकिन वे द्वार कभी नहीं खुलेंगे। लेकिन जो भीतर गहरे में अहिंसक है और किसी चीज से नहीं लड़ रहे। उनके लिए वे द्वार सदा खुले है, कभी बंद ही नहीं थे।जीसस कहते है, दस्‍तक दो और तुम्‍हारे लिए द्वार खुल जाएंगे।वास्तव में, दस्‍तक देने की भी जरूरत नहीं है। द्वार तो सदा से ही खुले हुए ही है। वे कभी बंद नहीं थे। बस एक गहन समग्र संपूर्ण, अखंड दृष्‍टि से देखो।'अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही जानो।''

.....SHIVOHAM....


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