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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 111,112 वीं (निष्‍क्रिय रूप संबंधी चार विधियां) विधियां क्या


विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 111;-

04 FACTS;-

1- तीसरी विधि..भगवान शिव कहते है:-

‘'हे प्रिये, ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व पर ध्‍यान दो। फिर दोनों को छोड़ दो ताकि तुम हो सको।’'

2-ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व पर ध्‍यान दो।जीवन के सकारात्‍मक पहलू

पर ध्‍यान करो और ध्‍यान को नकारात्‍मक पहलू पर ले जाओ, फिर दोनों को छोड़ दो क्‍योंकि तुम दोनों ही नहीं हो।फिर दोनों को छोड़ सको ताकि 'तुम हो सको'।इसे इस तरह देखा जा सकता है...जन्‍म पर ध्‍यान दो। एक बच्‍चा पैदा हुआ, तुम पैदा हुए। फिर तुम बढ़ते हो, जवान होते हो—इसे पूरे विकास पर ध्‍यान दो। फिर तुम बूढ़े होते हो और मर जाते हो।बिलकुल आरंभ से, उस क्षण की कल्‍पना करो जब तुम्‍हारे पिता और माता ने तुम्‍हें धारण किया था। और मां के गर्भ में तुमने प्रवेश किया था.. बिलकुल पहला कोष्ठ। वहां से अंत तक देखो, जहां तुम्‍हारा शरीर चिता पर जल रहा है। और तुम्‍हारे संबंधी तुम्‍हारे चारों और खड़े है। फिर दोनों को छोड़ दो। वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। फिर दोनों को छोड़ दो और भीतर देखो। वहां तुम हो, जो न कभी पैदा हुआ और न कभी मरा।''ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व….फिर दोनों को छोड़ दो, ताकि तुम हो

सको।''यह तुम किसी भी सकारात्‍मक-नकारात्‍मक घटना से कर सकते हो।तुम किसी के सामने बैठे हो, वह तुम्‍हारी ओर देखता है।तुम्हारा उससे संबंध होता है।जब तुम अपनी आंखें बंद कर लेते हो तो तुम नहीं रहते और तुम्हारा उससे कोई संबंध नहीं हो पाता।फिर संबंध और असंबंध दोनों को छोड़ दो। तुम रिक्‍त हो जाओगे। क्‍योंकि जब तुम ज्ञान और अज्ञान दोनों का त्‍याग कर देते हो तो तुम रिक्‍त हो जाते हो।

3-दो तरह के लोग है। कुछ ज्ञान से भरे है और कुछ अज्ञान से भरे है।ऐसे लोग है जो कहते है कि हम ज्ञानी है; उनका अहंकार उनके ज्ञान से बंधा हुआ है। और ऐसे लोग है जो कहते है, ‘हम अज्ञानी है।हम कुछ नहीं जानते।’वे अपने अज्ञान से भरे हुए है।एक ज्ञान से बंधा हुआ है और दूसरा अज्ञान से, लेकिन दोनों के पास कुछ है, दोनों कुछ ढो रहे है।ज्ञान और अज्ञान दोनों को हटा दो, ताकि तुम दोनो से अलग हो सको। न अज्ञानी, न ज्ञानी।सकारात्‍मक और नकारात्‍मक दोनों को हटा दो। फिर तुम कौन हो? अचानक वह ‘कौन’ अचानक वह कौन तुम्‍हारे सामने प्रकट हो जायेगा। तुम उस अद्वैत के प्रति बोधपूर्ण हो जाओगे ..जो दोनों के पार है।सकारात्‍मक और नकारात्‍मक दोनों को छोड़कर तुम रिक्‍त हो जाओगे। तुम कुछ भी नहीं रहोगे, न ज्ञानी और न अज्ञानी। घृणा और प्रेम दोनों को छोड़ दो। मित्रता और शत्रुता दोनों को छोड़ दो। और जब दोनों ध्रुव छूट जाते है, तुम रिक्‍त हो जाते हो।

और यह मन की एक चाल है।

4-मन छोड़ तो सकता है। लेकिन दोनों को एक साथ नहीं। एक चीज को छोड़ सकता है। तुम अज्ञान को छोड़ सकते हो। फिर तुम ज्ञान से चिपक सकते हो। तुम पीड़ा को छोड़ सकते हो। फिर तुम सुख को पकड़ लोगे। तुम शत्रुओं को छोड़ दोगे तो मित्र को पकड़ लोगे। और ऐसे लोग भी है जो बिलकुल उलटा करेंगे। वे मित्रों को छोड़कर शत्रुओं को पकड़ लेंगे। प्रेम को छोड़ कर घृणा को पकड़ लेंगे। धन को छोड़कर निर्धनता को पकड़ लेंगे और ज्ञान तथा शास्‍त्रों को छोड़कर अज्ञान से चिपक जाएंगे। ये लोग बड़े त्‍यागी कहलाते है। तुम जो कुछ भी पकड़े हो वे उसे छोड़कर विपरीत को पकड़ लेते है। लेकिन पकड़ते वे भी है।

पकड़ ही समस्‍या है। क्‍योंकि यदि तुम कुछ भी पकड़े हो तो तुम रिक्‍त नहीं हो सकते। ''पकड़ो मत।'' इस विधि का यहीं संदेश है। किसी भी सकारात्‍मक या नकारात्‍मक चीज को मत पकड़ो क्‍योंकि न पकड़ने से ही तुम स्‍वयं को खोज पाओगे। तुम तो हो ही, पर पकड़ के कारण छिपे हुए हो। पकड़ छोड़ते ही तुम उघड़ जाओगे। प्रकट हो जाओगे।

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 112;-

07 FACTS;-

1- चौथी विधि..भगवान शिव कहते है:-

‘'आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।’'

2-इस विधि में आकाश के, स्‍पेस के तीन गुण दिए गए है...

2-1–आधारहीन: आकाश में कोई आधार नहीं हो सकता।

2-2–शाश्‍वत: वह कभी समाप्‍त नहीं हो सकता।

2-3–निश्‍चल: वह सदा ध्‍वनि-रहित व मौन रहता है।इस आकाश में प्रवेश करो। वह तुम्‍हारे भीतर ही है।

3-लेकिन मन सदा आधार खोजता है।ध्यान का नियम है..‘आंखें बंद कर के मौन बैठो और कुछ भी मत करो।’ और लोग कहते है, हमें कोई अवलंबन दो, सहारा दो। सहारे के लिए कोई मंत्र दो। क्‍योंकि हम खाली नहीं बैठ सकते है। खाली बैठना कठिन है। यदि उन्‍हें मंत्र दे दिया जाये ;तो ठीक है। तब वह बहुत खुश होते है। वे उसे दोहराते रहते है। तब सरल है।आधार के रहते तुम कभी रिक्‍त नहीं हो सकते। यही कारण है कि वह सरल है। कुछ न कुछ होना चाहिए। तुम्‍हारे पास करने के लिए कुछ न कुछ होना चाहिए।करते रहने से कर्ता बना रहता है ।करते रहने से तुम भरे रहते हो—चाहे तुम ओंकार से भरे हो..ओम से भरे हो, राम से भरे हो। जीसस से, या मारिया से.. किसी भी चीज से भरे हो, लेकिन तुम भरे हो। तब तुम ठीक रहते हो।

मन खालीपन का विरोध करता है। वह सदा किसी चीज से भरा रहना चाहता है। क्‍योंकि जब तक वह भरा है तब तक चल सकता है। यदि वह रिक्‍त हुआ तो समाप्‍त हो जाएगा। रिक्‍तता में तुम अ-मन को उपलब्‍ध हो जाओगे। वही कारण है कि मन आधार की खोज करता है।यदि तुम अंतर-आकाश, इनर स्‍पेस में प्रवेश करना चाहता हो तो आधार मत खोजों। सब सहारे—मंत्र, परमात्‍मा, शास्‍त्र–जो भी तुम्‍हें सहारा देता है वह सब छोड़ दो। यदि तुम्‍हें लगे कि किसी चीज से तुम्‍हें सहारा मिल रहा है तो उसे छोड़ दो और भीतर आ जाओ। आधारहीन।

4-यह भयपूर्ण होगा; तुम भयभीत हो जाओगे। तुम वहां जा रहे हो जहां तुम पूरी तरह खो सकते हो। हो सकता है तुम वापस ही न आओ। क्‍योंकि वहां सब सहारे खो जाएंगे। किनारे से तुम्‍हारा संपर्क छूट जाएगा।और नदी तुम्‍हें कहां ले जाएगी.. किसी को पता नहीं। तुम्‍हारा आधार खो सकता है। तुम एक अनंत खाई में गिर सकते हो। इसलिए तुम्‍हें भय पकड़ता है। और तुम आधार खोजने लगते हो। चाहे वह झूठा ही आधार क्‍यों न हो, तुम्‍हें उससे राहत मिलती है। झूठा आधार भी मदद देता है। क्‍योंकि मन को कोई अंतर नहीं पड़ता कि आधार झूठा है या सच्‍चा है, कोई आधार होना चाहिए।आधार से मन भर जाता है। वह खाली न रहा; वहां कोई उसके साथ है।सामान्‍य जीवन में तुम कई झूठे सहारों को पकड़े रहते हो, पर वे मदद करते है। और जब तक तुम स्‍वयं शक्‍तिशाली न हो जाओ, तुम्‍हें उनकी जरूरत रहेगी।‘'आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।’' इसीलिए यह परम विधि है—कोई आधार नहीं।गौतम बुद्ध मृत्‍युशय्या पर थे और आनंद ने उनसे पूछा, ‘आप हमें छोड़कर जा रहे है, अब हम क्‍या करेंगें? हम कैसे उपलब्‍ध होंगे? जब आप ही चले जाएंगे तो हम जन्‍मों-जन्‍मों के अंधकार में भटकते रहेंगे, हमारा मार्गदर्शन करने के लिए कोई भी नहीं रहेगा, प्रकाश तो विदा हो रहा है।’तो गौतम बुद्ध ने कहा,तुम्‍हारे लिए यह अच्‍छा रहेगा। जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम अपना प्रकाश स्‍वयं बनोंगे। अकेले चलो, कोई सहारा मत खोजों, क्‍योंकि सहारा ही अंतिम बाधा है।

5-और ऐसा ही हुआ। आनंद संबुद्ध नहीं हुआ था। चालीस वर्ष से वह बुद्ध के साथ था, वह निकटतम शिष्‍य था,गौतम बुद्ध की छाया की भांति था, उनके साथ चलता था। उनके साथ रहता था। उनका गौतम बुद्ध के साथ सबसे लंबा संबंध था। चालीस वर्ष तक गौतम बुद्ध की करूणा उस पर बरसती रही थी। लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। आनंद सदा की भांति अज्ञानी ही रहा। और जिस दिन गौतम बुद्ध ने शरीर छोड़ा उसके दूसरे ही दिन आनंद संबुद्ध हो गया—'दूसरे ही दिन'।वास्तव में,वह आधार ही बाधा था। जब गौतम बुद्ध न रहे तो आनंद कोई आधार न खोज सका। यह कठिन है।यदि तुम किसी बुद्ध के साथ रहो और वह बुद्ध चला जाए, तो कोई भी तुम्‍हें सहारा नहीं दे सकता। अब कोई भी ऐसा न रहेगा... जिसे तुम पकड़ सकोगे। जिसने किसी बुद्ध को पकड़ लिया वह संसार में किसी और को न पकड़ पायेगा। यह पूरा संसार खाली होगा। एक बार तुमने किसी बुद्ध के प्रेम और करूणा को जान लिया हो.. तो कोई प्रेम, कोई करूणा उसकी तुलना नहीं कर सकती। एक बार तुमने उसका स्‍वाद ले लिया तो और कुछ भी स्‍वाद लेने जैसा न रहा।

6-तो चालीस वर्ष में पहली बार आनंद अकेला हुआ। किसी भी सहारे को खोजने का कोई उपाय नहीं था। उसने परम सहारे को जाना था। अब छोटे-छोटे सहारे किसी काम के नहीं, दूसरे ही दिन वह संबुद्ध हो गया। वह निश्‍चित ही आधारहीन, शाश्‍वत निश्‍चल अंतर-आकाश में प्रवेश कर गया होगा।तो स्‍मरण रखो कोई सहारा खोजने का प्रयास मत करो। आधारहीन ही जानो। यदि इस विधि को करने का प्रयास कर रहे हो तो आधारहीन हो जाओ। यही कृष्‍ण मूर्ति,एक विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक तथा आध्यात्मिक विषयों के बड़े ही कुशल एवं परिपक्व लेखक सिखाते है। ‘आधारहीन हो जाओ, किसी गुरु को मत पकड़ो, किसी शस्‍त्र को मत पकड़ो। किसी भी चीज को मत पकड़ो।’सब गुरु यही करते रहे है। हर गुरू का सारा प्रयास ही यह होता है कि पहले वह तुम्‍हें अपनी ओर आकर्षित करे,ताकि तुम उससे जुड़ने लगो। और जब तुम उससे जुड़ने लगते हो, जब तुम उसके निकट और घनिष्ठ होने लगते हो, तब वह जानता है कि पकड़ छुड़ानी होगी। और अब तुम किसी और को नहीं पकड़ सकते—यह बात ही खतम हो गई। तुम किसी और के पास नहीं जा सकते—यह बात असंभव हो गई। तब वह पकड़ को काट डालता है और अचानक तुम आधारहीन हो जाते हो।

7-शुरू-शुरू में तो बड़ा दुःख होगा। तुम रोओगे और चिल्‍लाओगे और चीखोगे। और तुम्हें लगेगा कि सब कुछ खो गया। तुम दुःख की गहनत्म गहराइयों में गिर जाओगे। लेकिन वहां से व्‍यक्‍ति उठता है, अकेला और आधारहीन।''आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश मेंप्रविष्‍ट होओ।’'उस आकाश का न कोई आदि है न कोई अंत। और वह आकाश पूर्णत: शांत है, वहां कुछ भी नहीं है—कोई आवाज भी नहीं।कोई बुलबुला तक नहीं। सब कुछ निश्‍चल है।वह बिंदु तुम्‍हारे ही भीतर है। किसी भी क्षण तुम उससे प्रवेश कर सकते हो। यदि तुममें आधारहीन होने का साहस है तो इसी क्षण तुम उसमें प्रवेश कर सकते हो। द्वार खुला है। निमंत्रण सबके लिए है। लेकिन साहस चाहिए-अकेले होने का, रिक्‍त होने का, मिट जाने का और मरने का। और यदि तुम अपने भीतर आकाश में मिट जाओ तो तुम ऐसे जीवन को पा लोगे जो कभी नहीं मरता, तुम अमृत को उपलब्‍ध हो जाओगे।‘'आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।’'

...इति 112 ध्यान विधि...SHIVOHAM...


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