विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 17वी विधि [13-24 केंद्रित होने की विधियां ] क्या है?
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि-17...
12 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’मन को भूलकर मध्य में रहो—जब तक।‘’
किसी भी वैज्ञानिक सूत्र की तरह यह सूत्र इतना ही है ;छोटा है, लेकिन ये थोड़े से शब्द भी तुम्हारे जीवन को समग्ररतः: बदल सकते है।
2-‘’मध्य में रहो।''वास्तव में प्रत्येक चीज के दो छोर है, दो अतियां है। लेकिन तुम्हें सदा मध्य में रहना है। जीवन में भी संगीत तभी जन्मता है जब उसके तार न ढीले हो और न कसे हुए ठीक मध्य में हों। इसलिए त्याग करना आसान है, लेकिन परम कुशल वही है जो मध्य में रहना जानता है। कुशल बनो और जीवन के तारों को मध्य में, ठीक मध्यम में रखो। इस या उस
अति पर मत जाओ।लेकिन मन बहुत बेहोश है। इसलिए सूत्र में कहा गया है: ‘’मन को भूलकर।‘’ तुम यह बात सुन भी लोगे, तुम इसे समझ भी लोगे, लेकिन मन उसको नहीं ग्रहण करेगा। मन सदा अतियों को चुनता है। मन में अतियों के लिए बड़ा आकर्षण है ,मोह है क्योंकि मध्य में मन की मृत्यु हो जाती है।उदाहरण के लिए अगर तुम्हारे पास कोई पुरानी घड़ी हो तो
उसके पैंडुलम को देखो।पैंडुलम सारा दिन चलता रहता है।जब वह बांए जाता है तब दांए जाने के लिए शक्ति अर्जित कर रहा है। जब वह दांए जा रहा है तो मत सोचो की वह दांए जा रहा है। वह बांए जाने के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहा है।अतियां ही दांए-बांए है।
3-पैंडुलम को बीच में ठहरने दो और सब गति बंद कर दो, तब पैंडुलम में उर्जा नहीं रहेगी। क्योंकि उर्जा तो एक अति से आ रही थी। एक अति से दूसरी अति उसे दूसरी अति की और फेंकती है। उससे एक वर्तुल बनता है। और पैंडुलम गतिमान होता
है। उसको बीच में होने दो और तब सब गति ठहर जाएगी।मन पैंडुलम की भांति है। और अगर तुम इसका निरीक्षण करो तो रोज ही इसका पता चलेगा। तुम एक अति के पक्ष में निर्णय लेते हो और तब तुम दूसरी अति की और जाने लगते हो। तुम अभी क्रोध करते हो, फिर पश्चाताप करते हो कि बहुत हुआ, अब मैं कभी क्रोध न करूंगा। लेकिन तुम कभी अति को नहीं देखते।
यह ‘’कभी नहीं’’ अति है। तुम कैसे निशचित हो सकते हो कि तुम कभी क्रोध नहीं करोगे। अतीत में जाओ और याद करो कि कितनी बार तुमने निश्चय किया है कि मैं कभी क्रोध नहीं करूंगा। जब तुम कहते हो कि मैं कभी क्रोध नहीं करूंगा तो तुम नहीं जानते हो कि क्रोध करते समय ही तुमने दूसरे छोर पर जाने की ऊर्जा इकट्ठी कर ली थी। अब तुम केवल पश्चाताप कर रहे हो।
4-अब तुम्हें बुरा लग रहा है ,तुम्हारी आत्म छवि हिल गई है। अब तुम नहीं कह सकते कि मैं अच्छा धार्मिक आदमी हूं क्योंकि धार्मिक व्यक्ति तो क्रोध नहीं करता। तब तुम अपनी अच्छाई को वापस पाने के लिए पश्चाताप करते हो। कम से कम अपनी नजर में तुम्हें लगेगा कि मैंने पश्चाताप कर लिया, चैन हो गया और अब फिर क्रोध नहीं होगा। इससे तुम्हारी हिली हुई आत्म-छवि पुरानी अवस्था में लौट आएगी ;तुम चैन महसूस करोगे ;क्योंकि अब तुम दूसरी अति पर चले गए।लेकिन जो मन कहता है
कि अब मैं फिर कभी क्रोध नहीं करूंगा ..वह फिर क्रोध करेगा। अब जब तुम फिर क्रोध में होगें तो तुम अपने पश्चाताप को, अपने निर्णय को, सब को बिलकुल भूल जाओगे और क्रोध के बाद फिर वह निर्णय लौटेगा और पश्चाताप वापस आएगा; और तुम कभी उसके धोखे को नहीं समझ पाओगे। ऐसा सदा हुआ है। मन क्रोध से पश्चाताप और पश्चाताप से क्रोध के बीच डोलता रहता है।
5-बीच में रहो ...न क्रोध करो, न पश्चाताप करो और अगर क्रोध कर गए तो कृपा कर क्रोध ही करो। पश्चाताप मत करो; अथार्त दूसरी अति पर मत जाओ। बीच में रहो और कहो कि मैंने क्रोध किया है , मैं बुरा व्यक्ति हूं , हिंसक हूं ... मैं ऐसा ही हूं। लेकिन पश्चाताप करके दूसरी अति पर मत जाओ। मध्य में रहो और अगर तुम मध्य में रह सके तो फिर तुम क्रोध करने के लिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं कर पाओगे।इसलिए यह सूत्र कहता है: ‘’मन को भूलकर मध्य में रहो—जब तक।''इस ‘’जब तक’’
का मतलब यह है कि जब तक तुम्हारा विस्फोट न हो जाए। अथार्त तब तक मध्य में रहो जब तक मन की मृत्यु न हो जाए। तब तक मध्य में रहो जब तक मन अ-मन न हो जाए। अगर मन अति पर है तो अ-मन मध्य में होगा।
6-लेकिन मध्य में होना संसार में सबसे कठिन काम है। तुम्हें लगेगा कि मैं कर सकता हूं, और तुम्हें यह सोचकर लगेगा कि पश्चाताप की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन प्रयोग करो और तब तुम्हें पता चलेगा कि जब क्रोध करोगे तो मन पश्चाताप करने
पर जोर देगा।पति-पत्नियों का झगड़ा सदा से चलता आया है और सदियों से महापुरुष और सलाहकार समझा रहे है कि कैसे रहें और प्रेम करें। और यह झगड़ा जारी है। जब भी तुम आकर्षण , (तथा कथित प्रेम) में होओगे। तुम्हें विकर्षण में भी होना पड़ेगा और इस तरह पैंडुलम हिलता रहेगा। प्रत्येक पति-पत्नी को इसका पता है। अगर किसी जोड़े का तुम देखो कि वह कभी लड़ता नहीं है तो यह मत समझो कि यह आदर्श जोड़ा है। उसका इतना ही अर्थ है कि यह जोड़ा ही नहीं है। वे समांतर रह रहे है। लेकिर साथ-साथ नहीं रहते। वे समांतर रेखाएं है जो कहीं नहीं मिलती ..लड़ने के लिए भी नहीं। वे दोनों साथ रहकर भी अकेले है ...अकेले-अकेले और समांतर।
7-मन विपरीत पर गति करता है। इसलिए अब मनोविज्ञान के पास दंपतियों के लिए बेहतर और गहरा निदान है । वह कहते है कि अगर तुम सचमुच प्रेम-इसी मन के साथ ..करना चाहते हो तो लड़ने झगड़ने से मत डरों। सच तो यह है कि तुम्हें प्रामाणिक ढंग से लड़ना चाहिए। ताकि तुम प्रामाणिक आकर्षण के दूसरे छोर को प्राप्त कर सको।आकर्षण(सामान्य प्रेम)
संघर्ष के बिना नहीं जी सकता क्योंकि उसमे मन की गति संलग्न है। सिर्फ वही प्रेम संघर्ष के बिना जिएगा जो कि मन का नहीं है। लेकिन वह बात ही और है। उदाहरण के लिए अगर गौतम बुद्ध तुम्हें प्रेम करें तो तुम बहुत अच्छा नहीं महसूस करोगे क्योंकि उसमें कुछ दोष नहीं रहेगा। वह मीठा ही मीठा और उबाऊ होगा क्योंकि दोष तो झगड़े से आता हैऔर गौतम बुद्ध क्रोध नहीं कर सकते। वे केवल प्रेम कर सकते है।लेकिन तुम्हें उनका प्रेम पता नहीं चलेगा क्योंकि पता तो विरोध में या विपरीतता में ही चलता है।
8-जब गौतम बुद्ध बारह वर्षों के बाद अपने नगर वापस आए तो सारा नगर उनके स्वागत के लिए इकट्ठा हो गया, लेकिन उनकी पत्नी नहीं आई। बुद्ध हंसे और उन्होंने अपने मुख्य शिष्य आनंद से कहा कि यशोधरा नहीं आई, मैं उसे भली-भांति जानता हूं। ऐसा लगता है कि वह मुझे अभी भी सामान्य प्रेम करती है। वह मानिनी है, वह आहत अनुभव कर रही है। मैं तो सोचता था बारह वर्ष का लम्बा समय है, वह अब सामान्य प्रेम में न होगी। लेकिन मालूम होता है कि यह अब भी आकर्षित है, क्रोध में है। वह मुझे लेने नहीं आई, मुझे ही उसके पास जाना होगा। और गौतम बुद्ध आनंद के साथ गए ।क्योंकि जब आनंद ने दीक्षा ली थी तो उसने एक शर्त रखी कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा। वह गौतम बुद्ध का बड़ा चचेरा भाई था। इसलिए उन्हें मानना पडा था। सो आनंद राजमहल तक उनके साथ गया।
9-वहां गौतम बुद्ध ने उनसे कहां कि कम से कम यहां तुम मेरे साथ मत चलो क्योंकि यशोधरा बहुत नाराज होगी। मैं बारह वर्षों के बाद लौट रहा हूं और उसे खबर किए बिना यहाँ से चला गया था। वह अब भी नाराज है। तो तुम मेरे साथ मत चलो, अन्यथा वह समझेगा कि मैंने उसे कुछ कहने का भी अवसर नहीं दिया। वह बहुत कुछ कहना चाहती होगी। तो उसे क्रोध कर लेने दो, तुम कृपया इस बार मेरे साथ मत आओ।गौतम बुद्ध भीतर गए। यशोधरा ज्वालामुखी बनी बैठी थी। वह फूट पड़ी।
वह रोने चिल्लाने लगी , बकने लगी। गौतम बुद्ध चुपचाप बैठे सुनते रहे। धीरे-धीरे वह शांत हुई और तब वह समझी कि उस बीच गौतम बुद्ध एक शब्द भी नहीं बोले। उसने अपनी आंखें पोंछी और गौतम बुद्ध की और देखा।गौतम बुद्ध ने कहा कि मैं
यह कहने आया हूं कि मुझे कुछ मिला है, मैंने कुछ जाना है ,कुछ उपल्बध किया है। अगर तुम शांत होओ तो मैं तुम्हें वह संदेश, वह सत्य दूँ, जो मुझे उपलब्ध हुआ है। मैं इतनी देर इसलिए रुका रहा कि तुम्हारा रेचन हो जाए। बारह साल लंबा समय है। तुमने बहुत घाव इकट्ठे किए होंगे और तुम्हारा क्रोध समझने योग्य है। मुझे इसकी प्रतीक्षा थी। उसका अर्थ है कि तुम अब भी मुझसे आकर्षित हो।
10-लेकिन इस आकर्षण के पार भी एक शुद्ध प्रेम है, और उसी प्रेम के कारण मैं तुम्हें कुछ कहने वापस आया हूं।
लेकिन यशोधरा उस प्रेम को नहीं समझ सकी। इसे समझना कठिन है। क्योंकि यह प्रेम इतना शांत है कि अनुपस्थित सा
लगता है।जब मन विसर्जित होता है तो एक और ही प्रेम घटित होता है। लेकिन उस प्रेम का कोई विपरीत विरोधी पक्ष नहीं है। मन के साथ सदा उसका विपरीत खड़ा रहता है और मन एक पैंडुलम की भांति गति करता है।गौतम बुद्ध ने अपने ध्यान की विधि इसी सूत्र के आधार पर विकसित की। उनका मार्ग मज्झम निकाय या मध्य मार्ग कहलाता है। गौतम बुद्ध कहते है,
प्रत्येक चीज में..सदा मध्य में रहो। एक बार बुद्ध ने राजकुमार श्रोण उसे सन्यास में दीक्षित किया। और जब वह राजकुमार संन्यास में दीक्षित हुआ तो सारा राज्य चकित रह गया। लोगों को यकीन ही नहीं हुआ कि राजकुमार श्रोण संन्यासी हो गया क्योंकि श्रोण पूरा सांसारिक था। भोग-विलास में सर्वथा लिप्त रहता था।
11-बुद्ध ने कहा कि मैंने कुछ नहीं किया है। मन एक अति से दूसरी अति पर जा सकता है। वह मन का ढंग है। एक अति से दूसरी अति पर जाना। श्रोण कुछ नया नहीं कर रहा है। यह होना ही था। क्योंकि तुम मन के नियम नहीं जानते, इसलिए तुम
चकित हो रहे हो। मन एक अति से दूसरी अति पर गति करता रहता है। मन का यही ढंग है। यह रोज-रोज होता है। जो आदमी धन के पीछे पागल था वह अचानक सब कुछ छोड़कर फकीर हो जाता है। हम सोचते है कि चमत्कार हो गया। लेकिन यह सामान्य नियम के सिवाय कुछ नहीं है। जो आदमी धन के पीछे पागल नहीं है ;उससे यह उपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह त्याग करेगा। क्योंकि तुम एक अति से ही दूसरी अति पर जा सकते हो। वैसे ही जैसे घड़ी का पैंडुलम एक अति से दूसरी
अति पर डोलता रहता है।इसलिए जो आदमी धन के लिए पागल था वह पागल होकर धन के खिलाफ जाएगा। लेकिन उसका पागलपन कायम रहेगा। वही मन है। जो आदमी कामवासना के लिए जीता था वह ब्रह्मचारी हो सकता है। एकांत में चला जा सकता है। लेकिन उसका पागलपन कायम रहेगा।अतिक्रमण का मार्ग सदा मध्य में है। वह कभी अति में नहीं है।
12-इसीलिए श्रोण भिक्खु बन गया, संन्यासी हो गया।लेकिन शीध्र ही वह दूसरी अति पर चला गया । बुद्ध ने कभी नग्नता की शिक्षा नहीं दी। लेकिन वह बुद्ध का अकेला शिष्य था जो नग्न हुआ।बुद्ध ने कहा कि यह दूसरी अति है।श्रोण आत्म उत्पीड़न में
भी गहरे अतर गया। बुद्ध ने अपने संन्यासियों को दिन में एक बार भोजन की व्यवस्था दी थी। लेकिन श्रोण दो दिनों में एक बार भोजन लेने लगा। वह बहुत दुर्बल हो गया। दूसरे भिक्षु पेड़ की छाया में ध्यान करते। लेकिन श्रोण कभी छाया में नहीं बैठता था। वह सदा कड़ी घूप में रहता था। वह बहुत सुंदर आदमी था, उसकी देह बहुत सुंदर थी। लेकिन छह महीने के भीतर पहचानना मुश्किल हो गया कि यह वही आदमी है। वह कुरूप, काला, झुलसा-झुलसा दिखने लगा।एक रात बुद्ध श्रोण के पास गए
और उससे बोले: श्रोण मैंने सूना है कि जब तुम राजकुमार थे, तब तुम्हें वीणा बजाने का शोक था। और तुम एक कुशल वीणावादक और बड़े संगीतज्ञ थे। तो मैं तुमसे एक प्रश्न पूछने आया हूं। अगर वीणा के तार बहुत ढीले हो तो क्या होता है?
अगर तार ढीले होंगे तो कोई संगीत संभव नहीं है।और फिर बुद्ध ने पूछा कि अगर तार बहुत कसे हों तो क्या होगा? श्रोण ने कहा कि तब भी संगीत नहीं पैदा होगा। तारों को मध्य में होना चाहिए। वे न ढीले हो और न कसे हुए, ठीक मध्य में हो। और श्रोण ने कहा कि वीणा बजाना तो आसान है। लेकिन केवल एक परम संगीतज्ञ ही तारों को मध्य में रख सकता है।
शुद्ध प्रेम तथा आकर्षण और विकर्षण में क्या अंतर है?-
04 FACTS;-
1-दुर्गा सप्तसती के प्रथम अध्याय में मधु कैटभ नामक दो दैत्य के वध की कथा इस तरह है कि एक बार एक बार भगवान्
विष्णु क्षीर सागर शेषशैया पर योगनिद्रा में थे ।सम्पूर्ण संसार जल विलीन हो चूका था ।तब मधु,(आकर्षण) कैटभ (विकर्षण )नामक दो दैत्य श्री हरि के कर्ण के मैल से प्रकट हुए । वे बड़े बलशाली और भीमाकार थे |बाहर आते ही उनकी नजर ब्रह्मा
जी पर पड़ी जो श्री विष्णु के नाभि कमल पर विराजमान थे । ब्रह्मा जी जानते थे कि इन दोनों महाबलवान दैत्यों से सिर्फ गहरी निद्रा में; योगमाया के प्रभाव में सोये हुए श्रीहरि विष्णु जी ही मुझे बचा सकते हैं ।अत: उन्होंने मन ही मन विष्णु जी की आँखों में बसने वाली योगनिद्रा से प्रार्थना शुरू कर दी |
2-ब्रह्मा जी की विनती पर अव्यक्तजन्मा उनके समक्ष खड़ी हो गयी | इसी के साथ योगमाया के नेत्रों से आ जाने पर भगवान
विष्णु शय्या से जग उठे | श्री हरि ने उनसे 5000 वर्षो से बाहूयुद्ध किया परन्तु पराजित नहीं कर सके| तब महामाया ने मधु कैटभ को अपने योग माया में कैद कर लिया | इसी माया के प्रभाव से उन दोनों दानवो ने विष्णु से कोई भी वर मांगने की बात कही | भगवान विष्णु ने उनके प्राण मांग लिए | मधु कैटभ ने प्रभु से कहा की जिस जगह जल न हो वही हमारा वध करो | तब श्री हरि ने अपनी जाँघों पर लेकर उनका वध किया ।इस तरह महामाया ने बिना युद्ध लिए सिर्फ अपनी माया से मधु कैटभ
के वध होने में मुख्य भूमिका निभाई |परन्तु जिस जगह जल हो ,वहां पर मधु कैटभ का प्रभाव रहेगा अर्थात संसार /दुनिया, मर्त्यलोक मे,आकर्षण और विकर्षण रहेगा।
3-शुद्ध प्रेम की उत्पत्ति परब्रह्म से हुई हैं जबकि आकर्षण और विकर्षण की उत्पत्ति पालनहार श्री हरि के कर्ण के मैल से ।
दिव्य प्रेम की अति है विरह। जहां आनन्द है वहीं प्रेम है और जहां प्रेम है वहीं विरह है। उदाहरण के लिए श्रीराधा एक
आध्यात्मिक पृष्ठ है, जहां द्वैत से अद्वैत का मिलन है। श्रीराधा एक सम्पूर्ण काल का उद्गम हैं, जो श्रीकृष्ण रुपी समुद्र से मिलती हैं। श्रीकृष्ण के जीवन में राधा प्रेम की मूर्ति बनकर आईं और विश्व में प्रेम का प्रतिमान बनकर बस गईं। जिस प्रेम को कोई नाप नहीं सका, उसकी आधारशिला श्रीराधा ने ही रखी थी; और प्रेम में श्री राधा को भी वियोग सहना पड़ा था,. शिव को माता सती का वियोग सहना पड़ा था...
4-यह सूत्र अद्भुत है। उससे चमत्कार घटित हो सकता है।
‘’मन को भूलकर मध्य में रहो—जब तक।‘’
यह सूत्र तुम्हारे पूरे जीवन के लिए है;इसे प्रयोग में लाओ। ऐसा नहीं है कि उसका अभ्यास यदा-कदा किया और बात खत्म हो गई। तुम्हें निरंतर इसका बोध रखना होगा ,होश रखना होगा। काम करते हुए. चलते हुए, भोजन करते हुए, संबंधों में, सर्वत्र मध्य में रहो। प्रयोग करके देखो और तुम देखोगें कि एक मौन, एक शांति तुम्हें घेरने लगी है और तुम्हारे भीतर एक शांत केंद्र
निर्मित हो रहा है।अगर ठीक मध्य में होने में सफल न हो सको तो भी मध्य में होने की कोशिश करो। धीरे-धीरे तुम्हें मध्य की अनुभूति होने लगेगी। जो भी हो, घृणा या प्रेम, क्रोध या पश्चाताप, सदा ध्रुवीय विपरीतताओं को ध्यान में रखो और उनके बीच
मे रहो। और देर अबेर तुम ठीक मध्य को पा लोगे।और एक बार तुमने इसे जान लिया तो फिर तुम उसे नहीं भूलोगे। क्योंकि ''मध्य बिंदु '' मन के पार है; और वह मध्य बिंदु ही अध्यात्म का सार सूत्र है।
......SHIVOHAM....