विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 20, 21, विधियां [13-24 केंद्रित होने की विधियां ]क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि;- 20
09 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है: - ''किसी चलते वाहन में लयवद्ध झूलने के द्वारा, अनुभव को प्राप्त हो। या किसी अचल वाहन में अपने को मंद से मंदतर होते अदृश्य वर्तृलों में झूलना देने से भी।''
2-दूसरे ढंग से यह वही है कि किसी चलते वाहन में झूलने के द्वारा, अनुभव को प्राप्त हो।तुम रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे हो। लेकिन चलते हुए अगर तुम्हारा सारा शरीर हिल रहा है तो बात व्यर्थ हो गई...लयवद्ध ढंग से झूलों।इस बात को बहुत बारीक
ढंग से समझना है। जब भी तुम किसी वाहन में चलते हो तो तुम प्रतिरोध करते होते हो।वह इधर जाता है तो तुम उधर जाते हो।बाई तरफ झुकता है, तो तुम संतुलन रखने के लिए दाई तरफ झुक जाते हो अन्यथा तुम गिर जाओगे। इसलिए तुम निरंतर
प्रतिरोध कर रहे हो। यही वजह है कि रेलगाड़ी में बैठे-बैठे तुम थक जाते हो।लेकिन तुम कुछ करते नहीं हो तो क्यों थक जाते हो। वास्तव में, तुम निरंतर रेलगाड़ी से लड़ रहे हो, प्रतिरोध कर रहे हो।अगर तुम इस विधि को प्रयोग में लाना चाहते हो तो प्रतिरोध छोड़ दो। बल्कि गाड़ी की गति के साथ-साथ गति करो, उसकी गति के साथ-साथ झूलों ; उसका अंग बन जाओ, प्रतिरोध मत करो। यही कारण है कि यात्रा में बच्चे कभी नहीं थकते है क्योंकि अभी वे प्रतिरोध करना नहीं जानते है।
3- उदाहरण के लिए एक ड्रंकर्ड सारी रात यात्रा करेगा और सुबह उसे कोई टायर्डनेस भी नहीं होगी। लेकिन तुम ऐसे नहीं रह सकते। कारण यह है कि वह भी प्रतिरोध नहीं करता है। वह गाड़ी के साथ गति करता है, झूलता है, लड़ता नहीं है और गाड़ी के साथ एक हो जाता है।तो पहला काम है कि प्रतिरोध मत करो और दूसरा कि अपने हिलने डुलनें में लय पैदा करो , उसे लय में बांधों।सड़क या ड्राइवर को एब्यूज मत करो, उन्हें भूल जाओ ;और आंखें बंद कर लो।लयवद्ध ढंग से गति करो और अपनी गति में संगीत पैदा करो।आंखे बंद करके बड़े सर्किल से शुरू करे और उसको छोटा, और छोटा किए चलो। सर्किल को इतना छोटा से छोटा किए जाओ कि तुम्हारा शरीर दृश्य से झूलता हुआ न रहे।अन्यथा जब शरीर रूक जाएगा तब तुम भी रूक जाओगे।दृश्य रूप से तुम रूक जाओगे। लेकिन भीतर एक सूक्ष्म गति होती रहती है।किसी को नहीं मालूम होगा कि तुम अब भी हिल रहे हो।लेकिन भीतर तुम एक सूक्ष्म गति अनुभव करते रहोगे।अब शरीर नहीं चल रहा है। केवल मन चल रहा है। उसे भी मंद से मंदतर किए चलो। और अनुभव करो; वही केंद्रित हो जाओगे। किसी चलते वाहन में, एक अप्रतिरोध और लयबद्ध गति से तुम केंद्रित हो जाओगे।सूत्र कहता है कि तुम्हें अनुभव प्राप्त हो जाएगा।
4-अगर तुम लगातार बीस घंटे तक रेलगाड़ी में सफर करके घर लोटों और घर में आंखे बंद करके देखो तो तुम्हें लगेगा कि तुम अब भी गाड़ी में यात्रा कर रहे हो।वास्तव में, शरीर तो ठहर गया है, लेकिन मन को लगता है कि वह गाड़ी में ही है। वैसे ही इस विधि का प्रयोग करो।जॉर्ज गुरजिएफ(A Russian philosopher, mystic, spiritual teacher) ने इन विधियों के लिए अनेक नृत्य निर्मित किए थे। वह अपने आश्रम में इस विधि पर काम करते थे।वह जितने नृत्यों का प्रयोग करते थे वह सर्किल में झूमने से संबंधित थे।बाहर चक्कर लगाना , भीतर होश पूर्ण रहना; फिर धीरे-धीरे सर्किल को छोटा और छोटा करना और तब एक समय आता है कि शरीर ठहर जाता है। लेकिन भीतर मन गति करता रहता है।उसने सचमुच अद्भुत नृत्य के
चमत्कार किये है।ध्यान पूर्ण नृत्य के लिए उसने सौ नर्तकों की एक मंडली बनाई और पहली बार उसने न्यूयार्क के एक समूह के सामने उनका प्रदर्शन किया।
5-सौ नर्तक मंच पर गोल-गोल नाच रहे थे। उन्हें देखकर अनेक दर्शकों के भी सिर घूमने लगे। वे सौ नर्तक सफेद पोशाक में नृत्य करते थे। जब संत गुरूजिएफ हाथों से नृत्य का संकेत करता था तो वे नाचते थे और ज्यों ही वह रूकने का इशारा करता था, वे पत्थर की तरह ठहर जाते थे। और मंच पर सन्नाटा हो जाता था। वह रूकना दर्शकों के लिए था। नर्तकों के लिए नही; क्योंकि शरीर तो तुरंत रूक सकता है। लेकिन मन तब नृत्य को भीतर ले जाता है। और वहां नृत्य चलता रहता है।
उसे देखना भी एक सुंदर अनुभव था कि सौ लोग अचानक मृत मूर्तियों जैसे हो जाते है। उससे दर्शकों में एक आघात पैदा होता था, क्योंकि सौ सुंदर और लयवद्ध नृत्य अचानक ठहरकर जाम हो जाते थे। तुम देख रहे हो, कि वे घूम रहे है, गोल-गोल नाच रहे है और अचानक सब नर्तक ठहर गए। तब तुम्हारा विचार भी ठहर जाता है। न्यूयार्क में अनेक को लगा कि यह तो एक बेबूझ, रहस्यपूर्ण नृत्य है। क्योंकि उनके विचार भी उसके साथ तुरंत ठहर जाते थे। लेकिन नर्तकों के लिए नृत्य भीतर चलता रहता था। भीतर नृत्य के सर्किल छोटे से छोटे होते जाते थे और अंत में वह केंद्रित हो जाते थे।
6-एक दिन ऐसा हुआ कि सारे नर्तक नाचते हुए मंच के किनारे पर पहुंच गए।लोग सोचते थे कि अब संत गुरूजिएफ उन्हें रोक देंगे अन्यथा वे दर्शकों की भीड़ पर गिर पड़ेंगे। सौ नर्तक नाचते-नाचते मंच के किनारे पर पहुंच गए है। एक कदम और, सारे दर्शक इस प्रतीक्षा में थे कि संत गुरूजिएफ रुको कहकर उन्हें वहीं रोक देगा। लेकिन उसी क्षण संत गुरूजिएफ ने उनकी तरफ से मुख फेर लिया और पीठ कर के खड़ा हो कर अपना सिंगार चलाने लगा। और सौ नर्तकों की पूरी मंडली मंच से नीचे नंगे फर्श पर गिर पड़ी।सभी दर्शक उठ खड़े हुए। उनकी चीख़ें निकल गई।गिरना इस धमाके के साथ हुआ था कि
उन्हें लगा कि अनेक दर्शकों के हाथ पैर टूट गए होंगे। लेकिन एक भी व्यक्ति को चोट नहीं लगा थी। किसी को खरोंच तक भी नहीं आई थी। उन्होंने संत गुरूजिएफ से पूछा कि.. क्या हुआ कि एक आदमी भी घायल नहीं हुआ। जबकि नर्तकों का नीचे
गिरना ...यह तो एक असंभव घटना मालूम होती है।
7-कारण इतना ही था कि उस क्षण नर्तक अपने शरीरों में नहीं थे। वे अपने भीतर के सर्किलों को मंद और मंद किए जा रहे थे। और जब संत गुरजिएफ ने देखा कि वे पूरी तरह अपने शरीरों को भूल गये है तब उसने उन्हें नीचे गिरने दिया।तुम जब
शरीर को बिलकुल भूल जाते हो तो कोई प्रतिरोध नहीं रह जाता है। और हड्डी तो प्रतिरोध के कारण टूटती है। जब तुम गिरने लगते हो तो तुम प्रतिरोध करते हो, अपने को गिरने से रोकते हो। गिरते समय तुम गुरुत्वाकर्षण के विरूद्ध संघर्ष करते हो। और वही प्रतिरोध, वही संघर्ष समस्या बन जाता है। गुरुत्वाकर्षण नहीं, प्रतिरोध से हड्डी टूटती है। अगर तुम गुरूत्वाकर्षण के साथ सहयोग करो; उसके साथ-साथ गिरो, तो चोट लगने की कोई संभावना नहीं है।यह तुम दूसरे ढंग से भी कर सकते हो,
वाहन की जरूरत नहीं है। जैसे बच्चें गोल-गोल घूमते है वैसे गोल-गोल घूमों। और जब तुम्हारा सिर घूमने लगे और तुम्हें लगे कि अब गिर जाऊँगा तो भी नाचना बंद मत करो ...नाचते रहो। अगर गिर भी जाओ तो फिक्र मत करो। आँख बंद कर लो और नाचते रहो। तुम्हारा सिर चक्कर खानें लगेगा और तुम गिर जाओगे। जब तुम्हारा शरीर गिर जाए तो भीतर देखो; भीतर नाचना जारी रहेगा। उसे महसूस करो ...वह निकट से निकटतर होता जाएगा और अचानक तुम केंद्रित हो जाओगे।
8-बच्चे इसका खूब मजा लेते है क्योंकि इससे उन्हें बहुत ऊर्जा मिलती है। लेकिन उनके माता-पिता उन्हें नाचने से रोकते है। जो कि अच्छा नहीं है। उन्हें नाचने देना चाहिए,बल्कि उन्हें इसके लिए उत्साहित करना चाहिए। और अगर तुम उन्हें अपने भीतर के नाच से परिचित करा सको तो तुम उन्हें उसके द्वारा ध्यान सिखा दोगे।वे इसमे रस लेते है क्योंकि शरीर-शून्यता का
भाव उनमें है। जब वे गोल-गोल नाचते है तो बच्चों को अचानक पता चलता है कि उनका शरीर तो नाचता है, लेकिन वे नहीं नाचते। अपने भीतर वे एक तरह से केंद्रित हो गए महसूस करते है। क्योंकि उनके शरीर और आत्मा में अभी दूरी नहीं बनी है ।हम ग्रोन अपस को यह अनुभव इतनी आसानी से नहीं हो सकता।जब तुम मां के गर्भ में प्रवेश करते हो तो तुरंत ही शरीर में नहीं प्रविष्ट हो जाते हो। शरीर में प्रविष्ट होने में समय लगता है। और जब बच्चा जनम लेता है तब भी वह शरीर से पूरी तरह नहीं जुड़ा होता है, उसकी आत्मा पूरी तरह स्थिर नहीं होती है। दोनों के बीच थोड़ा अंतराल बना रहता है। यही कारण है कि कई चीजें बच्चा नहीं कर सकता। उसका शरीर तो उन्हें करने को तैयार है, लेकिन वह नहीं कर पाता।
9-वास्तव में, नवजात शिशु दोनों आंखों से देखने में समर्थ नहीं होते है। वे सदा एक आँख से देखते है। जब बच्चे कुछ देखते है, निरीक्षण करते है, तो दोनों आंखों से नहीं करते। वे एक आँख से ही देखते है, उनकी वह आँख बड़ी हो जाती है। देखते क्षण उनकी एक आँख की पुतली फैल कर बड़ी हो जाती है और दूसरी पुतली छोटी हो जाती है। क्योंकि बच्चे अभी स्थिर नहीं हुए है। उनकी चेतना अभी स्थिर नहीं...ढीली–ढीली है। धीरे-धीरे वह स्थिर होगी और तब वे दोनों आँख से देखने लगेंगे।
बच्चें अभी अपने और दूसरे के शरीर में फर्क करना नहीं जानते है। यह कठिन है क्योंकि वे अभी अपने शरीर से पूरी तरह नहीं जुडे है। यह जोड़ धीरे-धीरे आएगा।ध्यान फिर से अंतराल पैदा करने की चेष्टा है। तुम अपने शरीर से जुड़ गए हो,
ठोस हो चुके हो। तभी तो तुम समझते हो कि मैं शरीर हूं। अगर फिर से एक अंतराल बनाया जा सके तो फिर समझने लगोगे कि मैं शरीर नहीं हूं ...शरीर से परे भी कुछ हूं। इसलिए झूलना और गोल-गोल घूमना सहयोगी होते है क्योंकि वे अंतराल पैदा करते है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि;- 21-
06 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है: -
’अपने अमृत भरे शरीर के किसी अंग को सुई से भेदो, और भद्रता के साथ उस भेदन में प्रवेश करो, और आंतरिक शुद्धि को उपलब्ध होओ।‘’
2-यह सूत्र कहता है कि अपने अमृत भरे शरीर के किसी अंग को सुई से भेदों ।वास्तव में, तुम्हारा शरीर मात्र शरीर नहीं है
, वह तुमसे भरा है, और यह तुम अमृत हो। अपने शरीर को भेदों, उसमें छेद करो। जब तुम अपने शरीर को छेदते हो तो सिर्फ शरीर छिदता है। लेकिन तुम्हें लगता है कि तुम ही छिद गए। इसी से तुम्हें पीड़ा अनुभव होती है। और अगर तुम्हें यह बोध हो कि सिर्फ शरीर छिदा है, मैं नहीं छिदा हूं, तो पीड़ा के स्थान पर आनंद अनुभव करोगे।वास्तव में,सुई से भी छेद करने
की जरूरत नहीं है।रोज ऐसी अनेक चीजें घटित होती है। जिन्हें तुम ध्यान के लिए उपयोग में ला सकते हो। या कोई ऐसी
स्थिति निर्मित भी कर सकते हो।तुम्हारे भीतर कहीं कोई पीड़ा हो रही है तो शेष शरीर को भूल जाओ, केवल उस भाग पर मन को एकाग्र करो जिसमे पीड़ा है। और तब एक अजीब बात अनुभव में आएगी। जब तुम पीड़ा वाले भाग पर मन को एकाग्र करोगे तो देखोगें कि वह भाग सिकुड़ रहा है, छोटा हो रहा है।
3-पहले तुमने समझा था कि पूरे पाँव में पीड़ा है, लेकिन जब एकाग्र होकर उसे देखोगें तो मालूम होगा कि दर्द पाँव में नहीं है।
वह तो अतिशयोक्ति है, दर्द सिर्फ घुटने में है।और ज्यादा एकाग्र होओ और तुम देखोगें कि दर्द पूरे घुटने में नहीं है बल्कि एक छोटे से बिंदु में है। सिर्फ उस बिंदु पर एकाग्रता साधो, शेष शरीर को भूल जाओ।आंखें बंद रखो और एकाग्रता को बढ़ाए
जाओ। और खोजों कि पीड़ा कहां है। पीड़ा का क्षेत्र सिकुड़ता जाएगा। छोटे से छोटा हो जाएगा। और एक क्षण आएगा जब वह मात्र सुई की नोक पर रह जाएगा। उस सुई की नोक पर भी एकाग्रता की नजर गड़ाओ, और अचानक वह नोक भी विदा हो जाएगी। और तुम आनंद से भर जाओगे। पीड़ा की बजाएं तुम आनंद से भर जाओगे।ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि
तुम और तुम्हारे शरीर एक नहीं है। वे दो है ,अलग-अलग है। वह जो एकाग्र होता है ;वह तुम हो। एकाग्रता शरीर पर होती है और शरीर विषय है।जब तुम एकाग्र होते हो तो अंतराल बड़ा होता है ,तादात्म्य टूटता है। एकाग्रता के लिए तुम भीतर सरक पड़ते हो और यह दूर जाना अंतराल पैदा करता है।
4-जब तुम पीड़ा पर एकाग्रता साधते हो तो तुम भूल जाते हो कि मुझे पीड़ा हो रही है। अब तुम द्रष्टा हो और पीड़ा कहीं दूसरी जगह है। तुम अब पीड़ा को देखने वाले हो, भोगने वाले नहीं। भोक्ता के द्रष्टा में बदलने के कारण अंतराल पैदा होता है। और जब अंतराल बड़ा होता है तो अचानक तुम शरीर को बिलकुल भूल जाते हो। तुम्हें सिर्फ चेतना का बोध होता है।और
तब तुम इस विधि का प्रयोग भी कर सकते हो।अगर कोई पीड़ा हो तो पहले तुम्हें उसके पूरे क्षेत्र पर एकाग्र होना होगा।
फिर धीरे-धीर वह क्षेत्र घटकर सुई की नोक के बराबर रह जाएगा। लेकिन पीड़ा की प्रतीक्षा क्या करनी। तुम एक सुई से काम ले सकते हो। शरीर के किसी संवेदनशील अंग पर सुई चुभोओ। पर शरीर में ऐसे भी कई स्थल है जो मृत है, उनसे काम नहीं चलेगा।तुमने शरीर के इन मृत स्थलों के बारे में नहीं सुना होगा, किसी मित्र के हाथ में एक सुई दे दो और तुम बैठ जाओ और मित्र से कहो कि वह तुम्हारी पीठ में कई स्थलों पर सुई चुभाएं। कई स्थलों पर तुम्हें पीड़ा का एहसास नहीं होगा। तुम मित्र से कहोगे कि तुमने सुई अभी नहीं चुभोई है, मुझे दर्द नहीं हो रहा है। वे ही मृत स्थल है। तुम्हारे गाल पर ही ऐसे दो मृत स्थल है जिनकी जांच की जा सकती है।
5-भारत के गांव में धार्मिक त्योहारों के समय कुछ लोग अपने गालों को सरिया से भेद देते है। वह चमत्कार जैसा मालूम होता है। लेकिन चमत्कार है नहीं । गाल पर दो मृत स्थल है। अगर तुम उन्हें छेदों तो न खून निकलेगा और न पीडा ही होगी। तुम्हारी
पीठ में तो ऐसे हजारों मृत स्थल है। वहां पीड़ा नहीं होती।तो तुम्हारे शरीर में दो तरह के स्थल है—संवेदनशील, जीवित स्थल और मृत स्थल। कोई संवेदनशील स्थल खोजों जहां तुम्हें जरा से स्पर्श का भी पता चल जायेगा। तब उसमे सुई चुभोकर चुभन में प्रवेश कर जाओ। वही ध्यान है और भद्रता के साथ भेदन में प्रवेश कर जाओ। जैसे-जैसे सुई तुम्हारी चमड़ी के भीतर प्रवेश करेगी और तुम्हें पीड़ा होगी, वैसे-वैसे तुम भी उसमे प्रवेश करते जाओ।यह मत देखो कि तुम्हारे भीतर पीड़ा प्रवेश कर
रही है ..पीड़ा को मत देखो, उसके साथ तादम्यता करो।सुई के साथ, चुभन के साथ तुम भी भीतर प्रवेश करो। आंखें बंद कर लो। पीड़ा का निरीक्षण करो। जैसे पीड़ा भीतर जाए वैसे तुम भी अपने भीतर जाओ। चुभती हुई सुई के साथ तुम्हारा मन आसानी से एकाग्र हो जाएगा।तीव्र पीड़ा के उस बिंदु को गौर से देखो, वही भद्रता के साथ भेदन में प्रवेश करना हुआ।
6- ''और आंतरिक शुद्धि को उपलब्ध होओ।''
अगर तुमने निरीक्षण करते हुए, तादात्म्य करते हुए, अलग दूर खड़े रहते हुए, बिना यह समझे हुए कि सुई शरीर को भेद रही है और तुमने द्रष्टा में प्रवेश किया तो तुम आंतरिक शुद्धता को उपल्बध हो जाओगे। तब आंतरिक निर्दोषता तुम पर प्रकट हो
जाएगी। तब पहली बार तुम्हें बोध होगा कि मैं शरीर नहीं हूं।और एक बार तुमने जाना कि मैं शरीर नहीं हूं, तुम्हारा सारा जीवन बदल जाएगा। क्योंकि तुम्हारा सारा जीवन शरीर के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहता है। एक बार जान गए कि मैं शरीर नहीं हूं,तो तुम फिर इस जीवन को नहीं ढो सकते।जब तुम शरीर नहीं रहे तो तुम्हें दूसरा जीवन निर्मित करना पड़ेगा। वही जीवन संन्यासी का जीवन है।यह और ही जीवन होगा क्योंकि अब केंद्र ही और होगा।अब तुम संसार में शरीर की भांति नहीं,
बल्कि आत्मा की भांति रहोगे।जब तक तुम शरीर की तरह रहते हो तब तक तुम्हारा संसार भौतिक उपलब्धियों का, लोभ, भोग, वासना और कामुकता का संसार होगा। और वह संसार शरीर प्रधान संसार होगा। लेकिन जब जान लिया है कि मैं शरीर नहीं हूं तो तुम्हारा सारा संसार विलीन हो जाता है। तुम अब उसे सम्हालकर नहीं रख सकते हो। तब एक दूसरा संसार उदय होगा जो आत्मा के इर्द-गिर्द होगा। वह संसार करूणा प्रेम, सौंदर्य, सत्य, शुभ और निर्दोषता का संसार होगा। केंद्र हट गया ..वह केंद्र अब शरीर में नहीं बल्कि चेतना में है।
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.......SHIVOHAM....