विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 30वीं विधि(देखने की सात विधियां) का क्या विवेचन है ?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि–30;-
07 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-... ''आंखें बंद करके अपने अंतरस्थ अस्तित्व को विस्तार से देखो। इस प्रकार अपने सच्चे स्वभाव को देख लो।''
2-‘ अपनी आंखें बंद कर लो। लेकिन आंखे बंद करना ही काफी नहीं है।उसका अर्थ है कि आँखो को बंद करके उनकी गति भी रोक दो ..समग्र रूप से बंद कर लो।अन्यथा आंखें बाहर की ही चीजें देखती रहेगी।बंद आंखें भी प्रतिबिंबों को देखती
है।असली चीजें तो नहीं रहती। लेकिन उनके चित्र, विचार, संचित यादें तब भी सामने तैरती रहेंगी।इसलिए जब तक को वे तैरती रहेगी ;तब तक आंखों को समग्ररूपेण बंद मत समझो। समग्र रूप से बंद होने का अर्थ है कि अब देखने को कुछ भी
नहीं है।इस फर्क को ठीक से समझना है । हर कोई ,हर क्षण आंखें बंद करता है। रात में भी तुम आंखें बंद रखते हो। लेकिन इससे अंतरस्थ स्वभाव प्रकट नहीं हो जाएगा। आंखें ऐसे बंद करो कि देखने को कुछ भी न बचे—न बाहर का विषय बचे न भीतर का विषय बचे। तुम्हारे सामने बस खाली अँधेरा रह जाए, मानो तुम अचानक अंधे हो गए हो ..यथार्थ के प्रति ही नहीं, स्वप्न वाले यथार्थ के प्रति भी।
3-इसमे एक लंबे अभ्यास की जरूरत पड़ेगी। यह अचानक संभव नहीं है। जब भी तुम्हें लगे कि यह आसानी से किया जा सकता है और जब भी तुम्हें समय हो आंखें बंद कर लो और आंखों की सभी भीतरी हलचल को भी बंद कर दो।आंखों की किसी तरह की भी गति मत होने दो। भाव करो ,कि आंखें पत्थर हो गई है। और तब आंखों की पथराई अवस्था में ठहरे रहो। कुछ भी मत करो; मात्र स्थित रहो। तब किसी दिन अचानक तुम्हें यह बोध होगा कि तुम अपने भीतर देख रहे हो।
यह विधि भीतर से देखने के लिए बहुत सहयोगी है। और यह दर्शन तुम्हारी समग्र चेतना को, तुम्हारे समूचे अस्तित्व को रूपांतरित कर देता है। कारण यह है कि जब तुम अपने को भी भीतर से देखते हो तो तुम तुरंत संसार से भिन्न हो जाते हो। यह झूठा तादात्म्य/ false identification , कि मैं शरीर हूं, इसलिए है क्योंकि हम अपने शरीर को बाहर से देखते है। अगर कोई उसे भीतर से देख सके तो द्रष्टा शरीर से भिन्न हो जाता है। और तब तुम अपनी चेतना को ,अंगूठे से सिर तक अपने शरीर के भीतर गति कर सकते हो; परिभ्रमण कर सकते हो।
4-और एक बार तुम शरीर को अंदर से देखने और उसमें गति करने में समर्थ हो गए , एक बार तुम ने जान लिया कि तुम शरीर से पृथक हो, तो तुम एक महा बंधन से मुक्त हो गए। अब तुम पर गुरूत्वाकर्षण की पकड़ न रही , कोई सीमा न रही। अब तुम परिपूर्ण स्वतंत्र हो, अब तुम शरीर के बाहर जा सकते हो। अब बाहर-भीतर होना आसान है।अब तुम्हारा शरीर महज
निवास स्थान है।आंखें बंद करो और अपने अंतरस्थ प्राणी को विस्तार से देखो। और भीतर-भीतर शरीर के अंग-अंग में परिभ्रमण करो। सबसे पहले अंगूठे के पास जाओ। पूरे शरीर को भूल जाओ। और अंगूठे पर पहु्ंचो। वहां रुको और उसका दर्शन करो। फिर पाँव से होकर ऊपर बढ़ो; और ऐसे प्रत्येक अंग को देखो।
5-तब बहुत सी बातें घटित होंगी और तुम्हारा शरीर ऐसा संवेदनशील वाहन बन जाएगा जिसका तुम कल्पना नहीं कर सकते। तब अगर तुम किसी को स्पर्श करोगे तो तुम पूरे अपने हाथ में गति कर जाओगे और वह स्पर्श रूपांतरकारी होगा।महान गुरु के स्पर्श का यही अर्थ है कि वह अपने किसी अंग में भी समग्र रूप से पहुंच सकता है और वहां एकाग्र हो
सकता है।अगर तुम समग्र रूप से अपने किसी अंग में चले जाओ तो वह अंग जीवंत हो जाता है। इतना जीवंत कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि उसे क्या हो गया है। तब तुम अपनी आंखों में समग्ररूपेण समा सकते हो। इस तरह आँखो में समाकर अगर तुम किसी दूसरे की आंखों में झांकोगे तो तुम उसमें प्रवेश कर जाओगे उसकी गहनत्म गहराई को छू जाओगे।
6-एक महान गुरु अनेक काम करता है। उनमें से एक बुनियादी काम यह है कि तुम्हारा विश्लेषण करने के लिए तुममें गहरे उतरता है। और वह तुम्हारे अंधेरे तल घरों में प्रवेश करता है। तुम्हें भी अपने इन तल घरों का पता नहीं है। अगर गुरु कहेगा कि तुम्हारे भीतर कुछ चीजें छिपी पड़ी है, तो तुम उसका विश्वास भी नहीं करोगे क्योंकि तुम्हें उनका पता ही नहीं है। तुम अपने मन के एक ही हिस्से को जानते हो और वह उसका बहुत छोटा हिस्सा ,ऊपरी हिस्सा है या पहली पर्त भर है। उसके पीछे नौ पर्तें छिपी है जिनकी तुम्हें कोई खबर नहीं है। लेकिन आंखों के द्वारा उनमें प्रवेश किया जा सकता है।
आंखें बंद करके अपने अंतरस्थ अस्तित्व को विस्तार से देखना अथार्त अपने शरीर को भीतर से, अपने आंतरिक केंद्र से
देखना है। केंद्र पर खड़े हो जाओ और देखो। तब तुम शरीर से पृथक हो जाओगे। क्योंकि द्रष्टा कभी दृश्य नहीं होता है, निरीक्षक अपने विषय से भिन्न होता है। अगर तुम अंदर से अपने शरीर को देख सको तो तुम कभी फिर इस भ्रम में नहीं पड़ोगे कि मैं शरीर हूं। तब तुम सर्वथा पृथक रहोगे ... शरीर में रहोगे लेकिन शरीर नहीं रहोगे।
7-यह पहला चरण है। फिर तुम और गति करने के लिए स्वतंत्र हो। शरीर से मुक्त होकर, तादात्म्य से मुक्त होकर तुम अपने मन की गहराइयों में प्रवेश कर सकते हो। अब तुम उन नौ पर्तों में, जो भीतर है और अचेतन है, प्रवेश कर सकते हो।यह मन की अंतरस्थ गुफा है। और अगर मन की गुफा
में प्रवेश करते हो तो तुम मन से भी प्रथक हो जाते हो। तब तुम देखोगें कि मन भी एक विषय है जिसे देखा जा सकता है। और
जो मन में प्रवेश कर रहा है वह मन से पृथक और भिन्न है। अंतरस्थ अस्तित्व को विस्तार से देखने का यही अर्थ है ..मन में प्रवेश करो। शरीर और मन दोनों के भीतर जाना है। और भीतर से उन्हें देखना है। तब तुम केवल साक्षी हो। और इस साक्षी में प्रवेश नहीं हो सकता। इसी से यह तुम्हारा अंतरतम है; यही तुम हो। जिसमें प्रवेश किया जा सकता है ,जिसे देखा जा सकता है।जब तुम वहां आ गए जिससे आगे नहीं जाया जा सकता, जिसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता, वह तुम नहीं हो।तभी तुम समझना कि तुम अपने सच्चे 'स्व' के पास, अपनी आत्मा के पास पहुंचे हो।
क्या हम आत्मा के साक्षी हो सकते है?-
05 FACTS;-
1-स्मरण रहे कि तुम साक्षी के साक्षी नहीं हो सकते। अगर कोई कहता है कि मैंने अपने साक्षी को देखा है तो वह गलत कहता है। जिसे तुम देख सकते हो वह तुम नहीं हो। जिसका तुम निरीक्षण कर सकते हो वह तुम नहीं हो। जिसका तुम्हें बोध हो सकता है कि वह तुम नहीं हो।अगर तुम ने साक्षी आत्मा को देख लिया तो वह साक्षी आत्मा ही नहीं है।क्योंकि तुम अपने अखंड अस्तित्व को दो में या दृश्य और द्रष्टा में नहीं बांट सकते।लेकिन मन के पार एक बिंदु आता है। जहां तुम मात्र
होते हो।अब वहां केवल द्रष्टा है, मात्र साक्षी भाव है। इस बात को बुद्धि से तर्क से समझना बहुत कठिन है। क्योंकि वहां बुद्धि की सभी कोटियां समाप्त हो जाती है।
2-ज्ञान का अर्थ है द्वैत अथार्त विषय और विषयी के बीच, ज्ञाता और ज्ञात/knower and known के बीच। इसलिए चार्वाक, जिसने संसार के एक अत्यंत तर्कपूर्ण दर्शनशास्त्र की स्थापना की;कहता है कि जो लोग कहते है कि हमने आत्मा को जान लिया है वे मूढ़ता की बात करते है। आत्म ज्ञान असंभव है क्योंकि आत्मा निर्विवाद रूप से जानने वाला है। उसे जाना जाने वाले में बदला नहीं जा सकता। और तब चार्वाक कहता है कि अगर तुम आत्मा को नहीं जान सकते; तो यह कैसे कह सकते हो कि आत्मा है।तर्क की इस कठिनाई के कारण चार्वाक ने कहा कि तुम आत्मा को नहीं जान सकते हो, कोई आत्म-ज्ञान नहीं होता। और इसलिए तुम कैसे कह सकते हो कि आत्मा है। जो भी तुम जानते हो वह आत्मा नहीं है। जो जानता है वह आत्मा है। जो जाना जाता है वह आत्मा नहीं हो सकती है। क्योंकि तब कौन जानेगा और किसको जानेगा? इसलिए तुम तर्क के अनुसार नहीं कह सकते ,कि मैंने अपनी आत्मा को जान लिया। वह बेतुका है, तर्कहीन है।
3-चार्वाक जैसे लोग, जो आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते, अनात्मवादी कहलाते है। वे कहते है कि आत्मा नहीं है;
क्योकि उसे जाना नहीं जा सकता है।अगर तर्क ही सब कुछ है तो वे सही है। लेकिन जीवन का यह रहस्य है कि तर्क सिर्फ आरंभ है, अंत नहीं है। एक क्षण आता है ,जब तर्क समाप्त हो जाता है। लेकिन तुम समाप्त , नहीं होते हो तुम तब भी होते हो। जीवन अतर्क्य है। यही कारण है कि यह समझना बहुत कठिन होता है कि सिर्फ साक्षी बचता है।आकाश को देखो ;नीला
दिखाई देता है। लेकिन आकाश नीला नहीं है। वह कॉस्मिक किरणों (Galactic Cosmic Rays) से भरा है। क्योंकि वहां कोई विषय वस्तु नहीं है। इसीलिए आकाश नीला दिखाई देता है। वे किरणें प्रतिबिंबित नहीं कर सकती, तुम्हारी आंखों तक नहीं आ सकती। अगर तुम अंतरिक्ष में जाओ और वहां कोई वस्तु न हो तो तुम्हें वहां अँधेरा ही अँधेरा मालूम होगा जबकि तुम्हारे बगल से किरण गुजर रही है। प्रकाश को जानने के लिए विषय वस्तु का होना अनिवार्य है।
4-तो चार्वाक कहता है कि अगर तुम भीतर जाते हो और उस बिंदु पर पहुंचते हो जहां सिर्फ साक्षी बचता है। और कुछ देखने को नहीं बचता। देखने के लिए कोई विषय अवश्य चाहिए। तभी तुम साक्षित्व को जान सकते हो।तर्क के अनुसार, विज्ञान के
अनुसार यह सही है। लेकिन यह अस्तित्वत: यही नहीं है। जो लोग सचमुच भीतर प्रवेश करते है वे ऐसे बिंदु पर पहुंचते है जहां मात्र चैतन्य के अतिरिक्त कोई भी विषय नहीं रहता है। तुम हो, लेकिन देखने को कुछ भी नहीं है ...एक मात्र मात्र दृष्टा है।
अपने आस-पास किसी विषय के बिना, शुद्ध विषयी होता है। जिस क्षण तुम इस बिंदू पर पहुंचते हो। तुम अपने अस्तित्व के परम लक्ष्य पर पहुंच गए। उसे तुम 'आदि 'कह सकते हो। उसे तुम 'अंत' भी कह सकते हो। वह 'आदि 'और 'अंत 'दोनों है। वह आत्म-ज्ञान है।
5-भाषागत रूप से आत्म ज्ञान शब्द गलत है। क्योंकि भाषा में इसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जब तुम अद्वैत के जगत में प्रवेश करते हो, तो भाषा व्यर्थ हो जाती है। भाषा तभी तक सार्थक है जब तक तुम द्वैत के जगत में हो। द्वैत के जगत में भाषा अर्थवान है; क्योंकि भाषा द्वैतवादी जगत की कृति है। उसका हिस्सा है। अद्वैत में प्रवेश करते ही भाषा व्यर्थ हो
जाती है।चायनीज फिलॉसफर लाओत्से ने कहा है कि जो कहा जा सकता है वह सच नहीं हो सकता और जो सच है वह कहा नहीं जा सकता। वह मौन रह गया। जिंदगी के अंतिम दिनों तक उसने कुछ भी लिखने से इनकार किया। उसने कहा कि अगर मैं कुछ कहूं तो वह असत्य हो जाएगा। क्योंकि उस जगत के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता जहां एक ही बचता है।
आंखे बंद करके अपने अंतरस्थ अस्तित्व ...शरीर और मन दोनों को विस्तार से देखो।इस प्रकार अपने सच्चे स्वभाव को देख लो।
इस विधि का प्रयोग कैसे करे?-
03 FACTS;-
1-अगर तुम इस विधि का प्रयोग करते हो तो पहले आंखों को समग्र रूप से बंद होना जरूरी है और फिर आंखों की सारी गति रोक दो ; पत्थर की तरह हो जाने दो। इसका अभ्यास करते हुए किसी दिन अचानक, हठात तुम अपने अंदर देखने में समर्थ हो जाओगे।वे आंखें जो सतत बाहर देखने की आदी थी; भीतर को मुड़ जाएंगी।और तुम्हें अपने अंतरस्थ की एक झलक मिल
जायेगी।फिर कोई कठिनाई नहीं रहेगी।एक बार तुम्हें अंतरस्थ की झलक मिल गई तो तुम जान लेते हो कि क्या किया जाए और कैसे गति की जाए।परन्तु झलक कठिन है...उसके बाद तुम्हें तरकीब हाथ लग जायेगी। तब वह एक खेल, एक युक्ति की
बात हो जाएगी ...किसी भी क्षण तुम अपनी आंखे बंद कर सकते हो।
2-उदाहरण के लिए गौतम बुद्ध के जीवन का अंतिम दिन था।उनकी इस आंतरिक यात्रा के चार चरण थे।पहले उन्होंने आंखें बंद की और तब उन्होंने आंखों को स्थिर कर लिया। यह दूसरी बात है।और तीसरी बात कि उन्होंने अपने शरीर को देखा और
अंत में अपने केंद्र पर, मूलस्त्रोत पर पहुंच गए।यह वजह है कि उनकी मृत्यु नहीं कहलाती। हम उसे निर्वाण कहते है। सामान्यत: हम मरते है, क्योंकि हमारी मृत्यु घटित होती है।गौतम बुद्ध के साथ यह मृत्यु घटित नहीं हुई। मृत्यु के आने के पहले वे अपने स्त्रोत को वापस लौट गए थे। उनके मृत शरीर की ही मृत्यु हुई। वे वहां मौजूद नहीं थे।
3-बौद्ध परंपरा में कहा जाता है कि गौतम बुद्ध की कभी मृत्यु नहीं घटित हुई; मृत्यु उन्हें पकड़ ही नहीं पाई। मृत्यु ने उनका पीछा किया। जैसे कि वह सबका पीछा करती है। लेकिन वे उसके जाल में नहीं आए। मृत्यु उनके द्वारा छली गई।गौतम बुद्ध मृत्यु के पार खड़े होकर हंस रहे होंगे। क्योंकि मृत्यु मृत शरीर के पास खड़ी थी।यह वही विधि है इसके चार चरण करो और
आगे बढ़ो। और जब एक झलक मिल जाएगी तो पूरी चीज आसान और सरल हो जाएगी। तब तुम किसी भी क्षण अंदर जा सकते हो।और बाहर आ सकते हो वैसे ही जैसे तुम अपने घर के बाहर-भीतर होते हो।
...SHIVOHAM....