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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान की ध्‍वनि-संबंधी "ग्यारह " विधि (43 वीं ) का विवेचन क्या है?

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • May 4, 2022
  • 26 min read

43-भगवान शिव कहते है:-‘’मुंह को थोड़ा-सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्‍थिर करो। अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।‘’

भगवान शिव ‘सोऽहम् साधना’ कीओर संकेत कर रहे है ;तो पहले हमें इस साधना केविषय में ज्ञान करना चाहिए।

क्या है ‘सोऽहम् साधना’ /हंस योग?-

11 FACTS;-

1-सोऽहम् साधना को हंसयोग कहते हैं। इसमें शब्दों को उलटकर सोहम् का हंस तो बना ही है ;जिसका रहस्य ही नीर क्षीर विवेक। कहते हैं कि दूध और पानी मिलाकर सामने रखने पर हंस उसमें से पानी का अंश छोड़ देता है और मात्र दूध ही ग्रहण करता है। इस उदाहरण में साधक के लिए प्रेरणा है कि मात्र औचित्य को ही ग्रहण करें। ‘सोहम्’ साधना या अजपा जप

को जीवात्मा अनायास ही जपता रहता है ..श्वास-प्रश्वास द्वारा। किन्तु वह ध्यान एवं भाव के अभाव में प्रसुप्त स्तर की रहती है और उनका कोई प्रतिफल नहीं मिलता। जिस भूमि पर भ्रमण कर रहे हैं उसके नीचे भले ही बहुमूल्य खजाना दबा पड़ा हो, पर जानकारी के अभाव में उसे न तो निकालने का प्रयत्न बन पड़ता है और न सदुपयोग की योजना के अभाव को कोई लाभ मिलता है।

2-उच्चस्तरीय प्राणायामों में ‘सोऽहम्’ साधना को सर्वोपरि माना गया है ‘सोऽहम् साधना’ को ‘अजपा जाप’ भी

कहा गया है। मान्यता है कि श्वांस के शरीर में प्रवेश करते समय ‘स’ जैसी, सांस रुकने के तनिक से विराम समय में ‘सो' जैसी और बाहर निकलते समय ‘‘हं’’ जैसी अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि होती रहती है।इसे श्वास क्रिया पर चिरकाल तक ध्यान केन्द्रित

करने की साधना द्वारा सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा सुना जा सकता है। चूंकि ध्वनि सूक्ष्म है स्थूल नहीं ..इसलिए उसे अपने छेद वाले कानों से नहीं ...सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा ..शब्द तन्मात्रा के रूप में ही सुना जा सकता है। कोई खुले कानों से इन शब्दों को सुनने का प्रयत्न करेगा तो उसे कभी भी सफलता न मिलेगी।

3-अनाहत नाद /आहत नाद....नादयोग में किसी भी आवाज को नाद कहते हैं । नाद दो हिस्सों में बांटा गया है - आहद

और अनहद। आहद शब्द आहत से आया है , आहत यानी चोट। आहद नाद वो नाद है जिसे हम कान से सुन सकते हैं और अनहद का मतलब है जो बिना किसी आघात के उत्पन्न होते हैं जिसे महसूस किया जाता है। ‘सोऽहम्’ को अनाहत शब्द कहा

गया है।जब आप शून्य में डूबे होते हैं तो आपको आवाहन की इच्छा होती है- आप धारणा या संकल्प करने लगते हैं। यह योग की पहली पौड़ी होती है। आवाहन का मतलब है किसी भी चीज की बहुत तीव्र इच्छा रखना। आप एक स्पेस शिप का उदाहरण लीजिए। उसका कोई एक हिस्सा शून्य की ब्रह्मांड यात्रा में अलग हो जाता है और फिर दोबारा उस शिप के साथ एक हो जाने के लिए लौट आता है। आवाहन के वक्त यही परिस्थिति होती है और इसे ही हम योग कहते हैं।

4-अनहद भी शून्य के बाद ही आता है। महसूस करने से पहले भी कुछ होता है- और वो शून्य है। मानस की सबसे भोली अवस्था है शून्य... अनहद शून्य से आता है और उसी वक्त आहद भी। आहद एक सोची गई बात है , जिसे आप अनहद से आहद का रूप देते हैं। इन्सान के शरीर में आवाज के पांच खंड कहे गए हैं। पहला नाभि , फिर हृदय , फिर वक्ष , कंठ और उसके बाद मूर्द्धा।नाद सभी खंडों से एक ही वक्त में गूंजता है। होता यह है कि जीवात्मा इन पांच खंडों में से किसी एक घड़ी किसी एक खंड में रहती है , हालांकि आवाज नाद साधना के दौरान बाकी के खंडों में भी महसूस की जाती है। इसका मतलब जीवात्मा वहीं है जहां नाद का ध्यान बना हुआ है।

5-नादयोग में जो दिव्य ध्वनियां सुनी जाती हैं उनके बारे में दो मान्यताएं हैं। एक यह है कि प्रकृति के अन्तराल सागर में पांच तत्वों और सत, रज, तम यह तीन गुणों की जो उथल-पुथल मचती रहती है यह उनकी प्रतिक्रिया है दूसरे यह माना जाता है कि शरीर के भीतर जो रक्त-संचार, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास प्रश्वास जैसी क्रियाएं अनवरत रूप से होती रहती हैं, यह शब्द उन

हलचलों से उत्पन्न होते हैं।इसलिए यह आहत हैं। मुख से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे भी होठ, जीभ, कठ, तालु आदि अवयवों की ...मांस पेशियों की उठक-पटक से उत्पन्न होते हैं; इसलिए जप भी आहत है। आहत से अनाहत का महत्व अधिक माना गया है। अनाहत ब्रह्म चेतना द्वारा निश्चित और आहत प्रकृतिगत हलचलों से उत्पन्न होते हैं इसलिए उनका महत्व भी ब्रह्म और ब्रह्म और प्रकृति की तुलना जैसा ही न्यूनाधिक है।

6-संस्कृत भाषा के स+अहम् शब्दों से मिलकर ‘सोहम्’ का आविर्भाव माना जाता है। जो सनातन ध्वनियां चल रही हैं वे व्याकरण शास्त्र के अनुकूल हैं या नहीं यह सोचना व्यर्थ है। ‘सो’ अर्थात् ‘वह’। ‘अहम्’ अर्थात् ‘मैं’। दोनों का मिला-जुला निष्कर्ष निकला—वह मैं हूं। ‘वह’ अर्थात् परमात्मा—अहम् अर्थात् जीवात्मा। दोनों का समन्वय एकी भाव—‘सोहम्’। आत्मा और परमात्मा एक है, यह अद्वैत सिद्धान्त का समर्थन है। तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म-शिवोहम् सच्चिदानन्दोहम्—शुद्धोसि, बुद्धोसि निरंजनोसि जैसे वाक्यों में इसी दर्शन का प्रतिपादन है। उनमें जीव और ब्रह्म की तात्विक एकता का प्रतिपादन है।‘सोहम्’ को

सद्ज्ञान, तत्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान कहा गया है। इससे आत्मा को अपनी वास्तविक स्थिति समझने, अनुभव करने का संकेत है।यह दिव्य संकेत आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन है।

7-वह वस्तुतः ईश्वर का अंश है। समुद्र और लहरों की, सूर्य और किरणों की, मटाकाश और घटाकाश की, ब्रह्माण्ड और पिण्ड की, आग और चिनगारी की उपमा देकर परमात्मा और आत्मा की एकता का प्रतिपादन करते हुए मनीषियों ने यही कहा है कि

‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ की उक्ति अन्तःकरण के गहनतम स्तर की गहराई तक उतरनी चाहिये। माण्डूक्य’ उपनिषद् में

शरीर, आत्मा, तथा परमात्मा को क्रमशः घट (घड़ा), उसके भीतर सीमाबद्ध आकाश, और बाहर अनंत तक फैले आकाश से

तुलना के माध्यम से समझाया गया है।जिस प्रकार घड़ों के निर्माण पर आकाश विभक्त हो जाता है और उसके अलग-अलग भाग उन घड़ों के अंदर सीमित हो जाते हैं और ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे कि उनके भीतर का रिक्त स्थान बाहर के विस्तृत आकाश से भिन्न है, उसी प्रकार आत्मा (परमात्मा) पदार्थों के मिलन से जीव रूपों में प्रकट होता है ।

8-और घड़ों के टूटकर बिखर जाने पर जैसे उनके भीतर समाये हुए आकाशीय क्षेत्रों का बाह्याकाश से भेद मिट जाता है और वे पुनः बाह्याकाश के साथ एकाकार हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जीवात्माएं पदार्थों के संयोग से विमुक्त होकर परम आत्मा में

विलीन हो जाते हैं ।नाला जब गंगा में मिलता है और बूंद उसमें घुलती है तो दोनों का स्वरूप एवं स्तर एक हो जाता है।

ईंधन जब अग्नि को समर्पण करता है तो वह भी ईंधन न रहकर आग बन जाता है। बूंद जब समुद्र में विलीन होती है तो उसकी तुच्छता असीम विशालता में परिणत हो जाता है। नमक और पानी—दूध और चीनी जब मिलते हैं तो दोनों की पृथकता समाप्त होकर सघन एकता बनकर उभरती है। इसी स्थिति को ‘अद्वैत’ कहते हैं।'' शिवोहम्''—''सच्चिदानन्दोहम्''—''तत्वमसि'' ''अयमात्मा ब्रह्म''—की अनुभूति इसे सर्वोत्कृष्ट अन्तःस्थिति पर पहुंचे हुए साधक को होती है इसी को ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म निर्वाण आदि नामों से पूर्णता के रूप में कहा गया है।

9-एकाग्रता के लिए हर साँस पर ध्यान और उससे भी गहराई में उतर कर सूक्ष्म ध्वनि का श्रवण इन दो प्रयोजनों के अतिरिक्त तीसरा भाव पक्ष है जिसमें यह अनुभूति जुड़ी हुई है कि “मैं वह हूँ” अर्थात् आत्मा, परमात्मा के साथ एकीभूत हो रही है, इसके निमित्त वह सच्चे मन से आत्मसमर्पण कर रही है। यह समर्पण इतना गहरा है कि दोनों के मिलन से एक ही सत्ता मिट जाती है और दूसरे की ही रह जाती है। दीपक जलता है तो लौ के प्रज्ज्वलन में मात्र बत्ती ही दृष्टिगोचर होती है तेज तो नीचे पैंदे में पड़ा अपनी सत्ता बत्ती के माध्यम से प्रकाश के रूप में समाप्त ही करता चला जाता है।

10-ईश्वर जीव को ऊंचा उठाना चाहता है। जीव ईश्वर को नीचे गिराना चाहता है। अस्तु दोनों के बीच रस्साकशी चलती हैऔर खींचतान होती रहती है। न ईश्वर श्रेष्ठ जीवन क्रम देखे बिना सन्तुष्ट होता है और न जीव अपनी न्याय-निष्ठा, कर्म-निष्ठा, कर्म-व्यवस्था तथाकथित पूजा पाठ के कारण छोड़ने को तैयार होता है। ईश्वरअपनी जगह अडिग रहता है और भक्त को तरह-तरह

के उलाहने देने, शिकायतें करने, लांछन लगाने की स्थिति बनी ही रहती है।भक्त ईश्वर को अपने इशारे पर नचाना भर चाहता है। उससे उचित अनुदान मनोकामनायें पूरी कराने की पात्रता-कुपात्रता परखने की आदत छोड़ देने का आग्रह करता रहता है। दोनों अपनी जगह पर अडिग रहें—दोनों की दिशायें एक दूसरे की इच्छा के प्रतिकूल बनी रहें तो फिर एकता कैसे हो, सामीप्य सान्निध्य कैसे सधे? ईश्वर प्राप्ति की आशा कैसे पूर्ण हो?

11-इस कठिनाई का समाधान ‘सोऽहम्’ साधना के साथ जुड़े हुए तत्व ज्ञान में सन्निहित है। दोनों एक-दूसरे से गुंथ जायं ..परस्पर विलीनीकरण हो जाय। भक्त अपने आपको, अन्तःकरण, आकांक्षा एवं अस्तित्व को पूरी तरह समर्पित करदे और उसी के दिव्य संकेतों पर अपनी दिशा धाराओं का निर्धारण करे। इस स्थिति की प्रतिक्रिया द्वैत की समाप्ति और अद्वैत की प्राप्ति के रूप में होती है। जीव ने ब्रह्म को समर्पण किया है तो ब्रह्म की सत्ता स्वभावतः जीवधारी में अवतरित हुई दृष्टिगोचर होने लगेगी। समर्पण एक पक्ष से आरम्भ तो होता है, पर उसकी परिणति उभयपक्षीय एकता में होती है। यही प्रेम योग का रहस्य है। यही भक्त के भगवान बनने का तत्वज्ञान है।

हंसयोग साधना का महत्व और प्रतिफल;-

05 FACTS;-

1-संसोपनिषद् के अनुसार;-

जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि और तिलों में तेल रहता है। उसी प्रकार समस्त वेदों में ‘हंस’ ब्रह्म रहता है। जो उसे जान लेता है सो मृत्यु से छूट जाता है। सोहम् ध्वनि को निरन्तर करते रहने से उसका एक शब्द चक्र बन जाता है जो उलट कर हंस सदृश प्रतिध्वनित होता है। इसी आधार पर उस साधना का एक नाम हंसयोग भी रहा गया है।

2-योग रसायनम् के अनुसार;-

''अभ्यास के अनन्तर चलते, बैठते और सोते समय भी हंस मन्त्र का चिन्तन, (सांस लेते समय ‘सो’ छोड़ते समय ‘ह’ का चिन्तन अभ्यास) परम सिद्धिदायक है। इसे ही ‘हंस’, ‘हसो’ या ‘सोहं’ मन्त्र कहते हैं।जब मन उसे हंस तत्व में लीन हो जाता है तो

मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं और शक्ति रूप, ज्योति रूप, शुद्ध-बुद्ध, नित्य निरंजन ब्रह्म का प्रकाश प्रकाशवान होता है।''

3-ब्रह्म विद्योपनिषद् केअनुसार;-

'प्राणियों की देह में भगवान ‘हंस’ रूप में अवस्थित है। हंस ही परमसत्य है,हंस ही परम् बल है।समस्त देवताओं के

बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर है। हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम् रुद्र है, हंस ही परात्पर है।

समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बनकर विद्यमान है।सदा तन्मयतापूर्वक हंसमन्त्र का जप निर्मल प्रकाश

का ध्यान करते हुए करना चाहिए। इस संसार में ‘हंस’ विद्या के समान और कोई साधन नहीं। इस महाविद्या को देने वाला ज्ञानी सब प्रकार सेवा करने योग्य है।''

4-योग शिखोपनिषद्केअनुसार;-

''हकार से सूर्य या दक्षिण स्वर होता है और साकार से चन्द्र या वाम स्वर होता है। इस सूर्य चन्द्र दोनों स्वरों में समता स्थापित हो जाने का नाम हठयोग है। हम द्वारा सब दोषों की कारणभूत जड़ता का नाश हो जाता है और तब साधक क्षेत्रज्ञ (परमात्मा)

से एकता प्राप्त कर लेता है।''जीवात्मा सहज स्वभाव सोहम् का जप श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ-साथ अनायास ही करता रहता है। यह संख्या औसतन चौबीस घंटे में 21600 के लगभग हो जाती है। अजपा हंस योग ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र की शक्तियों से परिपूर्ण है। इसका जप करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता है।''

5-गोरक्ष संहिता केअनुसार;-

''यह जीव हकार की ध्वनि से बाहर आता है और साकार की ध्वनि से भीतर जाता है इस प्रकार वह सदा ''हंस-हंस'' जप करता रहता है। इस तरह वह एक दिन रात में जीव इक्कीस हजार छह सो मंत्र सदा जपता रहता है।संस्कृत व्याकरण के

आधार पर सोऽहं का संक्षिप्त रूप ॐ हो जाता है।सोहम् पद में से साकार और हकार का लोप करके संधि योजना करके वह

प्रणव ॐकार रूप हो जाता है।हंस योग के अभ्यास का असाधारण महत्व है। उसे कुण्डलिनी जागरण साधना का तो एक अंग ही माना गया है।''

हंसयोग साधना कैसे करे?- 05 FACTS;- 1-सो का तात्पर्य 'परमात्मा' और हम् का 'जीवचेतना' ..समझा जाना चाहिए। सोहम् साधना , स्मृति पटल पर जागृत कर लिया जाय और अभ्यास में उतार लिया जाय तो बिना किसी अतिरिक्त कर्मकाण्ड के यह साधना स्वयमेव चल पड़ती है। नासिका मार्ग से श्वास प्रश्वास क्रिया अनायास ही चलती रहती है।जब उसे व्यवस्थित कर लिया जाता है तो वह भगवद् भक्ति की सर्वांगपूर्ण साधना बन जाती है।श्वास-प्रश्वास के साथ एक सूक्ष्म ध्वनि होती है, वह सहज ही सुनने में नहीं आती। ध्यान एकाग्र करने पर कुछ समय में तीन शब्द उभरने लगते हैं। साँस खींचते समय ‘सो’ और छोड़ते समय ‘हम्’ की ध्वनि होती है। थोड़े अभ्यास से ही कुछ दिनों में इन ध्वनियों की अनुभूति होने लगती है। 2-प्राणायाम के तीन पक्ष हैं (1) साँस खींचने को- पूरक/Inhale (2) साँस रोकने को- कुम्भक/Hold और साँस छोड़ने को- रेचक/Exhale कहते हैं। सोहम् साधना में यह तीनों ही क्रियाएं होती रहती हैं और ‘शब्दब्रह्म’ की साधना भी। साँस लेने समय ‘सो’। रोकते समय (अ-इ) अर्ध आधार और छोड़ते समय ‘हम्’ की ध्वनि होती है उसे कुछ समय के अभ्यास से अनुभव में प्रत्यक्ष उतरने लगते हैं।बाँस की पोली नली में होकर हवा भीतर जाती है सो सीटी बजने जैसी ध्वनि होती है उसी को ‘सो’ समझना चाहिए और नाक के साँस छोड़ते समय सभी जीवधारियों की नासिका में ‘हम्’ शब्द स्पष्ट होता है।

3-साँप की फुसकार में- यह शब्द अधिक स्पष्ट होता है। जिसे फुसकार कहते हैं। साँस खींचने और निकालने के बीच में एक स्वल्प अवधि का विराम होता है। उसे आधा 'अ' कहा जा सकता है। छोड़ते समय की ध्वनि’ “हम” जैसी प्रतीत होती है।

इस प्रकार तीनों क्रियाओं को मिलकर ‘सोऽहम्’ शब्द बन जाता है। सोहम् को उल्टा कर देने पर हंस बन जाते हैं इसलिए इसे हंसयोग भी कहते हैं। वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बांसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है।

4-जंगलों में जहां बांस बहुत उगे होते हैं वहां अक्सर बांसुरी जैसी ध्वनियां सुनने को मिलती हैं। कारण कि बांसों में कहीं- कहीं कीड़े छेद कर देते हैं और उन छेदों से जब हवा वेग पूर्वक टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर प्रवाह सुनने को मिलता है।

वृक्षों से टकराकर जब द्रुत गति से हवा चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। यह वायु के घर्षण की ही प्रतिक्रिया है।नासिका छिद्र भी बांसुरी के छिद्रों की तरह हैं। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहां स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते हैं। 5-पुरानी परिपाटी में षडमुखी मुद्रा का उल्लेख है। मध्यकाल में उसकी आवश्यकता नहीं समझी गई और कान को कपड़े में बँधे मोम की पोटली से कर्ण छिद्रों का बन्द कर लेना पर्याप्त समझा गया । इससे दोनों हाथों को गोदी में रखने और नेत्र अर्धोन्मीलित रखने की ध्यान मुद्रा ठीक तरह सधती और सुविधा रहती थी।अब अनेक आधुनिक अनुभवी, शवासन, शिथिलीकरण मुद्रा में अथवा रात्रि में सोते समय अधिक अच्छी तरह ध्यान लगने का लाभ देखते हैं। आराम कुर्सी का सहारा लेकर भी शरीर को ढीला छोड़ते हुए नादानुसन्धान किया जा सकता हैं। कान बन्द करने के लिए ठीक नाप के शीशियों वाले कार्क अथवा ' इअर कैप' का प्रयोग कर लिया जाता है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 43;- (ध्‍वनि -संबंधी सातवीं विधि) 14 FACTS;- 1-भगवान शिव कहते है:- ''मुंह को थोड़ा-सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्‍थिर करो। अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।'' 2-मन को शरीर में कहीं भी स्‍थिर किया जा सकता है। सामान्‍यत: हमने उसे सिर में स्‍थिर कर रखा है; लेकिन उसे कहीं भी स्‍थिर किया जा सकता है। और स्‍थिर करने के स्‍थान के बदलने से तुम्‍हारी गुणवता बदल जाती है। उदाहरण के लिए, पूर्व के कई देशों में, जापान, चीन, कोरिया आदि में परंपरा से सिखाया जाता है कि मन पेट में है...सिर में नहीं है। और इस कारण उन लोगों के मन के गुण बदल जाते है। जो लोग सोचते है कि मन पेट में है या मन सिर में है; उनके ये गुण नहीं हो सकते। वास्तव में मन कहीं भी नहीं है। सिर में है मस्‍तिष्‍क; मन का अर्थ है एकाग्रता; तुम मन को कही भी स्‍थिर कर सकते हो।और जहां उसे एक बार स्‍थिर कर दोगे वहां से उसे हटाना कठिन होगा। उदाहरण के लिए, अब मनोवैज्ञानिक और मनुष्‍य के गहरे में शोध करने वाले लोग कहते है कि तुम्‍हारे मन के फोकस बदल जाने और सिर से हट जाने पर चेतना कमेंद्रिय पर उतर आती है,मन अ-मन हो जाता है। 3-वास्तव में ,फोकस बदल जाने पर मन अ-मन हो जाता है क्योकि अगर तुम अपने मन के फोकस को बदल देते हो, उसे सिर से हटा लेते हो तो सिर विश्राम में होता है अथार्त चेहरा विश्राम में होता है। तब सभी तनाव विलीन हो जाते है। तब तुम नहीं हो,अथार्त तब अहंकार नहीं है।यही कारण है कि चित जितना बौद्धिक होता है, बुद्धिवादी होता है,उतना ही वह प्रेम करने में असमर्थ हो जाता है ।जब तुम गणित करते हो तो सिर उसके लिए उचित जगह है;लेकिन प्रेम गणित नहीं है। प्रेम में तुम्‍हारा फोकस ह्रदय के पास होने की जरूरत है।लेकिन मन को बदला जा सकता है। तंत्र कहता है कि शरीर में सात चक्र है और मन को उनमें से किसी भी चक्र पर स्‍थिर किया जा सकता है। प्रत्‍येक चक्र का अलग गुण है। और अगर तुम एक विशेष चक्र पर एकाग्र करोगे तो तुम भिन्‍न ही व्‍यक्‍ति हो जाओगे। 4-जापान में एक सैनिक समुदाय हुआ है, जो भारत के क्षत्रियों जैसा है। उन्‍हें समुराई कहते है, उन्‍हें सैनिक के रूप में प्रशिक्षित किया जाता है।और उन्‍हें पहली सीख यह दी जाती है कि तुम अपने मन को सिर से उतार कर नाभि-केंद्र के ठीक दो इंच नीचे ले आओ। जापान में इस केंद्र को हारा कहते हे। समुराई को मन को हारा पर लाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। जब तक समुराई हारा को अपने मन का केंद्र नहीं बना लेना है तब तक उसे युद्ध में भाग लेने की इजाजत नहीं है।और यही उचित है। समुराई संसार के सर्वश्रेष्‍ठ योद्धाओं में गिने जाते है। दुनिया में समुराई का कोई मुकाबला नहीं है। वह भिन्‍न ही किस्‍म का मनुष्‍य है, भिन्‍न ही प्राणी है; क्‍योंकि उसका केंद्र भिन्‍न है।वे कहते है कि जब तुम युद्ध करते हो तो समय नहीं रहता है।

5-और मन को समय की जरूरत पड़ती है। वह हिसाब-किताब करता है। अगर तुम पर कोई आक्रमण करे और उसे समय तुम्‍हारा मन सोच-विचार करने लगे कि कैसे बचाव किया जाए, तो तुम गए; तुम अपना बचाव न कर सकोगे। समय नहीं है; तुम्‍हें तब समयातीत में काम करना होगा। और मन समयातीत में काम नहीं कर सकता है। चाहे कितना भी थोड़ा हो,लेकिन मन को समय चाहिए।नाभि के नीचे एक केंद्र है जिसे हारा कहते है; यह हारा समयातीत में काम करता है। अगर चेतना को हारा पर स्‍थिर किया जाए और तब योद्धा लड़े तो वह युद्ध प्रज्ञा से लड़ा जाएगा ...मस्‍तिष्‍क से नहीं। हारा पर स्‍थिर योद्धा आक्रमण होने के पूर्व जान जाता है कि आक्रमण होने वाला है। यह हारा का एक सूक्ष्‍म भाव है ... बुद्धि का नहीं। 6-यह कोई अनुमान नहीं है; यह टेलीपैथी है। इसके पहले कि तुम उस पर आक्रमण करो, उसके पहले कि तुम उस पर आक्रमण करने की सोचो ;वह विचार उसे पहुंच जाता है। उसके हारा पर चोट लगती है और वह अपना बचाव करने को तत्‍पर हो जाता है। वह आक्रमण होने के पहले ही अपने बचाव में लग जाता है। उसने अपना बचाव कर लिया।कभी-कभी जब दो समुराई आपस में लड़ते है तो हार-जीत मुश्‍किल हो जाती है। समस्‍या यह होती है कि कोई किसी को नहीं हरा सकता। अथार्त किसी को विजेता नहीं घोषित किया जा सकता। एक तरह से निर्णय असंभव है; क्‍योंकि आक्रमण ही नहीं हो सकता। तुम्‍हारे आक्रमण करने के पहले ही वह जान जाता है। 7-एक प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ रामानुजम हुआ। सारा संसार चकित था; क्‍योंकि वह कोई हिसाब-किताब नहीं करता था। तुम उसे कोई भी समस्‍या दो और वह तुरंत उत्‍तर बता देता था। इंग्लैंड का सर्वश्रेष्‍ठ गणितज्ञ हार्डी तो रामानुजम के पीछे पागल था। हार्डी सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ था।लेकिन उसे भी किसी-किसी प्रश्‍न को हल करने में छह-छह घंटे लग जाते थे। लेकिन रामानुजम का हाल यह था कि तुम उसे प्रश्‍न दो और वह उसका उत्‍तर तुरंत बता देता था। इस ढंग से मन के काम करने का कोई उपाय नहीं है। मन को तो समय चाहिए। रामानुजम को बार-बार पूछा गया कि तुम यह कैसे करते हो? वह कहता था कि मैं नहीं जानता; तुम मुझे प्रश्‍न कहते हो और मुझे उसका उत्‍तर आ जाता है। वह कहीं नीचे से आता है। वह मेरे सिर से नहीं आता है। 8-वास्तव में, यह उत्‍तर उसके हारा से आता था। उसे खुद यह बात नहीं मालूम थी। उसे कोई प्रशिक्षण भी नहीं मिला था क्‍योंकि भारत में हमने हारा पर काम नहीं किया है।तंत्र कहता है कि अपने मन को भिन्‍न-भिन्‍न केंद्रों पर स्‍थिर करो और उसके भिन्‍न-भिन्‍न-भिन्‍न परिणाम होंगे। यह विधि मन को जीभ पर, जीभ के मध्‍य भाग पर स्‍थिर करने को कहती है।''मुंह को थोड़ा सा खुला रखते हुए….।''मानो तुम बोलने जा रहे हो।मुंह को बंद नहीं, थोड़ा सा खुला रखना है ..मानो तुम बोलने वाले हो। मुंह को इतना ही खोलों जितना उस समय खोलते हो जब बोलने को होते हो। और तब मन को जीभ के बीच में स्‍थिर करो। तब तुम्‍हें अनूठा अनुभव होगा। क्‍योंकि जीभ के ठीक बीच में एक केंद्र है जो तुम्‍हारे विचारों को नियंत्रित करता है। अगर तुम अचानक सजग हो जाओ और उस केंद्र पर मन को स्‍थिर करो तो तुम्‍हारे विचार बंद हो जाते है। जीभ के ठीक बीच में मन को स्‍थिर करोगे ...तो मानो तुम्‍हारा समस्‍त मन जीभ में चला आता है। 9-मुंह को थोड़ा सा खुला रखो, जैसे कि तुम बोलने जा रहे हो। और तब मन को इस तरह स्‍थिर करो कि वह सिर में न होकर जीभ में आ जाए, जीभ के ठीक मध्‍य भाग में।जीभ में वाणी का, बोलने का केंद्र है; और विचार वाणी है। जब तुम सोचते हो, विचार करते हो तो तुम अपने भीतर बातचीत करते हो। क्‍या तुम भीतर बातचीत किए बिना विचार कर सकते हो? तुम अकेले हो; तुम किसी दूसरे व्‍यक्‍ति के साथ बातचीत नहीं कर रहे हो। लेकिन तब भी तुम विचार कर रहे हो। तब तुम अपने से बातचीत कर रहे हो, उसमें तुम्‍हारी जीभ संलग्‍न है।अगली दफा जब तुम विचार में संलग्‍न होओ तो सजग होकर अपनी जीभ परAttention /अवधान दो। उस वक्‍त तुम्‍हारी जीभ ऐसे कंपित होगी जैसे वह किसी के साथ बातचीत करते समय होती है। फिर Attention दो और तुम्‍हें पता चलेगा कि तरंगें जीभ के मध्‍य में केंद्रित है; वे मध्‍य से उठकर पूरी जीभ पर फैल जाती है। 10-विचार करना अंतस की बातचीत है। और अगर तुम अपनी चेतना को, अपने मन को जीभ के मध्‍य में केंद्रित कर सको तो विचार ठहर जाते है। जो लोग मौन का अभ्‍यास करते है, वे यही तो करते है कि बातचीत के प्रति बहुत बोधपूर्ण हो जाते है। और अगर तुम महीने दो महीने, या वर्ष भर बिलकुल मौन रह सको। बिना बातचीत के रह सको , तो तुम देखोगें कि तुम्‍हारी जीभ कितनी जोर से कंपित होती है। तुम्‍हें इसका पता नहीं चलता है; क्‍योंकि तुम निरंतर बात करते रहते हो। और उससे तरंगों का निरसन हो जाता है।लेकिन अगर अभी भी तुम रुककर अपने विचार के प्रति सजग होओ तो तुम्‍हें मालूम होगा कि जीभ थोड़ी-थोड़ी कंपित हो रही है। अब अपनी जीभ को पूरी तरह ठहरा दो, रोक दो और तब सोचने की चेष्‍टा करो; तुम नहीं सोच पाओगे। जीभ को ऐसे स्‍थिर कर दो जैसे वह जग गई हो। उसमें कोई गति मत होने दो; और तब तुम्‍हारा सोचना-विचारना असंभव हो जाएगा। केंद्र ठीक मध्‍य में है; मन को वहीं स्‍थिर करो। 11-‘’मुंह को थोड़ा-सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्‍थिर करो। अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।‘’यह दूसरी विधि है और पहली जैसी ही है।‘’अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।''पहली विधि से तुम्‍हारा विचार बंद हो जाएगा। तुम अपने भीतर एक ठोसपन अनुभव करोगे—मानो तुम ठोस हो गए हो। जब विचार नहीं होते है तो तुम अचल हो जाते हो ,स्थिर हो जाते हो। और जब विचार नहीं है और तुम अचल हो तो तुम शाश्‍वत के अंग हो जाते हो। यह शाश्‍वत बदलता हुआ लगाता है। लेकिन दरअसल वह अचल है, ठहरा हुआ है। निर्विचार में तुम शाश्‍वत के, अचल के अंग हो जाते हो।विचार के रहते तुम चलायमान के, परिवर्तनशील के अंग हो; क्‍योंकि प्रकृति चलायमान है, संसार चलायमान है। यही कारण है कि हम इसे संसार कहते है। संसार का अर्थ है: चक्र, चाक। यह चल रहा है ; यह सतत घूम रहा है। संसार निरंतर गति है। और जो अदृश्‍य है, परम है, वह अचल है, ठहरा हुआ है। 12-यह ऐसा है जैसे की चाक तो घूमता है। लेकिन जिसके सहारे वह घूमता है वह धुरी अचल है। चाक तभी घूम सकता है जब उसके केंद्र पर कुछ है जो सदा अचल है ...धुरी अचल है। संसार चल रहा है, और ब्रह्मा अचल है। जब विचार विसर्जित होता है तो तुम अचानक इस लोक से दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हो। भीतरी गति के बंद होते ही तुम शाश्‍वत के अंग हो जाते हो ..उस शाश्‍वत के, जो कभी बदलता नहीं है।अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, अकार ध्‍वनि को अनुभव करो। मुंह को थोड़ा-सा खुला रखे, मानों तुम बोलने जा रहे हो। और तब श्‍वास को भीतर ले जाओ। और उस ध्‍वनि के प्रति सजग रहो जो भीतर आती हुई श्‍वास से पैदा होती है। वह ही 'हकार' है। चाहे श्‍वास भीतर जाती है, या बाहर। इस ध्‍वनि को तुम्‍हें पैदा नहीं करना है; तुम्‍हें तो अंदर आती श्‍वास को अपनी जीभ पर केवल महसूस करना है। यह बहुत धीमा स्‍वर है ;लेकिन है। वह हकार जैसा मालूम होता है। वह बहुत मौन है; मुश्‍किल से सुनाई देता है। उसे सुनने के लिए तुम्‍हें बहुत सजग होना पड़ेगा। 13-लेकिन उसे पैदा करने की चेष्‍टा मत करना। अगर तुमने उसे पैदा करने की चेष्‍टा की, तो तुम चूक जाओगे। पैदा की हुई ध्वनि किसी काम की नहीं होती। जब-जब श्‍वास भीतर जाती है या बाहर आती है, तब जो ध्‍वनि अपने आप पैदा होती है वह स्‍वाभाविक है।लेकिन विधि कहती है कि भीतर आती श्‍वास के साथ प्रयोग करना है, बाहर जाती श्‍वास के साथ नहीं। क्‍योंकि बाहर जाती श्‍वास के साथ ..ध्‍वनि के साथ-साथ तुम भी बाहर चले जाओगे। जबकि चेष्‍टा भीतर जाने की है। अंत में, भीतर जाती श्‍वास के साथ हकार ध्‍वनि को अनुभव करो। देर-अबेर तुम्‍हें अनुभव होगा कि यह ध्‍वनि सिर्फ जीभ में ही नहीं, कंठ में भी हो रही है। लेकिन तब वह बहुत ही धीमी हो जाती है। उसे सुनने के लिए प्रगाढ़ जागरूकता की जरूरत है। 14-तो जीभ से शुरू करो;फिर धीरे-धीरे सजगता को बढ़ाओं, उसे महसूस करो। तब तुम उसे कंठ से सुनोंगे। और उसके बाद उसे अपने ह्रदय में सुनने लगोगे। और जब वह ह्रदय में पहुँचती है तो तुम मन के पार चले गए। ये सारी विधियां वह सेतु निर्मित करती है जहां से तुम विचार से निर्विचार में, मन से अ-मन में, सतह से केंद्र में प्रवेश करते हो।सोऽहम् साधना के पूर्व भाग में श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि के साथ जीवन सत्ता पर उस ‘परब्रह्म परमात्मा का शासन आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है। उत्तरार्ध में ‘हम्’ को .. विसर्जित करने का भाव है। सांस निकली साथ-साथ अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ। यही सूत्र का रहस्य है-’अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, अकार ध्‍वनि को अनुभव करो।'' .....SHIVOHAM....

















































































































































































श्वास-प्रश्वास के साथ एक सूक्ष्म ध्वनि होती है, वह सहज ही सुनने में नहीं आती। ध्यान एकाग्र करने पर कुछ समय में तीन शब्द उभरने लगते हैं। साँस खींचते समय ‘सो’ और छोड़ते समय ‘हम्’ की ध्वनि होती है। थोड़े अभ्यास से ही कुछ दिनों में इन ध्वनियों की अनुभूति होने लगती है।

3-प्राणायाम के तीन पक्ष हैं (1) साँस खींचने को- पूरक (2) साँस रोकने को- कुम्भक और साँस छोड़ने को- रेचक कहते हैं। सोहम् साधना में यह तीनों ही क्रियाएं होती रहती हैं और ‘शब्दब्रह्म’ की साधना भी। साँस लेने समय ‘सो’। रोकते समय (अ-इ) अर्ध आधार और छोड़ते समय ‘हम्’ की ध्वनि होती है उसे कुछ समय के अभ्यास से अनुभव में प्रत्यक्ष उतरने लगते हैं।

4-बाँस की पोली नली में होकर हवा भीतर जाती है सो सीटी बजने जैसी ध्वनि होती है उसी को ‘सो’ समझना चाहिए और नाक के साँस छोड़ते समय सभी जीवधारियों की नासिका में ‘हम्’ शब्द स्पष्ट होता है। साँप की फुसकार में- यह शब्द अधिक स्पष्ट होता है। जिसे फुसकार कहते हैं। साँस खींचने और निकालने के बीच में एक स्वल्प अवधि का विराम होता है। उसे आधा 'अ' कहा जा सकता है। छोड़ते समय की ध्वनि’ “हम” जैसी प्रतीत होती है। इस प्रकार तीनों क्रियाओं को मिलकर ‘सोऽहम्’ शब्द बन जाता है। सोहम् को उल्टा कर देने पर हंस बन जाते हैं इसलिए इसे हंसयोग भी कहते हैं।

5-वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बांसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है। जंगलों में जहां बांस बहुत उगे होते हैं वहां अक्सर बांसुरी जैसी ध्वनियां सुनने को मिलती हैं। कारण कि बांसों में कहीं- कहीं कीड़े छेद कर देते हैं और उन छेदों से जब हवा वेग पूर्वक टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर प्रवाह सुनने को मिलता है। वृक्षों से टकराकर जब द्रुत गति से हवा चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। यह वायु के घर्षण की ही प्रतिक्रिया है।

6-नासिका छिद्र भी बांसुरी के छिद्रों की तरह हैं। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहां स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते हैं।

7-पुरानी परिपाटी में षडमुखी मुद्रा का उल्लेख है। मध्यकाल में उसकी आवश्यकता नहीं समझी गई और कान को कपड़े में बँधे मोम की पोटली से कर्ण छिद्रों का बन्द कर लेना पर्याप्त समझा गया । इससे दोनों हाथों को गोदी में रखने और नेत्र अर्धोन्मीलित रखने की ध्यान मुद्रा ठीक तरह सधती और सुविधा रहती थी।

8-अब अनेक आधुनिक अनुभवी, शवासन, शिथिलीकरण मुद्रा में अथवा रात्रि में सोते समय अधिक अच्छी तरह ध्यान लगने का लाभ देखते हैं। आराम कुर्सी का सहारा लेकर भी शरीर को ढीला छोड़ते हुए नादानुसन्धान किया जा सकता हैं। कान बन्द करने के लिए ठीक नाप के शीशियों वाले कार्क अथवा ' इअर कैप' का प्रयोग कर लिया जाता है।

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 43;-

(ध्‍वनि -संबंधी सातवीं विधि)

24 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-

‘’मुंह को थोड़ा-सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्‍थिर करो। अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।‘’

2-मन को शरीर में कहीं भी स्‍थिर किया जा सकता है। सामान्‍यत: हमने उसे सिर में स्‍थिर कर रखा है; लेकिन उसे कहीं भी स्‍थिर किया जा सकता है। और स्‍थिर करने के स्‍थान के बदलने से तुम्‍हारी गुणवता बदल जाती है। उदाहरण के लिए, पूर्व के कई देशों में, जापान, चीन, कोरिया आदि में परंपरा से सिखाया जाता है कि मन पेट में है।सिर में नहीं है। और इस कारण उन लोगों के मन के गुण बदल जाते है। जो सोचते है कि । जो लोग सोचते है कि मन पेट में है या मन सिर में है; उनके ये गुण नहीं हो सकते।

3-असल में मन कहीं भी नहीं है। सिर में है मस्‍तिष्‍क; मन का अर्थ है एकाग्रता; तुम मन को कही भी स्‍थिर कर सकते हो। और जहां उसे एक बार स्‍थिर कर दोगे वहां से उसे हटाना कठिन होगा। उदाहरण के लिए, अब मनोवैज्ञानिक और मनुष्‍य के गहरे में शोध करने वाले लोग कहते है कि तुम्‍हारे मन के फोकस बदल जाने और सिर से हट जाने पर ;चेतना कमेंद्रिय पर उतर आती है,मन अ-मन हो जाता है।

4-फोकस बदल जाने पर क्‍यों मन अ-मन हो जाता है। अगर तुम अपने मन के फोकस को बदल देते हो, अगर तुम उसे सिर से हटा लेते हो तो सिर विश्राम में होता है ;चेहरा विश्राम में होता है। तब सभी तनाव विलीन हो जाते है। तब तुम नहीं हो, तब अहंकार नहीं है।यही कारण

है कि चित जितना बौद्धिक होता है, बुद्धिवादी होता है,उतना ही वह प्रेम करने में असमर्थ हो जाता है । जब तुम गणित करते हो तो सिर उसके लिए उचित जगह है;लेकिन प्रेम गणित नहीं है। प्रेम में तुम्‍हारा फोकस ह्रदय के पास होने की जरूरत है।

5-लेकिन मन को बदला जा सकता है। तंत्र कहता है कि शरीर में सात चक्र है और मन को उनमें से किसी भी चक्र पर स्‍थिर किया जा सकता है। प्रत्‍येक चक्र का अलग गुण है। और अगर तुम एक विशेष चक्र पर एकाग्र करोगे तो तुम भिन्‍न ही व्‍यक्‍ति हो जाओगे।

6-जापान में एक सैनिक समुदाय हुआ है, जो भारत के क्षत्रियों जैसा है। उन्‍हें समुराई कहते है, उन्‍हें सैनिक के रूप में प्रशिक्षित किया जाता है।और उन्‍हें पहली सीख यह दी जाती है कि तुम अपने मन को सिर से उतार कर नाभि-केंद्र के ठीक दो इंच नीचे ले आओ। जापान में इस केंद्र को हारा कहते हे। समुराई को मन को हारा पर लाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। जब तक समुराई हारा को अपने मन का केंद्र नहीं बना लेना है तब तक उसे युद्ध में भाग लेने की इजाजत नहीं है।

7-और यही उचित है। समुराई संसार के सर्वश्रेष्‍ठ योद्धाओं में गिने जाते है। दुनिया में समुराई का कोई मुकाबला नहीं है। वह भिन्‍न ही किस्‍म का मनुष्‍य है, भिन्‍न ही प्राणी है; क्‍योंकि उसका

केंद्र भिन्‍न है।वे कहते है कि जब तुम युद्ध करते हो तो समय नहीं रहता है।और मन को समय की जरूरत पड़ती है। वह हिसाब-किताब करता है। अगर तुम पर कोई आक्रमण करे और उसे समय तुम्‍हारा मन सोच-विचार करने लगे कि कैसे बचाव किया जाए, तो तुम गए; तुम अपना बचाव न कर सकोगे। समय नहीं है; तुम्‍हें तब समयातीत में काम करना होगा। और मन समयातीत में काम नहीं कर सकता है। मन को समय चाहिए।चाहे कितना भी थोड़ा हो, मन को समय चाहिए।

8-नाभि के नीचे एक केंद्र है जिसे हारा कहते है; यह हारा समयातीत में काम करता है। अगर चेतना को हारा पर स्‍थिर किया जाए और तब योद्धा लड़े तो वह युद्ध प्रज्ञा से लड़ा जाएगा। मस्‍तिष्‍क से नहीं। हारा पर स्‍थिर योद्धा आक्रमण होने के पूर्व जान जाता है कि आक्रमण होने वाला है। यह हारा का एक सूक्ष्‍म भाव है। बुद्धि का नहीं।

9-यह कोई अनुमान नहीं है; यह टेलीपैथी है। इसके पहले कि तुम उस पर आक्रमण करो, उसके पहले कि तुम उस पर आक्रमण करने की सोचो। वह विचार उसे पहुंच जाता है। उसके हारा पर चोट लगती है और वह अपना बचाव करने को तत्‍पर हो जाता है। वह आक्रमण होने के पहले ही अपने बचाव में लग जाता है। उसने अपना बचाव कर लिया।

10-कभी-कभी जब दो समुराई आपस में लड़ते है तो हार-जीत मुश्‍किल हो जाती है। समस्‍या यह होती है कि कोई किसी को नहीं हरा सकता। किसी को विजेता नहीं घोषित कर सकता। एक तरह से निर्णय असंभव है; क्‍योंकि आक्रमण ही नहीं हो सकता। तुम्‍हारे आक्रमण करने के पहले ही वह जान जाता है।

11-एक प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ हुआ। सारा संसार चकित था; क्‍योंकि वह कोई हिसाब-किताब नहीं करता था। उसका नाम रामानुजम था। तुम उसे कोई भी समस्‍या दो और वह तुरंत उत्‍तर बता देता था। इंग्लैंड का सर्वश्रेष्‍ठ गणितज्ञ हार्डी तो रामानुजम के पीछे पागल था। हार्डी सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ था। लेकिन उसे भी किसी-किसी प्रश्‍न को हल करने में छह-छह घंटे लग जाते थे। लेकिन रामानुजम का हाल यह था कि तुम उसे प्रश्‍न दो और वह उसका उत्‍तर तुरंत बता देता था। इस ढंग से मन के काम करने का कोई उपाय नहीं है। मन को तो समय चाहिए। रामानुजम को बार-बार पूछा गया कि तुम यह कैसे करते हो? वह कहता था कि मैं नहीं जानता; तुम मुझे प्रश्‍न कहते हो और मुझे उसका उत्‍तर आ जाता है। वह कहीं नीचे से आता है। वह मेरे सिर से नहीं आता है।

12-यह उत्‍तर उसके हारा से आता था। उसे खुद यह बात नहीं मालूम थी। उसे कोई प्रशिक्षण भी नहीं मिला था क्‍योंकि भारत में हमने हारा पर काम नहीं किया है।तंत्र कहता है कि अपने

मन को भिन्‍न-भिन्‍न केंद्रोंपर स्‍थिर करो और उसके भिन्‍न-भिन्‍न-भिन्‍न परिणाम होंगे। यह विधि मन को जीभ पर, जीभ के मध्‍य भाग पर स्‍थिर करने को कहती है।

‘’मुंह को थोड़ा सा खुला रखते हुए….।‘’

13-मानो तुम बोलने जा रहे हो। मुंह को बंद नहीं, थोड़ा सा खुला रखना है—मानो तुम बोलने वाले हो। ऐसा नहीं है कि तुम बोल रहे हो; ऐसा ही कि तुम बोलने जा रहे हो। मुंह को इतना ही खोलों जितना उस समय खोलते हो जब बोलने को होते हो। और तब मन को जीभ के बीच में स्‍थिर करो। तब तुम्‍हें अनूठा अनुभव होगा। क्‍योंकि जीभ के ठीक बीच में एक केंद्र है जो तुम्‍हारे विचारों को नियंत्रित करता है। अगर तुम अचानक सजग हो जाओ और उस केंद्र पर मन को स्‍थिर करो तो तुम्‍हारे विचार बंद हो जाते है। जीभ के ठीक बीच में मन को स्‍थिर करो—मानो तुम्‍हारा समस्‍त मन जीभ में चला आया है।जीभ के ठीक बीच में।

14-मुंह को थोड़ा सा खुला रखो, जैसे कि तुम बोलने जा रहे हो। और तब मन को इस तरह स्‍थिर करो कि वह सिर में न होकर जीभ में आ जाए, जीभ के ठीक मध्‍य भाग में।

जीभ में वाणी का, बोलने का केंद्र है; और विचार वाणी है। जब तुम सोचते हो, विचार करते हो तो क्‍या करते हो? तुम अपने भीतर बातचीत करते हो। क्‍या तुम भीतर बातचीत किए बिना विचार कर सकते हो? तुम अकेले हो; तुम किसी दूसरे व्‍यक्‍ति के साथ बातचीत नहीं कर रहे हो। लेकिन तब भी तुम विचार कर रहे हो। तब तुम विचार कर रहे हो तो क्‍या कर रहे हो? तुम अपने से बातचीत कर रहे हो, उसमें तुम्‍हारी जीभ संलग्‍न है।

15-अगली दफा जब तुम विचार में संलग्‍न होओ तो सजग होकर अपनी जीभ पर अवधान दो। उस वक्‍त तुम्‍हारी जीभ ऐसे कंपित होगी जैसे वह किसी के साथ बातचीत करते समय होती है। फिर अवधान दो और तुम्‍हें पता चलेगा कि तरंगें जीभ के मध्‍य में केंद्रित है; वे मध्‍य से उठकर पूरी जीभ पर फैल जाती है।

16-विचार करना अंतस की बातचीत है। और अगर तुम अपनी चेतना को, अपने मन को जीभ के मध्‍य में केंद्रित कर सको तो विचार ठहर जाते है। जो लोग मौन का अभ्‍यास करते है, वे यही तो करते है कि बातचीत के प्रति बहुत बोधपूर्ण हो जाते है। और अगर तुम महीने दो महीने, या वर्ष भर बिलकुल मौन रह सको। बिना बातचीत के रह सको , तो तुम देखोगें कि तुम्‍हारी जीभ कितनी जोर से कंपित होती है। तुम्‍हें इसका पता नहीं चलता है; क्‍योंकि तुम निरंतर बात करते रहते हो। और उससे तरंगों का निरसन हो जाता है।

17-लेकिन अगर अभी भी तुम रुककर अपने विचार के प्रति सजग होओ तो तुम्‍हें मालूम होगा कि जीभ थोड़ी-थोड़ी कंपित हो रही है। अब अपनी जीभ को पूरी तरह ठहरा दो, रोक दो और तब सोचने की चेष्‍टा करो; तुम नहीं सोच पाओगे। जीभ को ऐसे स्‍थिर कर दो जैसे वह जग गई हो। उसमें कोई गति मत होने दो; और तब तुम्‍हारा सोचना-विचारना असंभव हो जाएगा। केंद्र ठीक मध्‍य में है; मन को वहीं स्‍थिर करो।

18-‘’मुंह को थोड़ा-सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्‍थिर करो। अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।‘’

यह दूसरी विधि है और पहली जैसी ही है।

‘’अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।‘’

पहली विधि से तुम्‍हारा विचार बंद हो जाएगा। तुम अपने भीतर एक ठोसपन अनुभव करोगे—मानो तुम ठोस हो गए हो। जब विचार नहीं होते है तो तुम अचल हो जाते हो ,स्थिर हो जाते हो। और जब विचार नहीं है और तुम अचल हो तो तुम शाश्‍वत के अंग हो जाते हो। यह शाश्‍वत बदलता हुआ लगाता है। लेकिन दरअसल वह अचल है, ठहरा हुआ है। निर्विचार में तुम शाश्‍वत के, अचल के अंग हो जाते हो।

19-विचार के रहते तुम चलायमान के, परिवर्तनशील के अंग हो; क्‍योंकि प्रकृति चलायमान है, संसार चलायमान है। यही कारण है कि हम इसे संसार कहते है। संसार का अर्थ है: चक्र, चाक। यह चल रहा है ; यह सतत घूम रहा है। संसार निरंतर गति है। और जो अदृश्‍य है, परम है, वह अचल है, ठहरा हुआ है।

20-यह ऐसा है जैसे की चाक तो घूमता है। लेकिन जिसके सहारे वह घूमता है वह धुरी अचल है। चाक तभी घूम सकता है जब उसके केंद्र पर कुछ है जो सदा अचल है ...धुरी अचल है। संसार चल रहा है, और ब्रह्मा अचल है। जब विचार विसर्जित होता है तो तुम अचानक इस लोक से दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हो। भीतरी गति के बंद होते ही तुम शाश्‍वत के अंग हो जाते हो ..उस शाश्‍वत के, जो कभी बदलता नहीं है।

‘21-’अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, अकार ध्‍वनि को अनुभव करो।‘’

मुंह को थोड़ा-सा खुला रखे, मानों तुम बोलने जा रहे हो। और तब श्‍वास को भीतर ले जाओ। और उस ध्‍वनि के प्रति सजग रहो जो भीतर आती हुई श्‍वास से पैदा होती है। वह ही 'हकार' है। चाहे श्‍वास भीतर जाती है, या बाहर। इस ध्‍वनि को तुम्‍हें पैदा नहीं करना है; तुम्‍हें तो अंदर आती श्‍वास को अपनी जीभ पर केवल महसूस करना है। यह बहुत धीमा स्‍वर है ;लेकिन है। वह हकार जैसा मालूम होता है। वह बहुत मौन है; मुश्‍किल से सुनाई देता है। उसे सुनने के लिए तुम्‍हें बहुत सजग होना पड़ेगा।

22-लेकिन उसे पैदा करने की चेष्‍टा मत करना। अगर तुमने उसे पैदा करने की चेष्‍टा की, तो तुम चूक जाओगे। पैदा की हुर्इ ध्वनि किसी काम की नहीं होती। जब-जब श्‍वास भीतर जाती है या बाहर आती है, तब जो ध्‍वनि अपने आप पैदा होती है वह स्‍वाभाविक है।लेकिन विधि कहती

है कि भीतर आती श्‍वास के साथ प्रयोग करना है, बाहर जाती श्‍वास के साथ नहीं। क्‍योंकि बाहर जाती श्‍वास के साथ तुम भी बाहर चले जाओगे। ध्‍वनि के साथ-साथ तुम भी बाहर चले जाओगे। जबकि चेष्‍टा भीतर जाने की है।

23-अंत में, भीतर जाती श्‍वास के साथ हकार ध्‍वनि को अनुभव करो। देर-अबेर तुम्‍हें अनुभव होगा कि यह ध्‍वनि सिर्फ जीभ में ही नहीं, कंठ में भी हो रही है। लेकिन तब वह बहुत ही धीमी हो जाती है। उसे सुनने के लिए प्रगाढ़ जागरूकता की जरूरत है।तो जीभ से शुरू करो;

फिर धीरे-धीरे सजगता को बढ़ाओं, उसे महसूस करो। तब तुम उसे कंठ से सुनोंगे। और उसके बाद उसे अपने ह्रदय में सुनने लगोगे। और जब वह ह्रदय में पहुँचती है तो तुम मन के पार चले गए। ये सारी विधियां वह सेतु निर्मित करती है जहां से तुम विचार से निर्विचार में, मन से अ-मन में, सतह से केंद्र में प्रवेश करते हो।

24-सोऽहम् साधना के पूर्व भाग में श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि के साथ जीवन सत्ता पर उस ‘परब्रह्म परमात्मा का शासन आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है। उत्तरार्ध में ‘हम्’ को—अहंता को—विसर्जित करने का भाव है। सांस निकली साथ-साथ अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ। यही सूत्र का

रहस्य है-’अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, अकार ध्‍वनि को अनुभव करो।‘’

.....SHIVOHAM....

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