विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 53,54 वीं विधियां (आत्म-स्मरण की चार विधियां)क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 53 ;- -
(आत्म-स्मरण की पहली विधि)
14 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’हे कमलाक्षी, हे, सुभगे, गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए यह बोध बना रहे कि मैं हूं, और शाश्वत आविर्भूत/Invented होता है।''
2-हम है,लेकिन हमें बोध नहीं है कि हम है।हमें आत्म-स्मरण नहीं है। तुम खा रहे हो, या तुम स्नान कर रहे हो, या टहल रहे हो।लेकिन टहलते हुए तुम्हें इनका बोध नहीं है कि 'मैं' हूं। 'मैं' हूं,सब कुछ है, केवल तुम सजग नहीं हो।तुम अपने चारों ओर की चीजों के प्रति सजग हो, लेकिन सिर्फ अपने होने के प्रति कि मैं हूं, सजग नहीं हो।लेकिन अगर तुम सारे संसार के प्रति सजग हो लेकिन अपने प्रति सजग नहीं हो तो सब सजगता झूठी है।क्योंकि तुम्हारा मन सबको प्रतिबिंबित कर सकता है ;लेकिन वह तुम्हें प्रतिबिंबित नहीं कर सकता।और अगर तुम्हें अपना बोध है तो तुम मन के पार चले गए।
3-तुम्हारा आत्म-स्मरण तुम्हारे मन में प्रतिबिंबित नहीं हो सकता, क्योंकि तुम मन के पीछे हो। मन उन्हीं चीजों को प्रतिबिंबित करता है जो उसके सामने होती है। तुम केवल दूसरों को देख सकते हो परन्तु अपने को नहीं देख सकते। तुम्हारी आंखें सबको देख सकती है ;लेकिन अपने को नहीं देख सकती।अगर तुम अपने को देखना चाहो तो तुम दर्पण में ही अपने आप को देख सकते हो।तुम्हारा मन भी दर्पण है जो सारे संसार को प्रतिबिंबित कर सकता है ;लेकिन तुम्हें प्रतिबिंबित नहीं कर सकता। क्योंकि तुम अपने सामने नहीं खड़े हो सकते ;तुम सदा दर्पण के पीछे हो।
4-यह विधि कहती है कि कुछ भी करते हुए ,गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए ..यह बोध बना रहे कि मैं हूं, और शाश्वत को आविर्भूत/Invented कर लो। अपने भीतर उसे आविष्कृत कर लो जो सतत प्रवाह है, उर्जा है, जीवन है, शाश्वत है।लेकिन हमें
अपना बोध नहीं है।पश्चिम में संत गुरजिएफ ने आत्म-स्मरण का प्रयोग एक बुनियादी विधि के रूप में किया जो इसी सूत्र से लिया गया है।संत गुरजिएफ की सारी साधना इसी एक सूत्र पर आधारित है कि तुम कुछ भी करते हुए अपने को स्मरण
रखो।यह सरल मालूम होता है लेकिन बहुत कठिन है। तुम तीन या चार सेकेंड के लिए भी अपना स्मरण नहीं रख सकते। तुम्हें लगता है कि मैं अपना स्मरण कर रहा हूं और अचानक तुम किसी दूसरे विचार में चले जाते हो । अगर यह विचार भी उठा कि ठीक है, मैं तो अपना स्मरण कर रहा हूं तो तुम चूक गये क्योंकि यह विचार आत्म-स्मरण नहीं है।
5-आत्म-स्मरण में कोई विचार नहीं होता है। तुम बिलकुल रिक्त और खाली होगे। और आत्म-स्मरण कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है।यह कहते ही कि हां, मैं हूं, तो तुम चूक गये। 'मैं हूं', यह सोचना एक मानसिक कृत्य है।इसीलिए यह अनुभव करो कि मैं हूं। उसे शब्द मत दो, बस अनुभव करो कि मैं हूं, इन शब्दों को नहीं अनुभव करना है। सोचो मत, अनुभव करो ,प्रयोग
करो।लेकिन अगर तुम प्रयोग में लगन से लगे रहे तो यह घटित होता है। टहलते हुए स्मरण रखो कि मैं हूं। अपने होने को महसूस करो। ऐसे किसी विचार या धारणा को नहीं लाना है। बस महसूस करना है।तुम्हारी माँ यदि तुम्हारे सिर पर अपना हाथ रखती है तो उसे शब्द मत दो। सिर्फ स्पर्श को अनुभव करो। और इस अनुभव में स्पर्श को ही नहीं, स्पर्शित को भी अनुभव करो।
6-तब तुम्हारी चेतना के तीर में दो फलक होंगे।तुम वृक्षों की छाया में टहल रहे हो; वृक्ष है, हवा है, उगता सूरज है, यह है तुम्हारे चारो ओर का संसार और तुम उसके प्रति सजग हो। घूमते हुए ,क्षण भर के लिए ठिठक जाओ और अचानक स्मरण करो कि 'मैं हूं'। यह शब्द, यह अनुभूति, क्षण मात्र के लिए ही सही ;तुम्हें सत्य की एक झलक दे जायेगी। क्षण भर के लिए तुम
अपने अस्तित्व के केंद्र पर फेंक दिये जाते हो। तुम दर्पण के पीछे हो, तुम प्रतिबिंबों के, जगत के पार चले गए हो।जब तुम अपने अस्तित्व में हो तो यह प्रयोग तुम किसी भी समय कर सकते हो। इसके लिए न किसी खास जगह की जरूरत है और न किसी समय की। तुम यह नहीं कह सकते कि मेरे पास समय नहीं है। तुम भोजन करते हुए इसका प्रयोग कर सकते हो। तुम स्नान करते हुए ,चलते हुए या बैठे हुए ;किसी समय भी यह प्रयोग कर सकते हो। कोई भी काम करते हुए अचानक अपना स्मरण करो और फिर अपने होने की उस झलक को जारी रखने की चेष्टा करो।
7-यह कठिन होगा क्योकि एक क्षण लगेगा कि यह रहा और दूसरे क्षण यह विदा हो जाएगा। कोई विचार प्रवेश कर जायेगा। कोई प्रतिबिंब, कोई चित्र मन में तैर जायेगा और तुम उसमें उलझ जाओगे। उससे दुःखी या निराश मत होना। ऐसा होता है, क्योंकि हम जन्मों-जन्मों से प्रतिबिंबों में उलझे रहे है। यह यंत्रवत प्रक्रिया बन गई है।लेकिन अगर एक क्षण के लिए भी
तुम्हें झलक मिल गई तो वह प्रारंभ के लिए काफी है। क्योंकि तुम्हें कभी दो क्षण एक साथ नहीं मिलेंगे। सदा एक क्षण ही तुम्हारे हाथ में होता है। और अगर तुम्हें एक क्षण के लिए भी झलक मिल जाए तो तुम उसमें ज्यादा बने रह सकते हो। सिर्फ सतत चेष्टा की जरूरत है ।तुम्हें एक क्षण ही दिया जाता है ; दो क्षण तो कभी एक साथ नहीं आते। और अगर तुम्हें एक क्षण के भी लिए बोध हो सके तो जीवन भर के लिए बोध बना रह सकता है। अब सिर्फ प्रयत्न चाहिए। और यह प्रयोग सारा दिन चल सकता है कि जब भी स्मरण आए, अपने को स्मरण करो।
8-जब सूत्र कहता है कि ‘’बोध बना रहे कि मैं हूं’’, तो क्या तुम याद करोगे कि मेरा नाम ये है या और कुछ है। क्या तुम स्मरण करोगे कि मैं फलां परिवार का , फलां धर्म का , फलां परंपरा का या अमुक देश ,जाति का हूं । कि मैं कम्युनिस्ट हूं, या
हिंदू हूं, ईसाई हूं ।यह सूत्र इतना ही कहता है कि ‘’बोध बना रहे कि मैं हूं’’। किसी नाम या किसी देश कि जरूरत नहीं है। सिर्फ होने की जरूरत है कि तुम हो। तो अपने से मत कहो कि यह हूं, वह हूं। तुम हो, केवल इस अस्तित्व को स्मरण करो।
लेकिन यह कठिन हो जाता है। क्योंकि हम कभी मात्र अस्तित्व को स्मरण नहीं करते ।हम सदा उसे स्मरण करते है जो एक लेबल है, पदवी है, नाम है,परन्तु वह अस्तित्व नहीं है।
9-जब भी तुम अपने बारे में सोचते हो, तुम अपने नाम, धर्म देश, इत्यादि की सोचते हो ।तुम कभी इस मात्र आस्तित्व की नहीं सोचते हो कि 'मैं हूं'।तुम इसकी साधना कर सकते हो।अपनी कुर्सी में या किसी पेड़ के नीचे विश्राम पूर्वक बैठ जाओ, सब
कुछ भूल जाओ और इस अपने होनेपन को अनुभव करो। न ईसाई हो, न हिंदू हो, न बौद्ध हो, न जैन हो, न अंग्रेज , न जर्मन, ..बस तुम हो। इसकी प्रतीति भर हो और तब तुम्हें यह याद रखना आसान होगा कि 'मैं हूं', जो यह सूत्र कहता है कि ''बोध बना रहे कि मैं हूं, और शाश्वत आविर्भूत होता है।''जिस क्षण तुम्हें बोध होता है कि मैं कौन हूं, उसी क्षण तुम्हें शाश्वत की धारा में
फेंक दिया जाता है। जो असत्य है, उसकी मृत्यु निश्चित है। केवल सत्य शेष रह जाता है।और यही कारण है कि हम मृत्यु से इतना डरते है। क्योंकि झूठ को मिटना ही है।
10-असत्य सदा नहीं रह सकता और हम असत्य से बंधे है , तादात्म्य किए बैठे है। तुममें जो हिंदू है ;वह तो मरेगा—जो-
जो नाम,रूप है वह मरेगा।लेकिन तुम्हारे भीतर जो सत्य है ,जो अस्तित्वगत है, जोआधारभूत है, वह अमृत है। जब नाम रूप भूल जाते है और तुम्हारी दृष्टि भीतर एक अनाम और अरूप पर पड़ती है, तब तुम शाश्वत में प्रवेश कर गए।
यह विधि अत्यंत कारगर विधियों में से एक है और हजारों साल से सदगुरूओं ने इसका प्रयोग किया है। गौतम बुद्ध इसे उपयोग में लाए, महावीर लाए, जीसस क्राइस्ट लाए और आधुनिक जमाने में संत गुरूजिएफ ने इसका उपयोग किया। सभी विधियों में इस विधि की क्षमता सर्वाधिक है।इसका प्रयोग करो।परन्तु यह समय लेगा, महीनों भी लग सकते है।
11-जब ओस्पेंस्की संत गुरूजिएफ के पास साधना कर रहा था तो उसे तीन महीने तक इस बात के लिए बहुत श्रम करना पडा कि आत्म-स्मरण की एक झलक मिले। निरंतर तीन महीने तक ओस्पेंस्की एक एकांत घर में रहकर, आत्म स्मरण का ही प्रयोग करता रहा। तीस व्यक्तियों ने उस प्रयोग में हिस्सा लिया। और पहले ही सप्ताह के खत्म होते-होते सत्ताईस व्यक्ति भाग खड़े हुए। सिर्फ तीन बचे। सारा दिन वे और कोई काम नहीं करते थे। सिर्फ स्मरण करते थे कि मैं हूं। सत्ताईस लोगों को ऐसा लगा कि इस प्रयोग से 'हम' पागल हो जाएंगे। हमारे विक्षिप्त होने के सिवाय कोई चारा नहीं है और वे गायब हो गये। वे फिर कभी वापस नहीं आये।जो नहीं जानते है कि हम क्या है, हम कौन है, वे पागल ही है।
12-हम जैसे है,असल में हम विक्षिप्त /पागल ही है। लेकिन हम इस विक्षिप्तता को ही स्वास्थ्य माने बैठे है। जब तुम पीछे लौटने की कोशिश करोगे[ सत्य से संपर्क साधोगे तो वह विक्षिप्तता जैसा ही मालूम पड़ेगा। हम जैसे है, जो है उसकी पृष्ठभूमि से
सत्य ठीक विपरीत है। और अगर तुम जैसे हो उसको ही स्वास्थ्य मानते हो तो सत्य जरूर पागलपन मालूम पड़ेगा।लेकिन तीन व्यक्ति प्रयोग में लगे रहे। उन तीन में पी. डी. ओस्पेंस्की भी एक था। वे तीन महीने तक प्रयोग में जुटे रहे। पहले महीने के बाद उन्हें मात्र होने की—कि "मैं हूं", झलक मिलने लगी। दूसरे महीने के बाद "मैं" भी गिर गया और उन्हें मात्र होनेपन की ,हूंपन की झलक मिलने लगी। इस झलक में मात्र होना था। मैं भी नहीं था, क्योंकि मैं भी एक संज्ञा है। शुद्ध अस्तित्व न मैं है ,न तू, वह बस है। और तीसरे महीने के बाद 'हूंपन' का भाव भी विसर्जित हो गया। क्योंकि हूं-पन का भाव भी एक शब्द है। यह शब्द भी विलीन हो जाता है। तब तुम बस हो और तब तुम जानते हो कि तुम कौन हो।
13-इस घड़ी के आने के पूर्व तुम नहीं पूछ सकते कि मैं कौन हूं। या तुम सतत पूछते रह सकते हो कि मैं कौन हूं। और मन जो भी उत्तर देगा वह गलत होगा ,अप्रासंगिक होगा। तुम पूछते जाओ कि' मैं कौन हूं' और एक क्षण आएगा जब तुम यह प्रश्न नहीं पूछ सकते। पहले सब उत्तर गिर जाते है और फिर खुद प्रश्न भी गिर जाता है और खो जाता है। संत गुरजिएफ ने एक सिरे से इस विधि का प्रयोग किया: सिर्फ यह स्मरण रखना है कि मैं हूं।महर्षि रमण ने इसका प्रयोग दूसरे सिरे से किया। उन्होंने इस खोज को कि ‘’मैं कौन हूं‘’ इस पर पूरा ध्यान दिया।और इसके उत्तर में मन जो भी कहे उस पर विश्वास मत करो...यह कहा। मन कहेगा कि क्या व्यर्थ का सवाल उठा रहे हो। मन कहेगा कि तुम यह हो, तुम वह हो, कि तुम मर्द हो ,तुम औरत हो , तुम शिक्षित हो, अशिक्षित हो, कि गरीब हो, अमीर हो, मन उत्तर दिए जाता है। लेकिन तुम प्रश्न पूछते चले जाना। कोई भी उत्तर मत स्वीकार करना। क्योंकि मन के दिए गये सभी उत्तर गलत होगे।
14-वे उत्तर तुम्हारे झूठे हिस्से से आते है। वे शब्दों से ,शास्त्रों से ,तुम्हारे संस्कारों और समाज से आते है। सच तो यह है कि वे सब के सब दूसरों से आते है। तुम्हारे नहीं है। तुम पूछे ही चले जाओ कि ''मैं कौन हूं''। इन तीन शब्दों को गहरे से गहरे
में उतरने दो।एक क्षण आएगा जब कोई उत्तर नहीं आएगा ...वह सम्यक क्षण होगा।अब तुम उत्तर के करीब हो। जब कोई उत्तर नहीं आता है, तुम उत्तर के करीब होते हो। क्योंकि अब मन मौन हो रहा है। अब तुम मन से बहुत दूर निकल गए हो। जब कोई उत्तर नहीं होगा और जब तुम्हारे चारो और एक शून्य निर्मित हो जाएगा तो तुम्हारा प्रश्न पूछना व्यर्थ मालूम
होगा।अचानक तुम्हारा प्रश्न भी गिर जायेगा। और प्रश्न के गिरते ही मन का आखिरी हिस्सा भी गिर गया ,खो गया क्योंकि यह प्रश्न भी मन का ही था। वे उत्तर भी मन के थे और यह प्रश्न भी मन का था। दोनों विलीन हो गए। अब तुम बस हो।इसे
प्रयोग करो।अगर तुम लगन से लगे रहे तो पूरी संभावना है कि यह विधि तुम्हें सत्य की झलक दे जाए और ''सत्य'' शाश्वत है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 54 ;-
(आत्म-स्मरण की पहली विधि)
12 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
(आत्म-स्मरण की दूसरी विधि)
‘’जहां-जहां, जिस किसी कृत्य में संतोष मिलता हो, उसे वास्तविक करो।‘’
2-तुम्हें प्यास लगी है, तुम पानी पीते हो, उससे एक सूक्ष्म संतोष प्राप्त होता है। पानी को भूल जाओ। प्यास को भी भूल जाओ और जो सूक्ष्म संतोष अनुभव हो रहा है उसके साथ रहो। उस संतोष से भर जाओ, बस संतुष्ट अनुभव करो।लेकिन मनुष्य का
मन बहुत उपद्रवी है।वह केवल असंतोष और अतृप्ति का अनुभव करता है। वह कभी संतोष को अनुभव नहीं करता। अगर
तुम असंतुष्ट हो तो तुम उसे अनुभव करोगे और अंसतोष से भर जाओगे।जब तुम प्यासे हो तो तुम्हें प्यास अनुभव होती है। तुम्हारा गला सूखता है। और अगर प्यास और बढ़ती है तो वह पूरे शरीर में महसूस होने लगती है। और एक क्षण ऐसा भी आता है जब तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि मैं प्यासा हूं, तुम्हें लगता है कि मैं प्यास ही हो गया। अगर तुम किसी मरुस्थल में हो और पानी मिलने की कोई भी आशा नहीं हो तो तुम्हें ऐसा नहीं लगेगा कि मैं प्यासा हूं, तुम्हें लगेगा की मैं प्यास ही हो गया हूं।
3-असंतोष अनुभव में आता है, दुःख और संताप अनुभव में आते है। जब तुम दुःख में होते हो तो तुम दुःख ही बन जाते हो। यही कारण है कि पूरा जीवन नरक हो जाता है। तुमने कभी सकारात्मक को अनुभव नहीं किया। तुमने सदा नकारात्मक को अनुभव किया है। जीवन वैसा दुःख नहीं है जैसा हमने उसे बना रखा है। दुःख हमारी महज व्याख्या है।ब्रह्मज्ञानी यहीं और
अभी सुख में है ;इसी जीवन में सुखी है।इसी जीवन में यही और अभी , श्रीकृष्ण नाच रहे है और बांसुरी बजा रहे है। जहां हम दुःख में है, वही श्रीकृष्ण नाच सकते है। जीवन न दुःख है और न जीवन आनंद है, दुःख और आनंद हमारी व्याख्याएं है। हमारी दृष्टियां है, हमारे रुझान है, हमारे देखने के ढंग है। यह तुम्हारे मन पर निर्भर है कि वह जीवन को किस तरह लेता है।
4-अपने ही जीवन को स्मरण करो और विश्लेषण करो।क्या तुमने कभी संतोष के, परितृप्ति के, सुख के, आनंद के क्षणों का हिसाब रखा है? तुमने उसका कोई हिसाब नहीं रखा है। लेकिन तुमने अपने दुःख, पीड़ा और संताप का खूब हिसाब रखा है। और तुम्हारे पास इसका बड़ा संग्रह है। तुम एक संग्रहीत नरक हो और यह तुम्हारा चुनाव है। कोई दूसरा तुम्हें इस नरक में
नहीं ढकेल रहा है। यह तुम्हारा ही चुनाव है।मन नरक को पकड़ता है, उसका संग्रह करता है और फिर खुद नरक बन जाता है। और फिर वह दुस्चक्र हो जाता है। तुम्हारे चित में जितना नकार इकट्टा होता है। तुम उतने ही नकारात्मक हो जाते हो। और फिर नकार का संग्रह बढ़ता जाता है। समान-समान को आकर्षित करता है। और यह सिलसिला जन्मों-जन्मों से चल रहा है। तुम अपनी नकारात्मक दृष्टि के कारण सब कुछ चूक रहे हो।
5-यह विधि तुम्हें सकारात्मक दृष्टि देती है। यह विधि सामान्य मन और उसकी प्रक्रिया के बिलकुल विपरीत है। जब भी संतोष मिलता हो, जिस किसी कृत्य में भी संतोष मिलता हो [उसे वास्तविक रूप से अनुभव करो, उसके साथ हो जाओ। यह
संतोष किसी बड़े सकारात्मक अस्तित्व की झलक बन सकता है।यहां हर चीज महज एक खिड़की है। अगर तुम किसी दुःख के साथ तादात्म्य करते हो तो तुम दुःख की खिड़की से झांक रहे हो। और दुःख और संताप की खिड़की नरक की तरह ही खुलती है। और अगर तुम किसी संतोष के क्षण के साथ आनंद और समाधि के क्षण के साथ एकात्म होते हो तो तुम दूसरी खिड़की खोल रहे हो। अस्तित्व तो वही है, लेकिन तुम्हारी खिड़कियाँ अलग-अलग है।
6-बेशर्त, जहां कही भी संतोष मिले, उसे जीओं।जहां-जहां, जिस किसी कृत्य में संतोष मिलता हो, उसे वास्तविक करो। तुम किसी मित्र से मिलते हो और तुम्हें प्रसन्नता अनुभव होती है। तुम्हें अपने किसी से मिलकर सुख अनुभव होता है। इस अनुभव को वास्तविक बनाओ, उस क्षण सुख ही हो जाओ और उस सुख को द्वार बना लो। तब तुम्हारा मन बदलने लगेगा। और तब तुम सुख इकट्ठा करने लगोगे। तब तुम्हारा मन सकारात्मक होने लगेगा।और वही जगह भिन्न दिखने लगेगी।जगत वही है,
लेकिन कुछ भी वही नहीं है, क्योंकि मन वही नहीं है। सब कुछ वही रहता है, लेकिन कुछ भी वहीं नहीं रहता है, क्योंकि मन
बदल जाता है।तुम संसार को बदलने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम कछ भी करो ;जगत तो वही रहता है। क्योंकि तुम वही के वही रहते हो। तुम एक बड़ा घर बना लेते हो, तुम्हें एक बड़ी कार मिल जाती है। तुम्हें सुंदर पत्नी मिल जाती है। लेकिन उससे कुछ भी नहीं बदलेगा। बड़ा घर बड़ा नहीं होगा। सुंदर पत्नी सुंदर नहीं होगी। बड़ी कार भी छोटी ही रहेगी। क्योंकि तुम वहीं के वहीं हो।
7-तुम्हारा मन, तुम्हारा रुझान, सब कुछ वहीं के वही है। तुम चीजें तो बदल लेते हो लेकिन अपने को नहीं बदलते। एक दुःखी आदमी झोपड़ी को छोड़कर महल में रहने लगता है, लेकिन अपने को नहीं बदलता, तो पहले वह झोंपड़े में दुःखी था, अब वह महल में दुःखी है। उसका दुःख महल का दुःख होगा, लेकिन वह दुःखी होगा।तुम अपने साथ अपने दुःख लिए चल
रहे हो और तुम जहां भी जाओगे अपने साथ रहोगे। इसलिए बुनियादी तौर पर बाहरी बदलाहट नहीं है। वह बदलाहट का आभास है। तुम्हें लगता है कि बदलाहट हुई, लेकिन दरअसल बदलाहट नहीं होती है।केवल एक बदलाहट, केवल एक क्रांति,
केवल एक आमूल रूपांतरण संभव है और वह यह कि तुम्हारा चित नकारात्मक से सकारात्मक हो जाए। अगर तुम्हारी दृष्टि दुःख से बंधी है तो तुम नरक में हो और अगर तुम्हारी दृष्टि सुख से जुड़ी है तो वही नरक स्वर्ग हो जाता है। इसे प्रयोग करो, यह तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता को रूपांतरित कर देगा।लेकिन तुम तो गुणवत्ता में नहीं, परिमाण में उत्सुक हो;
कि कैसे ज्यादा धन हो जाए।
8-तुम धन की गुणवत्ता में नहीं, उसकी मात्रा में उत्सुक हो और सच्चाई यही है कि,एक अमीर आदमी दरिद्र हो सकता है। जो व्यक्ति वस्तुओ और वस्तुओ के परिमाण में उत्सुक है वह इस बात से सर्वथा अपरिचित है कि उसके भीतर एक और आयाम है, जो गुणवत्ता का आयाम है। और यह आयाम जब बदलता है तब तुम्हारा मन सकारात्मक होता है।
तो कल सुबह से दिन भर यह स्मरण रहे: जब भी कुछ सुंदर और संतोषजनक हो, जब भी कुछ आनंददायक अनुभव आए, उसके प्रति बोधपूर्ण होओ। चौबीस घंटों में ऐसे अनेक क्षण आते है—सौंदर्य, संतोष और आनंद के क्षण—ऐसे अनेक क्षण आते है जब स्वर्ग तुम्हारे बिलकुल करीब होता है। लेकिन तुम नरक से इतने आसक्त हो, इतने बंधे हो कि उन क्षणों को चूकते चले जाते हो। सूरज उगता है, फूल खिलते है, पक्षी चहचहाते है, पेड़ों से होकर हवा गुजरती है। वैसे क्षण घटित हो रहे है। एक बच्चा निर्दोष आंखों से तुम्हें निहारता है। और तुम्हारे अंदर भी एक सूक्ष्म सुख का भाव उदित हो जाता है। या किसी की मुस्कुराहट तुम्हें आह्लाद से भर देती है।
9-अपने चारों ओर देखो और उसे खोजों जो आनंददायक है और उससे पूरित हो जाओ, भर जाओ। उसका स्वाद लो, उससे भर जाओ और उसे अपने पूरे प्राणों पर छा जाने दो, उसके साथ एक हो जाओ। उसकी सुगंध तुम्हारे साथ रहेगी। वह अनुभूति पूरे दिन तुम्हारे भीतर गूँजती रहेगी। और वह अनुगूँज तुम्हें ज्यादा सकारात्मक होने में सहयोगी होगी।
यह प्रक्रिया भी धीरे-धीरे ...और-और बढ़ती जाती है। यदि सुबह शुरू करो तो शाम तक तुम सितारों के प्रति, चाँद के प्रति, रात के प्रति, अंधेरे के प्रति, ज्यादा खुले होगे। इसे एक चौबीस घंटे ,प्रयोग की तरह करो और देखो कि कैसा लगता है। और एक बार तुमने जान लिया कि सकारात्मकता तुम्हें दूसरे ही जगत में ले जाती है ;तो तुम उससे कभी अलग नहीं होगे। तब तुम्हारा पूरा दृष्टिकोण नकारात्मक से सकारात्मक में बदल जाएगा। तब तुम संसार को एक भिन्न दृष्टि से, एक नयी दृष्टि से देखोगें।
10- एक उदाहरण है ...गौतम बुद्ध का एक शिष्य अपने गुरु से विदा ले रहा था। शिष्य का नाम था पूर्णकाश्यप। उसने गौतम बुद्ध से पूछा कि मैं आपका संदेश लेकर कहां जाऊं? गौतम बुद्ध ने कहा कि तुम खुद ही चुन लो। पूर्ण काश्यप ने कहा कि ''मैं बिहार के एक सुदूर हिस्से की तरफ जाऊँगा ..उसका नाम सूखा है .. मैं सूखा प्रांत की तरफ जाऊँगा।''
गौतम बुद्ध ने कहा कि अच्छा हो कि तुम अपना निर्णय बदल लो, तुम किसी और जगह जाओ क्योंकि सूखा प्रांत के लोग बड़े क्रूर, हिंसक, और दुष्ट है।और अब तक कोई व्यक्ति वहां उन्हें अहिंसा, प्रेम और करूणा का उपदेश सुनाने नहीं गया है। इसलिए अपना चुनाव बदल डालों। पर पूर्ण काश्यप ने कहा: मुझे जाने की आज्ञा दें, क्योंकि वहां कोई नहीं गया है और किसी को तो जाना ही चाहिए।
11-गौतम बुद्ध ने कहा की इससे पहले मैं तुम्हें वहां जाने की आज्ञा दूँ। मैं तुमसे तीन प्रश्न पूछना चाहता हूं। अगर उस प्रांत के लोग तुम्हारा अपमान करें तो तुम्हें कैसा लगेगा? पूर्ण काश्यप ने कहा: मैं समझूंगा कि वे बड़े अच्छे लोग है। जो केवल मेरा अपमान कर रहे है, वे मुझे मार भी सकते थे। गौतम बुद्ध ने कहा अब दूसरा प्रश्न, अगर वे लोग तुम्हें मारें-पीटें भी तो तुम्हें कैसा लगेगा? पूर्ण काश्यप ने कहा: मैं समझूंगा कि वे बड़े अच्छे लोग है। वे मेरी हत्या भी कर सकते थे। लेकिन वे सिर्फ मुझे
पीट रहे है।गौतम बुद्ध ने कहा: अब तीसरा प्रश्न, अगर वे लोग तुम्हारी हत्या कर दें तो मरने के क्षण में तुम कैसा अनुभव करोगे। पूर्ण काश्यप ने कहा: ‘’ मैं आपको और उन लोगों को धन्यवाद दूँगा। अगर वे मेरी हत्या कर देंगे तो वे मुझे इस जीवन से मुक्त कर देंगे जिसमें न जाने कितनी गलतियां हो सकती थी। वे मुझे मुक्त कर देंगे इसलिए मैं अनुगृहीत अनुभव करूंगा।
12-तो गौतम बुद्ध ने कहा: ‘’ अब तुम कहीं भी जा सकते हो, सारा संसार तुम्हारे लिए स्वर्ग है।अब कोई समस्या नहीं है।
ऐसे चित के साथ जगत में कहीं भी, कुछ भी गलत नहीं हो सकता। और नकारात्मक चित के साथ कुछ भी सम्यक या ठीक नहीं हो सकता। ऐसे चित के साथ सब कुछ गलत हो जाता है। इसलिए नहीं क्योंकि कुछ गलत है, बल्कि इसलिए, क्योंकि
नकारात्मक चित को गलत ही दिखाई देता है।यह एक बहुत ही नाजुक प्रक्रिया है, लेकिन बहुत मीठी भी है। और तुम इसमें जितनी गति करोगे, उतनी मीठी होती जाएगी। तुम एक नयी मिठास और सुगंध से भर जाओगे। बस सुंदर को खोजों, कुरूप भी सुंदर हो जाता है। खुशी के क्षण की खोज करो, और तब एक क्षण आता है जब कोई दुःख नहीं रह जाता। आनंद की फ्रिक करो, और देर-अबेर दुःख तिरोहित हो जाता है।सकारात्मक चित के लिए सब कुछ सुंदर है।‘’जहां-जहां जिस किसी कृत्य में संतोष मिलता हो, उसे वास्तविक करो।‘’
.....SHIVOHAM....