विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 57,58 वीं विधियां(साक्षित्व की तेरह विधियां)क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 57;-
(साक्षित्व की पहली विधि)
19 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।‘’
जब तुम्हें कामना घेरती है, चाह पकड़ती है, तो तुम उत्तेजित, उद्विग्न हो जाते हो जो स्वाभाविक है। जब चाह पकड़ती है तो मन डोलने लगता है। उसकी सतह पर लहरें उठने लगती है। कामना तुम्हें खींचकर कहीं भविष्य में ले जाती है; अतीत तुम्हें कहीं भविष्य में धकियाता है। तुम उद्विग्न हो जाते हो, बेचैन हो जाते हो। चाह बेचैनी है, रूग्णता है।यह सूत्र कहता है: ‘’तीव्र
कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।‘’लेकिन अनुद्विग्न कैसे रहा जाए? कामना का अर्थ ही उद्वेग ,अशांति है;
फिर अनुद्विग्न , शांत कैसे रहा जाए? और वह भी कामना के तीव्रतम क्षणों में।वास्तव में,तुम्हें कुछ प्रयोगों से गुजरना होगा तो ही तुम इस विधि का अभिप्राय समझ सकते हो।
2-तुम क्रोध में हो; क्रोध ने तुम्हें पकड़ लिया है। तुम अस्थायी रूप से पागल हो, अवश हो ..होश में नहीं हो। इस अवस्था में अचानक स्मरण करो कि अनुद्विग्न रहना है— क्रोध तो रहेगा, लेकिन अब तुम्हारे भीतर एक बिंदु है जो अनुद्विग्न है, शांत है। तुम्हें पता होगा कि क्रोध परिधि पर है; बुखार की तरह वह वहां है। परिधि कांप रही है , अशांत है। लेकिन तुम उसके
दृष्टा हो।और यदि तुम उसके द्रष्टा/ साक्षी हो सके तो तुम अनुद्विग्न और शांत हो जाओगे। वहाँ शांत बिंदु ही तुम्हारा मूलभूत मन है जो कभी अशांत नहीं होता है। लेकिन तुमने उसे कभी देखा नहीं है। जब क्रोध होता है तो तुम्हारा उससे तादात्म्य हो जाता है। तुम भूल जाते हो कि क्रोध तुमसे भिन्न है, पृथक है। तुम उससे एक हो जाते हो; और तुम उसके द्वारा सक्रिय हो जाते हो, कुछ करने लगते हो और तब दो चीजें संभव है।
3-तुम क्रोध में किसी के प्रति, क्रोध के विषय के प्रति हिंसात्मक हो सकते हो; लेकिन तब तुम दूसरे की ओर गति कर गए। क्रोध ने तुम्हारे और दूसरे के बीच जगह ले ली। यहां एक व्यक्ति है जिसे क्रोध हुआ है,और फिर दूसरा व्यक्ति है -क्रोध का विषय। क्रोध से व्यक्ति दो आयामों में यात्रा कर सकता है या तो अपने क्रोध के विषय की तरफ। या दूसरा ढंग है
कि तुम अपनी / स्वयं की ओर यात्रा करो। तुम उस व्यक्ति की ओर गति नहीं करते जिसने तुम्हें क्रोध करवाया। बल्कि उस व्यक्ति की तरफ जाते हो, जो क्रोध अनुभव करता है। तुम विषय की ओर न जाकर विषयी की ओर गति करते हो।
साधारणत: हम विषय की ओर ही बढ़ते है। और विषय की ओर बढ़ने से मन का धूल-भरा हिस्सा उत्तेजित और अशांत हो जाता है। और तुम्हें अनुभव होता है कि मैं अशांत हूं। अगर तुम भीतर की अपने केंद्र की ओर मुड़ो, तो तुम धूल वाले हिस्से के साक्षी हो जाओगे। तब तुम देख सकोगे कि धूल वाला हिस्सा तो अशांत है, लेकिन मैं अशांत नहीं हूं। और तुम किसी भी इच्छा या अशांति के साथ, यह प्रयोग कर सकते हो।
4-तुम अपने केंद्र से जितनी दूर निकल जाओगे उतने ही अधिक अशांत होते जाओगे। सच तो यह है कि केंद्र के जितनी करीब होगे उतने कम अशांत होगे। और अगर तुम ठीक केंद्र पर हो तो कोई अशांति नहीं है।हर तूफान के बीचो बीच एक
केंद्र होता है जो बिलकुल शांत रहता है । किसी भी क्रोध के , वासना के तूफान के ठीक केंद्र पर कोई तूफान नहीं होता। और कोई भी तूफान शांत केंद्र के बिना नहीं हो सकता; वैसे ही क्रोध भी तुम्हारे उस अंतरस्थ के बिना नहीं हो सकता
जो क्रोध के पार है।यह स्मरण रहे, कोई भी चीज अपने विपरीत तत्व के बिना नहीं हो सकती। विपरीत जरूरी है; उसके बिना किसी भी चीज होने की संभावना नहीं है। यदि तुम्हारे भीतर कोई स्थिर केंद्र न हो तो गति असंभव है। यदि
तुम्हारे भीतर शांत केंद्र न हो तो अशांति असंभव है।इस बात का विश्लेषण करो, इसका निरीक्षण करो। अगर तुम्हारे भीतर परम शांति का कोई केंद्र न होता तो तुम कैसे जानते कि मैं अशांत हूं? तुम्हें तुलना करनी चाहिए और तुलना के लिए दो बिंदु चाहिए।
5- उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति बीमार है और वह बीमारी अनुभव करता है; क्योंकि उसके भीतर कहीं कोई बिंदु है, जहां परम स्वास्थ विराजमान है। इससे ही वह तुलना कर सकता है। तुम कहते हो कि मुझे सिरदर्द है; लेकिन तुम कैसे जानते हो कि यह दर्द है, सिरदर्द है? अगर तुम ही सिरदर्द होते तो तुम इसे कैसे जान सकते थे। अवश्य ही तुम कुछ और हो। कोई और हो, तुम द्रष्टा हो ,साक्षी हो ; जो कहता है कि मुझे सिरदर्द है। इस दर्द को वही अनुभव कर सकता है जो खुद दर्द नहीं है। अगर तुम बीमार हो, ज्वर ग्रस्त हो तो तुम उसे अनुभव कर सकते हो क्योंकि तुम ज्वर नहीं हो। ज्वर खुद को अनुभव नहीं कर
सकता है; कोई चाहिए जो उसके पार हो। विपरीत जरूरी है ..जब तुम क्रोध में हो और अगर तुम महसूस करते हो कि मैं क्रोध में हूं तो उसका अर्थ है कि तुम्हारे भीतर कोई बिंदु है जो अब भी शांत है और जो साक्षी हो सकता है। यह एक अलग बात है कि तुम इस बिंदु पर अपने को कभी नहीं देखते हो। लेकिन वह सदा अपनी मौलिक शुद्धता में वहां मौजूद है।यह सूत्र कहता है: ‘’तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न रहो।‘’
6- यह विधि दमन के पक्ष में नहीं है कि जब क्रोध आए तो उसे दबा दो और शांत हो जाओ। क्योकि अगर दमन करोगे तो तुम ज्यादा अशांति निर्मित करोगे। अगर क्रोध हो और उसे दबाने का प्रयत्न भी साथ-साथ हो तो उससे अशांति दुगुनी हो जाएगी।जब क्रोध आए तो द्वार दरवाजे बंद कर लो और क्रोध पर ध्यान करो। क्रोध को होने दो; तुम अनुद्विग्न रहो और
क्रोध का दमन मत करो।दमन करना आसान है; प्रकट करना भी आसान है और हम दोनों करते है। अगर स्थिति अनुकूल हो तो हम क्रोध को प्रकट कर देते है। अगर उसकी सुविधा हो, अगर तुम्हें खुद कोई खतरा नहीं हो तो तुम क्रोध को अभिव्यक्त कर दोगे। अगर तुम दूसरे को चोट पहुंचा सकते हो और दूसरा बदले में तुम पर चोट कर सकता है तो तुम अपने क्रोध को खुली छूट दे दोगे। और अगर क्रोध को प्रकट करना खतरनाक हो, अगर दूसरा तुम्हें ज्यादा चोट कर सकने में समर्थ हो, अथार्त वह तुम्हारा मालिक हो या तुमसे ज्यादा बलवान हो, तो तुम क्रोध को दबा दोगे।
7-अभिव्यक्ति और दमन सरल है; साक्षी कठिन है।क्योंकि साक्षी न अभिव्यक्ति है और न दमन; वह दोनों में कोई नहीं है। तुम न उसे दूसरे पर प्रकट कर रहे हो और न ही उसका दमन कर रहे हो। तुम उसे शून्य में विसर्जित कर रहे हो।
तुम उस पर ध्यान कर रहे हो।किसी आईने के सामने खड़े हो जाओ और अपने क्रोध को प्रकट करो—और उसके साक्षी बने रहो। तुम अकेले हो, इसलिए तुम उस पर ध्यान कर सकते हो। तुम जो भी करना चाहो करो, लेकिन शून्य में करो।
अगर तुम किसी को मारना पीटना चाहते हो तो खाली आकाश के साथ मार-पीट करो। अगर क्रोध करना चाहते हो तो क्रोध करो; अगर चीखना चाहते हो तो चीखो। लेकिन सब अकेले में करो। और अपने को उस केंद्र बिंदू की भांति स्मरण रखे जो यह सब नाटक देख रहा है। तब यह एक साइको ड्रामा बन जाएगा। और तुम उस पर हंस सकते हो। वह तुम्हारे लिए गहरा रेचन बन जाएगा। और न केवल तुम्हारा क्रोध विसर्जित हो जाएगा, बल्कि तुम उससे कुछ फायदा उठा लोगे। तुम्हें एक प्रौढ़ता प्राप्त होगी; तुम एक विकास को उपलब्ध होओगे। और अब तुम्हें पता होगा कि जब तुम क्रोध में भी थे तो कोई था जो शांत था। अब इस केंद्र को अधिकाधिक Expose करो और तीव्र कामना की मनोदशा में इसको Expose करना आसान है।
8-इसीलिए तंत्र तीव्र कामना के विरोध में नहीं है बल्कि कहता है कि कामना में उतरो, लेकिन अनुद्विग्न ,शांत रहो ;उस केंद्र को स्मरण रखो जो शांत है;और साक्षी रहो। गहरे में दृष्टा बने रहो। जो भी हो रहा है वह परिधि पर हो रहा है और तुम केवल
देखने वाले दर्शक हो।वह विधि बहुत उपयोगी हो सकती है, और इससे तुम्हें बहुत लाभ हो सकता है। लेकिन यह कठिन होगा। क्योंकि जब तुम अशांत होते हो तो तुम सब कुछ भूल जाते हो। तुम यह भूल जाते हो कि मुझे ध्यान करना है। तो फिर उस क्षण के लिए मत रुको जब तुम्हें क्रोध होता है।अपना कमरा बंद करो और क्रोध के किसी अतीत अनुभव को स्मरण करो जिसमें तुम पागल ही हो गए थे। उसे स्मरण करो और फिर से उसका अभिनय करो।यह तुम्हारे लिए सरल होगा। उस अनुभव को फिर से अभिनीत करो, उसे फिर से जाओ। शायद तुम्हें पता न हो कि मन टेप-रिकार्डिंग यंत्र जैसा है।
9- अब तो यह वैज्ञानिक तथ्य है कि अगर तुम्हारे स्मृति केंद्रों को इलेक्ट्रोड्स से छुआ जाए तो वे केंद्र फिर से संग्रहीत अनुभवों को दोहराने लगते है। उदाहरण के लिए तुमने कभी क्रोध किया और वह घटना तुम्हारे मन में टेप-रिकार्डर पर रिकार्ड है; ठीक उसी अनुक्रम में वह रिकार्ड है जिस अनुक्रम में वह घटित हुई थी। अगर उसे इलेक्ट्रोड्स से छूओगे तो वह
घटना पुन: जीवंत होकर दोहराने लगेगी।तुम्हें वही-वहीं भाव फिर से होंगे जो क्रोध करते समय हुए थे। तुम्हारी आंखे लाल हो जाएगी। तुम्हारा शरीर कांपने लगेगा। ज्वरग्रस्त हो जाएगा। पूरी कहानी फिर दोहरेगी और ज्यों ही इलेक्ट्रोड को वहां से हटाओगे, नाटक बंद हो जायेगा। पूरी कहानी फिर दोहरेगी। यदि तुम उसे फिर ऊर्जा देते हो, वह फिर बिलकुल शुरू
से चालू हो जाता है।विज्ञान कहता है कि मन एक रिकार्डिंग मशीन है और तुम किसी भी अनुभव को दोहरा सकते हो।
लेकिन स्मरण ही मत करो, उसे फिर से जीओं। अनुभव को फिर जीना शुरू करो और मन उसे पकड़ लेगा। वह घटना वापस लौट आयेगी और तुम उसे फिर जीओगे। और इसे पुन: जीते हुए अनुद्विग्न रहो, शांत रहो।
10-अतीत से शुरू करो ..और यह सरल है क्योंकि अब यह नाटक है .. यथार्थ स्थिति नहीं है। और अगर तुम यह करने में समर्थ हो गए तो जब सच ही क्रोध की स्थिति पैदा होगी ;तुम उसे भी कर सकोगे। और यह प्रत्येक कामना के साथ किया जा
सकता है। अतीत के अनुभवों को फिर से जीना बड़े काम का है। हम सब के मन में ऐसे घाव है जो अभी भी हरे है। अगर तुम उन्हें फिर से जी लोगे तो तुमWeightless हो जाओगे। अगर तुम अपने अतीत में लौट सके और अधूरे अनुभवों को जी सके तो तुम अपने अतीत के बोझ से मुक्त हो जाओगे। तुम्हारा मन ताजा हो जाएगा ..धूल झड़ जायेगी।अपने अतीत में से कोई
अनुभव स्मरण करो जो तुम्हारे देखे अधूरा पडा है। तुम किसी को पीटना चाहते थे , प्रेम करना चाहते थे ,यह या वह करना चाहते थे ..लेकिन वे सारे काम अपूर्ण रह गए।और वह अधूरी चीज तुम्हारे मन के आकाश में बादल की भांति मँडराती रहती है। वह तुम्हें और तुम्हारे कृत्यों को सदा प्रभावित करती रहती है। उस बादल को विसर्जित करना होगा। तो उसके काल पथ को पकड़कर मन में पीछे लौटों और उन कामनाओं को फिर से जीओं जो अधूरी रह गई है। उन घावों को फिर से जीओं जो अभी भी हरे है। वे घाव भर जाएंगे ..तुम स्वस्थ हो जाओगे और इस प्रयोग के द्वारा तुम्हें एक झलक मिलेगी कि कैसे किसी अशांत स्थिति में शांत रहा जाए।‘’तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्न करो।‘’
11-संत गुरजिएफ ने इस विधि का खूब प्रयोग किया है। वह इसके लिए परिस्थितियां निर्मित करते थे। लेकिन परिस्थितियां निर्मित करने के लिए समूह या आश्रम जरूरी है। तुम अकेले यह नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए तुम किसी कमरे
में प्रवेश करते हो जहां एक समूह पहले से बैठा है। तुम कमरे में प्रवेश करते हो और तभी कुछ किया जाता है। जिससे तुम क्रोधित हो जाते हो। और वह चीज इस स्वाभाविक ढंग से की जाती है कि तुम्हें कभी कल्पना भी नहीं होती कि यह परिस्थिति तुम्हारे लिए निर्मित की जा रही है। यह एक उपाय था। कोई व्यक्ति कुछ कहकर तुम्हें अपमानित कर देता है और तुम अशांत हो जाते हो। और फिर हर कोई उस अशांति को बढ़ावा देता है और तुम पागल हो जाते हो। और जब तुम ठीक विस्फोट के बिंदू पर पहुंचते हो तो संत गुरूजिएफ चिल्लाकर कहता है: स्मरण करो और अनुद्विग्न रहो।
12-ऐसी परिस्थिति निर्मित की जा सकती है। लेकिन केवल वहीं जहां अनेक लोग अपने ऊपर काम कर रहे हो। और जब संत गुरूजिएफ चिल्लाकर कहता कि स्मरण करो और अनुद्विग्न रहो; तो तुम जान जाते हो कि यह परिस्थिति पहले से तैयार कि गई थी। लेकिन अब तुम्हारा उद्विग्न, तुम्हारी अशांति इतनी शीध्रता से, इतनी जल्दी मिटने नहीं वाली है। इस अशांति की जड़ें तुम्हारे शरीर में है जो उससे प्रभावित है। तुम्हारी ग्रंथियों ने तुम्हारे रक्त में जहर छोड़ दिया है। क्रोध इतनी शीध्रता से नहीं जाने वाला है। अब जबकि तुम्हें पता हो गया है कि मुझे धोखा दिया गया है ;कि किसी ने सच ही मुझे अपमानित नहीं किया है तो भी तुम कुछ नहीं कर सकते। क्रोध जहां का तहां है; तुम्हारे शरीर क्रोध की स्थिति में है।लेकिन एक बात
होती है .. कि अचानक तुम्हारा ज्वर भीतर शांत होने लगता है।
13-क्रोध अब सिर्फ शरीर पर परिधि पर है। केंद्र पर तुम अचानक शीतल होने लगते हो। और अब तुम जानते हो कि मेरे भीतर एक बिंदु है जो अनुद्विग्न है, शांत है और तुम हंसने लगते हो। अभी भी तुम्हारी आंखें क्रोध से लाल है, तुम्हारा चेहरा पशुवत हिंसक बना हुआ है। लेकिन तुम हंसने लगते हो। अब तुम्हें दो चीजें पता है; एक अनुद्विग्न केंद्र और दूसरी उद्विग्न परिधि।तुम एक दूसरे के लिए सहयोगी हो सकते हो।तुम्हारा परिवार ही आश्रम बन सकता है;तुम एक दूसरे की मदद कर
सकते हो। मित्र या अपने परिवार से बात करके तय कर सकते हो कि पिता के लिए या मां के लिए एक परिस्थिति पैदा की जाए; और पूरा परिवार उस परिस्थिति के पैदा करने में हाथ बँटाता है। जब मां या पिता पूरी तरह विक्षिप्त हो जाते है; तब सब हंसने लगते है और कहते है: बिलकुल अनुद्विग्न रहो।तुम परस्पर एक दूसरे की मदद कर सकते हो और यह अनुभव बहुत अद्भुत है।
14-जब तुम्हें किसी उतेजित परिस्थिति के भीतर एक शीतल केंद्र का पता चल जाए तो तुम उसे भूल नहीं सकते। और तब तुम किसी भी तरह की अशांत परिस्थिति में उसे स्मरण कर सकते हो, उसे पुन: उपलब्ध कर सकते हो। अब एक विधि का,
चिकित्सा विधि का प्रयोग हो रहा है। जिसे साइकोड्रामा कहते है। वह सहयोगी है और इसी तरह की विधियों पर आधारित है।
इस साइकोड्रामा में तुम एक अभिनय करते हो, एक खेल खेलते हो। शुरू में तो वह खेल ही है; लेकिन देर अबेर तुम उसके वशीभूत हो जाते हो। और जब तुम वशीभूत होते हो, आविष्ट होते हो तो तुम्हारा मन सक्रिय हो जाता है। क्योंकि तुम्हारे शरीर और मन स्वचलित ढंग से काम करते है। वे स्वचलित व्यवहार करते है तो साइकोड्रामा में व्यक्ति क्रोध की स्थिति में
सचमुच क्रोधित हो जाता है। तुम सोच सकते हो कि वह अभिनय कर रहा है। लेकिन ऐसी बात नहीं है। संभव है कि वह सच में ही क्रोधित हो गया हो; केवल अभिनय ही न कर रहा हो। वह कामना के वश में है, उद्वेग के वश में है, भाव के वश में है। और जब वह सच में उनके आविष्ट होता है तभी उसका अभिनय यर्थाथ मालूम पड़ता है।
15-तुम्हारे शरीर को नहीं पता हो सकता कि तुम अभिनय कर रहे हो या सच में कर रहे हो। तुमने अपने जीवन में कभी देखा होगा कि तुम क्रोध का केवल अभिनय कर रहे थे और तुम्हारे अनजाने ही क्रोध सच बन गया। साइकोड्रामा ऐसी विधियों पर
आधारित है।तुम क्रोधित नहीं हो, सिर्फ क्रोध का अभिनय कर रहे हो। और फिर उससे आविष्ट हो जाते हो।
लेकिन साइकोड्रामा सुंदर है। क्योंकि तुम जानते हो कि मैं महज अभिनय कर रहा हूं।और तब परिधि पर क्रोध यथार्थ
हो जाता है और ठीक उसके पीछे तुम छिपकर उसका निरीक्षण कर रहे होते हो। तुम जानते हो कि मैं उद्विग्न नहीं हूं। लेकिन क्रोध है, उद्वेग है, अशांति है। यह दो ऊर्जाओं का Simultaneously काम करने का अनुभव तुम्हें उनके अतिक्रमण में ले जाता है। और फिर असली क्रोध में भी तुम उसे अनुभव कर सकते हो। जब तुमने जान लिया कि उसे कैसे अनुभव किया जाए तुम वास्तविक स्थितियों में भी अनुभव कर सकते हो।
16-इस विधि का प्रयोग करो; यह तुम्हारे समग्र जीवन को बदल देगी। और जब तुमने अनुद्विग्न रहना सीख लिया तो संसार तुम्हारे लिए दुःख न रहा। तब कुछ भी तुम्हें सच में भ्रांत या पीड़ित नहीं कर सकता। अब तुम्हारे लिए कोई दुःख न रहा।
और तब तुम एक और काम कर सकत हो कि किसी भी क्षण अपना चेहरा, अपनी मुख मुद्रा बदल सकते हो।कोई हंस रहा है, मुस्कुरा रहा है ,तुम्हारे साथ बैठकर प्रसन्न है और अचानक वह बिना किसी कारण के ही क्रोधित हो जाएगा। और वह एक साथ अपने आधे चेहरे से क्रोध और दूसरे आधे चेहरे से मुस्कुराहट प्रकट कर सकता है। अगर उसके दोनों चेहरे के आस पास व्यक्ति बैठे हो तो वह उसे अलग-अलग ही रूप में देखेंगे। एक व्यक्ति कहेगा कि वह कितना सुंदर आदमी है और दूसरा व्यक्ति कहेगा कि वह बहुत खराब है। वह एक साथ एक को हंसकर देख सकता है और दूसरे को गुस्से से।
17-एक बार तुम अपने केंद्र को परिधि से पूरी तरह पृथक करने की विधि का अनुभव कर लो।वहां दोनों विपरीत अतियां। एक बार तुम्हें इन अतियों को बोध हो जाए तो पहली दफा तुम अपने मालिक हुए अन्यथा दूसरे मालिक है। तुम खुद गुलाम हो।तुम्हारे परिवार के लोग.. तुम्हारी माँ, पिता, पति, पत्नी , बेटे, और तुम्हारे दोस्त जानते है कि तुम्हें कब हिलाया जा सकता है। तुम्हें कैसे अशांत किया जा सकता है, तुम्हें कैसे खुश किया जा सकता है।और जब दूसरा तुम्हें सुखी और दुःखी
कर सकता है तो तुम मालिक नहीं हो सकते। तुम गुलाम ही हो क्योकि कुंजी दूसरे के हाथ में है; बस उसकी एक भाव भंगिमा तुम्हें दुःखी बना सकती है; उसकी एक मुस्कुराहट तुम्हें सुख से भर सकती है। तो तुम दूसरे की मर्जी पर हो; दूसरा तुम्हारे साथ कुछ भी कर सकता है।
18-और अगर यही स्थिति है तो तुम्हारी सब प्रतिक्रियाएँ बस प्रतिक्रियाएँ है। उन्हें क्रियाएं नहीं कहा जा सकता है। तुम सिर्फ प्रतिक्रियाँ करते हो, क्रिया नहीं। कोई तुम्हारा अपमान करता है और तुम क्रोधित हो जाते हो। कोई तुम्हारी प्रशंसा करता है और तुम मुस्कुराने लगते हो ,फूलकर कुप्पा हो जाते हो। तो यह प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं।गौतम बुद्ध एक गांव से गुजर
रहे थे। कुछ लोग उनके पास इकट्ठे हो गए; वे सब उनके विरोध में थे। उन्होंने गौतम बुद्ध का अपमान किया, उन्हें गालियां दीं। गौतम बुद्ध ने सब सुना। और फिर कहा; मुझे समय पर दूसरे गांव पहुंचना है। तो क्या मैं अब आगे जा सकता हूं। अगर तुमने वह सब कह लिया जा कहने वाले थे। अगर बात खत्म हो गई तो मैं जाऊं। और यदि कुछ कहने को शेष रह गया हो तो
मैं लौटते हुए यहां रूकुंगा, तब तुम आ जाना और कह देना।वे लोग तो चकित रह गए। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया।वे तो उनका अपमान कर रहे थे। उन्हें गालियां दे रहे थे। तो उन्होंने कहा कि हमें कुछ कहना नहीं है। हम तो बस आपका अपमान कर रहे है। आपको गालियां दे रहे है।
19-गौतम बुद्ध ने कहा: तुम वह कर सकते हो। लेकिन यदि तुम्हें मेरी प्रतिक्रिया की अपेक्षा है तो तुम देरी करके आए। दस वर्ष पूर्व तुम अगर ये शब्द लेकर आए होते तो मैं प्रतिक्रिया करता। लेकिन अब मैं क्रिया करना सीख गया हूं। मैं अब अपना मालिक हो गया हूं। अब तुम मुझे कुछ करने को मजबूर नहीं कर सकते हो। तुम लौट जाओ। तुम अब मुझे विचलित नहीं कर सकते हो। मुझे अब कुछ भी अशांत नहीं कर सकता है। मैनें अपने केंद्र को जान लिया है।केंद्र का यह ज्ञान या केंद्र में
प्रतिष्ठित होना तुम्हें अपना मालिक बना देता है। अन्यथा तुम गुलाम हो। एक ही मालिक के नहीं, अनेक मालिकों के गुलाम। तब हर कोई तुम्हारा मालिक है, और तुम सारे जगत के गुलाम हो। निश्चित ही तुम पीड़ा में, दुःख में रहोगे। इतने मालिक और वे इतनी दिशाओं में तुम्हें खिंचेंगी कि तुम अखंड / एक न रह सकोगे। और इतने आयामों में खींचे जाने के कारण तुम संताप में रहोगे।केवल वही व्यक्ति संताप का अतिक्रमण कर सकता है जो अपना स्वामी है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 58 ;-
(साक्षित्व की दूसरी विधि)
09 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’यह तथा कथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’
2-यह सारा संसार ठीक एक नाटक के समान है, इसलिए इसे गंभीरता से मत लो। गंभीरता तुम्हें मुसीबत में डाल देगी।अगर तुम सारे जगत को नाटक की तरह देख सको तो तुम अपनी मौलिक चेतना को पा लोगे।लेकिन हम इतने गंभीर है कि
नाटक देखते हुए भी हम धूल जमा करते रहते है और यह गंभीरता ही समस्या पैदा करती है।उदाहरण के लिए किसी सिनेमाघर में जाओ और दर्शकों को देखो।कोई रो रहा होगा , कोई हंस रहा होगा ,सिर्फ लोगो को देखो कि उन्हें क्या
हो रहा है। पर्दे पर छाया-चित्रों के सिवाय कुछ भी नहीं है..धूप छांव का खेल है। पर्दा खाली है ;लेकिन वे हंस रहे है, रो रहे है।
3-उनके लिए फिल्म मात्र फिल्म नहीं है;वे भूल गये है कि यह एक कहानी है। उन्होंने इसको गंभीरता से ले लिया है और चित्र
जीवित हो उठा है, यर्थाथ हो गया है। यह सिनेमाघरों तक ही सीमित नहीं है ...यही चीज सर्वत्र घट रही है। अपने चारों ओर के जीवन को देखो..इस धरती पर असंख्य लोग रह चुके है। जहां तुम बैठे हो वहां कम से कम .. दस लाशों की कब्र है। और वे लोग भी तुम्हारे जैसे ही गंभीर थे। वे अब कहां है? उनका जीवन कहां चला गया? उनकी समस्याएं कहाँ गई? वे एक-एक इंच
जमीन के लिए लड़ते थे, वह जमीन पड़ी रह गई और वे लोग कही नहीं है। बात यह नहीं है कि उनकी समस्याएं-समस्याएं नहीं थी। वे थीं; जैसे तुम्हारी समस्याएं-समस्याएं है। लेकिन कहाँ गई वह समस्याएं? और अगर किसी दिन पूरी मनुष्यता खो जाए तो भी धरती रहेगी ,वृक्ष रहेगें ,नदिया रहेगी और सूरज इसी तरह से उगेगा। और पृथ्वी को मनुष्य की गैर-मौजूदगी पर न कोई खेद होगा और न कोई आश्चर्य।
4-जरा इस विस्तार पर अपनी निगाह को दौडाओं। पीछे देखो, आगे देखो; सभी आयामों को देखो और देखो कि तुम क्या हो। तुम्हारा जीवन क्या है? सब कुछ एक बड़ा स्वप्न जैसा मालूम पड़ेगा। और हर चीज जिसे तुम इस क्षण इतनी गंभीरता से ले रहे
हो, अगले क्षण ही व्यर्थ हो जाती है। तुम्हें उसकी याद भी नहीं रहती।अपने जीवन की कुछ गंभीर बातो को स्मरण करो ,उस समय ऐसा लगता था कि जैसे जीवन ही उस पर निर्भर करता है। और अब वह तुम्हें स्मरण भी नहीं है ...बिलकुल भूल गया है। वैसे ही वे चीजें भी भूल जाएंगी जिन पर तुम आज अपने जीवन को निर्भर समझते हो।जीवन एक प्रवाह है, वहां कुछ भी
नहीं टिकता है। जीवन भागती फिल्म की भांति है। जिसमें हर चीज दूसरी चीज में बदल रही है। लेकिन इस क्षण वह तुम्हें
बहुत ही गंभीर ,बहुत महत्वपूर्ण मालूम पड़ता है और तुम उद्विग्न हो जाते हो।यह विधि कहती है: ‘’यह तथा कथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’
5-भारत में हम इस जगत को परमात्मा की सृष्टि नहीं कहते, हम उसे लीला कहते है। यह लीला की धारणा बहुत सुंदर है। सृष्टि की धारणा गंभीर मालूम पड़ती है।ईसाइयत में ,एक अवज्ञा के लिए आदम को अदन के बग़ीचे से निकाल दिया गया। वह हमारा पिता था; और हम सब उसके कारण दुःख में पड़े है।यहाँ ईश्वर बहुत गंभीर मालूम पड़ता है। उसकी अवज्ञा नहीं होनी चाहिए।और अगर अवज्ञा होगी तो वह बदला लेगा।जीसस हमें ,हमारे पाप से उद्भार दिलाने के लिए, हमें आदम के किए, पाप से मुक्त करने के लिए सूली पर चढ़ गये।लेकिन मनुष्यता अब भी उसी भांति दुःख में है।पिता के रूप में ईश्वर की धारणा
ही गंभीर है।ईश्वर की भारतीय धारणा सृष्टा की नहीं, लीलाधर की है।वह गंभीर नहीं है ;वह खेल-खेल रहा है।नियम है ;लेकिन वह खेल के नियम है। उनके संबंध में गंभीर होने की जरूरत नहीं है। कुछ पाप नहीं है ,बल्कि भूल भर है। और तुम भूल के कारण कष्ट में पड़ते हो न की.. परमात्मा तुम्हें दंडित कर रहा है।लीला की पूरी धारणा जीवन को एक नाटकीय रंग दे देती है।जीवन एक लंबा नाटक हो जाता है और यह विधि इसी लीला की धारणा पर आधारित है।
‘’यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।‘’
6-अगर तुम दुःखी हो तो इसलिए कि तुमने जगत को बहुत गंभीरता से लिया है। और सुखी होने का कोई उपाय मत खोजों, सिर्फ अपनी दृष्टि को बदलों। गंभीर चित से तुम सुखी नहीं हो सकते। उत्सव मनाने वाला चित ही सुखी हो सकता है। इस पूरे जीवन को एक नाटक, एक कहानी की तरह लो.. ऐसा ही है। और अगर तुम उसे इस भांति ले सके तो तुम दुःखी नहीं होगे।
दुःख अति गंभीरता का परिणाम है।सात दिन के लिए यह प्रयोग करो। सात दिन तक एक ही चीज स्मरण रखो कि सारा जगत नाटक है। और तुम वही नहीं रहोगे;जो अभी हो। सिर्फ सात दिन के लिए तुम्हारा कुछ खो नहीं जाएगा। क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए भी तो कुछ चाहिए। सात दिन के प्रयोग के लिए सब कुछ नाटक समझो।इन सात दिनों में तुम्हें तुम्हारे
स्वभाव की, तुम्हारी आंतरिक पवित्रता की अनेक झलकें मिलेंगी। और इस झलक के मिलने के बाद तुम फिर वही नहीं रहोगे , जो हो। तब तुम सुखी रहोगे।
7-और तुम सोच भी नहीं सकते कि यह सुख किस तरह का होगा। क्योंकि तुमने कोई सुख नहीं जाना। तुमने सिर्फ दुःख की कम-अधिक मात्राएं जानी है। कभी तुम ज्यादा दुःखी थे, और कभी कम। तुम नहीं जानते हो कि सुख क्या है। जब तुम्हारी जगत की धारणा ऐसी है कि तुम उसे बहुत गंभीरता से लेते हो तो तुम नहीं जान सकते कि सुख क्या है। सुख भी तभी घटित होता है। जब तुम्हारी यह धारणा दृढ़ होती है कि यह जगत केवल एक लीला है।इस विधि को प्रयोग में लाओ। और हर
चीज को उत्सव की तरह लो, हर चीज को उत्सव मनाने के भाव से करो। ऐसा समझो कि यह नाटक है। कोई असली चीज नहीं है। अगर अपने संबंधों को खेल बना लो... बेशक खेल के नियम है;विवाह भी एक नियम है और खेल के लिए नियम जरूरी है। लेकिन उन्हें गंभीरता से मत लो फिर देखो कि कैसे तत्काल तुम्हारे जीवन का गुणधर्म बदल जाता है।
8-आज जब अपने घर जाओ तो अपनी पत्नी या पति या बच्चों के साथ ऐसे व्यवहार करो जैसे कि तुम किसी नाटक में भूमिका निभा रहे हो और फिर उसका सौंदर्य देखो।अगर तुम भूमिका निभा रहे हो तो तुम उसमे कुशल होने की कोशिश करोगे। लेकिन उद्विग्न नहीं होगे क्योकि उसकी कोई जरूरत नहीं है। तुम अपनी भूमिका निभा कर सोने चले जाओगे। लेकिन स्मरण रहे कि यह अभिनय है। और सात दिन तक इसका सतत ख्याल रखे। तब तुम्हें सुख उपलब्ध होगा। और जब तुम जान लोगे कि क्या सुख है तो फिर दुःख में गिरने की जरूरत नहीं रही। क्योंकि यह तुम्हारा ही चुनाव है।तुम दुःखी हो, क्योंकि तुमने
जीवन के प्रति गलत दृष्टि चुनी है। तुम सुखी हो सकते हो ;अगर दृष्टि सम्यक हो जाए। सम्यक दृष्टि आधार है ,बुनियाद है।परन्तु सम्यक दृष्टि क्या है? उसकी कसौटी क्या है ?वास्तव में सम्यक दृष्टि से ही दृष्टा भाव उपलब्ध होता है ।सम्यक दृष्टि का
अर्थ है जैसा भी यथार्थ है.. मैं उसे वैसा ही देखूंगा मैं अपने सपने ,अपनी कामनाये, अपनी अपेछायें ,आकांक्षाये उसपे आरोपित नहीं करूँगा । सामान्यता मानव का मन एक प्रोजेक्टर की भांति काम करता है और संसार का पर्दा हमारे ही द्वारा प्रक्षेपित दृश्यों से भर जाता है ।जो दृष्टि सुखी करे वह सम्यक दृष्टि है। और जो दृष्टि तुम्हें दुखी, पीडित बनाए वह असम्यक दृष्टि है। और कसौटी बाह्य नहीं है ,आंतरिक है और यह कसौटी ही तुम्हारा सुख है। 9-हमें अपनी ही प्रति ध्वनि नजर आती है ;ये हमारी असम्यक दृष्टि है।असम्यक दृष्टि दो प्रकार की होती है। कुछ लोग है दुनिया में नकारात्मक सोच वाले ..जिन्हें सब जगह सभी कामो में नकारात्मक ही दिखता है ;वो हमेशा गलत ही गलत देखते है।इसके ठीक विपरीत है सकारात्मक सोच वाले ।ये सभी चीजो में अच्छा ही अच्छा देखते है ।इन्हे सब अच्छा ही अच्छा देखने की आदत होती है ...इन्हे सब जगह फूल ही फूल दिखाई देते है । कांटे देखने वाले व्यक्ति के कांटे भी काल्पनिक है और फूल देखने वाले व्यक्ति के फूल भी काल्पनिक है ।इन दोनों ने चुनाव कर लिए है अपने -अपने ढंग से देखने का ।इन्होंने कुछ खास रंग के चश्मे पहन लिए है ..दुनिया को देखने के लिए ।जिसने नीला रंग का चश्मा पहना है ,उसे सब नीला ही नीला नजर आता है और जिसने लाल रंग का चश्मा पहना है ,उसे सब लाल नजरआता है ;परन्तु दुनिया न ही नीली है और न ही लाल। निशब्द होकर ,सिद्धांत मुक्त होकर ,मान्यता मुक्त होकर , जब सत्य की खोज करते है ; तब सम्यक दृष्टि उपलब्ध होती है ।अध्यात्म की सब से बड़ी दृष्टि है..' सम्यक दृष्टि'। जिस व्यक्ति को सम्यक दृष्टि मिल गई ,जल्द ही वो द्रष्टा भाव में पहुँच जायेगा।
.....SHIVOHAM....