विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 72,73वीं, (प्रकाश-संबंधी छह विधियां ) विधियां क्या है?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 72 ;-
(प्रकाश-संबंधी तीसरी विधि)
10 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-—
‘’भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्वत उपस्थिति है।‘’
2-यह विधि आंतरिक संवेदनशीलता पर आधारित है।इसलिए पहले अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाना पड़ेगा। अपने द्वार-दरवाजे बंद कर लो। कमरे में अँधेरा कर लो, और फिर एक छोटी सी मोमबत्ती (त्राटक साधना )जलाओ। और उस मोमबत्ती के पास प्रेमपूर्ण मुद्रा में बल्कि प्रार्थना पूर्ण भाव दशा में बैठो और ज्योति से प्रार्थना करो: ‘’अपने रहस्य को मुझ पर प्रकट करो।‘’ स्नान कर लो, अपनी आंखों पर ठंडा पानी छिड़क लो और फिर ज्योति के सामने अत्यंत प्रार्थना पूर्ण भाव दशा में होकर बैठो।
3-ज्योति को देखो ओर शेष सब चीजें भूल जाओ। सिर्फ ज्योति को देखो। ज्योति को देखते रहो।पाँच मिनट बाद तुम्हें अनुभव होगा कि ज्योति में बहुत चीजें बदल रही है। लेकिन स्मरण रहे, यह बदलाहट ज्योति में नहीं हो रही है; दरअसल तुम्हारी दृष्टि बदल रही है।प्रेमपूर्ण भाव दशा में सारे जगत को भूलकर, समग्र एकाग्रता के साथ, भावपूर्ण ह्रदय के साथ ज्योति को देखते रहो, तुम्हें ज्योति के चारों और नए रंग, नई छटाएं दिखाई देंगी। जो पहले कभी नही दिखाई दी थी। वे रंग, वे छटाएं सब वहां मौजूद है; पूरा इंद्रधनुष वहां उपस्थिति है।
4-जहां-जहां भी प्रकाश है, वहां-वहां इंद्रधनुष है। क्योंकि प्रकाश बहुरंगी है उसमें सब रंग है। लेकिन उन्हें देखने के लिए सूक्ष्म संवेदना की जरूरत है। उसे अनुभव करो और देखते रहो। यदि आंसू भी बहने लगें तो भी देखते रहो। वे आंसू तुम्हारी आंखों को निखार देंगे, ज्यादा ताजा बना जायेंगे।कभी-कभी तुम्हें प्रतीत होगा कि मोमबत्ती या ज्योति बहुत रहस्यपूर्ण हो गई है। तुम्हें लगेगा कि यह वही साधारण मोमबत्ती नहीं है जो मैं आपने साथ लाया था। उसने एक नई आभा एक सूक्ष्म दिव्यता, एक भगवत्ता प्राप्त कर ली है। इस प्रयोग को जारी रखो। कई अन्य चीजों के साथ भी तुम इसे कर सकते हो।
5-उदाहरण के लिए,आजकल के बढ़ते तनाव और फैशन ने युवाओं को नशीली दवाओं का आदी बना दिया है।ड्रग या मादक द्रव्य का सेवन करने वालो के लिए चारों ओर का जगत ..प्रकाश और रंगों के जगत में बदल जाता है ;जो कि बहुत पारदर्शी और जीवंत मालूम पड़ता है।परंतु यह ड्रग के कारण नहीं है। जगत ऐसा ही है। लेकिन तुम्हारी दृष्टि धूमिल और मंद पड़ गई है।ड्रग तुम्हारे चारों ओर रंगीन जगत नहीं निर्मित करता है;जगत पहले से ही रंगीन है, उसमें कोई भूल नहीं है। यह रंगों के इंद्रधनुष जैसा है; इसीलिए तुम्हें कभी नहीं प्रतीत होता है कि जगत इतना रंग-भरा है। यह सिर्फ तुम्हारी आंखों से धुंध को हटा देता है। वह जगत को रंगीन नहीं बनाता।
6-तब एक बिलकुल नया जगत तुम्हारे सामने होता है। एक मामूली कुर्सी भी चमत्कार बन जाती है। फर्श पर पडा जूता नए रंगों से, नई आभा से भर जाता है। सज जाता है; तब यातायात का मामूली शोर गूल भी संगीत पूर्ण हो उठता है। जिन वृक्षों को तुमने बहुत बार देखा होगा और फिर भी नहीं देखा होगा, वे मानों नया जन्म ग्रहण कर लेते है। यद्यपि तुम बहुत बार उनके पास गुजरें हो और तुम्हें ख्याल है कि तुमने उन्हें देखा है। वृक्ष का पत्ता-पत्ता एक चमत्कार बन जाता है।
7-और यथार्थ ऐसा ही है;ड्रग एक यथार्थ का निर्माण नहीं करता है। तुम्हारी जड़ता को, तुम्हारी संवेदनहीनता को मिटा देता है। और तब तुम जगत को ऐसे देखते हो जैसे तुम्हें सच में उसे देखना चाहिए।लेकिन ड्रग तुम्हें सिर्फ एक झलक दे सकता है।और अगर तुम उस पर निर्भर रहने लगे, देर-अबेर वह भी तुम्हारी आंखों से धुंध को हटाने में असमर्थ हो जाएगा। फिर तुम्हें उसका अधिक मात्रा की जरूरत पड़ेगी, और मात्रा बढ़ती जायेगी और उसका असर कम होता जायेगा। फिर यदि तुम उस तरह की चीजें लेना छोड़ दोगे तो जगत तुम्हारे लिए पहले से भी ज्यादा उदास आरे फीका मालूम पड़ेगा। तब तुम और भी संवेदनहीन हो जाओगे।वास्तव में,अगर तुम कोई बाहरी ,कृत्रिम उपाय काम में लाओगे, तो तुम जड़ हो जाओगे।ड्रग तुम्हें अंतत: जड़ बना देगा; क्योंकि उससे तुम्हारे विकास नहीं होता है, तुम ज्यादा संवेदनशील नहीं होते हो।अगर तुम विकसित होते हो तो यह एक भिन्न प्रक्रिया है।तब तुम ज्यादा संवेदनशील होगे।और जैसे-जैसे तुम ज्यादा संवेदनशील होते हो, वैसे-वैसे जगत दूसरा होता जाता है।
8-उदाहरण के लिए,कुछ व्यक्तियों ने ,एकांत में एक नदी के किनारे पत्थरों के साथ प्रयोग किया ।वे उन्हें फील करने की कोशिश कर रह थे—हाथों से छूकर, चेहरे से लगा कर। जीभ से ,नाक से सूंघकर—वे उन पत्थरों को हर तरह से फील करने कि कोशिश कर रहे थे। साधारण से पत्थर, जो उन्हें नदी किनारे मिल गये थे।उन्होंने एक घंटे तक यह प्रयोग किया ..
हर व्यक्ति ने एक पत्थर के साथ। और वे कह रहे थे कि एक बहुत अद्भुत घटना घटी। हर किसी ने कहा: ‘’क्या यह पत्थर मैं अपने पास रख सकता हूं।‘’ मैं इसके प्रेम में पड़ गया हूं।एक साधारण सा पत्थर, अगर तुम सहानुभूतिपूर्ण ढंग से उससे संबंध बनाते हो तो तुम प्रेम में पड़ जाओगे। और अगर तुम्हारे पास इतनी संवेदनशीलता नहीं है। तो सुंदर से सुंदर व्यक्ति के पास होकर भी तुम पत्थर के पास ही हो; तुम प्रेम में नहीं पड़ सकते हो।तो संवेदनशीलता को बढ़ाना है। तुम्हारी प्रत्येक इंद्रिय को ज्यादा जीवंत होना है। तो ही तुम इस विधि का प्रयोग कर सकते हो।
9-‘’भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्वत उपस्थिति है।‘’सर्वत्र प्रकाश है; अनेक-अनेक रूपों और रंगों में प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है। उसे देखो। सर्वत्र प्रकाश है। क्योंकि सारी सृष्टि प्रकाश की आधारशिला पर खड़ी है। एक पत्ते को देखो, एक फूल को देखो या एक पत्थर को देखो।देर-अबेर तुम्हें अनुभव होगा कि उससे प्रकाश की किरणें निकल रही है। बस धैर्य से प्रतीक्षा करो। ज्यादा जल्द मत करो। क्योंकि जल्दी बाजी में कुछ भी प्रकट नहीं होता। तुम जब जल्दी में होते हो तो तुम जड़ हो जाते हो। किसी भी चीज के साथ धीरज से प्रतीक्षा करो। और तुम्हें एक अद्भुत तथ्य से साक्षात्कार होगा। जो सदा से मौजूद था, लेकिन जिसके प्रति तुम सजग नहीं थे। सावचेत नहीं थे।और जैसे ही तुम्हें इस शाश्वत अस्तित्व की उपस्थिति अनुभव होगी वैसे ही तुम्हारा चित बिलकुल मौन और शांत हो जाएगा।तब तुम उसके एक अंश भर होगे। किसी अद्भुत संगीत में एक स्वर भर। फिर कोई चिंता नहीं है। फिर कोई तनाव नहीं है। बूंद समुद्र में गिर गई, खो गई।
10-लेकिन आरंभ में एक बड़ी कल्पना की जरूरत होगी। और अगर तुम संवेदनशीलता बढ़ाने के अन्य प्रयोग करते हो, तो वह सहयोगी होगा।तुम कई तरह के प्रयोग कर सकते हो। किसी का हाथ अपने हाथ में ले लो। आंखें बंद कर लो। और दूसरे के भीतर के जीवन को महसूस करो; उसे महसूस करो उसे अपनी और बहने दो; गति करने दो। फिर अपने जीवन को महसूस करो, और उसे दूसरे की और प्रवाहित होने दो। किसी वृक्ष के निकट बैठ जाओ और उसकी छाल को छुओ,स्पर्श करो। अपनी आंखें बंद कर लो। और वृक्ष में उठते-जीवन तत्व को अनुभव करो। और स्पर्श करो।तुम तुरंत बदलाहट अनुभव करोगे।
क्या भाव दशा से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होते है?-
06 FACTS;-
1-प्रसन्नता एक सकारात्मक मनोदशा है। हमारी मन:स्थिति जैसी होती है, वैसे ही भौतिक, रासायनिक परिवर्तन भी शरीर में घटते हैं। हमारी मनोदशा काफी कुछ जीवन की परिस्थितियों से जुड़ी होती है। प्रसन्नता या खिन्नता भी इस पर निर्भर होती है कि प्रतिकूल और अनुकूल घटनाओं से हमारा मन कितना उत्तेजित होता है। अधिकतर लोगों की खुशी देर तक नहीं टिकती। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनकी यह स्थिति बाहरी वस्तुओं, व्यक्तियों और परिस्थितियों के कारण होती है। सामान्य व्यक्ति की खुशी का आधार संपत्ति, शक्ति, प्रतिभाएं योग्यताएं और समाज से प्राप्त हुईं मान्यताएं, प्रतिष्ठा आदि ही होती हैं। इनके लिए दूसरों पर निर्भरता अनिवार्य है। 2-वास्तव में,हमारी खुशी हमेशा सापेक्ष होती है। अगर आप वाह्य कारणों से खुश होते हैं, तो उदासी भी आएगी ही। आज सुख है तो कल दुख होगा। आज आशा की किरण दिखेगी तो कल खिन्नता व हताशा की भावदशा होगी, किंतु ध्यान में जानी गई आनंदपूर्ण अवस्था की कोई विपरीत दशा नहीं है। साधना इस खुशी को सापेक्ष दृष्टिकोण से परे ले जाना सिखाती है। संसारी व्यक्ति की खुशी एक उन्मादपूर्ण अवस्था है। जो अंदर है, उसे बाहर खोजने चले तो सिवाय अर्थहीन भटकन के कुछ हाथ नहीं लगता। आपके आंतरिक आनंद के स्वामी स्वयं आप हैं। बाहर का कोई परिवर्तन उसमें हेरफेर नहीं कर सकता।
3-उदाहरण स्वरुप एक डाक्टर ने कुछ लोगों पर प्रयोग प्रयोग किया कि क्या भाव दशा से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होते है। अब उसने निष्कर्ष निकाला कि भाव दशा से शरीर में तत्काल रासायनिक परिवर्तन होते है।उसने बारह लोगों के समूह पर यह प्रयोग किया।उसने प्रयोग के आरंभ में उन सबकी पेशाब की जांच की। और सबकी पेशाब साधारण,सामान्य पाई गई। फिर हर व्यक्ति को एक भाव दशा के प्रयोग में रखा गया। एक को क्रोध, हिंसा, हत्या, मार-पीट से भरी फिल्म दिखाई गई। तीस मिनट तक उसे भयावह फिल्म दिखाई गई। वह मात्र फिल्म थी। लेकिन वह व्यक्ति उस भाव दिशा में रहा।
4-दूसरे को एक हंसी खुशी की, प्रसन्नता की फिल्म दिखाई गई। वह आनंदित रहा।और उसी तरह से बाहर लोगों पर प्रयोग किया।फिर प्रयोग के बाद उनकी पेशाब की जांच की गई;और अब सबकी पेशाब अलग थी। शरीर में रसायनिक परिवर्तन हुए थे। जो हिंसा और भय की भाव दशा में रहा वह अब बुझा-बुझा, बीमार था। और हंसी-खुशी की प्रसन्नता की फिल्म दिखाई गई। वह प्रफुल्ल था। उसकी पेशाब अलग थी। उसके शरीर की रासायनिक व्यवस्था अलग थी।
5-तुम्हें बोध नहीं है कि तुम अपने साथ क्या कर रहे हो। जब तुम कोई खून ख़राबे की फिल्म देखने जाते हो ,तो तुम नहीं जानते हो कि तुम क्या कर रहे हो।वास्तव में, तुम अपने शरीर की रसायनिक व्यवस्था बदल रहे हो। जब तुम कोई जासूसी उपन्यास पढ़ते हो। तुम अपनी हत्या स्वयं कर रहे हो।क्योकि, तुम उत्तेजित हो जाओगे; भयभीत हो जाओगे ,तनाव से भर जाओगे। जासूसी उपन्यास का यही तो मजा है। तुम जितने उत्तेजित होते हो, तुम उसका उतना ही सुख लेते हो। आगे क्या घटित होने वाला है, इस बात को लेकर जितना सस्पेंस होगा; तुम उतने ही अधिक उत्तेजित होगे।परन्तु इससे तुम्हारे शरीर का रसायन बदल रहा है;तुम इस बात से अनभिज्ञ हो।
6-ये सारी विधियां भी तुम्हारे शरीर का रसायन बदलती है। अगर तुम सारे जगत को जीवन और प्रकाश से भरा अनुभव करते हो, तो तुम्हारे शरीर का रसायन बदलता है।और यह एक चेन रिएक्शन है, इस बदलाहट की एक शृंखला बन जाती है। जब तुम्हारे शरीर का रसायन बदलता है और तुम जगत को देखते हो ...तो वही जगत ज्यादा जीवंत दिखाई पड़ता है।और जब वह ज्यादा जीवंत दिखाई पड़ता है तो तुम्हारे शरीर की, रासायनिक व्यवस्था और भी बदलती है।ऐसे एक शृंखला निर्मित हो जाती है।यदि यह विधि तीन महीने तक प्रयोग की जाए,तो तुम भिन्न ही जगत में रहने लगोगे। क्योंकि तब तुम ही भिन्न व्यक्ति हो जाओगे।इसलिए प्रबुद्ध लोग खुशी का अनुभव अपनी अंतरात्मा में करते हैं। साक्षी की अंतर्यात्रा से साधक की भावनाओं में सुनिश्चित रूपांतरण घटता है, क्योंकि वह असली और स्थायी खुशी अनुभव करने लगता है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 73 ;-
(प्रकाश-संबंधी चौथी विधि)
18 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘ग्रीष्म ऋतु में जब तुम समस्त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।‘’
2-मन विभ्रम है; मन उलझन है। उसमें स्पष्टता नहीं है ,निर्मलता नहीं है और मन सदा बादलों से घिरा रहता है। वह कभी बिना भ्रम के या शून्य आकाश नहीं होता।तुम अपने मन को शांत-निर्मल नहीं बना सकते हो। ऐसा होना मन के स्वभाव में ही नहीं है। मन अस्पष्ट रहेगा, धुंधला-धुंधला ही रहेगा। अगर तुम मन को पीछे छोड़ सके, अगर तुम मन का अतिक्रमण कर सके, उसके पार जा सके, तो एक स्पष्टता तुम्हें उपलब्ध होगी। तुम द्वंद्व रहित हो सकते हो।द्वंद्व रहित मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं। न कभी अतीत में थी और न कभी भविष्य में होगी। मन का अर्थ ही द्वंद्व है उलझाव है।मन की संरचना को समझने की कोशिश करो और तब यह विधि तुम्हें स्पष्ट हो जाएगी।
3- वास्तव में , मन विचारों की एक प्रक्रिया है, विचारों का एक सतत प्रवाह है—चाहे वे विचार संगत हों या असंगत हो। चाहे वे प्रासंगिक हो या अप्रासंगिक हो। मन सब जगहों से संग्रहित किए गए बहुआयामी प्रभावों का एक लंबा जलूस है। तुम्हारा सारा जीवन एक संग्रह है—धूल का संग्रह। और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।एक बच्चा जन्म लेता है। बच्चे की दृष्टि निर्मल है; क्योंकि उसके पास मन नहीं है। लेकिन जैसे ही मन प्रवेश करता है, उसके साथ ही द्वंद्व और उलझन भी प्रवेश कर जाती है। बच्चा निर्मल है लेकिन उसे ज्ञान, सूचना, संस्कृति, धर्म और संस्कारों का संग्रह करना ही पड़ेगा। वे जरूरी है। उपयोगी है, उसे अनेक जगहों से, अनेक स्रोतों से इकट्ठा करेगा। और तब उसका मन एक बाजार बन जाएगा—एक मेला, एक भीड़। और क्योंकि उसके स्त्रोत अनेक है, उलझन और भ्रांति और विभ्रम का होना है। और तुम कितना भी इकट्ठा करो, कुछ भी निश्चित नहीं हो पाता है। क्योंकि ज्ञान सदा बदलता रहता है और बढ़ता रहता है।
4-उदाहरण स्वरुप मेडिकल कालेज में एक प्रोफेसर अपने विषय का भारी विद्वान था। और उसने जो अंतिम काम किया वह यह था कि उसने अपने सारे विद्यार्थियों को जमा किया और कहा: ‘मुझे तुम्हें एक और चीज सिखानी है। मैंने तुम्हें जो कुछ पढ़ाया है उसका पचास प्रतिशत ही सही है। और शेष पचास प्रतिशत बिलकुल गलत है। लेकिन कठिनाई यह कि मैं नहीं जानता कि कौन सा पचास प्रतिशत सही है और कौन सा पचास प्रतिशत गलत है।’ज्ञान की सारी इमारत ऐसे ही खड़ी है। कुछ भी निश्चित नही है। कोई नहीं जानता है; हर कोई अंधेरे में टटोल रहा है। ऐसे ही टटोल-टटोल कर हम शास्त्र निर्मित करते है; विचार पद्धतियां बनाते है। और ऐसे ही हजारों-हजारों शास्त्र बन गए है। हिंदू कुछ कहते है; ईसाई कुछ और कहते है। मुसलमान कुछ और कहते है। और सब एक दूसरे का खंडन करते है। उनमें कोई सहमति नहीं है। और कोई भी निश्चित नहीं है ,असंदिग्ध नहीं है। और ये सारे स्त्रोत ही तुम्हारे मन के स्त्रोत है। तुम इनसे ही अपना संग्रह निर्मित करते हो। तुम्हारा मन एक कबाड़ खाना बन जाता है।लेकिन विभ्रम ,उलझन भी अनिवार्य है।
5-केवल वही व्यक्ति निश्चित हो सकता है ;जो बहुत जानता है। तुम जितना अधिक जानोंगे, उतने ही भ्रमित होगे। उलझन ग्रस्त होगे। आदिवासी लोग ज्यादा निश्चिंत थे और उनकी आंखें ज्यादा निर्मल मालूम पड़ती है। यह दृष्टि की निर्मलता नहीं थे। यह सिर्फ परस्पर विरोधी तथ्यों के प्रति उनका अज्ञान था। अगर आधुनिक चित ज्यादा भ्रमित है तो उसका कारण है कि आधुनिक चित बहुत ज्यादा जानता है। अगर तुम ज्यादा जानोंगे तो तुम ज्यादा भ्रमित होगे। क्योंकि अब तुम बहुत कुछ जानते हो। और तुम जितना ज्यादा जानोंगे उतने ही ज्यादा अनिश्चित होगे।केवल मूढ़ ही असंदिग्ध होंगे ,मतांध होंगे।वे कभी झिझक में नहीं पड़ते। तुम जितना ही जानोंगे उतना ही अधिक उधेड़बुन में पड़ोगे।वास्तव में ,मन जितना ही बड़ा होगा तुम उतना ही जानोंगे क्योकि भ्रांति मन का स्वभाव है। और केवल मूढ़ ही निश्चित हो सकते है , तो इसका अर्थ यह नहीं है कि बुद्ध व्यक्ति/ Enlightened One मूढ़ है। कारण स्पष्ट है ...क्योंकि वे संदिग्ध नहीं है। इस भेद को स्मरण रखना है ; बुद्ध न निश्चित है न अनिश्चित; उनकी दृष्टि स्पष्ट है।
6-मन के साथ अनिश्चय है; मूढ़ मन के साथ निश्चित है; और अ-मन के साथ निश्चय-अनिश्चिय दोनों विदा हो जाते है।बुद्ध व्यक्ति परम होश है, शुद्ध बोध है ...वे खुले आकाश जैसे है। केवल वही अनिश्चित हो सकता है जो निश्चित की खोज में है। मन सदा अनिश्चित /कन्फ्यूज रहता है और निश्चय /क्लैरिटी की तलाश करता है। बुद्ध व्यक्ति ने मन को ही गिरा दिया है अथार्त मन के साथ सारे विभ्रम को, सारे निश्चय-अनिश्चय को,सब कुछ को गिरा दिया है। तुम्हारी चेतना आकाश जैसी है और तुम्हारा मन बादलों जैसा है। आकाश बादलों से अछूता रहता है। बादल आते है जाते है, लेकिन आकाश पर उनका कोई चिन्ह नहीं छूटता है। बादलों की कोई स्मृति ,कुछ भी पीछे नहीं रहता है -आकाश अनुद्विग्न ,शांत रहता है।
7-तुम्हारे साथ भी यहीं बात है, तुम्हारी चेतना अनुद्विग्न, अक्षुब्ध, शांत रहती है। विचार आते है और जाते है, मन उठते है और खो जाते है। ऐसा मत सोचो कि तुम्हारे पास एक ही मन है, तुम्हारे पास अनेक मन है ; मनों की एक भीड़ है। और तुम्हारे मन बदलते रहते है।तुम कम्युनिस्ट हो; तो तुम्हारे पास एक तरह का मन होगा। फिर तुम कम्यूनिज् छोड़कर कम्यूनिज़म विरोधी बन सकते हो। तब तुम्हारे पास सर्वथा विपरीत मन होगा। तुम वस्त्रों की भांति अपने मन बदलते रह सकते हो। और तुम बदलते रहते हो; तुम्हें इसका पता हो या न हो। ये बादल आते है जाते है।निर्मलता तो तब प्राप्त होती है जब तुम अपनी दृष्टि को बादलों से हटाते हो। जब तुम आकाश के प्रति बोधपूर्ण होते हो। अगर तुम्हारी दृष्टि आकाश पर नहीं है तो उसका अर्थ है कि वह बादलों पर लगी है। उसे बादलों से हटाकर आकाश पर केंद्रित करो।यह विधि कहती है: ‘ग्रीष्म ऋतु में जब तुम समस्त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।
8-’आकाश पर ध्यान करो। ग्रीष्म ऋतु के दूर-दूर तक रिक्त और निर्मल आकाश, पर मनन करो ,ध्यान करो। उस निर्मलता में प्रवेश करो और वह निर्मलता ही हो जाओ ..आकाश जैसी निर्मलता।अगर तुम निर्मल आकाश पर ध्यान करोगे तो तुम अचानक महसूस करोगे कि तुम्हारा मन विलीन हो रहा है ,विदा हो रहा है। ऐसे अंतराल होंगे जिनमें अचानक तुम्हें बोध होगा कि निर्मल आकाश तुम्हारे भीतर प्रवेश कर गया है। ऐसे अंतराल होंगे , जिनमें कुछ देर के लिए विचार खो जायेंगे। मानों चलती सड़क अचानक सूनी हो गई है। और वहां कोई नहीं चल रहा है।आरंभ में यह अनुभव कुछ क्षणों के लिए होगा; लेकिन वे क्षण भी बहुत रूपांतरण कारी होगे। फिर धीरे-धीरे मन की गति धीमी होने लगेगी और अंतराल बड़े होने लगेंगे। अनेक क्षणों तक कोई विचार, कोई बादल नहीं होगा। और जब कोई विचार, कोई बादल नहीं होगा तो बाहरी आकाश और भीतरी आकाश एक हो जाएंगे। क्योंकि विचार ही बाधा है, विचार ही दीवार निर्मित करते है; विचारों के कारण ही बाहर भीतर का भेद खड़ा होता है ।
9-जब विचार नहीं होते ,तो बाहरी और भीतरी दोनों अपनी सीमाएं खो देते है और एक हो जाते है। वास्तव में सीमाएं वहां कभी नहीं थी। सिर्फ विचार के कारण, विचार के अवरोध के कारण सीमाएं मालूम पड़ती थी।आकाश पर ध्यान करना बहुत सुंदर है। बस लेट जाओ, ताकि पृथ्वी को भूल सको। किसी एकांत सागर तट पर, या कहीं भी जमीन पर पीठ के बल लेट जाओ और आकाश को देखो। लेकिन इसके लिए निर्मल आकाश सहयोगी होगा और आकाश कोअपलक देखते हुए उसकी निर्मलता को, उसके फैलाव को अनुभव करो। और फिर उस निर्मलता में प्रवेश करो, उसके साथ एक हो जाओ। अनुभव करो कि जैसे तुम आकाश ही हो गए हो।आरंभ में अगर तुम सिर्फ कुछ और नहीं करो ..सिर्फ खुले आकाश पर ही ध्यान करो। तो अंतराल आने शुरू हो जाएंगे क्योंकि तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाता है ;तुम्हें भीतर से उद्वेलित कर देता है ,वह तुममें बिंबित-प्रतिबिंबित हो जाता है।
10-तुम एक मकान देखते हो। उसे मात्र देखते ही तुम्हारे भीतर कुछ होने भी लगता है। तुम एक कार को देखते हो, या कुछ भी देखते हो तो कोई प्रतिबिंब बनने लगता है।और तुम प्रतिक्रिया करने लगते हो तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्हें ढालता है, गढ़ता है; वह तुम्हें बदलता है ,निर्मित करता है। बाह्म सतत भीतर से जुड़ा है।तो खुले आकाश को देखना बढ़िया है। उसका असीम विस्तार बहुत सुंदर है। उस असीम के संपर्क में तुम्हारी सीमाएं भी विलीन होने लगती है; क्योंकि वह असीम आकाश तुम्हारे भी प्रतिबिंबित होने लगता है।और अगर तुम आंखों को झपके बिनाअपलक ताक सको तो बहुत अच्छा है। क्योंकि अगर तुम पलक झपकते हो तो विचार प्रक्रिया चालू रहेगी। तो बिना पलक झपकाए अपलक देखो ,शून्य में देखो; उस शून्य में डूब जाओ। भाव करो कि तुम उससे एक हो गए हो। और फिर आकाश तुममें उतर आएगा।पहले तुम आकाश में प्रवेश करते हो फिर आकाश तुम में प्रवेश करता है। तब मिलन घटित होता है।
11-आंतरिक आकाश बाह्म आकाश से मिलता है और उस मिलन में उपलब्धि है। उस मिलन में मन नहीं होता। क्योंकि वह मिलन ही तब होता है जब मन नहीं होता। उस मिलन में तुम पहली दफा मन नहीं होते हो और इसके साथ सारी भ्रांति विदा हो जाती है। मन के बिना भ्रांति नहीं हो सकती है ;सारा दुःख समाप्ति हो जाता है।क्या तुमने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि दुःख मन के बिना नहीं हो सकता है क्योकि उसका स्त्रोत ही नहीं रहा तो कौन तुम्हें दुःख देगा। और उलटी बात भी सही है कि तुम मन के बिना दुःखी नहीं हो सकते हो। तुम मन के रहते आनंदित नहीं रह सकते हो। मन कभी आनंद का स्त्रोत नहीं हो सकता है।यदि भीतर और बाहरी आकाश क्षण भर के लिए भी मिलते है और मन विलीन हो जाता है तो तुम एक नए जीवन से भर जाओगे। उस जीवन की गुणवता ही और है। यहीं मृत्यु से अस्पर्शित शाश्वत जीवन है।
12-उस मिलन में तुम यहां और अभी होगे ..वर्तमान में होगे। क्योंकि अतीत विचार का हिस्सा है और भविष्य भी विचार का हिस्सा है । अतीत और भविष्य मन के हिस्से है; वर्तमान अस्तित्व है; वह तुम्हारे मन का हिस्सा नहीं है। जो क्षण बीत गया वह मन का है, जो क्षण आने वाला है वह मन का है। लेकिन वर्तमान क्षण कभी तुम्हारे मन का हिस्सा नहीं हो सकते है। बल्कि तुम ही इस क्षण के हिस्से हो। तुम यहीं हो, ठीक अभी और यहीं हो। लेकिन तुम्हारा मन सदा कहीं और होता है।तो अपने को भार-मुक्त करो। उदाहरण के लिए एक सूफी संत की कहानी है।वह एक सुनसान रास्ते से यात्रा कर रहा था। रास्ता निर्जन हो चला था, तभी उसे एक किसान अपनी बैलगाड़ी के पास दिखाई पडा। बैलगाड़ी कीचड़ में फंस गई थी। रास्ता उबड़-खाबड़ था। किसान अपनी गाड़ी में फल भर कर ला रहा था; लेकिन रास्ते में कहीं गाड़ी का पिछला तख्ता खुल गया था और सेब गिरते गए थे। लेकिन किसान को इसका पता नहीं था। जब गाड़ी कीचड़ मे फंसी तो पहले तो उसने उसे निकालने की भरसक चेष्टा कि, लेकिन उसके सब प्रयत्न व्यर्थ गए। तब उसने सोचा कि मैं गाड़ी को खाली कर लूं तो निकालना आसान हो जाएगा।
13-उसने जब लौटकर देखा तो मुश्किल से दर्जन भर फल बचे थे। सब बोझ पहले ही उतर चूका था। हम उसकी पीड़ा समझ सकते है। उस सूफी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि थके-हारे किसान ने एक आह भरी: ‘नरक में गाड़ी फंसी और उतारने को कुछ भी नहीं है।’यही एक आशा बची थी कि गाड़ी खाली हो तो कीचड़ से निकल आएगी। पर अब खाली करने को भी
कुछ नहीं है।सौभाग्य से तुम इस तरह नहीं फंसे हो। तुम खाली कर सकते हो। तुम्हारी गाड़ी बहुत बोझिल है। तुम मन को खाली कर सकते हो। और जैसे ही मन गया कि तुम उड़ सकते हो। तुम्हें पंख लग जाते है।यह विधि ..आकाश की निर्मलता में झांकने और उसके साथ एक होने की विधि—उन विधियों में एक है जिनका बहुत उपयोग किया गया है। अनेक परंपराओं ने इसका उपयोग किया है। और खास कर आधुनिक चित के लिए यह विधि बहुत उपयोगी है। क्योंकि पृथ्वी पर कुछ भी नहीं बचा है जिस पर ध्यान किया जा सके। सौभाग्य से सिर्फ आकाश अब भी बचा है;जो ध्यान करने के लिए उपलब्ध है।तुम यदि अपने चारों ओर देखोगें तो पाओगे कि प्रत्येक चीज मनुष्य निर्मित है। प्रत्येक चीज सीमित हो गई है; सीमा में सिकुड़ गई है।
14-तो इस उपयोगी विधि का प्रयोग करो । लेकिन तीन बातें याद रखने जैसी है। पहली बात ..पलकें मत झपकाये ,अपलक देखे । अगर तुम्हारी आंखें दुखने लगे और आंसू बहने लगें तो भी चिंता मत करना। वे आंसू भी तुम्हारे निर्भार करने में सहयोगी होंगे .. तुम्हारी आंखों को ज्यादा निर्दोष और ताजा बना जाएंगे। तुम अपलक देखते जाओ।दूसरी बात.. आकाश के बारे में सोच-विचार मत करो। इस बात को ख्याल में रख लो कि तुम आकाश के संबंध में सोच विचार करने लग सकते हो। तुम्हें आकाश के संबंध में अनेक कविताएं, सुंदर-सुंदर कविताएं याद आ सकती है। लेकिन तब तुम चूक जाओगे। तुम्हें आकाश के बारे में सोच-विचार नहीं करना है। तुम्हें तो उसमें डूबना है ;उसके साथ एक होना है। अगर तुम उसके संबंध में सोच-विचार करने लगे तो फिर अवरोध निर्मित हो जाएगा। तब तुम आकाश को चूक जाओगे। और अपने ही मन में बंद हो जाओगे।आकाश के संबंध में सोच-विचार मर करो; आकाश के हो जाओ। बस उसमे झांको और उसमें प्रवेश करो और उसे भी अपने में प्रवेश करने दो। अगर तुम आकाश में डूबोगे तो आकाश भी तुममें डूबने लगेगा।
15-परन्तुआकाश में प्रवेश कैसे संभव होगा कि तुम आकाश में गति करो?तीसरी बात.. आकाश में गहरे और गहरे अपलक देखते जाओ। मानो तुम उसकी सीमा खोजने की कोशिश कर रहे हो। जहां तक संभव हो, उसकी गहराई में झाँकते जाओ। यह गहराई ही अवरोध को तोड़ देगी। और इस विधि का अभ्यास कम से कम चालीस मिनट तक करना चाहिए। उससे कम समय करना बहुत उपयोगी नहीं होगा।जब तुम्हें वास्तव में लगे कि तुम आकाश के साथ एक हो गए हो तो तुम आंखें बंद कर सकते हो। जब आकाश तुममें प्रवेश कर जाए तो तुम आंखें बद कर सकते हो। तब तुम उसे अपने भीतर देखने में भी सामर्थ्य हो सकते हो। तब बाहर देखना जरूरी नहीं है। तो चालीस मिनट के बाद जब तुम्हें लगे कि एकता सध गई ,संवाद सध गया, तुम उसके हिस्से हो गये। और अब मन नहीं है, तो तुम आंखें बंद कर सकते हो और भीतर आकाश को अनुभव कर सकते हो।
16-आकाश निर्मल है, शुद्ध है, अस्तित्व की शुद्धतम चीज है। कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं करता। संसार आते है, और चले जाते है। पृथ्वीयां बनती है,और खो जाती है। लेकिन आकाश निर्मल का निर्मल बना रहता है। तो शुद्धता है; तुम्हें उसे प्रक्षेपित नहीं करना है। तुम्हें सिर्फ उसे अनुभव करना है,उसके प्रति संवेदनशील होना है। ताकि उसका अनुभव हो सके। निर्मलता तो मौजूद ही है। तुम आकाश को राह दो। तुम उसे जबरदस्ती नहीं ला सकते हो। तुम्हें उसे सिर्फ प्रेमपूर्वक राह देनी है।सभी ध्यान सिर्फ प्रेम पूर्वक राह देने की बात है। सच तो यह है कि तुम्हारी जबरदस्ती करने की चेष्टा से ही तुम्हारे सभी दुःख निर्मित हुए है। जबरदस्ती कुछ भी नहीं हो सकता है। लेकिन तुम चीजों को घटित होने दे सकते हो। स्त्रैण बनो; चीजों को घटित होने दो। निष्क्रिय बनो। आकाश पूर्णत: निष्क्रिय है, कुछ भी तो नहीं करता है ..बस है। तुम भी निष्क्रिय होकर आकाश को देखते रहो। खुले ,ग्रहण शील ,अपनी और से किसी तरह की भी जल्दबाजी किए बिना ...और तब आकाश तुममें उतरेगा।
17-‘ग्रीष्म ऋतु में जब तुम समस्त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।’
लेकिन अगर ग्रीष्म ऋतु न हो तो तुम क्या करोगे? अगर आकाश में बादल हों,आकाश साफ न हो ;तो अपनी आंखे बंद कर लो और आंतरिक आकाश को देखो। आंखे बंद कर लो अगर कुछ विचार दिखाई पड़े तो उन्हें वैसे ही देखो जैसे कि आकाश में तैरते बादल हो। पृष्ठभूमि के प्रति, आकाश के प्रति सजग हो जाओ और बादलों के प्रति उदासीन रहो।हम विचारों से इतने जुड़ रहते है कि बीच के अंतरालों के प्रति कभी ध्यान नहीं दे पाते है। एक विचार गुजरता है और इसके पहले कि दूसरा विचार प्रवेश करे, वहां एक अंतराल होता है। उस अंतराल में ही आकाश की झलक है।जब विचार नहीं होता है तो एक शून्यता ,एक खालीपन होता है। अगर आकाश बादलों से आच्छादित है ..ग्रीष्मऋतु नहीं है और आकाश साफ नहीं है ;तो अपनी आंखें बंद कर लो और पृष्ठभूमि पर मन को एकाग्र करो; उस आंतरिक आकाश पर ध्यान करो जिस पर विचार आते-जाते है।
18-विचारों पर बहुत ध्यान मत दो; उस आकाश पर ध्यान दो जिस पर विचार की भाग-दौड़ होती है।उदाहरण के लिए यदि हम एक कमरे में बैठे है तो कमरे को दो ढंगों से देख सकते है। एक कि स्थान में बैठे हुए व्यक्ति को देखे और उस स्थान के प्रति तटस्थ/उदासीन रहें जिसमें हम बैठे हो।अथवा हम अपने दृष्टि कोण को बदल ले और कमरे को, उसके खाली स्थान को देखे और स्थान में बैठे हुए व्यक्ति के प्रति उदासीन हो जाये।तब सारा परिप्रेक्ष्य बदल जाता है।यही आंतरिक जगत में करो; आकाश पर ध्यान दो। विचार वहां चल रहे है, उसके प्रति उदासीन हो जाओ। उन पर कोई ध्यान मत दो वह है, चल रहे है, देख लो कि ठीक है, विचार चल रहे है। सड़क पर लोग चल रहे है; देख लो और उदासीन रहो। यह मत देखो कि कौन जा रहा है। इतना भर जानों कि कुछ गुजर रहा है। और उस स्थान के प्रति सजग होओ जिसमें गति हो रही है। तब ग्रीष्म ऋतु का आकाश भीतर घटित होगा।ग्रीष्म ऋतु की प्रतीक्षा की जरूरत नहीं है। अन्यथा हमारा मन ऐसा है कि वह कोई भी बहाना पकड़ ले सकता है। वह कहेगा कि अभी ग्रीष्म ऋतु नहीं है। और यदि ग्रीष्म ऋतु भी हो तो वह कहेगा की आकाश निर्मल नहीं है।
...SHIVOHAM....