विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 84,85 वीं (अनासक्ति—संबंधी छह विधियां )विधियां क्या है?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 84 ;-
18 FACTS;-
(अनासक्ति—संबंधी पहली विधि)
1-भगवान शिव कहते है:-
''शरीर के प्रति आसक्ति को दूर हटाओं और यह भाव करो कि मैं सर्वत्र हूं। जो सर्वत्र है वह आनंदित है।''
2- ‘शरीर के प्रति आसक्ति को दूर हटाओं।’वास्तव में, शरीर के प्रति हमारी आसक्ति प्रगाढ़ है। वह अनिवार्य है और स्वाभाविक भी है।हम अनेक-अनेक जन्मों से शरीर में रहते आए है; आदि काल से ही शरीर बदलते रहे है। लेकिन तुम सदा सशरीर रहे हो।ऐसे क्षण, ऐसे समय भी रहे है जब तुम शरीर में नहीं थे। लेकिन तब तुम अचेतन थे, मूर्छित थे। जब तुम मरते हो, जब तुम एक शरीर छोड़ते हो, तो तुम मूर्च्छा की हालत में मरते हो और तुम मूर्च्छित ही रहते हो। फिर तुम्हारा एक नए शरीर में जन्म होता है। लेकिन उस समय भी तुम मूर्छित ही रहते हो। एक मृत्यु और दूसरे जन्म के बीच का अंतराल मूर्च्छा में बीतता है।इसलिए तुम्हें तो केवल एक ही बात का पता है और वह है शरीर में होने का; तुमने अपने को शरीर में ही जाना है।यह बात इतनी प्राचीन , इतनी निरंतर है कि तुम भूल ही गए हो कि मैं भिन्न हूं। यह एक विस्मरण है जो स्वाभाविक है, अनिवार्य है।तुम्हें लगता है कि मैं शरीर हूं; और इसी कारण से आसक्ति है।
2-तुम्हें लगता है कि मैं शरीर से अधिक कुछ भी नहीं है। कई बार तुम सोचते हो कि मैं शरीर नहीं ..आत्मा हूं। लेकिन यह तुम्हारा जानना नहीं है बल्कि यह बस तुमने सुना है , पढ़ा है। तो पहला काम यह है कि तुम्हें इस तथ्य को स्वीकार करना है कि वस्तुत: मेरा जानना यही है कि मैं शरीर हूं। अपने को धोखा मत दो; क्योंकि धोखा देने से काम नहीं चलेगा। अगर तुम सोचते हो कि मैं पहले से ही जानता हूं कि मैं शरीर हूं तो तुम शरीर के प्रति अपनी आसक्ति को दूर नहीं कर सकते। और तब अनेक कठिनाइयां उठ खड़ी होंगी ;जिनका समाधान नहीं हो सकता। किसी कठिनाई को आरंभ में ही हल कर सकते है। हल करने के लिए तुम्हें फिर आरंभ पर लौटना होगा। तो पहले तुम्हें यह भली भांति बोध होना चाहिए कि मैं नहीं जानता कि मैं शरीर के अतिरिक्त कुछ नहीं हूं। यह पहला बुनियादी बोध है जो अभी तुम्हें नहीं है। तुम्हारा मन दूसरों से मिले ज्ञान से संस्कारित है। यह ज्ञान उधार है ;सच्चा नहीं है। ऐसा नहीं है कि यह गलत है। जिन्होंने कहा है उन्होंने ऐसा जाना है। लेकिन जब तक यह तुम्हारा अनुभव न हो जाए, तब तक तुम्हारे लिए गलत है।और इस अर्थ में सत्य वैयक्तिक अनुभूति है।अनुभूत सत्य ही 'सत्य' है।
3-जो अनुभूत नहीं है वह सत्य नहीं है। कोई जागतिक सत्य नहीं होता है। प्रत्येक सत्य को सत्य होने के लिए पहले वैयक्तिक होना पड़ता है। तुमने पुरखो से सुना है कि मैं शरीर नहीं हूं ...यह तुम्हारे ज्ञान का हिस्सा है, लेकिन यह तुम्हारा अनुभव नही है। पहले इस तथ्य का साक्षात करो कि मैं अपने को शरीर की भांति ही जानता हूं। यह साक्षात्कार तुम्हारे भीतर बड़ी बेचैनी पैदा करेगा। इस बेचैनी को छिपाने के लिए ही तुमने यह ज्ञान इकट्ठा किया था। तुम माने रहते हो कि मैं शरीर नहीं हूं। और तुम शरीर की भांति रहते आये हो। इससे तुम विभाजित हो जाते हो। इससे तुम्हारा सारा जीवन अप्रामाणिक , झूठ और नकली हो जाता है।वास्तव में,यह चित की रूग्ण , भ्रांत अवस्था है।तुम शरीर की तरह जीते हो लेकिन बातें करते हो आत्मा की तरह। और तब द्वंद्व है ,संघर्ष है। तब तुम सतत एक गहन अशांति में जीते हो। जिसका निराकरण संभव नहीं है।तो पहले इस तथ्य को देखो कि मैं आत्मा के संबंध में कुछ नहीं जानता हूं, मैं जो कुछ भी जानता हूं वह शरीर के संबंध में जानता हूं। इससे तुम्हारे भीतर जो भी अंदर छिपा है वह उभर कर सतह पर आएगा। इस तथ्य के साक्षात्कार से कि मैं शरीर हूं। तुम्हें बहुत बेचैनी होगी और तुम बहुत अजीब अनुभव करोगे।
4-लेकिन इस अनुभव से गुजरना ही होगा; तो ही तुम जान सकते हो कि शरीर के प्रति आसक्ति का क्या अर्थ है।ऐसे शिक्षक है जो कहे चले जाते है कि तुम्हें अपने शरीर से आसक्त नहीं होना चाहिए। लेकिन तुम्हें इस बुनियादी बात का ही पता नहीं है कि शरीर के प्रति यह आसक्ति क्या है। शरीर के प्रति आसक्ति शरीर के साथ प्रगाढ़ तादात्म्य है, लेकिन पहले तुम्हें समझना है कि यह तादात्म्य क्या है।तो अपने उस सारे ज्ञान को अलग हटा दो जिसने तुम्हें यह भ्रांत धारणा दी है कि तुम आत्मा हो। यह अच्छी तरह जान लो कि मैं एक ही चीज को जानता हूं और शरीर है। यह बोध तुम्हारे भीतर छिपे हुए नरक को उभार कर ऊपर ले आता है ;प्रत्यक्ष कर देता है।जब तुम्हें बोध होता है कि मैं शरीर हूं तो पहली बार तुम्हें आसक्ति का बोध होता है। तुम्हारी चेतना में इस तथ्य का बोध होता है कि यह शरीर है ...जो पैदा होता है और मर जाता है ..यहीं मैं हूं। यह कामवासना, क्रोध ...यही मैं हूं। इस तरह सभी झूठी प्रतिमाएं गिर जाती है और तुम अपने सचाई में प्रकट हो जाते हो।यह सचाई बहुत दुखद है। यही कारण है कि हम उसे छिपाते रहते है। यह एक गहरी चालाकी है। तुम अपने को आत्मा माने रहते हो और जो भी तुम्हें नापसंद है उसे तुम शरीर पर थोप देते हो।
5-तुम कहते हो कि कामवासना शरीर की है, और प्रेम मेरा। लोभ और क्रोध शरीर का है और करूणा मेरी है। करूणा आत्मा की है और क्रूरता मेरी है। क्षमा आत्मा की है और क्रोध शरीर का है। जो भी तुम्हें गलत और कुरूप मालूम पड़ता है। उसे तुम शरीर पर थोप देते हो। और जो भी तुम्हें सुंदर मालूम पड़ता है। उसके साथ तुम अपना तादात्म्य बना लेते हो। इस तरह तुम विभाजन पैदा करते हो।यह विभाजन तुम्हें जानने नहीं देता कि आसक्ति क्या है। और जब तक तुम यह नहीं जानते कि आसक्ति क्या है और जब तक तुम उसके नरक से, उसकी पीड़ा से नहीं गुजरते हो, तब तक तुम उसे दूर नहीं हटा सकते।क्योकि
तुम किसी चीज को तभी दूर करोगे ,जब वह भारी बोझ या नरक सिद्ध हो। तुम्हारी आसक्ति अभी नरक नहीं सिद्ध हुई है। सभी संत महात्मा कहे जा सकते है कि आसक्ति नरक है। लेकिन यह तुम्हारा भाव नहीं है। इसीलिए तुम बार-बार पूछते हो कि आसक्ति से कैसे छूटा जाए। अनासक्त कैसे हुआ जाये। आसक्ति के पार कैसे हुआ जाए। तुम यह ‘’कैसे’’ इसीलिए पूछते रहते हो क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम है कि आसक्ति क्या है।यदि तुम जानते हो कि आसक्ति क्या है तो तुम कूद कर बाहर निकल जाओगे, तब तुम ‘कैसे’ नहीं पूछोगे!
6-उदाहरण के लिए अगर तुम्हारे घर में आग लगी हो तो तुम किसी से पूछने नहीं जाओगे,या तुम किसी गुरु के पास यह पूछने नहीं जाओगे कि आग से कैसे बचा जाये। अगर घर जल रहा हो तो तुम तत्क्षण बाहर निकल जाओगे। तुम एक क्षण भी देर नहीं करोगे। तुम गुरु या शास्त्रों से सलाह नहीं लोगे कि निकलने के लिए किन साधनों को काम में लाया जाए,या कि निकलने के लिए कौन सा सही द्वार है। ये चीजें अप्रासंगिक है।जब तुम जानते हो कि आसक्ति क्या है तो तुम यह जानते हो कि घर जल रहा है और तब तुम उसे अपने से दूर कर सकते हो।इस विधि में प्रवेश के पहले तुम्हें आत्मा संबंधी उधार ज्ञान को हटा देना होगा, ताकि शरीर के प्रति आसक्ति अपनी समग्रता में प्रकट हो सके। यह बहुत कठिन होगा; क्योकि उसका साक्षात्कार गहरी चिंता और संताप में ले जाएगा। लेकिन यदि तुम्हें एक बार उसका साक्षात्कार हो जाए तो तुम उसे दूर कर सकते हो। और ‘’कैसे’’ पूछने की जरूरत नहीं है। यह बिलकुल ही आग है, नरक है; तुम उससे छलांग लगाकर बाहर निकल सकते हो।यह सूत्र कहता है: ‘शरीर के प्रति आसक्ति को दूर हटाओं और यह भाव करो कि मैं सर्वत्र हूं। जो सर्वत्र है वह आनंदित है।’और जिस क्षण तुम आसक्ति को दूर हटाओगे, तुम्हें बोध होगा कि मैं सर्वत्र हूं।
7-इस आसक्ति के कारण तुम्हें महसूस होता है कि मैं शरीर में सीमित हूं। शरीर तुम्हें नहीं सीमित करता है, तुम्हारी आसक्ति तुम्हें सीमित करती है। शरीर तुम्हारे और सत्य के बीच अवरोध नहीं निर्मित करता है, उसके प्रति तुम्हारी आसक्ति अवरोध निर्मित करती है।एक बार तुम जान गए कि आसक्ति नहीं है तो फिर तुम्हारा कोई शरीर भी नहीं है ..अथवा सारा अस्तित्व तुम्हारा शरीर बन जाता है। तुम्हारा शरीर समग्र अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है। तब वह पृथक नहीं है।सच तो यह है कि तुम्हारा शरीर तुम्हारे पास आया हुआ निकटतम अस्तित्व है; और कुछ नहीं। शरीर निकटतम अस्तित्व है और फिर वही फैलता जाता है।एक बार तुम्हारी आसक्ति गई कि तुम्हारे लिए शरीर न रहा। अथवा समस्त अस्तित्व तुम्हारा शरीर बन जाता है। तब तुम सर्वत्र हो, सब तरफ हो। शरीर में तुम एक विशेष स्थान में सीमित हो; शरीर के बिना तुम पर कोई सीमा न रही। यही कारण है कि जिन्होंने जाना है वे कहते है कि शरीर कारागृह है। दरअसल, शरीर कारागृह नहीं है। आसक्ति कारागृह है।जब तुम्हारी निगाह शरीर पर ही सीमित नहीं है तब तुम सर्वत्र हो।
8-मन को, जो शरीर में है, यह बात बेतुकी ,पागलपन जैसी लगती है ...कोई व्यक्ति सभी जगह कैसे हो सकता है। और वैसे ही एक बुद्ध पुरूष को हमारा यह कहना कि मैं ‘यहां’ हूं, पागलपन जैसा मालूम पड़ता है।तुम किसी एक स्थान में कैसे हो सकते हो? चेतना कोई स्थान नहीं लेती है, इसीलिए अगर तुम आंखें बंद कर लो तो पता लगाने की चेष्टा करो कि शरीर में ही 'कहां हो' तो तुम हैरान रह जाओगे; तुम नहीं खोज पाओगे कि 'मैं कहां हूं'।अनेक धर्म और अनेक संप्रदाय हुए है जो कहते है कि तुम नाभि में हो। दूसरे कहते है तुम ह्रदय में हो। कुछ कहते है कि तुम सिर में हो। कुछ कहते है कि तुम इस चक्र में हो और कुछ कहते है कि उस चक्र में हो। लेकिन भगवान शिव कहते है कि तुम कहीं नहीं हो। यही कारण है कि अगर तुम आंखें बंद कर लो और खोजने की कोशिश करो कि मैं कहां हूं तो तुम कुछ नहीं बता सकते। तुम तो हो, लेकिन तुम्हारे लिए कोई ‘कहां’ नहीं है। तुम बस हो।प्रगाढ़ नींद में भी तुम्हें शरीर का बोध नहीं रहता है। तुम तो हो। सुबह जाग कर तुम कहोगे कि नींद बहुत गहरी थी। बहुत आनंदपूर्ण थी। तुम्हें एक गहन आनंद का बोध था लेकिन तुम्हें शरीर का बोध नहीं था।
9-प्रगाढ़ निद्रा में तुम कहां होते हो? और मरते हो तो तुम कहां जाते हो? लोग पूछते है कि जब कोई मरता है तो वह कहां जाता है?लेकिन यह प्रश्न निरर्थक है, मूढ़ता पूर्ण है। यह प्रश्न हमारे इस भ्रम से ही उठता है कि हम शरीर में है। अगर हम मानते है कि हम शरीर है तो फिर प्रश्न उठता है कि मरने पर हम कहां जाते है।जब तुम मरते हो तो तुम कहीं नहीं जाते हो।निर्वाण का अर्थ है .. जब तुम शरीर से बंधे नहीं हो तो तुम निर्वाण में हो, तुम कहीं नहीं हो।अगर तुम गौतम बुद्ध से पूछोगे तो वे कहेंगे कि तुम नहीं हो ...वे नकारात्मक शब्द ‘निर्वाण’ चुनते है ..अर्थात ‘कहीं नहीं।’भगवान शिव सकारात्मक शब्द चुनते है; वे कहते है कि तुम सब कहीं हो। लेकिन दोनों शब्द एक ही अर्थ रखते है।अगर तुम सब कहीं हो तो तुम कहीं एक जगह नहीं हो सकते। तुम सब कहीं हो, यह कहना करीब-करीब वैसा ही है जैसा वह कहना कि तुम कहीं नहीं हो। लेकिन शरीर से हम आसक्त है और हमें लगता है कि हम बंधे है।
10-यह बंधन मानसिक है; तुम्हारी अपनी करनी है। तुम अपने को किसी भी चीज के साथ बाँध सकते हो। तुम्हारे पास एक कीमती हीरा है, और तुम्हारे प्राण उसमें अटके हो सकते है। यदि वह हीरा चोरी हो जाए तो तुम आत्महत्या कर सकते हो ;पागल हो सकते हो।लेकिन बहुत लोग है जिनके पास हीरा नही है। उनमें से कोई भी आत्महत्या नहीं कर सकता है। किसी को हीरे के बिना कोई कठिनाई नहीं हो रही है।कभी तुम भी बिना हीरे के थे और कोई समस्या नहीं थी। अब तुम फिर हीरे के बिना हो, लेकिन अब समस्या है। यह समस्या तुम्हारी अपनी करनी है।अब तुम आसक्त हो, बंधे हो। हीरा तुम्हारा शरीर बन गया है; अब तुम इसके बिना नहीं रह सकते। अब इसके बिना तुम्हारा जीना असंभव है।जहां भी तुम आसक्त होते हो, नया कारागृह बन जाता है। और हम जीवन में यहीं करते है; हम निरंतर और बड़े से बड़े कारागृह बनाते रहते है।और फिर हम उन कारागृहों को सजाते है। ताकि वे घर मालूम पड़ें और फिर हम भूल ही जाते है कि वे कारागृह है।
11-यह सूत्र कहता है कि अगर तुम शरीर से अपनी आसक्ति को दूर कर सको तो यह बोध घटित होगा कि मैं सर्वत्र हूं,सब कहीं हूं। तब तुम बूंद न रहे, सागर हो गए; तब तुम्हें सागर होने का भाव होता है। अब तुम्हारी चेतना किसी स्थान से नहीं बंधी है; वह स्थान मुक्त है। तुम बिलकुल आकाश के समान हो जाते हो। जो सबको घेरे हुए है। अब सब कुछ तुममें है ..तुम्हारी चेतना अनंत तक फैल गई है।और फिर सूत्र कहता है: ‘जो सर्वत्र है वह आनंदित है।’एक जगह से बंधे रह कर तुम दुःख में रहोगे क्योंकि तुम सदा उससे बड़े हो जहां तुम बंधे हो। यही दुःख है। मानों तुम अपने को एक छोटे-से पात्र में सीमित कर रहे हो। सागर को एक घड़े में बंद किया जा रहा है। यही दुःख है और जब भी इस दुःख की अनुभूति हुई है ब्रह्म की खोज शुरू हो जाती है।ब्रह्म का अर्थ है अनंत, असीम फैलाव। और मोक्ष की खोज स्वतंत्रता की खोज है। सीमित शरीर में तुम स्वतंत्र नहीं हो सकते हो। एक स्थान में तुम बंध जाते हो।सब कहीं में ही तुम स्वतंत्र हो सकते हो।
12-मनुष्य का मन सदा स्वतंत्रता खोज रहा है ..उसकी दिशा चाहे जो भी हो। दिशा राजनीतिक , सामाजिक , मानसिक और धार्मिक भी हो सकती है।स्वतंत्रता मनुष्य की गहनत्म आवश्यकता मालूम पड़ती है। जहां भी मनुष्य के मन को अवरोध मिलता है, जहां भी उसे गुलामी का बंधन का अहसास होता है, वह उसके विरूद्ध लड़ता है।मनुष्य का सारा इतिहास स्वतंत्रता के युद्ध का इतिहास है;केवल आयाम भिन्न हो सकते है।कार्ल माक्र्स और लेनिन आर्थिक स्वतंत्रता के लिए लड़ते है।महात्मा गांधी और अब्राहम लिंकन राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए लड़ते है।और हजारों तरह की गुलामियां है, और संघर्ष जारी है। लेकिन एक बात निश्चित है कि कहीं गहरे में मनुष्य निरंतर और-और स्वतंत्रता की खोज कर रहा है।भगवान शिव कहते है ..और यही बात सभी धर्म कहते है ..कि तुम राजनीतिक तल पर स्वतंत्र हो सकते हो, लेकिन संघर्ष समाप्त नहीं होगा। एक तरह की गुलामी हट जाएगी लेकिन और तरह की गुलामियां है।जब तुम राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होगे तो तुम्हें अन्य गुलामियों का बोध होगा।आर्थिक गुलामी समाप्त हो सकती है। लेकिन तब तुम अन्य गुलामियां के प्रति सजग हो जाओगे; शरीर के तल पर जो गुलामियां है उनके प्रति सजग हो जाओगे। यह संघर्ष तब तक नहीं खत्म होगा जब तक तुम यह नहीं अनुभव करते,या यह नहीं जानते कि मैं सर्वत्र हूं।
13-जिस क्षण तुम्हें प्रतीत होता है कि मैं सर्वत्र हूं, कि मैं सब जगह हूं, तो स्वतंत्रता प्राप्त हुई।यह स्वतंत्रता राजनीतिक , आर्थिक या सामाजिक नहीं है। यह स्वतंत्रता अस्तित्वगत है ,समग्र है। इसीलिए हमने उसे मोक्ष कहा है ...समग्र स्वतंत्रता।हर्ष या आनंद तभी संभव है जब तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो। सच तो यह है कि पूरी तरह स्वतंत्र होना ही आनंद है। आनंद परिणाम नहीं है। स्वतंत्रता की घटना ही आनंद है। जब तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो तो तुम आनंदित हो।यह आनंद परिणाम की तरह नहीं घटित हो रहा है। स्वतंत्रता ही आनंद है, गुलामी दुःख है। संताप है। जिस क्षण तुम किसी सीमा में बंधा अनुभव करते हो उसी क्षण तुम दुःख में पड़ जाते हो।जहां-जहां भी तुम सीमित अनुभव करते हो वहां-वहां तुम दुःख अनुभव करते हो।और जब तुम असीम-अनंत अनुभव करते हो, दुःख विलीन हो जाता है।तो बंधन दुःख है और मुक्ति आनंद है। जब भी तुम्हें इस स्वतंत्रता का अनुभव होता है। तुम्हें आनंद घटित होता है।अभी भी जब तुम्हें किसी तरह की स्वतंत्रता का अनुभव होता है, चाहे वह समग्र न भी हो, तो तुम प्रसन्न हो जाते हो।
14-जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, तुम पर एक खुशी, एक आनंद बरस जाता है।वास्तव में ,जब भी तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो तो तुम शरीर के प्रति अपनी आसक्ति को दूर हटा देते हो। किसी गहरे अर्थ में तुम अब अपने शरीर में ही सीमित नहीं हो, दूसरे का शरीर भी तुम्हारा आवास बन गया है ,घर बन गया है। तुम्हें थोड़ी स्वतंत्रता महसूस होती है। अब तुम दूसरे में गति कर सकते हो और दूसरे तुममें गति कर सकते है। एक अर्थ में एक अवरोध गिर गया; अब तुम पहले से ज्यादा हो।जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम पहले से बहुत ज्यादा हो जाते हो। तुम्हारा होना थोड़ा फैला, थोड़ा विराट हुआ। तुम्हारी चेतना अब पहले कि तरह क्षुद्र न रही; उसने नया विस्तार पा लिया है।प्रेम में तुम्हें थोड़ी स्वतंत्रता का अनुभव होता है। हालांकि यह समग्र नहीं है। और देर-अबेर तुम फिर बंधन अनुभव करोगे। तुम्हें विस्तार तो मिला, लेकिन यह विस्तार अभी भी सीमित है।इसीलिए जो लोग वस्तुत: प्रेम करते है वे देर-अबेर प्रार्थना में उतर जाते है। प्रार्थना का अर्थ है,वृहद प्रेम , पूरे आस्तित्व के साथ प्रेम। अब तुम्हें रहस्य का ,गुप्त कुंजी का पता चल गया कि मैंने एक व्यक्ति को प्रेम किया और जिस क्षण मैंने प्रेम किया, सारे अवरोध गिर गए। सारे दरवाजे खुल गए और कम से कम एक व्यक्ति के लिए मेरा होना विस्तृत हुआ। मेरे प्राणों का विस्तार हुआ।
15-अब तुम्हें गुप्त कुंजी मालूम है कि अगर मैं पूरे-अस्तित्व को प्रेम करने लगू तो मैं शरीर नहीं रहूंगा।प्रगाढ़ प्रेम में तुम शरीर नहीं रह जाते हो। जब तुम्हें प्रेम नहीं मिलता है, तब तुम अपने को शरीर ज्यादा अनुभव करते हो ;अपने शरीर का ख्याल ज्यादा रहता है। तब तुम्हारा शरीर बोझ बन जाता है। जिसे तुम किसी तरह ढोते हो। जब तुम्हें प्रेम मिलता है, तो शरीर निर्भर हो जाता है। एक अर्थ में शरीर नहीं रहा ....लेकिन सीमित अर्थ में ही। वही बात एक गहरे अर्थ में तब घटती है ;जब तुम समग्र अस्तित्व के साथ प्रेम में होते हो।प्रेम में तुम्हें आनंद मिलता है लेकिन आनंद सुख नहीं है। सुख इंद्रियों के द्वारा शरीर से मिलता है। आनंद इंद्रियगत नहीं है, वह अतींद्रिय अवस्था में प्राप्त होता है।आनंद तब मिलता है जब तुम शरीर नहीं होते हो। जब क्षण भर के लिए शरीर विलीन हो गया है और तुम मात्र चेतना हो तो तुम्हें आनंद प्राप्त होता है। और जब तुम शरीर हो तो तुम्हें केवल सुख मिल सकता है। शरीर से दुःख संभव है, सुख संभव है, लेकिन आनंद तभी संभव है जब तुम शरीर नहीं हो।आनंद कभी-कभी अचानक और आकस्मिक रूप से भी घटित होता है।
16-तुम संगीत सुन रहे हो और अचानक सब कुछ खो जाता है। तुम संगीत में इतने तल्लीन हो कि तुम्हें अपने शरीर की सुधि भूल गई। तुम संगीत में डूब गए हो; तुम संगीत के साथ एक हो गए हो। तुम इतने एक हो गये हो कि कोई सुननेवाला बचा ही नहीं; सुनने वाला और सुना जाने वाला, संगीत एक हो गए है। सिर्फ संगीत बचा है; तुम नहीं बचे। तुम विस्तृत हो गए, फैल गये। और जब भी शरीर की सुधि नहीं रहती। शरीर अनजाने ही, अचेतन रूप से दूर हट जाता है और तुम्हें आनंद घटित होता है।
तंत्र और योग के द्वारा तुम यही चीज विधिपूर्वक कर सकते हो। तब वह आकस्मिक नहीं है; तब तुम उसके मालिक हो। तब यह चीज तुम्हें अनजाने नहीं घटती है; तब तुम्हारे हाथ में कुंजी है और तुम जब चाहो द्वार खोल सकते हो ...या तुम चाहो तो द्वार हमेशा के लिए खोल सकते हो और कुंजी को फेंक सकते हो। द्वार को फिर बंद करने की जरूरत नहीं रही।सामान्य जीवन में भी आनंद घटित होता है; लेकिन वह कैसे घटता है, यह तुम्हें नहीं मालूम। स्मरण रहे, यह सदा तभी घटता है जब तुम शरीर नहीं होते हो। तो जब भी तुम्हें पुन: किसी आनंद के क्षण का अनुभव हो तो सजग होकर देखना कि उस क्षण में तुम शरीर हो या नहीं।वास्तव में, तुम शरीर नहीं होगे।
17-जब भी आनंद है, शरीर नहीं है। ऐसा नहीं कि शरीर नहीं रहता है। शरीर तो रहता है, लेकिन तुम शरीर से आसक्त या बंधे नहीं हो। तुम उससे बाहर निकल गए हो। हो सकता है, संगीत के कारण तुम बाहर निकल गए, या खूबसूरत सूर्योदय को देखकर बाहर निकल गए। या एक बच्चे को हंसते देखकर बाहर निकल गए। या किसी के प्रेम में होने के कारण शरीर से बाहर आ गए ....कारण जो भी हो,मगर तुम क्षण भर के लिए बाहर आ गए। शरीर तो है, लेकिन दूर हो गए। तुम उससे आसक्त नही हो। तुमने एक उड़ान ली।इस विधि के द्वारा तुम जानते हो कि जो सर्वत्र है वह दुखी नहीं हो सकता; वह आनंदित है ,वह आनंद है। तो स्मरण रहे, तुम जितने सीमित होगे उतने ही दुःखी होगे।फैलो, अपनी सीमाओं को दूर हटाओं। और जब भी संभव हो, शरीर को अलग हटा दो। तुम आकाश को देखो, बादल तैर रहे है, उन बादलों के साथ तैरो, शरीर को जमीन पर ही रहने दो। और आकाश में चाँद है, चाँद के साथ यात्रा करो। जब भी तुम शरीर को भूल सको, उस अवसर को मत चूको, यात्रा पर निकल पड़ो। और तुम धीरे-धीरे परिचित हो जाओगे कि शरीर से बाहर होने का क्या मतलब है।और यह सिर्फ अवधान की बात है। आसक्ति अवधान देने की बात है। अगर तुम शरीर को अवधान देते हो तो तुम उससे आसक्त हो। अगर अवधान हटा लिया जाए तो तुम आसक्त नहीं रहे।
18-उदाहरण के लिए तुम खेल के मैदान में खेल रहे हो। तुम क्रिकेट खेल रहे हो या कोई और खेल रहे हो। तुम खेल में इतने तल्लीन हो कि तुम्हारा अवधान शरीर पर नहीं है। तुम्हारे पैर पर चोट लग गई है और खून बह रहा है; लेकिन तुम्हें उसका पता नहीं है। दर्द भी है, लेकिन तुम वहां नही हो ...शरीर के बाहर हो। तुम्हारी चेतना, तुम्हारा अवधान गेंद के साथ दौड़ रहा है..भाग रहा है।लेकिन जैसे ही खेल समाप्ति होता है। तुम अचानक शरीर में लौट आते हो और देखते हो कि खून बह रहा है। पीड़ा हो रही है और तुम्हें आश्चर्य होता है कि यह कैसे हुआ। कब हुआ और कैसे तुम्हें इसका बोध नहीं हुआ।वास्तव में,शरीर में रहने के लिए तुम्हें अवधान की जरूरत है।यह स्मरण रहे,जहां भी तुम्हारा अवधान है तुम वही हो। अगर तुम्हारा अवधान फूल में है तो तुम फूल में हो। और अगर तुम्हारा अवधान धन में हो तो तुम धन में हो। तुम्हारा अवधान ही तुम्हारा होना है। और अगर तुम्हारा अवधान कहीं नहीं है तो तुम सब कहीं हो।ध्यान की पूरी प्रक्रिया चेतना की उस अवस्था में होना है जहां तुम्हारा अवधान कहीं नहीं हो, जहां तुम्हारे अवधान का कोई विषय न हो, कोई लक्ष्य न हो। तुम्हारा अवधान ही तुम्हारा शरीर है। और जब अवधान कहीं नहीं है तो तुम सब कहीं हो। और तब तुम्हें आनंद घटित होता है। वह कहना भी ठीक नहीं है कि तुम्हें आनंद घटित होता है।तुम ही आनंद हो। अब यह तुमसे अलग नहीं हो सकता। यह तुम्हारा प्राण ही बन गया है।स्वतंत्रता आनंद है। इसीलिए स्वतंत्रता की इतनी अभिलाषा है, इतनी खोज है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 85 ;-
18 FACTS;-
(अनासक्ति—संबंधी दूसरी विधि)
1-भगवान शिव कहते है:-
‘ना-कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’
2-यह दूसरा सूत्र कहता है: ‘ना कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’
अगर तुम सोच विचार नहीं कर रहे हो तो तुम असीम हो। विचार तुम्हें सीमा देता है और सीमाएं अनेक तरह की है।अगर तुम्हारे अवधान का कोई विषय नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, तो तुम कहीं नहीं हो, या तुम सब कहीं हो। और तब तुम स्वतंत्र हो तुम स्वतंत्रता ही हो गए हो।तुम हिंदू हो, यह एक सीमा है। हिंदू होना किसी विचार से, किसी व्यवस्था से, किसी ढंग ढांचे से बंधा होना है। तुम ईसाई हो, यह भी एक सीमा है। धार्मिक व्यक्ति कभी भी हिंदू या ईसाई नहीं हो सकता। और अगर कोई व्यक्ति हिंदू या ईसाई है तो वह धार्मिक नहीं है।यह असंभव है क्योंकि ये सब बिचार है।धार्मिक व्यक्ति का अर्थ है कि वह विचार से नहीं बंधा है। वह किसी व्यवस्था से, किसी ढंग-ढांचे से नहीं बंधा है। वह मन की सीमा में नहीं बल्कि असीम में जीता है।जब तुम्हारा कोई विचार है तो वह विचार तुम्हारा अवरोध बन जाता है। वह विचार सुंदर हो सकता है। लेकिन फिर भी वह बंधन है। सुंदर कारागृह भी कारागृह ही है। विचार स्वर्णिम हो सकता है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता; स्वर्णिम विचार भी तो उतना ही बाँधता है,जितना कोई और विचार बाँधता है। और जब तुम्हारा कोई विचार है, और तुम उससे आसक्त हो तो तुम सदा किसी के विरोध में हो।
2-विचार सदा विचार सदा पक्ष या विपक्ष में होता है;पूर्वाग्रह ग्रस्त होता है।विचार सीमा बनता है;अवरोध खड़े करता है; और जो लोग पक्ष में नहीं है उन्हें विरोधी मान लिया जाता है।विचार को किसी न किसी के विरोध में होना पड़ता है। चाहे वह किसी व्यक्ति के विरोध में हो या किसी वस्तु के।वास्तव में, विचार कभी समग्र नहीं हो सकता; केवल निर्विचार ही समग्र हो सकता है।
दूसरी बात कि विचार मन से आता है। वह सदा मन की उप-उत्पति है। विचार तुम्हारा रुझान है, अनुमान है, पूर्वाग्रह है ,प्रतिक्रिया है ,सिद्धांत है ,धारणा है, और तुम्हारी मान्यता है। विचार अस्तित्व के संबंध में है। लेकिन वह स्वयं अस्तित्व नहीं है।
उदाहरण स्वरुप एक फूल है। तुम उस फूल के संबंध में कुछ कह सकते हो। वह कहना एक प्रतिक्रिया है। तुम कह सकते हो कि फूल सुंदर है, कि असुंदर है। तुम कह सकते हो कि फूल पवित्र है। लेकिन तुम फूल के संबंध में जो भी कहते हो वह फूल नहीं है। फूल का होना तुम्हारे विचारों के बिना है। और तुम फूल के संबंध में जो भी सोच विचार करते हो उससे तुम अपने और फूल के बीच अवरोध निर्मित कर रहे हो। फूल को होने के लिए तुम्हारे विचारों की जरूरत नहीं है। फूल 'बस है'। अपने विचारों को छोड़ो और तब तुम फूल में डूब सकते हो।
3-यह सूत्र कहता है: ‘ना-कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’अगर तुम सोच विचार में उलझे नहीं हो, अगर तुम सिर्फ हो, पूरे सजग और सावचेत हो, विचार के किसी धुएँ के बिना हो, तो तुम असीम हो।यह शरीर ही एकमात्र शरीर नहीं है; एक गहनतर शरीर भी है।शरीर पदार्थ से बना है और मन भी पदार्थ से बना है;लेकिन वह और सूक्ष्म से बना है। शरीर बाहरी पर्त है और मन आंतरिक पर्त है। और शरीर से अनासक्त होना बहुत कठिन नहीं है। मन से अनासक्त होना बहुत कठिन है। क्योंकि मन के साथ तुम्हारा तादात्म्य ज्यादा गहरा है। तुम मन से ज्यादा जुड़े हो।अगर कोई तुमसे कहे कि तुम्हारा शरीर रूग्ण मालूम होता है तो तुम्हें पीड़ा नहीं होती है। क्योकि तुम शरीर से उतने आसक्त नहीं हो; वह तुमसे जरा दूरी पर मालूम पड़ता है। लेकिन अगर कोई तुमसे कहे कि तुम्हारा मन रूग्ण है ,अस्वस्थ मालूम होता है। तो तुम्हें पीड़ा होती है।मन से तुम अपने को ज्यादा निकट अनुभव करते हो।
4- मन और शरीर दो नहीं है। तुम्हारे शरीर की बाहरी पर्त शरीर है और भीतरी पर्त मन है। ऐसा समझो कि तुम्हारा एक घर है; तुम उस घर को बाहर से देख सकते हो और तुम उस घर को भीतर से भी देख सकते हो। बाहर से दीवारों की बाहरी पर्त दिखाई पड़ेगी; और भीतर से भीतरी पर्त दिखाई पड़ेगी। मन तुम्हारी आंतरिक पर्त है। वह तुम्हारे ज्यादा निकट है। लेकिन फिर भी वह शरीर ही है।मृत्यु में तुम्हारा बाहरी शरीर गिर जाता है। लेकिन उसका भीतरी सूक्ष्म पर्त को तुम अपने साथ ले जाते हो। तुम उससे इतने आसक्त हो कि मृत्यु भी तुम्हें तुम्हारे मन से पृथक नहीं कर पाती। मन जारी रहता है। यहीं कारण है कि तुम्हारे पिछले जन्मों को जाना जा सकता है। तुम अभी भी अपने सभी अतीत के मनों को अपने साथ लिए हुए हो। वे सब के सब तुम में मौजूद है।अगर तुम कभी वृक्ष थे तो वृक्ष का मन अब भी तुम्हारे साथ है। अगर तुम कभी स्त्री या पुरूष थे तो वे चित अब भी तुम्हारे साथ मौजूद है। सारे के सारे चित तुम्हारे पास है। तुम उनसे इतने बंधे हो कि तुम उनकी पकड़ को नहीं छोड़ सकते।
5-मृत्यु में बाह्म विलीन हो जाता है। लेकिन आंतरिक कायम रहता है। वह आंतरिक शरीर बहुत ही सूक्ष्म पदार्थ है। वस्तुत: वह ऊर्जा का स्पंदन मात्र है ...विचार की तरंगें। तुम उन्हें अपने साथ लिए चलते रहते हो। और तुम उन्हीं विचार तरंगों के अनुरूप फिर नए शरीर में प्रवेश करते हो। तुम अपने विचारों के ढांचे के अनुकूल अपनी कामनाओं के अनुकूल अपने मन के अनुकूल अपने लिए नया शरीर निर्मित कर लेते हो। मन में उसका ब्लू प्रिंट, उसकी रूपरेखा मौजूद है। और उसके अनुरूप बाहरी पर्त फिर बनती है।तो पहला सूत्र शरीर को अलग करने के लिए है। दूसरा सूत्र मन को अलग करने का है,अथार्त आंतरिक शरीर। मृत्यु भी तुम्हें तुम्हारे मन से अलग नहीं कर पाती; यह काम केवल ध्यान कर सकता है। यहीं कारण है कि ध्यान मृत्यु से भी बड़ी मृत्यु तथा मृत्यु से भी गहरी शल्य-चिकित्सा है। इसलिए ध्यान से इतना भय होता है। लोग ध्यान के बारे में सतत बात करेंगे, उसके संबंध में लिखेंगे, उपदेश भी देंगे;लेकिन वे कभी ध्यान करेंगे नहीं। ध्यान से एक गहरा भय है और वह भय मृत्यु का भय है।जो लोग ध्यान करते है वे किसी न किसी दिन उस बिंदू पर पहुंच जाते है जहां वे घबड़ा जाते है और पीछे लौट जाते है।तब वे किसी गुरु को ढूढ़ते है, और कहते है: ‘अब हम आगे प्रवेश नहीं कर सकते; यह असंभव है।’
7-वास्तव में, एक क्षण आता है जब व्यक्ति को लगता है कि मैं मर रहा हूं। और वह क्षण किसी भी मृत्यु से बड़ी मृत्यु का क्षण है। क्योंकि जो सबसे अंतरस्थ है वहीं अलग हो रहा है ,मिट रहा है। व्यक्ति को लगता है कि मैं मर रहा हूं ;अब अनस्तित्व में सरक रहा हूं। एक गहन अतल का द्वार खुल जाता है। एक अनंत शून्य सामने आ जाता है। वह घबरा जाता है और पीछे लौट कर शरीर को पकड़ लेता है। ताकि मिट न जाए; क्योंकि पाँव के नीचे से जमीन खिसक रही है। और सामने एक अतल खाई खुल रही है ...शून्य की खाई।इसलिए लोग यदि चेष्टा भी करते है तो सदा ऊपर-ऊपर करते है। वे पूरी त्वरा से ध्यान नहीं करते है। कहीं अचेतन में उन्हें बोध है कि अगर हम गहरे उतरेंगे तो नहीं बचेंगे। और यही सही है।एक बार तुमने उस अतल को, शून्य को जान लिया तो तुम फिर वही नहीं रहोगे... जो थे। तुम उससे एक नया जीवन लेकर लौटोगे, तुम नए मनुष्य हो जाओगे।पुराने मनुष्य का तो नामों निशान भी नहीं मिलेगा। पुराना मनुष्य मन के साथ तादात्म्य में था; लेकिन अब तुम मन के साथ तादात्म्य नहीं बल्कि मन का उपयोग कर सकते हो।लेकिन अब मन और शरीर यंत्र है और तुम उनसे ऊपर हो। तुम उनका जैसा चाहो वैसा उपयोग कर सकते हो। लेकिन तुम उनसे तादात्म्य नहीं करते हो। यह स्वतंत्रता देता है।
8- लेकिन यह तभी हो सकता है जब तुम' ना कुछ' का विचार करो‘ ...यह बहुत विरोधाभासी है। तुम किसी चीज के बारे में विचार कर सकते हो, लेकिन 'ना-कुछ' के बारे में कैसे विचार कर सकते हो? वास्तव में, जब भी तुम किसी के संबंध में विचार करते हो, वह विषय अथार्त विचार बन जाता है और विचार पदार्थ है। तुम शून्य के संबंध में नहीं सोच सकते , यह संभव नहीं है। लेकिन ना-कुछ के विषय में, शून्य के संबंध में सोचने के प्रयत्न में ही सोच-विचार खो जाएगा ...विलीन हो जाएगा।उदाहरण के लिए झेन को 'जेन'( Zen) भी कहा जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ 'ध्यान' माना जाता है। यह महायान बौद्ध धर्म का सम्प्रदाय है, जो जापान के सेमुराई वर्ग का धर्म है। सेमुराई समाज यौद्धाओं का समाज है।झेन में 'कोआन 'का, पहेली का प्रयोग होता है। एक बहुत प्रचलित कोआन है जो नए साधकों को दिया जाता है। उन्हें कहा जाता है कि एक हाथ की ताली सुनो। अब ताली तो दो हाथों से बजती है। लेकिन उन्हें कहा जाता है कि एक हाथ से बजने वाली ताली को सुनो। झेन गुरु साधक को एक कोआन देता है और कहता है कि इस पर विचार करो। यह कोआन जान बूझ कर विचार को बंद करने के लिए दी जीती है।
9-उदाहरण के लिए वे साधक से कहता है: ‘जाओ और पता लगाओ कि तुम्हारा मौलिक चेहरा क्या है, वह चेहरा जो तुम्हारे जन्म के भी पहले था। अभी जो तुम्हारा चेहरा है उस पर मत विचार करो, उस चेहरे पर विचार करो जो जन्म के पहले था।’
तुम इस संबंध में क्या सोच विचार कर सकते हो। जन्म के पहले तुम्हारा कोई चेहरा नहीं था। चेहरा तो जन्म के साथ आता है और शरीर का हिस्सा है।आंखें बंद करो और कोई चेहरा नहीं है। तुम अपने चेहरे के बारे में दर्पण के द्वारा जानते हो। तुमने खुद उसे कभी देखा नहीं है। तुम उसे देख नहीं सकते हो ;इसीलिए सोच-विचार भी नहीं कर सकते।लेकिन साधक चेष्टा पर चेष्टा करेगा ...और यह असंभव चेष्टा है। यह बार-बार गुरु के पास आएगा और कहेगा। ‘क्या मौलिक चेहरा यह है?’ लेकिन उसके पूछने के पहले ही गुरू कहता है: ‘नहीं,यह गलत है।’ तुम जो कुछ भी लाओगे वह गलत होने ही बाला है।साधक महीनों तक बार-बार आता जाता रहता है। कुछ खोजता है, कुछ कल्पना करता है। कोई चेहरा देखता है और गुरु से कहता है: ‘यह रहा मौलिक चेहरा।’ और गुरु फिर कहता है: नहीं। हर बार उसे यह नहीं सुनने को मिलता है।
10- धीरे-धीरे वह बहुत ज्यादा भ्रमित और उलझन ग्रस्त हो जाता है। वह कुछ सोच नहीं पाता है। वह हर तरह से प्रयत्न करता है और हर बार असफल होता है। यह असफलता ही बुनियादी बात है। किसी दिन वह समस्त असफलता पर पहुँच जाता है। उस समग्र असफलता में सब सोच-विचार ठहर जाता है। और उसे बोध होता है कि मौलिक चेहरे के संबंध में कोई सोच-विचार नहीं हो सकता है। और इस बोध के साथ ही सोच विचार गिर जाता है।और जब साधक को इस अंतिम असफलता का बोध होता है। और वह गुरु के पास आता है तो गुरु उससे कहता है: ‘अब कोई जरूरत नहीं है, मैं मौलिक चेहरा देख रहा हूं।’ साधक की आंखें शून्य है। वह गुरु से कुछ कहने नहीं, सिर्फ उनके सान्निध्य में रहने को आया है। उसे कोई उत्तर नहीं मिला; क्योकि उत्तर था ही नहीं। वह पहली बार बिना उत्तर के , मौन होकर आया है।यहीं अ-मन की अवस्था है। इस अ-मन कीअवस्था में 'सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’ सीमाएं विलीन हो जाती है।
11-और तुम अचानक सर्वत्र हो, सब कहीं हो ...सब कुछ हो। अचानक तुम वृक्ष में हो, पत्थर में हो, आकाश में हो, मित्र में हो, शत्रु में हो ...अचानक तुम सब कही हो, सब में हो। सारा अस्तित्व दर्पण के समान हो गया है ...और तुम सर्वत्र अपनी ही प्रति छवि देख रहे हो।यहीं अवस्था आनंद की अवस्था है। अब तुम्हें कुछ भी अशांत नहीं कर सकता; क्योंकि तुम्हारे अतिरिक्त कुछ और नहीं है। अब कुछ भी तुम्हें नहीं मिटा सकता, क्योंकि तुम्हारे सिवाय कोई और नहीं है। अब मृत्यु नहीं है। क्योंकि मृत्यु में भी तुम हो। अब कुछ भी तुम्हारे विरोध में नहीं है।इस एकाकीपन को ही कैवल्य ,समग्र एकांत कहा जाता है क्योंकि सब कुछ तुममें समाहित है, सब कुछ तुममें है।तुम इस अवस्था को दो ढंगों से अभिव्यक्त कर सकते हो। तुम कह सकते हो, क्योंकि 'मैं हूं', 'अहं ब्रह्मास्मि', 'मैं ब्रह्म हूं' , मैं परमात्मा हूं ,मैं समग्र हूं। सब कुछ मेरे भीतर आ गया है। सारी नदिया मेरे सागर में विलीन हो गई है। अकेला मैं ही हूं; और कुछ भी नहीं हूं। सूफी संत यही कहते है। और लोग कभी नहीं समझ पाते कि क्यों सूफी ऐसी बातें कहते है।एक सूफी कहता है: ‘कोई परमात्मा नहीं है, केवल मैं हूं।’ या वह कहता है: ‘मैं परमात्मा हूं।’ यह कहने का सकारात्मक ढंग है कि अब कोई पृथकता न रही।गौतम बुद्ध नकारात्मक ढंग उपयोग करते है; वे कहते है: 'मैं न रहा, कुछ भी नहीं रहा'।
12-वास्तव में,दोनों बातें सच है, क्योंकि जब सब कुछ मुझमें समाहित है तो अपने ‘’मै’’कहने में कोई तुक नहीं है। ‘’मैं’’ सदा ही ‘’तू’’ के विरोध में है। ‘तू’ के संदर्भ में ‘मैं’ अर्थपूर्ण है। जब तूँ न रहा तो ‘मैं व्यर्थ हो गया। इसीलिए बुद्ध कहते है कि ‘मैं’ नहीं हूं, कुछ नहीं है।’या तो सब कुछ तुममें समा गया है,या तुम शून्य हो गए हो और सबमें विलीन हो गए हो। दोनों अभिव्यक्तियां ठीक है।निश्चित ही कोई भी अभिव्यक्ति पूरी तरह सही नहीं हो सकती है। यही कारण है कि विपरीत अभिव्यक्ति भी सदा सही है। प्रत्येक अभिव्यक्ति आंशिक है, अंश है; इसीलिए विरोधी अभिव्यक्ति भी सही ..उसका ही अंश है।इसे स्मरण रखो कि तुम जो वक्तव्य देते हो वह सच हो सकता है। और उसका बिलकुल विरोधी वक्तव्य भी सच हो सकता है।वास्तव में, यह होना अनिवार्य है क्योंकि प्रत्येक वक्तव्य अंश मात्र है। और अभिव्यक्ति के दो ढंग है। तुम सकारात्मक ढंग चुन सकते हो या नकारात्मक ढंग चुन सकते हो। अगर तुम सकारात्मक ढंग चुनते हो तो नकारात्मक ढंग गलत मालूम पड़ता है। लेकिन वह गलत नहीं है। वह परिपूरक है और उसके विरोध में नहीं है।
13-तो तुम चाहे उसे ब्रह्म कहो या निर्वाण कहो, दोनों एक ही अनुभव की तरफ इशारा करते है। और वह अनुभव यह है कि ना-कुछ का विचार करने से तुम उसे जान लेते हो।इस विधि के संबंध में कुछ बुनियादी बातें समझ लेनी चाहिए। एक कि विचार करते हुए तुम अस्तित्व से पृथक हो जाते हो। विचार करना कोई संबंध ,कोई संवाद नहीं है। विचार करना अवरोध है। निर्विचार में तुम अस्तित्व से संबंधित होते हो, जुड़ते हो; और संवाद में होते हो।जब तुम किसी से बातचीत करते हो तो तुम उससे जुड़े नहीं हो। बातचीत ही बाधा बन जाती है। और तुम जितना ही बोलते हो तुम उससे उतने ही दूर हट जाते हो। अगर तुम किसी के साथ मौन में होते हो तो तुम उससे जुड़ते हो। अगर तुम दोनों का मौन सच ही गहन हो, अगर तुम्हारे मन में कोई विचार न हो, दोनों के मन पूरी तरह मौन हों ...तो तुम एक हो।दो शून्य दो नहीं हो सकते, दो शून्य एक हो जाते है। अगर तुम दो शून्यों को जोड़ों तो वे दो नहीं रहते। वे मिलकर एक बड़ा शून्य हो जाते है। और अगर तुम किसी के साथ मौन में होते हो तो तुम उससे जुड़ते हो ...तो तुम एक हो।
14-यह विधि कहती है कि अस्तित्व के साथ मौन होओ। और तब तुम परमात्मा को जान लोगे। अस्तित्व के साथ संवाद का एक ही साधन है,मौन। यदि तुम अस्तित्व से बातचीत करते हो तो तुम चूकते हो। तब तुम अपने विचारों में ही बंद हो।इसे प्रयोग की तरह करो। किसी चीज के साथ भी,अथार्त एक पत्थर के साथ भी इसे प्रयोग करो। पत्थर के साथ मौन होकर रहो; उसे अपने हाथ में ले लो और मौन हो जाओ। और संवाद घटित होगा ...मिलन घटित होगा। तुम पत्थर में गहरे प्रवेश कर जाओगे और पत्थर तुममें गहरे प्रवेश कर जाएगा। तुम्हारे रहस्य पत्थर के प्रति खुल जाएंगे। और पत्थर और रहस्य तुम्हारे प्रति प्रकट कर देगा। लेकिन तुम पत्थर के साथ भाषा का उपयोग नही कर सकते हो। पत्थर कोई भाषा नहीं जानता है और चूंकि तुम भाषा का उपयोग करते हो, तुम उसके साथ संबंधित नहीं हो सकते।मनुष्य ने मौन बिलकुल खो दिया है। जब तुम कुछ नहीं कर रहे होते हो तो भी तुम मौन नहीं हो। मन कुछ न कुछ करता ही रहता है। और इस निरंतर की भीतरी बातचीत के कारण,इस सतत आंतरिक बकवास के कारण तुम किसी के भी साथ संबंधित नहीं होते हो। तुम अपने प्रियजनों के साथ भी संबंधित नहीं हो सकते, क्योंकि यह बातचीत चलती रहती है।
15-तुम अपने पति/पत्नी के साथ बैठे हो सकते हो; लेकिन तुम अपने भीतर बातचीत में लगे हो और दूसरा अपने भीतर बातचीत में लगा है। तुम दोनों अपने-अपने भीतर बातचीत में लगे हो और तब तुम एक दूसरे को दोष देते हो कि तुम मुझे ‘प्रेम नही करते हो।’असल में प्रेम का प्रश्न ही नहीं है। प्रेम संभव ही नहीं है क्योकि प्रेम का फूल मौन से खिलता है। यदि तुम निर्विचार नहीं हो सकते हो तो तुम प्रेम में भी नहीं हो सकते हो। और फिर प्रार्थना में होना तो असंभव ही है।लेकिन हम तो प्रार्थना करते हुए भी बातचीत में लगे है। हमारे लिए प्रार्थना परमात्मा के साथ बातचीत है। हम बातचीत के इतने अभ्यस्त हो गए है, कि जब हम मंदिर या मस्जिद भी जाते है तो वहां भी अपनी बकवास जारी रखते है। हम परमात्मा के साथ भी बोलते रहते है ...बातचीत करते रहते है।यह बिलकुल मूढ़ता पूर्ण है। परमात्मा या अस्तित्व तुम्हारी भाषा नहीं समझ सकता है। अस्तित्व एक ही भाषा समझता है ...मौन की भाषा और मौन न संस्कृत है, न अरबी, न अंग्रेजी, न हिंदी। मौन जागतिक है। मौन किसी एक का नहीं है।
16-पृथ्वी पर कम से कम चार हजार भाषाएं है।और प्रत्येक मनुष्य अपनी भाषा के घेरे में बंद है। अगर तुम उसकी भाषा नहीं जानते हो तो तुम उसके साथ संबंधित नहीं हो सकते हो। तब तुम एक दूसरे के लिए अजनबी हो। हम एक दूसरे में प्रवेश नहीं कर सकते है। न ही हम एक दूसरे को समझ सकते है और न ही एक दूसरे को प्रेम कर सकते है।ऐसा इसलिए है; क्योंकि हमें वह बुनियादी जागतिक भाषा नहीं आती। जो मौन की है। सच तो यह है कि मौन के द्वारा ही कोई किसी से संबंधित हो सकता है। और अगर तुम मौन की भाषा जानते हो तो तुम किसी भी चीज के साथ संबंधित हो सकते हो, जुड़ सकते हो। क्योंकि चट्टानें मौन है। वृक्ष मौन है। आकाश मौन है। मौन अस्तित्वगत है। यह मानवीय गुण ही नहीं है, यह अस्तित्वगत है। सबको पता है कि मौन क्या है, सबका अस्तित्व मौन में ही है।ध्यान का अर्थ मौन है। कोई विचार नहीं। विचार बिलकुल खो गए है। ध्यान है मात्र होना ...खुला,ग्रहणशील, तत्पर, मिलने को उत्सुक, स्वागत में, प्रेमपूर्ण ..लेकिन वहां सोच-विचार बिलकुल नहीं है।और तब तुम्हें अनंत प्रेम घटित होगा और तुम यह कभी नहीं कहोगे कि कोई मुझे प्रेम नहीं करता है ...तुम्हें कभी यह भाव भी नहीं उठेगा।
17-हो सकता है कि तुम यह नहीं कहो; तुम यह दिखावा भी कर सकते हो कि कोई मुझे प्रेम करता है। लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि कोई तुम्हें प्रेम नहीं करता है।प्रेमी भी एक दूसरे से पूछते रहते है: ‘क्या तुम मुझे प्रेम करते हो?’ अनेक ढंगों से वे निरंतर यही बात पूछते रहते है। सब डरे हुए है , अनिश्चित में है ...असुरक्षित है। बहुत तरीकों से वे यह जानने की कोशिश करते है कि दूसरा सच में मुझे प्रेम करता है। और उन्हें कभी भरोसा नहीं हो सकता हे। क्योंकि प्रेमी कह सकता है कि हां, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं; लेकिन इसका पक्का भरोसा कैसे होगा? तुम कैसे जानोंगे कि प्रेमी तुम्हें धोखा नहीं दे रहा है? वह तुम्हें समझा बुझा सकता है। वह तुम्हें यकीन दिला सकता है। लेकिन इससे सिर्फ बुद्धि संतुष्ट हो सकती है, ह्रदय तृप्त नहीं होगा।
इसीलिए प्रेमी सदा दुःखी रहते है। उन्हें कभी इस बात का पक्का भरोसा नहीं होता कि दूसरा मुझे प्रेम करता है।वास्तव में, भाषा के जरिए भरोसा देने का कोई उपाय नहीं है। और तुम भाषा के जरिए पूछ रहे हो। और जब प्रेमी मौजूद है तो तुम मन में बातचीत में उलझे हो, प्रश्न पूछ रहे हो ,विवाद कर रहे हो। तुम्हें कभी भरोसा नहीं आएगा। और तुम्हें सदा लगेगा कि मुझे प्रेम नहीं मिल रहा है और यही गहन संताप बन जाता है।
18-और ऐसा इसलिए नहीं होता है कि कोई तुम्हें प्रेम नहीं करता है। ऐसा इसलिए होता है कि तुम विचारों में बंद हो। वहां कुछ भी प्रवेश नहीं कर पाता है। विचारों को गिराना होगा और अगर तुम उन्हें गिरा देते हो तो सारा अस्तित्व तुममें प्रवेश कर जाता है।ये सूत्र कहता है: ‘ना-कुछ का विचार करने से सीमित आत्मा असीम हो जाती है।’तुम असीम हो जाओगे ,पूर्ण हो जाओगे ,जागतिक हो जाओगे। तुम सब कहीं होगे और तुम आनंद ही हो।अभी तुम दुःख ही दुःख हो और कुछ नहीं। जो चालाक है वे अपने को धोखे में रखते है कि हम दुःखी नहीं है। या वे इस आशा में रहते है कि कुछ बदलेगा,कुछ घटित होगा। और हमें अपने जीवन के अंत में सब उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन तुम दुःखी हो। तुम दिखावे और धोखे निर्मित कर सकते हो ,मुखौटे ओढ़ सकते हो ,निरंतर मुस्कराते रह सकते हो। लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि मैं दुःखी हूं, पीड़ित हूं।यह स्वाभाविक है।विचारों में बंद रहकर तुम दुःख में ही रहोगे। विचारों से मुक्त होकर, विचारों के पार होकर ..सजग, सचेतन, बोधपूर्ण, लेकिन विचारों से अछूते ...तुम आनंद ही आनंद हो।
...SHIVOHAM.....