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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 94,95 वीं (तीसरी आँख के जागरण संबंधी छह विधियां ) विधियां क्या


NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...…

विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 94 ;-

18 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-

''अपने शरीर, अस्‍थियों मांस और रक्‍त को ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।''

2-इस विधि को सरल प्रयोगों से शुरू करना है।सात दिन के लिए एक सरल सा प्रयोग है। अपने खून अपनी हड्डी अपने मांस, अपने शरीर को उदासी से भरा अनुभव करो। तुम्‍हारे शरीर का रोआं-रोआं उदास हो जाए। एक काली रात तुम्‍हारे चारों और छा जाए, बोझिल और विषादयुक्‍त हो जाओ। जैसे कि‍ प्रकाश की एक किरण भी दिखाई न पड़ती हो कोई आशा न बचे, घनी उदासी हो, जैसे कि तुम मरने वाले हो। तुममें जीवन नहीं है ..बस मरने की प्रतीक्षा कर रहे हो। जैसे कि मृत्‍यु आ गई हो या धीरे-धीरे आ रही है।सात दिन तक भाव करते रहो कि मृत्‍यु पूरे शरीर से हड्डी-मांस मज्‍जा तक प्रवेश कर गई हो।बिना इस भाव को तोड़े, इसी तरह सोचते रहो। फि‍र सात दिन के बाद देखो कि तुम कैसे अनुभव करते हो।तुम केवल एक मृत बोझ रह जाओगे। सब संवेदनाएं समाप्‍त हो जाएंगी, शरीर में कोई जीवन अनुभव नहीं होगा। तुमने खाना भी खाया और तुमने सब भी किया जो तुम हमेशा से करते रहे हो। एकमात्र अंतर वह कल्‍पना ही थी तुम्‍हारे चारो और कल्‍पना की एक नई शैली खड़ी हो गई है।यदि तुम इसमें सफल हो जाओ…।

3-अनजाने ही तुम ऐसा कर ही रहे हो। इसीलिए निराशा से शुरू करो। यदि ये कहा जाये कि आनंद से भर जाओ तो वह बहुत कठिन हो जाएगा। तुम ऐसा सोच भी नहीं सकते।लेकिन यदि निराशा के साथ तुम यह प्रयोग करते हो तुम्‍हें पता चलेगा कि इस तरह यदि निराशा आ सकती है... तो सुख क्‍यों नहीं आ सकता। यदि तुम अपने चारों और एक निराशापूर्ण मंडल तैयार करके एक मृत वस्‍तु हो सकते हो तो तुम जीवित मंडल तैयार करके जीवंत और नृत्य पूर्ण क्‍यों नहीं हो सकते।दूसरे तुम्‍हें इस बात का पता चलेगा कि जो दुःख तुम भोग रहे थे वह वास्‍तविक नहीं था;बल्कि रचा हुआ था। अनजाने में तुम उसे पैदा कर रहे थे। इस पर विश्‍वास करना बड़ा कठिन है कि 'दुःख' तुम्‍हारी ही कल्‍पना है, क्‍योंकि उससे सारा उतरदायित्‍व तुम पर ही आ जाता है। तब दूसरा कोई उतरदायी नहीं रह जाता। और तुम कोई उतरदायित्‍व किसी परमात्‍मा पर भाग्‍य पर, लोगों पर, समाज पर, पत्‍नी या पति पर नहीं फेंक सकते; किसी अन्‍य पर उत्‍तरदायित्‍व नहीं लाद सकते। तुम ही निर्माता हो, जो कुछ भी तुम्‍हारे साथ हो रहा है वह तुम्‍हारा ही निर्माण है।तो सात दिन के लिए सजगता से इसका प्रयोग करना है। उसके बाद तुम कभी भी दुःखी नहीं होओगे... क्‍योंकि तुम्‍हें तरकीब का पता लग जाएगा।

4- फिर सात दिन के लिए आनंद की धारा में होने का प्रयास करो, उसमे बहो, अनुभव करो कि हर श्‍वास तुम्‍हें आनंद विभोर कर रही है। सात दिन के लिए दुःख से शुरू करो और फिर सात दिन के लिए उसके विपरीत चले जाओ। और जब तुम बिलकुल विपरीत ध्रुव पर प्रयोग करोगे तो तुम उसे बेहतर अनुभव करोगे। क्‍योंकि उसमें स्‍पष्‍ट अंतर नजर आएगा। उसके बाद ही तुम यह प्रयोग कर सकते हो। क्‍योंकि यह सुख से भी गहन है।दुःख परिधि है, सुख मध्‍य में है। और यह अंतिम तत्‍व है, अंतरतम बिंदु है...ब्रह्मांडीय सार।‘अपने शरीर, अस्‍थियों, मांस आर रक्‍त को ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।’शाश्‍वत जीवन दिव्‍य ऊर्जा ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।लेकिन इसे सीधे ही मत शुरू करो, नहीं तो तुम इतने गहरे स्‍पर्श न कर पाओगे। दुःख से शुरू करो, फिर सुख पर आओ, उसके बाद ही जीवन के स्‍त्रोत, ब्रह्मांडीय सार, पर जाओ। और स्‍वयं को उससे भरा हुआ अनुभव करो।शुरू में तो बार-बार तुम्‍हें लगेगा कि तुम केवल कल्‍पना कर रहे हो, लेकिन रुको नहीं। कल्‍पना करना भी अच्‍छा है ..और कल्‍पना करने से ही तुम बदलने लगते हो।कल्‍पना करते रहो; और धीरे-धीरे तुम भूल जाओगे कि तुम इसकी कल्‍पना कर रहे हो। यह एक वास्‍तविकता बन जाएगी।

5-संसार मन है... नर्क भी मन है और स्‍वर्ग भी मन है।और जब तुम समझते हो कि सब कुछ मन ही है... तुम मुक्‍त हो जाते हो। तब कोई बंधन ,कोई कामना नहीं। पूरा संसार एक जादू-नगरी है जैसे किसी जादूगर ने एक संसार रचा हो। हर चीज ऐसे भासती है लेकिन केवल विचार के कारण ही है।लेकिन बाह्म सत्‍य से प्रारंभ मत करो, वह भी मन है परन्तु बहुत दूर है।इसीलिए बहुत पास से ...अपनी ही भाव दशा से शुरू करो। और यदि तुम जान लो कि वे तुम्‍हारा ही निर्माण है तो तुम उनके मालिक हो गए।जब भी तुम दुःख की भाषा में सोचने लगते हो तुम दुःखी हो जाते हो और चारों ओर के दुःख के प्रति ग्रहणशील हो जाते हो। फिर हर कोई तुम्‍हें दुःखी होने में सहयोग देने लगता है।वास्तव में, पूरा संसार तुम्‍हें सहयोग देने को तैयार रहता है। तुम चाहे जो भी करो। जब तुम दुःखी होना चाहते हो तो पूरा संसार तुम्‍हें सहयोग देने को तैयार रहता है और तुम सब ओर से दुःख ग्रहण करने लगते हो। वास्तव में, तुम ऐसी भाव दशा में पहुंच जाते हो जहां केवल दुःख ही ग्रहण किया जा सकता है।तो यदि कोई तुम्‍हें प्रसन्‍न करने के लिए भी आता है, वह तुम्‍हें और दुःखी कर जाएगा। वह तुम्‍हें मित्रवत या समझदार नहीं लगेगा। तुम्‍हें लगेगा कि वह तुम्‍हारा अपमान कर रहा है। क्‍योंकि तुम दुःखी हो और वह तुम्‍हें प्रसन्‍न करने की कोशिश कर रहा है। वह सोच रहा है कि तुम्‍हारा दुःख व्‍यर्थ है। वह तुम्‍हें गंभीरता से नहीं ले रहा है।

6-और जब तुम सुखी होने को तैयार होते हो तो तुम एक अलग भाव दशा में पहुँच जाते हो। अब तुम सारे सुख के प्रति खुल जाते हो जो संसार दे सकता है। हर ओर फूल खिलनें लगते है। हर ध्‍वनि, हर कोलाहल... संगीतमय हो जाता है। और हुआ कुछ भी नहीं है। पूरा संसार वही का वही है। पर तुम बदल गये हो। तुम्‍हारा देखने का ढंग, तुम्‍हारा दृष्‍टिकोण, तुम्‍हारा नजरिया अलग हो गया; उस दृष्‍टि कोण से एक अलग ही संसार तुम्‍हारे सामने प्रकट होता है।लेकिन दुःख से शुरू करो, क्‍योंकि उसमे तुम प्रवीण हो।उदाहरण के लिए कुछ ऐसे लोग होते है ...जिनका पूरा जीवन भी अगर फूलों की सेज हो जाए तो वह तब तक खुश नहीं होंगे। जब तक कि उन्‍हें फूलों से कोई पीड़ा न होने लगे। गुलाब उन्‍हें खुश नहीं कर सकता, जब तक उन्‍हें उनसे एलर्जी न हो जाए। अगर उनसे कोई पीड़ा होने लगे केवल तभी वे जीवित अनुभव करेंगे। वे केवल दुःख पीड़ा और रोग ही ग्रहण कर सकते है। वे कोई गलती, कोई दुख, कोई विशाद या अंधकार ही खोजने में लगे रहते है। वे मृत्‍यु उन्‍मुख होते है।

7-जब लोग अपने दुःख के बारे में बताने लगते है तो आपको गंभीर होना पड़ता है। नहीं तो उन्‍हें लगेगा कि आप सहानुभूतिपूर्ण नहीं है। यह उन्‍हें अच्‍छा नहीं लगता। आपको उनके दुःख के साथ दुःखी और उनकी गंभीरता के साथ गंभीर होना पड़ता है। ताकि वे उससे बाहर निकल सकें। और यह सब उनका ही निर्माण है, उसे निर्मित करने के लिए वे हर संभव प्रयास कर रहे है। और जब आप उन्‍हें दुःख से बाहर निकालने की कोशिश करते है तो वे हर तरह की बाधा खड़ी करते है। निश्‍चित ही, वे जानते है कि बाधा खड़ी कर रहे है। जान-बूझकर तो कोई भी ऐसा नहीं करेगा।इसे ही उपनिषद अज्ञान कहते है।अनजाने ही तुम अपने जीवन को अस्‍तव्‍यस्‍त किए जाते हो। समस्‍याएं और संताप खड़े करते हो, चाहे कुछ भी हो जाए उससे तुममें कोई अंतर नहीं पड़ता, क्‍योंकि तुम्‍हारा एक ढर्रा बन गया है। लोग कहते है, हम अकेले है.. इसलिए वे दुःखी है। अगले ही क्षण कोई और आता है और कहता है कि उसे ऐसी जगह नहीं मिल रही जहां वह स्थापित हो सके। इसलिए वह दुःखी है। फिर कुछ ऐसे लोग है जो इस बात से दुःखी है कि उनके पास करने को कुछ नहीं है। कोई विवाह करके दुःखी है। तो कोई विवाह न होने से दुःखी है। ऐसा लगता है कि तुम्हे दुःखी होने के उपाय खोजने में महारथ हासिल है, मनुष्‍य को सुखी होना असंभव है। और हमेशा तुम सफल होते हो। तो दुःख से शुरू करो और सात दिन के लिए पहली बार पूरी सजगता से दुःखी हो जाओ।

8-यह प्रयोग तुम्‍हें पूर्णतया रूपांतरित कर देगा।केवल, एक बार तुम जान जाओ कि तुम होशपूर्ण दुःखी हो सकते हो। और जब तुम दुःखी होओगे तभी तुम जाग पाओगे। फिर तुम्‍हें पता होगा कि तुम क्‍या कर रहे हो। यह तुम्‍हारा ही कृत्‍य है। और यदि तुम अपनी मर्जी से दुःखी हो सकते हो तो सुखी क्‍यों नहीं हो सकते। उसमें कोई अंतर नहीं है। विधि तो वहीं है। फिर तुम इस विधि का प्रयोग करो।‘अपने शरीर, अस्‍थियों मांस और रक्‍त को ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।’ऐसे अनुभव करो जैसे कि परमात्‍मा तुम में बह रहा हो: तुम नहीं हो, बल्‍कि ब्रह्मांडीय तत्‍व तुममें भरा हुआ है।परमात्‍मा तुममें विराजमान है। जब तुम्‍हें भूख लगती है तो उसे भूख लगती है—फिर शरीर को भोजन देना पूजा बन जाता है। जब तुम्‍हें प्‍यास लगती है तो तुममें विराजमान ब्रह्मांडीय तत्‍व को प्‍यास लगती है। जब तुम्‍हें नींद आती है, तो उसे नींद आती है। वह सोना, आराम करना चाहता है। जब तुम युवा हो तो तुममें वही युवा है। जब तुम प्रेम में पड़ते हो तो वही प्रेम में पड़ता है। पूरी तरह उससे भर जाओ। कोई भेद न करो। अच्‍छा या बुरा जो भी हो रहा है वह उसे ही हो रहा है। तुम तो बस एक ओर हट जाओ। अब तुम नहीं हो, वही है। तो अच्‍छा या बुरा स्‍वर्ग या नर्क, जो भी होता है। उसको ही होता है। सारा उतरदायित्‍व उस पर आ गया है। तुम तो रहे ही नहीं।

9-यह तुम्‍हारा न होना, धर्म की परम अनुभूति है।यह विधि तुम्‍हें वहाँ पहुंचा सकती है। लेकिन तुम्‍हें उससे बिलकुल भर जाना होगा। और तुम्‍हें तो किसी प्रकार भरने का पता ही नहीं है। तुम्‍हें लगता है तुम्‍हारे शरीर में खुले हुए श्‍वास छिद्र है और महान जीवन-ऊर्जा तुम्‍हारे शरीर में बह रही है। तुम्‍हें तो लगता है कि तुम ठोस हो, बंद हो।जीवन केवल तभी घटित हो सकता है जब तुम बंद नहीं हो, बल्‍कि खुले और संवेदनशील हो। जीवन-ऊर्जा तुमसे बहती है। और जो भी होता है वह जीवन ऊर्जा के साथ ही होता है। तुम्‍हारे साथ नहीं होता ..तुम तो बस एक अंश हो।और तुमने अपने चारों ओर सीमाएं बना ली है वे वास्‍तविक नहीं है, झूठी है।तुम अकेले जीवित नहीं रह सकते। यदि तुम पृथ्‍वी पर अकेले हो जाओ तो तुम अकेले नहीं जी सकते। तुम तारों के बिना नहीं जी सकते। पूरा अस्‍तित्‍व मकड़ी के जाले की तरह है। मकड़ी के जाले को तुम कहीं से भी छुओ तो सारा जाला हिलता है। अस्‍तित्‍व को तुम कहीं से भी छुओ, पूरा अस्‍तित्‍व तरंगायित होता है। पूरा अस्‍तित्‍व एक है।

10-अगर तुम एक फूल को छुओ तो तुमने सारे ब्रह्मांड को छू लिया। तुमने अपने पड़ोसी की आंखों में झाँका तो तुमने ब्रह्मांड में झांक लिया, क्‍योंकि पूरा अस्‍तित्‍व एक है। तुम पूर्ण को छुए बिना अंश को नहीं छू सकते और अंश पूर्ण के बिना नहीं हो सकता।जब तुम्‍हें यह अनुभव होने लगेगा तो अहंकार समाप्‍त हो जाएगा। अहंकार तभी पैदा होता है। जब तुम अंश को पूर्ण की तरह लेते हो। जब तुम्‍हें ठीक-ठीक पता लगना शुरू होता है कि अंश-अंश है और पूर्ण-पूर्ण है। तो अहंकार गिर जाता है। अहंकार केवल एक नासमझी है।और स्‍वयं को ब्रह्मांडीय तत्‍व से भरा हुआ अनुभव करो। यह विधि तो बहुत अद्भुत है।सुबह से ही जब तुम्‍हें लगे कि जीवन जाग रहा है, नींद समाप्‍त हो चुकी है, तो यह पहला विचार होना चाहिए कि तुम नहीं परमात्‍मा जाग रहा है। परमात्मा नींद से वापस आ रहा है।इसीलिए तो संसार में धर्म के आयाम में सर्वाधिक गहरे उतरने वाले हिंदू , सुबह अपनी पहली श्‍वास परमात्‍मा के नाम के साथ लेते है। अब तो यह मात्र एक औपचारिकता रह गई है। और असली बात खो गई है। लेकिन इसका मूल भाव यही था कि सुबह जिस क्षण तुम जागों तो स्‍वयं को नहीं... परमात्‍मा को स्‍मरण करो। परमात्‍मा तुम्‍हारा पहला स्‍मरण बन जाए। और रात जब सोने लगो तो तुम्‍हारा अंतिम स्‍मरण भी वही हो।

11-परमात्‍मा का स्‍मरण बना रहे: वही पहला हो ओर वही अंतिम हो। और यदि सच में ही यह सुबह सबसे पहले और रात सबसे अंतिम स्‍मरण हो तो दिन भर भी वह तुम्‍हारे साथ रहेगा।रात सोते समय तुम्‍हें उसी से भरे हुए सोना चाहिए। तुम हैरान होओगे कि तुम्‍हारी नींद का गुणधर्म ही बदल गया। आज रात सोते हुए कृपया स्‍वयं मत सोओ, परमात्‍मा को ही सोने दो। जब बिस्‍तर बिछाओ तो परमात्‍मा के लिए ही बिछाओ, अतिथि की तरह सत्‍कार करो। और नींद आते-आते यही अनुभव करते रहो कि परमात्‍मा ही है। हर श्‍वास उससे भरी हुई है। वहीं ह्रदय में धडक रहा है। अब वह पूरे दिन काम करके थक गया है और सोना चाहता है। सुबह तुम अनुभव करोगे कि रात तुम अलग ही ढंग से सोए हो। नींद का पूरा गुणधर्म ही ब्रह्मांडीय हो जाएगा। क्‍योंकि उससे गहरे तल पर मिलन होगा।जब तुम स्‍वयं को दिव्‍य अनुभव करते हो तो तुम अतल गहराइयों में डूब जाते हो, क्‍योंकि तब कोई भय नहीं रहता। वरना तो रात में जब तुम सो भी रहे होते हो.. तब भी गहरे जाने से डरते हो।कई लोग अनिद्रा से पीडित है। इसलिए नहीं कि उन्हें कोई तनाव है, बल्‍कि इसलिए कि वे सोने से भयभीत है। क्‍योंकि नींद उन्‍हें गहरी खाई की तरह प्रतीत होती है। जिसकी कोई थाह नहीं दिखती है।

12-बहुत से ऐसे लोग है, जो सोने से डरते है और कुछ वृद्ध कहते है कि वे भय के कारण सो नहीं सकते । वे डरते है कि ''कहीं मैं सोते हुए ही मर गया तो मुझे तो पता ही नहीं चलेगा''। और वे नींद में मरना नहीं चाहते । वे चाहते है कि कम से कम उन्हें होश तो रहे कि 'क्‍या हो रहा है'।तुम कुछ पकड़े रहते हो जिसके कारण तुम सो नहीं सकते, लेकिन जब तुम्‍हें लगता है कि अब तो परमात्‍मा ही है तो तुम स्‍वीकार कर लेते हो। फिर तो अतल गहराइयां भी दिव्‍य है, फिर तुम अपनी आत्‍मा के मूल स्‍त्रोत में गहरे उतर जाते हो। और सारा गुणधर्म बदल जाता है। और जब तुम सुबह उठते हो और तुम्‍हें लगता है कि नींद जा रही है तो स्‍मरण रखो कि परमात्‍मा ही उठ रहा है। तुम्‍हारा पूरा दिन भी बदल जाएगा और पूरी तरह उसी से भरे रहो। जो भी तुम करो, या न करो। परमात्‍मा को ही करने दो। जो हो बस उसे होने दो। खाओ,सोओ, काम करो, लेकिन सब परमात्‍मा को ही करने दो। केवल तभी तुम पूरी तरह उससे भर सकते हो, उससे एक हो सकते हो।

13-और एकबार तुम्‍हें एक क्षण के लिए भी अनुभव हो जाए कि ऐसा शिखर का क्षण आ गया कि तुम न बचे। दिव्‍य ने तुम्‍हें पूरी तरह से भर दिया। तभी तुम बुद्ध हो जाते हो। उस एक समयातीत क्षण में तुम्‍हें जीवन के रहस्‍य का ज्ञान होता है। फिर न तो कोई भय है, न कोई मृतयु। जब तुम स्‍वयं जीवन ही हो गए। फिर यह एक अनंत प्रवाह है, न इसका कोई अंत है, न आदि। तब जीवन परम आनंद हो जाता है।मोक्ष और स्‍वर्ग की धारणाएं तो एकदम बचकानी है। क्‍योंकि वे कोई भौगोलिक स्‍थान नहीं है। वे तो उस अवस्‍था के लिए प्रतीक है जब व्‍यक्‍ति ब्रह्मांड में डूब जाता है। अथवा ब्रह्मांड को स्‍वयं में डूब जाने देता है । जब दो एक हो जाते है, जब मन और पदार्थ दोनों ही अभिव्‍यक्‍तियां तीसरे पर... मूल स्‍त्रोत पर लौट आती है। सारी खोज ही उसके लिए है। यही एकमात्र खोज है, और जब तक तुम इसको न पा लो, तृप्‍त नहीं होओगे। इसका कोई विकल्‍प नहीं हो सकता। चाहे जन्‍मों–जन्‍मों तक तुम भटकते रहो। पर जब तक यह न पा लो, तुम्‍हारी खोज पूरी नहीं होगी। तुम विश्राम नहीं कर सकते।

14-यह विधि बहुत सहयोगी हो सकती है। और इसमें कोई खतरा नहीं है । इसको तुम बिना किसी गुरु के कर सकते हो । वे सब विधियां जो शरीर से शुरू होती है। बिना गुरु के खतरनाक हो सकती है। क्‍योंकि शरीर बहुत-बहुत जटिल संरचना है। शरीर एक जटिल यंत्र है और इसके साथ कुछ भी शुरू करना खतरनाक हो सकता है। जब तक कि कोई ऐसा व्‍यक्‍ति न हो जो कि जानता हो कि क्‍या हो रहा है।परन्तु वे सब विधियां जो सीधे मन से शुरू होती है, कल्‍पना पर आधारित होती है और खतरनाक नहीं होती। क्‍योंकि उनमें शरीर का बिलकुल भी सहयोग नहीं होता। वे बिना किसी सदगुरू के भी की जा सकती है। निश्‍चित ही, यह थोड़ा कठिन होगा, क्‍योंकि तुममें आत्‍म विश्‍वास नहीं है। सदगुरू कुछ करता नहीं है लेकिन मात्र उसकी उपस्‍थिति से ही तुम्‍हारा आत्‍मविश्‍वास और श्रद्धा जग जाती है और इससे मदद मिलती है।वह एक उत्‍प्रेरक माध्‍यम बन जाता है। केवल इस भाव से ही कि गुरु साथ है, तुममें भरोसा आ जाता है। क्‍योंकि वह साथ है तो तुम अज्ञात में प्रवेश कर सकते हो। इसीलिए शारीरिक विधियों में गुरु नितांत आवश्‍यक है, क्‍योंकि शरीर एक यंत्र है और उसके साथ तुम स्‍वयं को नुकसान पहुंचा सकते हो।

15-उदाहरण के लिए,एक युवक शीर्षासन कर रहा था। घंटों अपने सिर के बल खड़ा रहता था। शुरू-शुरू में तो सब बिलकुल ठीक था और सारे दिन वह विश्रांति और शांति और शीतलता अनुभव करता रहा। लेकिन फिर मुसीबत होने लगी। क्‍योंकि जब शीतलता समाप्‍त होती है, तो सारे शरीर में गर्मी लगने लगती है। जो उसे बेचैन कर देती और वह करीब-करीब पागल सा हो गया था।और फिर उसने सोचा कि शीर्षासन से शुरू-शुरू में उसे इतनी शीतलता, इतनी शांति, इतना आराम मिला था तो वह और शीर्षासन करने लगा। उसने सोचा कि और शीर्षासन से उसे मदद मिलेगी। जबकि शीर्षासन ही उसे बीमार किया जा रहा था।मस्‍तिष्‍क के यंत्र में केवल एक निश्‍चित मात्रा में ही रक्‍त संचार की जरूरत होती है। यदि रक्‍त संचार कम हो तो तुम्‍हें कठिनाई होगी। यदि रक्‍त संचार अधिक हो तो कठिनाई होगी। और हर एक व्‍यक्‍ति के लिए यह मात्रा अलग होती है। वह व्‍यक्‍ति-व्‍यक्‍ति पर निर्भर करती है। इसीलिए तो तुम तकिए के बिना नहीं सो पाते हो।

16-यदि तुम तकिए के बिना सोने की कोशिश करो तो या तो सो ही नहीं पाओगे या कम सो पाओगे। क्‍योंकि सिर की ओर अधिक रक्‍त दौड़ेगा। तकिए मदद देते है। तुम्‍हारा सिर ऊँचा हो जाता है। इसलिए कम रक्‍त सिर की और दौड़ता है। इससे नींद आ जाती है। यदि अधिक रक्‍त दौड़ता रहे तो मस्‍तिष्‍क जागा रहेगा। विश्राम नहीं कर पाता।यदि तुम बहुत अधिक शीर्षासन करो तो हो सकता है कि तुम्‍हारी नींद पूरी तरह से उड़ जाये। हो सकता है कि तुम बिलकुल भी सो नहीं सको। फिर और भी खतरे है।खोजों से पता चला है कि अधिक से अधिक सात दिन तक तुम बिना सोए रह सकते हो। सात दिन के बाद तुम पागल हो जाओगे। क्‍योंकि मस्‍तिष्‍क की बहुत सूक्ष्म कोशिकाएं है, जो कि टूट जाएंगी। फिर आसानी से वे जुड़ नहीं सकती। जब तुम शीर्षासन में सिर के बल खड़े होते हो तो सारा रक्‍त सिर की और दौड़ने लगता है। यदि कोई व्‍यक्‍ति बहुत शीर्षासन करता है तो वह जड़बुद्धि हो जाएगा। क्‍योंकि मस्‍तिष्‍क की सूक्ष्‍म कोशिकाएं नष्‍ट हो जाएंगी। अत्‍यधिक रक्‍त-संचार के कारण वे मन कोशिकाएं नही बच सकती है।

17-तो यह सब एक गुरु ही निर्धारित कर सकता है, जो जानता है कि कौन सी विधि कितना समय तुम्‍हारे लिए सहयोगी होगी। कुछ सेकेंड या कुछ मिनट। और यह तो केवल एक उदाहरण है । सारी शारीरिक मुद्राएं, आसन विधियां, गुरु की देख-रेख में ही करनी चाहिए। कभी भी उन्‍हें अकेले नहीं करना चाहिए। क्‍योंकि तुम अपने शरीर को नहीं जानते। तुम्‍हारा शरीर इतनी बड़ी घटना है कि तुम उसकी कल्‍पना भी नहीं कर सकते। तुम्‍हारे छोटे से मस्‍तिष्‍क में सात करोड़ तंतु आपस में एक दूसरे से संबंधित है....जुड़े हुए है। वैज्ञानिक कहते है कि उनका आपसी संबंध इस ब्रह्मांड जितना ही जटिल है।प्राचीन हिंदू ऋषियों ने कहा है कि पूरा ब्रह्मांड लघु रूप से मस्‍तिष्‍क में विराजमान है। जगत की सारी जटिलता लघु रूप से मस्‍तिष्‍क में है। यदि इन सारे तंतुओं का संबंध तुम्‍हें समझ आ जाए तो पूरे जगत की जटिलता समझ में आ जाए। न तो तुम्‍हें किन्हीं तंतुओं का पता है, न ही उनके किसी आपसी संबंधों का। और अच्‍छा है कि तुम्‍हें पता नहीं है, नहीं तो इतने महत कार्य को चलते देख तुम तो पागल ही हो जाओ। यह सब केवल बिना पता लगे ही हो सकता है।

18-रक्‍त दौड़ता रहता है, लेकिन तुम्‍हें पता नहीं लगता। केवल तीन शताब्‍दी पहले ही यह पता चल पाया कि शरीर में रक्‍त दौड़ता है। इससे पहले ऐसा माना जाता था कि रक्‍त दौड़ता नहीं,भरा हुआ है। रक्‍त संचार तो बहुत नई धारणा है। और लाखों वर्षों से मनुष्‍य है, लेकिन किसी को नहीं लगा कि रक्‍त दौड़ता है। तुम इसे महसूस नहीं कर सकते। भीतर बहुत गति से ...बहुत सा काम चल रहा है। तुम्‍हारा शरीर एक बहुत बड़ी और बहुत नाजुक फैक्टरी है। शरीर हर समय स्‍वयं को ताजा और नया करने में लगा है। यदि तुम कोई उपद्रव न खड़ा करो तो सत्‍तर वर्ष तक यह आराम से चलेगा।अभी तक हम कोई ऐसा यंत्र नहीं बना पाए है जो सत्‍तर वर्ष तक अपनी देख-भाल कर सके।तो जब भी तुम अपने शरीर पर कोई कार्य शुरू करो तो इस बात का स्‍मरण रखो कि ऐसे गुरु का पास होना जरूरी है जो जानता हो कि वह तुम्‍हें क्‍या करवा रहा है। वरना कुछ मत करो। लेकिन कल्‍पना में तो कोई कठिनाई नहीं है। यह बड़ी सरल बात है। इसे तुम शुरू कर सकते हो।

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 95 ;-

13 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-

‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्‍हारे स्‍तनों में प्रवेश करके सूक्ष्‍म रूप धारण कर रहे है।’

2-इस विधि में प्रवेश करने से पूर्व कुछ महत्‍वपूर्ण बातें समझना है।भगवान शिव ,देवी पार्वती से, अपनी संगिनी से बात कर रहे है।शिव को ऊर्जा स्त्रोत(पुरूष) और पार्वती जी को शक्ति(प्रकृति स्वरूपा) माना जाता है। इसलिए यह विधि विशेषत: इड़ा अथार्त स्‍त्रियों के लिए है। कुछ बातें समझने जैसी है।प्रत्येक देह में ईड़ा, पिंगला और सुषुम्ना अथार्त तीन मुख्य नाड़ियोंका संगम है;परन्तु स्‍त्रियों के लिए इड़ा और पुरूष के लिए पिंगला को समझना ज्यादा आसान है।क्योकि उनकी बाहरी देह भी ईड़ा, पिंगला के अनुरूप है।इड़ा और पिंगला दोनों ही अधूरे है और दोनों ही ये अधूरापन बाहर से पूरा करना चाहते है;जो संभव नहीं है।पुरूष देह और स्‍त्री देह एक जैसी है; लेकिन फिर भी उनमें कई भेद है। और उनका भेद एक दूसरे का परिपूरक है। पुरूष देह में जो नकारात्‍मक है, स्‍त्री देह में वही सकारात्‍मक होगा; और स्‍त्री देह में जो सकारात्‍मक है, वह पुरूष देह में नकारात्‍मक होगा।पुरूष और स्‍त्री दोनों ही अधूरे है अथार्त इड़ा और पिंगला दोनों ही अधूरे है। जो भी अधूरा है उसके पार जाना, पूर्ण होना अस्‍तित्‍व की स्‍वाभाविक प्रवृति है। पूर्णता की और गति करने की प्रवृति परम नियमों में से एक है। जहां भी तुम्‍हें लगता है कि कुछ कमी है, तुम उसे भरना चाहते हो, पूरा करना चाहते हो। प्रकृति किसी भी तरह के अधूरेपन को नहीं पसंद करती।

3-परन्तु इस युग में दो के मध्य स्थूलदेह के माध्यम से विद्युत सर्किल/वर्तुल बनाना एक असंभव कार्य है...।ऋणात्‍मक धनात्‍मक से मिलता है। धनात्‍मक ऋणात्‍मक से मिलता है और दोनों एक हो जाते है। एक विद्युत वर्तुल बन जाता है। पिंगला भी अधूरा है, इड़ा भी अधूरी है। इस आकर्षण का कारण बहुत गहरा है ।और दोनों ही पूर्णता का केवल एक ही क्षण पा सकते है ..जब उनका विद्युत वर्तुल (सूक्ष्म) एक हो जाए, जब दोनों विलीन हो जाएं। परन्तु स्थूलदेह के माध्यम से विद्युत वर्तुल बनाना एक असंभव कार्य है ।क्योकि वे दोनों भगवान शिव और देवी नहीं है,या राधा-कृष्ण नहीं है।यही कारण है कि वे दोनों मिलते तो है ,बाहरी वर्तुल भी बनाते है;परन्तु एक इकाई नहीं बन पाते है।आपको यह समझना है कि जब आपके भीतर पौरुष यानी पुरुष-गुण और स्त्रैण यानी स्त्री-गुण का मिलन होता है, तो आप स्थाई रूप से परमानंद की अवस्था में रहते हैं। अगर आप बाहरी तौर पर ऐसा करने की कोशिश करते हैं, तो वह स्थायी नहीं होता और उसके साथ आने वाली मुसीबतों से जीवन में कभी पीछा नहीं छूटता।सभी भाषाओं में प्रेम और प्रार्थना दोनों बड़े महत्‍वपूर्ण है। प्रेम में तुम किसी व्‍यक्‍ति के साथ एक हो जाते हो। और प्रार्थना में तुम समष्‍टि के साथ एक हो जाते हो। जहां तक आंतरिक प्रक्रिया का सवाल है, प्रेम और प्रार्थना समान है।पुरूष और स्‍त्री देह समान है।

4-लेकिन उनके ऋणात्‍मक और धनात्‍मक ध्रुव भिन्‍न है।जब बच्‍चा मां के गर्भ में होता है तो कम से कम छ: सप्‍ताह के लिए वह मध्‍य स्‍थिति में रहता है। न तो वह पुरूष होता है न स्‍त्री ही, उसका एक और झुकाव जरूर होता है, लेकिन फिर भी शरीर अभी मध्‍य में ही होता है। फिर छ: सप्‍ताह बाद शरीर या तो स्‍त्री का हो जाता है या पुरूष का।यदि शरीर स्‍त्री का है तो ऊर्जा ध्रुव स्‍तनों के निकट होगा। यह उसका धनात्‍मक ध्रुव होगा क्‍योंकि स्‍त्री की योनि ऋणात्‍मक ध्रुव है। यदि बच्‍चा नर है तो भी ऊर्जा केंद्र, शिश्न उसका धनात्‍मक ध्रुव होगा और स्‍तन ऋणात्‍मक होते हे। स्‍त्री के शरीर में शिश्न का प्रतिरूप क्‍लाइटोरिस होता है। लेकिन यह निष्‍क्रय है। पुरूष के स्‍तनों की भांति ही स्‍त्री का क्‍लाइटोरिस भी निष्‍क्रय है।शरीर शास्‍त्री ये प्रश्‍न उठाते रहते है। कि पुरूष के शरीर में स्‍तन क्‍यों होते है। जब कि उनकी कोई आवश्यकता नहीं दिखाई देती है। क्‍योंकि पुरूष को बच्‍चे को दूध तो पिलाना नहीं है। फिर उनकी क्‍या आवश्यकता है।वास्तव में,वे ऋणात्‍मक ध्रुव है।यह विधि विशेष रूप से इड़ा (स्‍त्रियों) के लिए है। क्‍योंकि स्‍तन उनके धनात्‍मक ध्रुव है,आधार भूत है।स्‍तन उसके सबसे संवेदनशील अंग है। और स्‍त्री देह की सारी सृजन क्षमता स्‍तनों के आस-पास है।गुफाओं में मिले प्राचीनतम चित्र में भी स्‍तन महत्‍वपूर्ण है।यही कारण है कि हिंदू कहते है कि जब तक स्‍त्री मां नहीं बन जाती, वह तृप्‍त नहीं होती। पुरूष के लिए यह बात सत्‍य नहीं है। कोई नहीं कहेगा कि पुरूष जब तक पिता न बन जाए तृप्‍त नहीं होगा। पिता होना तो मात्र एक संयोग है।

5-कोई पिता हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। यह कोई बहुत आधारभूत सवाल नहीं है। एक पुरूष बिना पिता बने रह सकता है। और उसका कुछ न खोये। लेकिन बिना मां बने स्‍त्री कुछ खो देती है। क्‍योंकि उसकी पूरी सृजनात्‍मकता, उसकी पूरी प्रक्रिया तभी जागती है। जब वह मां बन जाती है। जब उसके स्‍तन उसके अस्‍तित्‍व के केंद्र बन जाते है। तब वह पूर्ण होती है। और वह स्‍तनों तक नहीं पहुंच सकती यदि उसे पुकारने वाला कोई बच्‍चा न हो।वास्तव में, पुरूष स्‍त्रियों से विवाह करते है ताकि उन्‍हें पत्नियाँ मिल सके, और स्‍त्रियां पुरूषों से विवाह करती है ताकि वे मां बन सकें। इसलिए नहीं कि उन्‍हें केवल पति मिल सके। उनका पूरा का पूरा मौलिक रुझान ही एक बच्‍चा पाने में है जो उनके स्‍त्रीत्‍व को पुकारें।वास्‍तव में , जैसे ही बच्‍चा पैदा होता है ,बच्‍चा केंद्र हो जाता है। इसलिए पिता हमेशा ईर्ष्‍या करते है, क्‍योंकि बच्‍चा बीच में आ जाता है। और स्‍त्री अब बच्‍चे के पिता की अपेक्षा बच्‍चे में अधिक उत्सुक हो जाती है।अब बच्‍चों को सीधे स्‍तन से दूध न पिलाने का फैशन हो गया है। यह बहुत खतरनाक है। क्‍योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि स्‍त्री कभी अपनी सृजनात्‍मकता के केंद्र पर नहीं पहुंच सकेगी। स्‍तनों के निकट उसके अस्‍तित्‍व का केंद्र सक्रिय नहीं हो सकता है। यह विधि कहती है: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्‍हारे स्‍तनों मे प्रवेश करके सूक्ष्‍म रूप धारण कर रहे है।’

6-स्‍त्रैण अस्‍तित्‍व की पूरी सृजनात्‍मकता मातृत्‍व पर ही आधारित है। इसीलिए तो स्त्रियां अन्‍य किसी तरह के सृजन में इतनी उत्‍सुक नहीं होती। पुरूष सर्जक है। स्‍त्रियां सर्जक नहीं है। न उन्होंने महान काव्‍य रचे है, न कोई बड़ा ग्रंथ लिखा है, न कोई बड़े धर्म बनाए है। लेकिन पुरूष सृजन किए चला जाता है। वह पागलो की तरह आविष्‍कार कर रहा है, सृजन कर रहा है, भवन निर्माण कर रहा है।तंत्र कहता है, ऐसा इसलिए है क्‍योंकि पुरूष नैसर्गिक रूप से सर्जक नहीं है। इसलिए वह अतृप्‍त और तनाव में रहता है। वह मां बनना चाहता है। वह सर्जक बनना चाहता है। तो वह काव्‍य का सृजन करता है। वह कई चीजों का सृजन करता है।लेकिन स्‍त्री तनाव रहित होती है। यदि वह मां बन सके तो तृप्‍त हो जाती है। फिर किसी और चीज में उत्‍सुक नहीं रहती।स्‍त्री कुछ और करने की तभी सोचती है यदि वह मां न बन सके,प्रेम न कर सके, अपनी सृजनात्‍मकता के शिखर पर न पहुंच सके।तो वास्‍तव में असृजनात्‍मक स्‍त्रियां बन जाती है ..कवि, चित्रकार आदि।स्‍त्री के लिए अन्य वस्तुओ का सृजन उतना ही असंभव है, जितना पुरूष को बच्‍चे का सृजन करना। वह मां नहीं बन सकता। वह जैविकीय तल पर असंभव है। और इस कमी को वह अनुभव करता है। इस कमी को पूरा करने के लिए वह कई कार्य करता है। लेकिन कभी भी कोई महान से महान सर्जक भी इतना तृप्‍त नहीं हो पाया, या कभी कोई विरला ही इतना परितृप्‍त हो सकता है जितना कि एक स्‍त्री मां बनकर हो जाती है।

7-एक बुद्ध अधिक परितृप्‍त होता है क्‍योंकि वह अपना ही सृजन कर लेता है। वह द्विज हो जाता है। वह स्‍वयं को दूसरा जन्‍म दे देता है, नया मनुष्‍य हो जाता है। अब वह अपनी मां भी हो जाता है, पिता भी हो जाता है। वह पूर्णतया परितृप्‍त अनुभव करता है।एक स्‍त्री अधिक सरलता से तृप्‍ति अनुभव कर सकती है। उसका सृजनात्‍मकता स्‍तनों के आस-पास ही होती है।भगवान शिव कहते है: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्‍हारे स्‍तनों में प्रवेश करके सूक्ष्‍म रूप धारण कर रहे हो।’स्‍तनों पर अवधान को एकाग्र करो, उन्‍ही के साथ एक हो जाओ। बाकी सारे शरीर को भूल जाओ। अपनी पूरी चेतना को स्‍तनों पर ले जाओ। और कई घटनाएं तुम्‍हारे साथ घटेगी। यदि तुम ऐसा कर सको। यदि पूरी तरह से स्‍तनों पर अपने अवधान को केंद्रित कर सको, तो सारा शरीर भार-मुक्‍त हो जाएगा। और एक गहन माधुर्य तुम्‍हें घेर लेगा।माधुर्य की एक गहन अनुभूति तुम्‍हारे भीतर बाहर चारों और धड़केगी।जो भी विधियां विकसित की गई है वे करीब-करीब सब पुरूष द्वारा ही विकसित की गई है। तो उनमें ऐसे केंद्रों का उल्‍लेख होता है जो पुरूष के लिए सरल होते है।केवल भगवान शिव ने ही कुछ ऐसी विधियां दी है जो मौलिक रूप से स्‍त्रियों के लिए है।कोई पुरूष इस विधि को नहीं कर सकता। वास्‍तव में यदि कोई पुरूष अपने स्‍तनों पर अवधान को केंद्रित करने लगे तो उलझन में पड़ जायेगा।

8-यदि करके देखो , तो पाँच मिनट में ही तुम्‍हारा पसीना बहने लगेगा। और तुम तनाव से भर जाओगे। क्‍योंकि पुरूष के स्‍तन ऋणात्‍मक है, वे तुम्‍हें नकारात्‍मकता ही देंगे। तुम्‍हें कुछ गड़बड़, कुछ अटपटापन महसूस होगा। जैसे शरीर में कोई गड़बड़ हो गई हो।लेकिन स्‍त्री के स्‍तन धनात्‍मक है। यदि स्‍त्रियां स्‍तनों के पास अवधान केंद्रित करें तो बहुत आनंदित अनुभव करेंगी। एक माधुर्य उनके प्राणों में छा जाएगा और उनका शरीर गुरूत्‍वाकर्षण से मुक्‍त हो जाएगा। उन्‍हें इतना हलकापन महसूस होगा जैसे कि वे उड़ सकती है। और इस एकाग्रता से बहुत से परिवर्तन होंगे। तुम अधिक मातृत्‍व भाव अनुभव करोगी।चाहे तुम मां न बनो।लेकिन स्‍तनों पर अवधान की यह एकाग्रता बहुत विश्रांत होकर करनी चाहिए, तनाव से भरकर नहीं। यदि तुम तनाव से भर गई तो तुम्‍हारे और स्‍तनों के बीच एक विभाजन हो जाएगा। तो विश्रांत होकर उन्‍हीं में घुल जाओ और अनुभव करो कि तुम नहीं केवल स्‍तन ही बचे है।पुरूष का ऊपर का भाग ऋणात्‍मक और नीचे का भाग धनात्‍मक होता है। जबकि स्‍त्री में नीचे का भाग ऋणात्‍मक और ऊपर का भाग धनात्‍मक होता है। और इसे सदा स्‍मरण रखो: कभी भी किसी नकारात्‍मक चीज पर अवधान को केंद्रित मत करो, क्‍योंकि सभी नकारात्‍मक चीजें उसके साथ चली आती है। ऐसे ही सकारात्‍मकता के साथ सभी कुछ सकारात्‍मक चला आता है।

9-ऋणात्‍मक और धनात्‍मक के ये दो ध्रुव मिलते है तो एक वर्तुल निर्मित हो जाता है। वह वर्तुल बहुत आनंदपूर्ण है, परंतु यह कोई साधारण घटना नहीं है। साधारणतया काम-कृत्‍य में ये वर्तुल नही बनता। इसीलिए तो तुम काम के प्रति जितने आकर्षित होते हो, उतने ही उस से विकर्षित भी होते हो। उसके लिए तुम कितनी कामना करते हो, पर जब तुम्‍हें मिलता है तो तुम निराश हो जाते हो।यह वर्तुल केवल तभी संभव है, जब दोनों का मन एक हो,शरीर शांत हो और बिना किसी भय या प्रतिरोध के एक दूसरे के लिए खुले हो। तब वह पूर्ण मिलन होता है। वह पूर्ण मिलन विद्युत धाराओं का एक मिल कर वर्तुल बन जाता है। जो आनंद का उच्चतम शिखर है।फिर एक बड़ी अद्भुत घटना घटती है।आनंद का यह उच्चतम शिखर, गहरी समाधी में ,अपनी देह में ही प्राप्त होता है। तंत्र में इसका उल्‍लेख है, ...यह घटना बड़ी अद्भुत है।जब दो नाड़ियों- बाईं और दाहिनी यानी इड़ा, पिंगला का मिलन होता है।और मध्य सुषुम्ना में ऊर्जा प्रवेश करती है तो एक बिजली की कौंध जैसी घटना घटती है ।और एक वर्तुल बन जाता है । एक क्षण के लिए पिंगला (शिव) इड़ा (शक्ति) बन जाते है और इड़ा (शक्ति) पिंगला (शिव) बन जाती है— एक क्षण के लिए पुरूष स्‍त्री हो जाता है और स्‍त्री पुरूष हो जाती है। क्‍योंकि ऊर्जा गति कर रही है। और एक वर्तुल बन गया है। अर्धनारीश्वर की यह अनुभूति अपनी देह में और इड़ा-पिंगला ...दोनों के मध्य संभव है।

10-तो ऐसा होगा कि कुछ मिनट के लिए पुरूष सक्रिय होगा। और फिर वह विश्राम करेगा। और स्‍त्री सक्रिय हो जाएगी। और ऐसा चलता रहेगा।यही है अर्धनारीश्वर की अनुभूति... साधारणतय तुम स्‍त्री और पुरूष हो। गहरी समाधी और गहन प्रेम में, कुछ क्षण के लिए पुरूष स्‍त्री हो जाएगा और स्‍त्री पुरूष हो जाएगी। और यह अनुभव होगा, निश्‍चित ही अनुभव होगा कि निष्‍क्रियता बदल रही है।जब योगी अपने भीतर लीन होता है, तब वह पाता है कि मैं दोनों हूं। और मुझमें दोनों मिल रहे हैं। मेरा पुरुष मेरी प्रकृति में लीन हो रहा है; मेरी प्रकृति मेरे पुरुष से मिल रही है। और उनका आलिंगन अबाध चल रहा है; एक वर्तुल पूरा हो गया है।जीवन में एक लय है, हर चीज में एक लय है। जब तुम श्‍वास लेते हो श्‍वास भीतर जाती है, फिर कुछ क्षणों के लिए रूक जाती है। उसमें कोई गति नहीं होती। फिर चलती है, बाहर आती है। और फिर रूक जाती है। एक अंतराल पैदा होता है। गति, रुकाव, गति। जब तुम्‍हारा ह्रदय धड़कता है तो एक धडकन होती है। फिर अंतराल है, फिर धड़कता है, फिर अंतराल है। धड़कन का अर्थ है सक्रियता, अंतराल का अर्थ है निष्क्रियता। धड़कन का अर्थ है पिंगला और अंतराल का अर्थ है इड़ा।

11-जीवन एक लय है। जब इड़ा, पिंगला (शिव-शक्ति) मिलते है तो एक वर्तुल बन जाता है: दोनों के लिए ही अंतराल होंगे। तुम एक स्‍त्री हो तो अचानक एक अंतराल होगा और तुम स्‍त्री नहीं रहोगी पुरूष बन जाओगी। तुम स्‍त्री से पुरूष और पुरूष से स्‍त्री बनती रहोगी।जब यह अंतराल तुम्‍हें महसूस होगा तो तुम्‍हें पता चलेगा कि तुम एक वर्तुल बन गए हो।शिव के प्रतीक शिवलिंग में इसी वर्तुल को दिखाया गया है।यह वर्तुल दो उच्‍च तल पर ऊर्जा के मिलन की शिखर घटना है।यह विधि अच्‍छी रहेगी: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्‍हारे स्‍तनों में प्रवेश करके सूक्ष्‍म धारण कर रहे है ।‘विश्राम हो जाओ। स्‍तनों में प्रवेश करो और अपने स्‍तनों को ही अपना पूरा अस्‍तित्‍व हो जाने दो। पूरे शरीर को स्‍तनों के होने के लिए मात्र एक परिस्‍थिति बन जाने दो, तुम्‍हारा पूरा शरीर गौण हो जाए, स्‍तन महत्‍वपूर्ण हो जाएं। और तुम उनमें ही विश्राम करो, प्रवेश करो। तब तुम्‍हारी सृजनात्‍मकता जगेगी। स्‍त्रैण सृजनात्‍मकता तभी जगती है जब स्‍तन सक्रिय हो जाते है। स्‍तनों में डूब जाओ। और तुम्‍हें अनुभव होगा कि तुम्‍हारी सृजनात्‍मकता जाग रही है।सृजनात्‍मकता के जागने का अर्थ है कि तुम्‍हें बहुत कुछ दिखने लगेगा। बुद्ध और महावीर ने अपने पूर्व जन्‍मों में कहा था कि जब वे पैदा होंगे तो उनकी माताओं को कुछ विशेष दृश्‍य, कुछ विशेष स्‍वप्‍न दिखाई पड़ेंगे। उन कुछ विशेष स्‍वप्‍नों के कारण ही बताया जा सकता था कि बुद्ध पैदा होने वाले है। सोलह स्‍वप्‍न एक दूसरे का अनुसरण करते हुए आएँगे।

12-यदि कोई स्‍त्री इस सूत्र के अनुसार वास्‍तव में ही अपने स्‍तनों में विलीन हो जाती है तो एक विशेष क्रम में कुछ विशेष दृश्‍य दिखाई देंगे। कुछ चीजें उसे दिखाई पड़ने लगेंगी।परन्तु अलग-अलग स्‍त्रियों के लिए अलग-अलग चीजें होंगी ।एक तो कोई मानव आकृति दिखाई पड़ेगी। और यदि स्‍त्री बच्‍चे को जन्‍म देने वाली है तो बच्‍चे की आकृति नजर आएगी। यदि स्‍तनों में स्‍त्री पूरी तरह विलीन हो गई है तो उसे यह भी दिखाई देगा कि किसी तरह से बच्‍चे को वह जन्‍म देने वाली है। उसकी आकृति नजर आएगी। यदि वह गर्भवती है तो आकृति और भी स्‍पष्‍ट होगी। यदि अभी वह मां नहीं बनने वाली है और गर्भवती नहीं है, तो उसके आस-पास कोई अज्ञात सुगंध छानें लगेगी। स्‍तन ऐसी मधुर सुगंधों के स्‍त्रोत बन सकते है जो कि इस संसार की नहीं है। जो रसायन से नहीं बनाई जा सकती। मधुर स्‍वर, लयबद्ध ध्‍वनियां सुनाई देंगी।सृजन के सारे आयाम बहुत से नए रूपों में प्रकट हो सके है। महान कवियों और चित्रकारों को जो घटित हुआ है वह उस स्‍त्री को हो सकता है। यदि वह अपने स्‍तनों में डूब जाए।और यह इतना वास्‍तविक होगा कि उसके पूरे व्‍यक्‍तित्‍व को बदल देगा। वह स्‍त्री और ही हो जाएगी। और यदि ये अनुभव उसे होते रहते है तो धीरे-धीरे वे खो जाएंगे और एक क्षण आएगा जब शून्यता घटित होगी। वह शून्‍यता ध्‍यान की परम स्थिति है।

13-तो इसको स्‍मरण रखो; यदि तुम स्‍त्री हो तो अपने शिव नेत्र पर एकाग्रता मत करो। तुम्‍हारे लिए स्‍तनों पर, ठीक दोनों स्‍तनों के चुचुओं पर अवधान को केंद्रित करना बेहतर रहेगा। और दूसरी बात: एक ही स्‍तन पर अवधान केंद्रित मत करो। एक साथ दोनों स्‍तनों पर करो। यदि तुम एक स्‍तन पर अवधान को केंद्रित करोगी तो तत्‍क्षण तुम्‍हारा शरीर व्‍यथित हो जाएगा। एक ही स्‍तन पर एकाग्रता होने पर पक्षाघात भी हो सकता है।तो दोनों पर एक साथ ही अवधान को केंद्रित करो, उसमे विलीन हो जाओ, और उसे होने दो। बस साक्षी बनी रहो ओर किसी भी लय से मत जुड़ों,क्‍योंकि हर लय बड़ी सुंदर, स्‍वर्ग तुल्‍य मालूम होगी। उनसे मत जुड़ों। उनको देखती रहो और साक्षी बनी रहो। एक क्षण आएगा जब वह समाप्‍त होने लगेंगी और एक शून्यता घटित होती है। कुछ नहीं बचता। बस खुला आकाश रह जाता है... और स्‍तन खो जाते है। तब तुम बोधिवृक्ष के नीचे हो।....

....SHIVOHAM...


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