विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 98,99 वीं ( ह्रदय संबंधी दो विधियां ) विधियां क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 98;-
16 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''किसी सरल मुद्रा में दोनों कांखों के मध्य–क्षेत्र (वक्षस्थल) में धीरे-धीरे शांति व्याप्त होने दो।'
2-यह बड़ी सरल विधि है। परंतु चमत्कारिक ढंग से कार्य करती है। इसे करके देखो और कोई भी कर सकता है। इसमे कोई खतरा नहीं है। पहली बात तो यह है कि किसी भी आरामदेह मुद्रा में बैठ जाओ, जो भी मुद्रा तुम्हारे लिए आसान हो। किसी विशेष मुद्रा या आसन में बैठने की कोशिश मत करो।भोलेनाथ एक विशेष मुद्रा में बैठते है। वह उनके लिए आसान है। वह तुम्हारे लिए भी आसान बन सकती है। अगर कुछ समय तुम उसका अभ्यास करो, लेकिन शुरू-शुरू में यह तुम्हारे लिए आसान न होगी। पर इसका अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं है।किसी भी ऐसी मुद्रा से शुरू करो जो अभी तुम्हारे लिए आसान हो। मुद्रा के लिए संघर्ष मत करो। तुम आराम से एक कुर्सी पर बैठ सकते हो। बस एक ही बात का ध्यान रखना है कि तुम्हारा शरीर एक विश्रांत अवस्था में होना चाहिए।तो बस अपनी आंखें बंद कर लो और सारे शरीर को अनुभव करो। पैरों से शुरू करो, महसूस करो कि उनमें कहीं तनाव तो नहीं है। यदि तुम्हें लगे कि तनाव है तो एक काम करो उसे और तनाव से भर दो।
3-यदि तुम्हें लगे कि दाहिने पाँव में तनाव है तो उस तनाव को जितना सघन कर सको,उतना सघन करो। उसे एक शिखर तक ले आओ, फिर अचानक उसे जितना सघन कर सको ..उतना सघन करो। उसे एक शिखर तक ले आओ। फिर अचानक उसे ढीला छोड़ दो। ताकि तुम यह महसूस कर सको कि कैसे वहां विश्राम उतर रहा है। फिर पूरे शरीर में देखते जाओ कि कहां-कहां तनाव है। जहां भी तुम्हें लगे कि तनाव है उसे और गहराओ, क्योंकि तनाव सघन हो तो विश्राम में जाना सरल है। आधे-अधूरे तो यह बड़ा कठिन है, क्योंकि तुम उसे महसूस ही नहीं कर सकते। एक अति से दूसरी अति पर जाना बहुत सरल है। क्योंकि एक अति स्वयं ही दूसरी अति पर जाने के लिए परिस्थिति पैदा कर देती है।तो चेहरे पर अगर तुम कोई तनाव महसूस करो तो चेहरे की मांस पेशियों को जितना खींच सको खीचों। तनाव को एक शिखर पर पहुंचा दो। उसे ऐसे बिंदु तक ले आओ जहां और तनाव संभव ही न हो। फिर अचानक ढीला छोड़ दो। इस तरह से देखो कि शरीर के साथ अंग विश्रांत
हो जाएं।और चेहरे की मांस-पेशियों पर विशेष ध्यान दो, क्योंकि वे तुम्हारे नब्बे प्रतिशत तनावों को ढोती है। बाकी शरीर में केवल दस प्रतिशत तनाव है। सब तनाव तुम्हारे मस्तिष्क में होता है। इसलिए तुम्हारा चेहरा उनका भंडार बन जाता हे।
तो अपने चेहरे पर जितना तनाव डाल सको... डालों, शर्माओ मत।
4-चेहरे को पूरी तरह से संताप युक्त, विषादयुक्त बना डालों। और फिर अचानक ढीला छोड़ दो। पाँच मिनट के लिए ऐसा करो। ताकि तुम्हारे शरीर का हर अंग विश्रांत हो जाए। यह तुम्हारे लिए बड़ी सरल मुद्रा है। तुम इसे बैठकर, या बिस्तर में लेटे हुए या जैसे भी तुम्हें आसान लगे कर सकते हो।‘किसी सरल मुद्रा में दोनों कांखों के मध्य-क्षेत्र (वक्षस्थल) में धीरे-धीरे शांति व्याप्त होने दो।’दूसरी बात: ‘जब तुम्हें लगे कि शरीर किसी सुखद मुद्रा में पहुंच गया है ...इस बात को अधिक तूल मत दो ...जब महसूस करो कि शरीर विश्रांत है। फिर शरीर को भूल जाओ। क्योंकि असल में, शरीर को स्मरण रखना एक प्रकार का तनाव है।’ शरीर को विश्रांत हो जाने दो और भूल जाओ। भूल जाना ही विश्राम है। जब भी तुम बहुत याद रखते हो तो वह स्मरण ही शरीर को तनाव से भर देता है।शायद तुमने कभी इस ओर ध्यान न दिया हो। लेकिन इसके लिए एक बड़ा सरल प्रयोग है। अपना हाथ अपनी नाड़ी पर रखो और उसकी धड़कनों को गिनो। फिर अपनी आंखों को बंद कर लो और सारे ध्यान को पाँच मिनट के लिए नाड़ी पर ले आओ, फिर उसे गिनो। नाड़ी अब तेज धड़केगी, क्योंकि पांच मिनट के ध्यान ने उसे तनाव दे दिया है।तो वास्तव में जब भी कोई डाक्टर तुम्हारी धड़कन को मापता है। तो वह माप कभी असली नहीं होता। वह माप हमेशा डाक्टर के माप शुरू करने से पहले के माप से अधिक होता है। जब भी डाक्टर तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता है तो तुम उसके प्रति सजग हो जाते हो।
5-तो जब भी तुम अपनी चेतना को शरीर के किसी अंग पर ले जाते हो। वह अंग तनाव से भर जाता है। जब कोई तुम्हें घूरता है तो तुम तनाव से भर उठते हो। तुम्हारा सारा शरीर तनाव युक्त हो जाता है। जब तुम अकेले होते हो तब भिन्न होते हो। जब कोई कमरे में आ जाता है तब तुम वही नहीं रहते। पूरे शरीर की गति तेज हो जाती है। तुम तनाव से भर जाते हो। तो विश्राम को कोई बहुत अधिक महत्व न दो। वरना उसी के साथ अटक जाओगे। पाँच मिनट के लिए बस आराम करो और भूल जाओ। तुम्हारा भूलना सहयोगी होगा और शरीर को और गहन विश्राम में ले जाएगा।‘दोनों कांखों के मध्य क्षेत्र (वक्षस्थल) में धीरे-धीरे शांति व्याप्त होने दो।’अपनी आंखें बंद कर लो और दोनों कांखों के बीच के स्थान को महसूस करो; ह्रदय क्षेत्र को, अपने वक्षस्थल को महसूस करो। पहले केवल दोनों कांखों के बीच अपना पूरा अवधान लाओ,पूरे होश से महसूस करो। पूरे शरीर को भूल जाओ और बस दोनों कांखों के बीच ह्रदय-क्षेत्र और वक्षस्थल को देखो। और उसे अपार शांति से भरा हुआ महसूस करो।जिस क्षण
तुम्हारा शरीर विश्रांत होता है तुम्हारा ह्रदय में स्वत: ही शांति उतर आती है। ह्रदय मौन, विश्रांत और लयबद्ध हो जाता है। और जब तुम अपने सारे शरीर को भूल जाते हो और अवधान को बस वक्षस्थल पर ले आते हो और उसे शांति से भरा हुआ महसूस करते हो तो तत्क्षण अपार शांति घटित होगी।
6-शरीर में दो ऐसे स्थान है, विशेष केंद्र है, जहां होश पूर्वक कुछ विशेष अनुभूतियां पैदा की जा सकती है। दोनों कांखों के बीच ह्रदय का केंद्र है। और ह्रदय का केंद्र तुममें घटित होने वाली सारी शांति का केंद्र है। जब भी तुम शांत हो, वह शांति ह्रदय से आती है। ह्रदय शांति विकीरित करता है।इसीलिए तो संसार भर में हर जाति ने, हर वर्ग, धर्म, देश और सभ्यता ने महसूस किया है कि प्रेम कहीं ह्रदय के पास से उठता है। इसके लिए कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं है। जब भी तुम प्रेम के संबंध में सोचते हो.. वास्तव में,तुम ह्रदय के संबंध में सोचते हो।जब भी तुम प्रेम में होते हो तुम शांत होते हो। तुम एक विशेष शांति से भर जाते हो। वह शांति ह्रदय से उठती है। इसलिए प्रेम और शांति आपस में जुड़ गए है।जब भी तुम प्रेम में नहीं होते तो परेशान होते हो। शांति के कारण ह्रदय प्रेम से जुड़ गया है।तो तुम दो काम कर सकते हो,पहला.. तुम प्रेम की खोज कर सकते हो: फिर कभी-कभी तुम शांत अनुभव करोगे। लेकिन यह मार्ग खतरनाक है, क्योंकि जिस व्यक्ति को तुम प्रेम करते हो वह तुमसे अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। और दूसरा तो दूसरा ही है। तुम एक तरह से पराधीन हो गए। तो प्रेम तुम्हें कभी-कभी शांति देगा, पर सदा नहीं। कई व्यवधान आएँगे, संताप और विषाद के कई क्षण आएँगे। क्योंकि दूसरे से तुम केवल परिधि पर ही मिल सकते हो। परिधि विक्षुब्ध हो जाएगी। केवल कभी-कभी,जब तुम दोनों बिना किसी संघर्ष के गहन प्रेम में होओगे, केवल तभी तुम्हारा ह्रदय शांति से भर सकेगा।
7-तो प्रेम तुम्हें केवल शांति की झलकें दे सकता है। लेकिन कोई स्थाई गहरी शांति नहीं दे सकता है। इससे किसी शाश्वत शांति की संभावना नही है। बस झलकों की संभावना है। और दो झलकों के बीच कलह की, हिंसा की, घृणा और क्रोध की गहरी घाटियाँ होगी।शांति को खोजने का दूसरा उपाय है ...उसे प्रेम के द्वारा नहीं, सीधे ही खोजना है। यदि तुम शांति को सीधे ही पा सको— तो तुम्हारा जीवन प्रेम से भर जाएगा।और उसी की यह विधि है।लेकिन अब प्रेम का गुणधर्म अलग-अलग होगा। उसमें मालकियत नहीं होगी। वह किसी एक पर केंद्रित नहीं होगा। न तो वह स्वयं पराधीन होगा, न किसी को अपने आधीन बनाएगा। तुम्हारा प्रेम बस एक भाव, एक करूणा, एक गहन समानुभूति बन जाएगा। और अब कोई भी, तुम्हें अशांत नहीं कर पाएगा। क्योंकि शांति की जड़ें गहरी है और तुम्हारा प्रेम आंतरिक शांति की छाया की भांति है। पूरी बात उलटी हो गई है।तो श्रीकृष्ण भी प्रेमपूर्ण है, पर उनका प्रेम एक विषाद नहीं है।यदि तुम प्रेम न करो तो प्रेम की अनुपस्थिति से कष्ट होगा। और प्रेम करो तो प्रेम की उपस्थिति से कष्ट होगा। क्योंकि तुम परिधि पर हो। इसलिए तुम कुछ भी करो,वह तुम्हें क्षणिक तृप्ति देगा, फिर अंधेरी घाटियाँ आ जाएंगी।
8-इसीलिए पहले अपनी स्वयं की शांति में स्थिर हो जाओ, फिर तुम स्वतंत्र हो। फिर प्रेम तुम्हारी जरूरत नहीं है। फिर तुम जब भी प्रेम में होओगे तो बंधन अनुभव नहीं करोगे। तुम्हें कभी यह नहीं लगेगा कि प्रेम एक तरह की परतंत्रता है। एक गुलामी है, एक बंधन बन गया है।तब प्रेम बस एक दान होगा। तुम्हारे पास इतनी शांति है कि तुम उसे बांटना चाहते हो। फिर वह बस देना मात्र होगा,जिसमे वापस पाने का कोई विचार नहीं होगा; वह बेशर्त होगा। और यह एक राज है कि जितना तुम देते हो उतना ही तुम्हें मिलता है। जितना ही तुम देते हो और बांटते हो उतना ही तुम पर बरस जाता है। जितना तुम इस खजानें में गहरे प्रवेश करते हो, जो कि अनंत है, उतना ही तुम सबको लुटा सकते हो। यह कभी समाप्त नहीं हो सकता।लेकिन प्रेम आंतरिक शांति की छाया की भांति घटित होना चाहिए। साधारणत: इससे उलटा होता है, शांति तुम्हारे प्रेम की छाया की भांति आती है। प्रेम शांति की छाया होना चाहिए, तब प्रेम सुंदर होता है। वरना तो प्रेम भी कुरूपता निर्मित करता है, एक रोग, एक ज्वर बन जाता है।'‘दोनों कांखों के मध्य–क्षेत्र (वक्षस्थल) में धीरे-धीरे शांति व्याप्त होने दो।’'कांखों के मध्य क्षेत्र के प्रति जागरूक हो जाओ और महसूस करो कि वह अपार शांति से भर रहे है।
9-बस शांति को अनुभव करो। और तुम पाओगे कि वह भरी जा रही है। शांति तो सदा से भरी है। पर इस का तुम्हें कभी पता नहीं चलता। यह केवल तुम्हारे होश को बढ़ाने के लिए,तुम्हें घर की ओर लौटा लाने के लिए है। और जब तुम्हें यह शांति अनुभव होगी, तुम परिधि से हट जाओगे। ऐसा नहीं कि वहां कुछ नहीं होगा, लेकिन जब तुम इस प्रयोग को करोगे और शांति से भरोंगे तो तुम्हें एक दूरी महसूस होगी। सड़क से शोर आ रहा है, पर बीच में अब बहुत दूरी है। सब चलता रहता है, पर इससे कोई परेशानी नहीं होती; बल्कि इससे मौन और गहरा होता है।यह चमत्कार है। बच्चे खेल रहे होंगे। कोई मोबाइल सुन रहा होगा। कोई लड़ रहा होगा, और पूरा संसार चलता रहेगा। लेकिन तुम्हें लगेगा कि तुम्हारे और सब चीजों के बीच में एक दूरी आ गई है। यह दूरी इसलिए पैदा हुई है कि तुम परिधि से अलग हो गए हो। परिधि पर घटनाएं होंगी और तुम्हें लगेगा कि वे किसी और के साथ हो रही है। तुम सम्मिलित नहीं हो। तुम्हें कुछ परेशान नहीं करता इसलिए तुम सम्मिलित नहीं हो। तुम अतिक्रमण कर गए हो। यह अतिक्रमण है।
10-और ह्रदय स्वभावत: शांति का स्त्रोत है। तुम कुछ भी पैदा नहीं कर रहे। तुम तो बस उस स्त्रोत पर लौट रहे हो जो सदा से था। यह कल्पना तुम्हें इस बात के प्रति जागने में सहयोगी होगी कि ह्रदय शांति से भरा हुआ है। ऐसा नहीं है कि यह कल्पना शांति पैदा करेगी।तंत्र और पाश्चात्य सम्मोहन के दृष्टिकोण से यही अंतर है। सम्मोहनविद सोचते है कि वे कल्पना के द्वारा कुछ पैदा कर रहे है। पर तंत्र का मानना है कि कल्पना के द्वारा तुम कुछ पैदा नहीं करते। तुम तो बस उस चीज के साथ लयवद्ध हो जाते हो जो पहले से ही है। क्योंकि कल्पना से तुम जो भी पैदा कर सकते हाँ वह स्थाई नहीं हो सकता: यदि कोई चीज वास्तविक नहीं है तो वह झूठी है, नकली है, तुम एक भ्रम निर्मित कर रहे हो।तो शांति के भ्रम में पड़ने से तो वास्तविक रूप से परेशान होना बेहतर है। क्योंकि वह कोई विकास नहीं है। बस तुमने अपने को उसमें भुला दिया है। देर अबेर तुम्हें उससे बाहर निकलना होगा। क्योंकि जल्दी ही वास्तविकता भ्रम को तोड़ देगी।केवल उच्चतर वास्तविकता को नष्ट नहीं किया जा सकता। उच्चतर वास्तविकता उस यथार्थ को नष्ट कर देगी जो कि परिधि पर है।इसीलिए जगतगुरु आदिशंकर तथा दूसरे कई बुद्ध पुरूष कहते है कि संसार माया है। ऐसा नहीं है कि संसार माया है। लेकिन उन्हें एक उच्चतर वास्तविकता का बोध हो गया है। उस ऊँचाई से संसार स्वप्नवत प्रतीत होता है। वह शिखर इतनी दूर है कि यह संसार वास्तविक नहीं लग सकता।
11-तो सड़क पर आता हुआ शोर ऐसे लगेगा जैसे तुम अपना सपना देख रहे हो, वह वास्तविकता नहीं है। वह कुछ नहीं कर सकता बस आता है और गुजर जाता है। और तुम अस्पर्शित रह जाते हो। और जब तुम वास्तविक से अस्पर्शित रह जाओ तो तुम्हें कैसे लगेगा कि यह वास्तविक है। क्योकि वास्तविकता तुम्हें केवल तभी महसूस होती है जब वह तुममें गहरी प्रवेश कर जाए। जितनी गहरी वह प्रविष्ट होगी उतनी ही वास्तविक लगेगी।जगतगुरु आदिशंकर कहते है, पूरा संसार मिथ्या है। वह ऐसे बिंदु पर पहुंच गए होंगे जहां से दूरी इतनी बढ़ जाती है कि संसार में जो भी हो रहा है। सपना सा ही प्रतीत होता है । उसकी प्रतीति होती है। लेकिन उसके साथ कोई वास्तविकता की प्रतीति नहीं होती। क्योंकि वह भीतर प्रवेश नहीं कर पाती। प्रवेश ही वास्तविकता का अनुपात है। यदि कोई तुम्हें पत्थर मारे और तुम्हें चोट लगे तो उसकी चोट तुम्हारे भीतर प्रवेश करती है। और चोट का प्रवेश करना ही पत्थर को वास्तविक बनाता है। यदि कोई एक पत्थर फेंके और वह तुम्हें छुए, पर चोट भीतर प्रवेश न करे। तो गहरे में कही तुम्हें अपने पर पत्थर गिरने की आवाज सुनाई देगी। पर उससे कोई व्यवधान पैदा नहीं होगा। तुम्हें वह झूठ लगेगी ..मिथ्या लगेगी या माया लगेगी।
12-लेकिन तुम परिधि से इतने करीब हो कि यदि कोई तुम्हें पत्थर फेंके तो तुम्हें चोट लगेगी। अगर कोई बुद्ध पर पत्थर फेंके तो उनके शरीर को भी उतनी ही चोट लगेगी जितनी तुम्हारे शरीर को लगेगी। लेकिन बुद्ध परिधि पर नहीं है। केंद्र में स्थित है। और दूरी इतनी अधिक है कि उन्हें पत्थर की आवाज तो सुनाई देगी पर चोट नहीं लगेगी। अंतस अस्पर्शित रह जाएगा। उस पर खरोंच भी न आएगी। इस निर्विचार अंतस को लगेगा कि जैसे सपने में कुछ फेंका गया। यह माया है। तो बुद्ध कहते है, किसी चीज में कोई सार नहीं है। सब कुछ असार है। संसार असार है। यह बही बात जगतगुरु आदिशंकर कहते है कि संसार माया है।इसे करके देखो। जब भी तुम्हें अनुभव होगा कि तुम्हारी दोनों कांखों के बीच, तुम्हारे ह्रदय के केंद्र पर शांति व्याप्त हो रही है तो संसार तुम्हें भ्रामक प्रतीत होगा। यह इस बात का संकेत है कि तुम ध्यान में प्रवेश कर गए ...जब संसार माया लगने लगे। ऐसा सोचो मत कि संसार माया है। ऐसा सोचने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें ऐसा महसूस होगा। अचानक तुम्हारे मन में आएगा, संसार को क्या हो गया है? अचानक संसार स्वप्नवत हो गया है। एक स्वप्न की तरह से सारहीन हो गया है। बस इतना ही वास्तविक प्रतीत होता है... जैसे पर्दे पर फिल्म। भले ही थ्री-डायमेंशनल हो, पर ऐसा लगता है जैसे कोई प्रक्षेपण हो। हालांकि संसार प्रक्षेपण नहीं है।
13-संसार वास्तव में माया नहीं है। संसार तो वास्तविक है, लेकिन तुम दूरी पैदा कर लेते हो। और दूरी बढ़ती ही जाती है। और दूरी बढ़ रही है। या नहीं, यह तुम इस बात से पता लगा सकते हो कि संसार अब तुम्हें कैसा लगता है।यही कसौटी है। यह एक ध्यान की कसौटी है। यह सच नहीं है कि संसार मिथ्या है। पर साथ तो कई बार ऐसा होता है कि पहले ही प्रयास में तुम इसके सौंदर्य और चमत्कार को अनुभव करोगे... तो इसे करके देखो। लेकिन पहले प्रयास में अगर तुम्हें कुछ अनुभव न हो तो निराश मत होना। प्रतीक्षा करो, और करते रहो। और यह इतनी सरल विधि है कि तुम किसी भी समय इसे कर सकते हो। रात अपने विस्तर पर लेटे-लेटे कर सकते हो। सुबह जब तुम्हें लगे कि तुम्हारी नींद खुल गई है। उस समय तुम इसे कर सकते हो। पहले इसे करो फिर उठो। दस मिनट भी पर्याप्त होंगे।रात सोने से पहले दस मिनट इसे करो। संसार को मिथ्या बना दो। और तुम्हारी नींद इतनी गहरी हो जाएगी जितनी पहले कभी नहीं थी। यदि सोने से ठीक पहले संसार मिथ्या हो जाए तो सपने कम आएँगे। क्योंकि यदि संसार ही कल्पना बन जाए तो सपने नहीं चल सकते। और यदि संसार मिथ्या हो जाए तो तुम बिलकुल विश्रांत हो जाओगे। क्योंकि संसार की वास्तविकता तुम पर चोट नहीं करेगी। असर नहीं करेगी।
14-यह विधि उन लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है...जो अनिद्रा से पीड़ित है। इससे बड़ी मदद मिलेगी। यदि संसार मिथ्या है तो तनाव समाप्त हो जाते है। और यदि तुम परिधि पर हट सको तो तुम स्वयं ही नींद की गहरी अवस्था में चले गए। इससे पहले कि नींद आए तुम उसमें गहरे चले गए। और फिर सुबह बहुत अच्छा लगेगा। क्योंकि तुम बहुत ताजा हो गए हो और तुम्हारी ऊर्जा तरंगायित है, क्योंकि तुम केंद्र से परिधि पर लौट रहे हो।और जिस क्षण तुम्हें लगे कि नींद जा चुकी है तो आंखें मत खोलों। पहले इस प्रयोग को दस मिनट करो, फिर अपनी आंखें खोलों।शरीर पूरी रात के बाद विश्राम में है। और ताजा तथा जीवंत अनुभव कर रहा है। तुम पहले ही विश्रांत हो तो अब अधिक समय नहीं लगेगा। बस विश्राम करो। अपने चेतना को दोनों कांखों के बीच ह्रदय पर ले आओ। उसे गहन शांति से भरा हुआ अनुभव करो। दस मिनट तक उस शांति में रहो। फिर आंखें खोल लो।संसार अलग ही नजर आयेगा।क्योंकि शांति तुम्हारीआंखों में भी झलकेगी। और सारा दिन तुम्हें अलग ही अनुभव होगा। न केवल तुम्हें अलग अनुभव होगा। बल्कि तुम्हें लगेगा कि लोग भी तुमसे अलग तरह से व्यवहार कर रहे है ।
15-हर संबंध में तुम कुछ सहयोग देते हो। यदि तुम्हारा सहयोग न हो तो लोग तुमसे अलग तरह से व्यवहार करेंगे। क्योंकि उन्हें लगेगा कि अब तुम भिन्न व्यक्ति हो गए हो। हो सकता है उन्हें इसका पता भी न हो, पर जब तुम शांति से भर जाओगे तो हर कोई तुमसे अलग तरह से व्यवहार करेगा। लोग अधिक प्रेमपूर्ण और अधिक विनम्र होंगे। कम बाधा डालेंगे। खुले होंगे, समीप होंगे। एक चुंबकत्व पैदा हो गया।शांति एक चुंबक है। जब तुम शांत होते हो तो लोग तुम्हारे अधिक निकट आते है। जब तुम परेशान होते हो तो सब पीछे हटते है। और यह इतनी भौतिक घटना है कि तुम इसे सरलता से देख सकते हो। जब भी तुम शांत हो, तुम्हें लगेगा सब तुम्हारे करीब आना चाहते है। क्योंकि शांति विकीरित होने लगती है। चारों ओर एक तरंग बन जाती है। तुम्हारे चारों ओर शांति के स्पंदन होते है और जो आता है तुम्हारे करीब होना चाहता है। जैसे तुम किसी वृक्ष की छाया के नीचे जाकर विश्राम करना चाहते हो।शांत व्यक्ति के चारों ओर एक छाया होती है। वह जहां भी जाएगा सब उसके पास जाना चाहेंगे। खुले होंगे।
16-जिस व्यक्ति के भीतर संघर्ष है, विषाद है, संताप है, तनाव है, वह लोगों को दूर हटाता है। जो भी उसके पास जाता है घबड़ाता है। तुम खतरनाक हो। तुम्हारे करीब होना खतरनाक है। क्योंकि तुम वहीं दोगे जो तुम्हारे पास है। लगातार तुम वही दे रहे हो।तो हो सकता है तुम किसी को प्रेम करना चाहो;पर यदि तुम भीतर से परेशान हो तो तुम्हारा प्रेम भी तुमसे दूर हटेगा। तुमसे भागना चाहेगा। क्योंकि तुम उसकी ऊर्जा को चूस लोगे। और वह तुम्हारे साथ सुखी नहीं होगा। और जब तुम उसे छोड़ोगे बिलकुल थका हुआ हारा छोड़ोगे। क्योंकि तुम्हारे पास कोई जीवनदायी स्त्रोत नहीं है। तुम्हारे भीतर विध्वंसात्मक ऊर्जा है।
तो न केवल तुम्हें लगेगा कि तुम भिन्न हो गए हो बल्कि दूसरों को भी लगेगा कि तुम बदल गये हो। यदि तुम थोड़ा सा केंद्र के करीब सरक जाओ तो तुम्हारी पूरी जीवन शैली बदल जाती है। सारा दृष्टिकोण सारा प्रतिफलन भिन्न हो जाता है। यदि तुम शांत हो तो तुम्हारे लिए सारा संसार शांत हो जाता है। यह केवल एक प्रतिबिंब है। तुम जो हो वही चारों और प्रतिबिंबित होता है। हर कोई एक दर्पण बन जाता है
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 99;-
17 FACTS;-
1-दूसरी विधि...भगवान शिव कहते है:-
‘'स्वयं को सभी दिशाओं में परिव्याप्त होता हुआ महसूस करो—सुदूर, समीप।’'
2-तंत्र और योग दोनों मानते है कि संकीर्णता ही समस्या है। क्योंकि तुमने स्वयं को इतना संकीर्ण कर लिया है इसीलिए तुम सदा ही बंधन अनुभव करते हो। बंधन कही और से नहीं आ रहा है। बंधन तुम्हारे संकीर्ण मन से आ रहा है। और वह संकीर्ण से संकीर्णतर होता चला जाता है। और तुम सीमित होते चले जाते हो।वह सीमित होना तुम्हें बंधन की अनुभूति देता है। तुम्हारे पास अनंत आत्मा है। और अंनत अस्तित्व है, पर वह अनंत आत्मा बंदी अनुभव करती है। तो तुम कुछ भी करो, तुम्हें सब ओर सीमाएं नजर आती है। तुम कहीं भी जाओ एक बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां से आगे नहीं जाया जा सकता। सब ओर एक सीमा-रेखा है। उड़ने के लिए कोई खुला आकाश नहीं है।लेकिन यह सीमा तुमने खड़ी की है, यह सीमा तुम्हारा निर्माण है। तुमने कई कारणों से यह सीमा निर्मित की है: सुरक्षा के लिए, बचाव के लिए।तुमने एक सीमा बना ली है और जितनी संकीर्ण सीमा होती है उतने सुरक्षित तुम महसूस करते हो। यदि तुम्हारी सीमा बहुत बड़ी हो तो तुम पूरी सीमा पर पहरा नहीं दे सकते हो, तुम सब और से सावधान नहीं हो सकते। बड़ी सीमा असुरक्षित हो जाती है। सीमा को संकीर्ण करते हो, तो तुम उस पर पहरा दे सकते हो, बंद रह सकते हो। फिर तुम संवेदनशील न रहे, सुरक्षित हो गए। इस सुरक्षा के लिए ही तुमने सीमा खड़ी की है। लेकिन फिर तुम्हें बंधन लगता है।
3-मन ऐसा ही विरोधाभासी है। तुम सुरक्षा भी मांगते हो और साथ ही साथ स्वतंत्रता भी। दोनों एक साथ नहीं मिल सकती।
यदि तुम्हें स्वतंत्रता चाहिए तो सुरक्षा खोनी पड़ेगी। कुछ भी हो, सुरक्षा बस भ्रम मात्र है। वास्तविक नहीं है। क्योंकि मृत्यु तो होगी ही। तुम चाहे कुछ भी करो, तुम मरोगे ही। तुम्हारी सारी सुरक्षा ऊपर-ऊपर है। कुछ भी मदद न देगा। लेकिन असुरक्षा से डरकर तुम सीमाएं खड़ी करते हो। अपने चारो और बड़ी-बड़ी दीवारें खींच लेते हो और कहते हो, ‘मैं स्वतंत्रता चाहता हूं और मैं बढ़ना चाहता हूं।’ लेकिन तुमने ही ये सीमाएं खड़ी की है।तो इससे पहले कि तुम यह विधि करो, यह पहली बात याद रख लेने जैसी है। वरना इसे कर पाना संभव नहीं होगा। अपनी सीमाओं को बचाकर तुम इसे नहीं कर सकते। जब तक तुम सीमाएं बनाना बंद न कर दो, तब तक तुम न तो इसे कर पाओगे, न ही महसूस कर पाओगे।‘सभी दिशाओं में परिव्याप्त होता हुआ महसूस करो -सुदूर, समीप।’कोई सीमाएं नहीं है, अनंत हो रहे हो... अनंत आकाश के साथ एक हो रहे हो… ।पहले तुम्हें कुछ चीजें करना बंद करना पड़ेगा।तुम्हारे मन के साथ तो यह असंभव होगा। तुम इसे अनुभव नहीं कर सकते हो ।पहली बात यह है कि यदि तुम सुरक्षा के बारे में ज्यादा ही चिंतित हो तो बंधन में ही रहो।
4- वास्तव में, कारागृह सबसे सुरक्षित स्थान है। कैदियों से अधिक सुरक्षित, अधिक पहरे में और कोई नहीं रहता।तुम किसी राष्ट्रपति या राजा की हत्या कर सकते हो ..यह कठिन नहीं है।लेकिन तुम किसी कैदी को नहीं मार सकते। वह इतना सुरक्षित है कि यदि किसी को इतनी ही सुरक्षा पानी हो तो उसे कारागृह में ही रहना पड़ेगा। बाहर नहीं.. कारागृह से बाहर रहना खतरनाक है ..मुसीबतों से भरा है। कुछ भी हो सकता है।तो हमने अपने चारों और मानसिक , मनोवैज्ञानिक कारागृह बना लिया है। और हम उन कारागृहों को अपने साथ ढोते है। तुम्हें उनमें रहने की जरूरत नहीं है। वे तुम्हारे साथ चलते है। जहां भी तुम जाते हो तुम्हारा कारागृह तुम्हारे साथ चलता है। तुम सदा एक दीवार के पीछे रहते हो। बस कभी-कभी किसी को छूने के लिए तुम अपना हाथ उससे बाहर निकालते हो। लेकिन बस एक हाथ... वास्तव में, तुम अपने कारागृह से कभी बाहर नहीं आते।तो जब भी लोग आपस में मिलते है, वह केवल कारागृहों से निकले हुए हाथों का मिलन होता है। डरे-डरे हम खिड़कियों से हाथ बाहर निकलते है। और किसी भी क्षण हाथ वापस खींच लेने को तैयार रहते है। दोनों लोग एक ही काम कर रहे है। बस एक हाथ से छू रहे है।
5-और अब तो मनोवैज्ञानिक कहते है कि यह भी एक दिखावा ही है। क्योंकि हाथों के चारों और अपना एक कवच होता है। कोई भी हाथ दस्ताने के बिना नहीं है । तुम भी दस्ताने पहनते हो ताकि कोई भी तुम्हें छू न सके। और यदि कोई छूता भी है तो बस एक मुर्दा हाथ। तुम पहले से ही पीछे हटे हुए हो। भयभीत होकर... क्योंकि दूसरा व्यक्ति भय पैदा करता है।
यदि तुम इतने बंद हो तो दूसरा तुम्हें दुश्मन की तरह ही दिखाई देगा। बंद व्यक्ति से किसी तरह की मित्रता नहीं हो सकती। उससे मित्रता असंभव है। प्रेम असंभव है, किसी तरह का संवाद असंभव है।तुम भयभीत हो। कोई तुम पर मालकियत कर सकता है। तुम पर हावी हो सकता है। तुम्हें गुलाम बना सकता है। इससे भयभीत होकर तुमने एक कारागृह, एक सुरक्षा कवच का निर्माण अपने चारों और कर लिया है। तुम संभलकर चलते हो, फूंक-फूंक कर कदम रखते हो। जीवन एक ऊब हो जाता है। यदि तुम बहुत ज्यादा ही सावधान हो तो जीवन एक अभियान नही हो सकता। यदि तुम अपने को बहुत ज्यादा ही बचा रहे हो, सुरक्षा के पीछे भाग रहे हो, तो तुम पहले ही मर चुके हो।
6-तो एक आधारभूत नियम याद रखो: जीवन असुरक्षा है। और यदि तुम असुरक्षा में जीने को राज़ी हो ;तभी तुम जीवंत रह पाओगे। असुरक्षा स्वतंत्रता है। यदि तुम असुरक्षित होने को ...सतत असुरक्षित होने को तैयार हो तो तुम स्वतंत्र रहोगे। और स्वतंत्रता परमात्मा का द्वार है।भयभीत,होकर तुम एक कारागृह बना लेते हो, मुर्दा हो जाते हो। फिर तुम पुकारते हो। ‘परमात्मा कहां है?’ और फिर तुम पूछते हो, ‘जीवन कहां है?’ जीवन का अर्थ क्या है? आनंद कहां है? जीवन तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है, लेकिन उसी की शर्तों के अनुसार तुम्हें उससे मिलना होगा। तुम अपनी शर्तें नहीं लगा सकते हो। जीवन की अपनी शर्तें है। और मूल शर्त है: ''असुरक्षित रहो''। इसके बाबत कुछ नहीं किया जा सकता। तुम जो भी करोगे एक धोखा ही होगा।अगर तुम प्रेम में पड़ते हो तो तुम्हें भय पकड़ लेता है कि यह पुरूष/स्त्री तुम्हें छोड़ देगा । भय तत्क्षण प्रवेश कर जाता है। जब तुम प्रेम में नहीं थे तो कभी भयभीत नहीं थे। अब तुम प्रेम में हो: जीवन का प्रवेश हुआ और उसके साथ ही असुरक्षा का भी। जो किसी से प्रेम नहीं करता उसे कोई भय नहीं होता है। पूरा संसार उसे छोड़ सकता है उसे कोई भय नहीं है। तुम उसे नुकसान नहीं पहुंचा सकते। वह सुरक्षित है।
7-जिस क्षण तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, असुरक्षा शुरू हो जाती है। क्योंकि जीवन प्रवेश कर गया। और जीवन के साथ-साथ मृत्यु प्रवेश कर गई। जिस क्षण तुम प्रेम में पड़ते हो... तुम्हें भय पकड़ लेता है कि यह व्यक्ति मर सकता है, छोड़कर जा सकता है, किसी और से प्रेम कर सकता है।अब सब कुछ सुरक्षित करने के लिए तुम्हें कुछ करना पड़ेगा,तुम्हें विवाह करना पड़ेगा। फिर एक कानूनी बंधन बनाना पड़ेगा ताकि वह व्यक्ति तुम्हें छोड़ न सके। अब समाज तुम्हारी रक्षा करेगा। कानून तुम्हारी रक्षा करेगा। पुलिस जज, सब तुम्हारी रक्षा करेंगे। अब यदि वह व्यक्ति तुम्हें छोड़ना चाहे तो तुम उसे कोर्ट में घसीट सकते हो। और यदि वह तलाक लेना चाहे तो उसे तुम्हारे विरूद्ध कुछ सिद्ध करना पड़ेगा। तब भी इसमे तीन से पाँच साल तक लगेंगे। अब तुमने अपने चारों और एक सुरक्षा खड़ी कर ली।लेकिन जिस क्षण तुमने विवाह किया ...अब वह संबंध नहीं रहा,एक कानून बन गया। अब यह कोई जीवंत चीज नहीं रही, कानूनी घटना हो गई। कोर्ट जीवन को नहीं बचा सकता। बस सौदों को बचा सकता है। कानून जीवन को नहीं बचा सकता, बस नियमों को ही बचा सकता है। अब विवाह एक मरी हुई चीज है..क्योकि प्रेम अपरिभाष्य है;उसमे कोई कामना नहीं होती है।विवाह के साथ तुम परिभाषाओं के जगत में आ गए और पूरी बात ही समाप्त हो गई।
8-जिस क्षण तुमने सुरक्षित होना चाहा, जिस क्षण तुमने जीवन को बंद कर लेना चाहा ताकि इसमें कुछ भी नया न हो सके। तुम उसमें कैद हो गए। फिर तुम कष्ट भोगोगे। फिर तुम कहोगे कि यह पति/पत्नी तुम्हारे लिए बंधन बन गए/गई है। फिर तुम लड़ोगे, क्योंकि दोनों एक दूसरे के लिए कारागृह बन गए हो। अब तुम लड़ते हो क्योकि अब प्रेम समाप्त हो गया है। बस एक कलह बची है। सुरक्षा के पीछे दौड़ने से यही होता है।इसे मूल नियम की तरह याद रखो; जीवन असुरक्षित है। यह जीवन का स्वभाव है। तो जब तुम प्रेम में पड़ो इस भय को भले ही झेल लो कि प्रेमी/ प्रेमिका तुम्हें छोड़कर जा सकता है। पर कभी सुरक्षा मत खड़ी करो। फिर प्रेम विकसित होगा। हो सकता है प्रेमी/प्रेमिका मर जाए और तुम कुछ भी न कर पाओ। लेकिन उससे प्रेम नहीं मरेगा। प्रेम तो और बढ़ेगा।सुरक्षा मार सकती है।वास्तव में, यदि व्यक्ति अमर होता तो प्रेम असंभव हो जाता ... तो किसी को भी प्रेम करना असंभव हो जाता। प्रेम में पड़ना बहुत खतरनाक हो जाता।मृत्यु है तो जीवन ऐसे है जैसे किसी कंपते हुए पत्ते पर पड़ी ओस की बूंद। किसी भी क्षण हवा आयेगी और ओस की बूंद गिरकर खो जायेगी। जीवन बस एक स्पंदन है। उस स्पंदन के कारण, उस गति के कारण, मृत्यु सदा बनी रहती हे। इससे प्रेम को तेज़ी मिलती है। प्रेम इसीलिए संभव है। क्योंकि मृत्यु के कारण ही प्रेम सघन हो पाता है।
9-सोचो, यदि तुम्हें पता हो कि तुम्हारा पति/पत्नी अगले ही क्षण मरने वाला/वाली है तो सब चालाकियां, सब कलह समाप्त हो जाएगी। और यही एक क्षण शाश्वत हो जाएगा।और इतना प्रेम उमड़ेगा कि तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसमें प्रवाहित हो जाएगा।
लेकिन अगर तुम्हें पता हो कि अभी तुम्हारी पति/पत्नी जीवित रहेगा/रहेगी तो फिर कोई जल्दी नहीं है। फिर अभी तुम झगड़ सकते हो। प्रेम को और आगे के लिए टाल सकते हो। यदि जीवन शाश्वत हो, शरीर अमर हो, तो तुम प्रेम नहीं कर सकते। पुराणों की कथा में कहा गया है कि स्वर्ग में ,मुख्य अप्सरा उर्वशी ने एक पुरूष से प्रेम करने के लिए एक दिन पृथ्वी पर जाने की अनुमति मांगी।राजा इंद्र ने कहा, ‘क्या मूर्खता है, तुम यहां प्रेम कर सकती हो। और इतने सुंदर लोग तुम्हें पृथ्वी पर नहीं मिलेंगे। वे भले ही सुंदर हो ;पर, अमर नहीं है। इसमें कोई मजा नहीं आता, उनका प्रेम एक मुर्दा प्रेम है। सच में वे सब मरे हुए है।वास्तव में,वे मुर्दा ही है। क्योंकि उन्हें जीवंत बनाने के लिए प्रेम जगाने के लिए मृत्यु चाहिए।'उर्वशी ने कहां जो स्वर्ग में है...वे सदा-सदा रहेंगे। वे कभी मर नहीं सकते। इसलिए वे जीवित भी कैसे हो सकते है? वह जीवंतता मृत्यु के विपरीत ही होती है। मनुष्य जीवित है, क्योंकि मृत्यु सतत संघर्ष कर रही है।
10-मृत्यु की भूमिका में जीवन है।तो उर्वशी ने कहां, मुझे पृथ्वी पर जाने की आज्ञा दो। मैं किसी को प्रेम करना चाहती हूं। उसे आज्ञा मिल गई। तो वह नीचे पृथ्वी पर आ गई और एक युवक पुरुरवा के प्रेम में पड़ गई। लेकिन इंद्र की ओर से एक शर्त थी। इंद्र ने शर्त रखी थी कि वह पृथ्वी पर जा सकती है, किसी से प्रेम कर सकती है, पर जो पुरूष उसे प्रेम करे उसे यह पहले ही बता देना होगा कि वह उस से यह कभी न पूछे कि 'वह कौन है'।प्रेम के लिए यह कठिन है, क्योंकि प्रेम जानना चाहता है। प्रेम प्रेमी के विषय में सब कुछ जानना चाहता है। हर अज्ञात चीज को ज्ञात करना चाहता है। हर रहस्य में प्रवेश करना चाहता है। तो इंद्र ने बड़ी चालाकी से यह शर्त रखी, जिसकी चालबाजी को उर्वशी नहीं समझ पाई। वह बोली, ‘ठीक है, मैं अपने प्रेमी को कह दूंगी कि वह मेरे बारे में कभी कुछ न जानना चाहे। कभी यह न पूछे कि मैं कौन हूं। और यदि वह पूछता है तो तत्क्षण उसे छोड़कर मैं वापस आ जाऊगी।‘ और उसने पुरुरवा से कहा, ‘कभी मुझ से यह मत पूछना कि 'मैं कौन हूं'। जिस क्षण तुम पूछोगे, मुझे पृथ्वी को छोड़ना पड़ेगा।’लेकिन प्रेम तो जानना चाहता है। और इस बात के कारण पुरुरवा और भी उत्सुक हो गया कि वह कौन है। वह सो नहीं भी सका। वह उर्वशी की ओर देखता रहा। वह है कौन? इतनी सुंदर स्त्री, किसी स्वप्निल पदार्थ की बनी लगती है। पार्थिव, भौतिक नहीं लगती। शायद वह कहीं और से, किसी अज्ञात आयाम से आई है।
11-वह और-और उत्सुक होता गया। लेकिन वह और भयभीत भी होता गया कि वह जा सकती है। वह इतना भयभीत हो गया कि जब रात वह सोती, उसकी साड़ी का पल्लू वह अपने हाथ में ले लेता। क्योंकि उसे अपने पर भी भरोसा नहीं था। कभी भी वह पूछ सकता था, प्रश्न सदा उसके मन में रहता था। अपनी नींद में भी वह पूछ सकता था। और उर्वशी ने कहा था कि नींद में भी उसके बाबत नहीं पूछना है। तो वह उसकी साड़ी का कोना अपने हाथ में लेकर सोता।लेकिन एक रात वह अपने को वश में नहीं रख पाया और उसने सोचा कि अब वह उससे इतना प्रेम करती है कि छोड़कर नहीं जाएगी। तो उसने पूछ लिया। उर्वशी को अदृश्य होना पड़ा, बस उसकी साड़ी का एक टुकड़ा पुरुरवा के हाथ में रह गया। और कहा जाता है कि वह अभी भी उसे खोज रहा है।तो स्वर्ग में प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि असल में वहां कोई जीवन ही नहीं है। जीवन यहां इस पृथ्वी पर है, जहां मृत्यु है। जब भी तुम कुछ सुरक्षित कर लेते हो, जीवन खो जाता है। असुरक्षित रहो। यह जीवन का ही गुण है। इसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता। और यह सुंदर है।
12-कल्पना करो,यदि तुम्हारा शरीर अमर होता तो कितना कुरूप होता। तुम आत्मघात करने के उपाय खोजते फिरते। और यदि यह असंभव है, कानून के विरूद्ध है, तो तुम्हें इतना कष्ट होगा कि कल्पना भी नहीं कर सकते। अमरत्व एक बहुत लंबी बात है। अब लोग स्वेच्छा मरण की बात सोच रहे है। क्योंकि लोग अब लंबे समय तक जी रहे है1 तो जो व्यक्ति सौ वर्ष तक पहुंच जाता है वह स्वयं को मारने का अधिकार चाहता है।और वास्तव में,यह अधिकार देना ही पड़ेगा। जब जीवन बहुत छोटा था तो हमने आत्महत्या न करने का कानून बनाया था। बुद्ध के समय में चालीस या पचास साल का हो जाना बहुत था। औसत आयु कोई बीस साल के करीब थी। अब देशो में औसत आयु तिरासी साल है। तो लोग बड़ी आसानी से डेढ़ सौ साल तक जी सकते है।अब यदि वे कहते है कि उन्हें स्वयं को मारने का अधिकार है। क्योंकि अब बहुत हो चुका, तो हमें यह अधिकार उन्हें देना हीं होगा। इससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता।देर-अबेर आत्महत्या हमारा जन्मसिद्ध अधिकार होगा। अगर कोई मरना चाहता है तो तुम उसे मना नहीं कर सकते ..किसी भी कारण से नहीं। क्योंकि अब जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गया। पहले ही बहुत हो चुका। सौ साल के व्यक्ति को जीने जैसा नहीं लगता। ऐसा नहीं है कि वह परेशान हो गया है कि उसके पास भोजन नहीं है। सब कुछ है, पर जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गया।
13-तो अमरत्व की सोचोगे तो, जीवन बिलकुल अर्थहीन हो जाएगा। अर्थ मृत्यु के कारण होता है। प्रेम का अर्थ है , क्योंकि प्रेम खोया जा सकता है। तब प्रेम धड़कता है, स्पंदित होता है। प्रेम खो सकता है। तुम उसके बारे में निश्चित नहीं हो सकते। तुम उसे कल पर नहीं टाल सकते।तुम्हें साथी को इस तरह से प्रेम करना होगा कि हो सकता है कल आए ही न। फिर प्रेम सघन होता है ।तो पहली बात, सुरक्षित जीवन पैदा करने के अपने सारे प्रयास हटा लो। बस यह प्रयास हटाने से ही तुम्हारे आस-पास की दीवारें गिरने लगेंगी। पहली बार तुम्हें लगेगा कि वर्षा तुम पर सीधी पड़ रही है। हवाएँ सीधी तुम तक बह रही है। सूर्य सीधा तुम तक पहुंच रहा है। तुम खुले आकाश के नीचे आ जाओगे...सुंदर है यह। लेकिन तुम्हें अगर यह विचित्र लगता है तो इसलिए क्योंकि तुम कारागृह में रहने के आदी हो गए हो। तुम्हें इस नई स्वतंत्रता से परिचित होना पड़ेगा। यह स्वतंत्रता तुम्हें अधिक जीवंत,अधिक तरल, अधिक खुला अधिक समृद्ध, अधिक जीवित बनाएगी।लेकिन तुम्हारी जीवंतता तुम्हारे जीवन का शिखर जितना ऊँचा होगा। उतनी ही गहन मृत्यु तुम्हारे निकट होगी। एकदम करीब होगी। तुम केवल मृत्यु के,मृत्यु की घाटी के विरूद्ध ही उठ सकते हो।
14-जीवन का शिखर और मृत्यु की घाटी सदा पास-पास होते है। और एक ही अनुपात में होते है।इसलिए खतरे में जीओं। ऐसा नहीं कि खतरा तुम्हें खोजना है। खतरे को अपनी और से खोजने की कोई जरूरत नहीं है। बस सुरक्षा मत खड़ी करो। अपने चारों और दीवारें मत खीचों स्वाभाविक रूप से जीओं और यही बहुत खतरनाक होगा।फिर तुम यह विधि कर सकते हो, ‘स्वयं को सभी दिशाओं में परिव्याप्त होता हुआ महसूस करो—सुदूर,समीप।’फिर यह बहुत आसान है। यदि दीवारें न हों तो तुम स्वयं को सब और व्याप्त होता हुआ अनुभव करने ही लगोगे। फिर तुम कहां समाप्त होते हो। इसकी कोई सीमा नहीं होगी। तुम बस ह्रदय से शुरू होते हो। और कहीं भी समाप्त नहीं होते। बस तुम्हारे पास एक केंद्र है और कोई परिधि नहीं है। परिधि बढ़ती चली जाती है ...आगे और आगे। पूरा आकाश उसमे समा जाता है1 सितारे उसमें घूमते है। पृथ्वीयां उसी में बनती है और मिटती है। ग्रह उगते है और अस्त होते है। पूरा ब्रह्मांड तुम्हारी परिधि बन जाता है।इस विस्तार में तुम्हारा अहंकार , तुम्हारे कष्ट और तुम्हारा चालाक मन नहीं बच सकता ...विलीन हो जाता है।
15-बस एक संकीर्ण स्थान पर ही मन बच सकता है। मन तो केवल तभी चल सकता है जब दीवारों में बंद हो, कैद हो। यह बंद होना ही समस्या है। खतरे में जीओं और असुरक्षा में जीवन के लिए तैयार रहो। और मजा यह है कि अगर तुम असुरक्षा मे न भी रहना चाहो तो भी असुरक्षित ही हो। तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो।उदाहरण के लिए,एक राजा अधिक डरपोक था, अधिकतर राजा डरपोक होते है। क्योंकि उन्होंने इतने लोगों का शोषण किया होता है ,इतने लोगों को दबाया कुचला होता है।उनके कई शत्रु बन जाते है। असली राजा का कोई मित्र नहीं होता है क्योंकि घनिष्ठत्म मित्र भी उसका शत्रु ही होता है। बस अवसर की तलाश होती है। कब उसे मार कर उसकी जगह बैठा जाये।सता में जो व्यक्ति होता है उसका कोई मित्र नहीं हो सकता। किसी हिटलर, किसी स्टैलिन, किसी निकसन, किसी चंगेज खां, किसी नादिर शाह…..का कोई मित्र नहीं था। उसके बस शत्रु होते है कि कब मौका मिलते ही उसको धक्का देकर वे स्वयं सिंहासन पर बैठ सकें।इसीलिए महान दार्शनिक लाओत्से कहता है: ‘यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारे मित्र हों तो सत्ता में मत आओ। फिर सारा संसार तुम्हारा मित्र है। यदि तुम सत्ता में हो तो बस तुम ही अकेले मित्र हो। बाकी सब शत्रु है।’
16-तो वह राजा बहुत डरा हुआ था। उसे मृत्यु का बड़ा भय था। चारों और मृत्यु ही मृत्यु थी। उसे यही भय लगा रहता था कि उसके आस पास सभी उसे मारना चाहते है। वह सो भी नहीं सकता था। उसने अपने सलाहकारों से पूछा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने कहा कि वह एक ऐसा महल बनवाए जिसमे केवल एक ही द्वार हो। द्वार पर सैनिकों की सात टुकड़ियों खड़ी की जाएं। पहली टुकड़ी महल पर नजर रखे, दुसरी टुकड़ी पहली पर। तीसरी दूसरी पर एक ही द्वार होने से कोई और नहीं भीतर आ सकता। और आप सुरक्षित रहेंगे।राजा ने एक ही द्वार वाला महल बनवाया और उस पर सैनिकों की सात टुकड़ियां तैनात करवा दी जो एक दूसरे पर नजर रखती थी। यह खबर चारों और फैल गई पड़ोसी राज्य का राजा उसे देखने आया। वह भी भयभीत था। उसे खबर मिली थी कि पड़ोसी राजा ने ऐसा सुरक्षित महल बनवाया है.. जहां उसे मार पाना असंभव है। तो वह देखने आया और दोनों ने मिलकर इस एक ही द्वार वाले महल और सुरक्षा व्यवस्था की बड़ी प्रशंसा की ...'कोई खतरा नहीं है'।
जब वे द्वार की और देख रहे थे तो सड़क के किनारे बैठा एक भिखारी हंसने लगा। तो राजा ने उससे पूछा:’तुम हंस क्यों रहा है?’ भिखारी ने उत्तर दिया, ‘मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुमसे एक गलती हो गई है। तुम्हें अंदर जाकर एक द्वार को भी बंद कर लेना चाहिए।
17-यह द्वार खतरनाक है। कोई इससे भीतर घुस सकता है। द्वार का अर्थ ही है कि कोई भीतर आ सकता है। यदि और कोई न भी आए तो कम से कम मृत्यु तो आएगी ही। तो तुम एक काम करो: अंदर चले जाओ और इस द्वार को भी बंद कर लो। तब तुम सच में सुरक्षित हो जाओगे। क्योंकि मृत्यु भी नहीं घुस सकेगी।’लेकिन राजा ने कहा, ‘अगर मैं यह द्वार भी बंद कर लूं तो मैं वैसे ही मर जाऊँगा।’ उस भिखारी ने कहा, निन्यानवे प्रतिशत तो तुम मर ही चुके हो। तुम उतने ही जीवित हो जितना यह द्वार। बस इतना ही खतरा है, इतने ही तुम जीवित हो। यह जीवंतता भी छोड़ दो।सभी अपनी-अपनी तरह से अपने आस-पास महल बना रहे है। ताकि भीतर कोई न आ सके। और वे शांति से रह सकें। लेकिन फिर तुम पहले ही मर गए। और शांति बस उन्हें ही घटती है जो जीवित है।शांति कोई मुर्दा चीज नहीं है। जीवंत रहो ..खतरे में जीओं। एक संवेदनशील, मुक्त जीवन जीओं। ताकि तुम्हें सब कुछ स्पर्श कर सके। और अपने साथ सब कुछ होने दो। जितना तुम्हारे साथ कुछ घटेगा... उतने ही तुम समृद्ध होओगे।फिर तुम इस विधि का अभ्यास कर सकते हो। फिर यह विधि बड़ी सरल है। तुम्हें इसका अभ्यास करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। बस भाव करो, और तुम पूरे आकाश में परिव्याप्त हो जाओगे।‘'स्वयं को सभी दिशाओं में परिव्याप्त होता हुआ महसूस करो—सुदूर, समीप।’'
......SHIVOHAM....