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आत्मज्ञान की 'महासाधना'-VOLUME-04 प्रस्तावना/PREFACE.....

ॐ गुरवे आदि शंकराचार्य नमः ॐ गं गणपतये नमः ॐ सकारात्मक / नकारात्मक ऊर्जा नमः ॐ कामाख्या देव्यै नमः ॥ऊं ह्रीं दक्षिणामूर्तये नमः ॥

विज्ञान भैरव तन्त्र काश्मीरी शैव सम्प्रदाय के त्रिक उप-सम्प्रदाय का मुख्य ग्रन्थ है। यह भगवान शिव और शक्ति के संवाद के रूप में है। इसमें संक्षेप में 112 धारणाओं (meditation methods) का वर्णन किया गया है।इस पुस्तक में 57 से 112 धारणाओं का वर्णन है।

1-(श्‍वास-क्रिया से संबंधित नौ विधियां)-1,2,3,4,5,6,7,8,9, 2-(शिथिल होने की तीन विधियां)-10,11,12 3- (केंद्रित होने की बारह विधियां )-13,14,15,16,17,18,19 20,21,22,23,24 3- (अचानक रूकने की पाँच विधियां):25,26,27,28,29 4- (देखने के संबंध में सात विधियां):-30,31,32,33,34,35,36 5-(ध्‍वनि-संबंधी "ग्यारह" विधियों )37,38,39,40,41,42,43,44,45,46,47 6-(ऊर्ध्वगमन सम्बन्धी पाँच विधियां)48,49,50,51,52 7-(आत्‍म-स्‍मरण की चार विधियां)53,54,55,56

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12-(अहंकार —संबंधी तीनविधियां )81,82,83 13-(अनासक्‍ति—संबंधी छह विधियां ).. 84,85,86,87,88,89 14-(तीसरी आँख के जागरण संबंधी छह विधियां ) -90,91,93,94

15-एकांत से संबंधित दो विधियां )96,97

16- ( ह्रदय संबंधी दो विधियां )—98,99

17-( आंतरिक शक्‍ति संबंधी दो विधियां)-- 100,101

18-( आत्मा संबंधी चार विधियां) -102,103,104,105

19-( चेतना संबंधी तीन विधियां )--106,107,108

20- ( निष्क्रिय रूप संबंधी चार विधियां)-- 109,110,111,112

क्या महत्व है एक सौ बारह विधियां का?-

18 FACTS;-

1- एक सौ बारह विधियां में सभी संभावनाओं का समावेश है; मन को शुद्ध करने के, मन के अतिक्रमण के सभी उपाय उनमें समाए हैं। शिव की एक सौ बारह विधियों में एक और विधि नहीं जोड़ी जा सकती। और यह ग्रंथ, विज्ञान भैरव तंत्र, पांच हजार वर्ष पुराना है। उसमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता; कुछ जोड्ने की गुंजाइश ही नहीं है। यह सर्वांगीण है, संपूर्ण है, अंतिम है। यह सब से प्राचीन है और साथ ही सबसे आधुनिक, सबसे नवीन। पुराने पर्वतों की भांति ये तंत्र पुराने हैं, शाश्वत जैसे लगते हैं, और साथ ही सुबह के सूरज के सामने खड़े ओस -कण की भाति ये नए हैं...ये इतने ताजे हैं। 2-ध्यान की इन एक सौ बारह विधियों से मन के रूपांतरण का पूरा विज्ञान निर्मित हुआ है। हम उन्हें बुद्धि से समझने की चेष्टा करेंगे। लेकिन बुद्धि को मात्र एक यंत्र की तरह काम में लाओ, मालिक की तरह नहीं। समझने के लिए यंत्र की तरह उसका उपयोग करो, लेकिन उसके जरिए नए व्यवधान मत पैदा करो। जिस समय हम 57 वी विधि से चर्चा करेंगे, तुम अपने पुराने ज्ञान को, पुरानी जानकारियों को अलग ही कर देना, वे रास्ते की धूल भर हैं। इन विधियों का साक्षात्कार निश्चय ही सावचेत मन से करो; लेकिन तर्क को हटा कर करो। इस भ्रम में मत रहो कि विवाद करने वाला मन सावचेत मन है। वह नहीं है। क्योंकि जिस क्षण तुम विवाद में उतरते हो, उसी क्षण सजगता खो देते हो, सावचेत नहीं रहते हो। तुम तब यहां हो ही नहीं। 3-ये विधियां किसी धर्म की नहीं हैं।इसलिए इन विधियों में किसी धार्मिक अनुष्ठान का उल्लेख नहीं रहेगा। किसी मंदिर की जरूरत नहीं है। तुम स्वयं मंदिर हो। तुम ही प्रयोगशाला हो, तुम्हारे भीतर ही पूरा प्रयोग होने वाला है। और विश्वास की भी जरूरत नहीं है। तंत्र धर्म नहीं, विज्ञान है, किसी विश्वास की जरूरत नहीं है।प्रयोग करने का महासाहस/ हिम्मत काफी है और यही इसका सौंदर्य है। एक मुसलमान प्रयोग कर सकता है और वह कुरान के गहरे अर्थों को उपलब्ध हो जाएगा। एक हिंदू अभ्यास कर सकता है और वह पहली दफा जानेगा कि वेद क्या है। वैसे ही एक जैन इस साधना में उतर सकता है, बौद्ध इस साधना में उतर सकता है। उन्हें अपने धर्म छोड़ने की जरूरत नहीं है। वे जहां हैं वहीं तंत्र उन्हें आप्तकाम करेगा। उनके अपने चुने हुए रास्ते जो भी हों, तंत्र सहयोगी होगा। 4-इसलिए, तंत्र शुद्ध विज्ञान है। तुम हिंदू हो सकते हो, या मुसलमान, या पारसी, या कोई भी। तंत्र तुम्हारे धर्म को जरा भी नहीं छूता है। तंत्र का कहना है कि धर्म सामाजिक मामला है। किसी भी धर्म में रहो, यह अप्रासंगिक है। लेकिन तुम अपने को रूपांतरित कर सकते हो। और उस रूपांतरण के लिए वैज्ञानिक प्रणाली जरूरी है'। जब तुम बीमार पड़ते हो या तुम्हें तपेदिक या कुछ हो गया है, तब तुम्हारा हिंदू या मुसलमान होना कोई फर्क नहीं करता है। तपेदिक को तुम्हारे हिंदू इस्लाम या किसी भी राजनीतिक या सामाजिक विश्वास के साथ लेना-देना नहीं है। तपेदिक का इलाज वैज्ञानिक ढंग से किया जाना होगा। कोई हिंदू तपेदिक या मुसलमान तपेदिक नहीं होता। 5-तुम अज्ञान में हो, द्वंद्व में हो; तुम सोए हो। यह एक रोग है -आध्यात्मिक रोग। और इस रोग का इलाज तंत्र के द्वारा होना है। तुम इसमें अप्रासंगिक हो, तुम्हारा विश्वास अप्रासंगिक है। यह आकस्मिक है कि तुम कहीं पैदा हुए हो और कोई दूसरा और कहीं पैदा हुआ है। यह सांयोगिक है। तुम्हारा धर्म भी सांयोगिक है। इसलिए उससे चिपके मत रहो। और अपने को रूपांतरित करने के लिए वैज्ञानिक प्रणाली का उपयोग करो। 6-तंत्र बहुत माना-जाना नहीं है। यदि माना-जाना भी है तो बहुत गलत समझा गया है। और उसके कारण हैं। जो विज्ञान जितना ही ऊंचा और शुद्ध होगा, उतना ही कम जनसाधारण उसे जान-समझ सकेगा। वह इतना गहरा और ऊंचा था कि यह होना स्वाभाविक था। चूंकि तंत्र द्वैत के पार जाता है इसलिए उसका दृष्टिकोण अति नैतिक है। कृपया इन शब्दों को समझे.. नैतिक, अनैतिक, अति नैतिक। नैतिक क्या, हम समझते हैं, अनैतिक क्या है, वह भी हम समझते हैं। लेकिन जब कोई चीज अति नैतिक हो जाती है, नैतिक -अनैतिक दोनों के पार चली जाती है, तब उसे समझना कठिन हो जाता है। 7-तंत्र अति नैतिक है।उदाहरण के लिए ,औषधि, दवा अति नैतिक है, वह न नैतिक है और न अनैतिक। चोर को दवा दो तो उसे लाभ पहुंचाएगी। संत को दो, तो उसे भी लाभ पहुंचाएगी। वह चोर और संत में कोई भेद नहीं करेगी। दवा नहीं कह सकती कि यह चोर है इसलिए मैं उसे मारूंगी और वह साधु है उसकी मदद करूंगी। दवा वैज्ञानिक है। तुम्हारा चोर या संत होना उसके लिए अप्रासंगिक हैं। 8-तंत्र कहता है ,कोई खास नैतिकता जरूरी नहीं है। सच तो यह है कि तुम काम, क्रोध, लोभ, मद ,मोह ,आलस्य ,भय और अहंकार-इन अष्ट विकारों से ग्रसित हो, और पहलेतुमइसे स्वीकार करो। इसलिए तंत्र शर्त नहीं लगाता कि पहले तुम नैतिक बनो तब तंत्र की साधना कर सकते हो। तंत्र के लिए यह बात ही बेतुकी है। कोई बीमार है, बुखार में है और डाक्टर आकर कहता है ... पहले अपना बुखार कम करो; पहले पूरा स्वस्थ हो लो और तभी मैं दवा दूंगा! 9-यही तो हो रहा है। एक चोर साधु के पास आता है और कहता है कि मैं चोर हूं मुझे ध्यान करना सिखाएं। साधु कहता है कि पहले चोरी छोड़ो, चोर रहते ध्यान कैसे करोगे! एक शराबी आकर कहता है, मैं शराबी हूं मुझे ध्यान बताएं। और साधु कहता है, पहली शर्त कि शराब छोड़ो और तब ध्यान कर सकोगे। ये शर्तें ही आत्मघातक हो जाती हैं। वह मनुष्य शराबी है, या चोर है, या अनैतिक है; क्योंकि उसका चित्त अशांत है, रुग्ण है। ये तो रुग्ण चित्त के प्रभाव हैं, परिणाम हैं। और उसे कहा जाता है, पहले अच्छे हो लो तब ध्यान करना। लेकिन तब ध्यान की जरूरत किसको है? 10-ध्यान औषधि है।तंत्र अति नैतिक है... वह नहीं पूछता कि तुम कौन हो। तुम्हारा मनुष्य होना काफी है। तुम जहां भी हो, जो भी हो, स्वीकृत हो।जो विधि तुम्हें तुम्हारे अनुकूल पड़े उसे चुन लो, उसमें अपनी पूरी शक्ति लगा दो, और फिर तुम वही नहीं रहोगे जो थे। वास्तविक, प्रामाणिक विधियां सदा वैसा ही करती हैं।और पूर्व शर्त खड़ी करना बताता है कि विधि नकली है।शिव जगतपिता हैं ...सभी उनकी संतान हैं;वो भेद नहीं करते ।अगर एक लोभी से स्वर्ग का वादा किया जाए, तो वह अलोभी होने का यत्न कर सकता है। लेकिन यह तो सबसे बड़ा लोभ हो गया, परम लोभ हो गया। अब स्वर्ग, मोक्ष, सच्चिदानंद उसके लोभ के लक्ष्य होंगे। 11-तंत्र कहता है, तुम आदमी को बदलाहट की प्रामाणिक विधि के बिना नहीं बदल सकते। मात्र उपदेश से कुछ नहीं बदलता है। और पूरी जमीन पर यही हो रहा है। तंत्र जो कुछ कह रहा है, सारा संसार उसकी गवाही दे रहा है। इतने उपदेश, इतनी नैतिक शिक्षा, इतने पुरोहित, इतने प्रचारक! पृथ्वी उनसे पटी है। और फिर भी... उपदेशक उपदेश किए चले जाते हैं। वे लोगों से कहते हैं कि क्रोध मत करो और उसके लिए कोई उपाय नहीं बताते।यह कैसे संभव है...जब मैं क्रोध में हूं तो उसका मतलब है कि मैं क्रोध ही हूं और तुम सिर्फ कहते हो कि क्रोध मत करो।

12-दमन से तो और क्रोध पैदा होगा ...अपराध -भाव पैदा होगा।तुम्हारा क्रोध तुम्हारे अशात चित्त का लक्षण है। अशांत मन को बदलो और लक्षण बदल जाएगा। क्रोध इतना भर दिखा रहा है कि भीतर क्या है। भीतर को बदलो और बाहर बदल जाएगा।तंत्र तो वैज्ञानिक विधि बताता है कि कैसे चित्त को बदला जाए। और एक बार चित्त दूसरा हुआ कि तुम्हारा चरित्र दूसरा हो जाएगा। एक बार तुम्हारे ढांचे का आधार बदला कि पूरी इमारत दूसरी हो जाएगी। 13-एक बार तुम जान गए कि विधियों के द्वारा तुम पदार्थ को बदल सकते हो तो किसी दिन तुम यह भी जान ही लोगे कि विधियों के द्वारा मन को भी बदल सकते हो। क्योंकि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।यही तंत्र की प्रस्तावना है कि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और यह बदला जा सकता है। और मन बदला कि संसार बदल गया, क्योंकि तुम मन के द्वारा ही देखते हो। जो संसार तुम देखते हो उसे वैसा एक विशेष मन के कारण देखते हो। मन को बदलों और तब देखोगे कि एक भिन्न संसार ही तुम्हारे सामने होगा।

14-और जब मन अ-मन हो जाए..वह तंत्र का आत्यंतिक लक्ष्य है कि एक ऐसी अवस्था आए जहां मन ही न रहे;तब संसार को बिना माध्यम के देखो। और जब माध्यम नहीं रहा तब तुम सत्य के बिलकुल आमने-सामने होते हो। क्योंकि अब तुम्हारे और सत्य के बीच में कोई भी न रहा। तब कुछ भी विरूप, विकृत नहीं किया जा सकेगा।तंत्र कहता है कि उस अवस्था का नाम भैरव है जब मन नहीं रहता है;''अ-मन की अवस्था''। और तब पहली दफा तुम यथार्थत: उसको देखते हो जो है। जब तक मन है, तुम अपना ही संसार रचे जाते हो, तुम उसे आरोपित, प्रक्षेपित किए जाते हो। इसलिए पहले तो मन को बदलो और तब मन को अ-मन में बदलो। 15-और ये एक सौ. बारह विधियां सभी लोगों के काम आ सकती हैं। हो सकता है, कोई विशेष उपाय तुमको ठीक न पड़े। इसलिए तो शिव अनेक उपाय बताए चले जाते हैं। कोई एक विधि चुन लो जो तुमको जंच जाए।और यह जानना कठिन नहीं है कि कौन सी विधि तुम्हें जंचती है जो कि तुम्हें और तुम्हारे मन को रूपांतरित कर दे। यह बौद्धिक समझ बुनियादी तौर से जरूरी है, लेकिन यह अंत नहीं है।जब तुम अपनी सही विधि का प्रयोग करते हो तब झट से उसका तार तुम्हारे किसी तार से लगकर बज उठता है। तुम्हारे भीतर कुछ विस्फोट सा होगा और तुम जानोगे कि यह विधि मेरे लिए है। 16- ये विधियां बहुत सरल हैं। जब तुम खेलते हो तब तुम्हारा मन अधिक खुला रहता है।गंभीर होने पर वह उतना खुला नहीं होता, बंद होता है।इसलिए गंभीर मत होना, खेलना। एक विधि लो और उसके साथ तीन दिन खेलो। अगर तुम्हें उसके साथ निकटता की अनुभूति हो, तुम थोड़ा स्वस्थ महसूस करो, और तुम्हें लगे कि यह तुम्हारे लिए है तो फिर उसके प्रति गंभीर हो जाओ।तब दूसरी विधियों को भूल जाओ और अपनी विधि के साथ टिको, कम से कम तीन महीने टिको। चमत्कार संभव है। बस इतना होना चाहिए कि वह विधि सचमुच तुम्हारे लिए हो। यदि तुम्हारे लिए नहीं है तो कुछ नहीं होगा। तब उसके साथ जन्मों-जन्मों तक प्रयोग करके भी कुछ नहीं होगा। और अगर विधि तुम्हारे लिए है तो तीन मिनट काफी हैं। 17-जीवन चमत्कार है। अगर हमने उसके रहस्य को नहीं जाना है तो उससे यही जाहिर होता है कि तुम्हें उसके पास पहुंचने की विधि नहीं मालूम है।शिव यहां एक सौ बारह विधियां प्रस्तावित कर रहे हैं।ये एक सौ बारह विधियां तुम्हारे लिए चमत्कारिक अनुभव बन सकती हैं।यदि इनमें से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं 'जंचती' है; तुम्हें यह भाव नहीं देती है कि वह तुम्हारे लिए है... तो फिर कोई भी विधि तुम्हारे लिए नहीं बची।तब अध्यात्म को भूल जाओ और खुश रहो कि वह तब तुम्हारे लिए नहीं है। 18-लेकिन ये एक सौ बारह विधियां तो समस्त मानव-जाति के लिए हैं और वे उन सभी युगों के लिए हैं जो गुजर गए हैं और आने वाले हैं। और किसी भी युग में एक भी ऐसा आदमी नहीं हुआ और न होने वाला ही है, जो कह सके कि ये सभी एक सौ बारह विधियां मेरे लिए व्यर्थ हैं। यह असंभव है! प्रत्येक ढंग के चित्त के लिए यहां गुंजाइश है।कई विधियां हैं जिनके उपयुक्त मनुष्य अभी उपलब्ध नहीं हैं, वे भविष्य के लिए हैं। और ऐसी विधियां भी हैं जिनके उपयुक्त लोग रहे नहीं, वे अतीत के लिए हैं।

लेकिन अनेक विधियां हैं.. जो तुम्हारे लिए ही हैं। ''देवत्व का अवतरण ''का उद्देश्य पूरा हो सके इसके चलते ही प्रस्तुत पुस्तक को संकलित किया गया है यह एक भक्त का रचना संकलन है ,विद्वान का नहीं। इसलिए भगवान शिव और उनकी शक्ति को समर्पित है।अपनी त्रुटियों के लिए आपसे क्षमायाचना करती हूँ... यह एक भक्त की विनती है। ... शिवोहम.....

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