क्या है विज्ञान भैरव तन्त्र सार ? PART02
विज्ञान भैरव तन्त्र सार;-
35 FACTS;-
1-तंत्र विज्ञान है, और वह परमाणु -विज्ञान से भी ज्यादा गहन विज्ञान है। परमाणु विज्ञान पदार्थ से संबंधित है; तंत्र तुमसे संबंधित है। और तुम सदा ही किसी भी परमाणु-ऊर्जा से अधिक खतरनाक हो। तंत्र तुमसे, जीवित कोशिका से, स्वयं जीवन चेतना से संबंधित है। जो व्यक्ति जीवन और चेतना में रूचि रखता है। वह अपने काम में दिलचस्पी लेगा। 2-काम जीवन का , प्रेम का, चेतना का स्त्रोत है। चेतना के जगत में जो भी घट रहा है ;उसका आधार काम है। और अगर कोई साधक काम और प्रेम में उत्सुक नहीं है तो वह दार्शनिक हो सकता है ,साधक नहीं ।और दर्शनशास्त्र कामोबेश कचरा है .. जो व्यर्थ की चीजों के संबंध में ऊहापोह करता है। 3-तंत्र की उत्सुकता दर्शन में नहीं है। उसकी उत्सुकता वास्तविक और अस्तित्वगत जीवन में है। तंत्र कभी नहीं पूछता है कि क्या ईश्वर है, क्या मोक्ष है, क्या स्वर्ग -नरक है। तंत्र जीवन के संबंध में बुनियादी प्रश्न पूछता है। यही कारण है कि प्रेम में उसकी इतनी रूचि है क्योकि काम और प्रेम बुनियादी है।
4-विज्ञान भैरव तंत्र देवी के प्रश्नों से शुरू होता है और सभी प्रश्न दर्शन के तल पर हाथ में लिए जा सकते हैं। दरअसल कोई भी प्रश्न दो ढंग से हल किया जा सकता है... दार्शनिक ढंग से अथवा समग्रता पूर्वक; बौद्धिक ढंग से अथवा अस्तित्वगत रूप से।यही कारण है कि देवी ऐसे प्रश्न पूछती हैं जो दार्शनिक प्रश्न जैसे दिखते हैं।देवी कहती है... हे शिव, आपका सत्य क्या है?यह विस्मय-भरा विश्व क्या है?इसका बीज क्या है? विश्व–चक्र की धुरी क्या है?रूपों पर छाए ,लेकिन रूप के परे ;यह जीवन क्या है? देश और काल, नाम और प्रत्यय के परे जाकर; हम इसमें कैसे पूर्णत: प्रवेश करें? मेरे संशय निमूर्ल करें। 5- विज्ञान भैरव तंत्र का जगत बौद्धिक नहीं है, वह दार्शनिक नहीं है। सिद्धांत इसके लिए अर्थ नहीं रखता। यह उपाय की, विधि की चिंता करता है, सिद्धांत की कतई नहीं। तंत्र शब्द का अर्थ ही है विधि, उपाय, मार्ग। इसलिए यह कोई मीमांसा नहीं है, इस बात को ध्यान में रख लें। बौद्धिक समस्याओं और उनके ऊहापोह से इसका कोई संबंध नहीं है। यह चीजों के 'क्यों' की चिंता नहीं लेता, उनके 'कैसे' की चिंता लेता है, सत्य क्या है इसकी नहीं, वरन इसकी कि सत्य को कैसे उपलब्ध हुआ जाए। 6-तंत्र का अर्थ विधि है। इसलिए यह एक विज्ञान -ग्रंथ है। विज्ञान 'क्यों' की नहीं, 'कैसे' की फिक्र करता है। दर्शन और विज्ञान में यही बुनियादी भेद है। दर्शन पूछता है. यह अस्तित्व क्यों है? विज्ञान पूछता है. यह अस्तित्व कैसे है? जब तुम कैसे का प्रश्न पूछते हो, तब उपाय, विधि महत्वपूर्ण हो जाती है। तब सिद्धांत व्यर्थ हो जाते हैं, अनुभव केंद्र बन जाता है। तंत्र विज्ञान है, तंत्र दर्शन नहीं है। दर्शन को समझना आसान है, क्योंकि उसके लिए सिर्फ मस्तिष्क की जरूरत पड़ती है।
7-यदि तुम भाषा जानते हो, यदि तुम प्रत्यय समझते हो तो तुम दर्शन समझ सकते हो। उसके लिए तुमको बदलने की, संपरिवर्तित होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम जैसे हो वैसे ही बने रहकर दर्शन को समझ सकते हो। लेकिन वैसे ही रहकर तंत्र को नहीं समझ सकते। तंत्र को समझने के लिए तुम्हारे बदलने की जरूरत रहेगी; बदलाहट की ही नहीं, आमूल बदलाहट की जरूरत होगी। जब तक तुम बिलकुल भिन्न नहीं हो जाते हो, तब तक तंत्र को नहीं समझा जा सकता। क्योंकि तंत्र कोई बौद्धिक प्रस्तावना नहीं है, वह एक अनुभव है। और जब तक तुम अनुभव के प्रति संवेदनशील, तैयार, खुले हुए नहीं होते, तब तक यह अनुभव तुम्हारे पास आने को नहीं है। 8-दर्शन की फिक्र तुम्हारे मन के साथ है। उसके लिए तुम्हारा मस्तिष्क काफी है, उसको तुम्हारी समग्रता नहीं चाहिए। तंत्र तुमको तुम्हारी समग्रता में मांगता है। यह बहुत गहरी चुनौती है, इसमें तुम पूरे और इकट्ठे होकर ही उतर सकते हो। तंत्र खंडित नहीं है। उसकी अगवानी के तरह के रुझान, तरह की यात्रा, और ही तरह के मन की जरूरत।उदाहरण के लिए अगर कोई पूछे, प्रेम क्या है? तो तुम उस प्रश्न का उत्तर बौद्धिक तल पर दे सकते हो, कोई सिद्धांत प्रस्तावित कर सकते हो, किसी विशेष परिकल्पना के लिए दलील दे सकते हो। तुम एक व्यवस्था, एक सिद्धांत, एक मतवाद खड़ा कर सकते हो। और हो सकता है कि प्रेम का तुमको बिलकुल पता न हो। 9-मतवाद गढ़ने के लिए अनुभव की जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि तुम जितना कम जानते हो उतना ही अच्छा। क्योंकि तब तुम बेहिचक व्यवस्था प्रस्तावित कर सकते हो। केवल अंधा आदमी आसानी के साथ प्रकाश की व्याख्या कर सकता है। जब तुम नहीं जानते हो, तब ढीठ होते हो। अज्ञान हमेशा ढीठ होता है, ज्ञान झिझकता है। जितना तुम जानते हो उतनी ही पांव के नीचे की जमीन खिसक नजर आती है। जितना तुम जानते हो उतना ही तुमको तुम्हारे अज्ञान का अनुभव होता है। और जो सच में ही ज्ञानी हैं, वे अज्ञानी हो जाते हैं। वे बच्चों की तरह सरल हो जाते हैं। 10-इसलिए जितना कम जानते हो उतना बेहतर। मीमांसक होना, मतवादी होना, मूढ़ाग्रही होना सचमुच आसान है। किसी भी प्रश्न को बुद्धि के तल पर हल करना सरल है। लेकिन किसी प्रश्न को अस्तित्वगत रूप से हल करना, उसे सोचना नहीं, उसे जीना, उसमें जीना और उसके द्वारा अपने को पूरी तरह बदल जाने देना कठिन है। उसका अर्थ हुआ कि प्रेम को जानने के लिए तुमको प्रेम में उतरना पड़ेगा। वह खतरनाक है। क्योंकि तब तुम वही न रहोगे जो थे... अनुभव तुमको बदल देगा।
11-जिस क्षण तुम प्रेम में प्रवेश करते हो, तुम एक दूसरे व्यक्ति में प्रवेश करते हो। और तब जब तुम उसके बाहर निकलोगे, तब तुमको तुम्हारा पुराना चेहरा पहचानने को नहीं मिलेगा। वह चेहरा अब तुम्हारा रहा नहीं। एक विच्छिन्नता, एक टूट पैदा हो चुकेगी। अब एक अंतराल आ गया। पुराना आदमी मर चुका और उसकी जगह एक नया आदमी आ गया है। उसे ही पुनर्जन्म कहते हैं, द्विज कहते हैं। 12-तंत्र गैर-दार्शनिक है और अस्तित्वगत है। इसलिए यद्यपि देवी ऐसे प्रश्न पूछती हैं जो दार्शनिक मालूम होते हैं, लेकिन शिव उत्तर उसी ढंग से नहीं देते।जो भी प्रश्न देवी पूछती हैं, शिव उनके उत्तर ही नहीं देते। और तो भी वे उत्तर देते हैं। और सच तो यह है कि केवल शिव ने ही उनके उत्तर दिए हैं, किसी और ने नहीं। लेकिन उनके उत्तर भिन्न तल के हैं। देवी पूछती हैं : प्रभो, आपका सत्य क्या है? शिव इस प्रश्न का उत्तर न देकर उसके बदले में एक विधि देते हैं। अगर देवी इस विधि के प्रयोग से गुजर जाएं तो वे उत्तर पा जाएंगी। इसलिए उत्तर परोक्ष है, प्रत्यक्ष नहीं। शिव नहीं बताते हैं कि मैं कौन हूं वे एक विधि भर बताते हैं। वे कहते हैं. यह करो और तुम जान जाओगी। 13-तंत्र के लिए करना ही जानना, कोई जानना जानना नहीं। जब तक तुम कुछ करते नहीं, जब तक बदलते नहीं, जब तक बुद्धि के अतिरिक्त किसी अन्य ही आयाम में नहीं प्रवेश करते, तब तक कोई उत्तर नहीं है। उत्तर तो दिए जा सकते हैं, लेकिन वे सब के सब झूठे होंगे। तुम एक प्रश्न पूछते हो और दर्शन एक उत्तर दे देता है, उससे तुम चाहे संतुष्ट होते हो या नहीं होते हो। यदि संतुष्ट हुए तो तुम उस दर्शन के अनुयायी हो जाते हो; लेकिन तुम वही के वही रहते हो। और यदि नहीं संतुष्ट हुए तो दूसरे दर्शन की खोज में निकल चलते हो जिनसे संतुष्टि मिल सके। लेकिन तुम वही के वही रहते हो, अछूते /अपरिवर्तित रहते हो। इसलिए तुम हिंदू हो कि मुसलमान हो कि ईसाई हो कि जैन हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। 14-हिंदू मुसलमान या जैन के मुखौटे के पीछे जो असली व्यक्ति है, वह वही रहता है। सिर्फ शब्दों का या वस्त्रों का भेद है। चाहे वह चर्च जाता हो कि मंदिर जाता हो कि मस्जिद जाता हो, वह वही रहता है। सिर्फ चेहरों का फर्क है। और वे चेहरे मुखौटे भर हैं।और मुखौटों के पीछे वही आदमी है ..वही क्रोध, वही आक्रामकता, वही हिंसा, वही लोभ, वही लिप्सा ...सब कुछ वही का वही है।क्या ईसाई हिंसा और हिंदू हिंसा में फर्क है? वह एक ही है। हकीकत एक है; सिर्फ वस्त्र भिन्न हैं। 15-तंत्र को तुम्हारे वस्त्रों से कुछ लेना-देना नहीं है; उसे सीधे तुमसे लेना-देना है। अगर तुम प्रश्न पूछते हो तो उससे इतना ही पता चलता है कि तुम कहां हो। और उससे यह भी पता चलता है कि तुम जहां भी हो, तुमको दिखाई नहीं पड़ता है। एक अंधा आदमी पूछता है. प्रकाश क्या है? और दर्शन बताना शुरू कर देगा कि प्रकाश क्या है। मगर तंत्र केवल यह निष्पत्ति निकालेगा कि प्रकाश के बारे में प्रश्न पूछने वाला महज आख का अंधा है। और तब तंत्र उस आदमी का उपचार शुरू करेगा, उसे बदलने का उपाय करेगा कि उसकी आंखें देख सकें। तंत्र यह नहीं बताएगा कि प्रकाश क्या है, तंत्र सिर्फ यह बताएगा कि तुम किस तरह आंख को, दृष्टि को, देखने को उपलब्ध हो सकते हो। और दृष्टि की उपलब्धि के साथ ही उत्तर उपलब्ध हो जाएगा। 16-इसलिए तंत्र समाधान नहीं देता है, समाधान को उपलब्ध होने की विधि देता है। अब यह समाधान बौद्धिक नहीं होगा। अगर तुम अंधे आदमी को प्रकाश के बारे में कुछ कहोगे तो वह कहना बौद्धिक होगा। और अगर अंधा स्वयं देखने में सक्षम हो जाता है तो वह अस्तित्वगत बात होगी।इसलिए तंत्र अस्तित्वगत है।इसलिए शिव देवी के प्रश्नों के उत्तर देने नहीं जा रहे हैं, फिर भी देने जा रहे हैं। यह हैं पहली बात... और दूसरी बात कि यह एक सर्वथा भिन्न भाषा है। इसमें प्रवेश के पहले हमें इसके संबंध में कुछ जान लेना होगा। तंत्र के सभी ग्रंथ शिव और देवी के बीच संवाद हैं। देवी पूछती हैं और शिव जवाब देते हैं। सभी तंत्र-ग्रंथ ऐसे ही शुरू होते हैं।यह ढंग क्यों?- 17-यह बहुत अर्थपूर्ण है। यह संवाद किन्हीं गुरु और शिष्य के बीच संवाद नहीं है, यह संवाद घटित होता है दो प्रेमियों के बीच। और तंत्र इसके द्वारा एक बहुत अर्थपूर्ण बात की खबर देता है कि गहराई की शिक्षा तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक कि दोनों के बीच प्रेम का संबंध न हो।तब और ऊँचाई को, पार को अभिव्यक्त किया जा सकता, प्रकट किया जा सकता हैं।इसलिए यह प्रेम की भाषा है...प्रेम के भाव में होना जरूरी है।लेकिन इतना काफी नहीं है। तंत्र कहता है, शिष्य में प्रेम के अतिरिक्त ग्राहकता होनी चाहिए। तभी कुछ संभव है। शिष्य होने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है; लेकिन उसके लिए स्त्रैण ग्राहकता का भाव अनिवार्य है। यहां देवी पूछती हैं, उसका अर्थ हुआ कि स्त्रैण भाव पूछता है। लेकिन स्त्रैण भाव पर यह जोर क्यों? 18-पुरुष और स्त्री में शारीरिक फर्क ही नहीं है, मानसिक फर्क भी है।स्त्रैण मन का अर्थ है ग्राहकता/समग्र ग्राहकता, समर्पण, प्रेम। शिष्य को उसी स्त्रैण मन की आवश्यकता है, अन्यथा वह नहीं सीख पाएगा। तुम पूछ तो सकते हो, लेकिन अगर खुले नहीं हो, तो उत्तर तुमको नहीं मिल सकता। प्रश्न पूछकर भी तुम बंद रह सकते हो। उस हालत में ...उत्तर तुम में प्रवेश नहीं करेगा। तुम्हारे द्वार/दरवाजे बंद हैं, तुम मृत हो। तुम खुले जो नहीं हो। स्त्रैण ग्राहकता का अर्थ है... गहरे में गर्भ जैसी ग्राहकता, ताकि तुम ग्रहण कर सको, ले सको। उतना ही नहीं, उससे भी ज्यादा की जरूरत है।
19-स्त्री कोई चीज ग्रहण ही नहीं करती है, जिस क्षण ग्रहण करती है उसी क्षण वह चीज उसके शरीर का भाग बन जाती है। बच्चा ग्रहीत हुआ। स्त्री गर्भ धारण करती है और गर्भाधान के साथ बच्चा स्त्री के शरीर का अंश बन जाता है। वह विजातीय नहीं रहा, विदेशी नहीं रहा। वह आत्मसात कर लिया गया। अब वह बच्चा कुछ ऐसा नहीं रहा जो कि मां से जुड़ा भर रहेगा, अब वह मां के अंश की तरह, मां की तरह ही जीएगा। बच्चा ग्रहीत ही नहीं होता है, स्त्रैण शरीर सृजनात्मक हो जाता है और बच्चा बढ़ने भी लगता है। 20-शिष्य को गर्भ जैसी ग्राहकता की जरूरत है। जो कुछ भी ग्रहण किया जाए, उसे मृत ज्ञान की तरह इकट्ठा नहीं करना है; उसे तुम्हारे भीतर बढ़ना चाहिए, उसे तुम्हारा रक्त, हड्डी ही बन जाना चाहिए। अब उसे तुम्हारा हिस्सा बन जाना पड़ेगा। उसे बढ़ने देना है, वृद्धि देनी है। और यही वृद्धि तुमको/ग्राहक को बदलेगी, रूपांतरित करेगी।यही कारण है कि तंत्र इस उपाय को काम में लाता है। हर ग्रंथ देवी के प्रश्न से शुरू होता है और भगवान शिव उसका उत्तर देते हैं। देवी शिव की प्रिया हैं-उनका स्त्रैण अंश। 21-एक और महत्वपूर्ण बात। अब आधुनिक मनोविज्ञान, कहता है कि मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों है। कोई भी व्यक्ति न मात्र पुरुष है और न मात्र स्त्री है। प्रत्येक उभयलिंगी है। पश्चिम में यह खोज हाल की घटना है, लेकिन तंत्र के लिए हजारों साल से उसकी एक बुनियादी धारणा रही है।शिव अर्धनारीश्वर हैं, आधा पुरुष और आधी नारी। मनुष्य के पूरे इतिहास में यह अपनी तरह की अकेली धारणा है।भगवान शिव को उसमें आधे पुरुष और आधी स्त्री की तरह चित्रित किया गया है।इसलिए देवी प्रिया ही नहीं हैं,भगवान शिव की अर्धांगिनी हैं और ऊंचाई की शिक्षा, गुह्य विधियों की शिक्षा अर्धांग को ही दी जा सकती है। 22-जब तुम ऐसे हो जाओगे तो संदेह नहीं बचेगा -समग्र रूपेण, गहन रूपेण-कि कुछ न रहा, बुद्धि न बची,तब तुम ग्रहण करते हो, तब तुम गर्भ बन जाते हो। और तब शिक्षा तुममें वृद्धि पाती है, तुमको बदलने लगती है।यही कारण है कि तंत्र प्रेम की भाषा में लिखा गया। यहां प्रेम की भाषा के संबंध में भी कुछ समझना आवश्यक है। भाषा दो प्रकार की है : तर्क की भाषा और प्रेम की भाषा। और दोनों में बुनियादी भेद है।तर्क की भाषा आक्रामक, विवादी और हिंसक होती है।तार्किक भाषा का प्रयोग मन पर आक्रमण सा करता है ।अगला अपनी बात मनवाने की, तुमको अपने पक्ष में लाने की, तुम्हें अपना खिलौना बनाने की कोशिश करता है।तर्क की भाषा अहं-केंद्रित होती है, ''मेरा तर्क सही है और तुम्हारा गलत''।दरअसल अहंकार को तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है और अहंकार हमेशा सही होता है। 23-प्रेम की भाषा सर्वथा भिन्न है, वहां अपनी नहीं, अगले की /तुम्हारी चिंता है। वहां कुछ सिद्ध करने को नहीं पड़ी है, अपने अहंकार को मजबूत नहीं बनाना है।अगले की सहायता करना ही अभीष्ट है। यह करुणा है.. जो तुमको बढ़ने में, बदलने में, तुम्हारे पुनर्जन्म में सहयोगी होना चाहती है।और दूसरी बात कि तर्क सदा बौद्धिक है।उसमें तर्क और सिद्धात महत्वपूर्ण हैं, दलीलें अर्थपूर्ण हैं। प्रेम की भाषा में ... यह महत्व का नहीं है ।
24-वाहन, शब्द महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उसका अर्थ, उसका संदेश। यह हृदय से हृदय की गुफ्तगू है, मन से मन का वाद-विवाद नहीं। यह विवाद नहीं संवाद है, सहभागिता है। इसलिए यह दुर्लभ घटना है कि माता पार्वती शिव की गोद में बैठकर पूछती हैं और शिव उत्तर देते हैं। यह प्रेम-संवाद है, प्रेमालाप। इसमें कहीं कोई द्वंद्व नहीं है...शिव मानो स्वयं से बोल रहे हों।तब शब्द अप्रासंगिक हो जाते हैं; तब शब्दों के बीच का मौन महिमावान हो उठता है। प्रेम पर, प्रेम की भाषा पर इतना जोर क्यों है? इसलिए कि जो कुछ कहा गया है, वह अर्थपूर्ण हो सकता है, नहीं भी हो सकता है; उसमें असली चीज उसकी दृष्टि है, मुद्रा है ,उसकी करुणा है ...प्रेम है। 25-इसीलिए तंत्र की एक निश्चित अवस्था है, ढंग है। उसका हरेक ग्रंथ देवी के प्रश्न और शिव के उत्तर से शुरू होता है। दलील के लिए उसमें जगह नहीं है; शब्दों का वहां अपव्यय नहीं है। उसमें तथ्यों के सीधे-सादे वक्तव्य हैं जो तारनुमा भाषा में, संक्षिप्ततम रूप में कहे गए हैं। उसमें किसी से मनवाने का आग्रह नहीं है, मात्र बताने की बात है।अगर तुम बंद मन से शिव को प्रश्न पूछो तो वे इस ढंग से जवाब नहीं देंगे। तब पहले तुम्हारा जो बंद होना है, उसे हटाने के लिए शिव को आक्रामक होना पड़ेगा। तब पहले तुम्हारे पूर्वाग्रहों को, पूर्व—धारणाओं को नष्ट करना पड़ेगा। जब तक तुम अपने अतीत से बिलकुल विच्छिन्न नहीं होते, तब तक तुमको कुछ भी नहीं दिया जा सकता। लेकिन शिव की प्रिया के साथ, देवी के साथ यह बात नहीं है; देवी के साथ देवी का कोई अतीत नहीं है। 26-स्मरण रहे कि जब तुम गहरे प्रेम में होते हो, तब तुम्हारा मन विसर्जित हो जाता है ...तब कोई अतीत नहीं रहता है, वर्तमान का क्षण ही सब कुछ हो जाता है। जब तुम प्रेम में होते हो, तब वर्तमान ही मात्र समय होता है। वर्तमान ही सब कुछ है-न अतीत, न भविष्य। इसलिए देवी खुली हैं। कोई सुरक्षा नहीं है वहां; कुछ साफ करने को नहीं है, कुछ नष्ट करने को नहीं है। भूमि तैयार है, उसमें बीज डालने की देर है। कहना चाहिए कि भूमि न केवल तैयार ही है, वह स्वागत की मुद्रा में है, ग्राहक है; वह गर्भ बनने को तत्पर है। 27-इसलिए भगवान शिव के ये वचन, जिन पर हम चर्चा करेंगे, अति संक्षिप्त हैं, सूत्ररूप में हैं। लेकिन शिव का प्रत्येक सूत्र एक वेद की, एक बाइबिल की, एक कुरान की हैसियत का है। उनका एक अकेला वाक्य एक महान शास्त्र का, धर्म-ग्रंथ का आधार बन सकता है। शास्त्र तर्कबद्ध होते हैं; उनमें प्रस्ताव करना पड़ता है, बचाव करना पड़ता है, तर्क देना पड़ता है। यहां कोई तर्क नहीं है, प्रेम का मात्र वक्तव्य दिया गया है। 28-तीसरी बात कि विज्ञान भैरव तंत्र का अर्थ ही है चेतना के भी पार जाने की विधि। विज्ञान का अर्थ चेतना है, भैरव का अर्थ वह अवस्था है जो चेतना से भी परे है और तंत्र का अर्थ विधि है, चेतना के पार जाने की विधि। यह परम धर्म-सिद्धांत है..सिद्धांत के बिना धर्म-सिद्धांत। हम मूर्च्छित हैं, अचेतन हैं, इसलिए सारी धर्म-देशना अचेतन के ऊपर उठने की, चेतन होने की देशना है। उदाहरण के लिए कृष्णमूर्ति हैं, झेन है, वे सभी अधिक से अधिक चेतना, सजगता, होश लाने की फिक्र करते हैं। क्योंकि हम मूर्च्छित हैं, बेहोश हैं, इसलिए कैसे ज्यादा होशपूर्ण, ज्यादा जाग्रत हुआ जाए? मूर्च्छा से जागरण की ओर कैसे गति हो? 29-लेकिन तंत्र कहता है कि यह भी द्वैत का ही खेल है—यह मूर्च्छा— अमूर्च्छा का खेल है। यदि तुम मूर्च्छा से अमूर्च्छा की यात्रा करते हो तो भी एक द्वैत की ही यात्रा करते हो। तंत्र कहता है. दोनों के पार चलो। जब तक तुम दोनों के पार नहीं जाते, तब तक परम को नहीं उपलब्ध हो सकते। इसलिए न अचेतन, न चेतन, दोनों के पार चलो, मात्र होओ। चेतन-अचेतन नहीं होना है, मात्र होना है। यह योग के भी पार है, झेन के भी पार है, यह सभी धर्म- देशनाओं के पार है।विज्ञान का, मतलब चेतना है। और भैरव एक विशेष शब्द है, तांत्रिक शब्द, जो पारगामी कै लिए कहां गया है। इसलिए शिव को भैरव कहते हैं और देवी को भैरवी -वे जो समस्त द्वैत के पार चले गए हैं। 30-हमारे अनुभव में प्रेम ही उसकी थोड़ी झलक दे सकता है। यही कारण है कि तंत्र-विद्या सिखाने के लिए प्रेम उसका बुनियादी उपाय बन जाता है। अपने अनुभव से हम कह सकते हैं कि प्रेम ही वह कुछ है जो द्वैत के पार जाता है। जब दो व्यक्ति प्रेम में होते हैं, तब ज्यों -ज्यों वे उसकी गहराई में उतरते हैं त्यों-त्यों दो कम और एक ही ज्यादा रहते हैं। और एक बिंदु आता है, एक शिखर स्पर्श होता है जहां वे देखने में ही दो होते हैं, भीतर एक ही हो जाते हैं। वहां द्वैत का अतिक्रमण हो जाता हैं। 31-इसी अर्थ में जीसस का यह वचन कि 'परमात्मा प्रेम है' अर्थपूर्ण हो जाता है। हमारे अनुभव में प्रेम परमात्मा के सबसे निकट है।परमात्मा प्रेम है-यह एक तांत्रिक वक्तव्य है। इसका अर्थ है कि हमारे अनुभव में केवल प्रेम वह यथार्थ है जो परमात्मा के, भगवत्ता के निकटतम पड़ता है। क्योंकि प्रेम में एकता का अनुभव होता है। शरीर दो रहते हैं, लेकिन शरीर से परे कुछ है जो मिलकर एक हो जाता है।लेकिन वह एकता , काम की नहीं है। असली तो इस एकता के पीछे है।
32-काम में दो शरीरों को एक होने का धोखा ही होता है, वे एक होते नहीं। वे आलिंगन में बंधते हैं और एक क्षण के लिए दोनों एक-दूसरे में अपने को भूल जाते हैं, और थोड़ी शारीरिक एकता अनुभव होती है। यह खोज बुरी नहीं है, लेकिन उस पर ही रुक जाना खतरनाक है। यह खोज किसी गहरी एकता की खोज की खबर भर है।प्रेम में किसी ऊंचे तल पर कुछ आंतरिकगति करता है और एक-दूसरे में मिलकर एकता की अनुभूति होती है। उसमें द्वैत मिट जाता है। और इसी द्वैतहीन प्रेम में हमें उसकी झलक मिल सकती है जिसे भैरव की अवस्था कहते हैं। हम कह सकते हैं कि भैरवावस्था वह प्रेम है जिसमें से लौटना नहीं होता है। प्रेम के शिखर से फिर नीचे आना नहीं है, शिखर पर ही बने रहना है। 33-हमने कैलाश पर शिव का आवास बनाया है। वह प्रतीक है कि कैलाश सबसे ऊंचा शिखर है, सबसे पवित्र शिखर है। वहीं हमने शिव का आवास रखा है। हम वहां जा सकते हैं, लेकिन हमें वहा से नीचे उतर आना होगा। वह हमारा आवास नहीं हो सकता है। हम तीर्थयात्रा के लिए वहा जा सकते हैं। वह तीर्थ है, तीर्थयात्रा है। एक क्षण के लिए हम भी उस शिखर को छू सकते हैं, लेकिन फिर वापस आना होगा।प्रेम में यह पवित्र तीर्थयात्रा घटित होती है,लेकिन सब के लिए नहीं। क्योंकि शायद ही कोई काम के पार जाता है। इसलिए हम घाटी में, अंधेरी घाटी में जीते चले जाते हैं। कभी-कभी विरला कोई प्रेम के शिखर को उपलब्ध होता है, लेकिन वह भी नीचे उतर आता है, क्योंकि उस ऊंचाई पर सिर चकराने लगता है।
34-वह इतना ऊंचा है और तुम इतने निम्न, छोटे। और वहा रहना भी कठिन है। जिन्होंने प्रेम किया है, वे जानते हैं कि प्रेम में सदा बने रहना कितना कठिन है। बार-बार वापस आना पड़ता है। वह शिव का आवास है। वे वहां रहते हैं, वह उनका घर ही है।भैरव प्रेम में जीते हैं, प्रेम उनका आवास है ... उसका अर्थ है कि अब उन्हें प्रेम का भी बोध नहीं रहा। क्योंकि कैलाश पर ही रहने पर बोध भी जाता रहता है कि यह कैलाश है, शिखर है। तब शिखर समतल भूमि बन जाता है। शिव को प्रेम का बोध नहीं है। हमें प्रेम का बोध होता है, क्योंकि हम अप्रेम में जीते हैं; और इस वैषम्य के कारण, विपरीतता के कारण हमें प्रेम का बोध होता है। 35-शिव प्रेम ही हैं। भैरव का अर्थ होता है कि वह प्रेम ही हो गया है। यह नहीं कि वह प्रेमपूर्ण है, प्रेम करता; वह स्वय हो गया है, वह शिखर पर है, शिखर ही उसका आवास है। इस सर्वोच्च शिखर को संभव कैसे बनाया जाए जो सब द्वैत के पार है, अचेतन के पार है, चेतन के पार है, शरीर और आत्मा के पार है, संसार और मोक्ष के भी पार है? इस शिखर को उपलब्ध कैसे हुआ जाए?उसकी विधि तंत्र है।लेकिन तंत्र शुद्ध विधि है,इसलिए इसे समझने में कठिनाई होगी। इसलिए हम पहले उस प्रश्न को समझें जो देवी पूछती हैं।
देवी के प्रश्न ;-
03 FACTS;- 1-हे शिव आपका सत्य क्या है?-
07 POINTS;- 1-देवी पूछती हैं कि आपका सत्य क्या है.. देवी गहरे से गहरे प्रेम में हैं। और जब कोई गहरे प्रेम में होता है तब पहली दफा उसे भीतर सत्य का साक्षात्कार होता है। तब शिव आकार नहीं हैं, शरीर नहीं हैं। जब तुम प्रेम में होते हो, तब प्रेमी का शरीर लुप्त हो जाता है। तब आकार मिट जाता है, निराकार प्रकट होता है। तब तुम एक अतल गहराई के सामने होते हो। यही कारण है कि हम प्रेम से इतना डरते हैं। हम एक शरीर का सामना कर सकते हैं; हम आकृति का, रूप का सामना कर सकते हैं; लेकिन हम अगाध अतल का, महाशून्य का सामना नहीं कर सकते। 2-अगर तुम किसी को प्रेम करते हो, सचमुच प्रेम करते हो तो उसका शरीर निश्चित रूप से विलुप्त हो जाने वाला है। ऊंचाई के शिखर के किसी क्षण में आकार मिट जाएगा और प्रेमी के माध्यम से तुम निराकार में प्रवेश कर जाओगे। यही वजह है कि हम डरते हैं। यह तो एक अतल समुद्र में गिरना हो जाएगा।यह प्रश्न तुम भी पूछ सकते हो, लेकिन उसका वही अर्थ नहीं होगा। 3-यह महज जिज्ञासा का प्रश्न नहीं है। देवी अवश्य ही आकार के साथ प्रेम में पड़ गई होंगी। चीजें वैसे ही शुरू होती हैं। उन्होंने पहले शंकर के रूप में प्रेम किया होगा। और जब प्रेम वयस्क हुआ, प्रस्फुटित हुआ, खिला, तब वह शंकर ही अंतर्धान हो गया।वह शिव/निराकार हो गया। अब वह शंकर कहीं दिखाई नहीं देता।यह प्रेम के एक अत्यंत ही गहन क्षण में पूछा गया प्रश्न है। और जब प्रश्न उठते हैं तब जिन मनों से वे उठते हैं उनके अनुसार उनमें फर्क पड़ता है। इसलिए अपने-अपने मन में इस प्रश्न की स्थिति, इसका माहौल पैदा करो। देवी भारी अड़चन में पड़ी होंगी; कठिनाई में पड़ी होंगी। शिव अंतर्धान हो गए हैं। जब प्रेम अपने शिखर पर होता है, तब प्रेमी अंतर्धान हो जाता है। यह क्यों होता है? 4-यह होता है, क्योंकि वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति निराकार है। तुम शरीर नहीं हो। शरीर की तरह चलते हो, शरीर के तल पर जीते हो, लेकिन शरीर नहीं हो। जब हम बाहर से किसी को देखते हैं तब वह शरीर ही है। लेकिन प्रेम तो भीतर प्रवेश करता है। तब हम व्यक्ति को बाहर से नहीं देखते हैं। प्रेम किसी को भी वैसे देख सकता है जैसे वह अपने को भीतर से देखता है। तब रूप विदा हो जाता है। 5-उदाहरण के लिए,झेन संत रिंझाई आत्मोपलब्ध हुआ तो उसने पहला प्रश्न पूछा : मेरा शरीर कहां है? वह कहां चला गया? और वह खोजने लगा। उसने अपने शिष्यों को बुलाया और कहां : जाओ और खोजो कि मेरा शरीर कहां गया? मेरा शरीर खो गया है। वह निराकार में, अरूप में प्रवेश कर गया था। तुम भी एक निराकार अस्तित्व हो। लेकिन तुम अपने को प्रत्यक्ष नहीं, दूसरों की वजह से जानते हो। तुम अपने को आईने के मार्फत जानते हो। किसी समय आईने में अपने को देखते हुए आंखें बंद कर लो और तब ध्यान करो अगर आईना नहीं होता तो मैं अपना रूप कैसे पहचानता? एक ऐसी दुनिया की सोचो जहां आईना नहीं हो। तुम अकेले हो, कोई आईना नहीं है, आईने का काम करती हुई दूसरों की आंखें भी नहीं हैं। तब क्या तुम्हें चेहरा होगा? या तुम्हें शरीर होगा? 6-नहीं, नहीं होगा... है भी नहीं। हम अपने को दूसरों के द्वारा ही जानते हैं। और दूसरे केवल बाहरी रूप देखते हैं। और यही कारण है कि हम उसके साथ तादात्म्य कर लेते हैं।एक दूसरा झेन संत हयाकुजो अपने शिष्यों से कहां करता था...जब ध्यान करते हुए तुम्हारा सिर खो जाए तब तुरंत मेरे पास आना। जब तुम्हें लगे कि तुम्हारा सिर तुम्हारे कंधे पर नहीं है तब डरना मत, तुरंत मेरे पास चले आना। यही सही क्षण है, जब तुम्हें कुछ सिखाया जा सकता है। सिर के रहते सिखावन संभव नहीं है। सिर सदा बीच में आ जाता है। 7-देवी शिव से पूछती हैं. 'हे शिव, आपका सत्य क्या है? आप कौन हैं?'आकार मिट गया है, इसलिए यह प्रश्न। प्रेम में तुम दूसरे में स्वयं उसकी तरह प्रविष्ट होते हो। तुम उत्तर नहीं दे रहे, तुम एक हो जाते हो। और पहली दफा तुम एक अंतस को, निराकार उपस्थिति को जानते हो।यही कारण है कि सदियों—सदियों तक हमने शिव की कोई प्रतिमा, कोई चित्र नहीं बनाया। हम सिर्फ शिवलिंग बनाते रहे, उनका प्रतीक बनाते रहे। शिवलिंग एक निराकार आकार है। जब तुम किसी को प्रेम करते हो, किसी में प्रवेश करते हो, तब वह मात्र एक ज्योतित उपस्थिति हो जाता है। शिवलिंग वही ज्योतित उपस्थिति है, प्रकाश का प्रभा -मंडल। 2-देवी पूछती हैं : यह विस्मय-भरा विश्व क्या है?-
04 POINTS;- 1-हम विश्व को जानते हैं, लेकिन नहीं जानते हैं कि यह आश्चर्य से भरा है। बच्चे जानते हैं, प्रेमी जानते हैं; कभी-कभी कवि और पागल जानते हैं। लेकिन हम नहीं जानते कि ब्रह्मांड आश्चर्य भरा है। हमारे लिए सब कुछ महज पुनरावृत्ति है; उसमें कोई आश्चर्य नहीं, कोई कविता नहीं। वह सपाट गद्य है हमारे लिए। तुम्हारे हृदय में वह कोई गीत नहीं पैदा करता, तुममें वह नृत्य नहीं उपजाता, तुम्हारे भीतर किसी कविता का जन्म नहीं बनता। सारा जगत यंत्रवत मालूम होता है। 2-बच्चे अवश्य उसे आश्चर्य-भरी आंखों से देखते हैं। और जब आंखें आश्चर्य-भरी होती हैं, तब सारा ब्रह्मांड आश्चर्य से भर जाता है। और जब तुम प्रेम में होते हो, तुम फिर बच्चों की भांति हो जाते हो। जीसस कहते हैं : केवल वे ही हमारे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे जो बच्चों की भांति हैं। क्यों?.. क्योंकि विश्व यदि आश्चर्यपूर्ण नहीं है तो तुम धार्मिक नहीं हो सकते। विश्व की व्याख्या हो सके, यह दृष्टि वैज्ञानिक है। तब जगत ज्ञात है या अज्ञात। लेकिन जो अज्ञात है, वह किसी दिन ज्ञात हो सकता है। तब वह अज्ञय नहीं है। और जगत तभी अज्ञेय है, एक रहस्य है, जब आंखें विस्मय- भरी हों। 3-वे पूछती हैं : आपका सत्य क्या है? और फिर अचानक पूछ बैठती हैं : यह विस्मय— भरा जगत क्या है?यहां वे व्यक्तिगत प्रश्न से अचानक अव्यक्तिगत प्रश्न पर छलांग लगाती हैं। जब रूप विदा होता है तब प्रेमी विश्व बन जाता है...निराकार, अंतहीन। अचानक देवी को बोध होता है कि मैं शिव के बारे में नहीं पूछ रही हूं.. पूरे विश्व के बारे में पूछ रही हूं। अब शिव ही समस्त विश्व हो गए हैं। अब सब ग्रह-तारे उनके भीतर ही घूम रहे हैं; सारा आकाश, समस्त महाकाश उनसे घिरा है। अब वे सब से बड़ा घेरने वाला तत्व हैं-महा घेरनहार। जब तुम प्रेम में, प्रेम के घनिष्ठ सस्वर में प्रवेश करते हो, तब व्यक्ति का, रूप का लोप हो जाता है और प्रेमी विश्व का द्वार बनकर रह जाता है। 4-अगर तुम्हारी उत्सुकता वैज्ञानिक है तो तुम्हें तर्क की राह से जाना होगा। तब तुम्हें निराकार की नहीं सोचना चाहिए। तब निराकार से बचो और आकार से संतोष करो। इसलिए विज्ञान सदा रूप से बंधा है। यदि वैज्ञानिक मन को कुछ निराकार की बात कही जाए तो वह तुरंत उसे आकार में तोड़कर रख देगा। जब तक वह आकार नहीं धारण करता, वह उसके लिए व्यर्थ है। पहले उसे आकार, निश्चित आकार देना है और तब खोज शुरू होगी। प्रेम में यदि आकार हो तो उसका अंत है। आकार को मिटा दो। जब चीजें अरूप हो जाती हैं—धुंधलकी, सीमाहीन हो जाती हैं, जब हर चीज दूसरी चीज में प्रवेश करती है, जब समस्त विश्व एकता में सिमट जाता है, तब और तभी..यह विश्व विस्मय-भरा कलामय विश्व है। 3-देवी आगे बढ़ती हैं, विश्व से भी आगे जाकर पूछती हैं. इसका बीज क्या है? यह निराकार, विस्मय-भरा विश्व कहां से आता है? कहां इसका उद्गम है? या क्या कोई उद्गम नहीं है? बीज क्या है?चक्र की धुरी क्या है?देवी आगे पूछती हैं। यह चक्र चलता ही जाता है—महापरिवर्तन, सतत प्रवाह। लेकिन इसका मध्यबिंदु क्या है? इसकी धुरी कहां है? अचल केंद्र कहां है? 06 POINTS;- 1-देवी किसी उत्तर के लिए नहीं रुकती हैं, पूछती ही चली जाती हैं। मानो वे किसी और से नहीं, स्वयं से ही बात कर रही हों।रूपों पर छाए ..लेकिन रूप के परे यह जीवन क्या है? देश और काल नाम और प्रत्यय के परे जाकर हम इसमें कैसे पूर्णत: प्रवेश करें? मेरे संशय निर्मूल करें.. यहां प्रश्न से अधिक संशय पर जोर है... मेरे संशय निर्मूल करें। 2-यह महत्वपूर्ण है। अगर तुम कोई बौद्धिक प्रश्न पूछते हो तो तुम उसके हल के लिए निश्चित उत्तर चाहते हो। लेकिन देवी कहती हैं : 'मेरे संशय निर्मूल करें। 'वे वास्तव में कोई उत्तर नहीं चाहतीं, अपने मन का रूपांतरण चाहती हैं। क्योंकि जो उत्तर भी दिया जाए, संदेह तंत्र में प्रवेश करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा।उत्तर अप्रासंगिक है और संदेह से भरे मन का अर्थ है कि तुम किसी भी चीज पर प्रश्नचिह्न लगा दोगे। 3-इसलिए उत्तर व्यर्थ हैं।असली समस्या प्रश्नों के उत्तर देना नहीं है, असली समस्या है कि संदेह करने वाले मन को कैसे बदला जाए, उसे कैसे ऐसा बनाया जाए कि वह संदेह न करे, श्रद्धा करे।इसलिए देवी कहती हैं 'मेरे संशय निर्मूल करें। 'मन पूछता ही जाता है। मन में प्रश्न वैसे ही आते हैं जैसे पेड में पत्ते लगते हैं। मन का स्वभाव ही है पूछना। वह पूछता ही चला जाता है। तुम क्या पूछते हो, यह महत्व का नहीं है, मन को जो भी मिले, वह उससे ही प्रश्न पैदा कर लेगा। मन प्रश्न गढ़ने की चक्की है। मन को कुछ भी दे दो, वह उसके टुकडे कर उससे अनेक प्रश्न बना लेगा। तुम एक प्रश्न का उत्तर दो, वह उसी एक उत्तर से अनेक प्रश्न गढ़ लेगा। 4-यही तो दर्शन का इतिहास रहा है। बर्ट्रेड रसेल ने अपने संस्मरण में कहा है कि मैं बच्चा था तो सोचता था कि एक दिन जब सारे दर्शन को समझने की प्रौढ़ता आएगी तब सभी प्रश्न हल हो जाएंगे। अब जब अस्सी का हो चुका हूं तो मैं कह सकता हूं कि मेरे बचपन के प्रश्न तो त्यों के त्यों खड़े ही हैं, दर्शन के इन सिद्धांतों के कारण बहुत-से दूसरे प्रश्न भी पैदा हो गए हैं। इसलिए रसेल ने कहां कि मैं युवा था तो कहता था कि दर्शन आत्यंतिक उत्तरों की खोज है, अब यह नहीं कह सकता। इसे तो अंतहीन प्रश्नों की खोज ही कहना उचित होगा। इसलिए एक प्रश्न अपने साथ एक उत्तर लाता है और साथ ही अनेक प्रश्न भी। संदेह करने वाला मन ही समस्या है। 5-माता पार्वती कहती हैं : मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मैंने अनेक प्रश्न पूछ लिए. 'आपका सत्य रूप क्या है? यह आश्चर्य -भरा जगत क्या है? बीज कौन है? जागतिक चक्र की धुरी कहां है? आकार के परे जीवन क्या है? समय और स्थान से परे होकर हम उसमें पूरी तरह प्रवेश कैसे करें? लेकिन मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मेरे संशय निर्मूल करें। ये प्रश्न तो मैं इसलिए पूछती हूं कि वे मेरे मन में उठते हैं। मैं आपको केवल अपना मन दिखाने के लिए ये प्रश्न पूछती हूं। उन पर बहुत ध्यान मत दें। उत्तरों से मेरा काम नहीं चलेगा। मेरी जरूरत तो है कि मेरे संशय निर्मूल हों। 6-लेकिन संशय निर्मूल कैसे होंगे? किसी उत्तर से... क्या कोई उत्तर है जो कि मन के संशय दूर कर दे? मन ही तो संशय है। जब तक मन नहीं मिटता है, संशय निर्मूल कैसे होंगे?जब तुम प्रश्न पूछते हो तो कई कारण से पूछ सकते हो। एक कारण हो सकता है कि तुम अपनी संपुष्टि के लिए पूछते हो। तुम्हें उत्तर पता है, उत्तर तुम्हारे पास है, तुम सिर्फ पक्का करना चाहते हो कि तुम्हारा उत्तर सही है। लेकिन तब तुम्हारा प्रश्न ही झूठा है, नकली है। वह प्रश्न ही नहीं है। तुम अपने को बदलने के इरादे से नहीं, सिर्फ कुतूहलवश पूछते हो। शिव उत्तर देंगे। उनके उत्तर में सिर्फ विधियां हैं -सबसे पुरानी, सबसे प्राचीन विधियां। लेकिन तुम उन्हें अत्याधुनिक भी कह सकते हो, क्योंकि उनमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। वे पूर्ण हैं ....''एक सौ बारह विधियां''।
....SHIVOHAM....