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क्या है विपश्यना ध्यान साधना ?

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Dec 16, 2021
  • 5 min read

Updated: Dec 17, 2021


क्या है विपश्यना ध्यान साधना;-

विज्ञानं भैरव तंत्र में भगवन शिव ने श्‍वास-क्रिया से संबंधित नौ विधियां बताई है।विज्ञानं भैरव तंत्र के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना या न मानना आवश्यक नहीं है। गौतम बुद्ध ने विज्ञानं भैरव तंत्र को पूर्णरूपेण पालन किया है।विज्ञानं भैरव तंत्र का धर्म ,इस पृथ्वी पर अकेला वैज्ञानिक धर्म है जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है।इसीलिए विपश्यना क्रिया में कोई लिंग भेद, वर्ण, जात-पात, आयु-अवस्था, धनाढ्य-दरिद्र आदि का कहीं कोई बन्धन नहीं है। विपश्यना क्रिया साधना सहज है, सरल है और सुगम है।विपश्यना क्रिया उठते-बैठते, सोते-जागते, घर में, घर से बाहर, किसी भी समय और किसी भी अवस्था में कोई भी कर सकता है।बस देखना है और अवलोकन करना है।

विपश्यना का अर्थ है -वि + पश्य + ना अथार्त विशेष प्रकार से देखना।योग साधना के तीन मार्ग प्रचलित हैं ...विपश्यना, भावातीत ध्यान और हठयोग। गौतम बुद्ध ने ध्यान की 'विपश्यना-साधना' द्वारा बुद्धत्व प्राप्त किया था। यह वास्तव में सत्य की उपासना है ...सत्य में जीने का अभ्यास है।विपश्यना सम्यक् ज्ञान है। जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देख-समझकर जो आचरण होगा, वही सही और कल्याणकारी सम्यक आचरण होगा। विपस्सना एक सरल प्रयोग है ..वह है अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव। श्वास जीवन है और सेतु है। श्वास से ही तुम्हारी आत्मा और देह जुड़ी है।इस पार देह है, उस पार चैतन्य है, मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूप से, तुम अपने को शरीर से भिन्न जानोगे।क्योंकि श्वास को देखने के लिए जरूरी है कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ।जो श्वास को देखेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया। क्योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो।शरीर से छूटो, श्वास से छूटो, तो शाश्वत का दर्शन होता है।उस दर्शन में ही ऊंचाई है, गहराई है ...बाकी सब तो व्यर्थ की आपाधापी है।श्वास भावों से जुड़ी है। यह तो हम जानते ही है कि क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है और करुणा में ...दूसरे ढंग से। दौड़ते हो, तो एक ढंग से चलती है; औरआहिस्ता चलते हो तो दूसरे ढंग से चलती है। भाव को बदलो तो श्वास बदल जाती है़ और इससे उल्टा भी सच है कि श्वास को बदलो तो भाव बदल जाते हैं।हम कोशिश कर सकते है कि क्रोध आये तो श्वास को स्थिर रखें ...शांत रहें। फिर तुम क्रोध करना भी चाहोगे तो क्रोध न कर पाओगे। क्रोध के लिए जरूरी है कि श्वास ,चेतना उससे आंदोलित हो जाये ...नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा और देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं है।तुम कभी नदी-तट पर सुबह उगते सूरज को देखो ।यदि भाव शांत हैं तो श्वास भी शांत हो जाती है।

प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है; जबकि विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले...खयाल रखना।प्राणायाम और विपस्सना में यही भेद है। जो भी है, जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो।क्योंकि देखने में ही शांति है।जो भी विचार गुजर रहे हैं, निष्पक्ष देख रहे हो। श्वास भीतर आती है, नासापुटों में स्पर्श अनुभव करो ...। श्वास भीतर गयी, फेफड़े फैले; फेफड़ों का फैलना अनुभव करो।फिर क्षण-भर सब रुक गया... उस रुके हुए क्षण को अनुभव करो। फिर श्वास बाहर चली, फेफड़े सिकुड़े ... उस सिकुड़ने को अनुभव करो। फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी।नासापुटों से बाहर जाती श्वास अनुभव करो।फिर क्षण-भर सब ठहर गया, फिर नयी श्वास आयी।श्वास का भीतर आना, क्षण-भर श्वास का भीतर ठहरना, फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण-भर फिर श्वास का बाहर ठहरना, फिर नयी श्वास का आवागमन, यह Circle है ...इसको चुपचाप देखते रहो। करने की कोई भी बात नहीं ... यही विपस्सना का अर्थ है। इसके देखते-देखते ही चित्त के सारे रोग तिरोहित हो जाते हैं। मैं देह नहीं हूं, इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है मैं मन नहीं हूं, इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? तुम इसका कोई उत्तर दे न पाओगे। जान तो लोगे, मगर अब मौन हो जाओगे। महाकवि सूरदास जी कहते हैँ कि अविगत - गति कछु कहत न आवै । ज्योँ गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै।... भीतर-भीतर गुनगुनाओगे, मीठा स्वाद लोगे ; पर कह न पाओगे।

कैसे करें विपश्यना साधना ;- विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो।बस , ट्रेन , कार में यात्रा करते, घर में, बिस्तर पर लेटे...किसी को पता भी न चले! क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चार करना है, न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है।धीरे-धीरे जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जायेगी उतने ही एक दिन यह 'दर्शन' समझ जाओगे। ।मान्यताएं हिंदू , मुसलमान , ईसाई , जैन , बौद्ध बना देती हैं; और दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है। दर्शन ही मुक्तिदायी है।फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध ... फिर तुम केवल परमात्ममय हो। और वही अनुभव पाना है क्योकि वही अनुभव पाने योग्य है।

STEP ONE....मनःस्थिति को स्थिर करना..... to stabilize .....

अपना ध्यान नासाग्र पर केन्द्रित करें। सांस की गति को देखें - श्वास आता है और श्वास जाता है। इस आने-जाने को देखना है।

प्रारम्भिक अभ्यास में उठते-बैठते, सोते-जागते किसी भी स्थिति में बस श्वास के आने और श्वास के जाने को नाक के छिद्रों में देखें।सब क्रिया सहज भाव से सहजता से होनी हैं। कहीं कोई जोर-जबरदत्ती नहीं करनी हैं। धीरे-धीरे श्वास को आप देखने लगेंगे उसका मार्ग, उसका गन्तव्य, और उसकी गति।

STEP TWO ,मनःस्थिति को केन्द्रित करना... focus on ...

अब आपको श्वास के पेट में भरने और खाली होने पर पेट का ऊपर और नीचे होना देखना है ।श्वास केवल फेफड़ों तक जा रहा है या पेट तक जा रहा है अथवा श्वास नाभी अथवा उसके नीचे के अंगों तक जा रहा है। यह सब देखने का अभ्यास सहजता से करें। श्वास अन्दर आ रहा है तो आपका पेट फूल रहा है। श्वास बाहर जा रहा है तो आपका पेट पिचक रहा हैं।अभ्यास और संयम की कमी से यह सम्भव न हो पा रहा हो तो हल्के से पेट पर हाथ की हथेली रखकर पेट की ऊपर और नीचे होने की गति को देखें और अनुभव करें कि यह एक लय में हो रही है अथवा अनियमित। धीरे-धीरे एक ऐसी अवस्था स्वतः आने लगेगी कि आपका मन श्वास के साथ-साथ फूलते और पिचकते पेट पर केन्द्रित होने लगा है।उसमें एक लयबद्धता बनने लगेगी।

STEP THREE.... मनःस्थिति को एकाग्र करना.... to concentrate ...

श्वास के देखने को, श्वास की पेट के साथ फूलने और पिचकने की क्रिया को अब उठते-बैठते कहीं भी, किसी भी अवस्था में देखते रहें। कहीं कोई योग ,हठ योग,त्राटक,प्राणायाम , कोई ध्यान, धारणा, समाधि आदि नहीं करना हैं। विपश्यना का सार बस इस एक बात में निहित है कि श्वास ही सत्य है।बस इस एक सत्य श्वास के आने और जाने पर एकाग्र हो जाना है।जैसे-जैसे विपश्यना का अभ्यास बढ़ता जाएगा ..श्वास की गति, पेट का क्रमश उसके साथ फूलना और पिचकना ...सब सहज रूप में स्वतः ही दिखने लगेगा और मन के प्रत्येक भाव को हम ठीक-ठीक पढ़ने लगेंगे।

विपश्यना के लाभ;-

रोग-शोक तथा सांसारिक दुःखों से छुटकारा पाने के लिए विपश्यना साधना राम बाण सिद्ध हुई है।असाध्य रोग तक ठीक होना इसके द्वारा सम्भव है। मन को शान्ति प्रदान करने का यह एक प्रभावशाली उपक्रम है।हम अपने कृत्यों, अपने शरीर, अपने मन और अपने हृदय के प्रति जागरूक बनते हैं।साधक के मन में हर समय एक आत्म सन्तुष्टि, दिव्यता, प्रसन्नता, उल्लास बना रहता है। साधना की चरम सीमा पर पहुँचकर तो रक्त चाप, मधुमेह त्वचा रोग, श्वास रोग, अनिद्रा रोग, अवसाद, मानसिक संत्रास आदि अनेकों रोगों का अभ्यास के द्वारा शमन किया जा सकता है।

विपश्यना से हानि;-

मन को साधने की क्रिया से आपने मन को तो साध लिया ,दिव्यता को प्राप्त हो गए ,अनेक सिद्धियों के स्वामी बन गए,भौतिक जगत की तमाम उपलब्धियाँ प्राप्त हो गयीं।परन्तु मन को साधने के बाद भी लोभ, लालच, कलुषता और मन की निर्मलता से सर्वथा दूर रहे तो साधना से लाभ के विपरीत अनर्थ ही अनर्थ मिलने की सम्भावना बढ़ जाएगी।मन सध तो गया परन्तु भाव यदि निर्मल नहीं बना तो विपश्यना साधना व्यर्थ ही समझें।

....SHIVOHAM...


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