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क्या ॐ ही ब्रह्म है ?



क्या ईश्वर अजन्मा, अप्रकट और निराकार है? - 14 FACTS;- 1-हम सभी के माता-पिता होते हैं। प्रत्येक मनुष्य के कोई-न-कोई माता-पिता तो होते ही हैं। तो फिर भगवान के भी माता-पिता होंगे ? तो भगवान के माता-पिता कौन हैं? कभी-कभार ऐसा भी कहा जाता है कि संत भगवान से भी बड़े होते हैं। भगवान संतों को अपने से भी ज्यादा महत्त्व देते हैं। 2-ब्रह्मा, विष्णु और महेश के संबंध में हिन्दू मानस पटल पर भ्रम की स्थिति है। वे उनको ही सर्वोत्तम और स्वयंभू मानते हैं, लेकिन क्या यह सच है? क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश का कोई पिता नहीं है? वेदों में लिखा है कि जो जन्मा या प्रकट है वह ईश्वर नहीं हो सकता। ईश्वर अजन्मा, अप्रकट और निराकार है। 3-शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है वही अविकारी परमेश्वर है। जिस समय सृष्टि में अंधकार था। न जल, न अग्नि और न वायु था तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुति में सत् कहा गया है। 4-सत् अर्थात अविनाशी परमात्मा। उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्तिरहित परम ब्रह्म है। 5-परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म। परम अक्षर ब्रह्म। वह परम ब्रह्म भगवान सदाशिव है। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान उन्हीं को ईश्वर कहते हैं। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है। 6-वह शक्ति अम्बिका (पार्वती या सती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी (ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माता), नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं। पराशक्ति जगत जननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है। 7-उस कालरूपी ब्रह्म सदाशिव ने एक ही समय शक्ति के साथ 'शिवलोक' नामक क्षेत्र का निर्माण किया था। उस उत्तम क्षेत्र को 'काशी' कहते हैं। वह मोक्ष का स्थान है। यहां शक्ति और शिव अर्थात कालरूपी ब्रह्म सदाशिव और दुर्गा यहां पति और पत्नी के रूप में निवास करते हैं। 8-इस मनोरम स्थान काशीपुरी को प्रलयकाल में भी शिव और शिवा ने अपने सान्निध्य से कभी मुक्त नहीं किया था। इस आनंदरूप वन में रमण करते हुए एक समय शिव और शिवा को यह इच्छा उत्पन्न हुई कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि निर्माण (वंशवृद्धि आदि) का कार्यभार रखकर हम निर्वाण धारण करें। 9-ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वररूपी शिव ने अपने वामांग पर अमृत मल दिया। फिर वहां से एक पुरुष प्रकट हुआ। शिव ने उस पुरुष से संबोधित होकर कहा, 'वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम 'विष्णु' विख्यात होगा।इस प्रकार विष्णु के माता और पिता कालरूपी सदाशिव और पराशक्ति दुर्गा हैं। 10-शिवपुराण के अनुसार ब्रह्माजी अपने पुत्र नारदजी से कहते हैं कि विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके मुझे (ब्रह्माजी को) अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही मुझे विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) का जन्म हुआ। 11-मैंने (ब्रह्मा) उस कमल के सिवाय दूसरे किसी को अपने शरीर का जनक या पिता नहीं जाना। मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, मेरा क्या कार्य है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूं और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है? इस प्रकार में संशय में पड़ा हूं। 12-इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन 3 देवताओं में गुण हैं और सदाशिव गुणातीत माने गए हैं। एक बार ब्रह्मा और विष्णु दोनों में सर्वोच्चता को लेकर लड़ाई हो गई, तो बीच में कालरूपी एक स्तंभ आकर खड़ा हो गया। तब दोनों ने पूछा- 'प्रभो, सृष्टि आदि 5 कर्तव्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए।' 13-तब ज्योतिर्लिंग रूप काल ने कहा- 'पुत्रो, तुम दोनों ने तपस्या करके मुझसे सृष्टि (जन्म) और स्थिति (पालन) नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संहार (विनाश) और तिरोभाव (अकृत्य) मुझसे प्राप्त किए हैं, परंतु अनुग्रह (कृपा करना) नामक दूसरा कोई कृत्य पा नहीं सकता। रुद्र और महेश्वर दोनों ही अपने कृत्य को भूले नहीं हैं इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है।' 14-सदाशिव कहते हैं- 'ये (रुद्र और महेश) मेरे जैसे ही वाहन रखते हैं, मेरे जैसा ही वेश धरते हैं और मेरे जैसे ही इनके पास हथियार हैं। वे रूप, वेश, वाहन, आसन और कृत्य में मेरे ही समान हैं।' सदाशिव और ओंकार;- 07 FACTS;- 1-कालरूपी सदाशिव कहते हैं कि मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार अर्थात 'ॐ' प्रकट हुआ। ओंकार वाचक है, मैं वाच्य हूं और यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है और यह मैं ही हूं। 2- प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है। मेरे पश्चिमी मुख से अकार का, उत्तरवर्ती मुख से उकार का, दक्षिणवर्ती मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से विन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। यह 5 अवयवों से युक्त (पंचभूत) ओंकार का विस्तार हुआ। 3-अब यहां 7 आत्मा हो गईं- ब्रह्म (परमेश्वर) से सदाशिव, सदाशिव से दुर्गा। सदाशिव-दुर्गा से विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, महेश्वर। इससे यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और महेश के जन्मदाता कालरूपी सदाशिव और दुर्गा हैं। 4- देवी भागवत पुराण के पहले स्कंथ में नारदजी से कहते हैं कि तुम जो पूछ रहे हो ठीक यही प्रश्न मेरे पिताजी ब्रह्मा ने देवाधिदेव श्रीहरि (विष्णु) से जो जगत के स्वामी हैं से किया था। लक्ष्मीजी उन देवाधिदेव (देवो के देव) की सेवा में रहती हैं।एक बार इन देवाधिदेव को तपस्या करते हुए देखकर ब्रह्माजी ने इनसे पूछा कि भगवन आप दो सभी देवों के देव हैं। आप सारे संसार के शासक होते हुए भी समाधि लगाए बैठे हैं? आप किस भगवान का ध्यान कर रहे हो? 5-ब्रह्माजी के विनित वचन सुनकर भगवान श्रीहरि उनसे कहने लगे- देवता, दानव और मानव सभी यह जानते हैं कि तुम सृष्टि करते हो, मैं पालन करता हूं और शंकर (रुद्र) संहार किया करते हैं। किंतु फिर भी वेद के पारगामी पुरुष अपनी युक्ति से यह सिद्ध करते हैं कि रचने, पालने और संहार करने की ये योग्यता जो हमें मिली है इसकी अधिष्ठात्री शक्तिदेवी है। 6-उस शक्ति के अधिन होकर ही मैं इस शेषनाग की शय्या पर सोता और सृष्टि करने का अवसर आते ही जाग जाता हूं। मैं सदा तप करने में लगा रहता हूं क्योंकि उस शक्ति के शासन से कभी मुक्त नहीं रह सकता। कभी अवसर मिलता है तो लक्ष्मी के साथ अवसर बिताने का सौभाग्य प्राप्त होता है। मैं कभी तो दानवों के साथ युद्ध करता रहता हूं और अखिल जगत को भय पहुंचाने वाले दैत्यों के विकराल शरीर को शांत करना मेरा परम कर्तव्य हो जाता है। मैं सब प्रकार से उन्हीं शक्ति के अधीन रहता हूं और उन्हीं का कार्य किया करता हूं। ब्रह्माजी मेरी जानकारी में उन भगवती शक्ति से बढ़कर दूसरे कोई देवता नहीं। 7-देवीभागवत पुराण में दुर्गाजी हिमालय को ज्ञान देते हुए कहती है कि एक सदाशिव ब्रह्म की साधना करो। जो परम प्रकाशरूप है। वही सब के प्राण और सबकी वाणी है। वही परम तत्व है। उसी अविनाशी तत्व का ध्यान करो। वह ब्रह्म ओंकारस्वरूप है और वह ब्रह्मलोक में स्थितहै।एकाकिनी होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवशात अनेक हो जाती है। उस शक्ति की देवी ने ही लक्ष्मी, सावित्री और पार्वती के रूप में जन्म लिया और उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश से विवाह किया था। तीन रूप होकर भी वह अकेली रह गई थी। उस कालरूप सदाशिव की अर्धांगिनी है देवी दुर्गा।

ओंकार का क्या अर्थ है?-

07 FACTS;- 1-अक्षरका अर्थ जिसका कभी क्षरण न हो। ऐसे तीन अक्षरों— अ उ और म से मिलकर बना है ॐ। "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाने पर वहाँ की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है। मौन का महत्व ज्ञानियों ने बताया ही है। अंग्रजी में एक उक्ति है — "साइलेंस इज़ सिल्वर ऍण्ड ऍब्सल्यूट साइलेंस इज़ गोल्ड"। श्री गीता जी में परमेश्वर श्रीकृष्ण ने मौन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वयं को मौन का ही पर्याय बताया है।

2-ओउ्म तीन शब्द 'अ' 'उ' 'म' से मिलकर बना है जो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा त्रिलोक भू ,र्भुव: स्व:( भूलोक, भुव: लोक तथा स्वर्ग लोक )का प्रतीक है।गुरु नानक जी का शब्द ''एक ओंकार सतनाम ''(एक ओंकार ही सत्य नाम है)बहुत प्रचलित तथा ''सत्य'' है।। राम, कृष्ण सब फलदायी नाम ओंकार पर निहित हैं तथा ओंकार के कारण ही इनका महत्व है। बाँकी नामों को तो हमने बनाया है परंतु ओंकार ही है जो स्वयंभू है तथा हर शब्द इससे ही बना है। हर ध्वनि में ओउ्म शब्द होता है।

3-माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसे सदा ॐ की ध्वनी निसृत होती रहती है। हमारी और आपके हर श्वास से ॐ की ही ध्वनि निकलती है। यही हमारे-आपके श्वास की गति को नियंत्रित करता है। माना गया है कि अत्यन्त पवित्र और शक्तिशाली है ॐ। किसी भी मंत्र से पहले यदि ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों के पहले ॐ लगाना आवश्यक होता है, जैसे, श्रीराम का मंत्र — ॐ रामाय नमः, विष्णु का मंत्र — ॐ विष्णवे नमः, शिव का मंत्र — ॐ नमः शिवाय, प्रसिद्ध हैं।

4-कहा जाता है कि ॐ से रहित कोई मंत्र फलदायी नहीं होता, चाहे उसका कितना भी जाप हो। मंत्र के रूप में मात्र ॐ भी पर्याप्त है। माना जाता है कि एक बार ॐ का जाप हज़ार बार किसी मंत्र के जाप से महत्वपूर्ण है। ॐ का दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है ..अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण नहीं होता। 5-ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली।श्रीमद्मागवत् में ॐ के महत्व को कई बार

रेखांकित किया गया है। श्री गीता जी के आठवें अध्याय में उल्लेख मिलता है कि जो ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता

है।"ध्यान बिन्दुपनिषद्" के अनुसार ॐ मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता।

6-सनातन धर्म ही नहीं, भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी ॐ को महत्व प्राप्त है। बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार ॐ को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है। जैन दर्शन में भी ॐ के महत्व को दर्शाया गया है। महात्मा कबीर र्निगुण सन्त एवं कवि थे। उन्होंने भी ॐ के महत्व को स्वीकारा और इस पर "साखियाँ" भी लिखीं —

ओ ओंकार आदि मैं जाना। लिखि औ मेटें ताहि ना माना ॥ ओ ओंकार लिखे जो कोई। सोई लिखि मेटणा न होई ॥

7-माण्डूक्योपनिषद् के अनुसार ;- 7-1-''प्रणव धनुष है,आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक बेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।।''

7-2-ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिये यह सब ओंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है वह भी ओंकार ही है।

7-3-वह यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ओंंकार है; वह मात्राओं का विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार हैं। ओंकार की महिमा 11 FACTS;- 1-ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इन मंत्रों के वाच्य आत्मा के देवता रूप में प्रसिद्ध हैं। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रह कर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं। इन में से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है । 2-कठोपनिषद में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है।

3-मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।वैदिक वाङमय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण

तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है। इसी प्रकार बौद्ध तथा जैन संप्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति देखी जाती है।

4-प्रणव का बोध कराने के लिए उसका विश्लेषण आवश्यक है। यहाँ प्रसिद्ध आगमों की प्रक्रिया के अनुसार विश्लेषण क्रिया का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, अर्धचंद्र रोधिनी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी या महाशून्य, समना तथा उन्मना।

5-इनमें से अकार, उकार और मकार ये तीन सृष्टि, स्थिति और संहार के सपादक ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के वाचक हैं। प्रकारांतर से ये जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं के भी वाचक हैं। बिन्दु तुरीय दशा का द्योतक है। प्लुत तथा दीर्घ मात्राओं का स्थितिकाल क्रमश: संक्षिप्त होकर अंत में एक मात्रा में पर्यवसित हो जाता है। यह ह्रस्व स्वर का उच्चारण काल माना जाता है। इसी एक मात्रा पर समग्र विश्व प्रतिष्ठित है।

6-विक्षिप्त भूमि से एकाग्र भूमि में पहुँचने पर प्रणव की इसी एक मात्रा में स्थिति होती है। एकाग्र से निरोध अवस्था में जाने के लिए इस एम मात्रा का भी भेद कर अर्धमात्रा में प्रविष्ट हुआ जाता है। तदुपरांत क्रमश: सूक्ष्म और सूक्ष्मतर मात्राओं का भेद करना पड़ता है। बिन्दु अर्धमात्रा है। उसके अनंतर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है। समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़ना संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है। आचार्यो का उपदेश है कि इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए। इसका थोड़ा सा आभास मांडूक्य उपनिषद् में मिलता है।

7-बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है।

8-योगी संप्रदाय में स्वच्छंद तंत्र के अनुसार ओंकारसाधना का एक क्रम प्रचलित है। उसके अनुसार "अ" समग्र स्थूल जगत् का द्योतक है और उसके ऊपर स्थित कारणजगत् का वाचक है मकार। कारण सलिल में विधृत, स्थूल आदि तीन जगतों के प्रतीक अ, उ और म हैं। ऊर्ध्व गति के प्रभाव से शब्दमात्राओं का मकार में लय हो जाता है। तदनंतर मात्रातीत की ओर गति होती है।

9-''म'' पर्यत गति को अनुस्वार गति कहते हैं। अनुस्वार की प्रतिष्ठा अर्धमात्रा में विसर्गरूप में होती है। इतना होने पर मात्रातीत में जाने के लिए द्वार खुल जाता है। वस्तुत: अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ हो जाती है।

10-तंत्र शास्त्र में इस प्रकार का मात्राविभाग नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियां के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रसंग में यह स्मरणीय है कि बिंदु अशेष वेद्यों के अभेद ज्ञान का ही नाम है और नाद अशेष वाचकों के विमर्शन का नाम है। इसका तात्पर्य यह है कि अ, उ और म प्रणव के इन तीन अवयवों का अतिक्रमण करने पर अर्थतत्व का अवश्य ही भेद हो जाता है। उसका कारण यह है कि यहाँ योगी को सब पदार्थो के ज्ञान के लिए सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जाता है एवं उसके बाद बिंदुभेद करने पर वह उस ज्ञान का भी अतिक्रमण कर लेता है।

11-अर्थ और ज्ञान इन दोनों के ऊपर केवल नाद ही अवशिष्ट रहता है एवं नाद की नादांत तक की गति में नाद का भी भेद हो जाता है। उस समय केवल कला या शक्ति ही विद्यमान रहती है। जहाँ शक्ति या चित् शक्ति प्राप्त हो गई वहाँ ब्रह्म का प्रकाशमान होना स्वत: ही

सिद्ध है।इस प्रकार प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्व का भेद होने पर विश्वातीत तक सत्ता की प्राप्ति हो जाती है। ऊर्ध्व गति में कारणों का परित्याग होते होते अखंड पूर्णतत्व में स्थिति हो जाती है।

ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का क्या अर्थ है?-

04 FACTS;- 1-विज्ञान -मय कोष में तीन बंधन हैं ,जो भौतिक शरीर न रहने पर भी देव , गंधर्व ,यक्ष , भूत , पिशाच , आदि यौनियों में भी वैसे ही बंधन बंधे रहते हैं | इन्हें रूद्र [ तम ] , विष्णु [ सत ] और ब्रह्म [ रज ] ग्रंथियां कहते हैं | अर्थात तम ,रज सत द्वारा स्थूल , सूक्ष्म , और कारण शरीर बने हुऐ हैं | इन तीन ग्रंथियों से ही जीव बंधा हुआ है | इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ - ऋण ,ऋषि -ऋण व देव -ऋण कहलाता है |

2-तम को प्रकृति , रज को जीव और सत को आत्मा कहते हैं | संसार में तम को सांसारिक जीवन , रज को व्यक्तिगत जीवन व सत को आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं | देश ,जाति, और समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करना पितृ -ऋण से ,पूर्व-वर्ती लोगों के उपकारों से उऋण होने का मार्ग है | व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक ,बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से संपन्न बनाना , अपने को मनुष्य - सुलभ गुणों से युक्त बनाना ऋषि- ऋण से छूटना है | स्वाध्याय, सत्संग ,भक्ति ,चिंतन ,मनन ,आदि साधनाओं द्वारा काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,मद ,मत्सर आदि को हटाकर आत्मा को निर्मल ,देव-तुल्य बनाना ,यह देव -ऋण से उऋण होना है | 3-साधक को विज्ञान -मय कोष में तीनों गांठों का अनुभव होता है | प्रथम मूत्राशय के समीप [ रूद्र ] ,दूसरी आमाशय के उपर भाग में [ विष्णु ] और तीसरी सिर के मध्य केंद्र में [ब्रह्म ]ग्रंथि कहलाती है | इन्हें दूसरे शब्दों में महाकाली , महालक्ष्मी , महा-सरस्वती भी कहते हैं | प्रत्येक की दो दो सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं | इन्हें चक्र भी कहते हैं |रूद्र की [ मूलाधार ,स्वाधिष्ठान ] , विष्णु की [ मणिपुर , अनाहत ] , ब्रह्म की [ विशुद्धि , आज्ञा ] चक्र कहा जाता है | हठ-योग की विधि से भी इन छ: चक्रों का वेधन [ छिद्रण ] किया जाता है | सिद्धों ने इन ग्रंथियों की अंदर की झांकी के अनुसार शिव , विष्णु और ब्रह्मा के चित्रों का निरूपण किया है | एक ही ग्रंथी ,दायें भाग से देखने पर पुरुष - प्रधान ,व बाएं भाग से देखने पर स्त्री -प्रधान आकार की होती है | 4-ब्रह्म - ग्रंथि मध्य-मस्तिष्क में है | इससे उपर सहस्रार शतदल कमल है | यह ग्रंथि उपर से चतुष्कोण [ चार कोने ] और नीचे से फ़ैली हुई है | इसका नीचे का एक तंतु ब्रह्म -रंध्र से जुडा हुआ है | इसी को सहस्रार -मुख वाले शेषनाग की शय्या पर सोते हुए भगवान की नाभि -कमल से उत्पन्न चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है | वाम भाग में यही ग्रंथि चतुर्भुजी सरस्वती है |वीणा की झंकार से ओंकार - ध्वनी का यहाँ निरंतर गुंजार होता है |यही तीन ग्रंथियां ,जीव को बाँधे हुए हैं | जब ये खुल जाती हैं ,तो मुक्ति का अधिकार अपने आप मिल जाता है | इन रत्न -राशियों के मिलते ही शक्ति , सम्पन्नता ,और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हाथ में आ जाता है | ये शक्तियां सम - दर्शी हैं | रावण जैसे असुरों ने भी शंकरजी से वरदान पाए थे | परन्तु अनेक देवताओं को भी यह सफलता नहीं मिली | इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है |

ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन;-

04 FACTS;-

1-"अ" ब्रह्मा का वाचक है; उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। "उ" विष्णु का वाचक हैं; उसका त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का वाचक है और उसका त्याग तालुमध्य में होता है। इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है।

2-तदनंतर बिंदु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है अर्थात् बिंदु से क्रमश: ऊपर की ओर वाच्यवाचक का भेद नहीं रहता। भ्रूमध्य में बिंदु का त्याग होता है। नाद सदाशिवरूपी है। ललाट से मूर्धा तक के स्थान में उसका त्याग करना पड़ता है। यहाँ तक का अनुभव स्थूल है।

3-इसके आगे शक्ति का व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि के वाच्य शिव हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं। मूर्धा के ऊपर स्पर्शनुभूति के अनंतर शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल मनन मात्र रूप का अनुभव होता है। यह समना भूमि का परिचय है। इसके बाद ही मनन का त्याग हो जाता है।

4-इसके उपरांत कुछ समय तक मन के अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनंतर ही परमानुग्रह प्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है।इसी को

परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का उल्लंघन हो जाने पर अखंड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है।

NEXT..

..SHIVOHAM...


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