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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 59,60वीं, विधियां(साक्षित्व की तेरह विधियां )– क्या है?


विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 59;-

(साक्षित्व की तीसरी विधि)

09 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-

’’प्रिय, न सुख में और न दुःख में, बल्‍कि दोनों के मध्‍य में अवधान को स्‍थित करो।‘’

2-प्रत्‍येक चीज ध्रुवीय है। अपने विपरीत के साथ है। और मन एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर डोलता रहता है। कभी मध्‍य में नहीं

ठहरता।क्‍या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न सुखीहो और न दुखी? क्‍या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न

स्‍वस्‍थ थे न बीमार? क्‍या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना है जब तुम न यह थे न वह। जब तुम ठीक मध्‍य में थे, ठीक बीच में थे?मन अविलंब एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। अगर तुम सुखी हो तो देर-अबेर तुम दुःख की तरफ गति कर जाओगे और शीध्र गति कर जाओगे। सुख विदा हो जाएगा और तुम दुःख में हो जाओगे। अगर तुम्‍हें अभी अच्‍छा लग रहा है तो देर अबेर तुम्‍हें बुरा लगने लगेगा। और तुम बीच में कहीं नहीं रुकते, इस छोर से सीधे उस छोर पर चले जाते हो। घड़ी के पैंडुलम की तरह तुम बांए से दाएं और बाएं डोलते रहते हो और पैंडुलम डोलता ही रहता है।

3-एक गुह्म नियम है। जब पैंडुलम बायी ओर जाता है तो लगता तो है कि बायी ओर जा रहा है। लेकिन सच में तब वह दायी ओर जाने के लिए शक्‍ति जुटा रहा है। और वैसे ही जब वह दायी ओर जा रहा है तो बायी ओर जाने के लिए शक्‍ति जुटा रहा है। तो जैसा दिखाई पड़ता है वैसा ही नहीं है। जब तुम सुखी हो रहे हो तो तुम दुःखी होने के लिए शक्‍ति जुटा रहे हो। और जब तुम

हंस रहे हो तो रोने का क्षण दूर नहीं है।भारत के गांवों में माताएं यह जानती है। जब कोई बच्‍चा बहुत हंसने लगता है तो वे कहती है कि उसका हंसना बंद करो, अन्‍यथा वह रोएगा। अगर कोई बच्‍चा बेहद खुश हो तो उसका अगला कदम दुःख में पड़ने ही वाला है। इसलिए माताएं उसे रोकती है, अन्‍यथा वह दुःखी होगा।

4-लेकिन यही नियम विपरीत ढंग से भी लागू होता है। और लोग यह नहीं जानते है। कोई बच्‍चा रोता है तो तुम उसे रोने से रोकते हो तो तुम उसका रोना ही नहीं रोकते हो,बल्कि तुम उसका अगला कदम भी रोक रहे हो। अब वह सुखी भी नहीं हो पाएगा। बच्‍चा जब रोता है तो उसे रोने दो। बच्‍चा जब रोता है तो उसे मदद दो कि और रोंए। जब तक उसका रोना समाप्‍त

होगा ..वह शक्‍ति जुटा लेगा। वह सुखी हो सकेगा।अब मनोवैज्ञानिक कहते है कि जब बच्‍चा रोता-चीखता हो तो उसे रोको मत, उसे मनाओ मत, उसे बहलाओ मत। उसके ध्‍यान को रोने से हटाकर कहीं अन्‍यत्र ले जाने की कोशिश मत करो, उसे रोना बंद करने के लिए रिश्‍वत मत दो। कुछ मत करो; बस उसके पास मौन बैठे रहो और उसे रोने दो। चिल्‍लाने दो। तब वह आसानी से सुख की और गति कर पाएगा। अन्‍यथा न वह रो सकेगा और न सुखी हो सकेगा।

5-हमारी यहीं स्‍थिति है। हम कुछ नहीं कर पाते है। हम हंसते है तो आधे दिल से और रोते है तो आधे दिल से। लेकिन यही मन का प्राकृतिक नियम है; वह एक छोर से दूसरे छोर पर गति करता रहता है। यह विधि इस प्राकृतिक नियम को बदलने के

लिए है।‘’प्रिये, न सुख में और न दुःख में, बल्‍कि दोनों के मध्‍य में अवधान को स्‍थिर करो।‘’किन्‍हीं भी ध्रुवों को, विपरीतताओं

को चुनो और उनके मध्‍य में स्‍थित होने की चेष्‍टा करो।परन्तु इस मध्‍य में होने के लिए तुम क्‍या करोगे। मध्‍य में कैसे होओगे?

वास्तव में, जब दुःख आता है तो तुम उससे बचना चाहते हो ..भागना चाहते हो। तुम दुःख नहीं चाहते।तुम्‍हारी चेष्‍टा रहती है कि तुम उससे विपरीत को पा लो अथार्त सुख ,आनंद को पा लो। और जब सुख आता है तो तुम चेष्‍टा करते हो कि सुख बना रहे। ताकि दुःख न आ जाए; तुम उससे चिपके रहना चाहते हो। तुम सुख को पकड़कर रखना चाहते हो और दुःख से बचना चाहते हो। यही स्‍वाभाविक दृष्‍टिकोण है, ढंग है।

6-अगर तुम इस प्राकृतिक नियम को बदलना चाहते हो, उसके पास जाना चाहते हो, तो जब दुःख आए तो उससे भागने की चेष्‍टा मत करो; उसके साथ रहो। उसको भोगो। ऐसा करके तुम उसकी पूरी प्राकृतिक व्‍यवस्‍था को अस्‍तव्‍यस्‍त कर दोगे। तुम्‍हें सिरदर्द है; उसके साथ रहो। आंखें बंद कर लो और सरदर्द पर ध्‍यान करो, उसके साथ रहो। कुछ भी मत करो; बस साक्षी रहो। उससे भागने की चेष्‍टा मत करो। और जब सुख आए और तुम किसी क्षण विशेष रूप से आनंदित अनुभव करो तो उसे पकड़कर उससे चिपक मत जाओ। आंखें बंद कर लो और उसके साथ साक्षी हो जाओ।सुख को पकड़ना और दुःख से भागना

..भूल भरे चित के स्‍वाभाविक गुण है। और अगर तुम साक्षी रह सको तो देर अबेर तुम मध्‍य को उपलब्‍ध हो जाओगे। प्राकृतिक नियम तो यही है कि एक से दूसरी अति पर आते-जाते रहो। अगर तुम साक्षी रह सके तो तुम मध्‍य में रह सकोगे।

गौतम बुद्ध ने इसी विधि के कारण अपने पूरे दर्शन को मज्झम निकाय अथार्त मध्‍य मार्ग कहा है। वे कहते है कि सदा मध्‍य में रहो; चाहे जो भी विपरीतताएं हों, तुम सदा मध्‍य में रहो और साक्षी होने से मध्‍य में हुआ जा सकता है।

7-जिस क्षण तुम्‍हारा साक्षी खो जाता है तुम या तो आसक्‍त हो जाते हो या विरक्‍त। अगर तुम विरक्‍त हुए तो दूसरी अति पर चले जाओगे और आसक्‍त हुए तो इस अति पर बने रहने की चेष्‍टा करोगे। लेकिन तब तुम कभी मध्‍य में नहीं होगे। सिर्फ साक्षी

बनो; न आकर्षित होओ और न विकर्षित ही।सिरदर्द है तो उसे स्‍वीकार करो। वह तथ्‍य है ...जैसे वृक्ष है, मकान है, रात है, वैसे ही सिरदर्द है। आँख बंद करो और उसे स्‍वीकार करो। उससे बचने की चेष्‍टा मत करो। वैसे ही तुम सुखी हो तो सुख के तथ्‍य को स्‍वीकार करो। उससे चिपके रहने की चेष्‍टा मत करो। और दुःखी होने का प्रयत्‍न भी मत करो; कोई भी प्रयत्‍न मत करो। सुख आता है तो आने दो; दुःख आता है तो आने दो। तुम शिखर पर खड़े दृष्‍टा बने रहो। जो सिर्फ चीजों को देखता है कि सुबह आती है ,शाम आती है ,फिर सूरज उगता है और डूबता है। तारे है और अँधेरा है, फिर सूर्योदय और तुम शिखर पर खड़े दृष्‍टा हो।

8-तुम कुछ कर नहीं सकते; तुम सिर्फ देखते रहते हो। सुबह आती है, इस तथ्‍य को तुम भली-भाँति देख लेते हो और तुम जानते हो कि अब सांझ जाएगी। क्योंकि सांझ सुबह के पीछे-पीछे ही आती है। वैसे ही जब सांझ आती है तो तुम उसे भी भलीभाँति देख लेते हो और तुम जानते हो कि अब सुबह आएगी, क्‍योंकि सुबह -सांझ के पीछे-पीछे हीआती है। जब दुःख है तो तुम उसके भी साक्षी हो। तुम जानते हो कि दुःख आया है, और देर अबेर वह चला जाएगा।फिर उसका विपरीत ध्रुव आ जाएगा और जब सुख आता है तो तुम जानते हो कि वह सदा नहीं रहेगा। दुःख कहीं पास ही छिपा होगा ,आता ही होगा। तुम

खुद द्रष्‍टा ही बने रहते हो।अगर तुम आकर्षण और विकर्षण के बिना, लगाव और दुराव के बिना देखते रहे तो तुम मध्‍य में आ जाओगे।और जब पैंडुलम बीच में ठहर जाएगा। तो तुम पहली दफा देख सकोगे कि संसार क्‍या है। जब तक तुम दौड़ रहे हो, तुम नहीं जान सकते कि संसार क्‍या है। तुम्‍हारी दौड़ सब कुछ को भ्रांत कर देती है ,धूमिल कर देती है। और जब दौड़ बंद होगी तो तुम संसार को देख सकोगे।

9-तब तुम्‍हें पहली बार सत्‍य के दर्शन होंगे। अकंप मन ही जानता है कि सत्‍य क्‍या है। कंपित मन सत्‍य को नहीं जान सकता।

तुम्‍हारा मन ठीक कैमरे की भांति है। अगर तुम चलते हुए फोटो लेते हो तो जो भी चित्र बनेगा वह धुंधला-धुंधला ही होगा ,अस्पष्ट होगा , विकृत होगा। कैमरे को हिलना नहीं चाहिए। कैमरा हिलेगा तो चित्र बिगड़ेगा ही।तुम्‍हारी चेतना एक ध्रुव से

दूसरे ध्रुव पर गति करती रहती है।और इस भांति तुम जो सत्‍य जानते हो वह भ्रांति है, दुख स्वप्न है। तुम नहीं जानते हो कि क्‍या-क्‍या है। सब भ्रम है, सब धुआं-धुंआ है। सत्‍य से तुम वंचित रह जाते हो। सत्‍य को तुम तब जानते हो जब तुम मध्‍य में ठहर जाते हो।और तुम्‍हारी चेतना वर्तमान के क्षण में होती है। केंद्रित होती है। अचल और अकंप चित ही सत्‍य को जानता है।

‘’प्रिये, न सुख में और न दुःख में, बल्‍कि दोनों के मध्‍य में अवधान को स्‍थिर करो।

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 60 ;-

(साक्षित्व की चौथी विधि)

12 FACTS;-

1-भगवान शिव कहते है:-

''विषय और वासना जैसे दूसरों में है वैसे ही मुझमें है। इस भांति स्‍वीकार करके उन्‍हें रूपांतरित होने दो।‘’

2-यह विधि बहुत सहयोगी हो सकती है। जब तुम क्रोधित होते हो तो तुम सदा अपने क्रोध को उचित मानते हो। लेकिन जब कोई दूसरा क्रोधित होता है तो तुम सदा उसकी आलोचना करते हो। तुम्‍हारा पागलपन स्‍वाभाविक है; दूसरे का पागलपन विकृति है। तुम जो भी कहते हो वह शुभ है।अगर शुभ नहीं है तो कम से कम उसे करना जरूरी था;यह तर्क तो है ही ।तुम अपने कृत्‍य के लिए सदा कुछ औचित्‍य खोज लेते हो, उसे तर्कसम्‍मत बना लेते हो। और जब वहीं काम दूसरा करता है तो वही

औचित्‍य, वहीं तर्क नहीं लागू होता है।तुम क्रोध करते हो तो कहते हो कि दूसरे के हित के लिए यह जरूरी था; अगर मैं क्रोध न करता तो दूसरा बर्बाद ही हो जाता। वह किसी बुरी आदत का शिकार हो जाता है, इसलिए उसे दंड देना जरूरी था; यह उसके भले के लिए था। लेकिन जब दूसरा तुम पर क्रोध करता है तो वही तर्क सारणी उस पर नहीं लागू की जाती है। दूसरा पागल है, दूसरा दुष्‍ट है।

3-हमारे मापदंड सदा दोहरे है; अपने लिए एक मापदंड है और शेष सबके लिए दूसरे मापदंड है। यह दोहरे मापदंड वाला मन सदा दुःख में रहेगा। यह मन ईमानदार नहीं है ..सम्‍यक नहीं है। और जब तक तुम्‍हारा मन, ईमानदार नहीं होता, तुम्‍हें सत्‍य की झलक नहीं मिल सकती है। और एक ईमानदार मन ही दोहरे मापदंड से मुक्‍त हो सकता है।जीसस कहते है: ''दूसरों के

साथ वह व्‍यवहार मत करो,जो व्‍यवहार तुम न चाहोगे कि तुम्‍हारे साथ किया जाए''।यह विधि एक मापदंड की धारणा

पर आधारित है।तुम अपवाद नहीं हो; यद्यपि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति सोचता है कि मैं अपवाद हूं। अगर तुम सोचते हो कि मैं अपवाद हूं तो भलीभाँति जान लो कि ऐसे ही हर सामान्‍य मन सोचता है। यह जानना कि मैं सामान्‍य हूं जगत में सबसे असामान्‍य घटना है।

उदाहरण के लिए किसी न सुजुकी से पूछा कि तुम्‍हारे गुरु में असामान्‍य क्‍या था? सुजुकी स्‍वयं झेन गुरु था। सुजुकी ने कहा कि उनके संबंध में मैं एक चीज कभी न भूलूंगा कि मैंने कभी ऐसा व्‍यक्‍ति नहीं देखा जो अपने को इतना सामान्‍य समझता हो। वे बिलकुल सामान्‍य थे और वही उनकी सबसे बड़ी असामान्‍यता थी। अन्‍यथा साधारण व्‍यक्‍ति भी सोचता है कि मैं असामान्‍य हूं, अपवाद हूं।

4-लेकिन कोई व्‍यक्‍ति असामान्‍य नहीं है। और तुम अगर यह जान लो तो तुम असामान्‍य हो जाते हो। हर आदमी दूसरे आदमी जैसा है। जो वासनाएं तुम्‍हारे भीतर चक्‍कर लगा रही है वे ही दूसरों के भीतर घूम रही है। लेकिन तुम अपनी वासना को प्रेम कहते हो और दूसरों के प्रेम को वासना कहते हो। तुम खुद जो भी करते हो, उसका बचाव करते हो तुम कहते हो कि वह शुभ काम है और वही काम जब दूसरे करते है तो वह- वही नहीं रहते, वह शुभ नहीं रहते।और यह बस व्‍यक्‍तियों तक

ही सीमित नहीं है। जाति और राष्‍ट्र भी यही करते है।अगर भारत अपनी सेना बढ़ाता है तो वह सुरक्षा का प्रयत्‍न है और जब चीन अपनी सेना को मजबूत करता है तो वह आक्रमण की तैयारी है। दुनिया की हर सरकार अपने सैन्‍य संस्‍थान को सुरक्षा संस्‍थान कहती है। तो फिर आक्रमण कौन करता है? जब सभी सुरक्षा में लगे है तो आक्रामक कौन है? अगर तुम इतिहास देखोगें तो तुम्‍हें कोई आक्रामक नहीं मिलेगा। हां, जो हार जाते है वह आक्रामक करार दे दिए जाते है। पराजित लोग सदा आक्रामक माने गए है। क्‍योंकि वे इतिहास नहीं लिख सकते है। इतिहास तो विजेता लिखते है।तो न सिर्फ व्‍यक्‍ति,

बल्‍कि जाति और राष्‍ट्र भी वही तर्क पेश करते है; अपने को औरों से भिन्‍न बताते है।

5-कोई भी भिन्‍न नहीं है। धार्मिक चित वह है जो जानता है कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति समान है। इसलिए तुम जो तर्क अपने लिए खोज लेते हो वही दूसरों के लिए भी उपयोग करो।और अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो तो उसी आलोचना को अपने पर भी लागू करो। दोहरे मापदंड मत गढ़ो। एक मापदंड रखने से तुम पूरी तरह रूपांतरित हो जाओगे। एक मापदंड तुम्‍हें ईमानदार

बनाएगा। और पहली दफा तुम सत्‍य को सीधा देखोगें ..जैसा वह है।‘’विषय और वासना जैसे दूसरों में है वैसे ही मुझमें है। इस

भांति स्‍वीकार करके उन्‍हें रूपांतरित होने दो।‘’तुम उन्‍हें स्‍वीकार कर लो और वे रूपांतरित हो जाएंगी। लेकिन हम क्‍या कर रहे है? हम स्‍वीकार करते है कि विषय-वासना दूसरों में है। जो-जो गलत है वह दूसरों में है और जो-जो सही है वह हममें है। तब तुम रूपांतरित कैसे होगे? तुम तो रूपांतरित हो ही। तुम सोचते हो कि मैं तो अच्‍छा ही हूं। दूसरे सब लोग बुरे है। रूपांतरण की जरूरत संसार को है। तुम्‍हें नहीं।

6-इसी दृष्‍टिकोण के कारण नेता, क्रांतियां आदि पैदा होते है। वे घर के मुँडेरों पर चढ़कर चिल्‍लाते है कि दुनियां को बदलना है ; कि इंकलाब लाना है। हम क्रांति पर क्रांति किए जाते है और कुछ भी नहीं बदलता है। मनुष्‍य वही का वहीं है। दुनियां पुराने दुखों से ही ग्रस्‍त रहती है। चेहरे और नाम बदल जाते है; पर दुख बना रहता है।दुनिया को बदलने की बात सही नहीं है।

यहाँ तुम गलत हो।धार्मिक प्रश्‍न यह है कि मैं कैसे बदलूं? दूसरों को बदलने की बात तो राजनीति है। राजनीतिज्ञ सोचता है कि मैं तो बिलकुल ठीक हूं, कि मैं तो आदर्श हूं, जैसा कि सारी दुनियां को होना चाहिए। वह अपने को आदर्श मानता है और

उसका काम दुनिया को बदलना है।धार्मिक व्‍यक्‍ति जो कुछ भी दूसरों से देखता है उसे अपने भीतर भी देखता है। अगर हिंसा है तो वह सोचता है कि यह हिंसा मुझमें है या नहीं। अगर लोभ है, अगर उसे कहीं लोभ दिखाई पड़ता है तो उसका पहला ख्‍याल यह होता है कि यह लोभ मुझमें है या नहीं। और जितना ही खोजता है वह पाता है कि मैं ही सब बुराई का स्‍त्रोत हूं।

7-तब फिर प्रश्‍न उठता ही नहीं कि संसार कैसे बदले। तब फिर प्रश्‍न यह है कि अपने को कैसे बदला जाए। और बदलाहट उसी क्षण होती है ;जब तुम एक मापदंड अपनाते हो। उसे अपनाते ही तुम बदलने लगते हो।दूसरों की निंदा मत करो।

इसका अर्थ यह नहीं है कि अपनी निंदा करो बल्कि 'बस दूसरों की निंदा मत करो'। और अगर तुम दूसरों की निंदा करते हो तो तुम्‍हें उनके प्रति गहन करूणा का भाव भी होगा। क्‍योंकि सब की समस्‍याएं समान है। अगर कोई पाप करता है—समाज की नजर में जो पाप है—तो तुम उसकी निंदा करने लगते हो। तुम यह नहीं सोचते हो कि तुम्‍हारे भीतर भी उस पाप के बीज

पड़े है।उदाहरण के लिए अगर कोई हत्‍या करता है तो तुम उसकी निंदा करते हो।लेकिन क्‍या तुमने कभी किसी की

हत्‍या करने का विचार नहीं किया है? क्‍या उसका बीज, उसकी संभावना तुम्‍हारे भीतर भी नहीं छिपी है। जिस आदमी ने हत्‍या की है वह एक क्षण पूर्व हत्‍यारा नहीं था। लेकिन उसका बीज उसमें था। वह बीज तुममें भी है। एक क्षण बाद कौन जानता है कि तुम भी हत्‍यारे हो सकते हो। उसकी निंदा मत करो। बल्‍कि स्‍वीकार करो।

8-तब तुम्‍हें उसके प्रति गहन करूणा होगी क्‍योंकि उसने जो कुछ किया है वह कोई भी कर सकता है। तुम भी कर सकते हो।

निंदा से मुक्‍त चित में करूणा होती है। निंदा रहित चित में गहन स्‍वीकार होता है। वह जानता है कि मनुष्‍यता ऐसी है, कि मैं भी ऐसा ही हूं, तब सारा जगत तुम्‍हारा प्रतिबिंब बन जाएगा; वह तुम्हारे लिए दर्पण का काम देगा। तब प्रत्‍येक चेहरा तुम्‍हारे लिए

आईना होगा; तुम प्रत्‍येक चेहरे में अपने को ही देखोगें।‘’विषय और वासना जैसे दूसरों में है वैसे ही मुझमें है। इस भांति स्‍वीकार

होता है जब उसका कोई और लोभ उससे साधने वाला हो। अगर कोई तुम्‍हें कहता है कि यदि तुम अपने सारे धन का त्‍याग कर दो तो तुम्‍हें परमात्‍मा के राज्‍य में प्रवेश मिल जाएगा। तो तुम सदा त्‍याग करने को भी तैयार हो जाओगे। अब एक नया लोभ संभव हो गया यह सौदा है। तो लोभ को अलोभ नहीं बनाना है। लोभ का अतिक्रमण करना है। तुम उसे बदल नहीं सकते। तो लोभ को अलोभ मत बनाओ। तुम एक चीज को दूसरी चीज में बदल नहीं सकते हो। केवल सजग हो सकते हो। तुम सिर्फ स्‍वीकार कर सकते हो। लोभ को लोभ की तरह स्‍वीकार करो।्रोधी हूं।

9-लेकिन अस्‍वीकार से कभी कोई रूपांतरण नहीं होता। उससे चीजें दमित हो जाती है। लेकिन जो चीज दमित होती है वह और भी शक्‍तिशाली हो जाती है। वह तुम्‍हारी जड़ों तक पहुंच जाती है। तुम्‍हारे अचेतन में गहराई तक उतर जाती है। वहां से काम करने लगती है। और अचेतन के उस अंधेरे में वह वृति और भी शक्‍तिशाली हो जाती है। और अब तुम उसे और भी नहीं

स्‍वीकार कर सकते, क्‍योंकि तुम्‍हें उसका बोध भी नहीं है।स्‍वीकृति सबको ऊपर ले आती है। दमन करने की जरूरत नहीं है। तुम जानते हो कि मैं लोभी हूं। तुम जानते हो कि मैं क्रोधी हूं, तुम जानते हो कि मैं कामुक हूं।तब तुम उन वृतियां को, बिना किसी निंदा के; स्‍वाभाविक तथ्‍य की तरह स्‍वीकार कर लेते हो। उन्‍हें दमित करने की जरूरत नहीं है। वे वृतियां मन की सतह पर आ जाती है। और वहां से उन्‍हें बहुत आसानी से विसर्जित किया जा सकता है। गहरे अचेतन में उनका विसर्जन संभव नहीं है। और जब वे सतह पर होती है तो तुम उनके प्रति होश पूर्ण होते हो; जब वे अचेतन में होती है तो तुम उनके प्रति बेहोश बने रहते हो। और उस रोग से ही मुक्‍ति संभव है जिसके प्रति तुम होश पूर्ण हो; जिसके प्रति तुम बेहोश हो उस रोग से मुक्‍त नहीं हो सकती।

10-प्रत्‍येक चीज को सतह पर ले आओ। अपनी मनुष्‍यता को स्‍वीकार करो; अपनी पशुता को स्‍वीकार करो। जो भी है उसे बिना किसी निंदा के स्‍वीकार करो। लोभ है; उसे अलोभ में बदलने की चेष्‍टा मत करो। तुम उसे नहीं बदल सकते हो। और अगर तुम उसे अलोभ बनाने की चेष्‍टा करोगे तो तुम उसका दमन करोगे। तुम्‍हारा अलोभ और कुछ नहीं, केवल दूसरे ढंग का लोभ है। अगर तुम लोभ को बदलने की कोशिश करोगे तो क्‍या करोगे? लोभी मन अलोभ के आदर्श के प्रति तभी आकर्षित

होता है जब उसका कोई और लोभ उससे साधने वाला हो। अगर कोई तुम्‍हें कहता है कि यदि तुम अपने सारे धन का त्‍याग कर दो तो तुम्‍हें परमात्‍मा के राज्‍य में प्रवेश मिल जाएगा। तो तुम सदा त्‍याग करने को भी तैयार हो जाओगे। अब एक नया लोभ संभव हो गया.. यह सौदा है। तो लोभ को अलोभ नहीं बनाना है बल्कि अतिक्रमण करना है। तुम एक चीज को दूसरी चीज में बदल नहीं सकते हो ...केवल सजग हो सकते हो। तुम सिर्फ लोभ को लोभ की तरह स्‍वीकार करो।

11-स्‍वीकार का यह अर्थ नहीं है कि उसे रूपांतरित करने की जरूरत नहीं है। स्‍वीकार का इतना ही अर्थ है कि तुम तथ्‍य को, स्‍वाभाविक तथ्‍य को स्‍वीकार करते हो; जैसा वह है वैसा ही स्‍वीकार करते हो। तब जीवन में यह जानकर गति करो कि लोभ है। तुम जो भी करो यह स्‍मरण रखकर करो कि लोभ है। यह बोध तुम्‍हें रूपांतरित कर देगा क्‍योंकि बोधपूर्वक तुम लोभी ,क्रोधी नहीं हो सकते। क्रोध के लिए, लोभ के लिए, हिंसा के लिए, मूर्च्‍छा एक बुनियादी शर्त है।यह वैसा ही है जैसे तुम जान

-बूझकर जहर नहीं खा सकते , अपना हाथ आग में नहीं डाल सकते हो। अगर तुम्‍हें यह नहीं पता है कि आग क्‍या है ,तो ही तुम उसमें हाथ डाल सकते हो। यदि जानते हो कि आग जलाती है ,तो तुम उसमें कभी भी हाथ नहीं डाल सकते।

12-जैसे-जैसे तुम्‍हारा ज्ञान, तुम्‍हारा बोध,बढ़ेगा; वैसे-वैसे ही लोभ तुम्‍हारे लिए आग बन जाएगा। क्रोध जहर बन जायेगा। तब वे बस असंभव हो जाते है। और दमन न हो तो वे सदा के लिए विसर्जित हो जाते है। और जब लोभ ,अलोभ के आदर्श के बिना विसर्जित होता है तो उसका अपना ही सौंदर्य है। जब हिंसा ,अहिंसा के आदर्श के बिना विसर्जित होती है तो उसका अपना ही

सौंदर्य है।अन्‍यथा जो व्‍यक्‍ति आदर्श के अनुसार अहिंसक बनता है वह गहरे में हिंसक, अति हिंसक बना रहता है। वह हिंसा उसमें छिपी रहती है। और तुम्‍हें उसकी झलक... उसकी अहिंसा में भी मिल सकती है। वह अपनी अहिंसा को अपने पर और दूसरों पर बहुत हिंसक ढंग से थोपेगा। उसकी हिंसा सूक्ष्‍म ढंग ले लेगी।यह सूत्र कहता है कि स्‍वीकार रूपांतरण है,क्‍योंकि स्‍वीकार से बोध संभव होता है।


.....SHIVOHAM.....

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