विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 63,64वीं, (साक्षित्व की तेरह विधियां ) विधियां क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 63;- 08 FACTS;- 1-भगवान शिव कहते है:-
‘’जब किसी इंद्रिय-विषय के द्वारा स्पष्ट बोध हो, उसी बोध में स्थित होओ।‘’
2-तुम अपनी आँख के द्वारा देखते हो।ध्यान रहे,आँख देखने का माध्यम है;वे स्वयं देख नहीं सकती ;उनके द्वारा तुम देखते हो।द्रष्टा पीछे , भीतर छिपा है; आंखें बस द्वार है ,झरोखे है। लेकिन हम सदा सोचते है कि हम आँख से देखते है। हम सोचते है कि हम कान से सुनते है। कभी किसी ने कान से नहीं सुना है। तुम कान के द्वारा सुनते हो ..कान से नहीं। सुननेवाला पीछे है।
कान तो रिसीवर है।कोई तुम्हें छूता हूं, प्रेमपूर्वक तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले लेता है। यह हाथ वह नहीं है ,जो तुम्हें छूता है।वास्तव में, यह वह व्यक्ति है, जो हाथ के द्वारा तुम्हें छू रहा है। हाथ यंत्र है और स्पर्श से बचना भी दो भांति का है। एक, जब वह सच ही तुम्हें स्पर्श करता है और दूसरा, जब वह स्पर्श से बचना चाहता है ।वह तुम्हें छूकर भी स्पर्श से बच सकता है । वह हाथ से अपने को अलग कर सकता है ।
3-इसे प्रयोग करके देखो, तुम्हें एक भिन्न अनुभव होगा। एक दूरी का अनुभव होगा। किसी पर अपना हाथ रखो और अपने को अलग रखो; यहां सिर्फ मुर्दा हाथ होगा ;तुम नहीं। और अगर दूसरा व्यक्ति संवेदनशील है तो उसे मुर्दा हाथ का एहसास हो जायेगा। वह अपने को आपके इस व्यवहार से अपमानित महसूस करेगा क्योंकि तुम उसे धोखा दे रहे हो। तुम छूने का
दिखाव कर रहे हो। स्त्रियां इस मामले में बहुत संवेदनशील होती है। तुम जो भी कहते हो ,तुम्हारा स्पर्श उसे झुठला देता है।
यह सूत्र कहता है कि इंद्रियाँ द्वार भर है ..एक माध्यम,एक यंत्र,एक रिसीविंग स्टेशन और तुम उनके पीछे हो।‘’जब किसी इंद्रिय-विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो, उसी बोध में स्थित होओ।‘’संगीत सुनते हुए अपने को कान में मत खो दो ..उस चैतन्य को स्मरण करो जो पीछे छिपा है। होश रखो और किसी को देखते हुए इस विधि को प्रयोग करो।
4-तुम यह प्रयोग किसी को देखते हुए कर सकते हो।आँख एक यंत्र है। तुम आँख के पीछे खड़े हो और उसके द्वारा देख रहे हो। जैसे किसी खिड़की या ऐनक के द्वारा देखते है।तुमने कभी न कभी किसी को अपने ऐनक के ऊपर से देखते हुए देखा होगा। ऐनक उसकी नाक पर उतर आयी है और वह देख रहा है। उसी ढंग से किसी को ,ऐसे देखो जैसे आँख से ऊपर से देखते हो। मानो तुम्हारी आंखें सरककर नीचे नाक पर आ गई हों और तुम उनके पीछे से देख रहे हो। अचानक तुम्हें गुणवत्ता में फर्क मालूम पड़ेगा तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदलता है। आंखे महज द्वार बन जाती है और यह ध्यान बन जाता है।सुनते समय कानों के द्वारा मात्र सुनो और अपने आंतरिक केंद्र के प्रति जागे रहो। स्पर्श करते हुए हाथ के द्वारा मात्र छुओ और आंतरिक केंद्र को स्मरण रखो जो पीछे छिपा है।किसी भी इंद्रिय से तुम्हें आंतरिक केंद्र की अनुभूति हो सकती है। और प्रत्येक इंद्रिय आंतरिक केंद्र तक जाती है। उसे सूचना देती है।
5- अगर तुम्हारी आंखे ही देखती है और कान ही सुनते है तो यह जानना कठिन होता है कि तुम उसी व्यक्ति को सुन रहे हो जिसे देख रहे हो। या दो भिन्न व्यक्तियों को देख और सुन रहे हो; क्योंकि दोनों इंद्रियाँ भिन्न है और वे आपस में नहीं मिलती है। तुम्हारी आंखों को तुम्हारे कान का पता नहीं है। और तुम्हारे कान को तुम्हारी आंखों का कुछ पता नहीं है। वे एक दूसरे को नहीं जानते है। वे आपस में कभी मिले नहीं है। उनका एक दूसरे से परिचय भी नहीं है। तो फिर सारा समन्वय, सारा संयोजन कैसे घटित होता है?क्योंकि कान सुनते है, आंखें देखती है,हाथ छूते है, नाक सूँघती है। और अचानक तुम्हारे भीतर कहीं कोई जान जाता है कि यह वही आदमी है जिसे मैं सुन रहा हूं ,देख रहा हूं। सभी इंद्रियाँ इस ज्ञाता को ही सूचना देती है। और इस ज्ञाता में, इस केंद्र में सब कुछ सम्मिलित होकर, संयोजित होकर ..एक हो जाता है और यह चमत्कार है।
6-बाहर से मनुष्य उसका शरीर, शरीर की उपस्थिति, उसकी गंध ,और बोलना,सब एक है। लेकिन इंद्रियाँ उसे विभाजित कर देंगी। कान किसी मनुष्य के बोलने की खबर देंगे ,नाक गंध की खबर देगी और आंखें उपस्थिति की खबर देंगी। वे इंद्रियाँ किसी मनुष्य को टुकड़ों में बांट देंगी। लेकिन फिर तुम्हारे भीतर कहीं पर वह मनुष्य एक हो जायेगा। जहां तुम्हारे भीतर में
एक होता है, वह तुम्हारे होने का केंद्र है। वह तुम्हारा बोध है। चैतन्य है।तुम उसे बिलकुल भूल गए हो। यह विस्मरण ही अज्ञान है। और बोध का चैतन्य आत्मा ज्ञान को द्वार खोलता है। तुम और किसी उपाय से अपने को नहीं जान सकते हो।‘’जब किसी इंद्रिय-विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो। उसी होश में स्थित होओ।‘’उसी बोध में रहो; उसी बोध में स्थित रहो। होश पूर्ण होओ।आरंभ में यह कठिन है। हम बार-बार सो जाते है।और आँख के द्वारा देखना कठिन मालूम पड़ता है। आँख से देखना आसान है। आरंभ में थोड़ा तनाव अनुभव होगा और तुम आँख के द्वारा देखने की चेष्टा करोगे। और न केवल तुम तनाव अनुभव करोगे बल्कि वह व्यक्ति भी तनाव अनुभव करेगा जिसे तुम देखोगें।
7-अगर तुम किसी को आँख के द्वारा देखोगें तो उसे लगेगा कि तुम अनुचित रूप से दखल दे रहे हो या तुम उसके साथ अभद्र व्यवहार कर रहे हो क्योंकि तुम्हारी दृष्टि गहराई में उतर जाएगी। अगर यह दृष्टि तुम्हारी गहराई से आती है तो वह उसकी गहराई में प्रवेश कर जाएगी।यही कारण है कि समाज ने एक बिल्ट-इन सुरक्षा की व्यवस्था कर रखी है। समाज कहता है कि किसी को बहुत घूरकर मत देखो। अगर तुम उसके अंर्तमन तक प्रवेश कर सकते हो तो देख सकते हो।इसलिए इस विधि का प्रयोग किसी अपरिचित के लिए नहीं है।पहले इस विधि का प्रयोग ऐसे विषयों के साथ करो , जैसे फूल है, पेड़ है, रात के तारे है। वे इसे अनुचित दखल नहीं मानेंगे। न ही वे एतराज उठाएंगे , बल्कि वे इसे पंसद करेंगे , इसका स्वागत करेंगे।तो पहले उनके साथ प्रयोग करो और फिर अपने प्रियजनों के साथ।
8-कभी अपने बच्चे को गोद में उठा लो और उसको आँख के द्वारा देखो। बच्चा इसे समझेगा, सराहेंगा । वह अन्य किसी से भी ज्यादा समझेगा। वह अभी सहज है। तुम अगर उसे आँख के द्वारा देखोगें तो उसे प्रगाढ़ प्रेम की अनुभूति होगी। उसे तुम्हारी
उपस्थिति का एहसास होगा।जैसे-जैसे तुम्हें इस बात की पकड़ आएगी या जैसे-जैसे तुम इसमें कुशल होगे; वैसे-वैसे तुम धीरे-धीरे दूसरों को भी देखने में समर्थ हो जाओगे। क्योंकि तब किसी को पता नहीं चलेगा कि तुमने इस गहराई से उसे देखा । और जब अपनी इंद्रियों के पीछे सतत सजग होकर खड़े होने की कला तुम्हारे हाथ आ जायेगी। तो इंद्रियाँ तुम्हें धोखा न दे पाएंगी अन्यथा इंद्रियाँ धोखा देती है। ऐसे संसार में, जो सिर्फ भासता है ;इंद्रियों ने तुम्हें उसे सच मानने का धोखा दिया है।अगर तुम इंद्रियों के द्वारा देख सके और सजग रह सके तो धीरे-धीरे संसार माया ,स्वप्नवत मालूम पड़ने लगेगा। और तब तुम उसके मूल तत्व में प्रवेश कर सकोगे और यह मूल तत्व ही ब्रह्म है।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 64;-
13 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’छींक के आरंभ में, भय में, खाई-खड्ड के कगार पर, युद्ध से भागने पर, अत्यंत कुतूहल में, भूख के आरंभ में और भूख के अंत में, सतत बोध रखो।‘’
2-यह विधि देखने में बहुत सरल मालूम पड़ती है। छींक के आरंभ में, भय में, चिंता में, भूख के पहले या भूख के अंत में सतत बोध रखो।बहुत सी बातें समझने जैसी है। छींकने जैसे बहुत सरल कृत्य भी उपाय की तरह काम में लाए जा सकते है। क्योंकि वे जितने सरल दिखते है, उतने ही कठिन और जटिल होते है और आंतरिक व्यवस्था बहुत नाजुक है।जब भी तुम्हें लगे कि छींक आ रही है, सजग हो जाओ। संभव है कि सजग होने पर छींक न आए, चली जाए। कारण यह है कि छींक अचेतन,गैर-स्वैच्छिक है। तुम स्वेच्छा से, चाह कर या जबरदस्ती नहीं छींक सकते हो। मनुष्य इतना असहाय है कि तुम
कितनी ही चेष्टा करो ..चाह कर एक छींक भी नहीं ला सकते हो। यह तुम्हारे मन के कारण नहीं घटित होती। यह तुम्हारे समग्र संस्थान से, समग्र शरीर से घटित होती है।और दूसरी बात कि जब तुम छींक के आने के पूर्व सजग हो जाते हो ...तुम उसे ला नहीं रहे हो। लेकिन जब वह अपने आप ही आ रही हो तो केवल तुम सजग हो जाते हो। तो संभव है कि वह न आए। क्योंकि तुम उसकी प्रक्रिया में कुछ नयी चीज अथार्त सजगता जोड़ रहे हो। वह खो सकती है ;लेकिन जब छींक खो जाती है और तुम सावचेत रहते हो, तो एक तीसरी बात घटित होती है।
3- अचानक बिजली सी कौंधती है, और जो ऊर्जा छींक बनकर बाहर निकलने जा रही थे वही ऊर्जा तुम्हारी सजगता में जुड़ जाती है। और तुम अचानक अधिक सावचेत हो जाते हो। बिजली की उस कौंध में बुद्धत्व भी संभव है।ये चीजें इतनी सरल है कि व्यर्थ मालूम पड़ती है। उनके द्वारा होने वाली उपलब्धियों की चर्चा असंभव सी लगती है। सिर्फ छींक के जरिए कोई बुद्ध कैसे हो सकता है? लेकिन छींक सिर्फ छींक ही नहीं है; तुम भी उसमें पूरी तरह सम्मिलित हो। तुम जो भी करते हो या तुम्हें जो भी होता है, उसमें तुम भी पूरी तरह मौजूद होते हो। इसे फिर से देखो ,इसका निरीक्षण करो। जब भी छींक आती है तो उसमें
तुम समग्रता: होते हो ...पूरे शरीर से होते हो, पूरे मन से होते हो।छींक सिर्फ तुम्हारी नाक में ही घटित नहीं होती। तुम्हारे शरीर का रोआं-रोआं उसमे सम्मिलित रहता है। एक सूक्ष्म कंपन, एक सूक्ष्म सिहरन पूरे शरीर पर फैल जाती है। और उसके साथ पूरा शरीर एकाग्र हो जाता है। और जब छींक आती है तो सारा शरीर एक राहत/ विश्राम अनुभव करता है।
4-लेकिन छींक के साथ सजगता रखनी कठिन हैऔर यदि तुम उसमें सजगता जोड़ दोगे तो छींक नहीं आएगी। और यदि छींक आए तो जानना कि तुम सजग नहीं हो।तो तुम्हें सजग रहना पड़ेगा।क्योंकि छींक यदि आ ही गयी तो कुछ नहीं किया जा सकता है।यंत्र चालू हो गया। ऊर्जा अब बाहर जाने के रास्ते पर है; उसे अब रोका नहीं जा सकता है। तुम छींक को बीच में नहीं रोक सकते हो।’छींक के आरंभ में….।‘’ ही सजग हो जाओ। जिस क्षण तुम्हें उत्तेजना अनुभव हो, लगे की छींक आने वाली है ..तभी सावचेत हो जाओ। अपनी आंखे बंद कर लो और ध्यानस्थ हो जाओ। अपनी समग्र चेतना को उस बिंदू पर ले जाओ जहां छींक की उत्तेजना अनुभव होती हो। ठीक आरंभ में ही सजग हो जाओ ..छींक गायब हो जायेगी। और चूंकि छींक में तुम्हारा सारा शरीर , पूरा संयंत्र सम्मिलित है और तुम उसी क्षण से सजग हो ..वहां मन नहीं होगा ,विचार नही होगा ,ध्यान नहीं होगा क्योंकि छींक में विचार ठहर जाते है।
5-यही कारण है कि अनेक लोग सुँघनी पसंद करते है।उनका मन ज्यादा विश्राम पूर्ण हो जाता है क्योंकि क्षण भर के लिए विचार ठहर जाते है। सुँघनी उन्हें निर्विचार की एक झलक देती है। सुँघनी सूंघने से जो छींक आती है। उसमे वह शरीर ही हो जाते है। एक क्षण के लिए सिर विदा हो जाता है और उन्हें बहुत अच्छा लगता है।अगर तुम सुँघनी के आदी हो जाओ तो उसे छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। यह धूम्रपान से भी ज्यादा गहरा व्यसन है; क्योंकि धूम्रपान सचेतन है और छींक अचेतन है । इसलिए धूम्रपान छोड़ने से भी ज्यादा कठिन सुँघनी छोड़ना है।और धूम्रपान के पर्याय है, लेकिन सुँघनी के पर्याय नहीं है।कारण यह है कि छींक सच में शरीर की एक अनूठी घटना है। बुनियादी बात यह है कि अगर मन नहीं है और तुम सजग हो, तो तुम्हें समाधि की पहली झलक मिलेगी।विचार ही बाधा है। किसी भी ढंग से यदि विचार विलीन हो जाए तो बात बन जाती है। लेकिन सजगता के लिए विचार का विदा होना जरूरी है।
6- विचार नींद में , तुम्हारे मूर्छित हो जाने पर भी ठहर जाते है। लेकिन तब विचार के पीछे जो तत्व छिपा है उसके प्रति सजगता नहीं रहती है।ध्यान भी निर्विचार चेतना है। तुम निर्विचार और मूर्च्छित एक साथ हो सकते हो। लेकिन उसका कोई मूल्य नहीं है। और तुम विचार के साथ सचेतन भी हो सकते हो; वह तुम हो ही। इन दो चीजों को, अथार्त चेतना और निर्विचार को इकट्ठा करो । जब वे मिलते है तो ध्यान घटित होता है,ध्यान का जन्म होता है।और तुम इसका प्रयोग छोटी-छोटी चीजों के साथ भी कर सकते हो। सच तो यह है कि कोई भी चीज छोटी नहीं है। एक छींक भी अस्तित्वगत घटना है। अस्तित्व में कुछ भी बड़ा नहीं है, कुछ भी छोटा नहीं है। एक नन्हा सा परमाणु भी पूरे जगत को मिटा सकता है। और वैसे ही छींक है जो कि अत्यंत छोटी चीज है लेकिन तुम्हें रूपांतरित कर सकती है।न कुछ बड़ा है और न कुछ छोटा। अगर तुम्हारे पास गहरे देखने की दृष्टि है तो बहुत छोटी चीजें भी महत्वपूर्ण हो सकती है।
7- परमाणुओं के बीच में ब्रह्मांड छिपे है और तुम नहीं कह सकते हो कि परमाणु और बह्मांड में कौन बड़ा है और कौन छोटा है। एक अकेला परमाणु अपने आप में ब्रह्मांड है, और बड़े से बड़ा बह्मांड़ भी परमाणुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।जब तुम भयभीत अनुभव करते हो और भय प्रवेश करता है,या जब तुम भय को प्रवेश करते देखो, ठीक उसी क्षण सजग हो जाओ और भय विलीन हो जाएगा। बोध के साथ भय नहीं रह सकता है। तुम तभी भयभीत होते हो जब होश खो देते हो। सच में कायर वह नहीं है जो डरा हुआ है; कायर वह है जो सोया हुआ है। और बहादुर वह है जो भय के क्षणों में बोध को जगा लेता
है और तब भय विदा हो जाता है।उदाहरण के लिए जापान में योद्धा को सजगता का प्रशिक्षण दिया जाता है। उनका बुनियादी प्रशिक्षण सजगता है ;शेष सब चीजें तलवार चलाना, तीर चलाना, सब गौण है।झेन सदगुरू रिंझाई के संबंध में कहा जाता है कि वह कभी भी तीर चलाने में, तीर को ठीक निशाने पर मारने में सफल नहीं हुआ। उनका तीर सदा ही चूकता रहा और वह महान धनुर्विद माने जाते थे।
8-तो पूछा जाता है कि रिंझाई सबसे महान धनुर्विद कैसे कहलाए जब कि वे कभी लक्ष्य पर नहीं पहुंचे और सदा निशाना चूकते
रहे।रिंझाई को मानने वाले कहते है: ‘’अंत नहीं आरंभ महत्वपूर्ण है। हम इसमे उत्सुक नहीं है कि तीर लक्ष्य पर पहुंच जाए। बल्कि हम उसमें उत्सुक है जहां से तीर अपनी यात्रा शुरू करता है। जब तीर धनुष से निकलता है तो वे सजग है; बस पर्याप्त
है। परिणाम से कोई लेना-देना नहीं है।‘’जब तुम चिंता अनुभव करो या बहुत चिंताग्रस्त होओ ;तब इस विधि का प्रयोग करो। जब साधारणत: तुम्हें चिंता घेरती है ;तब सामान्यत: तुम उसका हल ,उसके उपाय ढूंढते हो। लेकिन ऐसा करके तुम और भी चिंताग्रस्त हो जाते हो, तुम उपद्रव को बढ़ा लेते हो। क्योंकि विचार से चिंता का समाधान या उसका विसर्जन नहीं हो सकता। कारण यह है कि विचार खुद एक तरह कि चिंता है। विचार करके दलदल और भी धँसते जाओगे। यह विधि कहती है कि चिंता
के साथ कुछ मत करो;सिर्फ सजग होओ। उदाहरण के लिए एक झेन सदगुरू बोकोजू एक गुफा में अकेला रहता था।लेकिन दिन में या कभी-कभी रात में भी, वह जोरों से कहता था, ‘’बोकोजू।‘’ यह उसका अपना नाम था और फिर वह खुद कहता, ‘’हां महोदय, मैं मौजूद हूं।‘’ और वहां कोई दूसरा नहीं होता था। उसके शिष्य उससे पूछते थे, ‘’क्यों आप अपना ही नाम पुकारते हो। और फिर खुद कहते हो, हां मौजूद हूं?
9-बोकोजू ने कहा, जब भी मैं विचार में डूबने लगता हूं तो मुझे सजग होना पड़ता है और इसीलिए मैं अपना नाम पुकारता हूं.. बोकोजू। जिस क्षण मैं बोकोजू कहता हूं,और कहता हूं कि हां महाशय, मैं मौजूद हूं, उसी क्षण विचारण, चिंता विलीन हो जाती है।फिर अपने अंतिम दिनों में, आखरी दो-तीन वर्षों में उसने कभी अपना नाम नहीं पुकारा, और न ही यह कहा कि हां, मैं मौजूद हूं। तो शिष्यों ने पूछा, गुरूदेव, अब आप ऐसा क्यों करते है। बोकोजू ने कहा: ‘’ अब बोकोजू सदा ही मौजूद रहता है। इसलिए पुकारने की जरूरत रही। पहले मैं खो जाया करता था और चिंता मुझे दबा लेती थी ,आच्छादित कर लेती थी। बोकोजू वहां नहीं होता था तो मुझे उसे स्मरण करना पड़ता था और स्मरण करते ही चिंता विदा हो जाती है।यह बहुत सुंदर
विधि है...इसे प्रयोग करो।जब भी तुम्हें गहन चिंता पकड़े तो अपना ही नाम पुकारों और फिर खुद ही कहो कि हां महोदय, मैं मौजूद हूं। और तब देखो कि क्या फर्क है। चिंता नही रहेगी। कम से कम एक क्षण के लिए तुम्हें बादलों के पार की एक झलक मिलेगी और फिर वह झलक गहराई जा सकती है।
10-तुम एक बार जान गए कि सजग होने पर चिंता नहीं रहती ..विलीन हो जाती है। तो तुम स्वयं के संबंध में, अपनी आंतरिक व्यवस्था के संबंध में गहन बोध को उपलब्ध हो गए।‘’खाई-खड्ड के कगार पर, युद्ध से भागने पर, अत्यंत कुतूहल में, भूख के आरंभ में और भूख के अंत में .. सतत बोध रखो।‘’किसी भी चीज का उपयोग कर सकते हो।भूख लगी है, सजग हो जाओ। जब तुम्हें भूख महसूस होती है तो तुम उसे कभी ऐसे नहीं देखते कि तुम्हें कुछ हो रहा है; तुम भूख ही हो जाते हो। तब तुम
समझते हो कि मैं भूख हूं।लेकिन तुम भूख नहीं हो। तुम्हें सिर्फ भूख का बोध होता है। भूख कहीं परिधि पर घटित होती है। और तुम केंद्र हो; तुम्हें भूख घटित हो रही है। तुम तब भी थे जब भूख नहीं थी। और तुम जब भी रहोगे जब भूख नहीं होगी। भूख एक घटना है; वह तुम्हें घटित हो रही है।अगर तुम्हें भूख लगी है तो उसके प्रति सजग होओ।तब तुम भूख से तादात्म्य नहीं करोगे। तुम्हें भूख उतनी ही दूर मालूम पड़ेगी।और जितनी सजगता कम होगी भूख उतनी ही पास मालूम पड़ेगी। और अगर तुम बिलकुल सजग नहीं हो तो तुम ठीक केंद्र पर अनुभव करोगे कि मैं भूख हूं। सजग होते ही भूख तुम से दूर हट जाती है। भूख वहां है और तुम वहां हो। भूख विषय है; तुम साक्षी हो।
11-इसी विधि के लिए उपवास का प्रयोग किया जा सकता है।तुम महीनों भूखे रह सकते हो और भूख से जुड़े रह सकते हो कि मैं भूख हूं। लेकिन तब वह व्यर्थ है, हानिकर है।उपवास करने की कोई जरूरत नहीं है। तुम रोज ही भूख को अनुभव कर सकते हो। लेकिन कठिनाइयां है और इसीलिए उपवास उपयोगी हो सकता है। सामान्यत: हम भूख लगने के पहले ही अपने को भोजन से भर लेते है। आधुनिक संसार मे भूख लगने की जरूरत ही नहीं पड़ती है। तुम्हारे भोजन के समय निश्चित है और तुम भोजन कर लेते हो। तुम कभी नहीं पूछते कि शरीर को भूख लगी है या नहीं; निश्चित समय पर तुम भोजन कर लेते हो।
तुम कहोगे की जब दस बजता है तो मुझे भूख लग जाती है। वह झूठी भूख हो सकती है। वह इसलिए लगती है क्योंकि यह तुम्हारे खाने का समय है, एक बजा है। किसी दिन एक खेल करो; अपनी पत्नी या अपने पति को कहो कि घड़ी का समय बदल दे। अभी नौ बजा है और घड़ी दस का समय बता रही है। तुम्हें तुरंत भूख लग जाती है। तुम्हें घड़ी देख कर भूख लगती है। यह कृत्रिम भूख है। झूठी भूख है; यह भूख सच्ची नहीं है।
12-इसीलिए उपवास सहयोगी हो सकता है। अगर तुम उपवास करोगे तो दो तीन दिन तक झूठी भूख मालूम होगी। तीसरे या चौथे दिन के बाद ही सच्ची भूख का पता चलेगा। तब वह मांग तुम्हारे शरीर की होगी ,मन की नहीं।जब मन मांग करता है तो वह झूठी मांग है, शरीर की मांग ही सच्ची होती है। और जब तुम सच्ची भूख के प्रति सजग होते हो तो अपने शरीर से सर्वथा भिन्न हो जाते हो। भूख एक शारीरिक घटना है। और जब एक बार तुम जान लेते हो कि भूख मुझसे भिन्न है, मैं उसका साक्षी
हूं, तो तुम शरीर के पार चले गए।तुम किसी भी चीज का उपयोग कर सकते हो ..ये तो उदाहरण मात्र है। यह विधि अनेक ढंगों से प्रयोग में लाई जा सकती है। तुम अपना अलग ढंग भी निर्मित कर सकते हो। लेकिन किसी एक ही चीज पर सतत प्रयोग करते रहो। अगर तुम भूख के साथ प्रयोग कर रहे हो तो कम से कम तीन महीने तक भूख के साथ प्रयोग करो। तो ही तुम किसी दिन शरीर से तादात्म्य तोड़ सकते हो। रोज-रोज विधि मत बदलों, क्योंकि विधि का गहरे जाना जरूरी है।
13-तीन महीने के लिए किसी विधि को चुन लो और उससे लगन से लगे रहो और सदा स्मरण रखो कि आरंभ में
बोधपूर्ण होना है। बीच में बोधपूर्ण होना बहुत कठिन होगा। क्योंकि इस तादात्म्य के स्थापित होते ही 'कि मैं भूखा हूं' ;तुम फिर उसे बदल नहीं सकोगे। मन के तल पर तुम बदलाव कर सकते हो, तुम कह सकते हो कि ..मैं भूख नहीं हूं, साक्षी हूं। लेकिन वह झूठ होगा। वह मन ही बोल रहा है ..तुम्हारे प्राण नहीं और यह भी स्मरण रहे कि तुम्हें यह नहीं कहना है कि मैं भूख नहीं हूं। यह भी मन को धोखा देने का ढंग है। तुम कह सकते हो: ‘’भूख है, लेकिन मैं भूखा नहीं हूं। मैं शरीर नहीं
हूं ..मैं ब्रह्म हूं।‘’तुम्हें कुछ भी कहना नहीं है क्योंकि तुम जो भी कहोगे गलत होगा। यह दोहराना कि 'मैं शरीर हूं' किसी काम का नहीं है।अगर तुम सच ही जानते हो कि मैं शरीर नहीं हूं, तो यह कहने की कोई जरूरत नहीं है; यह मूढ़ता मालूम
होगी।बोधपूर्ण होओ,और तब उस बोध में यह भाव प्रगाढ़ होगा कि मैं शरीर नहीं हूं। यह विचार नहीं होगा, भाव होगा। यह तुम्हारे सिर की नहीं, तुम्हारे पूरे प्राणों की अनुभूति होगी। तुम दूरी महसूस करोगे कि शरीर बहुत दूर है।और मैं उससे बिलकुल भिन्न हूं।और दोनों के मिश्रण की संभावना भी नहीं है। तुम दोनों को मिला नहीं सकते हो। शरीर-शरीर है, पदार्थ है; और तुम चैतन्य हो। वे दोनों साथ रह सकते है ..लेकिन एक दूसरे में घुल मिल नहीं सकते है। उनका मिश्रण नहीं हो सकता है।
....SHIVOHAM....