विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 65,66वीं, (साक्षित्व की तेरह विधियां ) विधियां क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 65;-
13 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’अन्य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है। वस्तुत: किसी को भी शुद्ध या अशुद्ध की तरह मत जानों।‘’
2-यह भगवान शिव का एक बुनियादी संदेश है।एक सामान्य मनुष्य के लिए यह बड़ी कठिन धारणा होगी।क्योंकि यह सूत्र बोध की उच्च अवस्था प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले साधको के लिए है; और यह योग की अन्तिम अवस्था में पहुँचा हुआ साधक ही समझ सकता है। तंत्र कहता है कि शुद्धि-अशुद्धि ,नीति-अनीति से कोई मतलब नहीं है।सब ''नैतिकता'' व्याख्या है। इसकी देशना तुम्हें शुद्ध-अशुद्धि के उपर उठने में, विभाजन के द्वंद्व और द्वैत के पार जाने में ,सहयोग देने के लिए है।
तंत्र कहता है कि अस्तित्व अखंड है, अस्तित्व एक है। और स्मरण रहे,जो द्वंद्व है वह सब- सब के सब ..मनुष्य के बनाए हुए है। द्वंद्व नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य ये सारी धारणाएं मनुष्य ने निर्मित की है। ये मनुष्य की मान्यताएं है, ये यथार्थ नहीं है। क्या शुद्ध है और क्या अशुद्ध है। यह तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर करता है।एक सामान्य मनुष्य के लिए पहले कर्मयोग का पालन करना ही अनिवार्य है;जबकि यह सूत्र ज्ञानयोग की चरम सीमा है।
3-तो कोई चीज इस देश में नैतिक हो सकती है और वही चीज पड़ोसी देश में अनैतिक हो सकती है। एक ही चीज मुसलमान के लिए नैतिक हो सकती है और हिंदू के लिए अनैतिक हो सकती है। एक ही चीज ईसाई के लिए नैतिक और जैन के लिए अनैतिक हो सकती है। या जो चीज पुरानी पीढ़ी के लिए नैतिक था, नई पीढ़ी के लिए अनैतिक हो सकती है। यह दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।यह रुझान की बात है या बुनियादी रूप से ये एक मान्यता है। तथ्य बस तथ्य है ..वह न नैतिक होता है, और न अनैतिक होता है। न शुद्ध और न ही अशुद्ध।विभाजन संसार को ही नहीं बाँटता है, विभाजन करने वाले को भी बांट देता है। अगर तुम बांटते हो तो उसमें तुम खुद भी बंट जाते हो। और जब तक तुम बाहरी विभाजनों को नहीं भूलते,तब तक तुम अपने आंतरिक विभाजनों को अतिक्रमण नहीं कर सकते हो। जो कुछ तुम संसार के साथ करते हो, तुम उसे पहले अपने साथ ही कर लेते हो।
4- एक महान गुरू ने कहा है: ‘’इंच भर विभाजन भी किया, तो स्वर्ग और नरक अलग-अलग हो जाते है।वे इंच भर विभाजन के लिए कहते है, लेकिन हम बांटते है, नाम देते है, निंदा करते है ,औचित्य सिद्ध करते है। आस्तित्व के शुद्ध तथ्य को देखो ,और कोई नाम, कोई लेबल मत दो। तथ्य को भला या बुरा मत कहो ,अपने चित को मत उतारों।केवल तभी इस सूत्र को समझ सकते हो।ज्यों ही तुम तथ्य पर अपनी धारणा आरोपित करते हो, तुम झूठ का निर्माण कर लेते हो। अब यह तथ्य न रहा, सत्य न रहा; यह तुम्हारा प्रक्षेपण हो गया।यह सूत्र कहता है: ‘’अन्य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है। वस्तुत: किसी को भी शुद्ध या अशुद्ध की तरह मत जानो।तंत्र कहता है कि जो चीज अन्य देशनाओं के लिए बहुत शुद्ध मानी जाती है, पुण्य मानी जाती है। वह हमारे लिए पाप है क्योंकि उनकी शुद्धता की धारणा बाँटती है; उनके लिए कुछ शुद्ध है कुछ अशुद्ध।अगर तुम किसी को संत कहते हो तो तुमने किसी को पापी बना दिया। अब तुम्हें कहीं न कहीं किसी न किसी को निंदित करना होगा क्योंकि संत पापी के बिना नहीं हो सकता।
5-अब हमारे प्रयत्नों की व्यर्थता देखो। हम पापियों को मिटाने में लगे है। और हम एक ऐसी दुनियां की आशा करते है जहां पापी नहीं सिर्फ संत होगे। यह अर्थ हीन है क्योंकि संत पापी के बिना नहीं हो सकता। वे एक ही सिक्के के दो पहलू है। तुम सिक्के के एक पहलू को नहीं मिटा सकते; दोनों साथ ही रहेगें। पापी और पुण्यात्मा भी संसार में विदा हो जायेंगे। लेकिन वे किसी मूल्य के नहीं सिद्ध हुए है।पापी और संत एक ही व्याख्या के, जगत के प्रति एक ही दृष्टिकोण के अंग है। यह दृष्टि कहता है कि यह शुभ है और वह अशुभ है। और तुम यह नहीं कह सकते कि यह अच्छा है या बुरा है। शुभ की परिभाषा के लिए अशुभ जरूरी है क्योंकि शुभ अशुभ पर निर्भर करता है। पुण्य पाप पर निर्भर करता है।महात्मा असंभव है, वे पापियों के बिना नहीं हो सकते।महात्मा चाहे पापियों की जितनी भी निंदा क्यों न करे। वे एक ही घटना के अंग है। पापी संसार से तभी विदा होंगे जब महात्मा विदा होंगे। उनके पहले नहीं और पुण्य की धारणा के बिना पाप नहीं टिक सकता है।
6-तंत्र कहता है कि तथ्य असली बात है; और व्याख्या झूठ है। व्याख्या मत करो।वस्तुत: किसी को भी शुद्ध या अशुद्ध कहना सत्य पर थोपी गई हमारी व्याख्याएं है। हमारे दृष्टिकोण है। यह विधि कठिन है, सरल नहीं है। कारण यह है कि हम द्वैत मूलक विचार से इतने ग्रस्त है ;उसमे इतने डूबे है कि हमें इसका भी पता नहीं रहता कि हम किसकी निंदा कर रहे है और किसको उचित कह रहे है। अगर कोई व्यक्ति धूम्रपान करने लगे तो तुम सचेतन रूप से कुछ जाने बिना ही अपने अंतस में उसकी निंदा कर डालोगे। तुमने व्यक्ति पर नजर भी नहीं डाली हो, लेकिन तुमने निंदा कर दी।यह विधि कठिन होगी क्योंकि हमारी इतनी गहन ,प्रगाढ़ आदत है कि हम महज अपनी भाव-भंगिमा से, अपने बैठने-उठने से किसी को निंदित कर देते है। किसी को सही बताते हो, और इसका होश भी नहीं रहता कि तुम क्या कर रहे हो। तुम जब किसी व्यक्ति को देखकर मुस्कराते हो या नहीं मुस्कराते हो। जब तुम किसी को देखते हो या नहीं देखते हो, तुम उसकी उपेक्षा करते हो, तो तुम क्या कर रहे हो। तुम अपनी पंसद-नापसंद आरोपित कर रहे हो। जब तुम कहते हो कि कोई चीज सुंदर है तो तुम्हें किसी चीज को कुरूप कहना ही होगा। और यह बांटने वाली दृष्टि साथ ही साथ तुम्हें भी बांट रही है। तुम्हारे भीतर दो व्यक्ति हो जाएंगे।
7-अगर तुम कहते हो कि कोई व्यक्ति क्रोध मे है और क्रोध बुरा है... तो समस्याएं खड़ी होंगी। क्योंकि तुम कहते हो कि यह बुरा है, मुझमें जो क्रोध है यह बुरा है। तब तुम अपने को दो व्यक्तियों में बांटने लगे। एक बुरा व्यक्ति होगा ,पापी होगा। और दूसरा भला व्यक्ति होगा , महात्मा होगा। निश्चित ही, तुम अपने को भीतर का महात्मा मानोगे। और भीतर के पापी की निंदा करोगे। तुम दो में विभाजित हो गए।अब निरंतर लड़ाई चलेगी ..संघर्ष होगा। अब तुम व्यक्ति न रहे, अब तुम भीड़ हो गये। तुम्हारे भीतर एक गृह युद्ध चलेगा। अब मौन गया, शांति गई। तुम तनाव और संताप से भर जाओगे। तुम्हारी यही हालत है लेकिन तुम्हें पता नहीं है कि ऐसा क्यों है? वास्तव में, विभाजित व्यक्ति शांत नहीं हो सकता क्योंकि तब तुम अपने शैतान को कहां रखोगे? तुम्हें उसे मिटाना होगा। लेकिन तुम उसे मिटा नहीं सकते क्योंकि तुम दो नहीं हो; सच्चाई एक है, यथार्थ एक है। लेकिन अपनी बांटने वाली दृष्टि के कारण तुमने बाह्म यथार्थ को बांट दिया, और उसके अनुसार भीतरी यथार्थ भी बंट गया। इसलिए हर एक व्यक्ति स्वयं से ही लड़ रहा है।
8-अब निरंतर लड़ाई चलेगी ,संघर्ष होगा।अब तुम व्यक्ति न रहे बल्कि भीड़ हो गये। तुम्हारे भीतर एक गृह युद्ध चलेगा ..मौन गया, शांति गई। तुम तनाव और संताप से भर जाओगे। यही तुम्हारी हालत है। लेकिन तुम्हें पता नहीं है कि ऐसा क्यों है? विभाजित व्यक्ति शांत नहीं हो सकता ..उसको अपने शैतान को मिटाना होगा। लेकिन अपनी बांटने वाली दृष्टि के कारण तुम उसे मिटा नहीं सकते ।तुमने बाह्म यथार्थ को बांट दिया, और उसके अनुसार भीतरी यथार्थ भी बंट गया। इसलिए हर एक व्यक्ति स्वयं से ही लड़ रहा है।उदाहरण के लिए भारत में सभ्याचार के तौर पर बाएं हाथ का इस्तेमाल लोगों को पसंद नहीं है। जैसे उलटा हाथ मिलाना, उलटे हाथ से खाना, उलटे हाथ से कोई उपहार देना या लेना।पारिवारिक उत्सव और कामकाज के दौरान बाएं हाथ का प्रयोग बिलकुल पसंद नहीं किया जाता।बायां हाथ अशुभ है और दायां हाथ शुभ है। यह ऐसा ही है जैसे कि हम अपने ही दोनों को लड़ाएं। बायां हाथ दाएं हाथ से लड़े। दायां हाथ बाएं हाथ से लड़े और ऊर्जा एक ही है। और बाएं दाएं हाथों मे एक ही ऊर्जा बह रही है। 'मैं 'ही दोनों हाथों में बह रहा हूं। और एक ही संघर्ष,एक झूठा संघर्ष खड़ा कर रहा हूं। कभी 'मैं 'अपने बाएं हाथ को धोखा दे सकता हूं, और मेरा दायां हाथ जीत सकता है। और कभी 'मैं 'दाएं हाथ को हरा सकता हूं। परंतु सच में दोनों में 'मैं' ही हूं।
9-तो तुम कितना ही सोचो कि ''मेरे भीतर का संत जीत गया और शैतान हार गया'',स्मरण रहे कि तुम किसी भी क्षण जगहें बदल सकते हो, और तब संत नीचे होगा और शैतान ऊपर होगा। इससे ही भय पैदा होता है, असुरक्षा का भाव पैदा होता है; क्योंकि तुम जानते हो कि कुछ भी निश्चित नहीं है। तुम जानते हो कि तुम इस समय प्रेमपूर्ण हूं और अपनी घृणा को दबा दिया है। लेकिन तुम यह भी जानते हो कि घृणा क्षण भर में उपर आ जायेगी और प्रेम नीचे दब जायेगा। क्योंकि भीतर तुम दो हो।तंत्र कहता है कि खंड मत करो और केवल तभी तुम जीत सकते हो।अखंड कैसे हुआ जाए...इसके लिए निंदा मत करो; मत कहो कि यह अच्छा है और वह बुरा है।शुद्धता और अशुद्धता की सभी धारणाओं को विदा कर दो। संसार को देखो लेकिन मत कहो कि यह क्या है। अज्ञानी रहो ..बहुत बुद्धिमानी मत दिखाओं। कुछ धारणा मत बनाओ। चुप रहो; न निंदा करो और न प्रशंसा। अगर तुम संसार के संबंध में मौन रह सकते हो तो धीरे-धीरे यह मौन तुम्हारे भीतर भी प्रवेश कर जाएगा। और अगर बाहर का विभाजन समाप्त हो जाए तो भीतर का विभाजन भी समाप्ति हो जाएगा। क्योंकि दोनों साथ ही हो सकते है। लेकिन यह बात समाज के लिए खतरनाक है। यही कारण है कि तंत्र का दमन हुआ क्योकि समाज के लिए यह दृष्टि खतरनाक है कि कुछ भी अनैतिक नहीं है ,कुछ भी नैतिक नहीं है ,कुछ शुद्ध नहीं है, कुछ भी अशुद्ध नहीं है ...चीजें जैसी है वैसी ही है।
10-एक सच्चा तांत्रिक यह नहीं कहेगा कि चोर बुरा है; वह इतना ही कहेगा कि वह चोर है; बस। और उसे चोर कहने में उसके मन में निंदा नहीं होगी। अगर कोई कहता है कि यह आदमी महान संत है तो तांत्रिक कहेगा; हां यह संत है। लेकिन उसे संत कहने में कोई मूल्यांकन नहीं है; वह यह नहीं कहेगा कि यह अच्छा है। यह कहेगा; ठीक है, यह संत है और वह चोर है। यह कहना ऐसा ही है जैसे यह कहना कि यह गुलाब है और वह गुलाब नहीं है। यह वृक्ष बड़ा है,वह छोटा है। रात काली है और दिन उजला है। इसमें कोई तुलना नहीं है।लेकिन यह खतरनाक है। समाज एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता है।क्योंकि समाज द्वैत पर खड़ा है।तंत्र समाज-विरोधी नहीं है। लेकिन अद्वैत की दृष्टि सामाजिक धारणाओं का अतिक्रमण कर जाती है। वह समाज विरोधी नहीं है बल्कि समाज का अतिक्रमण है ...समाज के पार उठ जाना है।
11-इसे प्रयोग करो। किसी मूल्यांकन के बिना, केवल स्वाभाविक तथ्यों के साथ, कि अमुक यह है और अमुक वह है। संसार में चलो। और धीरे-धीरे तुम्हें अपने भीतर एक अखंडता अनुभव होगी, तुम्हारे विपरीत शब्द, तुम्हारे विरोध, तुम्हारी अच्छाई-बुराई सब इकट्ठे हो जाएंगे। वे एक में मिल जाएंगे। और तुम एक इकाई बन जाओगे। तब न कुछ शुद्ध होगा और न कुछ अशुद्ध होगा। तुम यथार्थ को सीधे जानते हो।‘’अन्य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है।‘’
तंत्र कहता है कि जो दूसरों के लिए बुनियादी बात है वह हमारे लिए जहर है। उदाहरण के लिए अहिंसा पर आधारित देश है ...जो कहती है कि हिंसा अशुभ है और अहिंसा शुभ है। तंत्र कहता है कि हिंसा-हिंसा है और अहिंसा-अहिंसा है। न कुछ बुरा है और न कुछ भला। चीजें जैसी है तंत्र उन्हें वैसे ही स्वीकार करता है। और क्यों? सिर्फ तुम्हारे भीतर अखंडता निर्मित करने के लिए।
12-यह विधि तुम्हारे भीतर एक अखंडता निर्मित करने के लिए है। तुम्हारे भीतर एक समग्र,अखंड, द्वंद्व रहित ओर विरोध रहित सत्ता पैदा करने के लिए है। केवल तब ही मौन संभव है। जो व्यक्ति किसी वृति से भागता है वह कभी शांत नहीं हो सकता। जो व्यक्ति अपने भीतर खंडित है, स्वयं से ही लड़ रहा है ;वह कैसे जीत सकता है। यह असंभव है। तुम ही दोनों हो, फिर जीत किसकी होगी? किसी की भी जीत नहीं होगी। तुम्हारी ही हार होगी। क्योंकि लड़ने में तुम्हारी ऊर्जा नष्ट होगी।
यह विधि तुम में एक अखंडता निर्मित करेगी। मूल्यों को जाने दो; निर्णय मत लो। जीसस ने कहीं कहा है: ‘’दूसरे के संबंध में कोई निर्णय मत लो, ताकि तुम्हारे संबंध में भी निर्णय न लिया जाए।‘’ लेकिन यहूदियों के लिए इसे समझना असंभव हो गया। क्योंकि यहूदियों का सारा चिंतन नैतिकता पर निर्भर है। यह शुभ है और वह अशुभ है। जीसस इस उपदेश में—'कोई निर्णय मत लो'। तंत्र की भाषा बोल रहे है। यदि उनकी हत्या कर दी गई, उन्हें सूली पर लटकाया गया, तो उसका कारण यह उपदेश था। उनकी दृष्टि तंत्र की दृष्टि थी: ‘’कोई निर्णय मत लो।‘’
13-तो मत कहो कि यह बुरी है। कौन जानता है? और मत कहो कि वह अच्छा है ।कौन जानता है? और अंतत: तो दोनों एक ही खेल के अंग है। वे एक दूसरे पर निर्भर है, परस्पर जुड़े है। इसलिए जीसस कहते है: कोई निर्णय मत लो। और यही शिक्षा इस सूत्र में है: ‘दूसरे के संबंध में कोई निर्णय मत लो, ताकि तुम्हारे संबंध में निर्णय न लिया जा सके।'अगर तुम कोई निर्णय नहीं लेते हो, कोई नैतिक दृष्टिकोण नहीं अपनाते हो , तथ्यों को वैसे ही देखते हो जैसे वे है। अपने हिसाब से उनकी व्याख्या नहीं करते हो, तो तुम्हारे संबंध में भी निर्णय नहीं लिया जाएगा।तुम पूरी तरह रूपांतरित हो गए हो। अब कोई सत्ता तुम्हारे संबंध में निर्णय नहीं लेगी; उसकी जरूरत न रही। तुम स्वयं दिव्य हो गए; तुम स्वयं परमात्मा हो गए।तो साक्षी बनो, न्यायाधीश नहीं।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 66;-
19 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''मित्र और अजनबी के प्रति, मान और अपमान में, असमता और समभाव रखो।’'
2-‘असमता के बीच समभाव रखो।’... यह आधार है। तुम्हारे भीतर दो चीजें घटित हो रही है। तुम्हारे भीतर कोई चीज निरंतर वैसी ही रहती है; वह कभी नहीं बदलती। शायद तुमने इसका निरीक्षण या साक्षात्कार न किया हो। लेकिन अगर निरीक्षण करोगे तो जानोंगे कि तुम्हारे भीतर कुछ है जो निरंतर वही का वही रहता है। उसी के कारण तुम्हारा एक व्यक्तित्व होता है और तुम अपने को केंद्रित अनुभव करते हो; अन्यथा तुम एक अराजकता हो जाओगे।तुम कहते हो; ‘मेरा बचपन।’ यह कौन है जो कहता है: ‘मेरा बचपन’.. यह मेरा, मुझे, मैं कौन है। तुम्हारे बचपन का तो कुछ भी शेष नहीं बचा है। यदि तुम्हारे बचपन के चित्र तुम्हें पहली दफा दिखाए जाये तो तुम उन्हें पहचान भी नहीं सकोगे। सब कुछ इतना बदल गया है। तुम्हारा शरीर अब वही नहीं है। उसकी एक कोशिश भी वही नहीं है।
3- Physiologist कहते है कि शरीर एक सरित-प्रवाह है। प्रत्येक क्षण अनेक पुरानी कोशिकाएं मर रही है और अनेक नई कोशिकाएं बन रही है। सात वर्षों के भीतर तुम्हारा शरीर बिलकुल बदल जाता है। अगर तुम सत्तर साल जीने वाले हो तो इस बीच तुम्हारा शरीर पूरा का पूरा दस बार बदल जाता है। प्रत्येक क्षण तुम्हारा शरीर और तुम्हारा मन बदल रहा है। जैसे तुम अपने बचपन के शरीर का चित्र नहीं पहचान सकते हो वैसे ही यदि तुम्हारे बचपन के मन का चित्र बनाना संभव हो तो तुम उसे भी नहीं पहचान पाओगे।तुम्हारा मन तो तुम्हारे शरीर से भी ज्यादा प्रवाहमान है। हर एक क्षण में बदल जाता है। एक क्षण के लिए भी कुछ स्थाई ,ठहरा हुआ नहीं है। मन के तल पर सुबह तुम कुछ थे; शाम तुम बिलकुल ही भिन्न व्यक्ति हो जाते हो।जब भी कोई व्यक्ति गौतम बुद्ध से मिलने आता था तो उसे विदा होते समय गौतम बुद्ध उससे कहते थे: ‘’स्मरण रहे, जो व्यक्ति मुझ से मिलने आया था वही आदमी वापस नहीं जा रहा है। तुम अब बिलकुल भिन्न आदमी हो। तुम्हारा मन बदल गया है।
4-गौतम बुद्ध जैसे व्यक्ति से मिलकर तुम्हारा मन वही नहीं रह सकता, उसकी बदलाहट अनिवार्य है—वह बदलाहट चाहे भले के लिए हो या बुरे के लिए। तुम एक मन लेकर वही गये थे; तुम भिन्न ही मन लेकर वहां से वापस आओगे। कुछ बदल गया है ;कुछ नया उससे जुड़ गया है। कुछ पुराना उससे अलग हो गया है।और अगर तुम किसी से नहीं भी मिलते हो, बस अपने साथ अकेले रहते हो, तो भी तुम वही नहीं रह सकते। पल-पल नदी बह रही है। हेराक्लाइटस (एक प्राचीन ग्रीक दार्शनिक) ने कहा है कि तुम एक ही नदी में दो बार प्रवेश नहीं कर सकते। यही बात मनुष्य के संबंध में सही है। तुम एक ही मनुष्य से दो बार नहीं मिल सकते ..यह असंभव है। और इसी तथ्य के कारण और इसके प्रति हमारे अज्ञान के कारण ..हमारा जीवन संताप बन जाता है। क्योंकि तुम्हारी अपेक्षा रहती है कि दूसरा सदा वही रहेगा।
5-तुम अपने शरीर को देखो, वह बदल रहा है। तुम अपने मन को समझो, वह भी बदल रहा है। कुछ भी वही का वही नहीं रहता है। यदि तुमने अपने मित्र को अजनबी की भांति नहीं देखा है तो तुमने देखा ही नहीं है।हो सकता है तुम उसके साथ बीस वर्षों से, या उसे भी ज्यादा समय से रह रहे हो। लेकिन वह अजनबी ही रहता है। तुम जितना ज्यादा उसके साथ रहते हो उतनी ही संभावना है कि अपरिचित ही रहो। तुम उससे कितना ही प्रेम करते हो उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।सच तो यह है कि तुम उसे जितना ज्यादा प्रेम करोगे वह उतनी ही रहस्यमय मालूम पड़ेगा । कारण यह है कि तुम उसे जितना ज्यादा प्रेम करोगे। तुम उतने ही अधिक गहरे उसमे प्रवेश करोगे। और तुम्हें मालूम पड़ेगा कि वह कितना नदी जैसा प्रवाहमान है, परिवर्तनशील है, जीवंत है और प्रति पल भिन्न है।जब तुम प्रत्येक क्षण अजनबी हो; तुम भविष्यवाणी नहीं कर सकते ।
6-भविष्यवाणी तो तभी हो सकती है ,जब तुम्हारा मित्र मुर्दा हो;क्योंकि केवल वस्तुओं के संबंध में भविष्यवाणी हो सकती है। व्यक्तियों के संबंध में भविष्यवाणी नहीं हो सकती। अगर किसी व्यक्ति के संबंध में भविष्यवाणी की जा सके तो जान लो कि वह मुर्दा है, उसका जीवित होना झूठ है। इसीलिए उसके बारे में भविष्यवाणी हो सकती है। व्यक्तियों के संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती है क्योंकि बदलाहट संभव है।अगर तुम गहरे नहीं देखते हो, अगर तुम इसी तल से बंधे हो कि वह तुम्हारा मित्र है, कि उसका यह नाम है, तो तुमने उसके एक हिस्से को पकड़ लिया है। और तब जब भी कुछ बदलाहट होगी, वह उस बदलाहट को तुमसे छिपायेगा । और तब उसके कुछ नकली और झूठ रूप तुम्हारे सामने होंगे। क्योंकि उसे बदलने की ,स्वयं होने की इजाजत नहीं है। कुछ ऊपर से लादा जा रहा है और तब सारा संबंध मुर्दा हो जाता है।
7-अपने मित्र को अजनबी की भांति देखो; वह अजनबी ही है और डरों मत। हम अजनबी से डरते है; इसलिए हम भूल जाते है कि मित्र भी अजनबी है। अगर तुम अपने मित्र में भी अजनबी को देख सको तो तुम्हें कभी निराशा नहीं होगी। क्योंकि अजनबी से तुम्हें अपेक्षा नहीं होती है। मित्र के संबंध में तुम सदा निश्चित होते है। तुम उससे जो कुछ चाहोगे ..वह नहीं होता है। इससे ही अपेक्षा पैदा होती है और निराशा हाथ लगती है। क्योंकि कोई व्यक्ति तुम्हारी अपेक्षाओं को नहीं पूरा कर सकता है।कोई यहां तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए नहीं है क्योंकि सब यहां अपने अपेक्षाएं पूरी करने के लिए है।लेकिन तुम्हें अपेक्षा है कि दूसरे तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करें। और दूसरों को अपेक्षा है कि तुम उनकी अपेक्षाएं पूरी करो। और तब कलह है, संघर्ष है, हिंसा है और दुःख है।अजनबी को सदा स्मरण रखो। मत भूलों कि तुम्हारा घनिष्ठ मित्र भी अजनबी है। दूर से भी दूर है। अगर यह भाव, यह ज्ञान घटित हो जाए, तो फिर तुम अजनबी में भी मित्र को देख सकते हो। यदि मित्र अजनबी हो सकता है तो अजनबी भी मित्र हो सकता है।
8- किसी अजनबी को देखो; उसे तुम्हारी भाषा नहीं आती है। वह तुम्हारे देश , तुम्हारे धर्म ,तुम्हारे रंग का नहीं है। तुम गोरे हो और वह काला है। या तुम काले हो और वह गोरा है। भाषा के जरिए तुम्हारे और उसके बीच कोई संवाद संभव नहीं है। तुम्हारे और उसके पूजा स्थल भी एक नहीं है। राष्ट्र, धर्म, जाति, वर्ण, रंग ...कहीं भी कोई समान भूमि नहीं है। वह बिलकुल अजनबी है।लेकिन उसकी आंखों में झांको, वहां एक ही मनुष्यता मिलेगी। वह समान भूमि है। उसके भीतर वहीं जीवन है जो तुममें है; वह समान भूमि है। और अस्तित्व भी वहीं है; वह तुम दोनों के मित्र होने का आधार है। तुम उसकी भाषा भले ही न समझो, लेकिन उसको तो समझ सकते हो। मौन से भी संवाद घटित होता है। उसकी आँखो में गहरे, झांकने भर से प्रकट हो सकता है।और अगर तुम गहरे देखना जान लो तो शत्रु भी तुम्हें धोखा नहीं दे सकता; तुम उसके भीतर मित्र को देख लोगे। वह यह नहीं सिद्ध कर सकता कि वह तुम्हारा मित्र नहीं है। वह तुमसे कितना ही दूर हो, तुम्हारे पास ही है; क्योंकि तुम उसी अस्तित्व की धारा में हो, उसी नदी में हो, जिसमे वह है। तुम दोनों अस्तित्व के तल पर एक ही जमीन पर खड़े हो।
9-और अगर वह भाव प्रगाढ़ हो तो एक वृक्ष भी तुमसे बहुत दूर नहीं है। तब एक पत्थर भी बहुत अलग नहीं है। एक पत्थर के साथ तुम्हारा कोई तालमेल नहीं है; उसके साथ संवाद की कोई संभावना नहीं है। लेकिन वहां पत्थर का भी वही अस्तित्व है; वह भी अस्तित्व का अंश है। वह भी होने के जगत में भागीदार है। उसमें भी जीवन है ,वह भी स्थान घेरता है; वह भी समय में जीता है। सूरज उसके लिए भी उगता है जैसे तुम्हारे लिए उगता है। एक दिन वह नहीं था ..जैसे तुम नहीं थे। और एक दिन जैसे तुम मर जाओगे ..वह भी मर जाएगा। पत्थर भी एक दिन विदा हो जाएगा।अस्तित्व में हम मिलते है; यह मिलन ही मित्रता है। व्यक्तित्व में , अभिव्यक्ति में हम भिन्न है; लेकिन तत्वत: हम एक ही है। अभिव्यक्ति में रूप में हम अजनबी है; उस तल पर हम एक दूसरे के कितने ही करीब आएं, लेकिन दूर ही रहेंगे।जहां तक तुम्हारे बदलते व्यक्तित्व का संबंध है, तुम एक नहीं हो सकते हो। तुम कभी समान नहीं हो। तुम सदा भिन्न हो, अजनबी हो। उस तल पर तुम नहीं मिल सकते क्योंकि मिलने के पहले ही तुम बदल जाते हो। मिलन की कोई संभावना नहीं है। जहां तक शरीर का संबंध है, मन का संबंध है, मिलन संभव नहीं है। क्योंकि इसके पहले कि तुम मिलो तुम वही नहीं रहते।
10-क्या तुमने कभी ख्याल किया है। तुम्हें किसी के प्रति गहन प्रेम उमड़ता है।तुम उस प्रेम से भर जाते हो; लेकिन जैसे ही तुम जाते हो और कहते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, वह प्रेम विलीन हो जाता है। क्या तुमने निरीक्षण किया है कि वह प्रेम अब नहीं रहा, उसकी स्मृति भर शेष है। अभी वह था और अभी वह नहीं है। तुमने उसे अभिव्यक्त किया, उसे प्रकट किया; यही तथ्य उसे परिवर्तन के जगत में ले आया।जब उसकी प्रतीति हुई थी, हो सकता है वह प्रेम तुम्हारे प्राणों का हिस्सा रहा हो; लेकिन जब तुम उसे अभिव्यक्त करते हो तो तुम उसे समय और परिवर्तन के जगत में ले आते है; अब वह सरित प्रवाह में प्रविष्ट हो रहा है। जब तुम कहते हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तब तक शायद वह बिलकुल ही गायब हो चुका हो। यह बहुत कठिन है; लेकिन अगर तुम निरीक्षण करोगे तो यह तथ्य बन जाएगा।तब तुम देख सकते हो कि मित्र में अजनबी है और अजनबी में मित्र है। और तब तुम ‘असमानता के बीच समभाव’ रख सकते हो। परिधि पर तुम बदलते रहते हो, लेकिन केंद्र पर, प्राणों में वही बने रहते हो।
भगवद गीता में समता का महत्त्व ;-
07 FACTS;-
1-भगवदगीता में भगवान ने जीवनमुक्त का प्रधान लक्षण ' समता ' ही बताया है । यह समता ही सर्वोच्च साम्यवाद है , यही सच्ची एकता है , यही परमेश्वर का स्वरूप है ।यह धर्ममय है , यह परम आस्तिक है , रसमय है , शांतिप्रद है , रहस्यमय है , समस्त दुखों का सदा के लिए नाश करने वाला है , मुक्ति देने वाला है अथवा साक्षात मुक्तिरूप ही है , इसमें स्थित होनेका नाम ही ब्राह्मी - स्थिति है। जो पुरुष इस समता में स्थित है , वही स्थितप्रज्ञ है , वही गुणातीत है , वही ज्ञानी है , वही भक्त है और वही जीवन्मुक्त है। यह आचरण योग्य है और इसका आचरण सभी कर सकते हैं , यह समता ही परमात्मा है।
भगवान ने गीता में कहा है - ' जिनका मन समत्व भाव में स्थित है उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया , अर्थात वे जीते हुए ही संसार से मुक्त हैं ; क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है , इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित हैं ''।
2-समता साक्षात अमृत है , विषमता ही विष है , यह बात संसार में प्रत्यक्ष देखी जाती है। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थों , सम्पूर्ण क्रियाओं और सम्पूर्ण चराचर भूतों में जिनकी समता है , वे ही सच्चे महापुरुष हैं।इस समता का सम्बन्ध प्रधानतया आंतरिक भावों से है ; इसमें सर्वत्र समदर्शन है , समवर्तन नहीं है।
3-‘मान और अपमान में……।‘
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: । शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संग्ङविवर्जित: ।।18।।(गीता 12 ) तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टो येन केनचित् । अनिकेत:स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ।।19।।
..श्री भगवान् बोले – जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दुख आदि द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति से रहित है। जो निन्दा-स्तुति को समान समझने वाला, मनन शील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिर बुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है।
4-सर्वत्र भगवद् बुद्धि होने तथा राग-द्वेष से रहित होने के कारण सिद्ध भक्त का किसी के भी प्रति शत्रु -मित्र का भाव नहीं रहता। लोग ही उसके व्यवहार में अपने स्वभाव के अनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलता को देखकर उसमें मित्रता या शत्रुता का आरोप कर लेते हैं। परंतु भक्त अपने आपमें सदैव पूर्णतया सम रहता है। उसके हृदय में कभी किसी के प्रति शत्रु-मित्र का भाव उत्पन्न नहीं होता है।भक्त की अपनी कहलाने वाले शरीर में न तो अहमता होती है, न ममता। इसीलिए शरीर का मान-अपमान होने पर भी भक्त के अन्तःकरण में कोई विकार (हर्ष-शोक) पैदा नहीं होता। वह नित्य निरन्तर समता में स्थित रहता है।गृहस्थ में रहते हुये भी यदि उसके अन्तःकरण में प्राणि, पदार्थों की किंचित मात्र भी आसक्ति नहीं है तो वह छूटा हुआ है।
5-यदि पदार्थों का स्वरूप से त्याग करने पर ही मुक्ति होती, तो मरने वाला हरेक व्यक्ति मुक्त हो जाता,क्योंकि उसने तो अपने शरीर सहित समस्त सामग्री का परित्याग कर दिया। परन्तु ऐसी बात है नहीं। अन्तःकरण में आसक्ति के रहते हुये शरीर का त्याग करने पर भी संसार का बन्धन बना रहता है। अतः मनुष्य को सांसारिक आसक्ति ही बाँधने वाली है। न कि सांसारिक प्राणि, पदार्थों का स्वरूप से सम्बन्ध।संसार के प्रति यदि तनिक भी आसक्ति है तो उसका चिन्तन अवश्य होगा। इस कारण वह आसक्ति साधक को क्रमशः कामना, क्रोध, मूढ़ता आदि को प्राप्त कराती हुई उसे पतन के गर्त में गिराने का हेतु बन सकती है।आसक्ति न तो परमात्मा के अंश शुद्ध चेतन में रहती है और न जड़ प्रकृति में ही। वह जड़ और चेतन के सम्बन्ध रूप ‘‘मैं’’ पन की मान्यता में रहती है।आसक्ति का कारण अविवेक है। अपने विवेक को पूर्णतया महत्व न देने से साधक में आसक्ति बनी रहती है।
6-साधारण मनुष्यों के भीतर अपनी प्रशंसा की कामना रहा करती है, इसलिए वे अपनी निन्दा सुनकर दुख का और स्तुति सुनकर सुख का अनुभव करते हैं। भक्त की इन दोनों में ही समबुद्धि रहती है। साधक लोग निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं।भक्त के द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभ कर्मो के होने में वह केवल भगवान को हेतु मानता है। फिर उसकी कोई निन्दा करे,या स्तुति करे, उसके चित्त में कोई विकार पैदा नहीं होता।
चाहे ग्रहस्थ हो या साधु-सन्यासी, जिनकी अपने रहने के स्थान में ममता, आसक्ति नहीं है वे सभी “अनिकेत” हैं। भक्त का रहने के स्थान में और शरीर (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर ) में लेश मात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिए उसको अनिकेतः कहा गया है।'स्थिरबुद्वि' होने में कामनायें ही बाधक होती हैं।अतः कामनाओं के त्याग से ही स्थिर बुद्धि
होना सम्भव है।
7-जैसे – सिनेमा में दिखने वाले दृश्य (प्राणी, पदार्थ) को मिथ्या जानते हुये भी उसमें आसक्ति हो जाती है, वे सब दृश्य मस्तिष्क पर अंकित हो जाते हैं अथवा जैसे भूतकाल की बातों को याद करते समय मानसिक दृष्टि के सामने आने वाले दृश्य को मिथ्या जानते हुये भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जब तक भीतर में सांसारिक सुख की कामना है, तब तक संसार को मिथ्या मानने पर भी संसार की आसक्ति नहीं मिटती। आसक्ति से संसार की स्वतन्त्र सत्ता दृढ होती है। सांसारिक सुख की कामना मिटने पर आसक्ति स्वतः मिट जाती है।
स्वाभाविक अनासक्ति कैसे उपलब्ध हो सकती है?-
06 FACTS;-
1-अनासक्ति कर्मयोग का यह अर्थ कदापि नहीं है कि तटस्थ रहकर कुछ भी अच्छा बुरा किये जाओ । अनासक्ति कर्मयोग का केवल यह अर्थ है कि अपने कर्मों के फलाफल से प्रभावित होकर कर्म गति में व्यवधान अथवा विराम न आने दें जिससे दिन प्रति दिन अपने कर्मों में सुधार करते हुये परमपद की ओर बढ़ते जायें। क्राइस्ट की तटस्थता, बुद्ध की उपेक्षा, महावीर की वीतरागता और कृष्ण की अनासक्ति, इनमें बहुत-सी समानताएं हैं, लेकिन बुनियादी भेद भी हैं। समानता अंत पर है, उपलब्धि पर है, भेद मार्ग में हैं। अंतिम क्षण में ये चारों बातें एक ही जगह पहुंचा देती हैं। लेकिन चारों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं।
2-न कोई सम्मानित होता है और न अपमानित । जो सतत बदल रहा है और जो तुम नहीं हो, सिर्फ वहीं मान अपमान अनुभव करता है। कोई तुम्हारा सम्मान करता है और अगर तुमने समझा कि यह व्यक्ति मेरा सम्मान कर रहा है तो तुम कठिनाई में पड़ोगे। वह तुम्हें नहीं, तुम्हारी किसी खास अभिव्यक्ति को, किसी रूप विशेष को सम्मानित कर रहा है। वह तुम्हें कैसे जान सकता है क्योकि तुम स्वयं अपने को नहीं जानते हो।
3-तुम दयावान हो, प्रेमपूर्ण हो; वह उसका सम्मान कर रहा है। लेकिन वह दया, वह प्रेम परिधि पर है। अगले क्षण तुम घृणा से भर सकते हो। हो सकता है फूल न रहें; कांटे ही कांटे हों। तुम इतने प्रसन्न न रहो; उदास और दुःखी होओ। तुम कठोर हो सकते हो, क्रोध में हो सकते हो। तब वह तुम्हारा अपमान करेगा। और हो सकता है कि आज वे तुम्हें महात्मा कहें परन्तु कल वे तुम्हारे खिलाफ हो सकते हो। तुम्हें पत्थर मार सकते है।यह इसलिए है कि वे तुम्हारी परिधि से परिचित होते है। वे कभी तुमसे परिचित नहीं होते। यह स्मरण रहे कि वे जो कुछ भी कह रहे है ;वह तुम्हारे संबंध में नहीं है। तुम बाहर छूट जाते हो; तुम परे रह जाते हो। उसकी निंदा, उसकी प्रशंसा,वह जो भी करते है, उसका तुम्हारे साथ कोई भी संबंध नहीं है।
4-अगर तुम अनासक्त रहने का प्रयत्न करते हो तो तुम परिधि पर ही हो; तुम्हें अभी केंद्र का कुछ पता नहीं है। केंद्र सदा अनासक्त है। वह पार है; वह सदा अस्पर्शित है। नीचे कुछ भी घटे, यह केंद्र सदा अनछुआ ही रहता है।तो परस्पर विरोधी स्थितियों में इस विधि का प्रयोग करो;और अपने भीतर उसे अनुभव करते चलो जो सदा समान है।जब कोई तुम्हारा अपमान करे तो अपने ध्यान को उस बिंदू पर ले जाओ जहां तुम सिर्फ उस व्यक्ति को बिना किसी प्रतिक्रिया के बस सुन रहे हो। यह अपमान की स्थिति है। फिर कोई तुम्हारा सम्मान कर रहा है। उसे भी सुनो, सिर्फ सुनो। निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान, सब में सिर्फ सुनो। तुम्हारी परिधि बेचैन होगी, उसे भी देखो। केवल देखो ,बदलने की कोशिश मत करो। उसे देखो, और स्वयं केंद्र से जुड़े रहो। तब तुम्हें वह अनासक्ति उपलब्ध होगी जो आरोपित नहीं है। जो सहज है, स्वाभाविक है।
5-और एक बार जब तुम्हें इस सहज अनासक्ति की प्रतीति हो जाए तो फिर कुछ भी तुम्हें बेचैन नहीं कर सकेगा। तुम शांत बने रहोगे। संसार में कुछ भी होगा तुम अकंप बने रहोगे। तब कोई तुम्हारी हत्या भी करेगा तो सिर्फ शरीर ही स्पर्श करेगा। तुम अस्पर्शित ,सबके पार रहोगे। और यह पार रहना ही तुम्हें अस्तित्व में प्रवेश देगा। वह पार रहना ही तुम्हें आनंद से, शाश्वत से, सत्य में प्रतिष्ठित करेगा।आदिशंकरा कहते है कि मैं उस व्यक्ति को संन्यासी कहता हूं, जो जानता है कि क्या अनित्य है और क्या नित्य है। क्या चलायमान है और क्या अचल है। भारतीय दर्शन इसे ही विवेक कहता है। परिवर्तन और सनातन की पहचान ही विवेक है, बोध है।तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसमे इस सूत्र का प्रयोग बड़ी गहराई के साथ और बड़ी सरलता के साथ किया जा सकता है।
6-तुम्हें भूख लगी है; इसमे दोनों स्थितियों को स्मरण रखो। भूख की प्रतीति परिधि को होती है। क्योंकि परिधि को ही भोजन की , ईंधन की जरूरत है। तुम्हें भोजन की ,ईंधन की कोई जरूरत नहीं है। यह शरीर की जरूरत है।स्मरण रहे,जब भी भूख लगती है। शरीर को लगती है। तुम बस उसके जानने वाले हो।अगर तुम नहीं होते तो भूख नहीं जानी जा सकती है। और अगर शरीर नहीं होता तो भूख नहीं होती। शरीर को भूख तो लग सकती है, लेकिन उसे उसका ज्ञान नहीं हो सकता है। और तुम जानते तो हो, लेकिन तुम्हें भूख नहीं लगती।तो कभी मत कहो कि मुझे भूख लगी है।सदा यही कहो,और महसूस करने का प्रयास करो की किसे भूख लगी है।अपने जानने पर जोर दो ... यही विवेक है।तुम बूढ़े हो, कभी मत कहो कि मैं बूढ़ा हूं, इतना ही कहो कि यह शरीर बूढा हो गया है और तब मृत्यु के क्षण में तुम जान सकोगे कि मैं नहीं मर रहा। यह शरीर मर रहा है। मैं केवल शरीर बदल रहा हूं ,घर बदल रहा हूं। और अगर यह विवेक प्रगाढ़ हो तो किसी दिन अचानक आत्मबोध घटित हो जाएगा।
......SHIVOHAM.......
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