विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 77,78 वीं (अंधकार-संबंधी तीन विधियां) विधियां क्या है?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 77 ;-
07 FACTS;-(अंधकार संबंधी दूसरी विधि)
1-भगवान शिव कहते है:-
‘जब चंद्रमाहीन वर्षा की रात उपलब्ध न हो तो आंखें बंद करो और अपने सामने अंधकार को देखो। फिर आंखे खोलकर अंधकार को देखो। इस प्रकार दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है।’
2- यह सूत्र उसकी कुंजी देता है।‘जब चंद्रमाहीन वर्षा की रात उपलब्ध न होतो आंखें बंद करो और अपने सामने अंधकार को देखो।’आरंभ में यह अंधकार झूठा होगा।लेकिन तुम इसे सच्चा बना सकते हो, और यह इसे सच्चा बनाने का उपाय है।
‘फिर आंखें खोलकर अंधकार को देखो।’पहले अपनी आंखें बंद करो और अंधकार को देखो। फिर आंखें खोलों और जिस अंधकार को तुमने भीतर देखा उसे बाहर देखो। अगर बाहर वह विलीन हो जाए तो उसका अर्थ है कि जो अंधकार तुमने भीतर देखा था वह झूठा था।यह कुछ ज्यादा कठिन है। पहली विधि में तुम असली अंधकार को भीतर लिए चलते हो। दूसरी विधि में तुम झूठे अंधकार को बाहर लाते हो।आंखें बंद करो अंधेरे को महसूस करो। आंखे खोलों और खुली आंखों से अंधेरे को बाहर फेंको। इस भांति तुम भीतर के झूठे अंधकार को बाहर फेंकते हो। उसे बाहर लाते रहो और फेंकते रहो।इसमें कम से कम तीन से छह सप्ताह का समय लगेगा।और तब एक दिन तुम अचानक भीतर के अंधकार को बाहर लाने में सफल हो जाओगे। और जिस दिन तुम भीतर के अंधकार को बाहर ला सको,तुमने सच्चे आंतरिक अंधकार को पा लिया।
3-सच्चे को ही बाहर लाया जा सकता है। झूठे को नहीं लाया जा सकता है।अगर तुम भीतरी अंधकार को बाहर ला सकते हो तो तुम इसे प्रकाशित कमरे में भी बाहर ला सकते हो। और अंधकार का टुकड़ा तुम्हारे सामने फैल जाएगा। यह बहुत अद्भुत अनुभव है, क्योंकि कमरा प्रकाशित है। सूर्य के प्रकाश में भी यह संभव है; अगर तुम आंतरिक अंधकार को पा सके तो तुम उसे बाहर भी ला सकते हो ,देख सकते हो।एक बार तुम जान गए कि ऐसा हो सकता है तो तुम भरी दोपहरी में भी अंधेरी से अंधेरी रात जैसा अंधकार फैला सकते हो। तिब्बत में इसी तरह की अनेक विधियां है।वे चीजों को भीतरी जगत से बाहरी जगत में ला सकते है।एक प्रसिद्ध विधि है ...जिसे ताप-योग कहते है। सर्द रात में, बर्फ जैसी सर्द रात में बर्फ गिर रही है। एक तिब्बती लामा उस सर्द राम में जब चारों और बर्फ गिर रही है। और तापमान शून्य से नीचे हो, खुले आकाश के नीचे बैठता है और उसके शरीर से पसीना बहने लगता है।शरीर शास्त्र के हिसाब से ये चमत्कार है। पसीना कैसे निकलने लगता है। वह भीतरी ताप को बाहर ला रहा है। वैसे ही आंतरिक शीतलता को भी बाहर लाया जा सकता है।सर्दी के समय में वे ध्यान करने के लिए सर्द स्थान चुनते है और गर्मी के दिनों में गर्म स्थान चुनते है।वास्तव में वे इसी तरह की किसी आंतरिक विधि का प्रयोग करते है ।
4-जब गर्मी पड़ती है तो वे भीतरी शीतलता को बाहर लाने का प्रयोग करते है और यह विपरीत स्थिति में ही अनुभव किया जा सकता है।वह आंतरिक शीतलता बाहर आकर उनके शरीर की रक्षा करती है। वे शरीर के शत्रु नही है ,केवल आंतरिक को बाहर ला रहे है ।इस तरह तुम अपने आंतरिक अंधकार को बाहर ला सकते हो। और वह अनुभव बहुत शीतल होता है। अगर तुम उसे ला सके तो तुम उससे सुरक्षित रहोगे। कोई मनोवेग तुम्हें विचलित नहीं कर सकेगा।तो प्रयोग करो। ये तीन बातें है। एक अंधकार में खुली आंखों से देखा और अंधकार को अपने भीतर प्रवेश करने दो। दूसरी अंधकार को अपने चारों और मां के गर्भ की तरह अनुभव करो, उसके साथ रहो ओर उसमें अपने को अधिकाधिक भूल जाओ। और तीसरी बात जहां भी जाओ अपने ह्रदय में अंधकार का एक टुकड़ा साथ लिए जाओ।अगर तुम यह कर सके तो अंधकार प्रकाश बन जाएगा। तुम अंधकार के द्वारा Enlightened हो जाओगे।
5-यह विधि है। पहले इसे अपने भीतर गहन अनुभव करो, ताकि तुम उसे बाहर देख सको। फिर आंखों को अचानक खोल दो और बाहर अनुभव करो। इसमे थोड़ा समय जरूर लगेगा।अगर तुम आंतरिक अंधकार को बाहर ला सके तो दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है।क्योंकि आंतरिक अंधकार अनुभव में आ जाए तो तुम इतने शीतल, इतने शांत इतने अनुद्विग्न हो जाओगे कि दोष तुम्हारे साथ नहीं रह सकेगा।वास्तव में, दोष अपने आप नहीं रहते बल्कि तभी तक रहते है जब तक तुम उत्तेजित होने की हालत में रहते हो।; वे तुम्हारी उत्तेजना की क्षमता में ही रहते है। कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है और तुम्हारे भीतर उस अपमान को पीने के लिए क्रोधित हो जाते हो।तुम वह सब कर सकते हो जो सिर्फ पागल व्यक्ति ही कर सकता है अथार्त अब तुम विक्षिप्त हो। फिर कोई व्यक्ति तुम्हारी प्रशंसा करता है और तुम दूसरे छोर पर विक्षिप्त हो। तुम्हारे चारों और स्थितियाँ है और तुम उन्हें चुपचाप आत्मसात करने में समर्थ नहीं हो।
6-किसी आत्मज्ञानी का अपमान करो। वे आत्मसात कर लेंगे।वास्तव में, अंधकार का, शांति का आंतरिक पुंज उसे पचा लेता है। तुम कुछ भी विषाक्त फेंको, वह आत्मसात हो जाता है। उससे कोई प्रतिक्रिया नही लौटती है।इसे प्रयोग करो। जब कोई तुम्हारा अपमान करे तो इतना ही स्मरण रखो कि मैंअंधकार से भरा हूं।और सहसा तुम्हें प्रतीत होगा कि कोई प्रतिक्रिया नहीं उठती है।वह बिलकुल प्रायोगिक विधि है। इसमें विश्वास करने की जरूरत नहीं है।जब भी तुम्हें मालूम पड़े कि मैं कामना से, भरा हुआ हूं तो आंतरिक अंधकार को स्मरण करो। एक क्षण के लिए आंखें बंद करो। अंधकार की भावना करो और तुम देखोगें कि कामना विदा हो गई है। आंतरिक अंधकार ने उसे पचा लिया। तुम एक असीम शून्य हो गए हो। जिसमें कोई भी चीज गिर कर फिर वापस लौट सकती है।अब तुम एक अतल खाई हो ।इसलिए भगवान शिव कहते है: ‘इस प्रकार दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है।
7-’ये विधियां आसान मालूम पड़ती है लेकिन उन्हें प्रयोग किए बगैर मत छोड़ देना ।यह हमेशा होता है कि हम सरल चीजों को प्रयोग नहीं करते है। हम सोचते है कि वे इतनी सरल है कि सच नहीं हो सकती है और सत्य सदा सरल होता है।सत्य कभी जटिल नहीं होता ; सिर्फ झूठ जटिल होता है।वास्तव में, हमारा अहंकार तभी चुनौती पाता है जब कोई चीज बहुत कठिन हो। इसी कारण अनेक संप्रदायों ने अपनी विधियों को जटिल बना दिया है। लेकिन उसकी कोई जरूरत नहीं है। वे उसमे अनावश्यक जटिलता और अवरोध निर्मित करते है ताकि वे कठिन हो सकें और तुम्हें पसंद आएं। उनसे तुम्हारे अहंकार को चुनौती मिले।अगर कोई चीज बहुत कठिन हो, जिसे बहुत थोड़े लोग करने में समर्थ हों, तो तुम्हें लगता है कि यह करने जैसा है।ये विधियां एक दम सरल है।भगवान शिव विधि का वर्णन सरलतम रूप में, कम से कम शब्दों में सूत्र के रूप में प्रकट कर रहे है। ये विधियां तुम्हें अहंकार की यात्रा पर ले जाने के लिए नहीं है बल्कि यदि तुम इनका प्रयोग करोगे तो वे तुम्हें रूपांतरित कर देंगी।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 78;-
08 FACTS;-
(अंधकार संबंधी तीसरी विधि)
1-भगवान शिव कहते है:-
‘’जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान (ATTENTION)उतरे, उसी बिंदु पर अनुभव।‘’
2-इस विधि में सबसे पहले तुम्हें अवधान साधना होगा, अवधान का विकास करना होगा ;तो ही यह विधि संभव होगी। और तब जहां भी तुम्हारा अवधान उतरे, तुम स्वयं को अनुभव कर सकते हो। एक फूल को देखने भर से तुम स्वयं को अनुभव कर सकते हो।तब फूल को देखना सिर्फ फूल को ही देखना नहीं है। वरन देखने वाले को भी देखना है। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम अवधान का रहस्य जान लो।उदाहरण के लिए तुम फूल को देखते हो और सोच सकते हो कि मैं फूल को देख रहा हूं। लेकिन तुमने तो फूल के बारे में विचार करना शुरू कर दिया और तुम फूल को चूक गये। तुम वहां नहीं हो जहां फूल है। तुम कहीं और चले गए, तुम दूर हट गए। अवधान का अर्थ है कि जब तुम फूल को देखते हो तो तुम केवल फूल को ही देखते हो। कोई दूसरा काम नहीं करते हो ..मानों वक्त ठहर गया है। अब फूल का सीधा अनुभव भर है। तुम यहां हो और फूल वहां है और दोनों के बीच कोई विचार नहीं है ।
3-यदि यह संभव हो तो अचानक तुम्हारा अवधान फूल से लौटकर स्वयं पर आ जाएगा और एक सर्किल बन जाएगा। तुम फूल को देखोगें और वह दृष्टि वापस लौटेंगी; फूल उसे वापस कर देगा अथार्त द्रष्टा पर ही लौटा देगा। अगर विचार न हो तो यह घटित होता है। तब तुम फूल को ही नहीं देखते बल्कि देखने वाले को देखते हो। तब देखने वाला और फूल दो आब्जेक्ट्स हो जाते है और तुम दोनों के साक्षी हो जाते हो।लेकिन पहले अवधान को प्रशिक्षित करना होगा। तुममें अवधान बिलकुल नहीं है और हमेशा बदलता भी रहता है ...यहां से वहां और वहां से कही और। तुम एक क्षण के लिए भी अवधान पूर्ण नहीं रहते हो।यदि कोई बोल रहा तो तुम बात कभी नहीं सुनते। तुम एक शब्द सुनते हो और फिर तुम्हारा अवधान और कहीं चला जाता है। फिर तुम्हारा अवधान वापस उस बात पर आता है। फिर तुम एक शब्द सुनते हो, फिर तुम्हारा ध्यान कही और चला जाता है।
तुम थोड़े से शब्द सुनते हो और बाकी के खाली स्थानों पर अपने शब्द डाल लेते हो। और सोचते हो कि तुमने उसे पूरा सुना है।
लेकिन तुम जो भी सुनते हो वह तुम्हारी अपनी रचना है।
4-वास्तव में, तुमने किसी से थोड़े से शब्द सुने और खाली जगह पर अपने शब्द भर दिये। और तुम जितनी खाली जगह को भरते हो, वह पूरी बात को बदल देती है।कोई एक शब्द बोलता हैऔर तुमने उसके संबंध में झट सोचना शुरू कर दिया; तुम मौन नहीं रह सकते। यदि तुम सुनते हुए मौन रह सको तो तुम अवधान पूर्ण हो। अवधान का अर्थ है वह मौन सजगता ...शांत बोध। जिसमें विचारों का कोई व्यवधान न हो, बाधा न हो।अवधान करके ही तुम उसका विकास कर सकते हो; इसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। अवधान दो और उसे बढ़ाते जाओ,लेकिन केवल प्रयोग से ही यह विकसित होगा।तुम अवधान को कहीं भी विकसित कर सकते हो। तुम कार में या रेलगाडी में यात्रा कर रहे हो। वही अवधान को बढ़ाने का प्रयोग करो। समय का सदुपयोग करो और विचार मत करो। किसी व्यक्ति को देखो, रेलगाड़ी को देखो या बाहर देखो,पर द्रष्टा रहो। इससे तुम्हारी दृष्टि सीधी, प्रत्यक्ष और गहरी हो जाएगी और सब तरफ से तुम्हारी दृष्टि वापस लौटने लगेगी।तब तुम द्रष्टा के प्रति बोध से भर जाओगे।
5-वास्तव में, तुम्हें अपना बोध नहीं है। तुम अपने प्रति सावचेत नहीं हो क्योंकि विचारों की एक दीवार है।जब तुम एक फूल को देखते हो तो पहले तुम्हारे विचार तुम्हारी दृष्टि को बदल देते है; वह उसे अपना रंग दे देते है। और वह दृष्टि वापस आती है।लेकिन वह तुम्हें कभी वहां नहीं पाती क्योकि तुम कहीं और चले गए होते हो।प्रत्येक दृष्टि और प्रत्येक वस्तु वापस लौटती है ,
प्रतिबिंबित होती है।लेकिन तुम उसे ग्रहण करने के लिए वहां मौजूद नहीं होते। तो उसके ग्रहण के लिए मौजूद रहो। पूरे दिन तुम अनेक चीजों पर यह प्रयोग कर सकते हो। और धीरे-धीरे तुम्हारा अवधान विकसित होगा। तब इस अवधान के साथ एक प्रयोग करना है।‘जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।’अब तुम स्वयं को अनुभव करोगे। लेकिन पहली शर्त है अवधान पूर्ण होने की क्षमता को प्राप्त करना। और तुम इसका अभ्यास कही भी कर सकते हो। उसके लिए अतिरिक्त समय की जरूरत नहीं है। तुम जो भी कर रहो हो, भोजन कर रहे हो, या स्नान कर रहे हो, बस अवधान पूर्ण होओ।लेकिन समस्या यह है कि हम सब काम मन के द्वारा करते है। और हम निरंतर भविष्य के लिए योजनाएं बनाते है। तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हो और तुम्हारा मन किन्हीं दूसरी यात्राओं के कार्यक्रम बनाने में संलग्न है। इसे बंद करना होगा ।
6-झेन संत बोकोजू ने कहा है: ‘मैं यही एक ध्यान जानता हूं। जब मैं भोजन करता हूं तो भोजन करता हूं। जब मैं चलता हूं तो चलता हूं। और जब मुझे नींद आती है तो मैं सो जाता हूं। जो भी होता है; होता है, उसमें मैं कभी हस्तक्षेप नहीं करता।’इतना ही करने को है कि हस्तक्षेप मत करो। और जो भी घटित होता हो उसे घटित होने दो। तुम सिर्फ वहां मौजूद रहो। यही चीज तुम्हें अवधान पूर्ण बनाएगी। और जब तुम्हें अवधान प्राप्त हो जाए तो यह विधि तुम्हारे हाथ में है।तब तुम अनुभव करने वाले को अनुभव करोगे और स्वयं पर लौट आओगे। सारा अस्तित्व दर्पण बन जाएगा और पूरा अस्तित्व तुम्हें प्रतिबिंबित करेगा।और केवल तभी तुम स्वयं को जान सकते हो..उसके पहले नहीं ।तुम इतने असीम हो कि छोटे दर्पणों से नहीं चलेगा। तुम अंतस से इतने विराट हो कि जब तक सारा आस्तित्व दर्पण न बने, तुम्हें झलक नहीं मिल पाएगी। जब समस्त अस्तित्व दर्पण बन जाता है, केवल तभी तुम प्रतिबिंबित हो सकते हो। तुम्हारे भीतर परब्रह्म विराजमान है।और अस्तित्व को दर्पण बनाने की विधि है ...अवधान पैदा करो, ज्यादा सावचेत बनो, और जहां कहीं तुम्हारा अवधान उतरे ..जहां भी, जिस किसी विषय पर भी तुम्हारा ध्यान जाए ..अचानक स्वयं को अनुभव करो।
7-यह संभव है। लेकिन अभी तो यह असंभव है क्योंकि तुमने बुनियादी शर्त नहीं पूरी की है। तुम एक फूल को देख सकते हो। लेकिन वह अवधान नहीं है। अभी तो तुम फूल के चारों और बाहर-भीतर धूम रहे हो ; तुम उसके साथ क्षण भर के लिए नहीं रहे हो। रुको, अवधान पैदा करो, सावचेत बनो, और समस्त जीवन ध्यान पूर्ण हो जाता है। इस विधि के सहयोगी होने का एक गहरा कारण है। तुम एक गेंद को दीवार पर मारो; गेंद वापस लौट आयेगी। जब तुम किसी फूल या किसी चेहरे को देखते हो तो तुम्हारी कुछ ऊर्जा उस दशा में गति कर रही है। तुम्हारा देखना ही ऊर्जा है। तुम्हें पता नहीं है कि जब तुम देखते हो तो तुम थोड़ी ऊर्जा फेंक रहे हो। तुम्हारी ऊर्जा का, तुम्हारी जीवन ऊर्जा का एक अंश फेंका जा रहा है। यही कारण है कि दिन भर रास्ते पर देखते-देखते तुम थक जाते हो। तुम चलते हुए लोग, विज्ञापन, भीड़ ,दुकानें देखते देखते थकान अनुभव करते हो। और आराम करने के लिए आंखें बंद कर लेना चाहते हो। तुम इतने थके हो क्योकि तुम ऊर्जा फेंकते रहे हो।
8-सभी महान संत इस पर जोर देते है कि उनके शिष्य चलते हुए दूर तक न देखें। जमीन पर दृष्टि रखकर चलें। तुम सिर्फ चार फीट आगे तक देख सकते हो। इधर-उधर कहीं मत देखो। सिर्फ अपनी राह को देखो जिस पर चल रहे हो। चार फीट से ज्यादा दूर मत देखो क्योंकि तुम्हें अकारण अपनी ऊर्जा का अपव्यय नहीं करना है।जब तुम देखते हो तो तुम थोड़ी ऊर्जा बाहर फेंकते हो। रुको, मौन प्रतीक्षा करो,उस ऊर्जा को वापस आने दो और तुम चकित हो जाओगे। अगर तुम ऊर्जा को वापस आने देते हो तो तुम कभी नहीं थकोंगे। इस विधि का प्रयोग करो। शांत हो जाओ। किसी चीज को देखो।शांत रहो। उसके बारे में विचार मत करो। और एक क्षण धैर्य से प्रतीक्षा करो। ऊर्जा वापस आएगी और तुम ज्यादा प्राणवान हो जाओगे।तुम रोज बारह घंटे पढ़ सकते हो और कभी-कभी अठारह घंटे भी;लेकिन अगर तुम निर्विचार मौन होकर पढ़ो तो ऊर्जा वापस आ जाती है। तब आंखों में कभी कोई अड़चन, कभी कोई थकान अनुभव नहीं होगी क्योंकि ऊर्जा व्यर्थ नहीं होती है। और तुम कभी थकान अनुभव नहीं करोगे।वास्तव में, निर्विचार अवस्था में ऊर्जा लौट आती है।और अगर तुम वहां मौजूद हो तो तुम उसे पुन: आत्मसात कर लेते हो। और वह पुन: आत्मसात करना तुम्हें Regenerate कर देता है। सच तो यह है कि तुम्हारी आंखें थकनें के बजाय ज्यादा शिथिल, ज्यादा प्राणवान, ज्यादा ऊर्जावान हो जाती है।
....SHIVOHAM...