विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 82,83वीं विधियां (अहंकार —संबंधी तीन विधियां )क्या है?
NOTE;-महान शास्त्रों और गुरूज्ञान का संकलन...
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 82 ;-
15 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''अनुभव करो: मेरा विचार,मैं-पन, आंतरिक इंद्रियाँ—मुझ।''
2-यह बहुत ही सरल और अति सुंदर विधि है।पहली बात यह है कि विचार नहीं करना है,अनुभव करना है। विचार करना और अनुभव करना दो भिन्न-भिन्न आयाम है। और हम बुद्धि से इतनी ग्रस्त हो गए है कि जब हम यह भी कहते है कि हम अनुभव करते है तो भी हम अनुभव नही करते,सोच-विचार ही करते है। तुम्हारा भाव-पक्ष, तुम्हारा ह्रदय-पक्ष, बिलकुल बंद हो गया है, मुर्दा हो गया है। जब तुम कहते हो कि, ‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूं।’ तो भी वह भाव नहीं होता, विचार ही होता है।परन्तु भाव और विचार में फर्क है ...वास्तव में,अगर तुम भाव करोगे तो तुम अपने को ह्रदय के पास केंद्रित अनुभव करोगे।उसका स्त्रोत कहीं ह्रदय के आसपास होगा। और अगर वह विचार मात्र होगा तो वह सिर से आता होगा। जब तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो यह महसूस करने की कोशिश करो कि यह प्रेम सिर से आ रहा है या ह्रदय से।
3-जब भी तुम किसी प्रगाढ़ भाव में होते हो तो तुम सिर के बिना होते हो। उस क्षण कोई सिर नहीं होता है; हो भी नहीं सकता। तब ह्रदय तुम्हारा समस्त अस्तित्व होता है ...मानों सिर है ही नहीं। भाव की अवस्था में ह्रदय तुम्हारे होने का केंद्र होता है।
जब तुम सोच-विचार कर रहे होते हो तब सिर तुम्हारे होने का केंद्र होता है।और क्योंकि विचार करना जीने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। इसलिए हमने और सब कुछ बंद कर दिया। हमारे जीवन के अन्य सभी आयाम बंद हो गये है। हम सिर ही सिर रह गये है। और हमारे शरीर सिर के आधार भर है। हम सोच विचार ही करते रहते है। हम अपने भावों के बारे में भी विचार ही करते रहते है।तो भाव में उतरने की कोशिश करो। तुम्हें थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी; क्योंकि भाव का गुण कुंठित पडा है। उस संभावना का द्वार पुन: खोलने के लिए तुम्हें कुछ करना होगा।
4-तुम एक फूल को देखते हो, और देखते ही कहते हो कि यह सुंदर है। थोड़ा रुको, जरा प्रतीक्षा करो ..जल्दी निर्णय मत करो। और फिर देखो कि कहीं तुमने सिर से ही तो यह नहीं कह दिया कि यह सुंदर है। क्योंकि तुम जानते हो कि गुलाब सुंदर होता है। गुलाब को सुंदर समझा जाता है। लोग कहते है कि यह सुंदर है और तुमने भी अनेक बार कहा है कि सुंदर है।जैसे ही तुम गुलाब को देखते हो, मन कहता है कि यह सुंदर है। बात खत्म हुई। अब गुलाब से कोई संपर्क नहीं रहा।अब तुम अन्यत्र जा सकते हो।वास्तव में,गुलाब से कोई मिलन न हुआ;क्योंकि मन बीच में आ गया और ह्रदय गुलाब के संपर्क में न आ सका।केवल ह्रदय कह सकता है कि यह सुंदर है या नहीं। क्योंकि सौंदर्य एक भाव है, कोई विचार नहीं है। तुम बुद्धि से नहीं कह सकते कि यह सुंदर है। सौंदर्य कोई गणित नहीं है; वह गणनातीत है।और यह भी संभव है कि किसी अन्य के लिए गुलाब कुरूप हो। तो सौंदर्य केवल गुलाब में नहीं है। सौंदर्य तो ह्रदय ओर गुलाब के मिलन में है।
5-जब ह्रदय गुलाब से मिलता है तो सौदर्य का फूल खिलता है। जब ह्रदय किसी चीज के प्रगाढ़ संपर्क से आता है तो बड़ी अद्भुत घटना घटती है।जब तुम किसी व्यक्ति के प्रगाढ़ संपर्क में आते हो तो वह व्यक्ति सुंदर हो जाता है। और यह मिलन जितना ज्यादा गहरा होता है उतना ही ज्यादा सौंदर्य प्रकट होता है। तो सौंदर्य वह भाव है जो ह्रदय को घटित होता है। मस्तिष्क को नहीं। यदि कोई कहे कि गुलाब सुंदर नहीं है। तो तुम विवाद नहीं कर सकते हो, कि 'क्यों'.. विवाद करने की जरूरत भी नहीं है। तुम कहोगे: ‘यह तुम्हारा भाव है और गुलाब सुंदर है ...यह मेरा भाव है।’ मस्तिष्क विवाद कर सकता है, ह्रदय विवाद नहीं कर सकता। बात वहीं खत्म हो गई: पूर्ण विराम आ गया।सिर के तल पर विवाद जारी रह सकता है। और फिर हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते है। ह्रदय के तल पर निष्कर्ष पहले ही आ चुका है।उसका निष्कर्ष तत्काल होता है।ह्रदय से निष्कर्ष तक पहुंचने की कोई प्रक्रिया नहीं है।सिर से निष्कर्ष पर पहुचने की एक प्रक्रिया है, एक व्यवस्था है।
6-इस पर ध्यान देना है कि सिर के तल पर निष्कर्ष अंत में आता है; ह्रदय के तल पर निष्कर्ष पहले ही आता है। ह्रदय से तुम निष्कर्ष पहले ले लेते हो और तब तुम प्रक्रिया खोजते हो। यह प्रक्रिया खोजना सिर का काम है।तो ऐसी विधियों के प्रयोग में पहली कठिनाई यह है कि तुम्हें यही पता नहीं है कि भाव क्या है। पहले भाव को विकसित करने की कोशिश करो। जब तुम किसी चीज को छुओ तो आंखें बंद कर लो ..विचार मत करो। अनुभव करो। उदाहरण के लिए, कोई तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता है, और कहता है कि आंखें बंद करो और महसूस करो कि क्या हो रहा है। तो तुम तुरंत कहोगे कि 'आपका हाथ मेरे हाथ में है'।लेकिन यह भाव नहीं विचार है।और ‘विचार नहीं, अनुभव करो।’ तब तुम कह सकते हो...‘आप प्रेम प्रकट कर रहे है।’ वह भी विचार है। अगर फिर जोर दिया जाये कि अनुभव करो। तो सिर को बीच में मत लाओ। तभी तुम कुछ अनुभव कर पाओगे। और तब तुम कहोगे: ‘उष्मा अनुभव कर रहा हूं।’ ‘आपका हाथ मेरे हाथ में है’ ...यह सिर से निकला हुआ विचार है। सच्ची बात यह है कि किसी के हाथ से तुम्हारे हाथ में या तुम्हारे हाथ से किसी के हाथ में एक उष्मा प्रवाहित हो रही है।
7-जीवन-ऊर्जाओं का मिलन हो रहा है। और मिलन का बिंदु उष्मा से भरा है। यह भाव है। अनुभव है, संवेदना है। लेकिन हम निरंतर सिर में रहते है। वह हमारी आदत हो गई है। हमें उसका ही प्रशिक्षण मिला है। तो तुम्हें अपने बंद ह्रदय को फिर से खोलना होगा।भावों के साथ रहने की चेष्टा करो।लेकिन कार्य में व्यस्त रहकर शुरू-शुरू में भावों के साथ जीना कठिन होगा। जब तुम अपने घर पर बच्चों के साथ खेल रहे हो तो वहां सिर की जरूरत नहीं है ..यह कार्य नहीं है।तो अपने बच्चों के साथ खेलते हुए, या कुछ भी न करते हुए, कुर्सी पर विश्राम करते हुए ..भाव में जीओं, अनुभव करो।हवा चल रही है ..अंदर आ रही है, वह तुम्हें स्पर्श कर रही है, तुम्हें कैसा महसूस हो रहा है। रसोईघर से गंध आ रही है; वह कैसी लग रही है। उसे महसूस करो;उस पर विचार मत करो। सोच-विचार मत करने लगो कि रसोईघर में कुछ पक रहा हे। तथ्य है उसे महसूस करो और तथ्य के साथ रहो; विचार में मत भटकों।सभी ओर से अस्तित्व तुमसे मिलने के लिए आ रहा है। तुम्हारी सभी इंद्रियों से होकर तुममें प्रवेश कर रहा है। लेकिन तुम हो कि अपने सिर में बंद हो।
8-तुम्हारी इंद्रियाँ मुर्दा हो गई है। वे कुछ भी महसूस नहीं करती है।तो इसके पहले कि तुम यह विधि प्रयोग करो, थोड़ा संवेदना का विकास जरूरी है। क्योंकि यह आंतरिक प्रयोग है।जब तुम बाह्य को ही नहीं अनुभव कर सकते तो तुम्हारे लिए आंतरिक को अनुभव करना बहुत कठिन है। क्योंकि आंतरिक सूक्ष्म है; अगर तुम स्थूल को नहीं अनुभव कर सकते तो सूक्ष्म को कैसे कर सकते हो। अगर तुम ध्वनियों को नहीं सुन सकते हो तो आंतरिक मौन को, निशब्द को, अनाहत नाद को सुनना कठिन होगा। वह बहुत ही सूक्ष्म है।तुम बग़ीचे में बैठे हो और सड़क पर ट्रैफिक है, शोरगुल है और तरह-तरह की आवाजें आ रही है। तुम अपनी आंखें बंद कर लो और वहां होने वाली सबसे सूक्ष्म आवाज को पकड़ने की कोशिश करो। कोई कौआ कांव-कांव कर रहा है; कौए की इस कांव-कांव पर अपने को एकाग्र करो। सड़क पर यातायात का भारी शोर है। इसमें कौए की आवाज इतनी धीमी है , इतनी सूक्ष्म है कि जब तक तुम अपने बोध को उस पर एकाग्र नहीं करोगे तुम्हें उसका पता नहीं चलेगा। लेकिन अगर तुम एकाग्रता से सुनोंगे तो सड़क का सारा शोरगुल दूर हट जाएगा। और कौए की आवाज केंद्र बन जाएगी। और तुम उसे सुनोंगे, उसके सूक्ष्म भेदों को भी सुनोंगे। वह बहुत सूक्ष्म है। लेकिन तुम उसे सुन पाओगे।
9-तो अपनी संवेदनशीलता को बढ़ाओं। जब कुछ सुनो, भोजन करो या स्नान करो तो अपनी इंद्रियों को खुला रहने दो और विचार मत करो। अनुभव करो कि तुम स्नान कर रहे हो; अपने ऊपर गिरते हुए पानी की ठंडक को महसूस करो। उस पर विचार मत करो कि पानी ठंडा है ,बहुत अच्छा है। कुछ मत कहो, कोई शब्द मत दो। क्योंकि जैसे ही तुम शब्द देते हो, तुम अनुभव से चूक जाते हो। जैसे ही शब्द आते है, मन सक्रिय हो जाता है।मन की इस सतत बातचीत को बंद करो तो ही तुम अपने भावों को प्रगाढ़ कर सकते हो। और अगर भाव प्रगाढ़ हो तो यह विधि तुम्हारे लिये चमत्कार कर सकती है।आंखों को बंद कर लो और विचार को अनुभव करो। विचारों की सतत धारा चल रही है; इन विचारों को अनुभव करो।और उनकी उपस्थिति को अनुभव करो। तुम जितना ही उन्हें अनुभव करोगे, वे उतने ही अधिक प्रकट होंगे ...पर्त दर पर्त।और विधि कहती है, ‘अनुभव करो, मेरा विचार।’
10- हम कहे चले जाते है कि ‘ये मेरे विचार है।’ लेकिन तुम जितना ही अनुभव करोगे ..उतना ही तुम्हारे लिए वह कहना कठिन होगा कि वे मेरे है। वे सब उधार है; वे सब बाहर से आए है। कोई विचार तुम्हारा नहीं है।और अगर तुम पूरी चेष्टा करोगे तो तुम जान लोगे कि यह विचार कहीं से आया है।सिर्फ आंतरिक मौन तुम्हारा है। किसी ने तुम्हें यह नहीं दिया है। तुम इसके साथ ही पैदा हुए थे और इसके साथ ही तुम मरोगे। विचार तुम्हें दिए गये है। तुम उनसे संस्कारित हो। अगर तुम हिंदू हो तो तुम्हारे विचार एक तरह के है। अगर तुम मुसलमान हो तो तुम्हारे विचार और तरह के है। और अगर तुम कम्युनिस्ट हो तो तुम्हारे विचार कुछ और ही है। वे तुम्हें दिये गये है। या संभवत: तुमने उन्हें स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ है। लेकिन कोई विचार तुम्हारा नहीं है।अगर तुम्हें यह अनुभव हो कि कोई विचार मेरा नहीं है। तो ही तुम मन को अपने से अलग कर सकते हो। अगर वे विचार तुम्हारे है तो तुम उनका बचाव करोगे।यही तो आसक्ति है, लगाव है। और जब मैं देखता हूं कि कोई विचार मेरा नहीं है तो वह निर्मूल हो जाता है ;तब मेरा उससे कोई लगाव नहीं रहता है। ‘मेरे’ का भाव ही लगाव पैदा करता है।
11-तुम अपने विचारों के लिए लड़ सकते हो। लेकिन विचार तुम्हारे नहीं है ...चैतन्य तुम्हारा है।विचार के मिटते ही सारा संसार मिट जाता है। तब तुम संसार में रह कर भी संसार में नहीं रहते हो।क्योंकि विचार संसार है। तुम हिमालय में भी अपने विचार साथ लिए जाते हो । तुम घर छोड़ देते हो, लेकिन असली घर अंदर है। असली घर विचार की ईटों से बना है। बाहर का घर असली घर नहीं है।यह अजीब बात है, लेकिन एक व्यक्ति संसार छोड़ देता है और वह संन्यासी हो जाता है। और फिर भी हिन्दू या जैन बना रहता है ।वह संसार का त्याग कर देता है। लेकिन विचारों का त्याग नहीं करता।उसका विचारों का संसार अभी भी कायम है। और विचारों का संसार ही असली संसार है।अगर तुम देख सको कि कोई विचार मेरा नहीं है…और तुम देख सकोगे। क्योंकि तुम द्रष्टा होगे, और विचार विषय बन जाएंगे। जब तुम शांत होकर विचारों का निरीक्षण करोगे तो विचार विषय होंगे और तुम देखने वाले द्रष्टा होंगे। तुम साक्षी होगे और विचार तुम्हारे सामने तैरते रहेंगे।
12-तुम देखोगें कि विचार आकाश में बादलों की भांति तैर रहे है और तुम्हारे भीतर उसकी कोई जड़ें नहीं है। वे आते है और चले जाते है।केवल तुम्हारा उनके साथ तादात्म्य हो गया है।विचार बादलों जैसे है। तुम्हारी चेतना के आकाश से वे गुजरते रहते है और तुम उनसे लगाव निर्मित करते रहते हो। तुम कहते हो कि यह बादल मेरा है। और सिर्फ एक आवारा बादल है, जो गुजर रहा है। और यह गुजर जाएगा।अपने बचपन में लौटो । उस समय भी तुम्हारे कुछ विचार थे। और उनसे तुम्हारा लगाव था। और तुम कहते थे कि वे मेरे विचार है। और फिर बचपन विदा हो गया। और बचपन के साथ वे विचार, वे बादल भी विदा हो गये। अब वे तुम्हें याद भी नहीं है।फिर तुम जवान हुए। और तब दूसरे बादल आए, जो जवानी से आकर्षित होकर आते है। और तुमने उनसे भी अपना लगाव बनाया। और अब तुम बूढ़े हो। जवानी के विचार अब नहीं है; वे अब तुम्हें याद तक नहीं है। और कभी वे इतने महत्वपूर्ण थे कि तुम उनके लिए जान तक दे सकते थे। अब तुम अपनी उस मूढ़ता पर हंस सकते हो। तुम उसके लिए मर सकते थे कि अब तुम उनके लिए दो कौड़ी भी खर्च करने को राज़ी नहीं हो। वे अब तुम्हारे न रहे। वे बादल चले गए। लेकिन उनकी जगह दूसरे बादल आ गए है और तुम उन्हें पकड़कर बैठ गए हो।
13-बादल बदलते रहते है, लेकिन तुम्हारा लगाव, तुम्हारी पकड़ नहीं बदलती। यही समस्या है। और ऐसा नहीं है कि तुम्हारे बचपन के जाने पर ही बादल बदलते है। वे प्रतिपल बदल रहे है। एक मिनट पहले तुम एक तरह के बादलों से घिरे थे, अब तुम और तरह के बादलों से घिरे हो। तुम प्रत्येक बादल के साथ चिपक जाते हो .. लगाव बना लेते हो। अगर अंत में तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं आता है तो यह स्वाभाविक है,क्योंकि बादलों से क्या मिल सकता है? और विचार बादल ही है।यह विधि जड़ से ही शुरू करती है। और विचार ही सबकी जड़ है। अगर ‘मेरे’ के भाव को उसकी जड़ में ही काट सको तो वह फिर प्रकट नहीं होगा ..वह फिर कहीं नहीं दिखाई पड़ेगा। और अगर तुम उसे जड़ से नहीं काटते हो तो फिर और कहीं काटने से कुछ नहीं होगा ..चाहे तुम जितना काटो वह व्यर्थ होगा; वह फिर-फिर प्रकट होता रहेगा।उदाहरण के लिए,' मेरा धर्म', फिर मेरा संप्रदाय , मेरा धर्मग्रंथ, यह बाईबिल है, यह कुरान है, यह मेरा शास्त्र है। इस तरह ‘मेरे’ का भाव किसी दूसरे क्षेत्र में जारी रहता है। और तुम वही के वही रहते हो।‘मेरा विचार’ और तब ‘मैं-पन’ ..विचारों की प्रक्रिया ..प्रवाह को देखो। और खोजों कि कौन से विचार तुम्हारे है, या कि वे भटकते बादल भर है। और जब तुम्हें प्रतीत हो कि कोई विचार तुम्हारे नहीं है।
14-विचारों से ‘मेरे’ को जोड़ना ही भ्रम है। तो तुम आगे बढ़ सकते हो। तब मैं-पन के प्रति होश साधो। यह ‘’मैं’’ कहा है? तिब्बत में भी एक ऐसी ही विधि का उपयोग करते है । वे यह नहीं पूछते कि 'मैं कौन हूं? वे पूछते है कि ‘मैं कहां हूं?’ क्योंकि ये ‘कौन’ समस्या पैदा कर सकता है। जब तुम पूछते हो कि ‘मैं कौन हूं? तो तुम यह तो मान ही लेते हो कि मैं हूं । अब प्रश्न इतना ही है कि मैं कौन हूं। केवल चेहरा पहचानना है; लेकिन वह है..अपरिचित ही सही, पर वह है।तिब्बती विधि कहती है कि मौन हो जाओ और खोजों कि मैं कहां हूं। अपने भीतर प्रवेश करो। एक-एक कोने में जाओ और पूछो: ‘मैं कहां हूं?’ तुम्हें ‘मैं’ कहीं नहीं मिलेगा। तुम उसे जितना ही खोजोगे उतना ही वह वहां नहीं होगा।और यह पूछते-पूछते कि ‘कहां हूं?’ एक क्षण आता है जब तुम उस बिंदु पर होते हो जहां तुम तो होते हो, लेकिन कोई ‘मैं’ नहीं होता। जहां तुम बिना किसी केंद्र के होते हो। लेकिन यह तभी घटित होगा जब तुम्हारी अनुभूति हो कि विचार तुम्हारे नहीं है। यह ज्यादा गहन क्षेत्र है–यह ‘मैं’-पन’...हम इसे कभी अनुभव नहीं करते है।
15-जो शब्द सर्वाधिक उपयोग में किया जाता है वह ‘मैं’ है। लेकिन तुम्हें उसका अनुभव नहीं होता।जब तुम कहते हो 'मैं 'तो उससे क्या मतलब है।कोई इशारा कर सकता है और कह सकता है कि मेरा मतलब यह है। कोई अपने शरीर की तरफ इशारा कर सकता है । लेकिन तब यह पूछा जा सकता है कि तुम्हारा मतलब हाथ से है या पैर से है या कि तुम्हारा मतलब पेट से है। तब तुम्हे इनकार करना पड़ेगा; और इस तरह तुम्हे पूरे शरीर को ही इंकार करना होगा। कहीं गहरे में जब भी तुम ‘मैं’ कहते हो,एक बहुत धुंधला-सा, अस्पष्ट सा भाव होता है। और यह अस्पष्ट भाव तुम्हारे विचारों का है।भाव में स्थित होकर, विचारों से पृथक होकर इस ‘मैं-पन’ का साक्षात करो, इसे सीधे-सीधे देखो। और जैसे-जैसे तुम उसका साक्षात करते हो तुम पाते हो कि वह नहीं है। वह सिर्फ एक उपयोगी शब्द था।आवश्यक था; लेकिन वह सत्य नहीं था। Enlightened one भी उसका उपयोग करते है।लेकिन जब वे ‘मैं’ कहते है तो उसका मतलब अहंकार नहीं होता,क्योंकि वहां कोई भी नहीं है।
क्या है ‘मैं-पन’ का साक्षात्कार ?-
05 FACTS;-
1-जब तुम इस ‘मैं-पन’ का साक्षात करोगे तो यह विलीन हो जाएगा। इस क्षण में तुम्हें भय पकड़ सकता है और यह अनेक लोगों के साथ होता है।तो यह स्मरण रहे कि जब तुम अपने मैं पन को अनुभव करोगे। तो तुम ठीक उसी स्थिति में होगे जिस स्थिति में मृत्यु के समय होगा। ठीक उसी स्थिति में ..क्योंकि ‘मैं’ विलीन हो रहा है। और तुम्हें लगेगा कि मेरी मृत्यु घटित हो रही है। तुम्हें डूबने जैसा भाव होगा कि मैं डूबता जा रहा हूं। और यदि तुम भयभीत हो गये। तो तुम बाहर आ जाओगे। और फिर विचारों को पकड़ लोगे; क्योंकि वे विचार सहयोगी होंगे। वे बादल वहां होंगे; तुम उनसे फिर चिपक जा सकते हो, और तुम्हारा भय जाता रहेगा।पर स्मरण रहे, यह भय बहुत शुभ है। यह एक आशापूर्ण लक्षण है। यह भय बताता है कि तुम गहरे जा रहे हो। और मृत्यु गहनत्म बिंदु है। यदि तुम मृत्यु में उतर सके तो तुम अमृत हो जाओगे। क्योंकि जो मृत्यु में प्रवेश कर जाता है, उसकी मृत्यु असंभव है।तब मृत्यु भी बाहर-बाहर है। मृत्यु कभी केंद्र पर नहीं है। वह सदा परिधि पर है। जब 'मैं पन' विदा होता है तो तुम ठीक मृत्यु जैसे ही हो जाते हो। पुराना गया और नये का आगमन हुआ।
2-यह चैतन्य, जो 'मैं-पन' के जाने पर आता है, सर्वथा नया है। पुराना बिलकुल नहीं बचा और वह मैं-पन विलीन हो जाता है। तुमने अस्तित्व का गहरे से गहरा तल छू लिया है।तो इस तरह सोचो कि विचार, उसके नीचे मैं-पन,उसके नीचे तीसरी चीज..‘अनुभव करो: मेरा विचार, मैं-पन, आंतरिक इंद्रियाँ—मुझ।’जब विचार विलीन हो चुके है या उन पर तुम्हारी पकड़ छूट गई है ..वे चल भी रहे हों तो उनसे तुम्हें लेना-देना नहीं है। तुम पृथक, अनासक्त और विमुक्त हो ...और मैं-पन भी विदा हो गया है, तब तुम आंतरिक इंद्रियों को देखते हो।ये आंतरिक इंद्रियाँ ..यह सबसे गहरी बात है। हम अपने बाह्म इंद्रियों को जानते है। हाथ ,आँख ..ये बाह्म इंद्रियां है। आंतरिक इंद्रियां वे है, जिनमें 'मैं 'अपने होने को देखता है ,महसूस करता है , अनुभव करता है । बाह्म इंद्रियां दूसरों के लिए है।
3-जब विचार ठहर जाते है और जब मैं-पन नहीं बचता है तो उस शुद्धता में, उस स्पष्टता में तुम आंतरिक इंद्रियों को देख सकते हो।चैतन्य, प्रतिभा, मेधा ...ये आंतरिक इंद्रियां है। उनके द्वारा हमें अपने होने का, अपने अस्तित्व का बोध होता है। यही कारण है कि अगर तुम अपनी आंखें बंद कर लो तो तुम अपने शरीर को बिलकुल भूल सकते हो। लेकिन तुम्हारा यह भाव कि 'मैं हूं 'बना ही रहेगा। यह बात बिलकुल सच है ..कि जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो हमारे लिए तो वह मर जाता है, लेकिन उसे थोड़ा समय लग जाता है.. इस तथ्य को पहचानने में कि मैं मर गया हूं। क्योंकि होने का आंतरिक भाव वही का वही बना रहता है।तिब्बत में तो मरने के विशेष प्रयोग है और वे कहते है कि मरने की तैयारी बहुत जरूरी है। उनका एक प्रयोग इस प्रकार है: ‘जब भी कोई व्यक्ति मरने लगता है तो गुरु या पुरोहित, या कोई भी जो ये प्रयोग जानता है, उससे कहता है कि ‘स्मरण रखो, ‘’होश रखो’’ बोध बनाए रखो कि मैं शरीर छोड़ रहा हूं।‘’ क्योंकि जब तुम शरीर छोड़ देते हो तो यह समझने में थोड़ा समय लगता है कि 'मैं' मर गया। क्योंकि आंतरिक भाव वही का वही बना रहता है। उसमें कोई बदलाहट नहीं होती।
4-तुम अपने को किन्हीं अन्य इंद्रियों के द्वारा जानते हो, जो आंतरिक है। लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि हमें अपनी उन इंद्रियों का पता नहीं है।हमारी ही नजर में हमारी जो तस्वीर है। वह दूसरों द्वारा निर्मित है। अगर वे कहते है कि तुम सुंदर हो, या अगर वे कहते है कि तुम कुरूप हो, तो 'मैं' उस पर भरोसा कर लेता है। 'मेरे बारे में 'दूसरों के माध्यम से जो कुछ बताया जाता है ;वही 'मेरे संबंध में' धारणा बन जाती है।अगर तुम अपनी आंतरिक इंद्रियों को पहचान लो तो तुम समाज से बिलकुल मुक्त हो गए। शास्त्रों में यही कहा जाता है कि संन्यासी समाज का हिस्सा नहीं है। क्योंकि वह अब स्वयं को आंतरिक इंद्रियों के द्वारा जानता है। अब उसका अपने संबंध में ज्ञान दूसरों के मत पर आधारित नहीं है। अब उसे स्वयं को जानने के लिए किसी दर्पण की जरूरत नहीं है।क्योंकि उसने आंतरिक दर्पण को पा लिया है।
5-और आंतरिक सत्य को तभी जाना जा सकता है जब तुमने आंतरिक इंद्रियों को पा लिया हो। और तब तुम उन आंतरिक इंद्रियों के द्वारा देख सकते हो।और तब ‘मुझे’ का प्रयोग किया गया है।बाहरी संसार न रहा,विचार न रहे,अहंकार का भाव न रहा और मैंने अपनी आंतरिक इंद्रियों को, चैतन्य को, मेधा को जान लिया है। तब इस आंतरिक इंद्रियों के प्रकाश में ‘मुझे’ का आवरण होता है।यह ‘मुझ’ तुम्हारा नहीं है; यह तुम्हारा अंतरतम है। इस ‘मुझ’ की कोई सीमा नहीं है। इसमें सब कुछ निहित है, समाया है। यह लहर नहीं है; यह सागर ही है।‘अनुभव करो: मेरा विचार, मैं-पन, आंतरिक इंद्रियां।‘और तब एक अंतराल है और अचानक ‘मुझ’ प्रकट होता है। जब यह ‘मुझ’ प्रकट होता है तो व्यक्ति जानता है कि मैं ब्रह्म हूं, ''अहं ब्रह्मास्मि''।अहंकार का दावा नहीं है।अहंकार तो जा चुका। इस विधि के द्वारा तुम अपना रूपांतरण कर सकते हो। लेकिन पहले 'भाव' में स्थिर होओ।
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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 83;-
04 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं। विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।''
2-एक कामना पैदा होती है और कामना के साथ यह भाव पैदा होता है कि मैं हूं। एक विचार उठता है और विचार के साथ यह भाव उठता है कि मैं हूं। इसे अपने अनुभव में ही देखो; कामना के पहले और जानने के पहले अहंकार नहीं है।मौन बैठो और भीतर देखो।एक विचार उठता है। और तुम उस विचार के साथ तादात्म्य कर लेते हो। एक कामना पैदा होती है और तुम उस कामना के साथ तादात्म्य कर लेते हो। तादात्म्य में तुम अहंकार बन जाते हो। फिर जरा सोचो... कोई कामना नही है। कोई ज्ञान नहीं है। कोई विचार नहीं है ...तुम्हारा किसी के साथ तादात्म्य नहीं हो सकता है। अहंकार खड़ा नहीं हो सकता।जब कोई विचार उठे तो अपने भीतर ही देखो कि यह विचार उठ रहा है, अब विचार है ;अब विचार विदा हो रहा है। ऐसा देखने से तादात्म्य नहीं होता।यह विधि सुंदर है और बहुत सरल है। एक विचार उठता है। तुम सड़क पर चल रहे हो, एक सुंदर कार गुजरती है और तुम उसे देखते हो। और तुमने अभी देखा भी नहीं कि उसे पाने की कामना पैदा हो जाती है। इस पर प्रयोग करो।आरंभ में धीमे शब्दों में कहो कि मैं कार देखता हूं, कार सुंदर है और उसे पाने की कामना पैदा हो रही है।पूरी घटना को शब्दिक रूप दो।
2- तुम इसे जोर से भी कह सकते हो। सब कुछ शब्दों में स्वयं से ही कहो और तुरंत तुम्हें अहसास होगा कि मैं इस पूरी प्रक्रिया से अलग हूं ,बाहर हूं। पहले मन ही मन में कामना के उठने को देखो। और जब तुम देखने में कुशल हो जाओ तब जोर से कहने की जरूरत नहीं है।जो भी हो रहा है, उसे देखो; और जब वह विदा हो जाए तो उसे भी देखो कि अब कामना विदा हो गई है।और तुम उस विचार से, उस कामना से एक दूरी अनुभव करोगे।यह विधि कहती है: अगर कोई कामना नहीं है, कोई विचार नहीं है।तो तुम कैसे कह सकते हो कि मैं हूं? तब सब कुछ मौन है, शांत है; एक लहर भी तो नहीं है। और लहर के बिना ‘मैं’ का भ्रम कैसे निर्मित कर सकता हूं? जब चेतना में कोई लहर नहीं है तो कोई ‘मैं’ नहीं है।तो कामना के उठने से पहले स्मरण रखो, जब कामना आ जाए तो स्मरण रखो, और जब कामना विदा हो जाए तो भी स्मरण रखो। जब कोई विचार उठे तो स्मरण रखो, उसे देखो। सिर्फ देखो कि विचार उठा है।देर अबेर वह विदा हो जाएगा। क्योंकि सब कुछ क्षणिक है। और बीच में एक अंतराल होगा। दो विचारों ,दो कामनाओं के बीच में अंतराल है। और उस अंतराल में, उस खाली जगह में ‘मैं’ नहीं है।
3-मन में चलते विचार को देखो और तुम पाओगे कि वहां एक अंतराल भी है चाहे वह कितना ही छोटा हो, अंतराल है। फिर दूसरा विचार आता है और फिर एक अंतराल। उन अंतरालों में ‘मैं’ नहीं। और वे अंतराल ही तुम्हारा असली होना है। तुम्हारा अस्तित्व है। आकाश में विचार के बादल चल रहे है। दो बादलों के अंतराल को देखो और आकाश प्रकट हो जाएगा।विवेचन
करो और सौंदर्य में विलीन हो जाओ।’विमर्श करो कि कामना पैदा हुई और कामना विदा हो गई ...और मैं उसके अंतराल में हूं और कामना ने मुझे अशांत नहीं किया है।विमर्श करो कि कामना आई, कामना गई, वह थी और अब नहीं है। और मैं अनुद्विग्न रहा हूं। वैसा ही रहा हूं जैसा पहले था; मुझमें कोई बदलाहट नहीं हुई है। विमर्श करो कि कामना छाया की भांति आई और चली गई। उसने मुझे स्पर्श भी नहीं किया। इस कामना की गतिविधि के प्रति, इस विचार की हलचल के प्रति विमर्श से भरों। और अपने भीतर की अगति , ठहराव के प्रति भी विमर्श पूर्ण होओ।
4-और वह अंतराल सुंदर है; उस अंतराल में डूब जाओ।शून्य हो जाओ। यह सौंदर्य का प्रगाढ़तम अनुभव है।और केवल सौंदर्य का ही नहीं, शुभ और सत्य का भी प्रगाढ़तम अनुभव है। उस अंतराल में तुम हो।सारा ध्यान भरे हुए स्थानों से हटाकर खाली स्थानों पर लगाना है। तुम कोई किताब पढ़ रहे हो। उसमें शब्द है, उसमें वाक्य है। लेकिन शब्दों के बीच वाक्यों के बीच खाली स्थान पर भी है।और उन खाली स्थानों में तुम हो।कागज की जो शुभ्रता है, वह तुम हो; और जो काले अक्षर है वे तुम्हारे भीतर चलने वाले विचार और कामना के बादल है।अपने परिप्रेक्ष्य को बदलों; काले अक्षरों को मत देखो, शुभ्रता को देखो।अपने प्राणों के अंतराल को देखो। जो भरे हुए स्थान है, उनके प्रति उदासीन रहो; और अंतराल के प्रति, खाली आकाश के प्रति सावचेत बनो। और उस अंतराल के द्वारा, उस आकाश के द्वारा तुम परम सौंदर्य में विलीन हो जाओगे।
....SHIVOHAM....