विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 86,87 वीं (अनासक्ति—संबंधी छह विधियां )विधियां क्या है?
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 86 ;-
12 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्टि के परे है, जो पकड़ के परे है। जो अनस्तित्व के, न होने के परे है ..मैं।’'
2-हम किसी ऐसी चीज की कल्पना नहीं कर सकते है जो देखी न जा सके।वास्तव में, कल्पना तो सदा उसकी होती है जो देखी जा सके।लेकिन तुम उस चीज का स्वप्न भी नहीं देख सकते जो देखी न जा सके। यही कारण है कि हमारे सपने भी वास्तविकता की छायाएं है अथार्त कल्पना भी शुद्ध कल्पना नहीं है।लेकिन तुमने बादल देखा है; तुमने पहाड़ देखा है; तुमने सोना देखा है। ये तीन तत्व इकट्ठे किए जा सकते है। तो तुम कल्पना कर सकते हो कि कैसे कुबेर से सोना लेने के बाद रावण सोने के पहाड़ अपने संगीत के माध्यम से कैलाश में लेकर गया।एक सोने का पहाड़ आकाश में बादलों की भांति उड़ा जा रहा है। तुमने कभी ऐसी चीज नहीं देखी है।लेकिन कल्पना कभी मौलिक नहीं होती; वह सदा ही उनका जोड़ होती है जिन्हें तुमने देखा है।यह विधि कहती है..'भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्टि के परे है।’यह असंभव है।लेकिन इसीलिए यह प्रयोग करने लायक है।क्योंकि इसे करने में ही तुम्हें कुछ घटित हो जाएगा। ऐसा नहीं कि तुम देखने में सक्षम हो जाओगे।लेकिन अगर तुम ऐसी चीज देखने की चेष्टा करोगे तो देखने के प्रयत्न में तुमने जो भी देखा है वह सब विलीन हो जाएगा।
2-अगर तुम इस प्रयत्न में धैर्यपूर्वक लगे रहे तो अनेक चित्र,प्रतिबिंब तुम्हारे सामने प्रकट होंगे। तुम्हें उन प्रतिबिंबों को इनकार कर देना है, क्योंकि तुम जानते हो कि तुमने उन्हें देखा है। हो सकता है कि तुमने उन्हें बिलकुल वैसे ही न देखा हो जैसे वे है; लेकिन यदि तुम उनकी कल्पना कर सकते हो तो वे देखे भी जा सकते है।उन्हें अलग हटा दो।और इसी तरह अलग करते चलो।यह विधि कहती है कि जो नहीं देखा जा सकता उसे देखने के प्रयत्न में लगे रहो।यदि तुम मन में उभरने वाले प्रतिबिंबों को हटाते गए तो यह कठिन होगा क्योंकि अनेक चित्र ,अनेक धारणाएं उभर कर सामने आएँगे।तुम्हारा मन नए-नए दृश्य निर्मित करेगा। लेकिन उन्हें हटाते चलो, जब तक कि तुम्हें वह न घटित हो जो अदृश्य है।यदि तुम हटाते ही गए तो बाहर से तुम्हें कुछ घटित नहीं होगा। सिर्फ मन का पर्दा खाली हो जाएगा। उस पर कोई चित्र कोई प्रतीक कोई बिंब, कोई सपने नहीं होंगे। उस क्षण में रूपांतरण घटित होता है।जब खाली पर्दा रहता है, उस पर कोई चित्र नहीं रहता, तो उस क्षण में तुम्हें अपना बोध होता है। सारी चेतना पीछे लौट कर देखने लगती है ...स्वमुखी हो जाती है। जब तुम्हें देखने को कुछ नहीं होता है तब तुम्हें पहली बार स्वयं का बोध होता है।
3-तब तुम स्वयं को उपलब्ध होते हो; स्वयं होते हो। तब तुम पहली दफा उसे जानते हो ...जो देखता है, समझता है, जो जानता है। लेकिन यह जानने वाला सदा विषयों में छिपा होता है। तुम विषयों को तो जानते हो, लेकिन तुम कभी जानने वाले को नहीं जानते हो। ज्ञाता ज्ञान में खोया रहता है।जन्म से मृत्यु तक एक व्यक्ति हजार-हजार चीजें देखता है। और जो दृष्टा है, जो इस जुलूस को देखता है, वह भूल गया है , भीड़ में खो गया है। भीड़ विषयों की ओर है और द्रष्टा उसमें खो गया है।यह सूत्र कहता है कि अगर किसी ऐसी चीज की चिंतन करने की चेष्टा करते हो जो दृष्टि के परे है, पकड़ के परे है। जिसे तुम मन से नहीं पकड़ सकते ..और जो अनस्तित्व के, न होने के भी परे है; तो तुरंत मन कहेगा कि अगर कोई चीज देखी नहीं जा सकती और पकड़ी नहीं जा सकती तो वह चीज है ही नहीं। मन तुरंत प्रतिक्रिया करेगा कि अगर कोई चीज अदृष्य और अग्राह्य है तो वह नहीं है , असंभव है।
4-इस मन की बातों में नहीं मत पड़ना है। यह सूत्र कहता है: ‘दृष्टि के परे, पकड़ के परे, अनस्तित्व के परे।‘ सूत्र कहता है कि इस मन का विश्वास मत करो। कुछ है जो अनस्तित्व के परे अस्तित्ववान है, जो है और फिर भी देखा नहीं जा सकता... वह तुम हो।तुम अपने को नहीं देख सकते हो। या अपना साक्षात्कार नहीं कर सकते जिसमें तुम अपने को जान सको। तुम आत्म ज्ञान शब्द को दोहराते रह सकते हो। लेकिन वह एक अर्थहीन शब्द है। क्योंकि तुम स्वयं को, अपने को नहीं जान सकते हो। आत्मा सदा ज्ञाता है। उसे ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है।उदाहरण के लिए, अगर तुम सोचते हो कि मैं आत्मा को जान सकता हूं तो जिस आत्मा को तुम जानोंगे वह तुम्हारी आत्मा नहीं होगी। आत्मा तो वह होगी जो इस आत्मा को जान रही है। तुम सदा ज्ञाता रहोगे। तुम सदा ही पीछे रहोगे। तुम जो भी जानोंगे वह तुम नहीं हो सकते। इसका यह अर्थ है कि तुम स्वयं को उस भांति नहीं जान सकते हो जिस भांति अन्य चीजों को जानते हो।
5-एक व्यक्ति अपने को उस भांति नही देख सकता; जिस भांति वह तुम्हें देखता है। क्योंकि ज्ञान, दृष्टि दर्शन का अर्थ है कि वहां कम से कम दो है: जानने वाला और जाना जाने वाला। इस अर्थ में आत्मज्ञान संभव नहीं है; क्योंकि वहां एक ही है। वहां ज्ञाता और ज्ञेय एक है; वहां द्रष्टा और दृश्य एक है। तुम अपने को विषय नहीं बना सकते हो।इसलिएआत्मज्ञान शब्द गलत है। लेकिन यह कुछ कहता है ..इशारा करता है जो कि सच है। तुम अपने को जान सकते हो, लेकिन यह जानना उस जानने से बिलकुल भिन्न होगा।जब सभी विषय खो जाते है, जो भी देखा और ग्रहण किया जा सकता है वह विदा हो जाता है।और जब तुम सबको अलग कर देते हो, तब तुम्हें अचानक स्वयं का बोध होता है। और इस बोध में दो नहीं है अथार्तआब्जेक्ट्स ओर सब्जैक्ट नहीं है। यह अद्वैत है, अखंड है। यह बोध तुम्हें अस्तित्व का एक भिन्न ही आयाम देता है। तुम दो में नहीं बंटे हो; तुम स्वयं के प्रति बोधपूर्ण हो। तुम उसे देख नहीं रहे, तुम उसे पकड़ नहीं सकते हो; और इसके बावजूद वह पूरी तरह है।
6-उदाहरण के लिए हमारे पास एक ऊर्जा है जो विषयों की तरफ बही जा रही है।वास्तव में, अस्तित्व के परम नियम में एक नियम यह है कि ऊर्जा गतिहीन नहीं हो सकती, उसे सतत गतिमान रहना है। तो जब एक व्यक्ति तुम्हें देखता है तब उसकी ऊर्जा तुम्हारी तरफ बहती है।एक सर्किल जरूरी है। ऊर्जा को जाना चाहिए और फिर लौट कर आना चाहिए। जब वह व्यक्ति तुम्हें देखता है तो एक सर्किल बन जाता है। उसकी ऊर्जा तुम्हारी तरफ बहती है। और फिर तुम्हारी ऊर्जा उसकी तरफ बहती है। इस तरह एक सर्किल निर्मित होता है।यदि एक व्यक्ति की ऊर्जा तुम्हारी तरफ जाए, लेकिन उसकी तरफ वापस न आए तो वह नहीं जान पायेगा।ज्ञान का अर्थ है ,ऊर्जा ने एक सर्किल बनाया है। उसने भीतर से बाहर की तरफ गति की; और फिर वह वापस मूल स्त्रोत पर लौट आई। अगर एक व्यक्ति इसी भांति जीता रहे ; दूसरों के साथ सर्किल बनाता रहे , तो वह कभी स्वयं को नहीं जान पायेगा । क्योंकि उसकी ऊर्जा दूसरों की ऊर्जा से भरी है। वह दूसरों के प्रभा, दूसरों के प्रतिबिंब उसे देती जाती है। इसी भांति तो तुम ज्ञान इकट्ठा करते हो।
7-यह विधि कहती है कि विषय को विलीन हो जाने दो और अपनी ऊर्जा को शून्य में गति करने दो। वह तुम्हारी ओर से चलती तो है, लेकिन कोई विषय वहां नहीं है जिसे वह पकड़े या जिसे देखे। तो वह शून्यता से गुजर कर तुम्हारे पास लौट आती है।शून्य में कोई विषय नहीं है इसीलिए वह खाली रिक्त और शुद्ध लौट आती है। यही ध्यान की पूरी प्रक्रिया है। तुम शांत बैठे हो और तुम्हारी ऊर्जा गति कर रही है। वहां कोई विषय नहीं है, जिससे वह दूषित हो सके ,प्रभावित हो सके ,एक हो सके। तब तुम उसे अपने पर लौटा लेते हो।ऊर्जा गति करती है ,उसकी गति शुद्ध है और वह शुद्ध ही तुम्हारे पास लौट आती है। जिस अवस्था में वह तुमसे गई थी उसी अवस्था में वह लौट आती है। वह सिर्फ अपने को अपने साथ लाती है और शुद्ध ऊर्जा के उस प्रवेश में तुम स्वयं के प्रति बोध से भर जाते हो।यदि ऊर्जा अपने साथ कोई जानकारी लाए तो तुम उस चीज के प्रति बोधपूर्ण होगे।उदाहरण स्वरुप, तुम एक फूल को देखते हो। तुम्हारी ऊर्जा फूल पर जाती है।और उस फूल को , फूल के प्रतिबिंब को, रंग को, गंध को अपने साथ ले आती है। ऊर्जा तुम्हें फूल की जानकारी देती है ,फूल से आच्छादित है।अब तुम कभी उस शुद्ध ऊर्जा से परिचित नही हो सकते। तुम दूसरों की तरफ जाते हो और स्त्रोत पर लौट आते हो।तुम्हारी निर्दोषता विषयों में खो जाती है। विचारों से भरा मन बाहर भटकता रहता है। तब तुम स्वयं से नहीं जुड़ सकते।
8-अगर इस ऊर्जा को कुछ भी प्रभावित न करे, वह वैसी की वैसी लौट आए जैसी गई थी तो तुम स्वयं को जानते हो। यह ऊर्जा का शुद्ध सर्किल है। अब ऊर्जा कहीं बाहर न जाकर तुम्हारे भीतर ही गति करती है और भीतर ही सर्किल बनाती है। अब कोई दूसरा नहीं है। तुम स्वयं अपने में गति करते हो। यह गति ही आत्म-प्रकाश ,आत्मज्ञान, आत्मबोध बन जाती है। बुनियादी तौर से सब ध्यान विधियां इसी के अलग-अलग प्रकार है।अगर यह हो सके तो तुम पहली दफा स्वय को जानोंगे। स्वयं के अस्तित्व को, जानने वाले को, आत्मा को जानोंगे।ज्ञान दो प्रकार का है: विषयगत ज्ञान और आत्मगत ज्ञान। एक तो विषय का ज्ञान है और दूसरा स्वयं का ज्ञान है। और कोई व्यक्ति चाहे लाखों चीजें जान ले या पूरे जगत को जान ले। लेकिन अगर वह स्वयं को नहीं जानता है तो वह अज्ञानी है। संभव है कि वह बहुत जानकारी ,बहुत ज्ञान इकट्ठा कर ले, लेकिन उसके पास उस बुनियादी चीज का अभाव है जो किसी को प्रज्ञावान बनाता है। वह स्वयं को नहीं जानता है।
9-उपनिषदों में एक कथा है कि एक युवक, श्वेतकेतु, अपने गुरु के आश्रम से शिक्षा प्राप्त कर के घर आता है। उसने सभी परीक्षाए , विशिष्टता हासिल की थी और वह बहुत अंहकार से भर गया था।जब वह अपने पिता के घर पहुंचा तो पहली बात जो पिता ने पूछी वह यह थी: ‘तुम ज्ञान से बहुत भरे हुए मालूम पड़ते हो और तुम्हारे ज्ञान ने तुम्हें बहुत अहंकारी बना दिया है। यह तुम्हारे चलने के ढंग से ..जिस ढंग से तुमने घर में प्रवेश किया ..प्रकट होता है। मुझे तुमसे एक ही प्रश्न पूछना है, क्या तुमने उसे जान लिया है जिस के जानने से सब जान लिया जाता है। तुम स्वय को जान गये हो।'श्वेतकेतु ने कहा: ‘लेकिन हमारे विद्यापीठ के पाठय क्रम में यह नहीं था। हमारे गुरु ने इसकी कोई चर्चा नहीं की। मैंने सब जान लिया है जो जाना जा सकता है। आप मुझसे कुछ भी पूछे और मैं उत्तर दूँगा। लेकिन यह जो आप पूछ रहे है। यह तो कभी बताया ही नहीं गया।’पिता ने कहा: ‘फिर तुम वापस जाओ। और जब तक उसे ना जान लो जिसे जानकर सब जान लिया जाता है। और जिसे जाने बिना कुछ भी नहीं जाना जाता। तब तक घर मत लौटना। पहले स्वयं को जानो।’
10-श्वेतकेतु वापस गया। उसने गुरू से कहा: ‘मेरे पिता ने कहा कि तुम्हें घर में नहीं आने दिया जाएगा, इस घर में तुम्हारा स्वागत नहीं होगा; क्योंकि हमारे कुल में हम जन्म से ही ब्राह्मण नहीं है। हम ब्रह्म को जानकर ब्राह्मण है। हम ब्राह्मण जन्म से ही नहीं है, प्रामाणिक ज्ञान को प्राप्त करके हम ब्राह्मण है। तो जब तक तुम सच्चे ब्राह्मण न हो जाओ ..अथार्त जो जन्म से नहीं बल्कि ब्रह्म को जानकर हुआ जाता है। तब तक इस घर में प्रवेश मत करना। तुम हमारे योग्य नहीं हो। इसलिए अब आप मुझे वह ज्ञान सिखाएं।’गुरु ने कहा: ‘जो भी सिखाया जा सकता है। वह सब मैंने तुम्हें सिखा दिया है। और तुम जिसकी बात कर रहे हो वह सिखाया नहीं जा सकता है। तो तुम एक काम करो; तुम बस इसके प्रति उपलब्ध रहो, खुले रहो। यह ज्ञान सीधे-सीधे नहीं सिखाया जा सकता है। तुम सिर्फ खुले रहो। और किसी दिन घटना घट जाएगी। तुम आश्रम की गायों को ले जाओ।’ आश्रम में बहुत गायें थी। कहते है चार सौ गाये थी ...गुरु ने श्वेतकेतु से कहा: ‘तुम गायों को जंगल ले जाओ और गायों के साथ रहो। विचार करना बंद कर दो। शब्दों को छोड़ो; पहले गाय बनो।''गायें के साथ रहो, उन्हें प्रेम करो, और वैसे ही मौन हो जाओ जैसे गायें मौन है ;और जब गायें एक हजार हो जाएं तब वापस आ जाना।’'
11-श्वेतकेतु चार सौ गायों को लेकर जंगल चला गया। वहां सोच-विचार का कोई उपयोग नहीं था। वहां कोई नहीं था जिसके साथ बातचीत की जा सके। उसका चित धीरे-धीरे गाय जैसा हो गया। वह वृक्षों के नीचे मौन बैठा रहता था। और ऐसे वर्षो बीत गए, क्योंकि वह तभी वापस जा सकता था जब गाएं एक हजार हो जाएं। धीरे-धीरे उसके मन से भाषा विलीन हो गई। धीरे-धीरे समाज उसके मन से विदा हो गया। धीरे-धीरे वह मनुष्य भी नहीं रहा;उसकी आंखें गायों की आंखों जैसी हो गई। वह गायों जैसा ही हो गया।और श्वेतकेतु गिनना भूल गया। क्योंकि अगर भाषा विलीन हो जाए, शब्द जाल खो जाए तो वह भूल गया कि कैसे गिनती की जाती है। वह यह भी भूल गया कि वापस जाना है। तब गायों ने कहा कि: ‘श्वेतकेतु,अब हम हजार हो गई है। अब हम गुरु के घर लौट चलें। गुरु हमारी प्रतीक्षा करते होंगे।’श्वेतकेतु वापस आया। और गुरु ने दूसरे शिष्यों से कहा: ‘गायों की गिनती करो।’ गायों की गिनती की गई। और शिष्यों ने गुरु से कहा: ‘’एक हजार गाएं है।‘’ गुरु ने कहा: ‘एक हजार नहीं, एक हजार एक गाए है ...वह एक श्वेतकेतु है।
12-’श्वेतकेतु गायों के बीच खड़ा था ...मौन,शांत; न कोई विचार था, न मन था; वह बिलकुल गाय की भांति शुद्ध और सरल और निर्दोष हो गया था। और गुरू ने उससे कहा: ‘तुम्हें यहां आने की जरूरत नहीं है, तुम अपने पिता के घर वापस चले जाओ। तुमने जान लिया; घटना घट गई। तुम अब मेरे पास क्यों आए हो?’घटना घटती है ...जब चित में जानने के लिए कोई विषय नहीं रहता तो तुम जानने वाले को जानते हो। जब मन विचारों से खाली है, जब एक भी लहर नहीं है, एक भी कंपन नहीं है, तब तुम अकेले हो, स्वयं हो। तब तुम्हारे अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो। एक आत्म–प्रकाश ,आत्मबोध घटित होता है।यह सूत्र आधार भूत सूत्रों में एक है।इसका प्रयोग कठिन है। क्योंकि विचार करने की आदत, विषयों से चिपकने की आदत, देखे जा सकने वाले और पकड़े जा सकने वाले विषयों की आदत इतनी गहरी है कि उससे मुक्त होने के लिए, विषयों में विचारों में फिर ग्रस्त न होकर मात्र साक्षी हो जाने के लिए, नेति-नेति कह कर सब को हटा देने के लिए बहुत समय और सतत श्रम की जरूरत होगी।
उपनिषदों की समस्त विधि का सार निचोड़ इन दो शब्दों में निहित है: ‘नेति-नेति। यह भी नहीं, यह भी नहीं। जो भी मन के सामने आए उसे कहो। 'यह भी नहीं'.. यह कहते जाओ और मन के सारे फर्नीचर को बाहर फेंकते जाओ ,हटाते जाओ। कमरे को बिलकुल खाली कर देना है। उसी खालीपन में घटना घटती है।’अगर कुछ भी रह जाएगा तो तुम उससे प्रभावित होते रहोगे। और तब तुम अपने को नहीं जान सकोगे।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 87 ;-
14 FACTS;-
1-भगवान शिव कहते है:-
''मैं हूं, यह मेरा है। यह-यह है। हे प्रिये, भाव में भी असीमत: उतरो।''
2-‘मैं हूं।’ तुम इस भाव में कभी गहरे नहीं उतरते हो कि 'मैं हूं'।केवल बैठे हुए इस भाव में गहरे उतरो कि मैं मौजूद हूं .. 'मैं हूं'। इसे अनुभव करो;परन्तु इस पर विचार मत करो। तुम अपने मन में कह सकते हो कि 'मैं हूं'; लेकिन कहते ही वह व्यर्थ हो गया। दिमाग में मत दोहराओं कि मैं हूं' क्योकि तुम बात ही चूक गए। इसे अपने प्राणों में ,अपने पूरे शरीर में अनुभव करो ...केवल सिर में नहीं।भगवान शिव माता पार्वती को समझा रहे थे। इसलिए उन्हें भी 'मैं हूं' को शब्दों में कहना पडा। ’मैं हूं, इन शब्दों का उपयोग मत करो..total में अनुभव करो। उदाहरण के लिए हमें अनुभव करना है कि'' मेरे न मित्र है और न शत्रु, इसीलिए मैं किसी की भी प्रतीक्षा में नहीं हूं।न ही मैं किसी को नहीं खोज रहा हूं ... क्योंकि मैं स्वयं के अतिरिक्त किसी में भी उत्सुक नहीं हूं।मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं मैं बस यहां हूं''।और इसे ही ध्यान कहते है। अगर तुम कुछ करते हो तो तुम बहुत दूर चले गए। अगर तुम प्रार्थना करते हो, बातचीत करते हो या कोई शब्द उपयोग में लाते हो तो वह ध्यान नहीं है;क्योंकि मन उसमें शामिल हो गया। यह सूत्र कहता है: ‘मैं हूं।’तुम शब्दों का उपयोग मत करो क्योंकि यह कोई मंत्र नहीं है।अगर तुम दोहराओगे तो तुम सो जाओगे या आत्म-सम्मोहित हो जाओगे।
2-जब तुम किसी चीज को दोहराते हो तो तुम आत्मा-सम्मोहित हो जाते हो। पहले दोहराने से ऊब पैदा होती है ,फिर नींद आने लगती है और फिर होश खो जाता है। तुम इस आत्म-सम्मोहन से जब वापस आओगे तो वैसे ही अनुभव करोगे .. जैसे गहरी नींद से जागने पर करते हो।यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है लेकिन ध्यान नहीं है। अगर तुम्हें नींद न आती हो तो तुम मंत्र का उपयोग कर सकते हो क्योंकि मंत्र ट्रैंक्विलाइजर से बेहतर है। तुम किसी शब्द को निरंतर दोहराते रहो या एक सुर में जाप करते रहो तो तुम्हें नींद लग जाएगी। जो भी चीज ऊब लाती है ;वह नींद पैदा करती है।मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक अनिद्रा से पीड़ित लोगों को सलाह देते है कि घड़ी की टिक-टिक सुनते रहो और तुम्हें नींद आ जाएगी। यह टिक-टिक लोरी का काम करता है। मां के गर्भ में बच्चा नौ महीने तक सोया रहता है। मां का ह्रदय निरंतर धड़कता रहता है और वह धड़कन नींद का कारण बन जाती है।यही कारण है कि जब तुम्हें कोई अपने ह्रदय से लगा लेता है तो तुम्हें अच्छा लगाता है। उस धड़कन के पास तुम विश्राम अनुभव करते हो। जो भी चीज एकरसता पैदा करती है उसे विश्राम मिलता है और तुम सो जाते हो।
3-तुम गांव में शहर के मुकाबले ज्यादा नींद ले सकते हो।क्योंकि गांव का जीवन एकरस है, उबाऊ है। शहर का जीवन भिन्न है। यहां प्रतिपल कुछ न कुछ नया हो गया है। सड़कों का शोरगुल भी बदलता रहता है। गांव में सब कुछ वहीं का वही रहता है। वास्तव में, गांव में सब कुछ सर्किल में ही घूमता रहता है। इसलिए गांव के लोग गहरी नींद सोते है। क्योंकि उनके चारों ओर का जीवन उबाने वाला है। शहर में नींद कठिन है, क्योंकि तुम्हारे चारों ओर का जीवन नवीनता से भरा है; वहां सब कुछ बदल रहा है।तुम कोई भी मंत्र काम में ला सकते हो। राम-राम या ओम-ओम ...कुछ भी चलेगा। कोई भी शब्द ले लो और उसे एक ही सुर में जपते रहो, तुम्हें गहरी नींद आ जाएगी।साधना की एक विधि है कि स्वयं पूछो कि मैं कौन हूं।लेकिन लोग उसको भी मंत्र बना लेते है।वे आंखें बंद करके बैठते है और दोहराते है कि ‘मैं कौन हूं?’ मैं कौन हूं?तो इसे मंत्र मत बनाओ। बैठ कर यह मत दोहराओं कि मैं हूं, उसकी कोई जरूरत नहीं है।
4-'मैं हूं' यह अनुभव करना सर्वथा भिन्न बात है। विचार करना अनुभव से बचने की ही तरकीब है बल्कि धोखा है।उदाहरण स्वरुप'अनुभव करो 'कि मैं हूं 'तो उसका मतलब है कि मैं एक कुर्सी पर बैठा हूं। तो मैं अनेक चीजों के प्रति बोधपूर्ण हो जाऊँगा। कुर्सी पर पड़ने वाले दबाव का, कवर के स्पर्श का और कमरे से हवा के गुजरने का बोध होगा। फिर शरीर से ध्वनि के स्पर्श का, ह्रदय की धड़कन का ,शरीर में खून के मौन प्रवाह का और शरीर की एक सूक्ष्म तरंग का बोध होगा।हमारा शरीर जीवंत और गतिशील है; वह स्थिर नहीं है।निरंतर एक सूक्ष्म कंपन जारी है; और जब तक तुम जीवित हो, यह जारी रहेगा।तुम सारी बहुआयामी चीजों के प्रति बोध से भर जाओगे।और अगर तुम इसी क्षण अपने भीतर-बाहर होने वाली चीजों के प्रति इतने ही बोधपूर्ण हो जाओ,तो विचार रूक जायेगे। क्योंकि 'अनुभव' ऐसी समग्र घटना है कि उसमें विचार नहीं चल सकता। तब 'मैं हूं 'का वह अनुभव होगा... जो उसका अर्थ है।
5-शुरू-शुरू में तुम पाओगे कि विचार तैर रहे है। लेकिन धीरे-धीरे जब अस्तित्व में तुम्हारी जड़ें गहरी होगी। जितने ही तुम अपने होने के अनुभव में स्थिर होगे। उतने ही विचार दूर होते जाएंगे।तुम इस दूरी को महसूस करोगे और तुम्हें लगेगा कि यह विचार मुझे नहीं , किसी और को घट रहे है ...बहुत-बहुत दूर।और जब तुम वास्तव में, अपने केंद्र में या अपने होने में स्थित हो जाओगे, तब मन विलीन हो जाएगा। तुम होगे; लेकिन न कोई शब्द होगा, न कोई प्रतिबिंब होगा। यदि तुम्हे किसी से संबंधित होना है तो मन का ,शब्दों का और भाषा का उपयोग करना पड़ेगा। भले ही तुम अकेले हो, लेकिन अगर तुम बातचीत कर रहे हो तो तुम अकेले नहीं हो क्योकि कोई और मन के भीतर मौजूद है और तुम उससे बोल रहे हो।जब भी तुम बोलते हो तो किसी न किसी से बोलते हो। चाहे वह वहां उपस्थित न हो, लेकिन तुम्हारे मन के लिए वह उपस्थित है। सब विचार मात्र वार्तालाप है और एक सामाजिक कृत्य है। इसलिए अगर किसी बच्चे को समाज के बाहर बड़ा किया जाए तो वह बातचीत करना नहीं सीख पाएगा।समाज के बिना भाषा नहीं हो सकती।
6-जब तुम अपने में प्रतिष्ठित हो जाते हो तो न कोई समाज या कोई भी नहीं रहता...मात्र तुम होते हो। तब तुम किसी से संबंधित नहीं हो रहे हो ..कल्पना में भी नहीं ..और इसीलिए मन विलीन हो जाता है।मन के बिना होना ही ध्यान है। तुम मूर्च्छित नहीं हो, पूर्णत: सजग और सावचेत हो, अस्तित्व को उसकी समग्रता में उसके बहु-आयाम मे अनुभव कर रहे हो। लेकिन मन खो गया है।और मन के खोने के साथ ही अनेक चीजें ...तुम्हारा सब कुछ, जो तुम पर थोपा गया था, विलीन हो जाता है। मन के साथ तुम्हारा नाम ,रूप , हिंदू, मुसलमान या पारसी होना और तुम्हारा भला या बुरा होना विदा हो जाता है।तब तुम मन के साथ ही अपनी मौलिक शुद्धता में ,अपनी समग्र निर्दोषता में प्रकट होते हो और अस्तित्व में प्रतिष्ठित होते हो।मन के बिना न तुम अतीत में जा सकते हो और न भविष्य में।मन के विलीन होते ही वर्तमान क्षण शाश्वत हो जाता है। जब वर्तमान क्षण के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता है तो आनंद घटित होता है। इसके लिए तुम्हें किसी खोज में नहीं जाना है। वर्तमान क्षण में स्थित, आत्मा में प्रतिष्ठित ..तुम आनंदित हो। और यह आनंद कुछ ऐसा नहीं है जो तुम्हें घटित होता है। तुम स्वयं आनंद हो।
7-अगर तुमने कभी अपने शरीर को अनुभव किया है तो तुम्हारे हाथ सतत तुम्हें सूचनाएं देते रहते है। हाथ कभी भारी और उदास होता है और कभी हलका और प्रफुल्लित। कभी उसमें रसधार बहती है। और कभी सब कुछ मुर्दा हो जाता है। कभी तुम उसे जीवंत और नृत्य करते हुए पाते हो और कभी ऐसा लगता है कि उसमें जीवन नहीं है। वह जड़ और मृत है, तुमसे लटका है, लेकिन जीवित नहीं है।जब तुम अपने अस्तित्व को अनुभव करने लगते हो तो सारा जगत तुम्हारे लिए सर्वथा नए रूप में जीवित हो उठता है। अब तुम उसी सड़क से गुजरते हो जिससे रोज गुजरते थे, लेकिन अब वह सड़क वही सड़क नहीं है। क्योंकि अब तुम अस्तित्व में केंद्रित हो। तुम उन्हीं मित्रों से मिलते हो जिनसे सदा मिलते थे। लेकिन अब वे वही नहीं है। क्योंकि तुम बदल गए हो। तुम अपने घर वापस आते हो तो जिन परिजनों के साथ वर्षों से रहते आए हो उन्हें भी सर्वथा भिन्न पाते हो।वे भी वही नहीं है ।वास्तव में, प्रत्येक व्यक्ति गहरी नींद में है और ऐसे ही सोए लोगों की भीड़ के बीच जीता है।
8-तुम्हें बस इतना होश है कि तुम गहरी नींद में सोए लोगों के बीच से गुजरते हो और बिना किसी दुर्घटना के अपने घर वापस आ जाते हो।यही कारण है कि तुम इतने ऊबे हुए ,इतने सुस्त और मंद हो। जीवन एक बोझ है और भीतर प्रत्येक मनुष्य मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है ताकि जीवन से छुटकारा हो। मृत्यु ही एक मात्र आशा मालूम पड़ती है क्योंकि तुम जीवन में केंद्रित नहीं हो। तुम जीवन से उखड़़ गये हो। तुम अल्पतम पर जीते हो और जीवन तो तभी घटित होता है जब तम अधिकतम पर जीते हो।
यह सूत्र तुम्हें अधिकतम जीवन प्रदान करेगा। विचार तुम्हें अल्पतम ही दे सकता है लेकिन भाव तुम्हें अधिकतम दे सकता है। जीवन की राह मन से होकर नहीं बल्कि ह्रदय से होकर ही जाती है।‘मैं हूं। इसे ह्रदय से अनुभव करो और अनुभव करो कि यह अस्तित्व मेरा है।इसमे स्थित होओ और फिर जानो कि यह अस्तित्व, यह प्रवाहमान जीवन मेरा है।तुम कहे चले जाते हो कि यह घर मेरा है, यह सामान मेरा है ,अपनी चीज की बातें करते रहते हो और अपनी सच्ची संपदा ही भूल जाते हो। समग्र जीवन, समस्त आत्मा ही तुम्हारी संपदा है।अस्तित्व का आत्यंतिक रहस्य तुममें छिपा है और तुम उसके मालिक हो।
9-भगवान शिव कहते है कि ‘मैं हूं ...इसे अनुभव करो। और अनुभव करो कि यह मेरा है।यह बात सतत स्मरण रखनी है कि इसे विचार नहीं बना लेना है। इसे ह्रदय से अनुभव करो कि यह मेरा है। यह अस्तित्व मेरा है और तब तुम कृत्यज्ञता अनुभव करोगे ।अभी तो तुम परमात्मा को धन्यवाद भी नहीं देते हो। तुम्हारा धन्यवाद भी ऊपरी है ,औपचारिक है। हम परमात्मा के साथ भी औपचारिक है तो कृतज्ञ नहीं हो सकते ।तुमने कुछ ऐसा ही जाना है कि उसने कृतज्ञ होने लायक कुछ किया ही नहीं है ।अगर तुम अपने को अस्तित्व में केंद्रित अनुभव कर सको ,उसके साथ , उससे परिपूरित अनुभव कर सको.. तभी तुम अनुभव करोगे कि यह अस्तित्व ,यह समस्त रहस्यमय ब्रह्मांड मेरा है। यह सारा जगत मेरे लिए अस्तित्व में है। उसने पैदा किया है और मैं उसका ही फूल हूं। अनुभव करना है कि यही जीवन है, कि मैं नाहक ही चिंता कर रहा था.. मैं व्यर्थ ही अपने को भिखारी समझ रहा था ..मैं तो मालिक हूं। जब तुम केंद्रित होते हो तो तुम समष्टि के साथ पूर्ण के साथ हो जाते हो। और तब समस्त अस्तित्व तुम्हारे लिए है; तब तुम भिखारी नहीं हो, तुम अचानक राजा हो जाते हो।
10-''यह-यह है। प्रिये ऐसे भाव में भी असीमत: उतरो।''और यह अनुभव करते हुए उसकी कोई सीमा मत बनाओ, उसे असीमत: अनुभव करो।अस्तित्व का न कोई आरंभ है और न अंत। और तुम्हारा भी कोई आरंभ और अंत नहीं है।आरंभ और अंत मन के कारण है। मन का आरंभ है और मन का अंत है। अपने जीवन में वापस लौटों, पीछे की और चलो। और तुम पाओगे कि एक क्षण आता है जहां सब कुछ ठहर जाता है। वहां है ..मन का आरंभ। तुम पीछे वहां तक स्मरण कर सकते हो। जब तुम तीन वर्ष के रहे होगे या ज्यादा से ज्यादा दो वर्ष के रहे होगे। दो वर्ष तक लौटना बहुत दुर्लभ है ..वहां जाकर स्मृति ठहर जाती है।दो वर्ष की उम्र के पहले की कोई स्मृति तुम्हारे पास नहीं है। अचानक एक शून्य, एक गैप आ जाता है। तुम्हें उसके आगे कुछ भी नहीं मालूम है। तुम्हें अपने जन्म के संबंध में ,उन नौ महीनों के संबंध में जब तुम मां के पेट में थे .. कुछ भी स्मरण नहीं है।वास्तव में, तुम तो थे, लेकिन मन नहीं था। मन का आरंभ दो वर्ष की उम्र के आसपास हुआ। यही कारण है कि दो वर्ष की उम्र तक तुम लौटकर स्मरण कर सकते हो। उसके आगे मन नहीं है। वहां स्मृति ठहर जाती है।तो मन का आरंभ है और मन का अंत है।
11-लेकिन तुम्हारा कोई आरंभ नहीं है। तुम अनादि हो। अगर गहन ध्यान में तुम अस्तित्व को अनुभव कर सको तो मन नहीं है। केवल एक आरंभहीन, अंतहीन ऊर्जा का प्रवाह है । तुम्हारे चारो और एक अनंत असीम सागर है और तुम उसमें मात्र एक लहर हो। लहर का आरंभ है और अंत है। लेकिन सागर का कोई आरंभ और अंत नहीं है। और जब तुम जान लेते हो कि तुम लहर नहीं हो, सागर हो, तो सब दुख, संताप विलीन हो जाता है।तुम्हारे दुःख की नींव में, उसकी गहराई में मृत्यु है। तुम भयभीत हो कि तुम्हारा अंत होगा, तुम्हारी मृत्यु होगी। वह बिलकुल निश्चित है। जगत में कुछ भी उतना निश्चित नहीं है। जितनी मृत्यु निश्चित है। वही भय है ,दुःख है। कुछ भी करो। तुम मृत्यु के सामने असहाय हो। कुछ भी नहीं किया जा सकता है। मृत्यु होने ही वाली है। और यह बात तुम्हारे चेतन-अचेतन मन में चलती ही रहती है। जब यह बात चेतन मन में उभर आती है। तुम मृत्यु से भयभीत हो जाते हो। फिर तुम उसे दबा देते हो, और वह भय अचेतन में सरकता रहता है।प्रत्येक क्षण तुम मृत्यु से, मिटने से भयभीत हो।मन मिटेगा,लेकिन तुम नहीं मिटोगे।तुम जिसे जानते हो वह मन है जो निर्मित हुआ है। उसका आरंभ है और उसका अंत है।और जिसका आरंभ है, उसका अंत निश्चित है।
12-अगर तुम अपने भीतर खोज सको जिसका कोई आरंभ नहीं ..कोई अंत नहीं है। तो मृत्यु का भय विलीन हो जाता है।और जब मृत्यु का भाव खो जाता है ;तब तुमसे प्रेम प्रवाहित होता है...उसके पहले नहीं। जब तक मृत्यु है तब तक तुम प्रेम नही कर सकते। तुम किसी का उपयोग कर सकते हो ,शोषण कर सकते हो।लेकिन तुम प्रेम नही कर सकते हो।प्रत्येक मनुष्य मरने वाला है, कतार में खड़ा अपने समय का इंतजार कर रहा है।तो प्रेम की पूरी बात ही बेतुकी मालूम पड़ती है। मृत्यु है तो प्रेम अर्थहीन, नश्वर मालूम पड़ता है। क्योंकि मृत्यु सब कुछ मिटा देगी।तुम अपने प्रियजन के लिए चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकते हो। क्योंकि तुम मृत्यु को नहीं टाल सकते हो।तुम मृत्यु को भूल सकते हो ,एक धोखा निर्मित कर सकते हो। तुम मान सकते हो कि मृत्यु नहीं है। लेकिन तुम्हारा सब मानना ऊपर का है। गहरे में तुम जानते हो कि मृत्यु होने वाली है। अगर मृत्यु है तो जीवन अर्थहीन मालूम होता है।तुम बस अपने को धोखे में रख सकते हो ...यदि तुम उसे नहीं जानते हो जो अनादि और अंनत है, जो मृत्यु के पार है।अमृत को जानने पर ही प्रेम संभव है, क्योंकि तब मृत्यु नहीं है।
13- ईश्वर तुम्हें प्रेम करते है लेकिन वह प्रेम तुम्हारे लिए बिलकुल अपरिचित है ,सर्वथा अज्ञात है। वह प्रेम भय के विलीन होने से आया है।तुम्हारा प्रेम तो भय से बचने का उपाय भर है।इसलिए जब तुम प्रेम में होते हो, तुम निर्भय मालूम पड़ते हो। कोई तुम्हें बल देता है। और यह पारस्परिक बात है। तुम दूसरे को बल देते हो। दूसरा तुम्हें बल देता है। दोनों दीन-हीन है और दोनों किसी दूसरे को खोज रहे है। और फिर दो दीन- हीन व्यक्ति मिलते है और एक दूसरे को बल देने की चेष्टा करते है। यह केवल धोखा है। तुम सोचते हो कि कोई तुम्हारे पीछे है, तुम्हारे साथ है। लेकिन तुम भली भांति जानते हो कि मृत्यु में कोई भी तुम्हारे साथ नहीं हो सकता। और जब कोई मृत्यु में तुम्हारे साथ नहीं हो सकता तो वह जीवन में तुम्हारे साथ कैसे हो सकता है।यह मृत्यु को टालने का, भुलाने का उपाय भर है। क्योंकि तुम भयभीत हो, तुम्हें निर्भय होने के लिए किसी की जरूरत नहीं है।कहा जाता है, कि बड़े से बड़ा योद्धा भी अपनी पत्नी के सामने कायर होता है। क्योंकि पत्नी जानती है कि पति को उसके सहारे की जरूरत है। जब वह युद्ध क्षेत्र से लड़ कर वापस आता है, तो कांपता ,भयभीत आता है।पत्नी उसे सांत्वना देती है ,आश्वस्त करती है। पत्नी के सामने वह बच्चे जैसा हो जाता है। और पत्नी पति पर निर्भर है ,वह उसके सहारे जीती है।पति उसका जीवन है।
14-यह पारस्परिक धोखा है।दोनों भयभीत है, क्योंकि मृत्यु है। दोनों एक दूसरे के प्रेम में मृत्यु को भुलाने की चेष्टा करते है। प्रेमी-प्रेमिका निर्भीक हो जाते है या निर्भीक होने की चेष्टा करते है। वे कभी-कभी बहुत निर्भीकता के साथ मृत्यु का मुकाबला भी कर लेते है। लेकिन वह भी ऊपरी है; वैसा दिखता भर है।हमारा प्रेम भय का ही अंग है ...उससे बचने के लिए है।सच्चा प्रेम तब घटित होता है जब भय नहीं रहता ,विलीन हो जाता है। जब तुम जानते हो कि न तुम्हारा कोई आरंभ है और न तुम्हारा कोई अंत है।लेकिन इस पर विचार मत करो।तुम भय के कारण ऐसा सोचने लग सकते हो कि मेरा कोई अंत नहीं है ..मेरी कोई मृत्यु नहीं है ..आत्मा अमर है।’ लेकिन उसमे कुछ भी नहीं होगा।प्रामाणिक अनुभव तभी होगा जब तुम 'ध्यान में' गहरे उतरोगे। तब भय विसर्जित हो जाएगा। क्योंकि तुम स्वयं को अनंत-असीम देखते हो। तुम अनंत की तरह फैल जाते हो ...आदिहीन अतीत में, अंतहीन भविष्य में। और इस वर्तमान क्षण में उसकी गहराई में तुम हो ... बस हो, सनातन से हो ...न तुम्हारा कभी आरंभ था,न ही तुम्हारा कभी अंत नहीं होगा।इसे असीमत: ,अनंतत: अनुभव करो।
....SHIVOHAM....