क्या योग विज्ञान है?क्यो महत्वपूर्ण हैं''योग'' ?- PART-01
क्या योग विज्ञान है?-
20 FACTS;-
1-योग के अतिरिक्त जीवन के परम सत्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है।
जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों का नहीं है, जीवन सत्य की दिशा में किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों की सूत्रवत प्रणाली है। इसलिए पहली बात है कि योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है।
2-योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है। लेकिन चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, चाहे पतंजलि, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, कोई भी व्यक्ति जो सत्य को उपलब्ध हुआ है, बिना योग से गुजरे हुए उपलब्ध नहीं होता।नास्तिक भी योग के प्रयोग में उसी तरह
प्रवेश पा सकता है जैसे आस्तिक। योग नास्तिक-आस्तिक की भी चिंता नहीं करता है।कोई विज्ञान आपसे किसी प्रकार के 'विश्वासों' , किसी तरह की मान्यता की अपेक्षा नहीं करता है। विज्ञान सिर्फ प्रयोग की, एक्सपेरिमेंट की अपेक्षा करता है।
3- विज्ञान मान्यता से शुरू नहीं होता; विज्ञान खोज से, अन्वेषण से शुरू होता है। वैसे ही योग भी मान्यता से शुरू नहीं होता; खोज, जिज्ञासा, अन्वेषण से शुरू होता है। इसलिए योग के लिए सिर्फ प्रयोग करने की शक्ति की आवश्यकता है, प्रयोग करने की सामर्थ्य की आवश्यकता है, खोज के साहस की जरूरत है; और कोई भी जरूरत नहीं है।विज्ञान कहता है, करो, देखो। विज्ञान के सत्य चूंकि वास्तविक सत्य हैं, इसलिए किन्हीं श्रद्धाओं की उन्हें कोई जरूरत नहीं होती है। दो और दो चार होते हैं, माने नहीं जाते।
4-योग का पहला सूत्र है कि जीवन ऊर्जा/शक्ति है, लाइफ इज़ एनर्जी। बहुत समय तक विज्ञान इस संबंध में राजी नहीं था और सोचता था: जगत पदार्थ है, मैटर है। लेकिन योग ने विज्ञान की खोजों से हजारों वर्ष पूर्व से यह घोषणा कर रखी थी कि पदार्थ एक असत्य है, एक झूठ है, एक इल्यूजन है, एक भ्रम है। भ्रम का मतलब यह नहीं है कि 'नहीं है'। भ्रम का मतलब.. जैसा दिखाई पड़ता है वैसा नहीं है और जैसा है वैसा दिखाई नहीं पड़ता है।
5-योग एक शुद्ध विज्ञान है। और जहाँ तक योग के संसार का सवाल है महर्षि पतंजलि का नाम महानतम है। वे एक दुर्लभ व्यक्ति हैं, उनकी तुलना का कोई भी नाम नहीं है। मानवता के इतिहास में पहली बार इस व्यक्ति ने धर्म को विज्ञानं की हैसियत तक पहुंचा दिया। उन्होंने धर्म को विज्ञानं का रूप दे दिया; शुद्ध नियम, किसी मान्यता की आवश्यकता नहीं।
पतंजलि बुद्ध पुरुषों के जगत में आइंस्टीन कि भांति है। वे एक घटना हैं। उनके पास एक तेज वैज्ञानिक मन के जैसी पहुँच है और वैसा ही मनोभाव है।
6-वे वस्तुत एक वैज्ञानिक हैं जो नियमों कि दृष्टि से सोचते हैं। और उन्होंने मानवता के परम नियमों का निष्कर्ष निकाल लिया है, मानव मन और वास्तविकता की अंतिम कार्य
संरचना का भी।वे बिलकुल एक गणित के सूत्र की तरह सटीक हैं। केवल वह जो बोल रहें हैं उसका पालन करो और परिणाम निश्चित घटित होगा। परिणाम अवश्यंभावी है-- यह ऐसा ही है जैसे दो और दो मिल कर चार बन जाते हैं; या जैसे तुम पानी को सौ डिग्री तक गर्म करो और वह भाप बन जाए। इसमें किसी मान्यता की आवश्यकता नहीं, तुम केवल इसे करते हो और समझ जाते हो। यह कर के समझने जैसा है।
7-जहाँ तक मान्यता का सवाल है योग के पास कुछ भी नहीं है; योग कुछ भी मानने को नहीं कहता।तथाकथित धर्मो को मान्यता की आवश्यकता होती है। एक धर्म और दूसरे धर्म के बीच और कोई भेद नहीं; भेद केवल मान्यताओं का है। एक मुसलमान के की कुछ मान्यताएं होतीं है, एक हिन्दू की कुछ और, एक क्रिश्चन की कुछ और। योग कहता है "अनुभव करो।" जैसे कि विज्ञानं कहता है " प्रयोग करो"। प्रयोग करना और अनुभव करना दोनों एक ही हैं; उनकी दिशाएं भिन्न हैं। प्रयोग का अर्थ है कि तुम कुछ बाहर कर सकते हो; अनुभव का अर्थ है कि तुम कुछ भीतर कर सकते हो। अनुभव एक भीतरी प्रयोग है।
8-विज्ञानं कहता है " विश्वास मत करो, जितना हो सके उतना संदेह करो," किन्तु साथ ही अविश्वास मत करो"- क्योंकि अविश्वास भी एक तरह का विशवास है। तुम ईश्वर में विश्वास कर सकते हो, तुम ईश्वर के न होने के सिद्धांत में भी विश्वास कर सकते हो। तुम जितने कट्टर मनोभाव से ईश्वर को स्वीकार कर सकते हो, तुम इसके बिलकुल विपरीत भी बोल सकते हो, कि ईश्वर नहीं है, उतनी ही कट्टरता से। आस्तिक और नास्तिक दोनों ही विश्वासी होतें हैं, और विश्वास विज्ञान का क्षेत्र नहीं है। विज्ञान का अर्थ है किसी बात को अनुभव करना, वह जो है; इसके लिए किसी विश्वास की आवश्यकता नहीं।"
9-वास्तव में, महर्षि पतंजलि ने योग का आविष्कार नहीं किया था; योग उस से कहीं ज़ियादा प्राचीन है। योग, पतंजलि से भी कई सदियों पूर्व उपस्थित था। उन्होंने उसकी खोज नहीं की, परन्तु वे दुर्लभ मेल वाले व्यक्तित्व की वजह से वे लगभग उसके खोजी और संस्थापक बन गए। उनसे पहले कई लोगों ने इस पर काम किया था और लगभग सभी-कुछ पता भी था, परन्तु परन्तु उनका व्यक्तित्व विपरीत का ऐसा जोड़ हैं, वे अपने भीतर ऐसे बेबूझ तत्वों को सम्मिलित करते हैं कि वे इसके संस्थापक बन गए । अब योग हमेशा के लिए पतंजलि से सम्बंधित रहेगा।
10-योग की भाषा में मनुष्य एक लघु ब्रह्मांड है। सूक्ष्म ढंग से मनुष्य एक छोटा सा ब्रह्मांड है, मनुष्य एक छोटे से अस्तित्व में सघन रूप से समाया हुआ है। यह जो ब्रह्मांड है, यह जो संपूर्ण अस्तित्व है, यह और कुछ नहीं मनुष्य का विस्तार ही है। यह योग की भाषा है : लघु ब्रह्मांड व संपूर्ण ब्रह्मांड । जो कुछ बाहर अस्तित्व रखता है, ठीक वही मनुष्य के भीतर भी अस्तित्व रखता है। 11-बाहर के सूर्य की भाँति मनुष्य के भीतर भी सूर्य छिपा हुआ है; बाहर के चाँद की ही भाँति मनुष्य के भीतर भी चाँद छिपा हुआ है। और पंतजलि अंतर्जगत के आंतरिक व्यक्तित्व का संपूर्ण भूगोल हमें दे देना चाहते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि - ''सूर्य पर संयम संपन्न करने से सौर ज्ञान की उपलब्धि होती है।'' तो उनका संकेत उस सूर्य की ओर नहीं है जो बाहर है। उनका मतलब उस सूर्य से है जो हमारे भीतर है।
12-हमारे अंतस के सौर-तंत्र का केंद्र 'सूर्य ठीक प्रजनन-तंत्र की गहनता में छिपा हुआ है। इसीलिए कामवासना का केंद्र सूर्य होता है और उसमें एक प्रकार की ऊष्णता /Heat होती है। जब व्यक्ति कामवासना से थक जाता है तो तुरंत भीतर चंद्र ऊर्जा सक्रिय हो जाती है।अथार्त जब सूर्य छिप जाता है तब चंद्र का उदय होता है।सूर्य ऊर्जा का काम समाप्त होने पर चंद्र ऊर्जा का कार्य प्रारंभ होता है। 13-भीतर की सूर्य ऊर्जा काम-केंद्र है। उस सूर्य ऊर्जा पर संयम केंद्रित करने से, व्यक्ति भीतर के संपूर्ण सौर-तंत्र को जान ले सकता है। काम-केंद्र पर संयम करने से व्यक्ति काम के पार जाने में सक्षम हो जाता है..सभी रहस्यों को जान सकता है। लेकिन बाहर के सूर्य के साथ उसका कोई भी संबंध नहीं है।लेकिन अगर कोई व्यक्ति भीतर के सूर्य को जान लेता है तो उसके प्रतिबिंब से वह बाहर के सूर्य को भी जान सकता है।
14-सूर्य इस अस्तित्व के सौर-मंडल का काम-केंद्र है। इसी कारण जिसमें भी जीवन है, प्राण है, उसको सूर्य की रोशनी, सूर्य की गर्मी को आवश्यकता है। जैसे कि वृक्ष अधिक से अधिक ऊपर जाना चाहते हैं।किसी अन्य देश की अपेक्षा अफ्रीका में वृक्ष सबसे अधिक ऊँचे हैं। कारण अफ्रीका के जंगल इतने घने हैं और इस कारण वृक्षों में वापस में इतनी अधिक प्रतियोगिता है कि अगर वृक्ष ऊपर नहीं उठेगा तो सूर्य की किरणों तक पहुँच ही नहीं पाएगा, उसे सूर्य की रोशनी मिलेगी ही नहीं। और अगर सूर्य की रोशनी वृक्ष को नहीं मिलेगी तो वह मर जाएगा। जैसे सूर्य जीवन है; वैसे ही 'काम' भी जीवन है। इस पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही है, और ठीक इसी तरह से - सभी प्रकार के जीवन का जन्म 'काम 'से ही होता है। 15-सूर्य लक्ष्य नहीं है, बल्कि केंद्र है। परम नहीं है, फिर भी केंद्र तो है। हमको उससे भी ऊपर उठना है, उससे भी आगे निकलना है।यह प्रारंभिक चरण है ;अंतिम चरण नहीं। यह ओमेगा नहीं है, अल्फा है(यूनानी वर्णमाला के पहले और आखिरी अक्षर-अल्फा-ओमेगा “शुरूआत और अंत।”जब पतंजलि हमें बताते हैं कि संयम को उपलब्ध कैसे होना; करुणा में, प्रेम में व मैत्री में कैसे उतरना; करुणावान कैसे होना, प्रेमपूर्ण होने की क्षमता कैसे अर्जित करनी; तब वे आंतरिक जगत में पहुँच जाते हैं। पतंजलि की पहुँच अंतर-अवस्था के पूरे वैज्ञानिक विवरण तक है। 16-इस पृथ्वी के लोगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है, सूर्य-व्यक्ति और चंद्र-व्यक्ति, या हम उन्हें यांग और यिन भी कह सकते हैं। सूर्य पुरुष का गुण है; स्त्री चंद्र का गुण है। सूर्य आक्रामक होता है, सूर्य सकारात्मक है; चंद्र ग्रहणशील होता है, निष्क्रिय होता है। सारे जगत के लोगों को सूर्य और चंद्र इन दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है। और हम अपने शरीर को भी सूर्य और चंद्र में विभक्त कर सकते हैं; योग ने इसे इसी भाँति विभक्त किया है। 17-योग ने तो शरीर को इतने छोटे-छोटे रूपों में विभक्त किया है कि श्वास तक को भी बाँट दिया है। एक नासापुट में सूर्यगत श्वास है, तो दूसरे में चंद्रगता वास है जब व्यक्ति क्रोधित होता है, तब वह सूर्य के नासापुट से श्वास लेता है। और अगर शांत होना चाहता है तो उसे चंद्र नासापुट से श्वास लेनी होगी। योग में तो संपूर्ण शरीर को ही विभक्त कर दिया गया है : मन का एक हिस्सा पुरुष है, मन का दूसरा हिस्सा स्त्री है। और व्यक्ति को सूर्य से चंद्र की ओर बढ़ना है, और अंत में दोनों के भी पार जाना है, दोनों का अतिक्रमण करना है।
18-योग मात्र एक विज्ञान है। यह एक संयोगपूर्ण घटना ही है कि हिंदुओं ने योग को खोजा। लेकिन यह तो आंतरिक अस्तित्व का एक विशुद्ध गणित है।इसलिए एक मुसलमान भी योगी हो सकता है; ईसाई भी योगी हो सकता है। इसी तरह एक जैन, एक बौद्ध भी योगी हो सकता है।
महर्षि पतंजलि बड़े कठोर गणितज्ञ हैं,और गणित की भाषा में ही बात करते हैं।
19-वे संक्षिप्त होंगे और तुम्हें कुछ सूत्र देंगे। वे सूत्र संकेत मात्र हैं कि क्या करना है। वे ऐसा कुछ भी कहने का प्रयास नहीं करते, जिसे शब्दों में कहा न जा सके। वे असंभव के लिए प्रयत्न ही नहीं करते। वे तो बस नींव बना देंगे और यदि तुम उस नींव का आधार लेकर चल पड़े, तो उस शिखर पर पहुंच जाओगे जो अभी सबके परे है।योग मृत्यु तथा नव जीवन दोनो ही है।
तुम जैसे हो, उसे तो मरना होगा क्योकि जब तक पुराना मरेगा नही, नये का जन्म नहीं हो सकता।
20-नया तुम में ही तो छिपा है। तुम केवल उसके बीज हो। और बीज को गिरना ही होगा, धरती में पिघलने के लिए। बीज को तो मिटना ही होगा, केवल तभी तुम में से नया प्रकट होगा। तुम्हारी मृत्यु ही तुम्हारा नव जीवन बन पायेगी। योग दोनों है -मृत्यु भी और जन्म भी। जब तक तुम मरने को तैयार न होओ तब तक तुम्हारा नया जन्म नहीं हो सकता। यह केवल विश्वास को बदलने की बात नहीं है।योग तुम्हारे समग्र अस्तित्व से, तुम्हारी जड़ों से संबंधित है। वह दार्शनिक नहीं है।
योग का अर्थ ;-
03 FACTS;-
1-चित्त की वृत्तियों का रोकना/निरोध करना योग है |पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने 'चित्तभूमि' रखा है। उन्होंने कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है।
2-इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं। जिस अवस्था में ध्येय का रूप प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं। यह योग पाँँच प्रकार के क्लेशों का नाश करनेवाला है। असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कारमात्र बच रहता है। यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है। चित्तभूमि या मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं ;-(1) क्षिप्त (2) मूढ़ (3) विक्षिप्त (4) एकाग्र (5) निरुद्ध।
The 5 states of mind in which Samadhi lies are:
Kshipta – Chaotic or most fickle state of mind.
2-Mudha – Dull or Lazy state of mind.
3-Vikshipta – Partially focused mind.
4-Ekagra – One-pointed mind.
5-Niruddha – Fully absorbed mind.
2-1. क्षिप्त अवस्था :-
मन की पहली अवस्था है- क्षिप्त अवस्था। क्षिप्त का अर्थ है-मन की चंचल स्थिति, चंचल अवस्था।इस स्तर में मन इन्द्रियों के रूप, रस, गन्ध, शब्द तथा स्पर्श विषयों की ओर बहुत अधिक आकर्षित रहता है।क्षिप्त अवस्था में चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है ,चित्त को विविध विषयों में तीव्रता से चलाता है।उस अवस्था में, जो कार्य हानिकारक होते हैं, उन कार्यों को भी वह कर बैठता है ! इस अवस्था में रजो गुण की प्रधानता होती है ।
2-2. मूढ़ अवस्था; –
दूसरी अवस्था है-मूढ़ अवस्था।निद्रा , तन्द्रा , आलस्य , मूर्छा आदि अवस्थाओं में जीवात्मा को जब विशेष ज्ञान नहीं होता अथवा विशेष ज्ञान नहीं कर पाता उसको मूढ़ अवस्था कहते हैं ! इस अवस्था में सत्त्व एवं रजोगुण अप्रधान रहते हैं , तमोगुण प्रधान रहता है !
2-3-विक्षिप्तावस्था
विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर चला जाता है।
2-4-एकाग्र अवस्था;-
जिस अवस्था में योगाभ्यासी विवेक, वैराग्य, और अभ्यास से अपने चित्त को योग के लिए अपेक्षित किसी एक विषय में अधिकारपूर्वक बहुत काल तक स्थिर कर लेता है , उसको एकाग्र कहते हैं !एकाग्र चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है जिसे योग नहीं कह सकते।इस अवस्था में मन दुर्गुणों को दूर करने में लिप्त रहता है तथा बहुत समय तक एक विषय में एकाग्रचित्त रह सकता है। एकाग्र अवस्था किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण की अवस्था है। यह योग की पहली सीढ़ी है।
2-5-निरुद्ध अवस्था;-
निरुद्ध अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है।इसी निरुद्व अवस्था को ‘असंप्रज्ञात समाधि’ या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं। यही समाधि की अवस्था है।जब तक मनुष्य के चित्त में विकार भरा रहता है और उसकी बुद्धि दूषित रहती है, तब तक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। जिस अवस्था में योगाभ्यासी सम्प्रज्ञात समाधि की ऊँची अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो उसको उसमे भी दोष दिखाई देने लग जाते हैं ; उन दोषों के कारण परवैराग्य उत्पन्न होता है। उस अवस्था में चित्त की समस्त वृतियों का निरोध हो जाता है।इसको निरुद्ध अवस्था कहते हैं ।
3-स्वामी विवेकानंद के द्वारा अनुसार;-
“प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है।बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत कर आत्मा के इस ब्रह्म भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।कर्म,उपासना,मनसंयम अथवा
ज्ञान,इनमे से एक या सभी उपयो का सहारा लेकर अपना ब्रह्म भाव व्यक्त करो और मुक्त
हो जाओ।बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत,अनुष्ठान,शास्त्र,मंदिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया कलाप तो गौण अंग प्रत्यंग मात्र है।"
योग के भेद ;-
07 FACTS;-
साधकों के भेद से योग को निम्न श्रेणियों में विभक्त किया गया है ;–
1-राज योग अर्थात ध्यान योग ;–
पतंजलि योग दर्शन का मुख्य विषय राज योग अर्थात ध्यान योग है | पर अन्य सब प्रकार के योग इसके अंतर्गत हैं |
2-ज्ञान योग अर्थात सांख्य योग ;–
सारे ज्ञेय तत्त्व का ज्ञान इस योग दर्शन में अति उत्तमता से कराया गया है |
3-कर्मयोग अर्थात अनासक्ति निष्काम कर्मयोग
4-भक्ति योग; –
यह श्रद्धा , भक्ति का मुख्य अंग है , जप और मंत्र भी इसमें सम्मिलित है |
5-हठ योग ;-
हठ योग का सम्बन्ध शरीर और प्राण से है, जो योग के आठ अंगों – यम , नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि में से आसान और प्राणायाम के अंदर आ जाते हैं |हठ योग , राज योग का साधन मात्र ही है |‘ह’ का अर्थ सूर्य ( पिङ्गला नाड़ी अथवा प्राणवायु ) और ‘ठ’ का अर्थ चन्द्रमा ( इड़ा नाड़ी अथवा अपानवायु ) है , इनके योग को हठ योग कहते है |
6-लययोग और कुण्डलिनी योग – तो राज योग ही है |
7- मनोयोग – दृष्टि बंध ( Sightism ) , अंतरावेश ( Spiritualism ) , सम्मोहन ( Mesmerism ) और वशीकरण ( Hipnotism ) जो मनोयोग से पुकारे जाते है वे भी प्रत्याहार और धारणा के अंतर्गत है
राजयोग का क्या अर्थ है? -
04 FACTS;-
1-अलग-अलग सन्दर्भों में राजयोग के अलग-अलग अनेकों अर्थ हैं। ऐतिहासिक रूप में, योग की अन्तिम अवस्था समाधि' को ही 'राजयोग' कहते थे। किन्तु आधुनिक सन्दर्भ में, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक का नाम 'राजयोग' (या केवल योग) है। महर्षि पतंजलि का योगसूत्र इसका मुख्य ग्रन्थ है।१९वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द ने 'राजयोग' का आधुनिक अर्थ में प्रयोग आरम्भ किया था।
2-राजयोग सभी योगों का राजा कहलाता है क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समामिग्री अवष्य मिल जाती है।राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। महर्षि पतंजलि ने समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेषों का नाश होता है, चित्तप्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेकख्याति प्राप्त होती है।भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को मन को वश में करने के दो उपाय बताये।(1) अभ्यास (2) वैराग्य
3-प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त ज्ञान और शक्ति का आवास है। राजयोग उन्हें जाग्रत करने का मार्ग प्रदर्शित करता है-मनुष्य के मन को एकाग्र कर उसे समाधि नाम वाली पूर्ण एकाग्रता की अवस्था में पंहुचा देना। स्वभाव से ही मानव मन चंचल है। वह एक क्षण भी किसी वास्तु पर ठहर नहीं सकता। इस मन चंचलता को नष्ट कर उसे किसी प्रकार अपने काबू में लाना,किस प्रकार उसकी बिखरी हुई शक्तियो को समेटकर सर्वोच्च ध्येय में एकाग्र कर देना-यही राजयोग का विषय है। जो साधक प्राण का संयम कर,प्रत्याहार,धारणा द्वारा इस समाधि अवस्था की प्राप्ति करना चाहते हे। उनके लिए राजयोग बहुत उपयोगी ग्रन्थ है। 4-राजयोग के अन्तर्गत महिर्ष पतंजलि ने अष्टांग योग को इस प्रकार बताया है ....
1- यम
2-नियम
3-आसन
4-प्राणायाम
5-प्रत्याहार
6-धारणा
7-ध्यान
8-समाधि
NOTE;-
उपर्युक्त प्रथम पाँच 'योग के बहिरंग साधन' हैं। धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के अंतरंग साधन हैं। ध्येय विषय ईश्वर होने पर मुक्ति मिल जाती है। यह परमात्मा से संयोग प्राप्त करने का मनोवैज्ञानिक मार्ग है जिसमें मन की सभी शक्तियों को एकाग्र कर एक केन्द्र या ध्येय वस्तु की ओर लाया जाता है।
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योग क्यो महत्वपूर्ण हैं?-
17 FACTS;-
1-हम एक गहरी भ्रांति में जीते हैं ..आशा की भ्रांति में, किसी आने वाले कल की, भविष्य की भ्रांति में।वास्तव में, आदमी सत्य के साथ नहीं जी सकता; उसे चाहिए. सपने, भ्रांतियां । उसे कई तरह के झूठ चाहिए जीने के लिए।इस बात को बहुत गहरे में समझने की जरूरत है, क्योंकि इसे समझे बिना उस अन्वेषण में नहीं उतरा जा सकता जिसे योग कहते हैं।
2-और इसके लिए मन को गहराई से समझना होगा ..उस मन को जिसे झूठ की जरूरत है, जिसे भ्रांतियां चाहिए ,जो सत्य के साथ नहीं जी सकता और जिसे सपनों की बड़ी जरूरत है।तुम केवल रात में ही सपने
नहीं देखते; तुम जब जाग रहे हो तब भी लगातार सपने ही देखे चले जाते हो।
3-अब वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य नींद के बिना तो जी सकता है, लेकिन सपनों के बिना नहीं जी सकता। पुराने समय में समझा जाता था कि नींद जीवन की बड़ी जरूरत है। लेकिन अब आधुनिक खोजें कहती हैं कि नींद सचमुच कोई बड़ी जरूरत नहीं है। नींद की जरूरत है, ताकि तुम सपने देख सको। यदि तुम्हें नींद में सपने न देखने दिया जाए, तो सुबह तुम अपने को ताजा और जीवंत नहीं पाओगे। तुम स्वयं को इतना थका हुआ पाओगे जैसे कि बिलकुल सो ही नहीं पाये।
4-रात कुछ समय होता है गहरी नींद का और कुछ समय होता है सपनों का। एक आवर्तन है, एक लय है। जैसे रात और दिन के आने जाने की एक लय है। आरम्भ में तुम गहरी नींद में उतर जाते हो, कोई चालीस या पैंतालीस मिनट के लिए। फिर स्वप्नवस्था प्रारम्भ होती है और तुम सपने देखने लगते हो। फिर स्वप्नहीन निद्रा आ जाती है, और उसके बाद फिर से सपनों का आना शुरू हो जाता है। सारी रात यह क्रम चलता है।
5-यदि तुम्हारी नींद में उस समय बाधा आये जब तुम स्वप्नरहित गहरी नींद में सो रहे हो, तो सुबह तुम ऐसा अनुभव नहीं करोगे कि कहीं कुछ खोया है। लेकिन नींद यदि उस समय टूटे जब तुम सपने देख रहे हो तब सुबह तुम स्वयं को बिलकुल थका हुआ और निढाल -सा पाओगे।
अब इन बातों को बाहर से भी जाना जा सकता है। यदि कोई सो रहा है तो तुम जान सकते हो कि वह सपने देख रहा है या नही। अगर वह सपने देख रहा है तो उसकी आंखे लगातार गतिमान हो रही होगी -मानो वह बंद आंखों से कुछ देख रहा है। जब वह स्वप्नरहित गहरी नींद में है तो उसकी आंखे गतिमान नहीं होंगी; ठहरी हुई होगी।
6-अनेकों शोधकर्ताओं ने प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य का मन सपनों पर ही पलता है।फिर यह सपनों की बात केवल रात के विषय में ही सच नहीं है; जब तुम जागे हुए होते हो तब भी मन में कुछ ऐसी ही प्रक्रिया चलती रहती है। दिन में भी तुम अनुभव कर सकते हो कि किसी समय मन में स्वप्न तैर रहे होते है और किसी समय स्वप्न हीं होते है।
दिन में जब सपने चल रहे है और अगर तुम कुछ कर रहे हो तो तुम अनुपस्थित से होओगे क्योंकि कही भीतर तुम व्यस्त हो।
7- मन दिन -रात इन्हीं अवस्थाओं के बीच डोलता रहता है ;गैर -स्वप्न से स्वप्न में, फिर स्वप्न से गैर -स्वप्न में। यह एक आंतरिक लय है।
वर्तमान तो लगभग हमेशा नरक जैसा है। तुम उसके साथ जी लेते हो तो उन आशाओ के सहारे ही, जिन्हें तुमने भविष्य में प्रक्षेपित कर रखा है। तुम आज जी लेते हो, आने वाले कल के भरोसे। तुम आशा किये चले जा रहे हो कि कल कुछ न कुछ घटित होगा कि कल किसी न किसी स्वर्ग के द्वार खुलेगे। वे आज तो हरगिज नहीं खुलते। और कल जब आता है तो वह कल की तरह नही आता; वह 'आज' की तरह आता है।
8-पर तब तक तुम्हारा मन फिर से कहीं और आगे बढ़ चुका होता है।तुम यथार्थ से तो एकात्म नहीं हो, वह जो कि पास है, वह जो यहां और अभी उपस्थित है। तुम कहीं और हो, आगे गतिमान ..आगे कूदते -फांदते!
उस कल को, उस भविष्य को ...कुछ लोग स्वर्ग कहते है,तो कुछ मोक्ष । लेकिन यह सदा भविष्य में है। कोई धन के बारे में सोच रहा है, पर वह धन भी भविष्य में ही मिलने वाला है। कोई स्वर्ग की आकांक्षा में खोया हुआ है, पर वह स्वर्ग मृत्यु के उपरांत ही आने वाला है। स्वर्ग है दूर, सुदूर किसी भविष्य में। जो नहीं है उसी के लिए तुम अपना वर्तमान खोते हो -यही है स्वप्न में जीने का अर्थ।
9-तुम अभी और यहीं नहीं हो सकते। इस क्षण में होना दु:साध्य प्रतीत
होता है।तुम अतीत में जी सकते हो, क्योंकि वह भी स्वप्नवत है : उन बातों की स्मृतिया, यादें, जो अब नहीं हैं। और या तुम भविष्य में जी सकते
हो, लेकिन वह भी एक प्रक्षेपण है। न तो अतीत अस्तित्वगत है और न भविष्य। है तो वर्तमान ही, लेकिन तुम कभी उसमें नहीं होते। यही है सपनों में जीने का अर्थ।
10-हमारे तथाकथित सत्य कुछ और नहीं, झूठ ही हैं -सुंदर झूठ.. वास्तविकता को देखने को कोई तैयार नहीं है।परन्तु यह मन योग
के पथ पर प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि योग सत्य को उद्घाटित करने की एक पद्धति है...एक विधि है ,स्वप्नविहीन मन तक पहुंचने की। योग विज्ञान है -अभी और यहां होने का।जिसका अर्थ है कि अब तुम तैयार हो कि न भविष्य की कल्पना करोगे ,न आशाएं बांधोगे।योग का अर्थ है.. सत्य का साक्षात्कार -जैसा वह है।
11-इसलिए योग के मार्ग में वही प्रवेश कर सकता है जो अपने मन से जैसा वह है, बिलकुल थक गया हो, निराश हो गया हो। यदि तुम अब भी आशा किये चले जा रहे हो कि तुम मन द्वारा कुछ न कुछ पा लोगे, तो योग का यह पथ तुम्हारे लिए नहीं है। समग्र पराजय का भाव चाहिए इस सत्य का रहस्योद्घाटन कि यह मन जो आशाओं को पक्के रखता है, यह मन जो प्रक्षेपण करता है, यह व्यर्थ है; यह निरर्थक है और यह कहीं नहीं ले जाता। यह मन तुम्हें सत्य से बचाता है,तुम्हारी आँख बंद कर देता है, तुम्हें मूर्च्छित करता है और कभी भी ''सत्य'' तुम्हें प्रगट हो सके इसका कोई मौका नहीं देता।
12-तुम्हारा मन एक नशा है। जो है ...मन उसके विरुद्ध है। इसलिए जब तक तुम अपने मन को, अपने अब तक के होने के ढंग को पूरी तरह व्यर्थ हुआ न जान लो; जब तक इस मन को तुम बेशर्त छोड़ न सको, तब तक तुम योग -मार्ग में प्रवेश नहीं कर सकते।कई व्यक्ति योग में उत्सुक होते
हैं, लेकिन बहुत कम लोग ही योग में प्रवेश कर पाते हैं। क्योंकि तुम्हारी रुचि भी मन के कारण ही बनती है। शायद तुम आशा बनाते हो कि अब योग के द्वारा तुम कुछ पा लोगे; कुछ पाने का प्रयोजन तो बना ही रहता है।
13-तुम सोचते हो कि शायद योग तुम्हें एक सम्पूर्ण योगी बना देगा; तुम आनंदपूर्ण अवस्था तक पहुंच जाओगे; तुम ब्रह्म में लीन हो जाओगे; शायद तुम्हें सच्चिदानंद—अस्तित्व, चैतन्य और परमानंद मिल जाये! और अगर यही बातें योग में रस लेने का, अभिरुचि बनाने का कारण है तो कभी भी तुम्हारा मिलन उस पथ से नहीं हो सकता, जिसे योग कहते हैं। इस मनोदशा में तो तुम इस मार्ग के पूर्णत: विरुद्ध हो; तो तुम बिलकुल ही विपरीत दिशा में चल रहे हो।
14-योग का अर्थ है कि अब कोई आशा न बची, अब कोई भविष्य न रहा, अब कोई इच्छा न बची। अब व्यक्ति तैयार है उसे जानने के लिए, जो है। अब कोई रुचि न रही इस बात में कि क्या हो सकता है, क्या होना चाहिए या कि क्या होना चाहिए था। जरा भी रस न रहा। अब केवल उसी में रस है ...जो है। क्योंकि केवल सत्य ही तुम्हें मुक्त कर सकता है, केवल वास्तविकता ही मुक्ति बन सकती है।
15-परिपूर्ण निराशा की जरूरत है। ऐसी निराशा को ही बुद्ध ने दुख कहा है। और अगर सचमुच ही तुम्हें दुख है, तो आशा मत बनाओ, क्योंकि तुम्हारी आशा दुख को और आगे बढ़ा देगी। तुम्हारी आशा एक नशा है जो तुम्हें और कहीं नहीं, केवल मृत्यु तक जाने में सहायक हो सकती है। तुम्हारी सारी आशाएं तुम्हें केवल मृत्यु में पहुंचा सकती है। वे तुम्हें वहीं ले ही जा रही हैं।
16-पूर्ण स्वप्न से आशा रहित हो जाओ। अगर कोई भविष्य नहीं बचता तो आशा भी नहीं बचती। बेशक यह कठिन है। सत्य का सामना करने के लिए बड़े साहस की जरूरत है। लेकिन देर—अबेर वह क्षण आता है। हर आदमी के जीवन में वह क्षण आता ही है, जब वह परिपूर्ण निराशा का अनुभव करता है। नितान्त अर्थहीनता का भाव घटित होता है उसके साथ। जब उसे बोध होता है कि वह जो कुछ कर रहा है, व्यर्थ है; जहां कहीं भी जा रहा है, कहीं पहुंच नहीं पा रहा है; कि सारा जीवन अर्थहीन है ...तब अनायास ही आशाएं गिर जाती हैं, भविष्य खो जाता है और तब पहली बार वह वर्तमान के साथ लयबद्ध होता है। तब पहली बार सत्य से आमना-सामना होता है।
17-जब तक तुम्हारे लिए यह क्षण न आये तब तक कितने ही योगासन किये चले जाओ लेकिन वह योग नहीं है। योग तो अंतस की ओर मुड़ना है। यह पूरी तरह विपरीत मुड़ना है। जब तुम भविष्य में गति नहीं कर रहे हो, जब तुम अतीत में नहीं भटक रहे हो, तब तुम अपने भीतर की ओर गतिमान होने लगते हो, क्योंकि तुम्हारा अस्तित्व अभी और यहीं है, वह भविष्य में नहीं है। तुम अभी और यहां उपस्थित हो - अब तुम यथार्थ में प्रविष्ट हो सकते हो। तब मन का इसी क्षण में उपस्थित रहना जरुरी है।
योगसूत्र;-
1-''अब योग का अनुशासन''।
2-''योग मन की समाप्ति है।''
3-''तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है।''
4-''अन्य अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य हो जाता है''।
पहला सूत्र है:
''अब योग का अनुशासन।''
'अब योग का अनुशासन।’ एक—एक शब्द को ठीक से समझना है, क्योंकि पतंजलि एक भी अनावश्यक शब्द का प्रयोग नहीं करते।’ अब योग का अनुशासन।’ पहले 'अब' शब्द को समझने का प्रयत्न करें। यह 'अब' मन की उसी अवस्था की ओर संकेत करता है, जिसकी बात मैं तुमसे कह रहा था।
यदि तुम्हारा मोहभंग हुआ है, यदि तुम आशारहित हुए हो, यदि तुमने सब इच्छाओं की व्यर्थता को पूरी तरह जान लिया है; यदि तुमने देखा है कि तुम्हारा जीवन अर्थहीन है, और जो कुछ भी अब तक तुम कर रहे थे वह सब बिलकुल निर्जीव होकर गिर गया है; यदि भविष्य में कुछ भी नहीं बचा है; यदि तुम समग्र स्वप्न से निराशा में डूब गये हो, जिसे कीर्कगार्द ने तीव्र व्यथा कहा है; अगर तुम इस तीव्र व्यथा में हो, पीड़ित—नहीं जानते कि क्या करना है, कहां जाना है, किसकी सहायता खोजनी है; बस पागलपन या आत्महत्या या मृत्यु की कगार पर खड़े हो, यदि तुम्हारे पूरे जीवन का ढांचा अचानक व्यर्थ हो गया है—और यदि ऐसा क्षण आ गया है तो पतंजलि कहते हैं— ' अब योग का अनुशासन।’ केवल अब, तुम योग के विज्ञान को, योग के अनुशासन को समझ सकते हो।
यदि ऐसा क्षण नहीं आया तो तुम योग का अध्ययन किये चले जा सकते हो, तुम एक बड़े विद्वान बन सकते हो लेकिन तुम योगी नहीं बनोगे। तुम इस पर शोध—प्रबंध लिख सकते हो, भाषण भी दे सकते हो, लेकिन तुम योगी न बनोगे। वह क्षण अभी तुम्हारे लिए नहीं आया है। बौद्धिक तौर पर तुम इसमें रुचि ले सकते हो, मन के द्वारा तुम योग से संबंधित हो सकते हो लेकिन योग कुछ नहीं है, अगर यह अनुशासन नहीं है। योग कोई शास्त्र नहीं है; योग अनुशासन है। यह कुछ ऐसा है जिसे तुम्हें करना है। यह कोई जिज्ञासा नहीं है, यह दार्शनिक चिंतन भी नहीं है। यह इन सबसे कहीं गहरा है। यह तो सवाल है जीवन और मरण का।
यदि वह क्षण आ गया है जब कि तुम महसूस करते हो कि सारी दिशाएं अस्त—व्यस्त हो गयी हैं, सारी राहें खो गयी है, भविष्य अंधियारा है और हर इच्छा कडुआ गयी है और हर इच्छा द्वारा तुमने केवल निराशा ही पायी है, यदि आशाओं और सपनों की ओर सारी गतियां समाप्त हो चुकी हैं— ' अब योग का अनुशासन।’ और यह 'अब' आया ही नहीं होगा तो मैं योग के विषय में कितना ही कहता जाऊं लेकिन तुम नहीं सुन पाओगे। तुम तभी सुन सकते हो, यदि वह ' क्षण' तुम में उपस्थित हो चुका है।
क्या तुम वास्तव में असंतुष्ट हो? हर कोई कह देगा 'हां', लेकिन वह असंतुष्टि वास्तविक नहीं है। तुम इससे—उससे —किसी बात से असंतुष्ट हो सकते हो लेकिन तुम पूरी तरह असंतुष्ट नहीं हो। तुम अब भी आशा किये जा रहे हो। तुम असंतुष्ट हो भी तो अतीत की किन्हीं आशाओं के कारण, लेकिन भविष्य के लिए तो तुम अब तक आशा किये जा रहे हो। तुम्हारी असंतुष्टि संपूर्ण नहीं है। तुम अब भी कहीं कोई संतोष, कहीं कोई संतुष्टि पा लेने को ललक रहे हो।
कई बार तुम निराशा अनुभव करते हो लेकिन वह निराशा सच्ची नहीं है। तुम निराशा अनुभव करते हो क्योंकि कुछ आशाएं पूरी नहीं हुईं, कुछ आशाएं विफल हो गयी हैं। किंतु आशा अब भी जारी है। आशा गिरी नहीं। तुम अब भी आशा करोगे। तुम किसी विशेष आशा के प्रति ही असंतुष्ट हो लेकिन तुम आशा मात्र से असंतुष्ट नहीं हो। यदि तुम आशा मात्र से निराश हो गये हो तो वह क्षण आ गया है जब तुम योग में प्रविष्ट हो सकते हो। और यह प्रवेश किसी मानसिक और वैचारिक घटना में प्रविष्ट होने जैसा नहीं होगा। यह प्रवेश होगा एक अनुशासन में प्रवेश।
अनुशासन क्या है? अनुशासन का अर्थ है अपने भीतर एक व्यवस्था निर्मित करना। जैसे तुम हो, तुम एक अराजकता हो। जैसे कि तुम हो, पूरी तरह अव्यवस्थित—से हो—गुरजिएफ कहा करते थे। और गुरजिएफ की बहुत—सी बातें पतंजलि की भांति हैं। उन्होंने भी धर्म के मर्म को विज्ञान बनाने का प्रयास किया। गुरजिएफ कहा करते थे तुम एक नहीं हो, तुम भीड़ हो। जब तुम कहते हो 'मैं', तो कोई मैं होता नहीं। तुम्हारे भीतर अनेक 'मैं' अनेक अहं हैं। सुबह कोई एक 'मैं' है, दोपहर कोई और 'मैं' है और शाम कोई तीसरा ही 'मैं' होता है। लेकिन इस गड़बड़ी के प्रति तुम कभी सचेत भी नहीं होते। क्योंकि सचेत होगा भी कौन? कोई अंतस केंद्र ही नहीं है, जिसे इसका बोध हो पाये।
'योग अनुशासन है' इसका अर्थ है कि योग तुम्हारे भीतर एक क्रिस्टलाइज्ड सेंटर का, एकजुट केंद्र का निर्माण करना चाहता है। तुम तो जो हो, एक भीड़ हो। और भीड़ के बहुत—से गुण होते हैं। एक तो यह कि भीड़ पर कोई विश्वास नहीं कर सकता। गुरजिएफ कहते थे कि आदमी वादा नहीं कर सकता। वादा करेगा भी कौन? तुम तो वहां होते ही नहीं और तुम वादा करते हो उसे पूरा कौन करेगा? अगली सुबह वह तो रहा ही नहीं जिसने वादा किया था!
मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं, ' अब मैं व्रत लूंगा।’ वे कहते हैं, 'अब मैं यह करने की प्रतिज्ञा करता हूं? 'मैं उनसे कहता हूं 'इससे पहले कि तुम कोई प्रतिज्ञा लो, दो बार फिर सोच लो। क्या तुम्हें पूरा आश्वासन है कि जिसने वादा किया है वह अगले क्षण बना भी रहेगा?' तुम कल से सुबह जल्दी चार बजे उठने का निर्णय लेते हो। और चार बजे तुम्हारे भीतर कोई कहता है, 'झंझट मत लो। बाहर इतनी सर्दी पड़ रही है! और ऐसी जल्दी भी क्या है? मैं यह कल भी कर सकता हूं।’ और तुम फिर सो जाते हो।
जब सुबह उठते हो तो पछताते हो। सोचते हो कि यह अच्छा नहीं हुआ; तुम्हें जल्दी ही उठ जाना चाहिए था। तुम फिर निर्णय लेते हो कि कल तुम चार बजे ही उठोगे। लेकिन कल भी यही कुछ होने वाला है क्योंकि जिसने प्रतिज्ञा की वह सुबह चार बजे वहां होता नहीं, कोई दूसरा ही उसकी जगह आ बैठता है। तुम रोटरी क्लब की भांति हो। चेयरमैन निरंतर बदलता रहता है। तुम्हारा हर हिस्सा रोटरी चेयरमैन बन जाता है। यह चक्र चल रहा
है, हर घडी कोई और ही प्रधान बन जाता है।
गुरजिएफ कहा करते थे कि मनुष्य का प्रमुख अभिलक्षण यही है कि वह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। तुम वचन पूरा नहीं कर सकते। वचनबद्ध हुए चले जाते हो, और तुम अच्छी तरह जानते हो कि वचनों को पूरा नहीं कर पाओगे। क्योंकि तुम एक नहीं हो, तुम एक अव्यवस्था हो, एक अराजकता हो। इसलिए पतंजलि कहते है, 'अब योग का अनुशासन।’ यदि तुम्हारा जीवन एक परम दुःख बन चुका है, यदि अनुभव करते हो कि तुम जो भी करते हो उससे नर्क ही बनता है, तब वह क्षण आ गया है। यह क्षण तुम्हारी हस्ती के, तुम्हारे अस्तित्व के आयाम को बदल सकता है।
अभी तक तो तुम एक अव्यवस्था, एक भीड़ की तरह जिये। योग का मतलब है कि अब तुम्हें लयबद्धता बनना होगा, तुम्हें 'एक' बनना होगा। एक जुट होने की आवश्यकता है, केंद्रीकरण की आवश्यकता है। और जब तक तुम केंद्र नहीं पा लेते, जो कुछ भी तुम करते हो वह व्यर्थ है। जीवन और समय का बेकार विनष्ट होना है। पहली आवश्यकता है केंद्रबिंदु। और जिसके पास यह केंद्र है वही व्यक्ति आनंदित हो सकता है। हर व्यक्ति आनंद की मांग करता है। लेकिन तुम मांग नहीं कर सकते। इसे तो तुम्हें अर्जित करना होगा। अंतस की आनंद अवस्था के लिए सब लालायित रहते हैं, लेकिन केवल केंद्रस्थ व्यक्ति ही आनंदित हो सकता है। भीड़ तो कैसे आनंद मय हो सकती है। भीड़ का तो कोई व्यक्तित्व नहीं है। वहां कोई आत्मा नहीं, इसलिए आनंदमय हो गातो कौन?
आनन्द का अर्थ है, एक परम मौन। और ऐसा मौन तभी संभव है जब भीतर लयबद्धता हो, जब सारे बेमेल टुकड़ो का मेल हो जाये, वे एक बन जायें जब भीड़ न रहे बल्कि केवल एक ही हो। जब भीतर घर में कोई न हो और तुम अकेले हो, तब तुम आनन्द से भर जाओगे। पर अभी तो हर एक तुम्हारे घर में है। तुम वहाँ हो नहीं, केवल मेहमान ही वहाँ है। मेंजबान तो सदा ही अनुपस्थित है। और केवल मेजबान आनन्द मय हो सकता है। इस केंद्रीयकरण की प्रक्रिया को ही पतंजलि ने अनुशासन कहा है—अनुशासनम् डिसिप्लिन। यह डिसिप्लिन शब्द बहुत सुंदर है। यह उसी जड़, उसी उद्गम से आया है जहां से डिसाइपल शब्द आया। अनुशासन काम तलब है सीखने की क्षमता, जानने की क्षमता। किन्तु तब तक तुम नहीं जान सकते, नहीं सीख सकते, जब तक तुम स्व—केद्रित न हो जाओ।
एक बार एक आदमी बुद्ध के पास आया। वह आदमी अवश्य कोई समाज—सुधारक रहा होगा, कोई क्रांतिकारी। उसने बुद्ध से कहा, 'संसार बहुत दुःख में है; आपकी इस बात से मैं सहमत हूं।’ बुद्ध ने यह कभी कहा ही नहीं कि संसार दुख में है। बुद्ध ने कहा, 'तुम दुःख हो, संसार नहीं। जीवन दुःख है, संसार नहीं। मन दुःख है, संसार नही।’ लेकिन क्रांतिकारी ने कहा, 'संसार बडी तकलीफ में है। मैं आपसे सहमत हूं। अब मुझे बताइए कि मैं क्या कर सकता हूं? बड़ी गहरी करुणा है मुझ में और मैं मानवता की सेवा करना चाहता हू।’
सेवा करना जरूर उसका आदर्श रहा होगा। बुद्ध ने उसकी तरफ देखा और वे मौन ही रहे। बुद्ध के शिष्य आनन्द ने कहा, यह आदमी सच्चा जान पड़ता है। इसे राह दिखाइए। आप चुप क्यों हैं? तब बुद्ध ने उस क्रांतिकारी से कहा, 'तुम संसार की सेवा करना चाहते हो, लेकिन तुम हो कहा? मैं तुम्हारे भीतर किसी को नही देख रहा। मैं देखता हूं और वहाँ कोई नहीं है।
तुम्हारा कोई केन्द्र नहीं। और जब तक तुम्हारे भीतर एक ठोस केन्द्र नहीं बनता तब तक तुम जो भी करोगे उससे और अनिष्ट होगा। तुम्हारे सारे समाज—सुधारक, क्रांतिकारी, तुम्हारे नेता, वे सब अनिष्टकारी और उपद्रव मचाने वाले हैं। दुनिया बेहतर होती यदि नेता न होते। लेकिन वे आदत से मजबूर हैं। वे यही महसूस करते हैं कि उन्हें कुछ करना चाहिए क्योंकि संसार बड़े दुख में है। और स्वयं भीतर केंद्रस्थ हुए नहीं, अत: जो भी वे करते हैं, उससे दुख की मात्रा बढ़ती ही है। केवल करुणा और केवल सेवा सहायक न हो सकेगी। आत्म—केंद्रित व्यक्ति से उठी करुणा की बात ही और है। भीड़ से उठी करुणा हानिकारक है, उपद्रव मचाने वाली है; वह तो जहर
' अब योग का अनुशासन।’ अनुशासन का मतलब है होने की क्षमता, जानने की क्षमता, सीखने की क्षमता। हमें ये तीनों बातें समझ लेनी चाहिए।’होने की क्षमता।’ पतंजलि कहते हैं, यदि तुम अपना शरीर हिलाये बिना मौन रह कर कुछ घंटे बैठ सकते हो, तब तुम्हारे भीतर होने की क्षमता बढ़ रही है। तुम हिलते क्यों हो गुर कुछ पल भी तुम बिना हिले—डुले नहीं बैठ सकते। तुम्हारा शरीर सतत चंचल है। कहीं तुम्हें खुजलाहट. होती है, टांगें सुन्न होने लगती हैं,बहुत कुछ होना शुरू हो जाता है। ये सब हिलने के बहाने हैं।
तुम मालिक नहीं हो। शरीर से नहीं कह सकते कि ' अब एक घंटे तक मैं नहीं हिलूंगा।’ शरीर तो तत्काल विद्रोह कर देगा। उसी पल तुम्हें वह मजबूर करेगा हिलने के लिए, कुछ करने के लिए। और वह तुम्हें कारण भी देगा कि 'तुम्हें हिलना ही है क्योंकि एक कीड़ा काट रहा है, वगैरह—वगैरह।’ तुम उस कीड़े को जब देखने जाओ तो हो सकता है उसे ढूंढ भी न पाओ।
तुम आत्मस्थ नहीं हो। तुम एक सतत कंपित ज्वरग्रस्त हलचल हो। पतंजलि के बताये आसन किसी शारीरिक प्रशिक्षण से खास संबंधित नहीं है, बल्कि वे एक आंतरिक प्रशिक्षण से संबंधित हैं कि बस, होना; कि बिना कुछ किये, बिना किसी गति के, बिना किसी हलचल के बस, ठहर जाओ। यह ठहरना अंतस के केंद्रीयकरण में सहायक गो।।
यदि तुम एक ही आसन में ठहर सकते हो तो शरीर गुलाम, सेवक बन जायेगा फिर वह तुम्हारा अनुगमन करेगा। शरीर जितना अधिक तुम्हारा अनुगमन करेगा, उतना ही अधिक शक्तिपूर्ण और विराट बनेगा तुम्हारे भीतर का अस्तित्व। और इसे ध्यान में रखना कि तुम्हारे शरीर में गति नहीं होती तो तुम्हारा मन भी गतिमय नहीं हो सकता। क्योंकि शरीर और मन कोई अलग—अलग चीजें नहीं हैं। वे एक ही घटना के दो छोर हैं। तुम शरीर और मन नहीं हो,तुम हो शरीर—मन। तुम्हारा व्यक्तित्व मनोशरीर है, साइकोसोमैटिक है, एक साथ शरीर और मन दोनों है। मन शरीर का सबसे सूक्ष्म हिस्सा है और तुम इससे विपरीत भी कह सकते हो : शरीर सबसे स्थूल हिस्सा है मन का।
इसलिए जो कुछ शरीर में घटित होता है वही मन में घटित होता है। और इसके विपरीत जो कुछ मन में घटित होता है वही शरीर में घटित होता है। यदि शरीर में कोई गति नहीं हो रही और तुम एक ही आसन में स्थिर रह सकते हो, यदि तुम शरीर को खामोश रहने के लिए कह सकते हो तो मन भी खामोश बना रहेगा। वास्तव में मन गतिमय बनता है तो शरीर में भी गति लाने की कोशिश करता है। क्योंकि शरीर में गति आयेगी तो फिर मन भी आसानी से गति कर सकता है। गतिहीन शरीर के साथ मन गतिमय नहीं हो सकता। मन को गतिमान शरीर का सहयोग चाहिए।
यदि शरीर अगतिमान है और मन भी अगतिमान है, तब तुम केंद्र में, अंतस में केंद्रस्थ हो। स्थिर आसन केवल शारीरिक प्रशिक्षण नहीं है। यह एक ऐसी स्थिति का निर्माण करना हुआ जिसमें कि केंद्रस्थता घटित हो सकती है; जिसमें कि तुम अनुशासित हो सकते हो। जब तुम बस हो, जब तुम केंद्रस्थ हो गये हो, जब तुम जान गये कि मात्र होने का क्या अर्थ है, तब तुम सीख सकते हो क्योंकि तभी विनम्र बनोगे। तब तुम समर्पित हो सकते हो। तब कोई नकली अहंकार तुमसे चिपका न रहेगा क्योंकि एक बार जब स्वयं में केंद्रित हो जाते हो तब जान लेते हो कि सारे अहंकार झूठे हैं। तब तुम झुक सकते हो। और तब एक शिष्य का जन्म होता है।
शिष्य होना एक बड़ी उपलब्धि है। अनुशासन के द्वारा ही तुम शिष्य बनते हो। अंतस में केंद्रस्थ होकर ही तुम विनम्र बनोगे। तुम ग्रहणशील बनोगे,तुम खाली हो पाओगे और तब गुरु अपने को तुममें उड़ेल सकता है। तुम्हारी रिक्तता में, तुम्हारे मौन में ही वह प्रवेश कर सकता है, तुम तक पहुंच सकता है। तभी संप्रेषण संभव हो पाता है।
शिष्य का अर्थ है, जो अंतस में केंद्रित है, जो विनम्र, ग्रहणशील और खुला है; जो तैयार है, सचेत है; प्रतीक्षारत और प्रार्थनामय है। योग में गुरु अत्यंत महत्वपूर्ण है—सर्वथा महत्वपूर्ण है। क्योंकि जब तुम उस व्यक्ति के, जो कि आत्मस्थ है, उसके गहन सान्निध्य में होते हो तभी तुम्हारे केंद्रीभूत होने की घटना घटेगी।
यही है सत्संग का मतलब। तुमने सत्संग शब्द को सुना है। इस शब्द का प्रयोग बिलकुल गलत किया जाता है। सत्संग का अर्थ है सत्य का गहरा सान्निध्य। इसका अर्थ है सत्य के पास होना, सद्गुरु के पास होना, जो कि सत्य के साथ ख्याल हो चुका हो। बस, सद्गुरु के निकट बने रहना खुले हुए,ग्रहणशील और प्रतीक्षारत। और यदि तुम्हारी प्रतीक्षा गहरी और सघन हो जाती है तब एक गहन आत्म—मिलन घटित होगा।
सद्गुरु कुछ कर नहीं रहा। बस वह वहां है, मौजूद, उपलब्ध। यदि तुम खुले हो तो वह तुममें प्रवाहित हो जायेगा। यह प्रवाहित होना ही सत्संग कहलाता है। सद्गुरु के साथ तुम्हें कुछ और सीखने की आवश्यकता नहीं है। यदि तुमने सत्संग सीख लिया, उतना काफी है। यदि तुम सद्गुरु के निकट रह सकते हो बिना कुछ पूछे, बिना सोच—विचार के, बिना तर्क के, बस, गुरु के निकट उपस्थित हो, प्राप्य हो, तो सद्गुरु का आत्म—अस्तित्व तुममें प्रवाहित हो सकता है। और आत्म—अस्तित्व प्रवाहित हो सकता है। वह तो प्रवाहित हो ही रहा है। जब कोई व्यक्ति अखंडता प्राप्त कर लेता है, तब उसका अस्तित्व एक विकिरण, रेडिएशन बन जाता है। वह प्रवाहित होता रहता है। तुम उसे ग्रहण करने के लिए वहां हो या नहीं इसका कोई प्रश्र ही नहीं। वह तो नदी की भांति बह रहा है। और यदि तुम खाली हो एक पात्र की तरह—तैयार और खुले हुए तो वह तुममें बह आयेगा।
शिष्य का अर्थ है, वह व्यक्ति जो ग्रहण करने को तैयार है, जो एक गर्भाशय की तरह बन चुका है ताकि सद्गुरु उसमें प्रवेश कर सकें, उसे अनुप्राणित कर सकें। सत्संग शब्द का यही अर्थ है। सत्संग प्रवचन नहीं है। हां, प्रवचन हो सकता है, लेकिन प्रवचन तो बस एक बहाना है।
तुम यहां हो और मैं पतंजलि के सूत्रों पर बोलूंगा, लेकिन वह एक बहाना है। यदि तुम सच में ही यहां हो तब यह प्रवचन, यह बोलना, यह तो तुम्हारे यहां होने का बहाना मात्र ही है। यदि तुम सच में ही यहां हो तो सत्संग आरम्भ होने लगता है। मैं प्रवाहित हो सकता हूं और वह प्रवाह किसी भी बातचीत से कहीं अधिक गहरा है।
वह प्रवाह भाषा के द्वारा बने संप्रेषण से, तुम्हारे साथ हुई किसी भी मानसिक भेंट से बहुत गहरा है। जब तुम्हारा मन सुनने में संलग्न है, तब यह मिलन, यह संप्रेषण घटित होता है। यदि तुम शिष्य हो, यदि तुम एक अनुशासित व्यक्ति हो, यदि तुम्हारा मन मुझे सुनने में संलग्न है, तुम्हारी अंतस सत्ता सत्संग में हो सकती है। तब तुम्हारा सिर व्यस्त रहता है और हृदय खुला रहता है, तब एक गहरे तल पर मिलन घटित होता है। वही मिलन सत्संग है। और दूसरी बातें तो बस बहाने हैं, सद्गुरु के निकट होने के।
पास होना ही सब कुछ है। लेकिन केवल शिष्य ही पास हो सकता है। कोई भी या हर कोई पास नहीं आ सकता। क्योंकि जुड़ाव का, पास आने का मतलब है एक प्रेम—भरा भरोसा।
हम निकट क्यों नहीं होते? क्योंकि डर रहता है। बहुत नजदीक होना खतरनाक हो सकता है, बहुत खुला होना खतरनाक हो सकता है क्योंकि तब तुम अति संवेदनशील हो जाते हो और तब स्वयं का बचाव करना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए एक सुरक्षा के उपाय की तरह हम हर व्यक्ति से एक खास दूरी बनाये रखते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति के आस—पास एक अपना क्षेत्र होता है। और जब कोई तुम्हारे उस क्षेत्र में प्रवेश करता है, तुम भयभीत हो जाते हो। हर व्यक्ति के पास बचाव के लिए बनाया फासला है। तुम अकेले अपने कमरे में बैठे हो और एक अजनबी कमरे में दाखिल होता है। तब जरा ध्यान देना कि तुम सचमुच डर जाते हो। एक सीमाबिन्दु है। यदि वह व्यक्ति उस बिन्दु तक पहुंच जाये या उसके पार पहुंच जाये तो तुम आशंकित हो उठेने, भयभीत हो जाओगे। अचानक एक कंपन महसूस करने लगोगे। वह आदमी एक खास सीमाबिन्दु तक ही आ सकता है।
पास होने का अर्थ है कि अब तुम्हारा कोई अपना क्षेत्र न बचा। पास होने का अर्थ है कि अब तुम कोमल और असुरक्षित हो। इसका अर्थ है कि अब चाहे कुछ भी हो जाये, तुम किसी तरह की सुरक्षा की बात सोच ही नहीं रहे।
एक शिष्य पास आ सकता है। दो कारणों से : एक तो यह कि वह अंतस केंद्रित हो चुका है; एक यह कि वह केंद्रस्थ होने का प्रयत्न कर रहा है। जो केंद्रस्थ होने का प्रयत्न कर रहा है वह व्यक्ति भी निर्भय हो जाता है। उसके पास ऐसा कुछ है जिसे मिटाया नहीं जा सकता। तुम्हारे पास कुछ है नहीं और इसीलिए तुम डरते हो। तुम एक भीड़ हो। भीड़ किसी भी क्षण बिखर सकती है। तुम्हारे पास ऐसा कुछ नहीं है, जो कुछ भी घटित होने पर चट्टान की तरह ही मजबूती से बना रहे। तुम जी रहे हो बिना किसी ठोस आधार के, बिना किसी नींव के—ताश के घर की तरह। तो निश्रित ही हमेशा भय में जीयोगे। कोई तेज हवा, या हवा का हल्का झोंका तक तुम्हें नष्ट कर सकता है। इसलिए तुम्हें स्वयं का बचाव करना होता है।
और इसी लगातार बचाव के कारण तुम प्रेम नहीं कर सकते, भरोसा नहीं कर सकते, मैत्री नहीं कर सकते। तुम्हारे बहुत से मित्र हो सकते हैं लेकिन मैत्री नहीं है क्योंकि मित्रता समीपता की मांग करती है।
तुम्हारे पति हैं, पत्नियां हैं और तथाकथित प्रेमी, प्रेमिकाएं हैं लेकिन प्रेम कहीं नहीं। क्योंकि प्रेम तो सन्निकटता की मांग करता है; भरोसा चाहिए उसके लिए। हो सकता है कि तुम्हारे गुरु हैं, शिक्षक हैं, लेकिन शिष्यत्व कहीं नहीं। क्योंकि तुम किसी के अंतस अस्तित्व के प्रति स्वयं को पूरी तरह दे नहीं सकते। तुम स्वयं को मौका नहीं दे पाते कि पूरी तरह गुरु के पास हो सको, गहरी घनिष्ठता बना सको उसके अस्तित्व के साथ, ताकि वह तुम्हें पूर्णस्वप्न से अभिभूत कर सके, अपने प्रवाह में तुम्हें पूरी तरह प्लावित कर सके।
शिष्य का अर्थ है एक ऐसा खोजी, अन्वेषक, जो भीड़ नहीं है; जो केंद्रीभूत होने की, एकजुट होने की कोशिश कर रहा है, जो कम से कम प्रयास कर रहा है, मेहनत कर रहा है; गहनता से प्रयास कर रहा है, व्यक्ति बनने के लिए, अपनी सत्ता को महसूस करने के लिए, अपना मालिक स्वयं बनने के लिए। तुम तो ऐसे जैसे हो, बस, एक गुलाम हो कितनी—कितनी इच्छाओं के। कितने ही मालिक हैं और तुम तो बस एक गुलाम हो, और अनेक दिशाओं में खींचे जा रहे हो।
'अब योग का अनुशासन।’ योग अनुशासन है, साधना है। यह तुम्हारा प्रयत्न है स्वयं को स्वपान्तरित करने का। और इसमें बहुत—सी चीजें समझ लेने जैसी हैं।
'योग चिकित्सा—विज्ञान नहीं है। पश्रिम में आज बहुत से मनोवैज्ञानिक रोगोपचारों का चलन है और पश्िचम के बहुत से मनोवैज्ञानिक समझते हैं कि योग भी चिकित्सा है। ऐसा नहीं है। योग अनुशासन है, साधना है। अन्तर क्या है? अन्तर यही है कि चिकित्सा की आवश्यकता होती है यदि तुम बीमार होते हो, रोगग्रस्त हो। चिकित्सा की तो तब आवश्यकता आ पड़ती है अगर तुम रोगात्मक हो। लेकिन अनुशासन की आवश्यकता तो स्वस्थ होने पर भी है। वास्तव में अनुशासन तो सहायक ही तभी होता है जब तुम स्वस्थ होते हो।
रोगियों के लिए योग नहीं है। यह उनके लिए है जो चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से तो पूरी तरह स्वस्थ हैं। जो सहज—सामान्य हैं। जो स्किड्जोफ्रीनिक (खष्ठित—मनस्क) नहीं हैं; पागल नहीं हैं, न्यूराटिक (विक्षिप्त) नहीं हैं। वे सहज सामान्य लोग हैं, स्वस्थ लोग हैं जिन्हें कोई रोग नहीं। फिर भी वे जान गये हैं कि जिसे सामान्य कहा जाता है वह व्यर्थ है; जिसे स्वास्थ्य कहा जाता है वह भी बेकार है। कुछ और चाहिए, कुछ ज्यादा विशाल चाहिए, कुछ ज्यादा स्वस्थ,ज्यादा पावन और ज्यादा समग्र चाहिए।
चिकित्साए बीमार लोगों के लिए होती हैं। चिकित्साएं तुम्हारी सहायता कर सकती है योग तक आने के लिए, लेकिन योग चिकित्सा—वितान नहीं है। योग स्वास्थ्य की एक अलग और ऊंची दशा के लिए है, एक भिन्न प्रकार की समग्रता और सत्ता के लिए है। चिकित्साशास्त्र अधिक से अधिक यही कर सकता है कि तुम्हें व्यवस्थित कर दे, समायोजित कर दे। फ्रायड भी कहता है कि हम इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकते। हम तुम्हें समाज का एक सामान्य, समायोजित सदस्य बना सकते हैं। लेकिन यदि समाज स्वयं ही रुका हो तब क्या किया जाये? और ऐसा है। समाज खुद ही बीमार है। कोई चिकित्सा तुम्हें सहज बना सकती है तो इसी लिहाज से कि तुम समाज के अनुकूल हो जाओ, लेकिन समाज तो स्वयं बीमार है, अस्वस्थ है।
इसलिए कई बार यही होता भी है कि एक बीमार समाज में स्वस्थ व्यक्ति को बीमार समझ लिया जाता है। जीसस को बीमार समझा गया और हर प्रयत्न किया गया उन्हें अनुकूल बनाने के लिए। और जब यह जान लिया गया कि उनके बदले जाने की कोई भी आशा नहीं तो उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया। जब जान लिया गया कि अब कुछ किया ही नहीं जा सकता, कि यह आदमी असाध्य है, तब उन्हें सूली पर चढ़ाया गया!
समाज स्वयं बीमार है क्योंकि समाज है कुछ नहीं, केवल तुम्हारा सामूहिक स्वप्न है। यदि किसी समाज के सारे लोग ही बीमार हैं, तो समाज बीमार है और उसके हर सदस्य को रुग्ण समाज के साथ समझौता करना होता है। योग चिकित्सा नहीं है, योग किसी भी स्वप्न में यह कोशिश नहीं करता कि समाज के साथ तुम्हारा सामंजस्थ किया जाये। यदि तुम समन्वय या सामंजस्य की भाषा में ही योग की व्याख्या करना चाहते हो, तब यह समन्वय समाज के साथ नहीं, योग समन्वय है अस्तित्व के साथ, दिव्य सत्ता के साथ।
यह हो सकता है कि एक श्रेष्ठ योगी तुम्हें पागल मालूम पड़े। ऐसा लग सकता है कि इंद्रियां उसके वश में नहीं, दिमाग फिर गया है उसका; क्योंकि अब वह किसी अधिक विराट, किसी अधिक ऊंचे मस्तिष्क का स्पर्श पा रहा है। वह जुड़ गया है चीजों की किसी ऊंची व्यवस्था के साथ। वह जुड़ा है उस व्यापक और वैश्विक मनस के साथ। हमेशा इसी भांति हुआ है। बुद्ध, जीसस, कृष्ण, वे हमेशा कुछ अनियमित और मौजी से ही दीख पड़ते हैं। वे हम जैसे नहीं लगते; वे अनजाने, बाहरी व्यक्ति जान पड़ते है!
इसीलिए हम उन्हें अवतार कहते हैं—बाहरी व्यक्ति! जैसे कि वे किसी अन्य मह से आये हों, जैसे कि वे हमारे इस संसार से संबंधित न हों। वे ऊंचे है,अच्छे है बहुत, पावन भी हैं लेकिन वे हमारे बीच के व्यक्ति नहीं। वे कहीं और से आते हैं, वे हमारे अस्तित्व के अनविार्य अंग नहीं। यह भावना अटल हो गयी है कि वे कहीं बाहर के व्यक्ति है; पर वे 'बाहरी' व्यक्ति नहीं है। वे वास्तविक अंतरंगी है क्योंकि उन्होंने अस्तित्व के अंतरतम सार का स्पर्श किया है, उसके सबसे आन्तरिक मर्म से जुड़े है। लेकिन हमें बाहरी व्यक्ति ही लगते है।
'अब योग का अनुशासन।’
यदि तुम्हारे मन ने पूरी तरह समझ लिया है कि जो कुछ तुम अब तक कर रहे थे वह बिलकुल निरर्थक था; कि वह बुरे से बुरा दुख स्वप्न था या अच्छे से अच्छा सपना था, तब अनुशासन का मार्ग तुम्हारे सामने खुल जाता है। वह मार्ग क्या है?
उसकी मूलभूत परिभाषा है—
योग मन की समाप्ति है।
योगश्रित्तवृत्तिनिरोध:।
मैने तुमसे कहा था, पतंजलि तो सीधे गणितज्ञ हैं। एक ही वाक्य— 'अब योग का अनुशासन' — और बात खत्म हो गयी। यही केवल एक वाक्य है जिसे पतंजलि तुम्हारे लिए प्रयोग करते है। फिर वे इसे निशित हुआ ही समझ लेते हैं कि तुम्हारी योग में रुचि है— आशा के स्वप्न में नहीं, अनुशासन के स्वप्न में;एक स्वपांतरण के स्वप्न में— अभी और यहां। वे और आगे परिभाषा देते है— 'योग मन की समाप्ति है।’
यही योग की परिभाषा है, सबसे सही परिभाषा। योग को बहुत ढंग से परिभाषित किया गया है। बहुत—सी परिभाषाएं है इसकी। कुछ कहते हैं कि योग दिव्य सत्ता के साथ मन का मिलन है, इसीलिए इसे 'योग' कहा जाता है, क्योंकि योग का मतलब है मिलना, दो का जुड़ना। और कई कहते है कि योग का अर्थ है अहंकार का गिर जाना। अहंकार ही बीच में बाधा है और जिस क्षण तुमने अहंकार को गिरा दिया, तुम दिव्य सत्ता से जुड़ जाते हो। तुम जुड़े ही हुए थे लेकिन इस अहंकार के कारण ही लगता रहा कि तुम जुड़े हुए नहीं हो। बहुत व्याख्याएं हैं, लेकिन पतंजलि की परिभाषा सबसे ज्यादा वैज्ञानिक है। वे कहते है, 'योग मन का अवसान है, समाप्ति है।’ योग अ—मन होने की अवस्था है।
यह शब्द 'मन' इन सबको अपने में समेटता है—तुम्हारा अहंकार, तुम्हारी इच्छाएं तुम्हारी आशाएं तुम्हारे तत्वज्ञान, तुम्हारे धर्म, तुम्हारे शास्त्र। ये सब मन के अन्तर्गत हैं। जो कुछ भी तुम सोचते हो वह मन है। जो भी जाना गया है, जो भी जाना जा सकता है, जो ज्ञेय है वह सब मन के अन्तर्गत है। मन की समाप्ति का अर्थ है जो जाना है, उसकी समाप्ति; जो जानना है उसकी समाप्ति। यह एक छलांग है अज्ञात में। जब मन न रहा, तब तुम अज्ञात हो। योग अज्ञात में एक छलांग है। पर उसे अज्ञात कहना भी बिलकुल सही नहीं होगा। वरन कहना तो उसे चाहिए अज्ञेय, ज्ञानातीत।
मन है क्या? मन कर क्या रहा है? यह क्या है? आम तौर पर हम यही सोच लेते हैं कि मन जो है, सिर में पड़ी कोई भौतिक चीज है। पतंजलि इसे नहीं स्वीकारते। और जिसने भी मन के भीतर को जाना है इसे नहीं ही स्वीकारेगा। आधुनिक वितान भी इसे नहीं स्वीकारता। मन कोई भौतिक तत्व नहीं, जो पड़ा है सिर में। मन एक वृत्ति है, क्रियाशीलता है।
तुम चलते हो तो मै कहता हूं तुम चल रहे हो, पर यह 'चलना' है क्या? यदि तुम रुक जाते हो तो वह चलना, चाल कहां है? यदि तुम बैठ जाओ तो चलना किधर चला गया? चलना कोई ठोस, भौतिक चीज नहीं है, वह तो एक क्रिया है। इसलिए जब तुम बैठे हुए हो तो कोई नहीं पूछ सकता कि तुमने अपनी गति कहां रख दी? अभी—अभी तो तुम चल रहे थे, कहां गया वह चलना? तुम हसोगे इस पर। तुम कहोगे, चलना कोई वास्तविक तत्व नहीं है। वह एक क्रिया मात्र है। मैं चल सकता हूं मैं फिर—फिर चल सकता हूं और मैं चलना रोक भी सकता हूं। यह तो क्रियाकलाप है।
मन भी एक क्रिया है, लेकिन इस शब्द 'मन' की वजह से लगता है कि वह भीतर कोई ठोस चीज है। इस मन को, इस माइंड को 'माइंडिंग' कहना बेहतर होगा—जैसे चलने को 'वाकिग' कहते हैं। माइंड का मतलब माइंडिंग, मन का मतलब सोचना। यह एक सक्रियता है।
मैं बोधिधर्म का बार—बार उद्धरण देता रहा हूं। वह चीन गया और चीन का सम्राट उसके पास आया मिलने के लिए। सम्राट ने उससे कहा, 'मेरा मन बहुत बेचैन है, बहुत अशांत है। आप महान संत हैं और मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। मुझे बतायें कि मैं क्या करूं जिससे मेरा मन शांत हो जाये?'
बोधिधर्म ने कहा, 'कुछ भी मत करो। पहले अपना मन मेरे पास ले आओ।’ सम्राट कुछ समझ नहीं सका। उसने कहा, 'आप कहना क्या चाहते हैं?'बोधिधर्म ने कहा, 'सुबह चार बजे आना जब यहां कोई नहीं होता। अकेले आना। और ध्यान रखना, अपने मन को साथ लेते आना।’
वह सम्राट सारी रात सो नहीं सका। बहुत बार उसने वहां जाने का विचार ही रह कर दिया। वह स्वयं से कहता, 'यह आदमी पागल जान पड़ता है। यह कहने से उसका आखिर मतलब क्या है कि भूलना नहीं, मन को साथ लेकर आना!'
लेकिन वह व्यक्ति इतना मोहक, इतना चमत्कारिक था कि सम्राट उस नियोजित भेंट को रह न कर सका। जैसे कि कोई चुम्बक उसे अपनी तरफ खींच रहा था। चार बजे वह बिस्तर से उठ बैठा और कहने लगा, 'चाहे जो हो, मुझे जाना ही है। इस व्यक्ति के पास कुछ होगा। उसकी आंखें कहती हैं कि उसके पास कुछ है। थोड़ा—सा पगला जरूर लगता है पर फिर भी मुझे जाना चाहिए और देखना है कि क्या हो सकता है।’
इस प्रकार वह वहां पहुंचा। बोधिधर्म अपने मोटे सोंटे (डंडे) को लिये बैठे हुए थे। उन्होंने कहा, 'आ गये तुम? कहां है तुम्हारा मन? उसे अपने साथ लाये हो या नहीं?'
सम्राट ने कहा, ' आप क्या फिजूल बात कहते हैं। अब मैं यहां हूं तो मेरा मन भी यहीं है और वह कोई ऐसी चीज है भी नहीं जिसे कहीं भूल से रख आ सकता हूं। वह मुझमें ही है।’
बोधिधर्म ने कहा, ' अच्छा, तो ठीक! सो पहली बात का तो निर्णय हुआ, कि मन तुममें ही है।’ सम्राट ने कहा, 'हां, ठीक, मन मुझमें ही है।’ बोधिधर्म ने कहा, 'तो अब आंखें बद कर लो और खोजो जरा कि मन कहां है। और तुम उसे ढूंढ लो कि वह कहां है तो फिर उसी क्षण मुझे बता देना। मैं उसकी अवस्था शांत बना दूंगा।’
सम्राट ने आंखें बंद कर लीं और कोशिश करता ही गया देखने की, और देखने की। जितना ही भीतर झांकता गया उतना ही होश आता गया कि वहां कोई मन नहीं; मन एक क्रिया मात्र है। वह कोई चीज नहीं कि जिसे ठीक—ठीक इंगित किया जा सके। लेकिन जिस क्षण उसने जाना कि. मन कोई वस्तु नहीं,उसी क्षण उसे अपनी खोज का बेतुकापन भी खुलकर प्रकट हो गया। यदि मन कुछ है ही नहीं तो फिर इसके बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता। यदि यह क्रिया है तो फिर उस क्रिया को क्रियान्वित मत करो, बस, हो गयी बात। यदि यह गति की भांति, चाल की भांति है तो मत चलो।
उसने अपनी आंखें खोलीं। वह बोधिधर्म के सामने झुक गया और बोला, 'ढूंढ निकालने को मन जैसा कुछ है ही नहीं।’ बोधिधर्म ने कहा, 'मैंने तब उसे शांत बना दिया है। और जब भी तुम महसूस करो कि तुम अशांत हो, बस जरा भीतर झांक लेना और देख लेना कि वह बेचैनी कहां है।’ यह अवलोकन ही मनविरोधी है, एंटीमाइंड है। क्योंकि यह देखना सोचना नहीं है। यदि तुम पूरी उत्कटता से झांको तो तुम्हारी सारी ऊर्जा एक दृष्टि बन जाती है, और वही ऊर्जा गति और सोच—विचार भी बन सकती है।
'योग मन की समाप्ति है।’
यह पतंजलि की परिभाषा है। जब मन सक्रिय न हो, तब तुम योग में हुए। जब मन मौजूद हो तो तुम योग में नहीं हो। तो तुम सारे के सारे आसन लगाये जाओ, मुद्राएं बनाये जाओ लेकिन यदि मन कार्य करता ही रहे, यदि तुम सोचते ही रहो तो तुम योग में नहीं उतरे।
योग अ—मन होने की अवस्था है। यदि तुम कोई आसन लगाये बिना भी अ—मन बने रह सको तब तुम एक सम्पूर्ण योगी हुए। बिना किसी आसन किये, बहुतों के साथ ऐसा घटित हुआ है। और ऐसा उन बहुतों के साथ घटित नहीं हुआ जो योगासनों को साधे जा रहे हैं जन्मों—जन्मों से।
सबसे बुनियादी बात जो समझने की है वह यह कि जब सोचने—विचारने की क्रिया वहां नहीं होती, तब वहां तुम होते हो। जब मन की सक्रियता वहां नहीं होती, जब विचार तिरोहित हो जाते हैं, जो कि बादलों की भांति हैं। और जब वे तिरोहित हो जाते हैं तो तुम्हारा अस्तित्व जो आकाश की भांति है, वह ढका हुआ नहीं रहता। वह स्व—सत्ता तो हमेशा ही वहां है, केवल आच्छादित रहता है बादलों से, ढका रहता है विचारों से।
'योग मन की समाप्ति है।’
अब तो पश्चिम में 'झेन' के लिए बहुत आकर्षण बन गया है। झेन जापानी प्रणाली है योग की। यह शब्द 'झेन' ध्यान शब्द से ही बना है। बोधिधर्म द्वारा चीन में इस शब्द ' ध्यान' का प्रसार हुआ। बौद्धों की पाली भाषा में ध्यान शब्द 'झान ' बन गया और फिर चीन में यही शब्द 'चान' बना और फिर यह शब्द जापान में पहुंच कर 'झेन' बन गया।
शब्द का मूल 'ध्यान' ही है। ध्यान का अर्थ होता है अ—मन। और इसलिए जापान में झेन के सारे प्रशिक्षणों का सार है कि मन की क्रियाओं को कैसे रोका जाये, अ—मन कैसे हुआ जाये, बिना विचार के होना कैसे फलित हो।
कोशिश करो। जब मैं कहता हूं 'कोशिश करो', तो बात कुछ विरोधाभास पूर्ण मालूम होगी, लेकिन इसे कहने का और कोई ढंग नहीं है। यदि तुम कोशिश करो, तो यह प्रयास मन से ही आता हुआ मालूम पड़ता है। तुम एक आसन लगा बैठ सकते हो और कोई जाप कर सकते हो, मंत्र पढ़ सकते हो या तुम कुछ भी न सोचते हुए मौन बैठने का प्रयत्न कर सकते हो। लेकिन कुछ न सोचने का प्रयत्न करना भी सोचना बन जाता है। तुम स्वयं से कहते चले जाते हो, 'मुझे कुछ नहीं सोचना है; कुछ न सोचो; सोचना बन्द करो।’ लेकिन यह सब सोचना ही
समझने की कोशिश करो। जब पतंजलि कहते हैं अ—मन की बात, 'मन की समाप्ति' की बात, तो उनका मतलब है पूरी समाप्ति। वे कभी भी जाप करने की स्वीकृति नहीं देंगे कि 'राम—राम—राम' दोहराये चले जाओ। वे कहेंगे, जप करना मन की समाप्ति नहीं है। तुम मन को तो इस्तेमाल कर ही रहे हो, वे कहेंगे, बस, रुक जाओ। लेकिन तुम पूछोगे, 'कैसे?' 'कैसे रुक जायें?' मन तो चलता ही रहता है। यदि तुम बैठ भी जाओ, तो भी मन सतत चलता है। यदि तुम कुछ न करो, तो भी मन अपनी गति करता ही जाता है।
पतंजलि कहते हैं, बस, तुम देखो। मन को चलने दो, मन को करने दो, जो वह कर रहा है। तुम बस देखो; कोई बाधा मत डालो। मात्र साक्षी बन जाओ,दर्शक बन जाओ, असंबंधित। जैसे मन तुम्हारा है ही नहीं, जैसे तुम्हारा उससे कुछ लेना—देना नहीं है, कोई नाता नहीं उससे। संबंधित मत होओ। बस, देखो,और बहने दो मन को। वह बह रहा है तो अतीत के संवेग के कारण, क्यौंकि तुमने हमेशा इसकी मदद की है बहने में। इसकी क्रियाशीलता ने अपनी एक गति बना ली है इसलिए यह बह रहा है। इसे बिलकुल सहयोग न दो। देखो, और मन को बहने दो।
बहुत—बहुत जन्मों से, हो सकता है लाखों जन्मों से तुमने इसे सहयोग दिया है, सहायता दी है, तुमने अपनी ऊर्जा दी है इसे। नदी कुछ समय तक बहेगी लेकिन यदि तुम सहयोग न दो, यदि तुम असंबंधित—से बने रहो— जिसे बुद्ध ने कहा है उपेक्षा. बिना किसी संबद्धता के देखना; बस देखना; किसी भी स्वप्न में कुछ न करना। ऐसे में मन कुछ देर बहेगा और फिर स्वयं ही थम जायेगा। जब संवेग चुक जाता है, जब ऊर्जा बह चुकी होती है, तब मन रुक जायेगा। और जब मन रुक जाता है, तुम योग में उतरते हो। तुमने अनुशासन पा लिया है। यही परिभाषा है : 'मन की समाप्ति योग है।’
तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है।
जब मन का होना समाप्त होता है, साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है। जब तुम केवल देख सकी बिना मन के साथ तादात्म्य बनाये, बिना निर्णय किये, बिना प्रशंसा या आलोचना किये, बिना चुनाव किये—बस, केवल देखते रहो जबकि मन बह रहा हो, तो ऐसा क्षण आ जाता है जब स्वयं ही मन रुक जाता है, थम जाता है।
जब मन नहीं है, तब तुम अपने साक्षी में प्रतिष्ठित हो जाते हो। तब तुम साक्षी बन गये—केवल देखने वाले, एक द्रष्टा। तब तुम कर्ता न रहे, विचारक न रहे। तब बस, तुम हो—शुद्ध अस्तित्व, शुद्धतम अस्तित्व। तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो गया।
'अन्य अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य बना रहता है।’
साक्षी के अतिरिक्त और दूसरी सभी अवस्थाओं में मन के साथ तुम्हारा तादात्म्य बना रहता है। तुम विचारों के प्रवाह के साथ एक हो जाते हो; एक हो जाते हो बादलों के साथ : कई बार सफेद बादलों के साथ, कई बार वर्षा से भरे बादलों के साथ, तो कई बार वर्षारिक्त खाली बादलों के साथ। लेकिन कुछ भी हो, तुम किसी विचार के साथ, किसी बादल के साथ एक हो ही जाते हो। और इस तरह तुम आकाश की शुद्धता गंवा देते हो, खो देते हो अंतरिक्ष की शुद्धता। तुम जैसे बादलों में घिर जाते हो। और बादलों का यह घेराव घटित होता है क्योंकि तुम तादात्म्य जोड़ लेते हो, तुम विचारों के साथ एक हो जाते हो।
खयाल आता है कि तुम भूखे हो और विचार मन में कौंध जाता है। विचार इतना भर है कि भूख है, कि पेट को भूख लगी है। उसी क्षण तुम तादात्म्य स्थापित कर लेते हो। तुम कहते हो, 'मैं भूखा हूं। मुझे भूख लगी है।’ मन में तो भूख का विचार भर आया था पर तुमने उसके साथ तादात्म्य बना लिया है। तुम कह देते हो, 'मुझे भूख लगी है।’ यही तादात्म्य है।
बुद्ध भी भूख महसूस करते हैं, पतंजलि भी भूख महसूस करते हैं, लेकिन पतंजलि कभी नहीं कहेंगे 'मुझे भूख लगी है।’ वे कहेंगे कि शरीर भूखा है। वे कहेंगे, मेरा पेट भूख महसूस कर रहा है। वे कहेंगे, भूख वहां है। वे तो कहेंगे, मैं साक्षी हूं। मैं इस विचार का साक्षी बना हूं जो पेट द्वारा दिमाग तक कौंध गया, वह यह कि मुझे भूख लगी है। पेट भूखा है, पतंजलि तो उसके साक्षीमात्र बने रहेंगे। लेकिन तुम तादात्म्य बना लेते हो, विचार के साथ एक हो जाते हो।
'तब साक्षी स्वयं में स्थापित होता है।’
'अन्य अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य हो जाता है।’
यही परिभाषा है : 'योग मन की समाप्ति है।’ जब मन थमता है, समाप्त होता है, तुम अपनी साक्षी सत्ता में अवस्थ’त होते हो। इस अवस्था के अतिरिक्त बाकी सभी अवस्थाओं में तादात्म्य बना ही रहता है। ये तादात्म्य ही संसार बनाते रहते हैं। वे ही हैं संसार। यदि तुम इन तादात्म्य में हो, तब तुम संसार में हो, दुख में हो। और यदि तुम इन तादात्म्यों के मरे हो गये, तब तुम मुक्त हुए। तब तुम सिद्ध हो गये, सम्बोधि को उपलब्ध हुए। तुमने निर्वाण पा लिया। तुम इस दुख—भरे संसार के पार चले गये और आनंद के जगत में प्रविष्ट हुए।
और वह जगत अभी और यहां है। बिलकुल अभी, इसी क्षण। तुम्हें इसके लिए एक पल भी प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। मन के साक्षी भर बन जाओ और तुम उस जगत में प्रविष्ट कर जाओगे। मन के साथ तादात्म्य जोड़ लो, तो उसे खो दोगे। यही है बुनियादी परिभाषा।
इन सारी बातों को याद रखना, क्योंकि बाद में, दूसरे सूत्रों में हम और विस्तार में जायेगे—कि क्या करना है, कैसे करना है, लेकिन हमेशा ध्यान में रखना कि बुनियाद यही है।
साधक को अ—मन की अवस्था उपलब्ध करनी है। यही लक्ष्य है।
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ध्यान है भीतर झाँकना;-
1-बीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है-क्या हो सकता है। लेकिन, बीज शायद स्वयं के भीतर झाँक भी नहीं सकता। पर मनुष्य तो झाँक सकता है। यह झाँकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं (हियर एंड नाउ) जानना ही ध्यान है। ध्यान में गहरे और गहरे ..उतरे । 2-गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है। और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है, उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है, वैसे ही अंकुरित होने लगता है। शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें। क्योंकि ध्यान ही वह द्वारहीन द्वार है, जो स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है।
क्या बिना ध्यान के जीवन में सुख होता नहीं?- 05 FACTS;- 1-ध्यान का अर्थ है स्वार्थ, परम स्वार्थ, आत्यांतिक स्वार्थ... क्योंकि ध्यान से ज्यादा निजी कोई बात नहीं है इस जगत में। ध्यान का कोई सामाजिक संदर्भ नहीं। ध्यान का अर्थ है अपने एकांत में उतर जाना, अकेले हो जाना, मौन, शून्य, निर्विचार, निर्विकल्प। 2-लेकिन उस निर्विचार में, उस निर्विकल्प में जहां आकाश बादलों से आच्छादित नहीं होता--अंतर आकाश--भीतर का सूरज प्रगट होता है। सब जगमग हो जाता है। सब रोशन हो जाता है। फिर तुम्हारे भीतर प्रेम के फूल खिलते हैं, आनंद के झरने फूटते हैं, रस की धाराएं बहती हैं। फिर उलीचो, फिर बांटो। बांटना ही पड़ेगा। और उस बांटने को परोपकार कहते है। 3-और जिसकी जीवन में ध्यान नहीं है, वह तो दूसरे को सताएगा ही... अपरिहार्यरुपेण सताएगा।क्योंकि जो खुद दुखी है वह दुख ही बांट सकता है। और गैर ध्यानी दुखी होगा ही, नहीं तो कोई ध्यान तलाशे क्यों? अगर बिना ध्यान के जीवन में सुख हो सकता होता, तो सुख कभी का हो गया होता। बिना ध्यान के जीवन में सुख होता नहीं। ध्यान के बिना सुख का बीज टूटता ही नहीं, अंकुरण ही नहीं होता। फूल तो लगेंगे कैसे? फल तो आएंगे कैसे? ध्यान तो सुख के बीजों को बोना है। 4-ध्यान भीतर की खेती है, भीतर की बागवानी है। और जब भीतर फूल होते हैं और फसल ऊगती है, और फसल लहलहाती है और जब तुम्हारे भीतर आनंद की तरंगे उठती है, तो क्या करोगे? इस आनंद को बांटना ही पड़ेगा। जब बादल जल से भरे होते हैं तो बरसना पड?ता है। और जब दीये में रोशनी होती है तो किरणें फैलती हैं। और जब फूल में सुगंध उड़ती है, चांदत्तारों को छूने की अभीप्सा रखती 5-जिसके भीतर आनंद है वह बांटेगा। और आनंद ही सच्चा धन है। क्योंकि इसे किसी से छीनना नहीं होता, इसे किसी और से लेना नहीं होता। यह अपना है;और जो अपना है, वही दो, तो पुण्य है। जो अपना है ही नहीं, उसको दे कर पुण्य कैसे हो सकता है।
ध्यान के पाँच अंग;-
ध्यान-योग साधना में मन की एकाग्रता के साथ-साथ लक्ष्य को, इष्ट को भी प्राप्त करके योगस्थिति उत्पन्न करने का दुहरा लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए इष्टदेव का मन:क्षेत्र में उसी प्रकार ध्यान करने का विधान किया गया है। ध्यान के पाँच अंग हैं;-
1-स्थिति, 2-संस्थिति, 3-विगति, 4-प्रगति, 5-सस्मिति।
1- स्थिति का तात्पर्य हैं- साधक की उपासना करते समय की स्थिति। मन्दिर में, नदी तट पर एकान्त में, श्मशान में स्नान करके, बिना स्नान किए पद्मासन से, सिद्धासन से किस ओर मुँह करके, किस मुद्रा में, किस समय, किस प्रकार ध्यान किया जाय ? इस सम्बन्ध की व्यवस्था को स्थिति कहते है।
2-संस्थिति का अर्थ- इष्टदेव की छवि का निर्धारण। उपास्य देव का मुख आकृति, आकार मुद्रा, वस्त्र, आभूषण, वाहन, स्थान, भाव को निश्चित करना संस्थिति कहलाती है।
3- विगति कहते हैं- गुणावली को। इष्टदेव में क्या विशेषताएँ, शक्तियाँ, सामर्थ्य, परम्पराएँ एवं गुणावलियाँ हैं ? उनको जानना विगति कहा जाता है।
4-प्रगति कहते हैं- उपासना काल में साधक के मन में रहने वाली भावना को। दास्य, सखा, गुरु, बन्धु मित्र, माता-पिता, पति, पुत्र, सेवक, शत्रु आदि जिस रिश्ते को उपास्य देव को मानना हो उस रिश्ते की स्थिरता तथा उस रिश्ते को प्रणाढ़ बनाने के लिए इष्टदेव को प्रमुख ध्यानावस्था में, अपनी आन्तरिक भावनाओं को विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा उपस्थित करना प्रगति कहलाती है।
5- 'सस्मिति' वह व्यवस्था है जिसमें साधक और साध्य उपासक और उपास्य, एक हो जाते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता है। भृंग कीट की सी तन्मयता द्वैत के स्थान पर अद्वैत की झाँकी, उपास्य और उपासक का अभेद, मैं स्वयं इष्टदेव हो गया हूँ या इष्टदेव में पूर्णतया लीन हो गया हूँ ऐसी अनुभूति का होना। अग्नि में पड़कर जैसे लकड़ी भी अग्निमय लाल वर्ण हो जाती है, वैसी ही अपनी स्थिति जिन क्षणों में अनुभव होती है उसे 'संस्मिति' कहते हैं।
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दो उपाय मन को वश में करने के बताये
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(1) अभ्यास ;-
अभ्यास का अर्थ है- वे योग साधनायें जो मन को रोकती हैं।
(2) वैराग्य;-
वैराग्य का अर्थ है- व्यावहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना।विषय-विकार, आलस्य-प्रमाद दुर्व्यसन-दुराचार, लोलुपता, समय का दुरुपयोग, कार्यक्रम की अव्यवस्था आदि कारणों से सांसारिक अधोगति होती है और लोभ, क्रोध, तृष्णा आदि से मानसिक अधःपतन होता है।
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