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ध्यान की पद्धति की क्या विशेषता है?ध्यान का अभ्यास कैसे करें ?ध्यान के पारंपरिक प्रकार क्या है?शाम्भ


क्या है ध्यान की पद्धति ?- 07 FACTS;- 1-ध्यान का प्रयोग भारत में प्राचीन काल से होता आया है... हिन्दू धर्म में ध्यान की पद्धति महर्षि पतंजलि द्वारा विरचित योगसूत्र में वर्णित अष्टांगयोग का एक अंग है । ये आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि है। ध्यान का अर्थ किसी भी एक विषय की धारण करके उसमें मन को एकाग्र करना होता है। मानसिक शांति, एकाग्रता, दृढ़ मनोबल, ईश्वर का अनुसंधान, मन को निर्विचार करना, मन पर काबू पाना जैसे कई उद्देश्यो के साथ ध्यान किया जाता है।

2-ध्यान एकाग्रता की शक्ति है। जब यही शक्ति बाहरी जीवन में प्रयुक्त होती है तो टेलीस्कोप की तरह से देखने में समर्थ हो जाती है, लेकिन जब हमारे अंतरंग जीवन में प्रवेश करती है तो सारे के सारे सूक्ष्म जगत में विद्यमान रहस्यों को खोलकर रख देती है, जिसमें देवी देवता भी शामिल हैं। चक्रों के रूप में देवता हमारे भीतर विद्यमान हैं। एक से एक बढ़िया चीजें हमारे भीतर विद्यमान हैं जिनमें कुंडलिनी भी शामिल है। 3-चेतना की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अंतर्मुखी बनाना, अंतर्जगत् की विशेषताओं को देखना, आत्मा उच्च उद्देश्यों पर केन्द्रीकरण ही इन सबका एकमात्र आधार है। मानसिक बिखराव को एक केंद्र पर केंद्रित करने से एकाग्रताजन्य ऊर्जा उत्पन्न होती है उसे जिस भी दिशा में नियोजित किया जाएगा उसी में चमत्कार उत्पन्न करेगी। 4-आत्मिक प्रगति के लिए उसे लगाया जाए तो उस दिशा में भी उसका लाभ मिलेगा ही। वैज्ञानिक, शोधकर्ता जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति इस मानसिक केन्द्रीकरण के फलस्वरूप ही अपने-अपने कार्यों में विविध सफलताएँ प्राप्त करते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए योगीजन इसी शक्ति का उपयोग करके अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं। ध्यानयोग को चेतनात्मक पुरुषार्थों में अत्यंत उच्चकोटि का समझा जा सकता है । 5-हमारे भीतर एक ही चीज प्रवेश कर सकती है और वह है-ध्यान। अगर हम अपनी मनशक्ति को ध्यान द्वारा एकाग्र करना सीख लें, ध्यान को एक ताकत बना लें तो सब कुछ हस्तगत हो सकता है।ध्यान एक चमत्कार है। ध्यान की शक्ति अगर हृदय पर लगा दी जाए और हृदय से कहा जाए कि साहब, आपको बंद होना है तो उसका धड़कना बंद हो जाता है और आदमी समाधि में चला जाता है। लोग 6-6 महीने समाधि में रह सकते हैं। बस, करना इतना होता है कि ध्यान की स्थिति में मन को कहते हैं कि भागना मत और मरना भी मत। ये दो काम मत करना। समाधि में मन चला भी जाता है । 6-उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव;- हमारे भीतर दो ध्रुव हैं-एक उत्तरी ध्रुव और एक दक्षिणी ध्रुव। उत्तरी ध्रुव हमारा मस्तिष्क है, जो शक्तियों का पुंज है। इसमें अनेक लोक लोकांतर की चेतन शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। दक्षिणी ध्रुव हमारा मूलाधारचक्र है। एक हमारा सिर वाला सहस्रारचक्र उत्तरी ध्रुव है और मूलाधार दक्षिणी ध्रुव है। पृथ्वी को जो आंतरिक ताकत मिलती है, वह उसके दोनों ध्रुवों से मिलती है। इसी तरह हमारे भीतर विद्यमान दोनों ध्रुव शक्तिशाली जेनरेटर की तरह लगे हुए हैं। उनकी शक्ति के बारे में क्या/कहा जाये , किंतु ये दोनों सोए हुए पड़े हैं। सोई हुई चीज को ठीक करने के लिए क्या बाहरी शक्ति काम कर सकती है? नहीं कर सकती। हमारे भीतर कोई चीज प्रवेश नहीं कर सकती । 7-साकार ध्यान और निराकार ध्यान;- ध्यान करने के लिए स्वच्छ जगह पर स्वच्छ आसन पे बैठकर साधक अपनी आँखे बंद करके अपने मन को दूसरे सभी संकल्प-विकल्पो से हटाकर शांत कर देता है। और ईश्वर, मूर्ति, आत्मा, निराकार परब्रह्म या किसी की भी धारणा करके उसमे अपने मन को स्थिर करके उसमें ही लीन हो जाता है। 7-1-जिसमें ईश्वर या किसीकी धारणा की जाती है उसे साकार ध्यान और किसीकी भी धारणा का आधार लिए बिना ही कुशल साधक अपने मनको स्थिर करके लीन होता है उसे योग की भाषा में निराकार ध्यान कहा जाता है। गीता के अध्याय-6 में श्रीकृष्ण द्वारा ध्यान की पद्धति का वर्णन किया गया है। ध्यान का अभ्यास कैसे करें ?- 09 FACTS;- 1-ध्यान करने के लिए पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठा जा सकता है। शांत और चित्त को प्रसन्न करने वाला स्थल ध्यान के लिए अनुकूल है। रात्रि, प्रात:काल या संध्या का समय भी ध्यान के लिए अनुकूल है। ध्यान के साथ मन को एकाग्र करने के लिए प्राणायाम, नामस्मरण (जप), त्राटक का भी सहारा लिया जा सकता है। 2-ध्यान में ह्रदय पर ध्यान केन्द्रित करना, ललाट के बीच अग्र भाग में ध्यान केन्द्रित करना, स्वास-उच्छवास की क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करना, इष्टदेव की धारणा करके उसमे ध्यान केन्द्रित करना, मन को निर्विचार करना, आत्मा पर ध्यान केन्द्रित करना जैसी कई पद्धतियाँ है। ध्यान के साथ प्रार्थना भी कर सकते है। साधक अपने गुरु के मार्गदर्शन और अपनी रुचि के अनुसार कोई भी पद्धति अपनाकर ध्यान कर सकता है। 3-ध्यान के अभ्यास के प्रारंभ में मन की अस्थिरता और एक ही स्थान पर एकांत में लंबे समय तक बैठने की अक्षमता जैसी परेशानीयों का सामना करना पड़ता है। निरंतर अभ्यास के बाद मन को स्थिर किया जा सकता है और एक ही आसन में बैठने के अभ्यास से ये समस्या का समाधान हो जाता है। सदाचार, सद्विचार, यम, नियम का पालन और सात्विक भोजन से भी ध्यान में सरलता प्राप्त होती है। 4-ध्यान का अभ्यास आगे बढ़ने के साथ मन शांत हो जाता है जिसको योग की भाषा में चित्तशुद्धि कहा जाता है। ध्यान में साधक अपने शरीर, वातावरण को भी भूल जाता है और समय का भान भी नहीं रहता। उसके बाद समाधिदशा की प्राप्ति होती है। योगग्रंथो के अनुसार ध्यान से कुंडलिनी शक्ति को जागृत किया जा सकता है और साधक को कई प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती है। 5-ध्यान की बैठक :- ध्यान के लिए नर्म और मुलायम आसान होना चाहिए जिस पर बैठकर आराम और सूकुन का अनुभव हो। बहुत देर तक बैठे रहने के बाद भी थकान या अकड़न महसूस न हो। इसके लिए भूमि पर नर्म आसन बिछाकर दीवार के सहारे पीठ टिकाकर भी बैठ सकते हैं अथवा पीछे से सहारा देने वाली आराम कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान कर सकते हैं। 6-आसन में बैठने का तरीका ध्यान में काफी महत्व रखता रखता है। ध्यान की क्रिया में हमेशा सीधा तनकर बैठना चाहिए। दोनों पैर एक दूसरे पर क्रास की तरह होना चाहिए या आप सिद्धासन में भी बैठ सकते हैं। 7-.समय : ध्यान के लिए एक निश्चित समय बना लेना चाहिए इससे कुछ दिनों के अभ्यास से यह दैनिक क्रिया में शामिल हो जाता है फलत ध्यान लगाना आसान हो जाता है। 8-ध्यान की तैयारी के संबंध में सामान्य जानकारी। 8-1. बेहतर स्थान : ध्यान की तैयारी से पूर्व आपको ध्यान करने के स्थान का चयन करना चाहिए। ऐसा स्थान जहां शांति हो और बाहर का शोरगुल सुनाई न देता हो। साथ ही वह खुला हुआ और हरा-भरा हो। आप ऐसा माहौल अपने एक रूम में भी बना सकते हो। 8-2-जरूरी यह है कि आप शोरगुल और दम घोंटू वातावरण से बचे और शांति तथा सकून देने वाले वातारवण में रहे जहां मन भटकता न हो। यदि यह सब नहीं हैं तो ध्यान किसी ऐसे बंद कमरे में भी कर सकते हैं जहां उमस और मच्छर नहीं हो बल्कि ठंडक हो और वातावरण साफ हो। आप मच्छरदानी और एग्जॉस्ट-फैन का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। 8-3-वातावण हो सुगंधित : सुगंधित वातावरण को ध्यान की तैयारी में शामिल किया जाना चाहिए। इसके लिए सुगंध या इत्र का इस्तेमाल कर सकते हैं या थोड़े से गुड़ में घी तथा कपूर मिलाकर कंडे पर जला दें कुछ देर में ही वातावरण ध्यान लायक बन जाएगा। 9-सावधानी : ध्यान में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस क्रिया में किसी प्रकार का तनाव नहीं हो और आपकी आंखें बंद, स्थिर और शांत हों तथा ध्यान भृकुटी पर रखें। खास बात की आप ध्यान में सोएं नहीं बल्कि साक्षी भाव में रहें। ध्यान का तरीका क्या है?- 03 FACTS;- 1-ध्यान के तरीके बहुत कम लोग ही जानते हैं। निश्चित ही ध्यान को प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा के अनुसार ढाला गया है। मूलत: ध्यान को चार भागों में बांटा जा सकता है- 1-1.देखना, 1-2.सुनना, 1-3.श्वास लेना, 1-4.भृकुटी ध्यान(आंखें बंदकर मौन होकर सोच पर ध्‍यान देना) 2-देखने को दृष्टा या साक्षी ध्यान, सुनने को श्रवण ध्यान, श्वास लेने को प्राणायाम ध्यान और आंखें बंदकर सोच पर ध्यान देने को भृकुटी ध्यान कह सकते हैं। उक्त चार तरह के ध्यान के हजारों उप प्रकार हो सकते हैं। उक्त चारों तरह का ध्यान आप लेटकर, बैठकर, खड़े रहकर और चलते-चलते भी कर सकते हैं। 3-उक्त तरीकों को में ही ढलकर योग और हिन्दू धर्म में ध्यान के हजारों प्रकार बताएं गए हैं जो प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा अनुसार हैं। भगवान शंकर ने मां पार्वती को ध्यान के 112 प्रकार बताए थे जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं। ध्यान के तरीके की व्याख्या ;- 1-1-दृष्टा ध्यान(देखना ):- ऐसे लाखों लोग हैं जो देखकर ही सिद्धि तथा मोक्ष के मार्ग चले गए। इसे दृष्टा भाव या साक्षी भाव में ठहरना कहते हैं। आप देखते जरूर हैं, लेकिन वर्तमान में नहीं देख पाते हैं। आपके ढेर सारे विचार, तनाव और कल्पना आपको वर्तमान से काटकर रखते हैं। बोधपूर्वक अर्थात होशपूर्वक वर्तमान को देखना और समझना (सोचना नहीं) ही साक्षी या दृष्टा ध्यान है। 1-2- श्रवण ध्यान(सुनना) :- सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। सुनना बहुत कठिन है। सुने ..ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें। आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर। 1-3-प्राणायाम(श्वास पर ध्यान) :- बंद आंखों से भीतर और बाहर गहरी सांस लें, बलपूर्वक दबाब डाले बिना यथा संभव गहरी सांस लें, आती-जाती सांस के प्रति होशपूर्ण और सजग रहे। बस यही प्राणायाम ध्यान की सरलतम और प्राथमिक विधि है। 1-4-भृकुटी ध्यान :- आंखें बंद करके दोनों भवों के बीच स्थित भृकुटी पर ध्यान लगाकर पूर्णत: बाहर और भीतर से मौन रहकर भीतरी शांति का अनुभव करना; होशपूर्वक अंधकार को देखते रहना ही भृकुटी ध्यान है। कुछ दिनों बाद इसी अंधकार में से ज्योति का प्रकटन होता है। पहले काली, फिर पीली और बाद में सफेद होती हुई नीली। क्या ध्यान के लिए आकार का आश्रय आवश्यक है?- 05 FACTS;- 1-ध्यान के लिए आकार का आश्रय आवश्यक है। साधना का प्रमुख अवलंबन ध्यान है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए परब्रह्म को प्रकाशपुञ्ज माना जाता है। प्रकाशपुञ्ज की ईश्वरप्रदत्त प्रतिमा सूर्य है। उसी की छोटी-बड़ी आकृतियाँ बनाकर निराकारवादी ध्यान करते हैं। दृश्यमान प्रकाश को ज्ञान और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। परब्रह्म परमात्मा की सविता के रूप में इसी आधार पर प्रतिष्ठापना की गई है। । 2-प्रकाश रूप में ध्यान साधना के सभी प्रकट ''त्राटक'' कहलाते हैं। सिद्धांत यह है कि आरंभ में खुले नेत्रों से किसी प्रकाश प्रतीक को देखा जाए फिर आँखें बंद करके उस ज्योति का ध्यान किया जाए। उगते हुए सूर्य को दो -पाँच सेकेंड खुली आँखों से देखकर आकाश में उसी स्थान पर देखने का कल्पना चित्र बनाया जाता है। वह अधिक स्पष्ट अनुभूति के साथ दीखने लगे इसके लिए चिंतन क्षमता पर अधिक दबाव दिया जाता है। 3-सूर्य की ही तरह चंद्रमा पर, किसी तारक विशिष्ट पर भी यह धारणा की जाती है। प्रकाश को भगवान का प्रतीक माना जाता है और उसकी किरणें अपने तक आने की, चेतना में प्रवेश कर जाने की, दिव्य बलिष्ठता प्रदान करने की धारणा की जाती है। मोटे-तौर से इसी को त्राटक साधना का आरंभिक अभ्यास कहा जा सकता है । 4-अंतःत्राटक से प्रकाश ज्योति की धारणा सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत विद्यमान अतीव क्षमता संपन्न शक्ति केंद्रों पर की जाती है। षट्चक्रों का वर्णन साधना विज्ञान में विस्तारपूर्वक दिया गया है। उन्हें जाग्रत बनाने के लिए जिन उपायों को काम में लाया जाता है उनमें एक यह भी है कि उन केंद्रों पर प्रकाश ज्योति जलने का ध्यान किया जाए। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहद, विशुद्धि और आज्ञाचक्र-ये षट्चक्र हैं। उनके स्थान सुनिश्चित हैं। उन्हीं स्थानों पर प्रकाश को धारण करने से उनमें हलचल उत्पन्न होती है और मूर्च्छना जागृति में बदल जाती है। 5-दक्षिणमार्गी साधना में आज्ञाचक्र प्रथम है और जागरण की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर चलती है और वाममार्ग में मूलाधार से यह जागरण आरंभ होता है अर्थात नीचे से ऊपर। ध्यान के पारंपरिक प्रकार क्या है?- 08 FACTS;- 1-अब हम ध्यान के पारंपरिक प्रकार की बात करते हैं। यह ध्यान तीन प्रकार का होता है... 1-1- स्थूल-ध्यान 1-2- ज्योतिर्ध्यान 1-3- सूक्ष्म-ध्यान 1-1- स्थूल-ध्यान;- 1.स्थूल ध्यान;- स्थूल चीजों के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते हैं- जैसे सिद्धासन में बैठकर आंख बंदकर किसी देवता, मूर्ति, प्रकृति या शरीर के भीतर स्थित हृदय चक्र पर ध्यान देना ही स्थूल ध्यान है। इस ध्यान में कल्पना का महत्व है। 2.ज्योतिर्ध्यान; जिस ध्यान में तेजोमय ब्रह्म वा प्रकृति की भावना की जाय उसको ज्योतिर्ध्यान कहते हैं ।मूलाधार और लिंगमूल के मध्य स्थान में कुंडलिनी सर्पाकार में स्थित है। इस स्थान पर ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान करना ही ज्योतिर्ध्यान है। 3.सूक्ष्म ध्यान;- जिसमें बिन्दुमय ब्रह्म एवं कुल-कुण्डलिनी शक्ति का दर्शन लाभ हो उसको सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।साधक सांभवी मुद्रा का अनुष्ठान करते हुए कुंडलिनी का ध्यान करे । ध्यान के पारंपरिक प्रकार की व्याख्या ;-

ध्यान के पारंपरिक प्रकार की व्याख्या ;- 1-स्थूल-ध्यान की सिद्धि कैसे करें? प्रथम ध्यान विधि;- 03 FACTS;- 1-साधक अपने नेत्र बन्द करके हृदय में ऐसा ध्यान करे कि एक अति उत्तम अमृत सागर बह रहा है। समुद्र के बीच एक रत्नमय द्वीप है, वह द्वीप रत्नमयी बालुका वाला होने से चारों और शोभा दे रहा है। इस रत्न द्वीप के चारों ओर कदम्ब के वृक्ष अपूर्व शोभा पा रहे है। नाना प्रकार के पुष्प चारों ओर खिले हुऐ हैं। इन सब पुष्पों की सुगन्ध में सब दिशाएँ सुगन्ध से व्याप्त हो रही हैं। 2-साधक मन में इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कानन के मध्य भाग में मनोहर कल्पवृक्ष विद्यमान है, उसकी चार शाखाएँ हैं, वे चारों शाखाएँ चतुर्वेदमयी हैं और वे शाखाएँ तत्काल उत्पन्न हुए पुष्पों और फलों से भरी हुई हैं। उन शाखाओं पर भ्रमर गुंजन करते हुए मँडरा रहे हैं और कोकिलाएँ उन पर बैठी कुहू-कुहू कर मन को मोह रही है। 3- फिर साधक इस प्रकार चिन्तन करे कि इस कल्पवृक्ष के नीचे एक रत्न मण्डप परम शोभा पा रहा है। उस मंडप के बीच में मनोहर सिंहासन रखा हुआ है। उसी सिंहासन पर आपका इष्ट देव विराजमान हैं। इस प्रकार का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान की सिद्धि होती है। द्वितीय-ध्यान विधि;- 02 FACTS;- 1-हमारे हृदय के मध्य अनाहत नाम का चौथा चक्र विद्यमान है। इस के 12 पत्ते है, यह ॐकार का स्थान है। इस के 12 पत्तों पर पूर्व दिशा से क्रमशः – चपलता, नाश, कपट, तर्क, पश्चाताअप, आशा-निराशा, चिन्ता, इच्छा, समता, दम्भ, विकल्प, विवेक और अहंकार विद्यमान रहते है। अनाहत चक्र के मण्डप में ॐ बना हुआ है। 2-साधक ऐसा चिन्तन करे कि इस स्थान पर सुमनोहर नाद-बिन्दूमय एक पीठ विराजमान है और उसी स्थल पर भगवान शिव विराजमान है, उनकी दो भुजाऐं है, तीन नेत्र है और वे शुक्ल वस्त्रों में सुशोभित है। उनके शरीर पर शुभ्र चंदन लगा है, कण्ठ में श्वेत वर्ण के प्रसिद्ध पुष्पों कि माला है। उनके वामपार्श्व में रक्तवर्णा शक्ति शोभा दे रही है। इस प्रकार शिव का ध्यान करने पर स्थूल-ध्यान सिद्ध होता है। तृतीय-ध्यान विधि;- 03 FACTS;- 1-कंकालमालिनी तन्त्र में लिखा है कि- साधक ऐसा ध्यान करे कि जिस सहस्त्र-दल कमल में प्रदीप्त अन्तरात्मा अधिष्ठित है, उसके ऊपर नाद-बिन्दु के मध्य में एक उज्ज्वल सिंहासन विद्यमान है, उसी सिंहासन पर अपने इष्ट देव विराज रहे हैंरे। 2-वे वीरासन में बैठे है, उनका शरीर चाँदी के पर्वत के सदृश श्वेत है, वे नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित हैं और शुभ्र माला, पुष्प और वस्त्र धारण कर रहे हैं, उनके हाथों में वर और अभय मुद्रा हैं, उनके वाम अंग में शक्ति विराजमान है। 3-इष्ट देव करुणा दृष्टि से चारों ओर देख रहे हैं, उनकी प्रियतमा शक्ति दाहिने हाथ से उनके मनोहर शरीर का स्पर्श कर रही हैं। शक्ति के वाम कर में रक्त-पद्म है और वे रक्तवर्ण के आभूषणों से विभूषित हैं, इस प्रकार ज्ञान-समायुक्त इष्ट का नाम-स्मरण पूर्वक ध्यान करे। 2- ज्योतिर्ध्यानः- 02 FACTS;- 1-मूलाधार और लिंगमूल के मध्यगत स्थान में कुण्डलिनी सर्पाकार में विद्यमान हैं। इस स्थान में जीवात्मा दीप-शिखा के समान अवस्थित है। इस स्थान पर ज्योति रूप ब्रह्म का ध्यान करे। 2-एक दूसरे प्रकार का तेजो-ध्यान है कि भृकुटि के मध्य में और मन के ऊर्ध्व-भाग में जो ॐकार रूपी ज्योति विद्यमान है, उस ज्योति का ध्यान करें। इस ध्यान से योग-सिद्धि और आत्म-प्रत्यक्षता शक्ति उत्पन्न होती है। इसको तेजो-ध्यान या ज्योतिर्ध्यान कहते हैं। 3-सूक्ष्म ध्यानः- 03 FACTS;- 1-पूर्व जन्म के पुण्य उदय होने पर साधक की कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है। यह शक्ति जाग्रत होकर आत्मा के साथ मिलकर नेत्ररन्ध्र-मार्ग से निकलकर उर्ध्व-भागस्थ अर्थात् ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है और जब यह राजमार्ग नामक स्थान से गुजरती है तो उस समय यह अति सूक्ष्म और चंचल होती है। इस कारण ध्यान-योग में कुण्डलिनी को देखना कठिन होता है। 2-साधक शाम्भवी-मुद्रा का अनुष्ठान करता हुआ, कुण्डलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म-ध्यान कहते हैं। इस दुर्लभ ध्यान-योग द्वारा- आत्मा का साक्षात्कार होता है और ध्यान सिद्धि की प्राप्ति होती है।शाम्भवी मुद्रा का वर्णन आरम्भ करते हुए प्रथम उसका महत्व प्रकट किया है कि यह मुद्रा परम गोपनीय है। 3-शरीर में जो मूलाधारादि षट्चक्र है उनमें से जो अभीष्ट हो, उस चक्र में लक्ष्य बनाकर अन्तःकरण की वृत्ति और विषयों वाली दृष्टि जो निमेष-उन्मेष से रहित हो ऐसी यह मुद्रा ॠग्वेदादि और योग-दर्शनादि में छिपी हैं। इससे शुभ की प्रत्यक्षता प्राप्त होती है, इसलिए इसका नाम शाम्भवी-मुद्रा हुआ। शाम्भवी-मुद्रा क्या है?- 05 FACTS;- 1-जीवात्मा परमात्मा के अभेद रूप लक्ष्य में मन और प्राण का लय होने पर निश्चल दृष्टि खुली रह कर भी बाहर के विषयों को देख नहीं पाती, क्योंकि मन का लय होने पर इन्द्रियाँ अपने विषयों को ग्रहण नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्म में लय को प्राप्त हुए मन और प्राण जब इस अवस्था में पहुँच जाते हैं, तब शाम्भवी-मुद्रा होती है। 2-भृकुटी के मध्य में दृष्टि को स्थिर करके एकाग्रचित्त हो कर परमात्मा रूपी ज्योति का दर्शन करे, अर्थात् साधक शाम्भवी-मुद्रा में अपनी आँखो को न तो बिल्कुल बन्द रखे और न ही पूर्ण रूप से खुली रखे, साधक की आँखो की अवस्था ऐसी होनी चाहिये कि आँखें बन्द हो कर भी थोड़ी सी खुली रहे, जैसे कि अधिकतर व्यक्तियों की आँखें सोते वक्त भी खुली रहती है। इस तरह आँखो की अवस्था होनी चाहिये। 3-ऐसी अवस्था में बैठ कर दोनों भौंहों के मध्य परमात्मा का ध्यान करे। इसको ही शाम्भवी-मुद्रा कहते हैं।यह मुद्रा सब तन्त्रों में गोपनीय बतायी है। जो व्यक्ति इस शाम्भवी-मुद्रा को जानता है वह आदिनाथ है, वह स्वयं नारायण स्वरूप और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वरूप है। जिनको यह शाम्भवी-मुद्रा आती है वे निःसन्देह मूर्तिमान् ब्रह्म स्वरूप है। इस बात को योग-प्रवर्तक शिव जी ने तीन बार सत्य कहकर निरूपण किया है। 4-इसी मुद्रा के अनुष्ठान से तेजो ध्यान सिद्ध होता है। इसी उद्देश्य से इसका वर्णन यहाँ किया गया है। इस शाम्भवी-मुद्रा, जैसा अन्य सरल योग दूसरा नहीं है।शाम्भवी मुद्रा को भगवान शिव की मुद्रा भी कहा जाता है| इस मुद्रा को करने के बाद साधक घण्टो तक एक आसन पर चेतन अवस्था मे रहकर साधना कर सकते है। 5-दृष्टि को दोनों भौहों के मध्य स्थिर करके एकाग्र मन से परमात्मा का चिंतन करें तो ध्यान की परिवक्वता होने पर ज्योति–दर्शन होता है| यही शाम्भवी मुद्रा है| आत्म साक्षात्कार के आकांक्षी पुरुषों के लिए यह अत्यंत कल्याणकारी मुद्रा है| शाम्भवी मुद्रा की विधि;- 04 FACTS;- 1-आंखें खुली हों, लेकिन आप देख नहीं सकते। ऐसी स्थिति जब सध जाती है तो उसे शाम्भवी मुद्रा कहते हैं। ऐसी स्थिति में आप नींद का मजा भी ले सकते हैं। यह बहुत कठिन साधना है। इसके ठीक उल्टा कि जब आंखें बंद हो तब आप देख सकते हैं यह भी बहुत कठिन साधना है, लेकिन यह दोनों ही संभव है। असंभव कुछ भी नहीं। बहुत से ऐसे पशु और पक्षी हैं जो आंखे खोलकर ही सोते हैं। 2-ध्यान के किसी आसन में बैठिये और पीठ सीधी कर लीजिए। आपके कंधे और हाथ बिलकुल ढीले होने चाहिए। इसके बाद हाथों को घुटनों पर चिन्मयमुद्रा, ज्ञान मुद्रा या फिर योग मुद्रा में रखिये। सामने किसी बिंदु पर दृष्टि एकाग्र कीजिए। इसके बाद उपर देखने का प्रयास कीजिए। 3- ध्यान रखिए, सिर स्थिर रहे और अपने विचारों को रोकें और ध्यान दीजिए। इसमें पलकों को बिना झपकाएँ देखते रहें, लेकिन ध्यान किसी भी चीज को देखने पर ना रखें । 4- यदि आपने त्राटक किया है या आप त्राटक के बारे में जानते हैं तो आप इस मुद्रा को कर सकते हैं। सर्वप्रथम सिद्धासन में बैठकर रीढ़-गर्दन सीधी रखते हुए पलकों को बिना झपकाएं देखते रहें, लेकिन ध्यान किसी भी चीज को देखने पर ना रखें।दृष्टि को दोनों भौहों के मध्य स्थिर करके एकाग्र मन से परमात्मा का चिंतन करें दिमाग बिल्कुल भीतर कहीं लगा हो।जब इस शाम्भवी योग को किया जाता है तो दोनो आँखे ऊपर मस्तिष्क में चढ़ जाती है और दिव्य प्रकाश के दर्शन भी होने लगते है। क्या शाम्भवी मुद्रा द्वारा साधक समाधिस्थ हो सकताजाता है?- 03 FACTS;- 1-शाम्भवी- मुद्रा करके प्रथम आत्म-साक्षात्कार करे और फिर बिन्दुमय-ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ मन को बिन्दु में लगा दे। तत्पश्चात् मस्तक में विद्यमान ब्रह्म-लोकमय आकाश के मध्य में आत्मा को ले जावें और जीवात्मा में आकाश को लय करे तथा परमात्मा में जीवात्मा को लय करे, इससे साधक सदा आनन्दमय एवं समाधिस्थ हो जाता है। 2-शाम्भवी-मुद्रा का प्रयोग और आत्मा में दीप्तिमान-ज्योति का ध्यान करना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह ज्योति, बिन्दु-ब्रह्म के रूप में दिखाई दे रही है। फिर ऐसा भी ध्यान करे कि हमारी आत्मा ही आकाश के मध्य में विद्यमान है। 3-ऐसा भी ध्यान करे कि शिवलिंग-रूप आत्मा .. आकाश में चारों ओर लिपटी है और वहाँ सर्वत्र शिवलिंग-रूप आत्मा ही है और वह परमात्मा में लीन हो रही है। ध्यानबिन्दू -उपनिषद् के प्रारम्भ में ही कहा है कि- यदि पर्वत के समान अनेक योजन विस्तीर्ण पाप भी हों तो भी वे ध्यान योग से नष्ट हो जाते हैं। NOTE;- शाम्भवी मुद्रा पूरी तरह से तभी सिद्ध हो सकती है जब आपकी आंखें खुली हों, पर वे किसी भी चीज को न देख रही हो। ऐसा समझें की आप किसी धून में जी रहे हों। आपको खयाल होगा कि कभी-कभी आप कहीं भी देख रहें होते हैं, लेकिन आपका ध्यान कहीं ओर रहता है। अवधि;- इस मुद्रा को शुरुआत में जितनी देर हो सके करें और बाद में धीरे-धीरे इसका अभ्यास बढ़ाते जाएं।इसके मात्र 20 से 25 मिनट के नियमित अभ्यास से आपके अन्दर ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता बढती है| इससे आपका तनाव दूर होता है और आत्मविश्वास में बढ़ोतरी होती है | सावधानी;- 02 FACTS;- 1-यह अभ्यास सरल और सुरक्षित है तथा इसे कोई भी कर सकता है। फिर भी इस आसन को करते समय कुछ सावधानी बरतें। शाम्भवी मुद्रा के लिए जो चीजें बताई गई हैं उसे धीरे-धीरे करें। जल्दबाजी करने की कोशिश न करें। 2-अगर आप किसी तरह की समस्या से पीड़ित हैं या आपको कोई दर्द हो रहा है तो शाम्भवी मुद्रा को करने की कोशिश न करें। यह ध्यान रखें कि इस अभ्यास को करने वाला व्यक्ति की उम्र 7 साल से ज्यादा हो। अगर आपने चश्मा पहन रखा है उसे निकालकर साइड में रख दें। शाम्भवी मुद्रा के लाभ;- 07 FACTS;- 1-आज्ञा चक्र निम्न और उच्च चेतना को जोड़ने वाला केंद्र है।यह मुद्रा आज्ञा चक्र को जाग्रत करने वाली एक शक्तिशाली क्रिया है । 2-यह मुद्रा शारीरिक लाभ प्रदान करने के अलावा आंखों के स्नायुओं को मजबूत बनाता है। 3-मानसिक स्तर पर इस अभ्यास योग से मन की शांति प्राप्त होती है। आंखें खुली रखकर भी व्यक्ति नींद और ध्यान का आनंद ले सकता है। यह योग मुद्रा करने से तनाव और चिंता दूर होती है। 4-इस अभ्यास के सधने से व्यक्ति भूत और भविष्य का ज्ञाता बन सकता है 5-शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने पर आपकी मानसिक क्षमता में इजाफा होता है| यह आपके मस्तिष्क में जबरदस्त तालमेल बिठाता है जिसके चलते मानसिक क्षमता बढती है| इससे बुद्धि बढती है तथा सीखने की गति भी, इसलिए स्टूडेंट्स को तो इसे जरुर करना चाहिए| 6-इससे नींद की गुणवत्ता में भी सुधार आता है याने की आप रात को अच्छी नींद ले पाते है| 7-शाम्भवी से होने वाले फायदों पर मेडिकल रिसर्च से पता चला है कि तमाम मानसिक और शारीरिक रोगों से पीडि़त लोग अगर नियमित रूप से शाम्भवी मुद्रा अभ्यास करें तो न केवल उन्हें रोग से राहत मिलती है, बल्कि उनकी दवाएं तक बंद हो सकती हैं। ....SHIVOHAM....


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