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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित109,110 वीं (निष्‍क्रिय रूप संबंधी चार विधियां) विधियां क्या


विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 109;-

32 FACTS;-

1-पहली विधि..भगवान शिव कहते है:-

''अपने निष्‍क्रिय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—सर्वथा रिक्‍त।''

2-अपने निष्‍क्रिय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—लेकिन भीतर सब कुछ रिक्‍त हो। यह सुंदरतम विधियों में से एक है। किसी भी ध्‍यानपूर्ण मुद्रा में, अकेले, शांत होकर बैठ जाओ। तुम्‍हारी रीढ़ की हड्डी सीधी रहे और पूरा शरीर विश्रांत, जैसे कि सारा शरीर रीढ़ की हड्डी पर टंगा हो। फिर अपनी आंखें बंद कर लो।कुछ क्षण के लिए विश्रांत, से विश्रांत अनुभव करते चले जाओ। लयवद्ध होने के लिए कुछ क्षण ऐसा करो। और फिर अचानक अनुभव करो कि तुम्‍हारा शरीर त्‍वचा की दीवारें मात्र है और भीतर कुछ भी नहीं है। घर खाली है, भीतर कोई नहीं है। एक बार तुम विचारों को गुजरते हुए देखोंगे, विचारों के मेघों को विचरते पाओगे। लेकिन ऐसा मत सोचो कि वे तुम्‍हारे है। तुम हो ही नहीं। बस ऐसा सोचो कि वे रिक्‍त आकाश में घूम हुए आधारहीन मेघ है, वे तुम्‍हारे नहीं है। वे किसी के भी नहीं है। उनकी कोई जड़ नहीं है।वास्‍तव में ऐसा ही है: विचार केवल आकाश में धूमते मेघों के समान है। न तो उनकी कोई जड़ें है, न आकाश से उनका कोई संबंध है। वे बस आकाश में इधर से उधर धूमते रहते है। वे आते है और चले जाते है। और आकाश अस्‍पर्शित, अप्रभावित बना रहता है। अनुभव करो कि तुम्‍हारा शरीर लय, पुराने सहयोग के कारण विचार आते रहेंगे। लेकिन इतना ही सोचो कि वे आकाश में धूमते हुए आधारहीन मेघ है। वे तुम्‍हारे नहीं है, वे किसी के भी नहीं है। भीतर कोई भी नहीं है जिससे वे संबंधित हों, तुम तो रिक्‍त हो।

3-यह कठिन होगा, लेकिन केवल पुरानी आदतों के कारण कठिन होगा। तुम्‍हारा मन किसी विचार को पकड़कर उससे जुड़ना चाहते है। उसके साथ बहना, उसका आनंद लेना, उसमें रमना चाहेगा। थोड़ा रूको। कहो कि न तो यहां बहने के लिए कोई है, न लड़ने के लिए कोई है, इस विचार के साथ कुछ भी करने के लिए कोई नहीं है।कुछ ही दिनों में, या कुछ हफ्तों में,

विचार कम हो जाएंगे। वे कम-से कम होते जाएंगे। बादल छंटने लगेंगे, या यदि वे आंएगे भी तो बीच-बीच में मेघ-रहित आकाश के बड़े अंतराल होंगे ..जब कोई विचार न होगा।एक विचार गुजर जाएगा, फिर कुछ समय के लिए दूसरा विचार नहीं आएगा। फिर दूसरा विचार आयेगा और अंतराल होगा। उन अंतरालों में ही तुम पहली बार जानोगे कि रिक्‍तता क्‍या है। और उसकी एक झलक ही तुम्‍हें इतने गहन आनंद से भर जाएगी कि तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकते।असल में, इसके बारे में कुछ भी कहना असंभव है, क्‍योंकि भाषा में जो भी कहा जाएगा वह तुम्‍हारी ओर इशारा करेगा और तुम हो ही नहीं।यदि ये कहा जाये कि तुम सुख से भर जाओगे तो यह बेतुकी बात होगी। तुम तो होगे ही नहीं। तो ये कैसे कहा जा सकता है, कि तुम सुख से भी जाओगे? सुख होगा। तुम्‍हारी त्‍वचा की चार दीवारी में आनंद का स्‍पंदन होगा। लेकिन तुम नहीं होओगे? एक गहन मौन तुम पर उतर आयेगा। क्‍योंकि यदि तुम ही नहीं हो तो कोई भी अशांति पैदा नहीं कर सकता है।

4-तुम सदा यही सोचते हो कि कोई और तुम्‍हें अशांत कर रहा है। सड़क से गुजरते हुए ट्रैफिक की आवाज, चारों और खेलते हुए बच्‍चे,फ़ोन पर बात करता हुआ पति, रसोईघर में काम करती हुई पत्‍नी ..हर कोई तुम्‍हें अशांत कर रहा है।कोई तुम्‍हें अशांत नहीं कर रहा है, तुम ही अशांति के कारण हो। क्‍योंकि तुम हो ,इसलिए कुछ भी तुम्‍हें अशांत कर सकता है। यदि तुम नहीं हो तो अशांति आएगी और तुम्‍हारी रिक्‍तता को बिना छुए गुजर जाएगी। तुम ऐसे हो कि सब कुछ बहुत जल्‍दी तुम्‍हें छू जाता है। एक घाव जैसे हो; कुछ भी तुम्‍हें तत्‍क्षण चोट पहुंचा जाता है।उदाहरण के लिए, एक वैज्ञानिक कहानी है। तीसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ऐसा हुआ कि सब मर गए, अब पृथ्‍वी पर कोई भी नहीं था बस वृक्ष और पहाड़ियां ही बची थी। एक बड़े वृक्ष ने सोचा कि चलो खूब शोर करूं। जैसा कि वह पहले किया करता था। वह एक बड़ी चट्टान पर गिर पडा जो भी किया जा सकता था उसने सब किया। लेकिन कोई शोर नहीं हुआ। क्‍योंकि शोर के लिए तुम्‍हारे कानों की जरूरत होती है। आवाज के लिए तुम्‍हारे कानों की जरूरत है। यदि तुम नहीं हो तो आवाज पैदा नहीं की जा सकती है। यह असंभव है...यदि सुनने के लिए

कोई भी न हो तो आवाज पैदा नहीं की जा सकती। क्‍योंकि आवाज तुम्‍हारे कानों की प्रतिक्रिया है।

5-यदि पृथ्‍वी पर कोई भी न हो तो सूरज उग सकता है। लेकिन प्रकाश नहीं होगा। यह बात अजीब लगती है। हम ऐसा सोच भी नहीं सकते क्‍योंकि हम तो सदा ही सोचते है कि सूरज उगेगा और प्रकाश हो जाएगा। लेकिन तुम्‍हारी आंखें चाहिए, तुम्‍हारी आंखों के बिना सूरज प्रकाश पैदा नहीं कर सकता। वह उगता रह सकता है। लेकिन सब व्‍यर्थ होगा। क्‍योंकि उसकी किरणें रिक्‍तता से ही गुजरेंगी। कोई भी नहीं होगा। जो प्रतिक्रिया कर सके और कह सके कि यह प्रकाश है।प्रकाश तुम्‍हारी आंखों के कारण है क्योकि तुम प्रतिक्रिया करते हो। ध्‍वनि तुम्‍हारे कानों के कारण है क्योकि तुम प्रतिक्रिया करते हो। तुम क्‍या सोचते हो, किसी बगीचे में एक गुलाब का फूल खिला है, लेकिन यदि उधर से कोई भी न गुजरे तो क्‍या उसमें सुगंध होगी। अकेला गुलाब ही सुगंध पैदा नहीं कर सकता। तुम और तुम्‍हारी नाक जरूरी है। कोई होना चाहिए ...जो प्रतिक्रिया कर सके और कह सके कि यह सुगंध है, यह गुलाब है। चाहे गुलाब कितनी ही कोशिश करे, बिना किसी नाक के वह गुलाब न होगा।तो अशांति वास्‍तव में सड़क पर नहीं है। वह तुम्‍हारे अहंकार में है। तुम्‍हारा अहंकार प्रतिक्रिया करता है। यह तुम्‍हारी व्‍याख्‍या है। कभी किसी दूसरी स्‍थिति में तुम उसका आनंद भी ले सकते हो। तब वह अशांति नहीं होगी। किसी दूसरे मनोभाव में तुम उसका आनंद लोगे और तब तुम कहोगे, ‘कितना सुंदर है, क्‍या संगीत है।’

6-लेकिन किसी उदासी के क्षण में संगीत भी अशांति बन जाएगा।लेकिन यदि तुम नहीं हो, बस एक स्‍पेस है,एक रिक्‍तता है,तब न तो अशांति हो सकती है न संगीत।सब कुछ बस तुमसे होकर गुजर जाएगा,बिलकुल अनजाना, क्‍योंकि अब कोई घाव नहीं है। जो प्रतिक्रिया करे, भीतर कोई नहीं है। जो प्रत्‍युत्‍तर दे; किसी अहंकार का निर्माण भी नहीं होगा। इसी को बुद्ध

निर्वाण कहते है।और भोलेनाथ की यह विधि तुम्‍हारी सहायता कर सकती है।अपने निष्‍क्रिय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—सर्वथा रिक्‍त।किसी भी निष्‍क्रिय अवस्‍था में बैठ जाओ, कुछ भी न करो क्‍योंकि जब भी तुम कुछ करते हो तो कर्ता बीच में आ जाता है। वास्‍तव में कोई कर्ता नहीं है। केवल क्रिया के कारण ही तुम समझते हो कि कर्ता है। बुद्ध को समझ पाना इसीलिए कठिन है। केवल भाषा के कारण ही समस्‍याएं खड़ी हुई है।हम कहते है कि व्‍यक्‍ति चल रहा है। यदि हम इस वाक्‍य का विश्‍लेषण करें तो इसका अर्थ हुआ कि कोई है जो चल रहा है। लेकिन बुद्ध कहते है कि कोई चल नहीं रहा,बस चलने की क्रिया हो रही है।तुम हंस रहे हो। भाषा के कारण ऐसा लगता है कि जैसे कोई है जो हंस रहा है। बुद्ध कहते है कि हंसी तो हो रही है। लेकिन भीतर कोई नहीं है जो हंस रहा है।

7-जब तुम हंसते हो,इसे स्‍मरण करो और खोजो कि कौन हंसता है। तुम कभी किसी को न पाओगे। बस हंसी मात्र है, उसके पीछे कोई हंसने वाला नहीं है। जब तुम उदास हो तो भीतर कोई नहीं है जो उदास है, बस उदासी है। उसको देखो। बस उदासी है। यह एक प्रक्रिया है: हंसी,सुख, दुःख; इनके पीछे कोई मौजूद नहीं है।केवल भाषा के कारण ही हम द्वैत में सोचते है। यदि कुछ होता है तो हम कहते है कि कोई होना चाहिए जिसने किया,कोई कर्ता होना चाहिए। हम क्रिया को अकेले नहीं सोच सकते है। लेकिन क्‍या कभी तुमने कर्ता को देखा है। क्‍या तुमने उसे कभी देखा है जो हंसता है।बुद्ध कहते है कि जीवन है, जीवन की प्रक्रिया है, लेकिन भीतर कोई भी नहीं है जो जीवंत है। और फिर मृत्‍यु होती है। लेकिन कोई मरता नहीं है। बुद्ध के लिए तुम बंटे हुए नहीं हो। भाषा द्वैत निर्मित करती है। कोई बोल रहा है ...ऐसा लगता है कि कोई है जो बोल रहा है। लेकिन बुद्ध कहते है कि केवल बोलना हो रहा है। बोलने वाला कोई नहीं है। यह एक प्रक्रिया है। जो किसी से संबंधित नहीं है।

8-लेकिन हमारे लिए यह कठिन है। क्‍योंकि हमारा मन द्वैत में गहरा जमा हुआ है। हम जब भी किसी क्रिया की बात सोचते है तो हम भीतर किसी कर्ता के बारे में सोचते है। यही कारण है कि ध्‍यान के लिए कोई शांत, निष्‍क्रिय मुद्रा अच्‍छी है क्‍योंकि तब तुम खालीपन में अधिक सरलता से उतर सकते हो।बुद्ध कहते है, ‘ध्‍यान करो मत, ध्‍यान में होओ।’अंतर बड़ा है।क्‍योंकि यदि तुम ध्‍यान करते हो तो कर्ता बीच में आ गया। तुम यही सोचते रहोगे कि तुम ध्‍यान कर रहे हो। तब ध्‍यान एक कृत्‍य बन गया। बुद्ध कहते है, ध्‍यान में होओ। इसका अर्थ है पूरी तरह निष्‍क्रिय हो जाओ। कुछ भी मत करो। मत सोचो कि कहीं कोई कर्ता है।इसीलिए कई बार जब कर्ता क्रिया में खो जाता है तो तुम अचानक सुख का एक स्‍फुरण अनुभव करते हो। ऐसा इसीलिए होता है क्‍योंकि तुम क्रिया में खो गए। नृत्‍य में ऐसा एक क्षण आता है जब नृत्‍य रह जाता है। और नर्तक खो जाता है। तब तत्‍क्षण एक आशीर्वाद.. एक सौंदर्य ..एक आनंद बरस उठता है। नर्तक एक अज्ञात आनंद से भर जाता है। वहां क्‍या हुआ...वास्तव में, केवल क्रिया ही रह गई और कर्ता विलीन हो गया।

9-युद्ध भूमि में सैनिक कई बार बड़े गहन आनंद को उपलब्‍ध हो जाते है। यह सोच पाना भी कठिन है क्‍योंकि वे मृत्‍यु के इतने निकट होते है कि किसी भी क्षण वे मर सकते है। शुरू-शुरू में तो वह भयभीत हो जाते है, भय से कांपते है, लेकिन तुम रोज-रोज लगातार कांपते और भयभीत नहीं रहा सकते। धीरे-धीरे आदत पड़ जाती है। मनुष्‍य मृत्‍यु को स्‍वीकार कर लेता है, तब भय समाप्‍त हो जाता है।और जब मृत्‍यु इतनी करीब हो और जरा सी चूक से मृत्‍यु घटित हो सकती है तो कर्ता भूल जाता है और केवल कर्म रह जाता है। केवल क्रिया रह जाती है। और वे क्रिया में इतने गहरे डूब जाते है कि वे सतत याद नहीं रख सकते कि ‘मैं हूं’। और ‘मैं हूं’ तो परेशानी खड़ी करेगा। तुम चूक जाओगे; तुम क्रिया में पूरे नहीं हो पाओगे। और जीवन दांव पर लगा है। इसलिए तुम द्वैत को नहीं ढो सकते। कृत्‍य समग्र हो जाता है। और जब भी कृत्‍य समग्र होता है तो अचानक तुम पाते हो कि तुम इतने आनंदित हो जितने तुम पहले कभी भी न थे।योद्धाओं ने आनंद के इतने गहरे झरनों का अनुभव किया है जितना कि साधारण जीवन तुम्‍हें कभी नहीं दे सकता। शायद यही कारण हो कि युद्ध इतने आकर्षित करते है। और शायद यही कारण हो कि 'क्षत्रिय 'ब्राह्मणों से अधिक मोक्ष को उपलब्‍ध हुए है। क्‍योंकि ब्राह्मण हमेशा सोचते ही रहते है, बौद्धिक ऊहापोह में उलझे रहते है। जैनों के चौबीस तीर्थकर राम, कृष्‍ण, बुद्ध, सभी क्षत्रिय योद्धा थे। उन्‍होंने उच्‍चतम शिखर को छुआ है।

10-किसी दुकानदार को कभी इतने ऊंचे शिखर छूते नहीं सुना होगा। वह इतनी सुरक्षा में जीता है कि वह द्वैत में जी सकता है। वह जो भी करता है कभी पूरा-पूरा नहीं होता। लाभ कोई समग्र कृत्‍य नहीं हो सकता ।तुम उसका आनंद ले सकते हो, लेकिन वह कोई जीवन मृत्‍यु का सवाल नहीं हो सकता। तुम उसके साथ खेल सकते हो। लेकिन कुछ भी दांव पर नहीं लगा है। वह एक खेल है। दुकानदारी एक खेल ही है। धन का खेल है। खेल कोई बहुत खतरनाक बात नहीं है।एक जुआरी भी दुकानदार से अधिक आनंद को उपलब्‍ध हो सकता है। क्‍योंकि जुआरी खतरे में उतरता है। उसके पास जो कुछ है वह दांव पर लगा देता है। पूरे दांव के उस क्षण में कर्ता खो जाता है।शायद यही कारण है कि युद्ध आदि में इतना आकर्षण है।वास्तव में, जो भी कुछ आकर्षण है.. कहीं उसके पीछे कुछ आनंद भी छिपा होगा। कहीं अज्ञात का कोई इशारा छिपा होगा। कहीं जीवन के गहन रहस्‍य की झलक छिपी होगी। अन्‍यथा कुछ भी आकर्षण नहीं हो सकता।

11-''निष्‍क्रियता ''और ध्‍यान में तुम जो मुद्रा लो वह शांत होना चाहिए। भारत में हमने सबसे निष्‍क्रिय आसन, सबसे शांत मुद्रा विकसित की है.. सिद्धासन। और इसका सौंदर्य यह है कि सिद्धासन की मुद्रा में जिसमें भोलेनाथ बैठे है। शरीर गहनतम निष्‍क्रियता की अवस्‍था में होता है। लेट कर भी तुम इतने क्रिया शून्‍य नहीं होते। सोते समय भी तुम्‍हारी मुद्रा निष्‍क्रिय नहीं होती, क्रियाशील होती है।सिद्धासन इतना शांत क्‍यों होता है? कई कारण है। इस मुद्रा में शरीर की विद्युत ऊर्जा एक वर्तुल में घूमती है। शरीर का एक विद्युतीय वर्तुल होता है: जब वर्तुल पूरा हो जाता है तो ऊर्जा शरीर में चक्राकर घूमने लगती है। बाहर नहीं निकलती। अब यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध तथ्‍य है कि कई मुद्राओं में तुम्‍हारे शरीर से ऊर्जा बाहर निकलती रहती है। जब शरीर ऊर्जा को बाहर फेंकता है तो उसे लगातार ऊर्जा पैदा करना पड़ती है। वह सक्रिय रहता है। शरीर तंत्र को लगातार कार्य करना पड़ता है क्‍योंकि तुम ऊर्जा फेंक रह हो। जब ऊर्जा शरीर तंत्र से बाहर निकल रहा है तो उसे पूरा करने के लिए भीतर से शरीर को सक्रिय होना पड़ता है। तो सबसे शांत मुद्रा वह होगी जब कोई ऊर्जा बाहर नहीं निकल रही हो।

12-अब पाश्‍चात्‍य देशों में, विशेषकर इंग्‍लैंड में ,रोगियों का इलाज उनके शरीर के विद्युतीय वर्तुल बनाकर किया जाता है। कई अस्‍पतालों में इन विधियों का उपयोग होता है। और वे बहुत सहयोगी है। व्‍यक्‍ति फर्श पर तारों के एक जाल में लेट जाता है। तारों का वह जाल बस उसके शरीर की विद्युत का एक वर्तुल बनाने के लिए होता है। बस आधा घंटा ही पर्याप्‍त है—और वह इतना विश्रांत,इतना ऊर्जा से भरा हुआ, इतना शक्‍तिशाली अनुभव करेगा कि वह विश्‍वास भी नहीं कर पाएगा कि जब वह आया तो इतना कमजोर था।सभी पुरानी सभ्‍यताओं में लोग रात को एक विशेष दिशा में सोते थे। ताकि ऊर्जा बाहर न बहे। क्‍योंकि पृथ्‍वी में एक चुंबकीय शक्‍ति है। उस चुंबकीय शक्‍ति का उपयोग करने के लिए तुम्‍हें एक विशेष दिशा में लेटना पड़ेगा। तब पृथ्‍वी की शक्‍ति सारी रात तुम्‍हें चुंबकत्‍व में रखेगी। यदि तुम इससे विपरीत लेटे हुए हो तो वह शक्‍ति तुमसे संघर्ष में रहेगी और तुम्‍हारी ऊर्जा नष्‍ट होगी।कई लोग सुबह बड़ा तनाव, बड़ी कमजोरी अनुभव करते है। ऐसा होना नहीं चाहिए, क्‍योंकि नींद तुम्‍हें तरो-ताजा करने के लिए, तुम्‍हें अधिक ऊर्जा देने के लिए है। लेकिन कई लोग है जो रात सोते समय ऊर्जा से भरे होते है। पर सुबह वे लाश की तरह होते है। इससे कई कारण हो सकते है, पर यह भी उनमें से एक कारण हो सकता है। वे गलत दिशा में सोए है। यदि वे पृथ्‍वी के चुंबकत्‍व के विपरीत लेटे हुए है तो वे बुझा-बुझा महसूस करेंगे।

13-वैज्ञानिक कहते है कि शरीर का अपना एक विद्युत यंत्र है और ऐसे आसन हो सकते है जिनमें ऊर्जा संरक्षित हो। और उन्‍होंने सिद्धासन में बैठे हुए कई योगियों का अध्‍यन किया है। उस अवस्‍था में शरीर न्‍यूनतम ऊर्जा बाहर फेंकता हे। ऊर्जा संरक्षित रहती है। जब ऊर्जा संरक्षित होती है तो आंतरिक यंत्रो को कार्य नहीं करना पड़ता। किसी क्रिया की कोई जरूरत ही नहीं रहती। इसलिए शरीर अक्रिय होता है। इस अक्रियता में तुम सक्रिय अवस्‍था में अधिक रिक्‍त हो सकते हो।इस सिद्धासन की मुद्रा में तुम्‍हारी रीढ़ की हड्डी और पूरा शरीर सीधा होता है। अब कई अध्‍ययन हुए है। जब तुम्‍हारा शरीर पूरी तरह सीधा होता है तो तुम पृथ्‍वी के गुरूत्‍वाकर्षण से न्‍यूनतम प्रभावित होते हो। यही कारण है कि जब तुम किसी असुविधाजनक मुद्रा में बैठते हो ..जिसे तुम असुविधाजनक कहते हो—वह असुविधाजनक इसीलिए होती है क्‍योंकि तुम्‍हारा शरीर अधिक गुरूत्‍वाकर्षण से प्रभावित हो रहा है।

14-यदि तुम सीधे बैठे हुए हो तो गुरूत्‍वाकर्षण न्‍यूनतम प्रभावी होता है। क्‍योंकि वह मात्र तुम्‍हारी रीढ़ को खींच सकता है। और कुछ भी नहीं।इसीलिए तो खड़े रहकर सोना कठिन है। शीर्षासन में, सिर के बल खड़े होकर सोना तो लगभग असंभव ही हे। सोने के लिए तुम्‍हें लेटना पड़ता है। क्‍यों? क्‍योंकि तब धरती का खिंचाव तुम पर अधिकतम होता है। और अधिकतम खिंचाव तुम्‍हें अचेतन कर देता है। न्‍यूनतम खिंचाव तुम्‍हें जगाता है। अधिकतम खिंचाव अचेतन कर देता है। सोने के लिए तुम्‍हें लेटना पड़ता है। ताकि पृथ्‍वी का गुरूत्‍वाकर्षण तुम्‍हारे सारे शरीर को छुए और उसकी प्रत्‍येक कोशिश को खींचे। तब तुम अचेतन हो जाते हो।पशु मनुष्‍य से अधिक अचेतन होते है। क्‍योंकि वे सीधे खड़े नहीं हो सकते। विकासवादी, इवोल्‍यूशनिस्‍ट कहते है कि मनुष्‍य इसीलिए विकसित हो सका क्‍योंकि वह दो पांवों पर सीधा खड़ा हो सका। गुरूत्‍वाकर्षण का खिंचाव कम होने के कारण वह थोड़ा अधिक चैतन्‍य हो गया।

15-सिद्धासन में गुरूत्‍वाकर्षण शक्‍ति न्‍यूनतम होती है। शरीर निष्‍क्रिय और क्रिया-रहित होता है। भीतर से बंद होता है। स्‍वयं में एक संसार बन जाता है। न कुछ बाहर जाता है, न कुछ भीतर आता है। आंखें बंद है। हाथ जुड़े हुए है, पाँव जुड़े हुए है—ऊर्जा वर्तुल में गति करती है। और जब भी ऊर्जा वर्तुल में गति करती है। वह एक आंतरिक लय एक आंतरिक संगीत निर्मित करती है। जितना तुम उस संगीत को सुनते हो, उतने ही तुम विश्रांत अनुभव करते हो।''अपने निष्‍क्रय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—बिलकुल जैसे कोई खाली कमरा होता है—सर्वथा रिक्‍त।’'उस रिक्‍तता में गिरते जाओ। एक क्षण आएगा जब तुम अनुभव करोगे कि सब कुछ समाप्‍त हो गया। कि अब कोई भी नहीं बचा। घर खाली है, घर का स्‍वामी मिट गया, तिरोहित हो गया। उस अंतराल में जब तुम नहीं होओगे तो परमात्‍मा प्रकट होगा। जब तुम नहीं होते, परमात्‍मा होता है। जब तुम नहीं होते, आनंद होता है। इसलिए मिटने का प्रयास करो। भीतर से मिटने का प्रयास करो।

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सिद्धासन क्या है :-

02 FACTS;-

1-सिद्धासन दो शब्दों से मिलकर बना है सिद्ध + आसन = सिद्धासन | जहाँ पर सिद्ध का अर्थ होता है सिद्धि प्राप्त करना और आसन = आसन के द्वारा अथार्त अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करने वाला होने के कारण इसका नाम सिद्धासन पड़ा है। सिद्ध योगी इस आसन को बहुत ज्यादा करते हैं | इसलिए उनका यह आसन.. प्रिय आसन है | ध्यान की अवस्था में अधिकतर साधु इसी आसन में बैठते हैं।

2- यह आसन बैठने के सभी मुख्य आसनों में सबसे उच्च स्थान रखता है | यह आसन सभी 72 हजार नाड़ियों को शुद्धिकरण करने की क्षमता रखता है | यही कारण है की सभी आसनों में यह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है |

"जिस प्रकार केवल कुम्भक के समय कोई कुम्भक नहीं, खेचरी मुद्रा के समान कोई मुद्रा नहीं, नाद के समय कोई लय नहीं; उसी प्रकार सिद्धासन के समान कोई दूसरा आसन नहीं है।

प्रथम विधि ;-

सर्वप्रथम दण्डासन में बैठ जाएँ। बाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को गुदा और उपस्थेन्द्रिय के बीच इस प्रकार से दबाकर रखें कि बाएं पैर का तलुआ दाएँ पैर की जाँघ को स्पर्श करे। इसी प्रकार दाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को उपस्थेन्द्रिय (शिशन) के ऊपर इस प्रकार दबाकर रखें। अब दोनों हाथ ज्ञान मुद्रा में रखें तथा जालन्धर बन्ध लगाएँ और अपनी दृष्टि को भ्रूमध्य टिकाएँ। इसी का नाम सिद्धासन है।

दूसरी विधि; -

सर्वप्रथम दण्डासन में बैठ जाएँ तत्पश्चात बाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को शिशन के ऊपर रखें तथा दाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को बाएं पैर की एड़ी के ठीक ऊपर रखें।घुटने जमीन पर टिकाकर रखें। दोनों हाथ ज्ञान मुद्रा (तर्जनी एवं अँगूठे के अग्रभाग को स्पर्श करके रखें, शेष तीन अँगुलियाँ सीधी रहेंगी) की स्थिति में घुटने पर टिके हुए हों। मेरुदंड सीधा रखें। यह भी सिद्धासन कहलाता है।

सिद्धासन के लाभ -

02 POINTS;-

1-यह सभी आसनों में महत्वपूर्ण तथा सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाला एकमात्र आसन है। इस आसन के अभ्यास से साधक का मन विषय वासना से मुक्त हो जाता है।इसके अभ्यास से निष्पत्ति अवस्था, समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। इसके अभ्यास से स्वत: ही तीनों बंध (जालंधर, मूलबन्ध तथा उड्डीयन बंध) लग जाते हैं।

2-सिद्धासन के अभ्यास से शरीर की समस्त नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है।जठराग्नि तेज होता है जिससे पाचन शक्ति बढती है ।प्राणतत्त्व स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है। फलतः मन एकाग्र होता है। विचार पवित्र बनते हैं।कुण्डलिनी शक्ति जाग्रति में यह सहायक है |

सावधानी;-

गृहस्थ लोगों को इस आसन का अभ्यास लम्बे समय तक नहीं करना चाहिए। सिद्धासन को बलपूर्वक नहीं करनी चाहिए। साइटिका, स्लिप डिस्क वाले व्यक्तियों को भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।घुटने में दर्द हो, जोड़ो का दर्द हो या कमर दर्द की शिकायत हो, उन्हें भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए।

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विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 110 ;-

15 FACTS;-

1-दूसरी विधि ..भगवान शिव कहते है:-

‘'हे गरिमामयी, लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रिक्‍त खोल है जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।’'

2-यह दूसरी विधि लीला के आयाम पर आधारित है। इसे समझना होगा। यदि तुम निष्‍क्रिय हो ..तब तो ठीक है कि तुम गहन रिक्‍तता में, आंतरिक गहराइयों में उतर जाओ। लेकिन तुम सारा दिन रिक्‍त नहीं हो सकते और सारा दिन क्रिया शून्‍य नहीं हो सकते। तुम्‍हें कुछ तो करना ही पड़ेगा। सक्रिय होना एक मूल आवश्‍यकता है। अन्‍यथा तुम जीवित नहीं रह सकते। जीवन का अर्थ ही है सक्रियता। तो तुम कुछ घंटों के लिए तो निष्‍क्रिय हो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे में बाकी समय तुम्‍हें सक्रिय रहना पड़ेगा।और ध्‍यान तुम्‍हारे जीवन की शैली होनी चाहिए। उसका एक हिस्‍सा नहीं। अन्‍यथा पाकर भी तुम उसे खो दोगे। यदि एक घंटे के लिए तुम निष्‍क्रिय हो तो तेईस घंटे के लिए तुम सक्रिय होओगे। सक्रिय शक्‍तियां अधिक होंगी और निष्‍क्रिय में तुम जो भी पाओगे वे उसे नष्‍ट कर देंगे। सक्रिय शक्‍तियां उसे नष्‍ट कर देंगी। और अगले दिन तुम फिर वही करोगे: तेईस घंटे तुम कर्ता को इकट्ठा करते रहोगे और एक घंटे के लिए तुम्‍हें उसे छोड़ना पड़ेगा। यह कठिन होगा।

3-तो कार्य और कृत्‍य के प्रति तुम्‍हें दृष्‍टिकोण बदलना होगा। इसीलिए यह दूसरी विधि है। कार्य को खेल समझना चाहिए, कार्य नहीं। कार्य को लीला की तरह, एक खेल की तरह लेना चाहिए। इसके प्रति तुम्‍हें गंभीर नहीं होना चाहिए। बस ऐसे ही जैसे बच्‍चे खेलते है। यह निष्‍प्रयोजन है। कुछ भी पाना नहीं है। बस कृत्‍य का ही आनंद लेना है।यदि कभी-कभी तुम खेलो तो अंतर तुम्‍हें स्‍पष्‍ट हो सकता है। जब तुम कार्य करते हो तो अलग बात होती है। तुम गंभीर होते हो। बोझ से दबे होते हो। उत्‍तरदायी होते हो। चिंतित होते हो। परेशान होते हो। क्‍योंकि परिणाम तुम्‍हारा लक्ष्‍य होता है। स्‍वयं कार्य मात्र ही आनंद नहीं देता, असली बात भविष्‍य में, परिणाम में होती है। खेल में कोई परिणाम नहीं होता। खेलना ही आनंदपूर्ण होता है। और तुम चिंतित नहीं होते। खेल कोई गंभीर बात नहीं है। यदि तुम गंभीर दिखाई भी पड़ते हो तो बस दिखावा होता है। खेल में तुम प्रक्रिया का ही आनंद लेते हो।कार्य में प्रक्रिया का आनंद नहीं लिया जाता। लक्ष्‍य, परिणाम महत्‍वपूर्ण होता है। प्रक्रिया को किसी न किसी तरह झेलना पड़ता है। कार्य करना पड़ता है। क्‍योंकि परिणाम पाना होता है। यदि परिणाम को तुम इसके बिना भी पा सकते तो तुम क्रिया को एक और सरका देते और परिणाम पर कूद पड़ते।लेकिन खेल में तुम ऐसा नहीं करोगे,यदि परिणाम को तुम बिना

खेले पा सको तो परिणाम व्‍यर्थ हो जाएगा। उसका महत्‍व ही प्रक्रिया के कारण है।

4-उदाहरण के लिए, दो फुटबाल की टीमें खेल के मैदान में है, बस एक सिक्‍का उछाल कर वे तय कर सकते है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। इतने श्रम इतनी लंबी प्रक्रिया से क्‍यों गुजरना। इसे बड़ी सरलता से एक सिक्‍का उछाल कर तय किया जा सकता है। परिणाम सामने आ जाएगा। एक टीम जीत जाएगी और दूसरी टीम हार जाएगी। उसके लिए मेहनत क्‍या करनी।

लेकिन तब कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। कोई मतलब नहीं रह जाएगा। परिणाम अर्थपूर्ण नहीं है। प्रक्रिया का ही अर्थ है। यदि न कोई जीते और न कोई हारे तब भी खेल का मूल्‍य है।उस कृत्‍य का ही आनंद है।लीला के इस आयाम को तुम्‍हारे पूरे जीवन मे जोड़ना है। तुम जो भी कर रहे हो, उस कृत्‍य में इतने समग्र हो जाओ कि परिणाम असंगत हो जाए। शायद वह आ भी जाए, उसे आना ही होगा। लेकिन वह तुम्‍हारे मन में न हो। तुम बस खेल रहे हो और आनंद ले रहे हो।श्रीकृष्‍ण का यही अर्थ है जब वे अर्जुन को कहते है कि भविष्‍य परमात्‍मा के हाथ में छोड़ दे। तेरे कर्मों का फल परमात्‍मा के हाथ में है, तू तो बस कर्म कर। यही सहज कृत्‍य लीला बन जाता है। यही समझने में अर्जुन को कठिनाई होती है, क्‍योंकि वह कह सकता है कि यदि यह सब लीला ही है तो हत्‍या क्‍यों करें? युद्ध क्‍यों करें? यह समझ सकता है कि कार्य क्‍या है, पर वह यह नहीं समझ सकता कि 'लीला क्‍या है।'

5-और कृष्‍ण का पूरा जीवन ही एक लीला है।तुम इतना गैर-गंभीर व्‍यक्‍ति कहीं नहीं ढूंढ सकते। उनका पूरा जीवन ही एक लीला है, एक खेल है, एक अभिनय है। वे सब चीजों का आनंद ले रहे है। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं है। वे सघनता से सब चीजों का आनंद ले रहे है। पर परिणाम के विषय में बिलकुल भी चिंतित नहीं है। जो होगा वह असंगत है।अर्जुन के लिए श्रीकृष्‍ण को समझना कठिन है। क्‍योंकि वह हिसाब लगाता है, वह परिणाम की भाषा में सोचता है। वह गीता के आरंभ में कहता है, ‘यह सब असार लगता है। दोनों ओर मेरे मित्र तथा संबंधी लड़ रहे है। कोई भी जीते, नुकसान ही होगा क्‍योंकि मेरा परिवार मेरे संबंधी, मेरे मित्र ही नष्‍ट होंगे। यदि मैं जीत भी जाऊं तो भी कोई अर्थ नहीं होगा। क्‍योंकि अपनी विजय मैं किसे दिखलाऊंगा? विजय का अर्थ ही तभी होता है, जब मित्र,संबंधी, परिजन उसका आनंद लें। लेकिन कोई भी न होगा,केवल लाशों के ऊपर विजय होगी। कौन उसकी प्रशंसा करेगा। कौन कहेगा कि अर्जुन, तुमने बड़ा काम किया है। तो चाहे मैं जीतूं ..चाहे मैं हारूं, सब असार लगता है। सारी बात ही बेकार है।’

6-वह पलायन करना चाहता है। वह बहुत गंभीर है। और जो भी हिसाब-किताब लगता है वह उतना ही गंभीर होगा। गीता की पृष्‍ठभूमि अद्भुत है: युद्ध सबसे गंभीर घटना है। तुम उसके प्रति खेलपूर्ण नहीं हो सकते। क्‍योंकि जीवन मरण का प्रश्न है। लाखों जानों का प्रश्न है। तुम खेलपूर्ण नहीं हो सकते। और श्रीकृष्‍ण आग्रह करते है कि वहां भी तुम्‍हें खेलपूर्ण होना है। तुम यह मत सोचो कि अंत में क्‍या होगा, बस अभी और यही जाओ। तुम बस योद्धा का अपना खेल पूरा करो। फल की चिंता मत करो। क्‍योंकि परिणाम तो परमात्‍मा के हाथों में है। और इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि परिणाम परमात्‍मा के हाथों में है या नहीं। असली बात यह है कि परिणाम तुम्‍हारे हाथ में नहीं है।तुम्‍हें उसे नहीं ढोना है। यदि तुम उसे ढोते हो तो तुम्‍हारा जीवन ध्‍यानपूर्ण नहीं हो सकता।यह दूसरी विधि कहती है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’अपने पूरे जीवन को लीला बन जाने दो।

‘यह ब्रह्मांड एक रिक्‍त खोल है जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।‘तुम्‍हारा मन अनवरत खेलता चला जाता है। पूरी प्रक्रिया एक खाली कमरे में चलते हुए स्‍वप्‍न जैसी है।

7-ध्‍यान में अपने मन को कौतुक करते हुए देखना होता है। बिलकुल ऐसे ही जैसे बच्‍चे खेलते है। और ऊर्जा के अतिरेक से कूदते-फांदते है। इतना ही पर्याप्‍त है। विचार उछल रहे है। कौतुक कर रहे है। बस एक लीला है। उसके प्रति गंभीर मत होओ। यदि कोई बुरा विचार भी आता है तो ग्‍लानि से मत भरो।या कोई शुभ विचार उठता है ...कि तुम मानवता की सेवा करना चाहते हो ..तो इसके कारण बहुत अधिक अहंकार से मत भर जाओ, ऐसा मत सोचो कि तुम बहुत महान हो गए हो। केवल उछलता हुआ मन है। कभी नीचे जाता है,तो कभी ऊपर आता है। यह तो बस ऊर्जा का बहता हुआ अतिरेक है जो भिन्‍न-भिन्‍न रूप और आकार ले रही है। मन तो उमड़ कर बहता हुआ एक झरना मात्र है, और कुछ भी नहीं।खेलपूर्ण होओ।भगवान शिव कहते है: ‘हे गरिमामयी लीला करो।’खेलपूर्ण होने का अर्थ होता है कि वह कृत्‍य का आनंद ले रहा है। कृत्‍य ही स्‍वयं में पर्याप्‍त है। पीछे किसी लाभ की आकांक्षा नहीं है। वह कोई हिसाब नहीं लगा रहा है।

8-जरा एक दुकानदार की ओर देखो। वह जो भी कर रहा है उसमें लाभ हानि का हिसाब लगा रहा है ..कि इससे मिलेगा क्‍या। एक ग्राहक आता है। ग्राहक कोई व्‍यक्‍ति नहीं बस एक साधन है। उससे क्‍या कमाया जा सकता है। कैसे उसका शोषण किया जा सकता है। गहरे में वह हिसाब लगा रहा कि क्‍या करना है... क्‍या नहीं करना है। बस शोषण के लिए वह हर चीज का हिसाब लगा रहा है। उसे इस आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। बस सौदे से मतलब है। किसी और चीज से नहीं। उसे बस भविष्‍य से, लाभ से मतलब है।गांवों में अभी भी दुकानदार बस लाभ ही नहीं कमाते और ग्राहक बस खरीदने ही नहीं आते। वे सौदे का आनंद लेते है। घंटो-घंटो ग्राहकों के साथ वह खेल चलता है । यदि कोई चीज दस रूपये की होती है तो वह उसे पचास रूपए मांगते है। और वह जानते है कि यह झूठ है। और उनके ग्राहक भी जानते है कि वह चीज दस रूपये के आस-पास होनी चाहिए। और वे दो रूपये से शुरू करते है। फिर घंटो तक लम्‍बी बहस होती है।उनके साथ तो खेल हो जाता है... इसमे आनंद आता है। चाहे हमे एक दो रूपये कम ज्‍यादा देना पड़े,इसमे कोई अंतर नहीं पड़ता है।

9-उन्‍हें वह कृत्‍य ही अपने आप में आनंद है। दो लोग बात कर रहे है, दोनों खेल रहे है। और दोनों जानते है कि यह एक खेल है। क्‍योंकि स्‍वभावत: एक निश्‍चित मूल्‍य ही संभव है ।अब मूल्‍यों को निश्‍चित कर लिया गया है। क्‍योंकि लोग अधिक हिसाबी और लाभ उन्‍मुक्‍त हो गए है। समय क्‍यों व्‍यर्थ करना। जब बात को मिनटों में निपटाया जा सकता है। तो कोई जरूरत नहीं है। तुम सीधे-सीधे निश्‍चित मूल्‍य लिख सकते हो। घंटों तक क्यों जद्दोजहद करना? लेकिन तब सारा खेल खो जाता है। और एक दिनचर्या रह जाती है। इसे तो मशीनें भी कर सकती है। दुकानदार की जरूरत ही नहीं है। न ग्राहक की जरूरत है।

एक मनोविश्‍लेषक का उदाहरण है कि वह इतना व्‍यस्‍त था और उसके पास इतने मरीज आते थे कि हर किसी से व्‍यक्‍तिगत संपर्क रख पाना कठिन था। तो वह अपने टेप रिकार्डर से मरीजों के लिए सब संदेश भर देता था जो स्‍वयं उनसे कहना चाहता था।एक बार ऐसा हुआ कि एक बहुत अमीर मरीज का.. सलाह के लिए मिलने का समय था। मनोविश्‍लेषक एक होटल में भीतर जा रहा था। अचानक उसने उस मरीज को वहां बैठे देखा। तो उसने पूछा, तुम यहां क्‍या कर रहे हो। इस समय तो तुम्‍हें मेरे पास आना था।मरीज ने कहा कि: ‘मैं भी इतना व्‍यस्‍त हूं कि मैंने अपनी बातें टेप रिकार्डर में भर दी है। दोनों टेप रिकार्डर आपस में बातें कर रहे है। जो आपको मुझसे कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर में भर गया है। और जो मुझे आपको कहना है वह मेरे टेप रिकार्डर से आपके टेप रिकार्डर में रिकार्ड हो गया है। इससे समय भी बच गया और अब हम दोनों खाली है।’

10-यदि तुम हिसाबी हो जाओ तो व्‍यक्‍ति समाप्‍त हो जाता है और मशीन बन जाता है। भारत के गांवों में अभी भी मोल-भाव होता है। यह एक खेल है और रस लेने जैसा है.. दो प्रतिभाओं के बीच एक खेल चलता है। और दोनों व्‍यक्‍ति गहरे संपर्क में आते है। लेकिन फिर समय नहीं बचता। खेलने से तो कभी भी समय की बचत नहीं हो सकती। और खेल में तुम समय की चिंता भी नहीं करते। तुम चिंता मुक्‍त होते हो। और जो भी होता है उसी समय तुम उसका रस लेते हो।खेलपूर्ण होना ध्‍यान प्रक्रियाओं के गहनत्म आधारों में से एक है। लेकिन हमारा मन दुकानदार है। हम उसके लिए प्रशिक्षित किया गया है। तो जब हम ध्‍यान भी करते है तो परिणाम उन्‍मुख होते है। और चाहे जो भी हो तुम असंतुष्‍ट ही होते हो।कुछ लोग कहते है, ‘हां ध्‍यान तो गहरा हो रहा है। मैं अधिक आनंदित हो रहा हूं, अधिक मौन और शांत अनुभव कर रहा हूं। लेकिन और कुछ भी नहीं हो रहा ।’

और क्‍या नहीं हो रहा? ऐसे लोग एक दिन पूछेंगे, ‘हां मुझे निर्वाण का अनुभव तो हो रहा है, पर और कुछ नहीं हो रहा है। वैसे तो मैं आनंदित हूं, पर और कुछ नहीं हो रहा है।’ और क्‍या चाहिए।

11-वह कोई लाभ ढूंढ रहा है। और जब तक कोई ठोस लाभ उसके हाथों में नहीं आ जाता.. जिसे वह बैंक में जमा कर सके। वह संतुष्‍ट नहीं हो सकता। मौन और आनंद इतने अदृष्‍य है कि तुम उन पर मालकियत नहीं कर सकते हो। तुम उन्‍हें किसी को दिखा भी नहीं सकते हो।वे किसी ऐसी चीज की आशा कर रहे है जिसकी आशा दुकानदारी में भी नहीं होनी चाहिए। और ध्‍यान में वे उसकी आशा कर रहे है। दुकानदार और हिसाबी-किताबी मन ध्‍यान के भी बीच में आ जाता है—इससे क्‍या लाभ हो सकता है।दुकानदार खेलपूर्ण नहीं होता।और यदि तुम खेलपूर्ण नहीं हो... तो तुम ध्‍यान में नहीं उतर सकते। अधिक से अधिक खेलपूर्ण हो जाओ। खेल में समय व्‍यतीत करो। बच्‍चों के साथ खेलना ठीक रहेगा। यदि कोई और न भी हो तो तुम कमरे में अकेले उछल-कूद कर सकते हो। नाच सकते हो और खेल सकते हो, आनंद ले सकते हो।यह प्रयोग करके देखो। दुकानदारी में से जितना समय निकाल सको। निकाल कर जरा खेल में लगाओ। जो भी चाहो ..करो। चित्र बना सकते हो, सितार बजा सकते हो.. तुम्‍हें जो भी अच्‍छा लगे। लेकिन खेलपूर्ण होओ। किसी लाभ की आकांक्षा मत करो। भविष्‍य की ओर मत देखो। वर्तमान की ओर देखो। और तब तुम भीतर भी खेलपूर्ण हो सकते हो। तब तुम अपने विचारों पर उछल सकते हो। उनके साथ खेल सकते हो। उन्‍हें इधर-उधर फेंक सकते हो। उनके साथ नाच सकते हो। लेकिन उनके प्रति गंभीर नहीं होओगे।

12-दो प्रकार के लोग है। एक वे जो मन के संबंध में पूर्णतया अचेत है। उनके मन में जो भी होता है उसके प्रति वे मूर्छित होते है। उन्‍हें नहीं पता कि कहां उनका मन उन्‍हें भटकाए जा रहा है। यदि मन की किसी भी चाल के प्रति तुम सचेत हो सको तो तुम हैरान होओगे कि मन में क्‍या हो रहा है।मन एसोसिएशन में चलता है। राह पर एक कुत्‍ता भौंकता है। भौंकना तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क तक पहुंचता है। और वह कार्य करना शुरू कर देता है। कुत्‍ते के इस भौंकने को लेकर तुम संसार के अंत तक जा सकते हो। हो सकता है कि तुम्‍हें किसी मित्र की याद आ जाए.. जिसके पास एक कुत्‍ता है।अब यह कुत्‍ता तो तुम भूल गए पर वह मित्र तुम्‍हारे मन में आ गया —अब तुम्‍हारा मन चलने लगा। अब तुम संसार के अंत तक जा सकते हो। और तुम्‍हें पता नहीं चलता कि एक कुत्‍ता तुम पर चाल चल गया। बस भौंका और तुम्‍हें रास्‍ते पर ले आया। तुम्‍हारे मन ने दौड़ना शुरू कर दिया। वैज्ञानिक इस बारे में कहते है कि यह मार्ग तुम्‍हारे मन में सुनिश्‍चित हो जाता है। यदि यही कुत्‍ता इसी परिस्थिति में दोबारा भौंके तो तुम इसी पर चल पड़ोगे: वहीं मित्र,वहीं कुत्‍ता । दोबारा उसी रास्‍ते पर तुम घूम जाओगे।

13-अब मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क में इलेक्‍ट्रोड डालकर कई प्रयोग किए गए है। वे मस्‍तिष्‍क में एक विशेष स्‍थान को छूते है। और एक विशेष स्‍मृति उभर आती है। अचानक तुम पाते हो कि तुम पाँच वर्ष के हो, एक बग़ीचे में खेल रहे हो। तितलियों के पीछे दौड़ रहे हो। फिर पूरी की पूरी शृंखला चली आती है। तुम्‍हें अच्‍छा लग रहा है। हवा, बगीचा,सुगंध, सब कुछ जीवंत हो उठती है। वह मात्र स्‍मृति ही नहीं होती, तुम उसे दोबारा जीते हो। फिर इलेक्‍ट्रोड वापस निकाल लिए जाता है। और स्‍मृति रूक जाती है। यदि इलेक्‍ट्रोड पुन: उसी स्‍थान को छू ले तो पुन: वही स्‍मृति शुरू हो जाती है। तुम पुन: पाँच साल के हो जाते हो। उसी बग़ीचे में, उसी तितली के पीछे दौड़ने लगते हो। वहीं सुगंध और वहीं घटना चक्र शुरू हो जाता है।यह ऐसे ही है जैसे यांत्रिक रूप से कुछ स्‍मरण कर रहे हो। और पूरा क्रम एक निश्‍चित जगह से प्रारंभ होता है और निश्‍चित परिणति पर समाप्‍त होता है। फिर पुन: प्रारंभ से शुरू होता है। ऐसे ही जैसे तुम टेप रिकार्डर में कुछ भर देते हो। तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क में लाखों स्‍मृतियां है। लाखों कोशिकाएं स्‍मृतियां इकट्ठी कर रही है। और यह सब यांत्रिक है।मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क के साथ किए गए ये प्रयोग अद्भुत है। और इनसे बहुत कुछ पता चलता है। स्‍मृतियां बार-बार दोहरायी जा सकती है।

14-एक प्रयोगकर्ता ने एक स्‍मृति को तीन सौ बार दोहराया और स्‍मृति वही की वही रही—वह संग्रहीत थी। जिस व्‍यक्‍ति पर यह प्रयोग किया गया उसे तो बड़ा विचित्र लगा क्‍योंकि वह उस प्रक्रिया का मालिक नहीं था। वह कुछ भी नहीं कर सकता था। जब इलेक्ट्रोड उस स्‍थान को छूता तो स्‍मृति शुरू हो जाती और उसे देखना पड़ता।तीन सौ बार दोहराने पर वह साक्षी

बन गया। स्‍मृति को तो वह देखता रहा, पर इस बात के प्रति वह जाग गया कि वह और उसकी स्‍मृति अलग-अलग है।

यह प्रयोग ध्‍यानियों के लिए बहुत सहयोगी हो सकता है। क्‍योंकि जब तुम्‍हें पता चलता है कि तुम्‍हारा मन और कुछ नहीं बस तुम्‍हारे चारों और एक यांत्रिक संग्रह है। तो तुम उससे अलग हो जाते हो।इस मन को बदला जा सकता है। अब तो वैज्ञानिक कहते है कि देर अबेर हम उन केंद्रों को काट डालेंगे जो तुम्‍हें विषाद ओर संताप देते है, क्‍योंकि बार-बार एक ही स्‍थान छुआ जाता है। और पूरी की पूरी प्रक्रिया को दोबारा जीना पड़ता है। कई व्यक्तियों के साथ प्रयोग किए है। वही बात दोहराओं और वे बार-बार उसी दुष्‍चक्र में गिरते जाते है। जब तक कि वे इस बात के साक्षी न हो जाएं कि यह एक यांत्रिक प्रक्रिया है।

15-तुम्‍हें इस बात का पता है कि यदि तुम अपने मित्र से हर सप्‍ताह वहीं-वहीं बात कहते हो तो वह क्‍या प्रतिक्रिया करेगा । सात दिन में जब वह भूल जाए तो फिर वही बात कहो: वहीं प्रतिक्रिया होगी।इसे रिकार्ड कर लो, प्रतिक्रिया हर बार वही होगी। तुम भी जानते हो, तुम्‍हारा मित्र भी जानता है। एक ढांचा निश्‍चित है। और वही चलता रहता है। एक कुत्‍ता भी भौंक कर तुम्‍हारी प्रक्रिया की शुरूआत कर सकता है। कहीं कुछ छू जाता है। इलेक्‍ट्रोड प्रवेश कर जाता है। तुमने एक यात्रा शुरू कर दी।

यदि तुम जीवन में खेलपूर्ण हो तो भीतर तुम किसी के साथ भी खेलपूर्ण हो सकते हो। फिर ऐसा समझो ..जैसे टेलीविजन के पर्दे पर तुम कुछ देख रहे हो। तुम उसमे सम्‍मिलित नहीं हो। बस एक द्रष्‍टा हो। एक दर्शक हो। तो देखो और उसका आनंद लो। न कहो अच्‍छा है, न कहो बुरा है, न निंदा करो, न प्रशंसा करो ,न उसके पीछे जाओ। न उस से लड़ो,यही नियम है। क्‍योंकि वे गंभीर बातें है।बस देखो और खेलपूर्ण रहो।यदि तुम अपने मन के साथ खेल सको तो वह शीध्र ही समाप्‍त हो जाएगा। क्‍योंकि मन केवल तभी हो सकता है। जब तुम गंभीर होओ। 'गंभीर' बीच की कड़ी है... सेतु है।‘हे गरिमामयी लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रक्‍त खोल है। जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।’

...SHIVOHAM...


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