कौन है आदि योगी शिव ?क्या अलौकिक रहस्य है भगवान शिव के पंचमुख,आठ रूप , अष्ट-भैरव और नटराज का ?
कौन है आदि योगी शिव और कैसे हुआ योग विज्ञान का संचार?-
09 FACTS;-
1-योगिक संस्कृति में शिव को आदि योगी माना जाता है। यह शिव ही थे जिन्होंने मानव मन में योग का बीज बोया।आदि योगी शिव ने ही इस संभावना को जन्म दिया कि मानव जाति अपने मौजूदा अस्तित्व की सीमाओं से भी आगे जा सकती है। संसारिकता में रहना है लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है। अपने शरीर और दिमाग को हर संभव इस्तेमाल करना है, लेकिन उसके कष्टों को भोगने की ज़रूरत नहीं है ;जीने का एक और भी तरीका है।
2-योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव विभोर कर देने वाला नत्य किया। वे कुछ देर परमानंद में पागलों की तरह नृत्य करते, फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो जाते। उनके इस अनोखे अनुभव के बारे में कोई कुछ नहीं जानता था।
3-आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और वे इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे उनके पास पहुंचने। लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा क्योंकि आदि योगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर थे। उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्द गिर्द क्या हो रहा है। उन लोगो ने वहीं कुछ देर इंतजार किया और फिर थक हारकर वापस लौट आए।
4-लेकिन उन लोगों में से सात (सप्तर्षि )लोग ऐसे थे, जो थोड़े हठी किस्म के थे। उन्होंने ठान लिया कि वे शिव से इस राज को जानकर ही रहेंगे। लेकिन शिव ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया।वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है, वे इस प्रकार है: वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक।पुराणों में भी सप्तर्षियों से संबंधित नामावली है - केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ठ तथा मारीचि।
5-अंत में उन्होंने शिव से प्रार्थना की उन्हें इस रहस्य के बारे में बताएँ। शिव ने उनकी बात नहीं मानी और कहने लगे, ’मूर्ख हो तुम लोग! अगर तुम अपनी इस स्थिति में लाखों साल भी गुज़ार दोगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाआगे। इसके लिए बहुत ज़्यादा तैयारी की आवश्यकता है। यह कोई मनोरंजन नहीं है।’
6-ये सात लोग भी कहां पीछे हटने वाले थे। शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और तैयारी शुरू कर दी। दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए और ये लोग तैयारियां करते रहे, लेकिन शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज ही करते जा रहे थे।
7-84 साल की लंबी साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण में चला गया। पूर्णिमा के इस दिन आदि योगी शिव ने इन सात तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने पक चुके हैं कि ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार थे। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।
8-शिव ने इन सातों को अगले 28 दिनों तक बेहद नजदीक से देखा और अगली पूर्णिमा पर सप्तऋषि मण्डल के सात ऋषियों का गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव ने स्वयं को आदि गुरु में रूपांतरित कर लिया।
9-तभी से इस दिन को गुरु पूर्णिमा कहा जाने लगा। केदारनाथ से थोड़ा ऊपर जाने पर एक झील है, जिसे कांति सरोवर कहते हैं। इस झील के किनारे शिव दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर बैठ गए और अपनी कृपा लोगों पर बरसानी शुरू कर दी। इस तरह योग विज्ञान का संचार होना शुरूहुआ।
भगवान शिव का पंचमुखी स्वरुप (Lord Shiva with Five Faces);-
07 FACTS;-
1-एक ही तत्व की तीन परम मूर्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) में अन्तिम मूर्ति का नाम ही शिव है, ब्रह्मा का कार्य सृष्टि, विष्णु का स्थिति (पालन) और शिव का कार्य संहार करना है, शिव परम तत्व है, और उनके कार्यों में संहार के अतिरिक्त सृष्टि और पालन के कार्य भी सम्मिलित है, शिव परम कारुणिक भी है, और उनमे अनुग्रह अथवा प्रसाद तथा तिरो भाव (गोपन और लोपन) की क्रिया भी पायी जाती है। 2-जब सृष्टि के आरंभ में कुछ नहीं था, तब प्रथम देव शिव ने ही सृष्टि की रचना के लिए पंच मुख धारण किए। त्रिनेत्रधारी शिव के पांच मुख से ही पांच तत्वों जल, वायु, अग्नि, आकाश, पृथ्वी की उत्पत्ति हुईं। इसलिए श्री शिव के ये पांच मुख पंचतत्व सृष्टि की उत्पत्ति का आधार माने गए हैं, इस प्रकार उनके कार्य पांच प्रकार के हैं। 3-शिव की विभिन्न अभिव्यक्तियां इन्ही कार्यों में से किसी न किसी से सम्बन्धित हैं, इनका उद्देश्य भक्तों का कल्याण करना है, शिव विभिन्न कलाओं और सिद्धियों के प्रवर्तक भी माने गये हैं, संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान, भैषज्य, आदि के मूल प्रवर्तक शिव ही हैं, इनकी कल्पना सब जीवधारियों के स्वामी के रूप में की गयी है, इसी लिये यह पशुपति, भूतपति, और भूतनाथ कहे गये है, इनमे माया की अनन्त शक्ति है, इसी लिये शिव मायापति भी है। 4-वेद व्यास द्वारा रचित महाशिव पुराण के शत रुद्र संहिता का उल्लेख करते हुए सूत मुनि ने भगवान शिव के मुख्य पांच स्वरूपों का वर्णन किया था। शैव आगम के अनुसार शिव सृष्टि को सुचारु रखने के लिए पांच तरह से कार्य करते हैं जिनमें सृष्टि, पालन,संहार, तिरोभाव और अनुग्रह (रचना, संरक्षण,पापों की सजा देना , विलयन, और दया करना)शामिल हैं। 5-भगवान शंकर को देवों का देव महादेव कहा जाता है. उस महाधिदेव को नमन जिनके शरीर के ऊपर की ओर गजमुक्ता के समान किंचित श्वेत – पीत वर्ण, पूर्व की ओर सुवर्ण के समान पीतवर्ण, दक्षिण की ओर सजल मेघ के समान सघन नीलवर्ण, पश्चिम की ओर स्फटिक के समान शुभ्र उज्जवल वर्ण तथा उत्तर की ओर जपापुष्प या प्रवाल के समान रक्तवर्ण के पांच मुख हैं. यही शिव का पंचमुखी स्वरुप है। 6-जिनके शरीर की प्रभा करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं के समान है और जिनके दस हाथों में क्रमशः त्रिशूल, टंक, तलवार वज्र, अग्नि, नाह्राज, घन्टा, अंकुश, पाश तथा अभयमुद्रा हैं। ऐसे भव्य, उज्ज्वल भगवान शिव ही भक्तों के ह्रदय में विराजते हैं।
7-भगवान शिव ब्रह्माजी से कहते हैं कि ''मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उसके विषय में बता रहा हूँ. सृष्टि, पालन,संहार, तिरोभाव और अनुग्रह – ये मेरे जगत-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्य सिद्ध हैं। संसार की रचनाका जो आरम्भ है, उसी को सर्ग या सृष्टी कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिररूप से रहना ही उसकी स्थिति है। उसका विनाश ही संहार है। प्राणों के उत्क्रमण को तिरोभाव कहते हैं इन सबसे छुटकारा मिल जाना मेरा अनुग्रह है।इस प्रकार मेरे पांच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं।पांचवां कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है. वह सदा मुझ में ही अचल भाव से स्थिर रहता है. मेरे भक्त जन इन पंचों कृत्यों को पंचभूतों में देखते हैं।'' पांच मुख, पांच तत्व और पांच कार्य का रहस्य;- 03 FACTS;- 1-शिव को पंचमुखी, दशभुजा युक्त माना है।शिव के पांच मुख जीवनदायी पंचतत्वों के प्रतीक हैं। पश्चिम मुख - पृथ्वी तत्व , उत्तर मुख- जलतत्व, दक्षिण मुख- तेजस (अग्नि) तत्व, पूर्व मुख- वायु तत्व, शिव के ऊध्र्वमुख का पूजन आकाश तत्व के रूप में किया जाता है।इन्हीं पांच तत्वों से संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण हुआ है। 2-सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है. पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है. जल से सबकी वृद्धि और जीवन-रक्षा होती है. आग सबको भस्म कर देती है. वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है.शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। 3-इन पंचों कृत्यों को वहन करने के लिये ही भगवान शिव के पांच मुख हैं. चार दिशाओं में चार मुख और इनके बीच में पांचवां मुख है.
भगवान शिव के पांच मुख;- 1-सद्योजात(पृथ्वीतत्व-पश्चिम मुख );-
03 POINTS;- 1-भगवान शंकर के पश्चिमी मुख को ‘ सद्योजात ‘ कहा जाता है, जो श्वेतवर्ण का है। सद्योजात पृथ्वी तत्व के अधिपति है और बालक के समान परम स्वच्छ, शुद्ध और निर्विकार है। सद्योजात ज्ञानमूर्ति बनकर अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करके विशुद्ध ज्ञान को प्रकाशित कर देते है। शिव के इस स्वरूप का संबंध इच्छा शक्ति से है।
2--अपने इस स्वरूप में शिव, दुखी और प्रसन्न, दोनों ही मुद्राओं में दिखाई देते हैं। शिव के इस स्वरूप में उनके भीतर के क्रोध और ज्वाला को बाहर निकालने की काबीलियत है। 3-सफेद रंग में शिव अपने भीतरी अहम और क्रोध की पुष्टि करते हैं। कहते हैं जब ब्रह्मा सृष्टि की रचना करने जा रहे थे तब शिव ने उन्हें अपना आशीर्वाद इसी रूप में प्रदान किया था। 2-वामदेव( जलतत्व);-
03 POINTS;- 1-उत्तरी मुख का नाम वामदेव है, जो कृष्णवर्ण का है। वामदेव जल तत्व के अधिपति है। वामदेव विकारों का नाश करने वाले है, अतएव इनके आश्रय में जाने पर पंचविकार काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह नष्ट हो जाते है। 2-वामदेव, जिसका संबंध संरक्षण से है ;अपने इस स्वरूप में शिव, कवि भी हैं, पालनकर्ता भी हैं और दयालु भी हैं। शिवलिंग के दाहिनी ओर पर मौजूद शिव का यह स्वरूप उत्तरी दिशा की ओर देखता है। 3-उनका यह स्वरूप, माया, शक्ति और सुंदरता के साथ जुड़ा है। बहुत से पौराणिक दस्तावेजों में यह बात उल्लिखित है कि वामदेव के भीतर दुखों और पीड़ाओं को दूर करने की भी ताकत है। 3-अघोर( अग्नितत्व);-
02 POINTS;- भगवान सदाशिव के दक्षिणी मुख को ‘अघोर’ कहा जाता है। यह नीलवर्ण ( नीले रंग का ) है। अघोर अग्नितत्व के अधिपति है। अघोर शिवजी की संहारकारी शक्ति हैं, जो भक्तों के संकटों को दूर करती है। 2-दक्षिण की ओर मुख करके शिव अपने तीसरे स्वरूप में ज्ञान शक्ति और बुद्धि को प्रदर्शित करते हैं। 4-तत्त्पुरुष(वायु तत्व);-
02 POINTS;- 1-पूर्वमुख का नाम ‘तत्पुरुष’ है, जिसका वर्ण पीत ( पीला ) है। तत्पुरुष वायुतत्व के अधिपति है। तत्पुरुष तपोमूर्ति हैं।
2-पूर्वी दिशा की ओर मुख कर के शिव परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिव का यह स्वरूप आनंद शक्ति या हर्ष को दर्शाने के साथ-साथ आत्मा की संरचना का प्रदर्शन करता है। 5-ईशान( आकाश तत्व);-
02 POINTS;- 1-भगवान शिव के ऊर्ध्वमुख का नाम ‘ईशान’ है, जिसका दुग्ध जैसा वर्ण है। ‘ईशान’ आकाश तत्व के अधिपति है। ईशान का अर्थ है सबके स्वामी। अपने इस स्वरूप में शिव ऊपर की ओर देख रहे हैं। ब्रह्माण्ड की चेतना को जाग्रत करते शिव अपने इस स्वरूप में आकाश की ओर देखते प्रतीत होते हैं।
2-शिव के इस स्वरूप का अर्थ सदा शिव है, जो ब्रह्माण्ड के हर छोटे से छोटे कण, हर ओर और हर कृति में समाहित है।आनंदमय कोश से संबंधित शिव विशुद्ध चक्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। अवतार और स्वरूप में अंतर;-
02 POINTS;- 1-शिव के ये सभी कार्य उनके अलग-अलग स्वरूपों से ताल्लुक रखते हैं। हालांकि इन सभी स्वरूपों से शिव का नाम, उनका कार्य और उनकी कृपा पूरी तरह एक-दूसरे से अलग है लेकिन अंत में वे शिव का ही अंग और उन्हीं का ही हिस्सा हैं। 2-सामान्य जन इन्हें शिव के अवतार और अलग व्यक्तित्व समझने की गलती कर बैठते हैं लेकिन यह मात्र उनके भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं, जिनका ज्योतिष की दुनिया में भी अपना एक अलग महत्व है। शिव-जगत में पांच का महत्व ;-
02 POINTS;- 1-पंचभूतों ( पंचतत्वों ) के अधिपति होने के कारण ये ‘भूतनाथ’ कहलाते है। शिव-जगत में पांच का और भी महत्व है। रुद्राक्ष सामान्यत: पांच मुख वाला ही होता है। शिव- परिवार में भी पांच सदस्य है- शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदीश्वर ।नन्दीश्वर को साक्षात् धर्म के रूप में जाना जाता है ।
2-शिवजी की उपासना पंचाक्षर मंत्र- ‘नम: शिवाय’ द्वारा की जाती है। शिव काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक होने के कारण ‘महाकाल’ भी कहलाते है। काल की गणना ‘पंचांग’ के द्वारा होती है। काल के पांच अंग- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण शिव के ही अवयव है। भगवान शिव के पंचों मुखों का अलौकिक रहस्य ;-
03 FACTS;- 1-भगवान शिव ब्रह्माजी से कहते हैं..''तुमने और विष्णु ने मेरी तपस्या करके मुझसे सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं. इस प्रकार मेरी विभूति रूप ने मुझसे संहार और तिरोभावरूपी कृत्य प्राप्त किये हैं. परन्तु मेरा अनुग्रह नामक कृत्य मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं प्राप्त कर सकता.'' 2-वे आगे कहते हैं कि ''रूद्र को मैंने अपनी समानता प्रदान की है. वे रूप, वेश, कृत्य, वाहन, आसन आदि में मेरे ही समान हैं. पूर्वकाल में मैंने अपने स्वरूप भूत मन्त्र का उपदेश किया था, जो ओंकार के नाम से प्रसिद्ध है. वह परम मंगलकारी मन्त्र है. सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध करानेवाला है. ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ. यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है. प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही स्मरण होता है. मेरे उत्तरपूर्वी मुख से अकारका, पश्चिम के मुख से उकारका, दक्षिण के मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से विन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद प्रकट हुआ है. इस प्रकार पांच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ. इन सभी अवयवों से युक्त होकर वह प्रणव ‘ऊँ ‘नामक एक अक्षर हो गया. यह सम्पूर्ण नाम-रूपात्मक जगत, वेद, स्त्री- पुरूष वर्ग, दोनों कुल इस प्रणव मन्त्र से व्याप्त हैं. यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है. वह अकारादि क्रम से और मकरादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया. इसी से पंचाक्षर मन्त्र की उत्पत्ति हुई. जो मेरे सकल स्वरूप का बोधक है.''
3-ब्रह्मा और विष्णु ने भगवान महेश्वर से कृतकृत्य होकर कहा – ‘'प्रभो आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं. आपको नमस्कार है. सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करनेवाले आपको नमस्कार है. '' इस प्रकार गुरू महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने भगवान पंचमुख
शिव के चरणों में प्रणाम किया.ओंकाररूप भगवान शिव के पंचमुखी रूप की आराधना करने से मनुष्य परमलोक को प्राप्त होते हैं और जन्म मरण से मुक्त हो जाते हैं. ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; भगवान शिव के आठ रूप;- इस विश्व में भगवान शिव आठ अलग-अलग रूपों में विराजमान हैं और वो भगवान शिव के रूप हैं- शर्व, रूद्र, उग्र, भीम, ईशान, पशुपति, भव और महादेव. भगवान शिव की इन आठ मूर्तियों में भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चंद्रमा समाहित है. 1 – शर्व;-
शर्व रूप में भगवान शिव पूरे जगत को धारण करते हैं और इसलिए शर्व रूप को पृथ्वीमयी मूर्ती से दिखाया जाता है. भगवान शिव का ये रूप भक्तों को सांसारिक दुखों से बचाकर रखता है.
2 – भव;-
भव रूप में शिव जल से युक्त होते हैं और वे जल के रुप में जगत को प्राणशक्ति प्रदान करते हैं. शिव को भव के रूप में पूरे संसार का पर्याय माना गया है.
3- रुद्र ;-
यह शिव की अत्यंत ओजस्वी मूर्ति है, जो पूरे जगत के अंदर-बाहर फैली समस्त ऊर्जा व गतिविधियों में स्थित है. इसके स्वामी रूद्र हैं. इसलिए यह रौद्री नाम से भी जानी जाती है. रुद्र नाम का अर्थ भयानक भी बताया गया है, जिसके जरिए शिव तामसी व दुष्ट प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखते .
4 – उग्र;-
वायु रूप में शिव को उग्र नाम से जाना जाता है. इस रुप में भगवान शिव संसार के सभी जीवों का पालन-पोषण करते हैं. शिवजी का तांडव नृत्य भी उग्र रूप में ही आता है.उग्र - वायु रूप में शिव जगत को गति देते हैं और पालन-पोषण भी करते हैं.शिव के तांडव नृत्य में भी यह शक्ति स्वरूप उजागर होता है.
5 – भीम;-
भीम रूप भगवान शिव की आकाशरूपी मूर्ती का नाम है जिसकी अराधना से तामसी गुणों का नाश होता है. भीम रूप में शिव के देह पर भस्म, जटाजूट, नागों की माला होती है और उन्हें बाघ की खाल पर विराजमान दिखाया जाता है.
6– ईशान
ईशान रूप में भगवान शिव की सूर्य रुपी मूरत दिखाई देती है. इस रूप में भगवान शिव को ज्ञान और प्रकाश देने वाला माना गया है.शिव की मूर्ति यह सूर्य रूप में आकाश में चलते हुए जगत को प्रकाशित करती है. शिव की यह दिव्य मूर्ति ईशान कहलाती है.
7 – पशुपति;-
जो समस्त क्षेत्रों का निवास स्थान है वह भगवान शिव का पशुपति रुप है. दुर्जन व्यक्तियों का नाश कर विश्व को उनसे मुक्त करने का भार भगवान के इस रूप पर है. इस रूप में प्रभु सभी जीवों के रक्षक बताए गए हैं.यह सभी आंखों में बसी होकर सभी आत्माओं का नियंत्रक है. यह पशु यानी दुर्जन वृत्तियों का नाश और उनसे मुक्त करने वाली होती है. इसलिए इसे पशुपति भी कहा जाता है. पशुपति नाम का मतलब पशुओं के स्वामी बताया गया है, जो जगत के जीवों की रक्षा व पालन करते हैं.
8 – महादेव
चंद्र रूप में भगवान शिव की मूरत को महादेव कहा गया है. महादेव नाम का अर्थ है देवों के देव, यानी सारे देवताओं में सबसे विलक्षण स्वरूप व शक्तियों के स्वामी भगवान शिव ही हैं.
चन्द्र किरणों को अमृत के समान माना गया है. इस मूर्ति का रूप अन्य से व्यापक है. महादेव नाम का अर्थ देवों के देव होता है. यानी सारे देवताओं में सबसे विलक्षण स्वरूप व शक्तियों के स्वामी शिव ही हैं.
NOTE;-
ये है भगवान शिव के रूप – गौरतलब है कि भगवान शिव ही इन अष्ट मूर्तियों के रुप में समस्त संसार के प्राणीयों में स्थित हैं. इसलिए संसार के किसी भी प्राणी को कष्ट पहुंचाना भगवान शिव को कष्ट पहुंचाने के समान है.
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05 FACTS;-
1-भैरवः पूर्णरूपो हि शंकरः परात्मनः।मूढ़ास्ते वै न जानन्ति मोहिता शिवमायया।‘शिव पुराण’ में भैरव को शिव का ही अवतार माना है. महाविद्या तब तक सिद्ध नहीं होती जब तक उनसे सम्बन्धित भैरव की सिद्धि न कर ली जाय।रुद्रयामल तंत्र’ के अनुसार दस महाविद्याएं और सम्बन्धित भैरव के नाम इस प्रकार हैं – 1. कालिका – महाकाल भैरव 2. त्रिपुर सुन्दरी – ललितेश्वर भैरव 3. तारा – अक्षभ्य भैरव 4. छिन्नमस्ता – विकराल भैरव 5. भुवनेश्वरी – महादेव भैरव 6. धूमावती – काल भैरव 7. कमला – नारायण भैरव 8. भैरवी – बटुक भैरव 9. मातंगी – मतंग भैरव 10. बगलामुखी – मृत्युंजय भैरव 2- भैरव शब्द चार अक्षरों के मेल से बना हैं; भा, ऐ, र और व; भा का अर्थ ‘प्रकाश’, ऐ क्रिया-शक्ति, रव विमर्श हैं। इस प्रकार जो अपनी क्रिया-शक्ति से मिल कर अपने स्वभाव से सम्पूर्ण जगत को विमर्श करता हैं वह भैरव हैं। जो समस्त विश्व को अपने ही समान तथा अभिन्न समझकर अपने भक्तों को सर्व प्रकार से भय मुक्त करते हैं वे भैरव कहलाते हैं।
3-भैरव! भगवान शिव के अनन्य सेवक के रूप में विख्यात हैं तथा स्वयं उनके ही प्रतिरूप माने जाते हैं। भगवान शिव के अन्य अनुचर जैसे भूत-प्रेत, पिशाच आदि के वे स्वामी या अधिपति हैं। इनकी उत्पत्ति भगवती महामाया की कृपा से हुई हैं परिणामस्वरूप वे स्वयं भी शिव तथा शक्ति के अनुसार ही शक्तिशाली तथा सामर्थ्य-वान हैं एवं भय-भाव स्वरूप में इनका अस्तित्व हैं।
4-मुख्यतः भैरव श्मशान के द्वारपाल तथा रक्षक होते हैं। तंत्र ग्रंथो तथा नाथ संप्रदाय के अनुसार, भैरव तथा भैरवी इस चराचर जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कारक हैं। भिन्न-भिन्न भैरवो की आराधना कर, अपनी अभिलाषित दिव्य वस्तुओं तथा शक्तिओं को प्राप्त करने की प्रथा आदि काल से ही हिन्दू धर्म में प्रचलित हैं, विशेषकर किसी प्रकार के भय-निवारण हेतु।
5-भैरव सामान्यतः घनघोर डरावने स्वरुप तथा उग्र स्वभाव वाले होते हैं, काले शारीरिक वर्ण एवं विशाल आकर के शरीर वाले, हाथ में भयानक दंड धारण किये हुए, काले कुत्ते की सवारी करते हुए दिखते हैं।
प्राचीन ग्रंथों में भैरव की उत्पत्ति ;-
09 FACTS;- 1-आदि शंकराचार्य ने 'प्रपञ्च-सार तंत्र' मंद अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं। तंत्र शास्त्र में भी इनका उल्लेख मिलता है। इसके अलावा सप्तविंशति रहस्य में 7 भैरवों के नाम हैं। इसी ग्रंथ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है। इसी में तीन बटुक-भैरवों का उल्लेख है। रुद्रायमल तंत्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है। 2-हालांकि प्रमुख रूप से काल भैरव और बटुब भैरव की साधना ही प्रचलन में है। इनका ही ज्यादा महत्व माना गया है। आगम रहस्य में दस बटुकों का विवरण है। भैरव का सबसे सौम्य रूप बटुक भैरव और उग्र रूप है काल भैरव। 3-'महा-काल-भैरव' मृत्यु के देवता हैं। 'स्वर्णाकर्षण-भैरव' को धन-धान्य और संपत्ति का अधिष्ठाता माना जाता है, तो 'बाल-भैरव' की आराधना बालक के रूप में की जाती है। सद्-गृहस्थ प्रायः बटुक भैरव की उपासना ही करते हैं, जबकि श्मशान साधक काल-भैरव की। 4-भैरव शब्द का विग्रह करके समझा जाय तो 'भ' अर्थात विश्व का भरण करने वाला, 'र' अर्थात विश्व में रमण करने वाला और 'व' अर्थात वमन यानी कि सृष्टि का पालन पोषण करने वाला। इन दायित्वों का निर्वहन करने के कारण इनका नाम भैरव हुआ। ‘5-शिवपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह में भगवान शंकर के अंश से भैरव की उत्पत्ति हुई थी, अतः इस तिथि को काल-भैरवाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है।ऐसा कहा गया है कि भगवान शंकर ने इसी अष्टमी को ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट किया था, इसलिए यह दिन भैरव अष्टमी व्रत के रूप में मनाया जाने लगा। 6- पौराणिक आख्यानोंके अनुसार शिव के अपमान-स्वरूप भैरव की उत्पत्ति हुई थी। यह सृष्टि के प्रारंभकाल की बात है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भगवान शंकर की वेशभूषा और उनके गणों की रूपसज्जा देख कर शिव को तिरस्कारयुक्त वचन कहे। अपने इस अपमान पर स्वयं शिव ने तो कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु उनके शरीर से उसी समय क्रोध से कम्पायमान और विशाल दण्डधारी एक प्रचण्डकाय काया प्रकट हुई और वह ब्रह्मा का संहार करने के लिये आगे बढ़ आयी। 7-स्रष्टा तो यह देख कर भय से चीख पड़े। शंकर द्वारा मध्यस्थता करने पर ही वह काया शांत हो सकी। रूद्र के शरीर से उत्पन्न उसी काया को महाभैरव का नाम मिला। बाद में शिव ने उसे अपनी पुरी, काशी का नगरपाल नियुक्त कर दिया। 8-भैरव अष्टमी 'काल' का स्मरण कराती है, इसलिए मृत्यु के भय के निवारण हेतु बहुत से लोग कालभैरव की उपासना करते हैं। ऐसा भी कहा जाता है की ,ब्रह्मा जी के पांच मुख हुआ करते थे तथा ब्रह्मा जी पांचवे वेद की भी रचना करने जा रहे थे,सभी देवो के कहने पर महाकाल भगवान शिव ने जब ब्रह्मा जी से वार्तालाप की परन्तु ना समझने पर महाकाल से उग्र,प्रचंड रूप भैरव प्रकट हुए और उन्होंने नाख़ून के प्रहार से ब्रह्मा जी की का पांचवा मुख काट दिया, इस पर भैरव को ब्रह्मा हत्या का पाप भी लगा, और भगवान शिव ने भैरव से सभी तीर्थ स्थानों पर जाने के लिए कहा ताकि उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिल सके। 9-इसके बाद भैरव काशी तीर्थ आए। काशी में इनके हाथ से जहां वह कपाल विमुक्त हुआ वह तीर्थ कपाल मोचन के नाम से जगतख्यात हुआ। काशी के तीर्थों में कपालमोचन एक पुरातन तीर्थ है, जिसके दर्शन से भैरव कथा की वह घटना जीवंत हो जाती है।काशी तीर्थ में काल भैरव की इतनी प्रसिद्धि है कि क्या हिंदू, क्या मुसलमान, क्या सिख, क्या ईसाई, क्या देशी, क्या विदेशी सब के सब बाबा के श्री चरणों में अपना सिर जरूर ही नवाते हैं और बाबा हरेक नतमस्तक का कल्याण अवश्य करते हैं।
भैरव उपासना की शाखाएं;- कालान्तर में भैरव-उपासना की दो शाखाएं- बटुक भैरव तथा काल भैरव के रूप में प्रसिद्ध हुईं। जहां बटुक भैरव अपने भक्तों को अभय देने वाले सौम्य स्वरूप में विख्यात हैं वहीं काल भैरव आपराधिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करने वाले प्रचण्ड दंडनायक के रूप में प्रसिद्ध हुए।भगवान् काल भैरव शिव, महारुद्र जी के 10 वे अवतार है और 11 वे रूद्र, हनुमानजी हैं और ये दोनों ही, कलयुग में प्रत्यक्ष तथा साक्षात्कार, संजीव देवता हैं और यह सहज और सरलता से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तंत्रशास्त्र में अष्ट-भैरव का उल्लेख है – 1-असितांग-भैरव, 2-रुद्र-भैरव, 3-चंद्र-भैरव, 4-क्रोध-भैरव, 5-उन्मत्त-भैरव, 6-कपाली-भैरव, 7-भीषण-भैरव 8-संहार-भैरव
भैरव बाबा के 7 चमत्कारी मंत्र :-
ऐसा माना जाता है भैरव को प्रसन्न करना बहुत आसान है, वह अपने भक्तों की आराधना से बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाते हैं। नारियल, काले तिल, फूल, सिंदूर सरसो का तेल भैरव पर अर्पण करना शुभ माना जाता है। काल भैरव की 8 परिक्रमा करने वाला व्यक्ति अपने जीवन में किए गए सभी पापों से मुक्त हो जाता है। इसके अलावा जो व्यक्ति लगातार 6 महीने तक काल भैरव की उपासना करता है वह विभिन्न सिद्धियों का स्वामी बन जाता है।मार्गशीर्ष माह की अष्टमी पर काल भैरव की उपासना फलदायी मानी जाती है, इसके अलावा रविवार, मंगलवार, अष्टमी और चतुर्दशी को भी भैरव की आराधना करने का प्रावधान है। 1-ॐ श्री बम् बटुक भैरवाय नमः “
2-ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं
3-ॐ क्रीं क्रीं कालभैरवाय फट
4-ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम:
5-ॐ काल भैरवाय नमः
6-ॐ श्री भैरवाय नमः
7-अतिक्रूर महाकाय कल्पान्त दहनोपम्, भैरव नमस्तुभ्यं अनुज्ञा दातुमर्हसि
इस मंत्र को रोज ग्यारह बार जपने से उसका अभीष्ट जरूर मिलता है। 8-ॐ भयहरणं च भैरव: ||
ये मंत्र समस्त प्रकार की बाधाओं के संहार में सहायक अति तीव्र भैरव मन्त्र है
9-ऊं ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरूकुरू बटुकाय ह्रीं। शत्रु बाधा निवारण हेतु ये मंत्र बहुत कारगर है
10-ॐ भ्रां कालभैरवाय फट्
साधना विधि;-
काले रंग का वस्त्र पहनकर तथा काले रंग का ही आसन बिछाकर, दक्षिण दिशा की और मुंह करके बैठे तथा उपरोक्त मन्त्र की 108 माला रात्रि को करें।
लाभ – इस साधना से भय का विनाश होता है। ध्यान के बाद इस मंत्र का जप करने का विधान है।
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नटराज का क्या अर्थ है?-
09 FACTS;- 1-नटराज, भगवान शिव का ही रूप है, जब शिव तांडव करते हैं तो उनका यह रूप नटराज कहलता है। नटराज शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। 'नट' और 'राज', नट का अर्थ है 'कला' और राज का अर्थ है 'राजा'। भगवान शंकर का नटराज रूप इस बात का सूचक है कि 'अज्ञानता को सिर्फ ज्ञान, संगीत और नृत्य से ही दूर किया जा सकता है।
2-नटराज शिव का स्वरूप न सिर्फ उनके संपूर्ण काल एवं स्थान को ही दर्शाता है; अपितु यह भी बिना किसी संशय स्थापित करता है कि ब्रह्माण्ड में स्थित सारा जीवन, उनकी गति कंपन तथा ब्रह्माण्ड से परे शून्य की नि:शब्दता सभी कुछ एक शिव में ही निहित है। इस स्वरूप में शिव कलाओं के आधार हैं। 3-डमरू से हमारी वर्णमाला प्रकट होती है। 4-चारों वाणी (परा, पश्यंती, मध्यमा, वैखरी) तथा 84 लाख योनियों के सर्जक शिव हैं। 5-शिव के दूसरे हाथ में स्थित अग्नि मलिनता दूर करती है। 6-तीसरा हाथ 'अभय मुद्रा' दर्शाती है। ऊपर उठा हाथ कहता है - ' मुक्ति की कामना हो तो माया मोह से दूर होकर ऊंचा उठो। 7-'प्रभामंडल' प्रकृति का प्रतीक है। 8-नटराज का यह नृत्य विश्व की पांच महान् क्रियाओं का निर्देशक है - सृष्टि, स्थिति, प्रलय, तिरोभाव (अदृश्य, अंतर्हित) और अनुग्रह। 9-नटराज की मूर्ति में धर्म, शास्त्र और कला का अनूठा संगम है।
एक आदर्श शिव मंदिर की संरचना का प्रतीकवाद क्या है?-
चिदंबरम मंदिर के गोपुर में तांडव के 108 रूप अंकित किए गये हैं।इस मंदिर की एक अनूठी विशेषता आभूषणों से युक्त नटराज की छवि है। यह भगवान शिव को भरतनाट्यम नृत्य के देवता के रूप में प्रस्तुत करती है और यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जहां शिव को प्राचीन लिंगम के स्थान पर मानवरूपी मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। देवता नटराज का ब्रह्मांडीय नृत्य भगवन शिव द्वारा अनवरत ब्रहाण्डन्रह्मांड की गति का प्रतीक है। मंदिर में पांच आंगन हैं।चित्त और अम्बरम की व्याख्या;-
06 FACTS;-
1-आगम नियमों के अनुसार एक आदर्श शिव मंदिर में पांच प्रकार या परिक्रमा स्थल होंगे और उनमे से प्रत्येक एक के अन्दर एक दीवार के द्वारा विभाजित होंगे। आतंरिक परिक्रमा पथों को छोड़कर अन्य बाहरी परिक्रमा पथ खुले आकाश के नीचे होंगे। सबसे अन्दर वाले परिक्रमा पथ में प्रधान देवता और अन्य देवता विराजमान होंगे। प्रधान देवता की ठीक सीध में एक काष्ठ का या पत्थर का विशाल ध्वजा स्तम्भ होगा।सबसे अन्दर के परिक्रमा पथ में पवित्र गर्भ गृह स्थित होगा। इसमें परम प्रभु, शिव विराजमान होंगे।
2-एक शिव मंदिर की संरचना के पीछे प्रतीकवाद मंदिर इस प्रकार निर्मित है कि यह अपनी समस्त जटिलताओं सहित मानव शरीर से मिलता है।एक दूसरे को परिवेष्टित कराती हुई पांच दीवारें मानव अस्तित्व के कोष (आवरण) हैं।
3-सबसे बाहरी दीवार अन्नामय कोष है, जो भौतिक शरीर का प्रतीक है।दूसरा प्राणमय कोष है, जो जैविक शक्ति या प्राण के आवरण का प्रतीक है।तीसरा मनोमय कोष है, जो विचारों, मन के आवरण का प्रतीक है।चौथा विग्नयाना मया कोष है, जो बुद्धि के आवरण का प्रतीक है।सबसे भीतरी और पांचवां आनंद माया कोष है, जो आनंद के आवरण का प्रतीक है।
4-गर्भगृह जो परिक्रमा पथ में है और आनंद माया कोष आवरण का प्रतीक है, उसमे देवता विराजते हैं जो हमारे अन्दर जीव रूप में विद्यमान हैं। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि गर्भगृह एक प्रकाशरहित स्थान होता है, जैसे वह हमारे ह्रदय के अन्दर स्थित हो जो प्रत्येक दिशा से बाद होता है।
5-प्रवेश देने वाले गोपुरों की तुलना एक व्यक्ति जो अपने पैर के अंगूठे को ऊपर उठाकर अपनी पीठ के बल पर लेटा हो, से करके उन्हें चरणों की उपमा दी गयी है।ध्वजा स्तंभ सुषुम्न नाड़ी का प्रतीक है जो मूलाधार (रीड़ की हड्डियो का आधार) से उठती है और सहस्रर (मस्तिष्क की शिखा) तक जाती है।
6-कुछ मंदिरों में तीन परिक्रमा पथ होते हैं। यहां यह एक मनुष्य के स्थूल, सूक्ष्मांद कर्ण शरीर (शरीरों) को प्रस्तुत करते हैं, कुछ मंदिरों में सिर्फ एक ही परिक्रमा पथ होता है यह पांचों को ही प्रस्तुत करता है। 'संगीत के जनक' भगवान शिव;- 10 FACTS;- 1-संगीत प्रकृति के हर कण में मौजूद है। भगवान शिव को 'संगीत का जनक' माना जाता है। शिवमहापुराण के अनुसार शिव के पहले संगीत के बारे में किसी को भी जानकारी नहीं थी। नृत्य, वाद्य यंत्रों को बजाना और गाना उस समय कोई नहीं जानता था, क्योंकि शिव ही इस ब्रह्मांड में सर्वप्रथम आए हैं? 2-पुराणों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जब शिव प्रकट हुए तो उनके साथ 'सत', 'रज' और 'तम' ये तीनों गुण भी जन्मे थे। यही तीनों गुण शिव के 'तीन शूल' यानी 'त्रिशूल' कहलाए। 3-भगवान भोलेनाथ दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं। पहला जब वो गुस्सा होते हैं, तब बिना डमरू के तांडव नृत्य करते हैं। लेकिन दूसरे तांडव नृत्य करते समय जब, वह डमरू भी बजाते हैं तो प्रकृति में आनंद की बारिश होती थी। ऐसे समय में शिव परम आनंद से पूर्ण रहते हैं। लेकिन जब वो शांत समाधि में होते हैं तो नाद करते हैं। 4-नाद और भगवान शिव का अटूट संबंध है। दरअसल नाद एक ऐसी ध्वनि है जिसे 'ऊं' कहा जाता है। पौराणिक मत है कि 'ऊं' से ही भगवान शिव का जन्म हुआ है। संगीत के सात स्वर तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनके केंद्रीय स्वर नाद में ही हैं। नाद से ही 'ध्वनि' और ध्वनि से ही 'वाणी की उत्पत्ति' हुई है। शिव का डमरू 'नाद-साधना' का प्रतीक माना गया है। 5-भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र का पहला अध्याय लिखने के बाद अपने शिष्यों को तांडव का प्रशिक्षण दिया था। उनके शिष्यों में गंधर्व और अप्सराएं थीं। नाट्यवेद के आधार पर प्रस्तुतियां भगवान शिव के समक्ष प्रस्तुत की जाती थीं। 6-भरत मुनि के दिए ज्ञान और प्रशिक्षण के कारण उनके नर्तक तांडव भेद अच्छी तरह जानते थे और उसी तरीके से अपनी नृत्य शैली परिवर्तित कर लेते थे। पार्वती ने यही नृत्य बाणासुर की पुत्री को सिखाया था। धीरे-धीरे ये नृत्य युगों- युगान्तरों से वर्तमान काल में भी जीवंत है। शिव का यह तांडव नटराज रूप का प्रतीक है। 7-नाट्य शास्त्र में उल्लेखित संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान आदि के प्रवर्तक शिव ही हैं। शिवमहापुराण भी 29 उप-पुराणों में से एक है। इसमें 24,000 श्लोक हैं। जिनमें शिव का संगीत के प्रति स्नेह के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। 8-वर्तमान में शास्त्रीय नृत्य से संबंधित जिनती भी विद्याएं प्रचलित हैं। वह तांडव नृत्य की ही देन हैं। तांडव नृत्य की तीव्र प्रतिक्रिया है। वहीं लास्य सौम्य है। लास्य शैली में वर्तमान में भरतनाट्यम, कुचिपुडी, ओडिसी और कत्थक नृत्य किए जाते हैं यह लास्य शैली से प्रेरित हैं। जबकि कथकली तांडव नृत्य से प्रेरित है।
9-अज्ञानी व्यक्ति का कद समाज में हमेशा बौना माना जाता है। अज्ञान को दूर कर ज्ञान प्राप्त करने पर जो खुशी मिलती है उन्हीं भावों को शिव के इस स्वरूप में देखा जा सकता है। भगवान शिव की यह नृत्य भंगिमा आनंदम तांडवम के रूप में चर्चित है।इसी मुद्रा में उनके बायें हाथ में अग्नि भी दिखाई देती है जो कि विनाश की प्रकृति है शिव को विनाशक माना जाता है। अपनी इस अग्नि से शिव सृष्टि में मौजूद नकारात्मक सृजन को नष्ट कर ब्रह्मा जी को पुनर्निमाण के लिये आमंत्रित करते हैं।
10-नृत्य की इस मुद्रा में शिव का एक पैर उठा हुआ है जो कि स्वतंत्र रूप से हमें आगे बढ़ने का संकेत करता है। उनकी इस मुद्रा में एक लय, एक गति भी नजर आती है जिसका तात्पर्य है परिवर्तन या जीवन में गतिशीलता। शिव का यह आनंदित स्वरूप बहुत व्यापक है। जितना अधिक यह विस्तृत है उतना ही अनुकरणीय भी है।
क्या है शिव के नटराज स्वरूपआनंदम तांडवम की प्रतीक कथा?;-
10 FACTS;-
1-सनातन धर्म के त्रिदेवों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली माने जाने वाले भगवान शिव के विविध स्वरूप और लीलाएं हमेशा ही जिज्ञासा का विषय रही हैं। ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार शिव के अर्ध नारीश्वर और हरिहर स्वरूप गुप्त युगीन भारत तक अपनी महत्ता स्थापित कर चुके थे।
2-हरिहर स्वरूप के बारे में ये कहा जाता है कि इसका प्रवर्तन शैव और वैष्णव धर्मों के बीच जारी भारी रक्तपात के समापन के लिए हुआ था। जबकि अर्धनारीश्वर का प्रवर्तन नर-नारी को एक-दूसरे के पूरक के रूप में दिखाने के लिए हुआ। इसी तरह शिव के नटराज स्वरूप की उत्पत्ति विषयक धारणा “आनंदम तांडवम” से जुड़ी है।
3- नटराज का शाब्दिक अर्थ है नृत्य करने वालों का सम्राट यानि समस्त संसार के सभी नृत्यरत प्राणियों का नेतृत्वकर्ता। एक और अर्थ में इस चराचर जगत की जो भी सर्जना और विनाश है, उसके निर्देशक की भूमिका है नटराज की।नटराज का आविर्भाव शिव के उस स्वरूप को महिमामयी बनाने के लिए हुआ, जिसका अर्थ बहुआयामी और बहुपक्षीय है। नटराज के स्वरूप में शामिल प्रतीक चिन्ह भी अपने आप में बेहद खास अर्थों को समाहित किए हुए हैं।
4-नटराज – सृष्टि के पहले नर्तक भगवान शिव शंकर ने त्रिपुर नामक असुर का वध किया तो उसके बाद वे खुशी से झूमने लगे। नृत्य की शुरुआत में उन्होंने अपनी भुजाएं नहीं खोली क्योंकि वे जानते थे कि उससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ जायेगा और सृष्टि का विनाश होने लगेगा। लेकिन भगवान शिव कुछ समय पश्चात नृत्य में इतने मगन हो जाते हैं कि उन्हें किसी तरह कि सुध नहीं रहती और खुल कर नृत्य करने लगते हैं जिसके साथ-साथ सृष्टि भी डगमगाने लगती है।
5-तब उस समय संसार की रक्षा के लिये देवी पार्वती भी प्रेम और आनंद में भरकर लास्य नृत्य आरंभ करती हैं जिससे सृष्टि में संतुलन होने लगता है व भगवान शिव भी शांत होने लगते हैं। भगवान शिव को सृष्टि के प्रथम नर्तक के रूप में भी जाना जाता है। नटराज स्वरूप और उसके प्रतीक चिन्हअपने नटराज स्वरूप में भगवान शिव एक बौने राक्षस पर तांडव नृत्य करते हुए लगते हैं। यहां शारीरिक दिव्यांगता को बौनापन नहीं माना बल्कि बौना अज्ञान का प्रतीक है।
6-शिव के तांडव के दो स्वरूप हैं। पहला उनके क्रोध का परिचायक, प्रलयकारी रौद्र तांडव तथा दूसरा आनंद प्रदान करने वाला आनंद तांडव। पर ज्यादातर लोग तांडव शब्द को शिव के क्रोध का पर्याय ही मानते हैं। रौद्र तांडव करने वाले शिव रुद्र कहे जाते हैं, आनंद तांडव करने वाले शिव नटराज। प्राचीन आचार्यों के मतानुसार शिव के आनन्द तांडव से ही सृष्टि अस्तित्व में आती है तथा उनके रौद्र तांडव में सृष्टि का विलय हो जाता है। शिव का नटराज स्वरूप भी उनके अन्य स्वरूपों की ही भांति मनमोहक तथा उसकी अनेक व्याख्याएँ हैं।
7-नटराज शिव की प्रसिद्ध प्राचीन मूर्ति के चार भुजाएँ हैं, उनके चारों ओर अग्नि के घेरें हैं। उनका एक पाँव से उन्होंने एक बौने(अकश्मा) को दबा रखा है, एवं दूसरा पाँव नृत्य मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। उन्होंने अपने पहले दाहिने हाथ में (जो कि ऊपर की ओर उठा हुआ है) डमरु पकड़ा हुआ है। डमरू की आवाज सृजन का प्रतीक है। इस प्रकार यहाँ शिव की सृजनात्मक शक्ति का द्योतक है।
8-ऊपर की ओर उठे हुए उनके दूसरे हाथ में अग्नि है। यहाँ अग्नि विनाश का प्रतीक है। इसका अर्थ यह है कि शिव ही एक हाथ से सृजन करतें हैं तथा दूसरे हाथ से विलय। उनका दूसरा दाहिना हाथ अभय (या आशीष) मुद्रा में उठा हुआ है जो कि हमें बुराईयों से रक्षा करता है।उठा हुआ पांव मोक्ष का द्योतक है। उनका दूसरा बाया हाथ उनके उठे हुए पांव की ओर इंगित करता है।जिसका अर्थ स्वतंत्रता और उठान से है। यानि शिव अपने इस स्वरूप द्वारा सार्वभौमिक स्वतंत्रता का उद्घोष करते हैं, जो मनुष्यता के सर्वाधिक गरिमामयी स्थिति का उद्घोषक है। इसका अर्थ यह है कि शिव मोक्ष के मार्ग का सुझाव करते हैं ;शिव के चरणों में ही मोक्ष है।
9-उनके पांव के नीचे कुचला हुआ बौना दानव अज्ञान का प्रतीक है जो कि शिव द्वारा नष्ट किया जाता है। शिव अज्ञान का विनाश करते हैं। चारों ओर उठ रही आग की लपटें इस ब्रह्माण्ड की प्रतीक हैं। उनके शरीर पर से लहराते सर्प कुण्डलिनी शक्ति के द्योतक हैं। उनकी संपूर्ण आकृति ॐ कार स्वरूप जैसी दिखती है। यह इस बाद को इंगित करता है कि ॐ शिव में ही निहित है।वह ताण्डव नृत्य करते है जिससे विश्व का संहार होता है।
10-नटराज की लयबद्ध नृत्यरत स्थिति स्वयं में ब्रहाण्ड की लयबद्धता की उद्घोषणा करती है। अपनी इस स्थिति के द्वारा नटराज ये सिद्ध करते हैं बिना गति के कोई भी जीवन नहीं और जीवन के लिए लयबद्धता अनिवार्य है।आनंदम तांडवम की अवस्था संपूर्ण ब्रहाण्ड
के आनंदित होकर नृत्य करने की अवस्था है, जहां पर अज्ञानता व अहंकार का विनाश तथा पंचमहाभूतों सहित समस्त जैव-अजैव का एकीकरण होता है। यानि शिव के इस विशेष स्वरूप का अर्थ जितना व्यापक है, उतना ही ग्रहणीय भी है।
...SHIVOHAM..