नवरात्र में शक्ति साधना व कृपा प्राप्ति की सरल पाठ विधि क्या है?
नवरात्र का महत्व;-
15 FACTS;- 1-एक वर्ष में चार प्रकार के नवरात्र होते हैं। इनमें से आषाढ़ और माघ की प्रतिपदा से शुरू होने वाले नवरात्र गुप्त होते हैं। इसमें देवी अपनी शक्तियों का अर्जन करती हैं। इस दौरान देवी साधक गुप्त रूप से देवी की उपासना कर अभीष्ट मंत्र सिद्धि करते हैं। चैत्र और आश्विन मास के नवरात्र खुले नवरात्र होते हैं। इसमें साधकों के साथ ही देवी भक्त भी देवी की उपासना करते हैं। 2-‘नव’ के दो अर्थ हैं– ‘ नया ‘ एवं ‘ नौ’. रात्रि का अर्थ है रात, जो हमें आराम और शांति देती है। यह नौ दिन समय है स्वयं के स्वरूप को पहचानने का और अपने स्रोत की ओर वापस जाने का। इस परिवर्तन के काल में प्रकृति पुराने को त्यागकर फिर से वसंत काल में नया रूप सृजन करती है। 3-नवरात्र शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- नव और रात्र। नव का अर्थ है नौ और रात्र शब्द में पुनः दो शब्द निहित हैं: रा+त्रि। रा का अर्थ है रात और त्रि का अर्थ है जीवन के तीन पहलू- शरीर, मन और आत्मा। 4-इंसान को तीन तरह की समस्याएं घेर सकती हैं- भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक। इन समस्याओं से जो छुटकारा दिलाती है वह रात्रि है। रात्रि या रात आपको दुख से मुक्ति दिलाकर आपके जीवन में सुख लाती है। इंसान कैसी भी परिस्थिति में हो, रात में सबको आराम मिलता है। रात की गोद में सब अपने सुख-दुख किनारे रखकर सो जाते हैं। 5-चूंकि यहां रात गिनते हैं इसलिए इसे नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है और, इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है। 6-इन मुख्य इन्द्रियों में अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन, नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं। 7-जैसे एक नवजात जन्म लेने से पहले अपनी मां के गर्भ में नौ महीने व्यतीत करता है उसी तरह एक साधक भी इन नौ दिनों और रातों मे उपवास, प्रार्थना, मौन और ध्यान के द्वारा अपने सच्चे स्रोत की ओर वापस आता है। 8-नवरात्रि के इन नौ दिनों के दौरान मन को दिव्य चेतना मे लिप्त रखना चाहिए। अपने अन्दर ये जिज्ञासा जगाइये, ” मेरा जन्म कैसे हुआ? मेरा स्रोत क्या है ? “तब हम सृजनात्मक और विजयी बनते हैं। 9-नवरात्रि के नौ दिनों मे तीन-तीन दिन तीन गुणों के अनुरूप है- तमस, रजस और सत्व। हमारा जीवन इन तीन गुणों पर ही चलता है फिर भी हम इसके बारे में सजग नहीं रहते और इस पर विचार भी नहीं करते। हमारी चेतना, तमस और रजस के बीच बहते हुए अंत के तीन दिनों में सत्व गुण में प्रस्फुटित होती है। 10-इन आदि तीन -गुणों को इस दैदीप्यमान ब्रह्माण्ड की नारी शक्ति माना गया है। नवरात्री के दौरान मातृ रुपी दिव्यता की आराधना से हम तीनों गुणों को संतुलित करके वातावरण मैं सत्व की वृद्धि करते हैं। जब सत्व गुण बढ़ता है तब विजय की प्राप्ति होती है।नवरात्रि के अंत पर हम विजयदशमी का उत्सव मनाते है। यह दिन जागी हुई दिव्य चेतना में परिणित होने का है। 11-नवरात्रि के नौ दिनों में यज्ञ और हवन का सिलसिला चलता रहता है। ये यज्ञ संसार में दुख और दर्द के हर तरह के प्रभाव को दूर कर देते हैं। नवरात्रि के हर दिन का अपना महत्व और प्रभाव है और उस दिन के अनुरूप ही यज्ञ और हवन किए जाते हैं। जीवन में हमेंअच्छे और बुरे दोनों तरह के गुण प्रभावित करते हैं। 12-नौ दिन तक चलने वाले पर्व नवरात्रि के तीन-तीन दिन तीन देवियों को समर्पित होते हैं। ये तीन देवियां हैं- मां दुर्गा (शौर्य की देवी), मां लक्ष्मी (धन की देवी) और मां सरस्वती (ज्ञान की देवी)। 13-नवरात्र हमें यह सिखाते हैं कि किस तरह इंसान अपने अंदर की मूलभूत अच्छाइयों से नकारात्मकता पर विजय प्राप्त कर सकता है और स्वयम् केअलौकिक स्वरूप से साक्षात्कार कर सकता है। जिस तरह मां के गर्भ में नौ महीने पलने के बाद ही एक जीव का निर्माण होता है ठीक वैसे ही ये नौ दिन हमें अपने मूल रूप, अपनी जड़ों तक वापस ले जाने में अहम भूमिका अदा करते हैं। इन नौ दिनों का ध्यान, सत्संग, शांति और ज्ञान प्राप्ति के लिए उपयोग करना चाहिए।
14-देवी आगमन ( उदयाव्यापनी प्रतिपदा पर);-
नवरात्र कि प्रतिपदा रविवार और सोमवार को आगमन हो तो वाहन (हाथी) है जो जल की वृष्टि कराने वाला है , शनिवार और मंगलवार को आगमन होता है तो (घोड़ा) वाहन है जो राजा और सरकार को पद से हटना पड़ सकता है , गुरूवार और शुक्रवार को आगमन हो तो दोला ( डोली ) पर आगमन होता है जो जन हानि , रक्तपात होना बताता है , बुधवार को आगमन हो तो देवी नौका ( नाव ) पर आती है तब भक्तो को सभी प्रकार की सिद्धि देती है।
15-देवी गमन (प्रस्थान ) वाहन उदयाव्यापनी विजयादशमी पर ;-
विजयादशमी यदि रविवार और सोमवार को हो तो माँ दुर्गा देवी का प्रस्थान महिष ( भैसाँ) पर होता है , जो शोक देता है , यदि शनिवार और मंगलवार को विजया दशमी हो तो (मुर्गा) के वाहन पर जाती है तब जनता विकल तबाही का अनुभव करती है , यदि बुध और शुक्रवार को गमन करे तो (हाथी) पर जाती है माँ तब शुभ वृष्टि देती है , गुरूवार को विजयादशमी हो तो मनुष्य की सवारी होता है जो सुख शान्ति मिलती है। नवरात्र में धर्म अर्थ काम और मोक्ष प्राप्ति के साधन;- 03 FACTS;- 1-नवरात्र में शक्ति साधना व कृपा प्राप्ति का सरल उपाय दुर्गा सप्तशती का पाठ है।दुर्गा सप्तशती महर्षि वेदव्यास रचित मार्कण्डेय पुराण के सावर्णि मन्वतर के देवी महात्म्य के 700 श्लोक का एक भाग है। दुर्गा सप्तशती में अध्याय एक से तेरह तक तीन चरित्र विभाग हैं। इसमें 700 श्लोक हैं। 2-दुर्गा सप्तशती के छह अंग तेरह अध्याय को छोड़कर हैं। कवच, कीलक, अर्गला दुर्गा सप्तशती के प्रथम तीन अंग और प्रधानिक आदि तीन रहस्य हैं। दुर्गा-सप्तशती को दुर्गा-पाठ, चंडी-पाठ से भी संबोधित करते हैं।दुर्गा- सप्तशती के पाठ के कई विधि विधान है।इस संदर्भ में विद्वानों में मतांतर है। 3-श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ मनोरथ सिद्धि के लिए किया जाता है; क्योंकि श्री दुर्गा सप्तशती दैत्यों के संहार की शौर्य गाथा से अधिक कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी हैं। यह श्री मार्कण्डेय पुराण का अंश है। यह देवी महात्म्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम है। सप्तशती में कुछ ऐसे भी स्तोत्र एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत पारायण से इच्छित मनोकामना की पूर्ति होती है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; सिद्ध कुंजिका स्तोत्र की महिमा(एक पाठ से संपूर्ण दुर्गा सप्तशती जैसा फल);- 07 FACTS;- 1-श्री दुर्गा सप्तशती में से एक ऐसा पाठ हैं, जिसके करने से आपकी सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। इस पाठ को करने के बाद आपको किसी अन्य पाठ की आवश्यकता नहीं होगी।यह पाठ है..सिद्धकुंजिकास्तोत्रम्। 2-समस्त बाधाओं को शांत करने, शत्रु दमन, ऋण मुक्ति, करियर, विद्या, शारीरिक और मानसिक सुख प्राप्त करना चाहते हैं तो सिद्धकुंजिकास्तोत्र का पाठ अवश्य करें। श्री दुर्गा सप्तशती में यह अध्याय सम्मिलित है। यदि समय कम है तो आप इसका पाठ करके भी श्रीदुर्गा सप्तशती के संपूर्ण पाठ जैसा ही पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। 3-नाम के अनुरूप यह सिद्ध कुंजिका है। जब किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा हो, समस्या का समाधान नहीं हो रहा हो, तो सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करिए। भगवती आपकी रक्षा करेंगी। 4-भगवान शंकर कहते हैं कि सिद्धकुंजिका स्तोत्र का पाठ करने वाले को देवी कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास और यहां तक कि अर्चन भी आवश्यक नहीं है। केवल कुंजिका के पाठ मात्र से दुर्गा पाठ का फल प्राप्त हो जाता है। 5-क्यों है सिद्ध..इसके पाठ मात्र से पंच चक्रों का ( मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि उद्देश्यों की )एक साथ जागरण हो जाता है। इसमें स्वर व्यंजन की ध्वनि है। योग और प्राणायाम है।सिद्ध कुंजिका स्तोत्र को अत्यंत सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। 6-सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ परम कल्याणकारी है। इस स्तोत्र का पाठ मनुष्य के जीवन में आ रही समस्या और विघ्नों को दूर करने वाला है। मां दुर्गा के इस पाठ का जो मनुष्य विषम परिस्थितियों में वाचन करता है उसके समस्त कष्टों का अंत होता है। 7-श्रीरुद्रयामल के गौरीतंत्र में वर्णित सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का संक्षिप्त मंत्र है...''ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥'' सामान्य रूप से हम इस मंत्र का पाठ करते हैं लेकिन संपूर्ण मंत्र केवल सिद्ध कुंजिका स्तोत्र में है। संपूर्ण मंत्र यह है;- ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ऊं ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ कैसे करें?
07 FACTS;-
1-श्री गणेश- जल तत्व हैं।श्री विष्णु- पृथ्वी तत्व हैं।श्री शंकर- वायु तत्व हैं।श्री देवी - अग्रि तत्व हैं।श्री सूर्य- आकाश तत्व हैं।जीवन के लिए सर्वप्रथम जल की आवश्यकता होती है। इसलिए प्रथम पूज्य गणेश जल के अधिष्ठात्र देवता है। पृथ्वी साक्षात विष्णु देवता से संबधित तत्व है। शंकर वायु- तत्व, देवी अग्नि तत्व तथा सूर्य आकाश-तत्व के देवता है। इस प्रकार इन पांचों का पूजन कर हम अपने आप का ही पूजन करते हैं। ऐसा माना जाता है। 2-सिद्ध कुंजिका स्तोत्र को अत्यंत सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। प्रतिदिन की पूजा में इसको शामिल कर सकते हैं। लेकिन यदि अनुष्ठान के रूप में या किसी इच्छाप्राप्ति के लिए कर रहे हैं तो आपको कुछ सावधानी रखनी होंगी। 2-A-संकल्प: सिद्ध कुंजिका पढ़ने से पहले हाथ में अक्षत, पुष्प और जल लेकर संकल्प करें। मन ही मन देवी मां को अपनी इच्छा कहें। 3- जितने पाठ एक साथ ( 1, 2, 3, 5. 7. 11) कर सकें, उसका संकल्प करें। अनुष्ठान के दौरान माला समान रखें। कभी एक कभी दो कभी तीन न रखें। 4-सिद्धकुंजिका स्तोत्र के पाठ का समय... 4-1- रात्रि 9 बजे करें तो अत्युत्तम। 4-2- रात को 9 से 11.30 बजे तक का समय रखें। 5-लाल आसन पर बैठकर पाठ करें। 6-दीपक; घी का दीपक दायें तरफ और सरसो के तेल का दीपक बाएं तरफ रखें। अर्थात दोनों दीपक जलाएं 7-सिद्ध कुंजिका स्तोत्र में दशों महाविद्या, नौ देवियों की आराधना है। किस इच्छा के लिए कितने पाठ करने हैं;- 10 FACTS;- 1.विद्या प्राप्ति के लिए....पांच पाठ ( अक्षत लेकर अपने ऊपर से तीन बार घुमाकर किताबों में रख दें) 2. यश-कीर्ति के लिए.... पांच पाठ ( देवी को चढ़ाया हुआ लाल पुष्प लेकर सेफ आदि में रख लें) 3. धन प्राप्ति के लिए....9 पाठ ( सफेद तिल से अग्यारी करें) 4.मुकदमे से मुक्ति के लिए...सात पाठ ( पाठ के बाद एक नींबू काट दें। दो ही हिस्से हों ध्यान रखें। इनको बाहर अलग-अलग दिशा में फेंक दें) 5. ऋण मुक्ति के लिए....सात पाठ ( जौं की 21 आहुतियां देते हुए अग्यारी...पूजा के लिए आग रोशन कर के इस पर धूप, चावल, घी आदि डालना, करें। जिसको पैसा देना हो या जिससे लेना हो, उसका बस ध्यान कर लें) 6. घर की सुख-शांति के लिए...तीन पाठ ( मीठा पान देवी को अर्पण करें) 7.स्वास्थ्यके लिए...तीन पाठ ( देवी को नींबू चढाएं और फिर उसका प्रयोग कर लें) 8.शत्रु से रक्षा के लिए..., 3, 7 या 11 पाठ ( लगातार पाठ करने से मुक्ति मिलेगी) 9. रोजगार के लिए...3,5, 7 और 11 ( एच्छिक) ( एक सुपारी देवी को चढाकर अपने पास रख लें) 10.सर्वबाधा शांति- तीन पाठ (लौंग के तीन जोड़े अग्यारी पर चढ़ाएं या देवी जी के आगे तीन जोड़े लोंग के रखकर फिर उठा लें और खाने या चाय में प्रयोग कर लें।पाठ में अधिक समय नहीं लगेगा। पांच या सात मिनट में पाठ पूरा हो जाता है।
क्या सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का होम करना चाहिए?-
1-सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का होम न करने की आज्ञा स्वयं महादेव नें दी है ।इसका प्रथम कारण है कि कुंजिका देवी सिद्धियों की एकमात्र कुंजी है और कुंजी का रक्षण किया जाता है आहूत नहीं किया जा सकता ।यदि यदि कुंजी का ही लोप हो जाएगा तो सिद्धी के द्वार का खुलना असम्भव हो जाएगा ।दूसरा का कारण यह है कि सप्तशती में याचना स्तोत्र , कवच एवं कवच मन्त्रों की आहुति नहीं की जाती अन्यथा विनाश ही होता है ।
2-भगवान शिव भैरव स्वरूप में स्थित होकर कहते हैं ! ''कवच , अर्गला , कीलक , तथा कुंजिका का होम स्वप्न में भी न करें स्वप्न मात्र में भी होम करने से सर्वत्र नाश की संभावनाएँ प्रकट हो जाती है ।अर्गला के होमकर्म से सिद्धीयों का नाश हो जाता है । तथा होता की समस्त विद्याएँ विस्मृत हो जाती है , अर्गला अनर्गल सिद्ध हो जाती है ।कीलक के होमकर्म से होता के समस्त मन्त्र सदा सर्वदा के लिए कीलित हो जाते हैं ।इसे मेरा उत्किलित कण्ठ ही जानें जो जो कीलक का कारक है ।कवच के होम से धन,धान्य, पुत्र तथा प्राण का विनाश निश्चित है । एवं होता रोग तथा शोकों से घिर जाता है ।कुंजिका के होमकर्म के प्रभाव से होता की छः मास में मृत्यु निश्चित जानें । तथा होता का सकुटुंब विनाश हो जाता है। यह सत्य है इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिए ।इसके दोष से मृत्युदेवता अत्यंत प्रसन्न होकर होता का सकुटुंब भक्षण करते हैं ।कुंजिका के होममात्र के प्रभाव से ही रावण का सम्पूर्ण विनाश सम्भव हुआ ।कुंजिका में बीज मातृकाएँ उपस्थित हैं ।प्राण को देविप्राण का बोधप्रदान करती हैं ।यह प्राणज्ञान प्रदान करने वाली महामाया कुंजिका प्राण को प्रभावित करने वाली हैं ।''
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पाठ विधिं... IN NUTSHELL
1-संकल्प
2-गुरु ध्यान- 03 बार
3-ध्यान मंत्र-
4-इष्ट देव मंत्र-03 बार
5-ग्रह मंत्र;-03 बार
6- पाठ -03 बार
7-सिद्ध कुंजिका स्तोत्र-09 बार
8-क्षमा-प्रार्थना
9-आरती
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नवधा भक्ति पाठ विधिं;-
1-संकल्प;-
हम नाम ..गोत्र... स्थान... अपने चारों पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिए आपके चरणों का ये पूजन कर रहे हैं।हे देवी परमेश्वरी! आपकी कृपा से मेरा यह पूजन पूर्ण हो ...यही आपसे प्रार्थना है।
2-गुरु ध्यान;-
ॐ श्री गुरवे नमः-03 बार
3-ध्यान मंत्र;-
ध्यानम्...
खड्गं चक्र-गदेषु-चाप-परिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिर:
शंखं संदधतीं करौस्त्रि नयनां सर्वाड्ग भूषावृताम्।
नीलाश्म-द्युतिमास्य-पाद दशकां सेवे महाकालिकां
याम स्तौत्स्व पिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥
ॐ अक्ष-स्रक्-परशुं गदेषु-कुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुरा भाजनम्।
शूल पाश-सुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभ मर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥
ॐ घण्टा शूल-हलानि शंखमुसले चक्रं धनु: सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥
अर्थ;-
भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने पर महा- बलवान् दैत्य मधु कैटभ के संहार-निमित्त पद्मयोनि-ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन महाकाली देवी का मैं स्मरण करता हूँ। वे अपने दस भुजाओँ में क्रमशः खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ , शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती हैं। वह तीन नेत्रोँ से युक्त हैं और उनके संपूर्ण अंगों में दिव्य आभूषण पड़े हैं। नीलमणि के सदृश उनके शरीर की आभा है एवं वे दसमुखी तथा पादोँ वाली हैं।मैं कमलासन पर आसीन प्रसन्नवदना महिषासुरमर्दिनी भगवती श्रीमहालक्ष्मी का ध्यान करता हूँ। जिनके हाथों में रुद्राक्ष की माला फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, शंख, घण्टा, सुरापात्र, शूल, पाश, और चक्र सुशोभित है।जिनके कर-कमलोँ में घण्टा, शूल, हल, शंख, मुसल, चक्र और धनुष-बाण है, जिनके शरीर की दीप्ति शारदीय चंद्र के समान सुंदर है, जो त्रैलोक्य की आधारभूता और शुम्भ-निशुम्भ आदि दैत्योँ का संहार करनेवाली हैं, उन गौरी देवी के शरीर से उत्पन्न महासरस्वती देवी का मैं निरंतर स्मरण करता हूँ।
4-इष्ट देव मंत्र-03 बार
5-ग्रह मंत्र;-
ॐ शं शनैश्चराय नमः।...03 बार
6- पाठ -पहला अध्याय/सातवां अध्याय...03 बार
सातवां अध्याय;-
मैं मातङ्गीदेवीका ध्यान करता (करती) हूँ।वे रत्नमय सिंहासनपर बैठकर पढ़ते हुए तोतेका मधुर शब्द सुन रही हैं।
उनके शरीरका वर्ण श्याम है।वे अपना एक पैर कमलपर रखे हुए हैं औरमस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा पुष्पोंकी माला धारण किये वीणा बजाती हैं।वे लाल रंगकी साड़ी पहने और हाथमें शंखमय पात्र लिये हुए हैं।उनके वदनपर मधुका हलका-हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाट में बिंदी शोभा दे रही है।ऋषि कहते हैं –तदनंतर शुम्भ की आज्ञा पाकर चंड-मुंड आदि दैत्य,चतुरंगिनी सेना के साथ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो चल दिए।फिर गिरिराज हिमालय के सुवर्णमय ऊंचे शिखर पर पहुंचकर उन्होंने सिंह पर बैठी देवी को देखा।वे मंद-मंद मुस्करा रही थीं।उन्हें देखकर दैत्य लोग तत्परता से पकडने का उद्योग करने लगे।किसी ने धनुष तान लिया, किसी ने तलवार संभाली और कुछ लोग देवी के पास आकर खड़े हो गए।तब अम्बिका ने उन शत्रुऒं के प्रति बड़ा क्रोध किया।उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया।ललाट में भौंहें टेढ़ी हो गयीं और वहां से तुरंत विकरालमुखी काली प्रकट हुईं,जो तलवार और पाश लिए हुए थीं।वे विचित्र खट्वाङ्ग धारण किए और चीते के चर्म की साड़ी पहने नर-मुंडो की मालासे विभूषित थीं।उनके शरीर का मांस सूख गया था और केवल हड्डियों का ढांचा था,जिससे वे अयत भयंकर जान पड़ती थीं।उनका मुख बहुत विशाल था और जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं।उनकी आंखें भीतर को धंसी हुई और कुछ लाल थीं।वे अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाऒं को गुंजा रही थीं।बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुई वे कालिका देवी,बड़े वेग से दैत्यों की उस सेना पर टूट पड़ीं और उन सबका भक्षण करने लगीं।वे पार्श्व रक्षकों, अंकुशधारी महावतों, योद्धाऒं और घंटा सहित कितने ही हाथियोंको एक ही हाथ से पकड़कर मुंह में डाल लेती थीं।इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथि के साथ, रथी सैनिकों को मुंह में डालकर वे उन्हें बड़े भयानक रूप से चबा डालती थीं।किसी के बाल पकड़ लेतीं, किसी का गला दबा देतीं,किसी को पैरों से कुचल डालतीं और किसी को छाती के धक्के से गिराकर मार डालती थीं।वे असुरों के छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुंह से पकड़ लेतीं और रोष में भरकर उनको दांतों से पीस डालती थीं।काली ने बलवान एवं दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद डाली,खा डाली और कितनों को मार भगाया।कोई तलवार के घाट उतारे गए, कोई खट्वांग से पीटे गए और कितने ही असुर दांतों के अग्रभाग से कुचले जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए।इस प्रकार देवी ने असुरों की उस सारी सेनाको क्षणभर में मार गिराया।यह देख चंड, उन अत्यंत भयानक काली देवी की ऒर दौड़ा।महादैत्य मुंड ने भी अत्यंत भयंकर बाणों की वर्षा से तथा हजारों बार चलाए हुए चक्रों से उन भयानक नेत्रों वाली देवी को आच्छादित कर दिया वे अनेकों चक्र देवी के मुख में समाते हुए ऐसे जान पड़े,मानो सूर्य के बहुतेरे मंडल बादलों के उदर में प्रवेश कर रहे हों।तब भयंकर गर्जना करने वाली काली ने अत्यंत रोष में भरकर विकट अट्टाहास किया।उस समय उनके विकराल बदन के भीतर कठिनता से देखे जा सकने वाले दांतों की प्रभा से वे अत्यंत उज्वल दिखायी देती थीं।देवी ने बहुत बड़ी तलवार हाथ में लेकर – हं – का उच्चारण करके चंड पर धावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवार से उसका मस्तक काट डाला।चंड को मारा गया देखकर,मुंड भी देवी की ऒर दौड़ा।तब देवी ने रोष में भरकर उसे भी तलवार से घायल करके धरती पर सुला दिया।महापराक्रमी चंड और मुंड को मारा गया देख,मरने से बची हुई बाकी सेना भय से व्याकुल हो चारों ऒर भाग गयी।तदनंतर काली ने चंड और मुंड का मस्तक हाथ में ले,चंडिका के पास जाकर प्रचंड अट्टाहास करते हुए कहा –देवि!
मैंने चंड और मुंड नामक इन दो महापशुऒं को तुम्हें भेंट किया है।अब युद्ध में तुम शुम्भ और निशुम्भ का स्वयं ही वध करना।
ऋषि कहते हैं –वहां लाए हुए उन चंड-मुंड नामक महादैत्यों को देखकर कल्याणमयी चंडी ने काली से मधुर वाणी में कहा।देवि!
तुम चंड और मुंड को लेकर मेरे पास आयी हो,इसलिए संसार में चांमुडा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।चंडिका देवी को नमस्कार है।
7-सिद्ध कुंजिका स्तोत्र-09 बार
सिद्ध कुंजिका स्तोत्र-(अथ कुंजिकस्त्रोत्र प्रारंभ) श्री गणेशाय नमः विनयोग;- ॐ अस्य श्री कुन्जिका स्त्रोत्र मंत्रस्य सदाशिव ऋषि:॥ अनुष्टुपूछंदः ॥ श्रीत्रिगुणात्मिका देवता ॥ ॐ ऐं बीजं ॥ ॐ ह्रीं शक्ति: ॥ ॐ क्लीं कीलकं ॥ मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: ॥ परम कल्याणकारी सिद्धकुंजिकास्तोत्रम्;- शिव उवाच शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् । येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।। ॥१॥ न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् । न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥२॥ कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् । अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥३॥ गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति । मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् । पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥४॥ अथ मन्त्रः ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा.. इति मन्त्रः॥ नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि। नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥१॥ नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिन ॥२॥ जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे । ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका ॥३॥ क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते । चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ॥४॥ विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिण ॥५॥ धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी । क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि ! शां शीं शूं में शुभं कुरू॥६॥ हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी । भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥७॥ अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥ पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ॥८॥ सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे ॥ इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे । अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥ यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत् । न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥ (इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ॥)
8-क्षमा-प्रार्थना;-
परमेश्वरि ! मेरे द्वारा रात-दिन सहस्रों अपराध होते रहते हैं। 'यह मेरा दास है' - यों समझकर मेरे उन अपराधों को तुम कृपापूर्वक क्षमा करो। परमेश्वरि! मैं आवाहन नहीं जानता, विसर्जन नहीं जानता तथा पूजन करने का ढंग भी नहीं जानता । क्षमा करो देवि! सुरेश्वरि! मैंने मैं जो मन्त्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो । सैकड़ों अपराध करके भी जो तुम्हारी शरण में जाकर 'जगदम्ब' पुकारता है, उसे वह गति प्राप्त होती है जो ब्रह्मादि देवताओं के लिए भी सुलभ नहीं है। जगदम्बिके! मैं अपराधी हूँ,किन्तु तुम्हारी शरण में आया हूँ। इस समय दया का पात्र हूँ । तुम जैसा चाहो वैसा करो।देवि! परमेश्वरि! अज्ञान से, भूल से अथवा बुद्धि भ्रांत होने के कारण मैंने मैं जो न्यूनता या अधिकता कर दी हो, वह सब क्षमा करो और प्रसन्न होओ। सच्चिदानंदरूपा परमेश्वरि! जगन्माता कामेश्वरि! तुम प्रेम पूर्वक मेरी यह पूजा स्वीकार करो और मुझ पर प्रसन्न रहो। देवि! सुरेश्वरि! तुम गोपनीय से भी गोपनीय वस्तु की रक्षा करने वाली हो। मेरे निवेदन किये हुए इस जप को ग्रहण करो। तुम्हारी कृपा से मुझे सिद्धि प्राप्त हो।
9-आरती;-
जगजननी जय! जय! माँ! जगजननी जय! जय!
भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि जय जय।
जगजननी… तू ही सत्-चित्-सुखमय, शुद्ध ब्रह्मरूपा।
सत्य सनातन, सुन्दर पर-शिव सुर-भूपा॥
आदि अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी।
अमल, अनन्त, अगोचर, अज आनन्दराशी॥
जगजननी… अविकारी, अघहारी, अकल कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर संहारकारी॥
जगजननी… तू विधिवधू, रमा, तू उमा महामाया।
मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी जाया॥
जगजननी… राम, कृष्ण तू, सीता, ब्रजरानी राधा।
तू वांछाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा॥
जगजननी… दश विद्या, नव दुर्गा नाना शस्त्रकरा।
अष्टमातृका, योगिनि, नव-नव रूप धरा॥
जगजननी… तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डवलासिनि तू॥
जगजननी.. सुर-मुनि मोहिनि सौम्या, तू शोभाधारा।
विवसन विकट सरुपा, प्रलयमयी, धारा॥
जगजननी… तू ही स्नेहसुधामयी, तू अति गरलमना।
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि तना॥
जगजननी… मूलाधार निवासिनि, इह-पर सिद्धिप्रदे।
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥
जगजननी… शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी।
भेद प्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥
जगजननी… हम अति दीन दु:खी माँ! विपत जाल घेरे।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥
जगजननी… निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
करुणा कर करुणामयी! चरण शरण दीजै॥
जगजननी मां… आरती, जय अम्बे गौरी मैया जय अंबे गौरी
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9-1-आरती;-
मंगल की सेवा सुन मेरी देवा,
हाथ जोड तेरे द्वार खडे ।
पान सुपारी ध्वजा नारियल,
ले ज्वाला तेरी भेट धरे ॥
सुन जगदम्बे न कर विलम्बे,
संतन के भडांर भरे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशहाली,
जय काली कल्याण करे ॥1
बुद्धि विधाता तू जग माता,
मेरा कारज सिद्व करे ।
चरण कमल का लिया आसरा,
शरण तुम्हारी आन पडे ॥
जब-जब भीड पडी भक्तन पर,
तब-तब आप सहाय करे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशाली,
जय काली कल्याण करे ॥2
ब्रह्मा विष्णु महेश फल लिये,
भेट देन तेरे द्वार खडे ।
अटल सिहांसन बैठी मेरी माता,
सिर सोने का छत्र फिरे ॥
वार शनिचर कुमकुम बरणो,
जब लुंकड़ पर हुकुम करे ।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशाली,
जै काली कल्याण करे ॥3
खड्ग खप्पर त्रिशुल हाथ लिये,
रक्त बीज को भस्म करे ।
शुम्भ-निशुम्भ को क्षण में मारे,
महिषासुर को पकड दले ॥
आदित वारी आदि भवानी,
जन अपने को कष्ट हरे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशहाली,
जै काली कल्याण करे ॥4
कुपित होकर दानव मारे,
चण्ड-मुण्ड सब चूर करे ।
जब तुम देखी दया रूप हो,
पल में सकंट दूर करे ॥
सौम्य स्वभाव धरयो मेरी माता,
जन की अर्ज कबूल करे ।
सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली,
जै काली कल्याण करे ॥5
सात बार की महिमा बणनी,
सब गुण कौन बखान करे ।
सिंह पीठ पर चढी भवानी,
अटल भवन में राज्य करे ॥
दर्शन पावे मंगल गावे,
सिद्ध साधक तेरी भेट धरे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशहाली,
जै काली कल्याण करे ॥6
ब्रह्मा वेद पढे तेरे द्वारे,
शिव शंकर हरी ध्यान धरे ।
इन्द्र कृष्ण तेरी करे आरती,
चंवर कुबेर डुलाय रहे ॥
जय जननी जय मातु भवानी,
अटल भवन में राज्य करे ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशहाली,
जय काली कल्याण करे ॥7
मंगल की सेवा सुन मेरी देवा,
हाथ जोड तेरे द्वार खडे ।
पान सुपारी ध्वजा नारियल,
ले ज्वाला तेरी भेट धरे ॥ सिद्धकुंजिका स्तोत्र का अर्थ इस प्रकार है :- ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; शिवजी बोले- देवी! सुनो। मैं उत्तम कुञ्जिकास्तोत्र का उपदेश करूँगा, जिस मन्त्र के प्रभाव से देवी का जप (पाठ) सफल होता है॥1॥ कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त , ध्यान, न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी (आवश्यक) नहीं है॥2॥ केवल कुञ्जिका के पाठ से दुर्गा-पाठ का फल प्राप्त हो जाता है। यह (कुञ्जिका) अत्यन्त गुप्त और देवों के लिये भी दुर्लभ है॥3॥ हे पार्वती! इसे स्वयोनि की भाँति प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। यह उत्तम कुञ्जिकास्तोत्र केवल पाठ के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि (आभिचारिक) उद्देश्यों को सिद्ध करता है॥4॥ मन्त्र : ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥ ऊँ ग्लौं हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा (इस मन्त्र में आये बीजों का अर्थ जानना न सम्भव है, न आवश्यक और न वाञ्छनीय... केवल जप पर्याप्त है...) हे रुद्रस्वरूपिणी! तुम्हें नमस्कार...हे मधु दैत्य को मारने वाली! तुम्हें नमस्कार है...कैटभविनाशिनी को नमस्कार... महिषासुर को मारने वाली देवी! तुम्हें नमस्कार है॥1॥ शुम्भ का हनन करने वाली और निशुम्भ को मारने वाली! तुम्हें नमस्कार है॥2॥ हे महादेवि! मेरे जप को जाग्रत् और सिद्ध करो। ऐंकार के रूप में सृष्टिस्वरूपिणी, ह्रीं के रूप में सृष्टि-पालन करने वाली॥3॥ कीं रूप में कामरूपिणी तथा (निखिल ब्रह्माण्ड) की बीजरूपिणी देवी! तुम्हें नमस्कार है... चामुण्डा के रूप में चण्डविनाशिनी और यैकार के रूप में तुम वर देने वाली हो॥4॥ विच्चे रूप में तुम नित्य ही अभय देती हो। (इस प्रकार ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) तुम इस मन्त्र का स्वरूप हो॥5॥ धां धीं धूं के रूप में धूर्जटी (शिव) की तुम पत्नी हो। वां वीं वूं के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। क्रां क्रीं क्रू के रूप में कालिका देवी, शां शीं शूं के रूप में मेरा कल्याण करो॥6॥ हुं हुं हुंकार स्वरूपिणी, जं जं जं जम्भनाशिनी, भ्रां भ्रीं भ्रूं के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी! तुम्हें बार-बार प्रणाम॥7॥ अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं... धिजाग्रं धिजाग्रं इन सबको तोडो और दीप्त करो करो स्वाहा... पां पीं पूं के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो... खां खीं खूं के रूप में तुम खेचरी (आकाशचारिणी) अथवा खेचरी मुद्रा हो॥8॥ सां सीं सूं स्वरूपिणी सप्तशती देवी के मन्त्र को मेरे लिये सिद्ध करो...यह कुञ्जिकास्तोत्र मन्त्र को जगाने के लिये है...इसे भक्तिहीन पुरुष को नहीं देना चाहिय...हे पार्वती! इसे गुप्त रखो... हे देवी! जो बिना कुञ्जिका के सप्तशती का पाठ करता है उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं मिलती जिस प्रकार वन में रोना निरर्थक होता है। इन बातों का ध्यान रखना हैं आवश्यक;- 03 FACTS;- 1-देवी दुर्गा की आराधना, साधना और सिद्धि के लिए तन, मन की पवित्रता होना अत्यंत आवश्यक है। साधना काल या नवरात्रि में इंद्रिय संयम रखना जरूरी है। बुरे कर्म, बुरी वाणी का प्रयोग भूलकर भी नहीं करना चाहिए। इससे विपरीत प्रभाव हो सकते हैं। 2-कुंजिका स्तोत्र का पाठ बुरी कामनाओं, किसी के मारण, उच्चाटन और किसी का बुरा करने के लिए नहीं करना चाहिए। इसका उल्टा प्रभाव पाठ करने वाले पर ही हो सकता है।साधना काल में मांस, मदिरा का सेवन न करें। 3-शिव शक्ति दोनो एक दूसरे के पूरक है जैसे अग्नि और जल का समन्वय।यदि हम भगवती की आराधना के साथ भगवान भोलेनाथ का भी ध्यान/जप करें तो हमारे जप -तप मे हमे उस तरह राहत मिलेगी जैसे भीषण गर्मी मे जल की फुहार मिलने से होती है ।इसीलिये जब भी हम शक्ति की आराधना करें;भगवान शिव ध्यान/ मंत्रजाप, पूजन अवश्य करें। .....SHIVOHAM...