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क्या है शरद पूर्णिमा पर्व का धार्मिक व वैज्ञानिक महत्व?

शरद पूर्णिमा का धार्मिक महत्व;- 06 FACTS;- 1-आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है, लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। शरद पूर्णिमा को आनंद व उल्लास का पर्व माना जाता है। इस पर्व का धार्मिक व वैज्ञानिक महत्व भी है।बंगाल में शरद पूर्णिमा को कोजागोरी लक्ष्मी पूजा कहते हैं। महाराष्ट्र में कोजागरी पूजा कहते हैं और गुजरात में शरद पूनम। 2-शैव भक्तों के लिए शरद पूर्णिमा का विशेष महत्व है। मान्यता है कि भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार कार्तिकेय का जन्म भी शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसी कारण से इसे कुमार पूर्णिमा भी कहा जाता है। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में इस दिन कुमारी कन्याएं प्रातः स्नान करके सूर्य और चन्द्रमा की पूजा करती हैं। माना जाता है कि इससे योग्य पति प्राप्त होता है। 3-ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की सुनहरी रात्रि में भगवान शंकर एवं पार्वती कैलाश पर्वत पर रमण करते हैं तथा संपूर्ण कैलाश पर्वत पर चंद्रमा जगमगा जाता है। लोग शरद पूर्णिमा को व्रत भी रखते हैं तथा शास्त्रों में इसे कौमुदी व्रत भी कहा गया है। कौमुदी का अर्थ है चांद की रोशनी। इस दिन चांद अपनी सोलह कलाओं से पूर्ण होता है। 4-मान्यता है कि माता लक्ष्मी का जन्म शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसलिए देश के कई हिस्सों में शरद पूर्णिमा को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। शरद पूर्णिमा से जुड़ी एक मान्यता यह भी है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। 5-इसे रास पूर्णिमा भी कहते हैं क्योंकि इसी दिन श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ महारास की शुरूआत की थी। भगवान श्रीकृष्ण ने शरद पूर्णिमा को रासलीला की थी इसलिए मथुरा-वृंदावन सहित अनेक स्थानों पर आज भी इस रात को रासलीलाओं का आयोजन किया जाता है। 6-इस पूर्णिमा पर व्रत रखकर पारिवारिक देवता की पूजा की जाती है। रात को ऐरावत हाथी (सफेद हाथी) पर बैठे इन्द्र देव और महालक्ष्मी की पूजा होती है। कहीं कहीं हाथी की आरती भी उतारते हैं। इन्द्र देव और महालक्ष्मी की पूजा में दीया , अगरबत्ती जलाते हैं और भगवान को फूल चढ़ाते हैं।इस दिन कम से कम ग्यारह घी के दीये जलाते हैं । लक्ष्मी और इन्द्र देव रात भर घूम कर देखते हैं कि कौन जाग रहा है और उसे ही धन की प्राप्ति होती है।इसलिए पूजा के बाद रात को लोग जागते हैं।अगले दिन पुन: इन्द्र देव की पूजा होती है। शरद पूर्णिमा का वैज्ञानिक महत्व;- 11 FACTS;- 1-अंग्रेजी भाषा का शब्द ‘मून‘ संस्कृत भाषा के ‘मन‘ से बना है। मन का हमारे चारों पुरुषार्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्योतिष विज्ञान में मन का स्वामी चन्द्रमा को माना गया है। चन्द्रमा को भगवान शिव के मस्तक पर सुशोभित करने का अभिप्रायः भी यही है कि मन सर्वोपरि है। कहते हैं न ‘मन जीता तो जग जीता‘। यदि मन शुद्ध है तो आपका जीवन निश्चित ही शिवमय (कल्याणकारी) होगा। संसार में जो कुछ भी शिवमय है, वह स्वयं सत्यमय है और जो भी सत्यमय है वही तो सुन्दरतम है। सत्यं -शिवम -सुंदरम। 2-चन्द्रमा की गतिविधियों का हमारे मन और शरीर से गहरा और सीधा सम्बन्ध है। मन की सभी वृत्तियों को चन्द्रमा नियंत्रित करता है। पश्चिम के देशों में इसपर अनेक शोध कार्य चल रहे हैं।वैज्ञानिक मान्यताएं हैं कि जो व्यक्ति पागल होते हैं उनमें चन्द्रमा एक प्रमुख कारक के रूप में उपस्थित होता है। ज्योतिष विज्ञान की गहरी से गहरी खोजें भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि चन्द्रमा यदि दोषयुक्त है तो व्यक्ति का मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाता है। 3-कैलिफोर्निया विश्वविद्द्यालय के शोधार्थियों ने जेल में बंद कुछ मानसिक रोगियों पर जो अनुसन्धान किये हैं उनके नतीजे चौंकाने वाले हैं। उनका कहना है महीने में दो बार उन कैदियों की गतिविधियों में अभूतपूर्व बदलाव देखने में आता है उनमे से कुछ अत्यधिक उग्र और उत्पाती हो जाते हैं जबकि कुछ एकदम शांत और शालीन। जब इन तिथियों को भारतीय पंचांग से मिलाया गया, तो ये तिथियाँ अमावस्या और पूर्णिमा या उनसे एक दो दिन आगे पीछे की तिथियाँ थी। वैज्ञानिक इस बात पर भी सहमत होते दिखे कि उन मानसिक रोगियों के व्यवहार परिवर्तनों में कहीं न कहीं चन्द्रमा की गतियों का कुछ तारतम्य अवश्य है। 3-विशालतम समुद्र में ज्वारभाटा चन्द्रमा के कारण ही आता है। चन्द्रमा जब इतने विशालकाय सागर के अस्तित्व को प्रभावित कर सकता है, तब एक मनुष्य का उसके सम्मुख क्या स्थान है। यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि हमारे शरीर में लगभग 85 प्रतिशत जल है और इस जल में नमक की मात्रा कमोबेश उतनी ही है, जितनी समुद्र के जल के खारेपन में होती है। तभी तो पसीना हमें खारा लगता है। समुद्र में रहने वाले अधिकांश जलीय जंतुओं का चन्द्रमा से एक खास सम्बन्ध है। अनेक प्रजातियों की मछलियाँ चन्द्रमा की गति के मुताबिक अपने जीवन चक्र को संयोजित करती हैं। 4-चन्द्रमा की कलाओं से वे यह सुनिश्चित करती हैं कि उन्हें अपने अंडें कहाँ और कब देने हैं। सिर्फ मछलियाँ ही नहीं महिलाओं के शरीर में होने वाले हार्मोन्स और व्यवहार के परिवर्तनों में भी चन्द्रमा का विशेष हस्तक्षेप है। स्त्रियों का मासिक चक्र भी चन्द्रमा की गतियों से ही निर्धारित होता है। यदि मानसिक रोगों से ग्रस्त व्यक्ति के जीवन में चन्द्रमा और अमावस्या इन दो तिथियों पर विशेष ध्यान देकर उसके व्यवहार को आँका जा सके,तो विज्ञान कहता है ऐसे मानसिक रोगियों को सदा के लिए ठीक किया जा सकता है। 5-चन्द्रमा का प्रायः सभी धर्मों में समान आदर है। उसकी गहरी से गहरी वज़हों में यह बात छिपी है कि धर्मों के अधिष्ठाता इस बात से भली प्रकार विज्ञ थे कि चन्द्रमा को साध लिया तो सब सध जायेगा। भारतीय पुरातन परम्पराओं में चन्द्रमा के इर्द -गिर्द ही सभी पर्वों का प्रभाव अस्तित्वमान रहा है। 6-शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं, जो कई बीमारियों का नाश कर देती हैं। यही कारण है कि शरद पूर्णिमा की रात को लोग अपने घरों की छतों पर खीर रखते हैं, जिससे चंद्रमा की किरणें उस खीर के संपर्क में आती है, इसके बाद उसे खाया जाता है। 7-कुछ स्थानों पर सार्वजनिक रूप से खीर का प्रसाद भी वितरण किया जाता है।इस दिन चंद्रमा का पूजन करना लाभदायी रहता है। एक अध्ययन के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन औषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है, तब रिक्तिकाओं से विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है। 8-लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है। 9-अध्ययन के अनुसार दुग्ध में लैक्टिक अम्ल और अमृत तत्व होता है। यह तत्व किरणों से अधिक मात्रा में शक्ति का शोषण करता है। चावल में स्टार्च होने के कारण यह प्रक्रिया और आसान हो जाती है। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने शरद पूर्णिमा की रात्रि में खीर खुले आसमान में रखने का विधान किया है। यह परंपरा विज्ञान पर आधारित है। 10-शोध के अनुसार खीर को चांदी के पात्र में बनाना चाहिए। चांदी में प्रतिरोधकता अधिक होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। हल्दी का उपयोग निषिद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा का स्नान करना चाहिए। रात्रि 10 से 12 बजे तक का समय उपयुक्त रहता है। 11-शरद पूर्णिमा को चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है और चंद्रमा के प्रकाश की किरणें पृथ्वी पर स्वास्थ्य की बौछारें करती हैं। इस दिन चंद्रमा की किरणों में विशेष प्रकार के लवण व विटामिन होते हैं। कहा जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणों से नाग का विष भी अमृत बन जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि प्रकृति इस दिन धरती पर अमृत वर्षा करती है। ब्रह्म मुहूर्त में चन्द्रमा की किरणों के बीच जब गंगा में स्नान किया जाता है, तब हमारे शरीर में विशेष रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। हमें अनेक रोगों से लड़ने की शक्ति मिलती है और हमारा मन मष्तिष्क अनेक क्षमताओं को विकसित करता है।

नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए 🌷🌙;-

दशहरे से शरद पूनम तक चन्द्रमा की चाँदनी में विशेष हितकारी रस, हितकारी किरणें होती हैं । इन दिनों चन्द्रमा की चाँदनी का लाभ उठानाचाहिए, जिससे वर्षभर आप स्वस्थ और प्रसन्न रहें । नेत्रज्योति बढ़ाने के लिए दशहरे से शरद पूर्णिमा तक प्रतिदिन रात्रि में 15 से 20 मिनट तक चन्द्रमा के ऊपर त्राटक (पलकें झपकाये बिना एकटक देखना) करें । पूर्णिमा का रहस्य ;- 05 FACTS;- 1-वर्षभर में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। > शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या कहते हैं। वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही सबसे महत्वपूर्ण दिन है पूर्णिमा। सभी का अलग-अलग महत्व है। पूर्णिमा और अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। 2-पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की ओर खींचता है। 3-मानव के शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्‍त में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता है। 4-एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है। जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति भोजन करने के बाद नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह दी जाती है। 5-मान्यता है कि यदि सोमवार को रात्रि काल पूर्णिमा रहे तो उस रात्रि आकाश से सोमरस की वर्षा होती है। इसी सोमरस के पान के वर्णनों से देवी -देवताओं के वृतांत आपूरित हैं। कहा गया है कि यह सोमरस जो पान करता है वह कभी वृद्ध नहीं होता। यहाँ वृद्ध होने का भावार्थ मन के वेगों से हैं और सोमरस कोई शराब नहीं है, जो आकाश से बरसती हो ! उस दिन सोम यानि चन्द्रमा से बिखरने वाली किरणों का जो सेवन करता है वह पूर्ण रूपेण स्वस्थ रहता है। जो पूर्ण रूपेण स्वस्थ है वह आयु से क्षीण होने पर भी युवा ही हुआ न। यही इसका वास्तविक निहितार्थ है। शरद पूर्णिमा की रात और औषधि का महत्व ;- 04 FACTS;- 1-शरद पूर्णिमा की मनमोहक सुनहरी रात में वैद्यों द्वारा जड़ी बूटियों से औषधि का निर्माण किया जाता है। माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की रात को तैयार की गई औषधि अचूक रामबाण होती है। चंद्रमा की रात में खुले मुंह के बर्तन में खीर पकाई जाती है, जिसमें चंद्र किरणों का समावेश होने से अमृत रूपी यह खीर अनेक रोगों के लिए दवा का काम करती है। विशेषकर श्वास व दमा के रोगियों को पीपल वृक्ष की छाल(5 GRAM FOR ONE PERSON) दूध में मिलाकर धीमी आंच पर किरणों के प्रकाश में तैयार कर खीर खिलाई जाती है, जिससे दमा रोगी लाभांवित होते हैं। 2-शरद पूर्णिमा अस्थमा के लिए वरदान की रात होती है। रात को सोना नहीं चाहिए। रात भर रखी खीर का सेवन करने से दमा खत्म होता है। इस रात्रि में दिव्य औषधि को खीर में मिलाकर उसे चांदनी रात में रखकर प्रात: 4 बजे सेवन किया जाता है। रोगी को रात्रि जागरण करना पड़ता है और औ‍षधि सेवन के पश्चात 2-3 किमी पैदल चलना लाभदायक रहता है। 3-इस रात्रि को कुछ लोग चाँद की तरफ देखते हुए सुई में धागा पिरोते है। कुछ लोग काली मिर्च को चांदनी में रख कर सेवन करते है। माना जाता है की इनसे आँखों स्वस्थ होती है और उनकी रौशनी बढ़ती है। 4-रात्रि जागरण के महत्व के कारण ही इसे जागृति पूर्णिमा भी कहा जाता है इसका एक कारण रात्रि में स्वाभाविक कफ के प्रकोप को जागरण से कम करना हैI इस खीर को मधुमेह से पीड़ित रोगी भी ले सकते हैं, बस इसमें मिश्री की जगह प्राकृतिक स्वीटनर स्टीविया की पत्तियों को मिला दें। आयुर्वेद के अनुसार यह पित्त दोष के प्रकोप का काल माना जाता है और मधुर तिक्त कषाय रस पित्त दोष का शमन करते हैं। शरद पूर्णिमा और चन्द्रमा की 16 कलाओं में दक्ष योगिराज श्री कृष्ण;- 05 FACTS;- 1-श्रीराम को 12 कलाओं और योगिराज श्री कृष्ण को 16 कलाओं में दक्ष की संज्ञा दी जाती है। श्री कृष्ण की ये 16 कलाएं वस्तुतः चन्द्रमा की ही 16 पूर्ण अवस्थाओं को उपलब्ध हो जाना है। जब पूरा चाँद क्षितिज पर दैदीप्यमान होता है तब उसकी छटा देखने लायक होती है। श्री कृष्ण एक ऐसे अवतार है जिन्होंने मन के सभी आयामों पर विजय प्राप्त कर ली। यही तो है 16 कलाओं में पूर्ण होना। अपनी इन 16 कलाओं अर्थात 16 दिनों के सत्त्व से पूरित चन्द्रमा जब एक नक्षत्र विशेष में आकाश पर उदित होता है वह विशेष तिथि है -शरद पूर्णिमा । 2-ये रात्रि प्रेम के लिए भी जानी जाती है। जब बात प्रेम की हो तो बांके बिहारी नटवर लाल माखनचोर कन्हा का जिक्र आ जाता है। बांके बिहारी की नगरी मथुरा और वृंदावन के लिए ये त्यौहार विशेष होता है। क्योंकि इसी दिन बांके बिहारी ने यमुना के तट के पास गोपियों और राधारानी के साथ महा रास खेला था। प्रेम की अद्धभुत परिभाषा को इसी पर्व पर इसी नक्षत्र में बांके बिहारी ने गढ़ा था। 3-ये गोपियां प्राचीनकाल के ऋषि महर्षि थे। जिन्होने सैकड़ों साल तक तपस्या की थी। इसके परिणाम स्वरूप भगवान ने इनका अपने प्रेम का रसपान करने का वचन दिया था। इसके लिए उन्होने इन सभी के साथ महारास करने का निश्चय किया। जिसके बाद शरद पूर्णिमा की पावन रात में चंद्रमा की ज्योत्सना के रस से सराबोर होकर रात भर महारास कर इन्हे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन दिया। 4-कहा जाता है आज की रात भी भगवान श्री कृष्ण व्रज की धरती पर आते हैं। इसके साथ ही उनकी बंशी की धुन पर सारी गोपिया प्रकट होती हैं। फिर श्रृष्टि के अनुपम लीला महारास का उदय होता है। मान्यता है कि शरद पूर्णिमा को ही वृन्दावन के वंशी वटों में श्री कृष्ण महारास रचाते हैं। अपने संगी साथियों और गोपियों के साथ शरद पूर्णिमा को ही सबसे पहले श्री कृष्ण ने यहाँ रासलीला रचाई थी। इसी लिए इस तिथि को ‘रास पूर्णिमा‘ भी कहा जाता है। कवियों के ग्रन्थ इस रात्रि के चाँद की गौरव गरिमा से भरे पड़े हैं। इस दिन के चन्द्रमा की चांदनी महा सुख और सौभाग्य को देने वाली है ऐसी मान्यताएं हैं। 5-प्रसंग आता है कि भगवान विष्णु के अवतार समझे जाने वाले श्री कृष्ण को खोजते-खोजते उनकी भार्या महालक्ष्मी इसी रात्रि को वंशी वन पंहुची थी। यह भी कहा जाता है कि शरद पूर्णिमा की चन्द्र रश्मियों के सानिध्य में रात्रि पर्यन्त जागकर जो भी व्यक्ति लक्ष्मी सूक्त का पाठ करता है उसके जीवन में कभी भी धन -धान्य का अभाव नहीं रहता। क्या होती हैं कलाएं?- 07 FACTS;- 1-सामान्य शाब्दिक अर्थ के रूप में देखा जाये तो कला एक विशेष प्रकार का गुण मानी जाती है। यानि सामान्य से हटकर सोचना, समझना या काम करना। भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिए सभी में कुछ न कुछ खासियत थीं और वे खासियत उनकी कला ही थी।साधारण मनुष्य में पांच कलाएं और श्रेष्ठ मनुष्य में आठ कलाएं होती हैं। 2-16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का। 3-उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्‍वरतुल्य होता है। कुमति, सुमति, विक्षित, मूढ़, क्षित, मूर्च्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत आदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है। 4-चन्द्रमा की सोलह कला : अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत। इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है। चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है। 5-मनुष्य (मन) की तीन अवस्थाएं ...प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति।जगत तीन स्तरों वाला है- 1.एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। 2.दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और 3.तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।क्या आप इन तीन अवस्थाओं के अलावा कोई चौथी अवस्था जानते हैं? 6-तीन अवस्थाओं से आगे: सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। 7-इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलगे अलग मिलते हैं। 1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित। ये 16 कलाएं कौन सी होती हैं?-

16 FACTS;-

1-श्री संपदा; –

जिसके पास भी श्रीकला या संपदा होगी वह धनी होगा। धनी होने का अर्थ सिर्फ पैसा व पूंजी जोड़ने से नहीं है बल्कि मन, वचन व कर्म से धनी होना चाहिए। यदि कोई आस लेकर ऐसे व्यक्ति के पास आता है, तो वह उसे निराश नहीं लौटने देता। श्री संपदा युक्त व्यक्ति के पास मां लक्ष्मी का स्थायी निवास होता है। इस कला से संपन्न व्यक्ति समृद्धशाली जीवनयापन करता है। 2-भू संपदा; –

इसका अर्थ है कि इस कला से युक्त व्यक्ति बड़े भू-भाग का स्वामी हो, या किसी बड़े भू-भाग पर आधिपत्य अर्थात राज करने की क्षमता रखता हो। 3-कीर्ति संपदा; –

कीर्ति यानि की ख्याति, प्रसिद्धि अर्थात जो देश दुनिया में प्रसिद्ध हो। लोगों के बीच लोकप्रिय हो और विश्वसनीय माना जाता हो। जन कल्याण कार्यों में पहल करने में हमेशा आगे रहता हो। 4-वाणी सम्मोहन ;–

कुछ लोगों की आवाज में सम्मोहन होता है। लोग न चाहकर भी उनके बोलने के अंदाज की तारीफ करते हैं। ऐसे लोग वाणी कला युक्त होते हैं, इन पर मां सरस्वती की विशेष कृपा होती है। इन्हें सुनकर क्रोध शांत हो जाता है और मन में भक्ति व प्रेम की भावना जागती है। 5-लीला; –

इस कला से युक्त व्यक्ति चमत्कारी होता है और उसके दर्शनों से ही एक अलग आनंद मिलता है। श्री हरि की कृपा से कुछ खास शक्ति इन्हें मिलती हैं जो कभी कभी अनहोनी को होनी और होनी को अनहोनी करने के साक्षात दर्शन करवाते हैं। ऐसे व्यक्ति जीवन को भगवान का दिया प्रसाद समझकर ही उसे ग्रहण करते हैं। 6-कांति; –

कांति वह कला है जिससे चेहरे पर एक अलग नूर पैदा होता है, जिससे देखने मात्र से आप सुध-बुध खोकर उसके हो जाते हैं। यानि उनके रूप सौंदर्य से आप प्रभावित होते हैं और उनकी आभा से हटने का मन ही नहीं लेता है। 7-विद्या; –

विद्या भी एक कला है, जिसके पास विद्या होती है उसमें अनेक गुण अपने आप आ जाते हैं। विद्या से संपन्न व्यक्ति वेदों का ज्ञाता, संगीत व कला का मर्मज्ञ, युद्ध कला में पारंगत, राजनीति व कूटनीति में माहिर होता है। 8-विमला; –

विमल यानि छल-कपट, भेदभाव से रहित निष्पक्ष जिसके मन में किसी भी प्रकार मैल ना हो कोई दोष न हो, जो आचार विचार और व्यवहार से निर्मल हो ऐसे व्यक्तित्व का धनी ही विमला कला युक्त हो सकता है। 9-उत्कर्षिणि शक्ति; –

उत्कर्षिणि का अर्थ है प्रेरित करने क्षमता, जो लोगों को अकर्मण्यता से कर्मण्यता का संदेश दे सकें। जो लोगों को उनका लक्ष्य पाने के लिए प्रोत्साहित कर सके। किसी विशेष लक्ष्य को भेदने के लिये उचित मार्गदर्शन कर उसे वह लक्ष्य हासिल करने के लिये प्रेरित कर सके जिस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने युद्धभूमि में हथियार डाल चुके अर्जुन को गीतोपदेश से प्रेरित किया। 10-नीर-क्षीर विवेक; –

ऐसा ज्ञान रखने वाला व्यक्ति जो अपने ज्ञान से न्यायोचित फैसले लेता है। ऐसा व्यक्ति विवेकशील तो होता ही है साथ ही वह अपने विवेक से लोगों को सही मार्ग सुझाने में भी सक्षम होता है। 11-कर्मण्यता; –

जिस प्रकार उत्कर्षिणी कला युक्त व्यक्ति दूसरों को अकर्मण्यता से कर्मण्यता के मार्ग पर चलने का उपदेश देता है व लोगों को लक्ष्य प्राप्ति के लिये कर्म करने के लिये प्रेरित करता है वहीं इस गुण वाला व्यक्ति सिर्फ उपदेश देने में ही नहीं बल्कि स्वयं भी कर्मठ होता है। इस तरह के व्यक्ति खाली दूसरों को कर्म करने का उपदेश नहीं देते बल्कि स्वयं भी कर्म के सिद्धांत पर ही चलते हैं। 12 -योगशक्ति ;–

योग भी एक कला है। योग का साधारण शब्दों में अर्थ है जोड़ना यहां पर इसका आध्यात्मिक अर्थ आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के लिये भी है। ऐसे व्यक्ति बेहद आकर्षक होते हैं और अपनी इस कला से ही वे दूसरों के मन पर राज करते हैं। 13-विनय; –

इसका अभिप्राय है विनयशीलता यानि जिसे अहं का भाव छूता भी न हो। जिसके पास चाहे कितना ही ज्ञान हो, चाहे वह कितना भी धनवान हो, बलवान हो मगर अहंकार उसके पास न फटके। शालीनता से व्यवहार करने वाला व्यक्ति इस कला में पारंगत हो सकता है। 14-सत्य धारणा ;–

विरले ही होते हैं जो सत्य का मार्ग अपनाते हैं और किसी भी प्रकार की कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्य का दामन नहीं छोड़ते। इस कला से संपन्न व्यक्तियों को सत्यवादी कहा जाता है। लोक कल्याण व सांस्कृतिक उत्थान के लिए ये कटु से कटु सत्य भी सबके सामने रखते हैं। 15-आधिपत्य ;–

आधिपत्य का तात्पर्य जोर जबरदस्ती से किसी पर अपना अधिकार जमाने से नहीं है बल्कि एक ऐसा गुण है जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व ही ऐसा प्रभावशाली होता है कि लोग स्वयं उसका आधिपत्य स्वीकार कर लेते हैं। क्योंकि उन्हें उसके आधिपत्य में सरंक्षण का अहसास व सुरक्षा का विश्वास होता है। 16-अनुग्रह क्षमता; –

जिसमें अनुग्रह की क्षमता होती है वह हमेशा दूसरों के कल्याण में लगा रहता है, परोपकार के कार्यों को करता रहता है। उनके पास जो भी सहायता के लिये पंहुचता वह अपने सामर्थ्यानुसार उक्त व्यक्ति की सहायता भी करते हैं। NOTE;- जिन लोगों में भी ये सभी कलाएं अथवा इस तरह के गुण होते हैं वे ईश्वर की तरह ही होते हैं। हालांकि, किसी इंसान में इन सभी गुणों का एक साथ मिलना असंभव है। ये सभी गुण केवल द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के अवतार रूप में ही मिलते हैं। जिसके कारण यह उन्हें पूर्णावतार और इन सोलह कलाओं का स्वामी कहते हैं। श्रीमद भागवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं ;- ''जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं''। ''जो योगी ज्योतिर्मय अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है।''

1-आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।'' 2-अग्नि का अर्थ है:- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है। 3-ज्योति का अर्थ है:- ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होता जाता है। 4-दिन का अर्थ है:-अहः, दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है। 5-शुक्लपक्ष,उत्तरायण से तात्पर्य है;-16 कला =15 कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला

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शरद पूर्णिमा... कुण्डलिनी शक्ति जागरण की रात्रि;-

04 FACTS;-

1-चंद्रमा की इस ऊर्जा को ग्रहण करने का बहुत महत्व माना गया है।इसलिए शरद पूर्णिमा को सबसे बड़ी पूर्णिमा कहा गया है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कुछ रात्रियों का बहुत महत्व है जैसे नवरात्री ,शिवरात्रि ,पूनम की रात्रि आदि हैं। शरद पूर्णिमा,जन्माष्टमी राधाष्टमी आदि पर्व के दिनों में ध्यान व जप साधना तथा कुण्डलिनी शक्ति जागरण पर जोर दिया जाना चाहिए।

2-कुण्डलिनी शक्ति जागरण विधा अन्धकार को दूर करने का सशक्त माध्यम है। स्यंव को समझने व् दूसरे को पहचानने व् घर परिवार समाज और ब्रहमांड को समझने का मार्ग है ।कुण्डलिनी शक्ति जागरण चारों ओर परम शांति प्रेम और आनंद स्थापना का सच्चा मार्ग है ।परमानन्द प्राप्ति के बाद क्या करना चाहिए यही बताने का ज्ञान है ।अपने शरीर मन बुद्धि व् सब कर्मेन्द्रियों व् ज्ञानेन्द्रियों को विकिसित कर कैसे उनका प्रयोग सम्पूर्णता से सर्जन करने पूर्णता की ओर ले जाने और अपूर्णता के संहार में लगाना है ।

3-कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे आगे बढती है व् अनेक रंग इन्द्रधनुष की तरह से देखने को मिलते हैं । कभी हम बहुत शांत होते हैं कभी संतुष्ट दिखाई देते हैं । कभी हम दूसरों पर हंस रहे होते हैं । कुण्डलिनी जागरण की यात्रा तरह तरह के रंगों से भरी हुई है । इस जीवन में कुछ भी एक सा तो रहता नहीं लेकिन कुण्डलिनी जागरण यात्रा को एकरस कहा गया है ।इस दुनियां में जब हम कुण्डलिनी जागरण की ओर पग बढाते हैं तो मन और माया रुपी शत्रु हमारे मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करते हैं ।इसलिए अनहोनियों से न घबराकर लगन व् निष्ठा पूर्वक हमें अपने मार्ग कीओर अग्रसर रहना चाहिए ।

4-आंखों की रोशनी बढ़ाने के लिए दशहरे से शरद पूर्णिमा तक हर रोज रात में 15 से 20 मिनट तक चंद्रमा को देखकर त्राटक(टकटकी लगाकर देखना) करें।हर किसी को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा की रात में चंद्रमा के सामने रहने की कोशिश करनी चाहिए। रात 10 से 12 बजे तक का समय इसके लिए बेहद उपयोगी बताया गया है।

....SHIVOHAM...

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