top of page

Recent Posts

Archive

Tags

वृन्दावन में सात प्रसिद्ध देवालय( 8 प्रतिमाएं जो स्वयं प्रकट हैं)कौन-कौन से हैं?


विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाने वाले ''चैतन्य महाप्रभु '';-

06 FACTS;- 1-चैतन्य मतलब ज्ञान, महा मतलब महान और प्रभु मतलब भगवान अर्थात “ज्ञान का भगवान”। चैतन्य महाप्रभु भगवान श्री कृष्णा के अवतार भी माने जाते थे और लोग उन्हें श्री कृष्णा का मुख्य भक्त भी कहते थे।जगन्नाथ मिश्रा और उनकी पत्नी साची देवी के दुसरे बेटे के रूप में उनका जन्म हुआ था और वे श्रीहत्ता के ढाका दखिन ग्राम में रहते थे जो वर्तमान बांग्लादेश में आता है। चैतन्य चरिताम्रुता के अनुसार चैतन्य का जन्म पूर्ण चन्द्रमा की रात 18 फरवरी 1486 को चन्द्र ग्रहण के समय में हुआ था। उनके माता-पिता ने उनका नाम विशावंभर रखा था। 2-चैतन्य महाप्रभु वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। 3-उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं।चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को वृंदावन आकर प्रभु भक्ति के रास्ते पर आने को प्रेरित किया था। वृंदावन करीब 500 वर्ष से विधवाओं के आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है। कान्हा के चरणों में जीवन की अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा लेकर देशभर से यहां जो विधवाएं आती हैं, उनमें ज्यादातर करीब 90 % बंगाली हैं।वृंदावन की ओर बंगाली विधवाओं के रुख के पीछे मान्यता यह है कि भक्तिकाल के प्रमुख कवि चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 में पश्चिम बंगाल के नवद्वीप गांव में हुआ था। वे 1515 में वृंदावन आए और उन्होंने अपना शेष जीवन वृंदावन में व्यतीत किया।कहा जाता है चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल की विधवाओं की दयनीय दशा और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए उनके शेष जीवन को प्रभु भक्ति की ओर मोड़ा और इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परंपरा शुरू हो गई।

4-चैतन्य महाप्रभु 1572 विक्रमी में वृंदावन पधारे। वे व्रज की यात्रा करके पुनः श्री जगन्नाथ धाम चले गये परंतु उन्होंने अपने अनुयाई षड् गोस्वामियों को भक्ति के प्रचारार्थ वृंदावन भेजा। ये गोस्वामी गण सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि अपने युग के महान विद्वान, रचनाकार एवं परम भक्त थे।षड्ड्गोस्वामी (छः गोस्वामी) से आशय छः गोस्वामियों से है जो वैष्णव भक्त, कवि एवं धर्मप्रचारक थे। इनका कार्यकाल 15वीं तथा 16वीं शताब्दी था। वृन्दावन उनका कार्यकेन्द्र था। चैतन्य महाप्रभु ने जिस गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की आधारशिला रखी गई थी, उसके संपोषण में उनके षण्गोस्वामियों की अत्यंत अहम् भूमिका रही।इन सभी ने भक्ति आंदोलन को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही वृंदावन के सप्त देवालयों के माध्यम से विश्व में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार किया।

5-इन गोस्वामियों ने वृंदावन में सात प्रसिद्ध देवालयों का निर्माण कराया।महाप्रभु के अन्तकाल का आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। 48 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। मृदंग की ताल पर कीर्तन करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पूरे भारत में पर्याप्त है।अपने समय में सम्भवत: इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। पश्चिम बंगाल में अद्वैताचार्य और नित्यानन्द को तथा मथुरा में रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलांचल (कटक) में चले गए और वहाँ 12 वर्ष तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे। ये छः गोस्वामी थे.... 1-रूप गोस्वामी 2-सनातन गोस्वामी 3-रघुनाथ भट्ट गोस्वामी 4-जीव गोस्वामी 5-गोपाल भट्ट गोस्वामी 6-रघुनाथ दास गोस्वामी 6- श्रीकृष्ण जी की ये 8 प्रतिमाएं जो स्वयं प्रकट हैं .. 1-श्री राधा रमण जी का मन्दिर 2-श्री जुगल किशोर जी मंदिर 3-राधावल्लभ मंदिर

4-बांकेबिहारी जी,मन्दिर 5-गोपी नाथ जी मन्दिर (वर्तमान में जयपुर) 6-श्रीगोविन्ददेवजी(वर्तमान में जयपुर) 7-श्रीमदनमोहनजी(वर्तमान में करौली... राजस्थान )

8-साक्षी गोपाल मन्दिर(वर्तमान में जगन्नाथपुरी...उड़ीसा ) NOTE;-

पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र श्री वज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्य स्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु 4 देव विग्रह तथा 4 देवियों की मूर्तियाँ निर्माणकर स्थापित की थीं अथार्तआठ मूर्तियों का आविष्कार किया था। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे।उन्हें हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया गया था।वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है।उन्होंने महाराज परीक्षित और महर्षि शांडिल्य के साथ ब्रजमंडल की पुन: स्थापना की थी।ब्रजनाभ अनिरुद्ध के पुत्र थे।अनिरुद्ध प्रद्युम्न के पुत्र थे। 1-श्री राधा रमण जी का मन्दिर;- 03 FACTS;- श्री राधा रमण जी का मन्दिर श्री गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है |श्री राधा रमण जी उन वास्तविक विग्रहों में से एक हैं, जो अब भी वृन्दावन में ही स्थापित हैं।अन्य विग्रह जयपुर चले गये थे, पर श्री राधा रमणजी ने कभी वृन्दावन को नहीं छोड़ा।मन्दिर के दक्षिण पार्श्व में श्री राधा रमण जी का प्राकट्य स्थल तथा गोपाल भट्ट गोस्वामीजी का समाधि मन्दिर है । 2-गोपाल भट्ट गोस्वामी को गंडक नदी में एक शालिग्राम मिला। वे उसे वृंदावन ले आए और केशीघाट के पास मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया। एक दिन किसी दर्शनार्थी ने कटाक्ष कर दिया कि चंदन लगाए शालिग्रामजी तो ऐसे लगते हैं मानो कढ़ी में बैगन पड़े हों। यह सुनकर गोस्वामीजी बहुत दुखी हुए पर सुबह होते ही शालिग्राम से राधारमण की दिव्य प्रतिमा प्रकट हो गई। यह दिन वि.सं. 1599 (सन् 1542) की वैशाख पूर्णिमा का था। वर्तमान मंदिर में इनकी प्रतिष्ठापना सं. 1884 में की गई। 3-उल्लेखनीय है कि मुगलिया हमलों के बावजूद यही एक मात्र ऐसी प्रतिमा है, जो वृंदावन से कहीं बाहर नहीं गई। इसे भक्तों ने वृंदावन में ही छुपाकर रखा। इनकी सबसे विशेष बात यह है कि जन्माष्टमी को जहां दुनिया के सभी कृष्ण मंदिरों में रात्रि बारह बजे उत्सव पूजा-अर्चना, आरती होती है, वहीं राधारमणजी का जन्म अभिषेक दोपहर बारह बजे होता है, मान्यता है ठाकुरजी सुकोमल होते हैं उन्हें रात्रि में जगाना ठीक नहीं। गोपालभट्ट जी के द्वारा श्रीराधा रमण जी का प्राकट्य:- 07 FACTS;- 1-एक बार श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी जी अपनी प्रचार यात्रा के समय जब गण्डकी नदी में स्नान कर रहे थे, उसी समय सूर्य को अर्घ देते हुए जब अंजुली में जल लिया तो तो एक अद्भुत शलिग्राम शिला श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी जी की अंजुली में आ गई| 2-जब दुबारा अंजलि में एक-एक कर के बारह शालिग्राम की शिलायेंआ गयीं |जिन्हे लेकर श्री गोस्वामी वृन्दावन धाम आ पहुंचे और यमुना तट पर केशीघाट के निकट भजन कुटी बनाकर श्रद्धा पूर्वक शिलाओं का पूजन- अर्चन करने लगे | 3-एक बार वृंदावन यात्रा करते हुए एक सेठ जी ने वृंदावनस्थ समस्त श्री विग्रहों के लिए अनेक प्रकार के बहुमूल्य वस्त्र आभूषण आदि भेट किये|श्री गोपाल भट्ट जी को भी उसने वस्त्र आभूषण दिए| 4-परन्तु श्री शालग्राम जी को कैसे वे धारण कराते श्री गोस्वामी के हृदय में भाव प्रकट हुआ कि अगर मेरे आराध्य के भी अन्य श्रीविग्रहों की भांति हस्त-पद होते तो मैं भी इनको विविध प्रकार से सजाता एवं विभिन्न प्रकार की पोशाक धारण कराता, और इन्हें झूले पर झूलता | 5-यह विचार करते-करते श्री गोस्वामी जी को सारी रात नींद नहीं आई|प्रात: काल जब वह उठे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्होंने देखा कि श्री शालिग्राम जी त्रिभंग ललित द्विभुज मुरलीधर श्याम रूप में विराजमान हैं । 6-श्री गोस्वामी ने भावविभोर होकर वस्त्रालंकार विभूषित कर अपने आराध्य का अनूठा श्रृंगार किया|श्री रूप सनातन आदि गुरुजनों को बुलाया और राधारमणजी का प्राकटय महोत्सव श्रद्धापूर्वक आयोजित किया गया|यही श्री राधारमण जी का विग्रह आज भी श्री राधारमण मंदिर में गोस्वामी समाज द्वारा सेवित है |और इन्ही के साथ गोपाल भट्ट जी के द्वारा सेवित अन्य शालिग्राम शिलाएं भी मन्दिर में स्थापित हैं । 7-राधारमण जी का श्री विग्रह वैसे तो सिर्फ द्वादश अंगुल का है, तब भी इनके दर्शन बड़े ही मनोहारी है |श्रीराधारमण विग्रह का श्री मुखारविन्द “गोविन्द देव जी” के समान|वक्षस्थल “श्री गोपीनाथ” के समान|तथा चरणकमल “मदनमोहन जी” के समान हैं | इनके दर्शनों से तीनों विग्रहों के दर्शन का फल एक साथ प्राप्त होता है | ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 2-श्री जुगल किशोर जी मंदिर;- 1-जुगलकिशोर जी का मन्दिर वृन्दावन नगर में स्थित एक वैष्णव संप्रदाय का मन्दिर है। यह मन्दिर गोविन्ददेव, मदनमोहन और गोपीनाथ मन्दिर की ही शृंखला में यह चौथा है।श्री जुगल किशोर जी मंदिर में खास तरीके से होली मनाई जाती है, जिसमें भगवान कृष्ण अपना रूप बदलकर राधा के स्वरूप में अपने श्रद्धालुओं को दर्शन देते हैं। साल में एक बार आने वाले इस अवसर पर भगवान कृष्ण राधा जी का रूप धारण कर लेते हैं और राधा जी भी रूप बदलते हुए भगवान कृष्ण बन जाती हैं।इस अनोखी और प्राचीन परंपरा में भगवान कृष्ण के इस रूप को सखी दर्शन के रूप में जाना जाता है। इस परंपरा के पीछे भी एक मान्यता चली आ रही है कि भगवान श्री कृष्ण मथुरा वृंदावन में जब गुलाल लेकर होली खेलने जाते हैं तो राधा जी उन्हें सखी बना देती हैं और खुद भगवान कृष्ण का रूप ले लेती हैं। जिसके बाद दोनों मिलकर होली खेलते हैं।इसी मान्यता के आधार पर रूप बदलने की ये परंपरा आज तक चली आ रही है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 3-राधावल्लभ मंदिर;- 02 FACTS;- 1-राधावल्लभ मंदिर में स्थापित इस अनोखे विग्रह में राधा और कृष्ण एक ही नजर आते हैं। इसमें आधे हिस्से में श्री राधा और आधे में श्री कृष्ण दिखाई देते हैं। माना जाता है कि जो भी सारे पाप कर्मों को त्याग कर निष्कपट होकर सच्चे मन के साथ मंदिर में प्रवेश करता है सिर्फ उस पर ही भगवान प्रसन्न होते हैं और उनके दुर्लभ दर्शन उनके लिये सुलभ हो जाते हैं।लेकिन जिनके हृद्य में प्रेम और भक्ति की भावना नहीं होती वे लाख यत्न करने पर भी दर्शन नहीं कर पाते। इसी कारण इनके दर्शन को लेकर श्रद्धालुओं में भजन-कीर्तन, सेवा-पूजा करने का उत्साह रहता है। सभी जल्द से जल्द भगवान श्री राधावल्लभ को प्रसन्न कर मनोकामनाओं को पूर्ण करने का आशीर्वाद चाहते हैं।इस मंदिर की कहानी पुराणों में भी मिलती है। माना जाता है कि भगवान विष्णु के एक उपासक होते थे जिनका नाम आत्मदेव था। वे एक ब्राह्मण थे। एक बार उन्हें भगवान शिव के दर्शन पाने की इच्छा हुई फिर क्या था वे भगवान शिव का कठोर तप करने लगे ।अब भगवान भोलेनाथ ठहरे बहुत ही सरल, आत्मदेव के कठोर तप को देखकर वे प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा। 2- ब्राह्मण आत्मदेव को तो बस दर्शन की भगवान शिव के दर्शनों की अभिलाषा थी जो कि पूरी हो चुकी थी लेकिन भगवान शिव ने वरदान मांगने की भी कही है तो उन्होंने उसे भगवान शिव पर ही छोड़ दिया और कहा कि भगवन जो आपके हृद्य को सबसे प्रिय हो यानि जो आपको अच्छा लगता हो वही दे दीजिये। तब भगवान शिव ने इस राधावल्लभलाल को प्रकट किया साथ ही इसकी पूजा व सेवा करने की विधि भी बताई।कई वर्षों तक आत्मदेव इस विग्रह को पूजते रहे बाद में महाप्रभु हरिवंश प्रभु इच्छा से इस विग्रह को वृंदावन लेकर आये और उन्हें स्थापित कर राधावल्लभ मंदिर की नीवं रखी। मदनटेर जिसे आम बोल-चाल में ऊंची ठौर कहा जाता है वहां पर लताओं का मंदिर बनाकर इन्हें विराजित किया। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

4- बांके बिहारी जी,मन्दिर ;-

03 FACTS;- 1-मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को स्वामी हरिदासजी की आराधना को साकार रूप देने के लिए बांके बिहारी जी की प्रतिमा निधिवन मे प्रकट हुई। स्वामी जी ने उस प्रतिमा को वही प्रतिष्ठित कर दिया।मुगलिया आक्रमण के समय भक्त इन्हे भरतपुर (राजस्थान ) ले गए।वृंदावन मे भरतपुर वाला बगीचा नाम के स्थान पर वि. सं 1921 मे मंदिर निर्माण होने पर बांके बिहारी जी एक बार फिर वृंदावन मे प्रतिष्ठित हुए, तब से बिहारीजी यही दर्शन दे रहे है।बिहारी जी की प्रमुख विषेशता यह है कि यह साल मे केवल एक दिन (जन्माष्टमी के बाद भोर मे)मंगला आरती होती है। इस मन्दिर में श्रीकृष्ण के साथ श्रीराधिका विग्रह की स्थापना नहीं हुई।युगल किशोर सरकार की मूर्ति मे राधा कृष्ण की संयुक्त छवि के कारण अलौकिक प्रकाश की अनुभूति होती है। वैशाख मास की अक्षय तृतीया के दिन श्रीबाँकेबिहारी के श्रीचरणों का दर्शन होता है।एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे। रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में पधराया। 2-इसलिए बिहारी जी के झाँकी दर्शन की व्यवस्था की गई ताकि कोई उनसे नजर न लड़ा सके। यहाँ एक विलक्षण बात यह है कि यहाँ मंगल आरती नहीं होती। यहाँ के गोसाईयों का कहना हे कि ठाकुरजी नित्य-रात्रि में रास में थककर भोर में शयन करते हैं। उस समय इन्हें जगाना उचित नहीं है।

2-श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे। उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजपुर नामक गाँव में हूआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधाजी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे है। हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे। किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे।

जब ये 25 वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्तावेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गये। निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था। तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को धरा को गोद से बाहर निकाला गया। यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई । यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था ;अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में मनाते है। 5-गोपी नाथ जी मन्दिर;- गोपी नाथ जी मन्दिर वृंदावन में स्थित एक वैष्णव संप्रदाय का मंदिर है। इसकी निर्माण तिथि अज्ञात है। इसका मूल निर्माण कछवाहा ठाकुरों की शेखावत शाखा के संस्थापक के पौत्र रायसिल ने करवाया था। बाद में 1821 में नन्दकुमार घोष नामक एक बंगाली कायस्थ ने नया मन्दिर बनवाया। इस मंदिर की निर्माण शैली मदनमोहन मन्दिर से शिल्प में मिलती जुलती है। श्रीकृष्ण की यह मूर्ति संत परमानंद भट्ट को यमुना किनारे वंशीवट पर मिली और उन्होंने इस प्रतिमा को निधिवन के पास विराजमान कर मधु गोस्वामी को इनकी सेवा पूजा सौंपी। बाद में रायसल राजपूतों ने यहां मंदिर बनवाया पर औरंगजेब के आक्रमण के दौरान इस प्रतिमा को भी जयपुर ले जाया गया, तब से गोपीनाथजी वहां पुरानी बस्ती स्थित गोपीनाथ मंदिर में विराजमान हैं। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 6-गोविंदजी मन्दिर;- रूप गोस्वामी को श्रीकृष्ण की यह मूर्ति वृंदावन के गौमा टीला नामक स्थान से वि. सं. 1592 (सन् 1535) में मिली थी। उन्होंने उसी स्थान पर छोटी सी कुटिया इस मूर्ति को स्थापित किया। इनके बाद रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ने गोविंदजी की सेवा पूजा संभाली, उन्हीं के समय में आमेर नरेश मानसिंह ने गोविंदजी का भव्य मंदिर बनवाया। इस मंदिर में गोविंद जी 80 साल विराजे। औरंगजेब के शासनकाल में ब्रज पर हुए हमले के समय गोविंदजी को उनके भक्त जयपुर ले गए, तब से गोविंदजी जयपुर के राजकीय (महल) मंदिर में विराजमान हैं। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 7-मदनमोहनजी मन्दिर;- 02 FACTS;- 1--यह मूर्ति अद्वैतप्रभु को वृंदावन में कालीदह के पास द्वादशादित्य टीले से प्राप्त हुई थी। उन्होंने सेवा-पूजा के लिए यह मूर्ति मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप दी और चतुर्वेदी परिवार से मांगकर सनातन गोस्वामी ने वि.सं. 1590 (सन् 1533) में फिर से वृंदावन के उसी टीले पर स्थापित की।बाद में क्रमश: मुलतान के नमक व्यापारी रामदास कपूर और उड़ीसा के राजा ने यहां मदनमोहनजी का विशाल मंदिर बनवाया। मुगलिया आक्रमण के समय इन्हें भी भक्त जयपुर ले गए पर कालांतर में करौली के राजा गोपालसिंह ने अपने राजमहल के पास बड़ा सा मंदिर बनवाकर मदनमोहनजी की मूर्ति को स्थापित किया। तब से मदनमोहनजी करौली (राजस्थान) में ही दर्शन दे रहे हैं। 2-भगवान के अनेक नामों में से एक प्रिय नाम मदनमोहन भी है। इसी नाम से एक मंदिर कालीदह घाट के समीप शहर के दूसरी ओर ऊँचे टीले पर विद्यमान है। विशालकायिक नाग के फन पर भगवान चरणाघात कर रहे हैं। गोस्वामीपाद रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को गोविन्द जी की मूर्ति नन्दगाँव से प्राप्त हुई थी। यहाँ एक गोखिरख में से खोदकर इसे निकाला गया था, इससे इसका नाम गोविन्द हुआ। वहाँ से लाकर गोविन्द जी को ब्रहृकुण्ड के वर्तमान मंदिर की जगह पर पधराया गया।वृन्दावन उन दिनों बसा हुआ नहीं था। वे समीपवर्ती गाँवों में तथा मथुरा भी भिक्षाटन हेतु जाते थे। एक दिन मथुरा के एक व्यक्ति ने उन्हें मदनमोहन की मूर्ति प्रदान की जिसे उन्होंने लाकर दु:शासन पहाड़ी पर कालीदह के पास पधार दिया। वहीं उन्होंने अपने रहने के लिये एक झोंपड़ी भी बना ली और उस जगह का नाम पशुकन्दन घाट रख दिया। मदन मोहन मंदिर जी की कहानी :- 03 FACTS;- 1-श्रीकृष्ण दास कपूर नामित एक धनी व्यापारी था। और व्यापार के लिए मथुरा आए थे। मथुरा आते समय उसकी नाव यमुना में एक रेत मे फंस गयी और फिर उसको कुछ समझ नहीं आ रह था कि वह उसे बाहर कैसे निकाले। उसी वक़्त एक छोटा बच्चा उनके पास आया और कहा यंहा ऊचे टीले पर एक बहुत सिद्ध महापुरुष एक भगवान का भक्त रहता है। उनका नाम श्री सनातन गोस्वामी है।उनके पास जाये वो आपकी मदद जरूर करेंगे बस इतना कहना था। और वो व्यापारी उनके पास पहुंच गया। साधु का आशीर्वाद लेने के लिए, कृष्ण दास कपूर उनके आश्रम में आए और सनातन गोस्वामी मिल गए।सनातन गोस्वामी का शरीर बहुत तपस्या के अभ्यास से बहुत पतला हो गया था कृष्ण दास ने अपने दंडवत्ओं की पेशकश की और सनातन गोस्वामी ने बदले में उसे बैठने के लिए एक घास की चटाई की पेशकश की। 2-कृष्ण दास ने अपने हाथ से चटाई को छुआ और जमीन पर बैठे। उन्होंने गोस्वामी से जी से कहा की, “बाबा, कृपया मुझपे कृपा कर दे।” सनातन ने उत्तर दिया, “मैं एक भगवन का दास हूं। मैं आप पर दया कैसे करूं?”“मैं बस आपके आशीर्वाद चाहता हूं। मेरी नाव यमुना में रेत में फंस गई है, और हम इसे नहीं निकल पा रहे ।”“मैं इन सभी मामलों के बारे में पूरी तरह से अनजान हूँ आप इसके बारे में मदन गोपाला से बात कर सकते हैं।” उनसे कहिये वो आपकी जरूर सुनेगे। कृष्ण दास ने मदन मोहनजी को अपने दंडवत्ओं की पेशकश की और उनसे बात की, “हे मदन गोपाल देवा! अगर आपकी दया से मेरी नाव मुक्त हो जाती है, तो इसके माल की बिक्री से जो लाभ होता है, मैं इस गोस्वामी को दे, आपकी सेवा में समर्पित कर दूंगा । ” इस तरह से प्रार्थना करते हुए, कपूर सेठ ने सनातन गोस्वामी से आज्ञा ले ली।उस वक़्त दोपहर का समय था। अचानक बारिश वो भी इतनी मूसलधार बारिश हुई कि नाव बहुत आसानी से रेत की पट्टी से अलग हो गयी और वो मथुरा के लिए निकल गए । 3-कृष्ण दास समझ गए कि यह भगवान मदन गोपाला देव की दया से हुआ है उनके सामान बहुत ही अच्छे लाभ से बेचे गए थे। और इस पैसे के साथ उन्होंने एक मंदिर और रसोईघर का निर्माण किया और श्री मदन गोपाल की पूजा के शाही निष्पादन के लिए सभी आवश्यक व्यवस्था की। इस व्यवस्था को देखकर, सनातन गोस्वामी बहुत खुश हुए और कुछ अवधि के बाद कृष्ण दास कपूर को उनके शिष्य के रूप में स्वीकार किया।सनातन गोस्वामी की आज्ञा से उन्होंने मंदिर का निर्माण किया और सनातन गोस्वामी जी के मदन गोपाल के उस विग्रह को श्री मदन मोहन मंदिर में स्थापित कर दिया।और फिर इस विग्रह को करौली राजस्थान में ले गया सुरक्षा की कमी के कारण मदनमोहन जी की मूल मूर्ति अब करौली में है।आज जो हम मंदिर देखते है वो मदन मोहन श्री कृष्णा भगवान की है जो अपनी राधा रानी और ललिता सखी के संग विराजमान है। जिनकी छवि बहुत ही अद्भुत है जिसको देखने के लिए देश विदेश से लोग आते है और भक्ति की यमुना में गोते खाते है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

8-साक्षी गोपाल मन्दिर ;-

वृंदावन में श्री गोविंद मंदिर के पश्चिम में साक्षीगोपाल मन्दिर का भग्नावशेष अवशिष्ट है।प्राचीन गोपाल जी साक्षी देने के लिए विद्यानगर चले गये थे।वहाँ पर पधारकर श्री गोपाल जी ने जनसमाज में यह साक्षी दी थी कि ‘बड़े विप्र ने छोटे विप्र की सेवा से प्रसन्न होकर उससे अपनी बेटी का विवाह करने का वचन दिया था। मैं इसका साक्षी हूँ।’कालान्तर में यह विग्रह श्री जगन्नाथ पुरी में पधारे तथा वहाँ से बारह मील दूर ‘सत्यवादीपुर’ में अब विराजमान हैं।अब सत्यवादीपुर का नाम साक्षीगोपाल ही प्रसिद्ध है।तभी से वृंदावन में साक्षीगोपाल का मन्दिर सूनी अवस्था में पड़ा है।तथा अब उसका भग्नावशेष ही अवशिष्ट है।वह स्थान जहां साक्षात भगवान ने अपनी गवाही दी थी, साक्षीगोपाल के नाम से जाना जाता है।कहते हैं कि एक बार भक्त की गवाही देने के लिए भगवान गोपाल जी वृंदावन से उड़ीसा के फुलअलसा आए थे।फुलअलसा में स्थित हुए गोपाल जी के विग्रह को कटक के राजा पुरी ले आए और यही पर साक्षी गोपाल जी को स्थापित कर दिया।

लेकिन इसके बाद से ऐसा होने लगा कि जगन्नाथ जी को जाने वाला भोग गोपाल जी पहले ही भोग लगा लेते थे। जगन्नाथ जी ने एक रात राजा को सपने में यह बात बताई तो राजा ने साक्षी गोपाल जी को पुरी से 16 किलोमीटर दूर ले जाकर एक मंदिर में स्थापित कर दिया। इसके बाद हुई अजब घटना हुई।पुरी से दूर जाने पर गोपाल जी राधा से भी दूर हो गए। राधा जी का मन भी गोपाल जी के बिना नहीं लग रहा था।इसलिए साक्षी गोपाल मंदिर के पुजारी की कन्या के रुप में राधा जी ने जन्म लिया। इस कन्या का नाम पुजारी जी ने लक्ष्मी रखा। जब यह कन्या कुछ बड़ी हुई तो अजब सी लीलाएं होने लगी।कभी गोपाल जी के मंदिर को सुबह खोलने पर लक्ष्मी के वस्त्र आभूषण मिलते तो कभी लक्ष्मी के कमरे से गोपाल जी की मालाएं मिलती। यह बात जब कटक के राजा के पास पहुंची तो पंडितों की सलाह पर गोपाल जी के पास राधा की मूर्ति स्थापित करने का विचार किया गया।मूर्ति के स्थापित होते ही लक्ष्मी ने प्राण त्याग दिए और राधा की मूर्ति में लक्ष्मी की आत्मा समा गई। लोगों ने देखा कि राधा की मूर्ति की सूरत बदल गई है वह बिल्कुल पुजारी जी की कन्या लक्ष्मी जैसी दिख रही है।

...राधे राधे...



Single post: Blog_Single_Post_Widget
bottom of page