परिक्रमा का क्या महत्व है?गोवर्धन परिक्रमा से क्या अभिप्राय है?"ब्रज चौरासी कोस यात्रा" का
परिक्रमा का बड़ा महत्त्व;- 03 FACTS;- 1-हिन्दू धर्म में परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि सामान्य स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसकी बाहिनी तरफ से घूमना। इसको 'प्रदक्षिणा करना' भी कहते हैं, जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है।
2-प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। वैदिक काल से ही इससे व्यक्ति, देवमूर्ति, पवित्र स्थानों को प्रभावित करने या सम्मान प्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। काबा में भी परिक्रमा की जाती है तो बोधगया में भी। आपको पता होगा कि भगवान गणेश और कार्तिकेय ने भी परिक्रमा की थी। यह प्रचलन वहीं से शुरू हुआ है।अक्सर यह यात्राएं नवंबर माह के मध्य में प्रारंभ होती है। 3-परिक्रमा मार्ग और दिशा : 'प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से प्राय: जाना जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है। गोवर्धन परिक्रमा :- 03 FACTS;- 1-गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली पर उठा लिया था। श्रीगोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है। 2-पौराणिक मान्यता अनुसार श्रीगिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए। 3-क्यों उठाया गोवर्धन पर्वत ... इस पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली से उठा लिया था। कारण यह था कि मथुरा, गोकुल, वृंदावन आदि के लोगों को वह अति जलवृष्टि से बचाना चाहते थे। नगरवासियों ने इस पर्वत के नीचे इकठ्ठा होकर अपनी जान बचाई। अति जलवृष्टि इंद्र ने कराई थी। लोग इंद्र से डरते थे और डर के मारे सभी इंद्र की पूजा करते थे, तो कृष्ण ने कहा था कि आप डरना छोड़ दे...मैं हूं ना। गोवर्धन परिक्रमा का महत्व :- 11 FACTS;- 1-सभी हिंदूजनों के लिए इस पर्वत की परिक्रमा का महत्व है। वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णवमार्गी लोग तो इसकी परिक्रमा अवश्य ही करते हैं क्योंकि वल्लभ संप्रदाय में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की आराधना की जाती है जिसमें उन्होंने बाएं हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायां हाथ कमर पर है। 2-इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं। यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है। 3-परिक्रमा मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं। गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिह्न हैं। 4-परिक्रमा की शुरुआत वैष्णवजन जातिपुरा से और सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वहीं पहुंच जाते हैं। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहां आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहां परिक्रमा करने आए हैं। यह अर्जी लगाने जैसा है। पूंछरी का लौठा क्षेत्र राजस्थान में आता है। 5-वैष्णवजन मानते हैं कि गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है। कहते हैं कि भगवान कृष्ण यहां शयन करते हैं। उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है। यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा तक जाती है। 6-गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्व है। प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहां की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा पर यहां की परिक्रमा लगाने का विशेष महत्व है। श्रीगिरिराज पर्वत की तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधाना स्थली रही है। 7-अब बात करते हैं पर्वत की स्थिति की। क्या सचमुच ही पिछले पांच हजार वर्ष से यह स्वत: ही रोज एक मुठ्ठी खत्म हो रहा है या कि शहरीकरण और मौसम की मार ने इसे लगभग खत्म कर दिया। आज यह कछुए की पीठ जैसा भर रह गया है। 8-हालांकि स्थानीय सरकार ने इसके चारों और तारबंदी कर रखी है फिर भी 21 किलोमीटर के अंडाकार इस पर्वत को देखने पर ऐसा लगता है कि मानो बड़े-बड़े पत्थरों के बीच भूरी मिट्टी और कुछ घास जबरन भर दी गई हो। छोटी-मोटी झाड़ियां भी दिखाई देती है। 9-पर्वत को चारों तरफ से गोवर्धन शहर और कुछ गांवों ने घेर रखा है। गौर से देखने पर पता चलता है कि पूरा शहर ही पर्वत पर बसा है, जिसमें दो हिस्से छूट गए है उसे ही गिर्राज (गिरिराज) पर्वत कहा जाता है। इसके पहले हिस्से में जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, पूंछरी का लौठा प्रमुख स्थान है तो दूसरे हिस्से में राधाकुंड, गोविंद कुंड और मानसी गंगा प्रमुख स्थान है। 10-बीच में शहर की मुख्य सड़क है उस सड़क पर एक भव्य मंदिर हैं, उस मंदिर में पर्वत की सिल्ला के दर्शन करने के बाद मंदिर के सामने के रास्ते से यात्रा प्रारंभ होती है और पुन: उसी मंदिर के पास आकर उसके पास पीछे के रास्ते से जाकर मानसी गंगा पर यात्रा समाप्त होती है। 11-मानव जीवन में जल का विशेष महत्व होता है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है।नर्मदाजी वैराग्य की अधिष्ठात्री मूर्तिमान स्वरूप है। गंगाजी ज्ञान की, यमुनाजी भक्ति की, ब्रह्मपुत्रा तेज की, गोदावरी ऐश्वर्य की, कृष्णा कामना की और सरस्वतीजी विवेक के प्रतिष्ठान के लिए संसार में आई हैं। सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है व श्रद्धा से पूजन करता है।मानसी गंगा के थोड़ा आगे चलो तो फिर से शहर की वही मुख्य सड़क दिखाई देती है। ब्रज परिक्रमा;- 04 FACTS;- 1-ब्रज परिक्रमा को ही चौरासी कोस की परिक्रमा कहते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि इस परिक्रमा के करने वालों को एक-एक कदम पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। साथ ही जो व्यक्ति इस परिक्रमा को लगाता है, उस व्यक्ति को निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। 2-यह परिक्रमा पुष्टि मार्गीयवैष्णवों के द्वारा मथुरा के विश्राम घाट से एवं अन्य संप्रदायों के द्वारा वृंदावन में यमुना पूजन से शुरू होती है। ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा लगभग 268 किलोमीटर अर्थात् 168 मील की होती है। इसकी समयावधि 20 से 45 दिन की है। परिक्रमा के दौरान तीर्थयात्री भजन गाते, संकीर्तन करते और ब्रज के प्रमुख मंदिरों व दर्शनीय स्थलों के दर्शन करते हुए समूचे ब्रज की बडी ही श्रद्धा के साथ परिक्रमा करते हैं। 3-कुछ परिक्रमा शुल्क लेकर, कुछ नि:शुल्क निकाली जाती हैं। एक दिन में लगभग 10-12 किलोमीटर की पैदल यात्रा की जाती है। परिक्रमार्थियों के भोजन व जलपान आदि की व्यवस्था परिक्रमा के साथ चलने वाले रसोडों में रहती है। परिक्रमा के कुल जमा 25 पड़ाव होते हैं। 4-इस यात्रा को पैदल ही करने का महत्व है। परिक्रमा मार्ग में राधा-कृष्ण लीला स्थली, नैसर्गिक छटा से ओत-प्रोत वन-उपवन, कुंज-निकुंज, कुण्ड-सरोवर, मंदिर-देवालय आदि के दर्शन होते हैं। वेद-पुराणों में ब्रज की 84 कोस की परिक्रमा का महत्व है; - ब्रज परिक्रमा का महत्व;- 13 FACTS;- 1-एक बार नन्दबाबा और यशोदा मैया ने सभी तीर्थ स्थलों के दर्शन- यात्रा पर जाने की इच्छा प्रकट की। तो श्री कृष्ण जी ने उनसे कहा, "मैया, मैं सारे तीर्थों को ब्रज में ही बुला लेता हूँ। तुम ब्रज में ही सभी तीर्थ- स्थलों की दर्शन-यात्रा कर लेना। अतः समस्त तीर्थ ठाकुर जी की आज्ञानुसार ब्रज में निवास करने लगे। 2-ऐसा माना गया है कि ब्रज-धाम की परिक्रमा- यात्रा सर्वप्रथम चतुर्मुख ब्रह्मा जी ने की थी। वत्स हरण के पश्चात् उनके अपराध की शान्ति के लिये स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा करने का आदेश दिया था।तभी से ब्रज यात्रा का सूत्रपात हुआ। 3-श्री कृष्ण जी के प्रपौत्र श्री वज्रनाभजी द्वारा भी ब्रज यात्रा की गयी थी। कालांतर में परम रसिक संत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदासजी, श्री हरिवंश जी, श्रीवल्लभाचार्य जी, श्री हरिराम व्यास जी, श्री चैतन्य महाप्रभु जी आदि अनेक वैष्णव एवं गौड़ीय सम्प्रदाय आचार्यों द्वारा ब्रज यात्रा का सुत्र पात हुआ जिसे आज भी लाखों भक्त प्रतिवर्ष करते हैं।ब्रज चौरासी कोस की यात्रा करने से मनुष्य को चौरासी लाख योनियों से छुटकारा मिल जाता है। 4-ब्रज शब्द का अर्थ एवं क्षेत्र सत्य, रज, तम इन तीनों गुणोंसे अतीत जो पराब्रह्म है, वही व्यापक है।इसीलिए उसे ही ब्रज कहते हैं।यह सच्चिदानन्द स्वरूप परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है।वेदों में भी ब्रज शब्द का प्रयोग हुआ है। "व्रजन्ति गावो यस्मिन्नति ब्रज:" अर्थात् गौचारण की स्थली ही ब्रज कहलाती है। 5-हरिवंश पुराणानुसार मथुरा के आस- पास की स्थली को ब्रज की संज्ञा दी गयी है। अष्टछाप के कवियों ने ब्रज शब्द को गोचारण, गोपालन तथा गौ और ग्वालों के विहार स्थल के रूप में वर्णित किया है।ब्रज में उत्तर प्रदेश का मथुरा जिला, राजस्थान के भरतपुर जिले की डीग और कामां तहसील एवं हरियाणा के फ़रीदाबाद जिले की होडल तहसील आती है। 6-ब्रज की महिमा हमारे देश की पवित्र भूमि ब्रज का स्मरण करते ही हृदय प्रेम रस से सराबोर हो जाता है, एवं श्री कृष्ण के बाल रूप की छवि मन- मस्तिष्क पर अंकित होने लगती है।ये ब्रज की महिमा है की सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। 7-ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है क्योंकि इसकी महिमा गाते गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते।भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं।ब्रज में तो विश्व के पालनकर्ता माखनचोर बन गये। 8-इस सम्पूर्ण जगत के स्वामी को ब्रज में गोपियों से दधि का दान लेना पड़ा। जहाँ सभी देव, ऋषि मुनि,ब्रह्मा, शंकर आदि श्री कृष्ण की कृपा पाने हेतुवेद-मंत्रों से स्तुति करते हैं, वहीं ब्रजगोपियों की तो गाली सुनकर ही कृष्ण उनके ऊपर अपनी अनमोल कृपा बरसा देते हैं।वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी ,ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। 9-श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं- भगवान्! मुझे इस धरातल पर विशेषतः गोकुल में किसी साधारण जीव की योनि मिल जाय, जिससे मैं वहाँ की चरण-रज से अपने मस्तक को अभिषिक्त करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ।भगवान शंकर जी को भी यहाँ गोपी बनना पड़ा - "नारायण ब्रजभूमि को, को न नवावै माथ, जहाँ आप गोपी भये श्री गोपेश्वर नाथ। 10-बृज की ऐसी विलक्षण महिमा है कि स्वयं मुक्ति भी इसकी आकांक्षा करती है - ''मुक्ति कहै गोपाल सौ मेरिमुक्ति बताय। ब्रज रज उड़ि मस्तक लगै मुक्ति मुक्त हो जाय॥'' 11-वराह पुराण कहता है कि पृथ्वी पर 66 अरब तीर्थ हैं और वे सभी चातुर्मास में ब्रज में आकर निवास करते हैं। यही वजह है कि ब्रज यात्रा करने वाले इन दिनों यहाँ खिंचे चले आते हैं। हज़ारों श्रद्धालु ब्रज के वनों में डेरा डाले रहते हैं। ब्रजभूमि की यह पौराणिक यात्रा हज़ारों साल पुरानी है। चालीस दिन में पूरी होने वाली ब्रज चौरासी कोस यात्रा का उल्लेख वेद-पुराण व श्रुति ग्रंथ संहिता में भी है। 12-कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं से ही नहीं, सतयुग में भक्त ध्रुव ने भी यहीं आकर नारद जी से गुरु मन्त्र ले अखंड तपस्या की व ब्रज की परिक्रमा की थी।त्रेता युग में प्रभु राम के लघु भ्राता शत्रुघ्न ने मधु पुत्र लवणासुर को मारकर ब्रज परिक्रमा की थी। गली बारी स्थित शत्रुघ्न मंदिर यात्रा मार्ग में अति महत्त्व का माना जाता है। द्वापर युग में उद्धव ने गोपियों के साथ ब्रज परिक्रमा की। कलियुग में जैन और बौद्ध धर्मों के स्तूप चैत्य, संघाराम आदि स्थल इस परियात्रा की पुष्टि करते हैं। 13-14वीं शताब्दी में जैन धर्माचार्य जिन प्रभु शूरी की ब्रज यात्रा का उल्लेख आता है। 15वीं शताब्दी में माध्व सम्प्रदाय के आचार्य मघवेंद्र पुरी महाराज की यात्रा का वर्णन है तो 16वीं शताब्दी में महाप्रभु वल्लभाचार्य, गोस्वामी विट्ठलनाथ, चैतन्य मत केसरी चैतन्य महाप्रभु, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, नारायण भट्ट, निम्बार्क संप्रदाय के चतुरानागा आदि ने ब्रज यात्रा की थी। कब होती है यात्रा :- 03 FACTS;- 1-ज्यादातर यात्राएं चैत्र, बैसाख मास में ही होती है चतुर्मास या पुरुषोत्तम मास में नहीं। कुछ विद्वान मानते हैं कि परिक्रमा यात्रा साल में एक बार चैत्र पूर्णिमा से बैसाख पूर्णिमा तक ही निकाली जाती है। 2-कुछ लोग आश्विन माह में विजया दशमी के पश्चात शरद् काल में परिक्रमा आरम्भ करते हैं। शैव और वैष्णवों में परिक्रमा के अलग-अलग समय है। संतों में इस यात्रा को लेकर मतभेद हैं। 3-क्यों करते हैं यात्रा :- माना जाता है कि 84 कोस की यात्रा 84 लाख योनियों से छुटकारा पाने के लिए है। हमारा शरीर भी चौरासी अंगुल की माप का है। 84 कोस की यात्रा के धार्मिक महत्व के अलावा इसका सामाजिक महत्व भी है। ब्रज चौरासी कोस की परिकम्मा एक देत । लख चौरासी योनि के संकट हरिहर लेत ॥ ब्रज चौरासी कोस यात्रा का परिक्रमा मार्ग;- चालीस दिन में पूरी होने वाली ब्रज चौरासी कोस यात्रा का परिक्रमा मार्ग इसी यात्रा में मथुरा की अंतरग्रही परिक्रमा भी शामिल है।मथुरा से चलकर यात्रा सबसे पहले भक्तध्रुव की तपोस्थली 1. मधुवन पहुँचती है। यहाँ से 2. तालवन , 3. कुमुदवन , 4. शांतनु कुण्ड 5. सतोहा , 6. बहुलावन , 7. राधा-कृष्ण कुण्ड , 8. गोवर्धन 9. काम्यक वन , 10. संच्दर सरोवर, 11. जतीपुरा , 12. डीग का लक्ष्मण मंदिर 13. साक्षी गोपाल मंदिर 14. जल महल , 15. कमोद वन , 16. चरन पहाड़ी कुण्ड , 17. काम्यवन , 18. बरसाना , 19. नंदगांव , 20. जावट, 21. कोकिलावन , 22. कोसी , 23. शेरगढ , 24. चीर घाट, 25. नौहझील , 26. श्री भद्रवन , 27. भांडीरवन , 28. बेलवन , 29. राया वन, 30. गोपाल कुण्ड , 31. कबीर कुण्ड , 32. भोयी कुण्ड , 33. ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर, 34. दाऊजी, 35. महावन , 36. ब्रह्मांड घाट, 37. चिंताहरण महादेव , 38. गोकुल , 39. लोहवन, 40. वृन्दावन का मार्ग में तमाम पौराणिक स्थल हैं। चौरासी कोस यात्रा में दर्शनीय स्थल;- 02 FACTS;- 1-ब्रज चौरासी कोस यात्रा में दर्शनीय स्थलों की भरमार है। पुराणों के अनुसार उनकी उपस्थिति अब कहीं-कहीं रह गयी है। प्राचीन उल्लेख के अनुसार यात्रा मार्ग में 12 वन 24 उपवन चार कुंज चार निकुंज चार वनखंडी चार ओखर ,चार पोखर ,365 कुण्ड ,चार सरोवर, दस कूप, चार बावरी ,चार तट, चार वट वृक्ष ,पांच पहाड़, चार झूला, 33 स्थल रासलीला के तो हैं हीं, इनके अलावा कृष्ण कालीन अन्य स्थल भी हैं। 2-चौरासी कोस यात्रा मार्ग मथुरा में ही नहीं, अलीगढ़, भरतपुर, गुड़गांव, फ़रीदाबाद की सीमा तक में पड़ता है, लेकिन इसका अस्सी फ़ीसदी हिस्सा मथुरा में है। ब्रज यात्रा की विशिष्टता :- 09 FACTS;- 1-36 नियमों का नित्य पालन;- 02 P0INTS;- 1-ब्रज यात्रा के अपने नियम हैं इसमें शामिल होने वालों के प्रतिदिन 36 नियमों का कड़ाई से पालन करना होता है,इनमें प्रमुख हैं- धरती पर सोना, नित्य स्नान, ब्रह्मचर्य पालन, जूते-चप्पल का त्याग, नित्य देव पूजा, कथासंकीर्तन, फलाहार, क्रोध, मिथ्या, लोभ, मोह व अन्य दुर्गुणों का त्याग प्रमुख है। इसके अलावा सत्य बोलना, दूसरों के अपराधों का क्षमा करना, तीर्थों में स्नान करना, आचमन करना, भगवत निवेदित प्रसाद का सेवन, तुलसीमालापर हरिनामर कीर्तन या वैष्णवों के साथ हरिनाम संकीर्तन करना चाहिए। 2-परिक्रमा के समय मार्ग में स्थित ब्राह्मण, श्रीमूर्ति, तीर्थ और भगवद्लीला स्थलियों का विधिपूर्वक सम्मान एवं पूजा करते हुए परिक्रमा करें। परिक्रमा पथ में वृक्ष, लता, गुल्म, गो आदि को नहीं छेड़ना, साधु-संतों आदि का अनादर नहीं करना, साबुन, तेल और क्षौर कार्य का वर्जन करना, चींटी इत्यादि जीव-हिंसा से बचना, परनिन्दा, पर चर्चा और कलेस से सदा बचना चाहिए। 2-1300 गावों से गुजरती हैं परिक्रमा;- ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा मथुरा के अलावा राजस्थान और हरियाणा के होडल जिले के गांवों से होकर गुजरती है। करीब 268 किलोमीटर परिक्रमा मार्ग में परिक्रमार्थियों के विश्राम के लिए 25 पड़ावस्थल हैं। इस पूरी परिक्रमा में करीब 1300 के आसपास गांव पड़ते हैं। कृष्ण की लीलाओं से जुड़ी 1100 सरोवरें, 36 वन-उपवन, पहाड़-पर्वत पड़ते हैं। बालकृष्ण की लीलाओं के साक्षी उन स्थल और देवालयों के दर्शन भी परिक्रमार्थी करते हैं जिनके दर्शन शायद पहले ही कभी किए हों। परिक्रमा के दौरान श्रद्धालुओं को यमुना नदी को भी पार करना होता है। 3-सभी तीर्थों को ब्रज में बुलाया;- 02 P0INTS;- 1-मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने मैया यशोदा और नंदबाबा के दर्शनों के लिए सभी तीर्थों को ब्रज में ही बुला लिया था।जब यशोदा मैया और नंद बाबा ने भगवान श्री कृष्ण से 4 धाम की यात्रा की इच्छा जाहिर की तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आप बुजुर्ग हो गए हैं, इसलिए मैं आप के लिए यहीं सभी तीर्थों और चारों धामों को आह्वान कर बुला देता हूं। उसी समय से केदरनाथ और बद्रीनाथ भी यहां मौजूद हो गए। 2- 84 कोस के अंदर राजस्थान की सीमा पर मौजूद पहाड़ पर केदारनाथ का मंदिर है। पर्वत पर नंदी स्वरूप में दिखने वाली विशालकाय शिला के नीचे शिव जी का छोटा सा मंदिर है। इसके अलावा बद्रीनाथ भी 84 कोस में ही विराजमान हैं। जिन्हें बूढ़े बद्री के नाम से जाना जाता है। मंदिर के पास ही अलकनंदा कुंड भी है। इसके अलावा गुप्त काशी और यमुनोत्री और गंगोत्री के भी दर्शन यहां श्रद्धालुओं को होते हैं। 4-शॉर्टकट पर अधूरी मानी जाती है परिक्रमा;- 84 कोस परिक्रमा के लिए स्थान, गांव और इसकी जद में आने वाले मंदिर और परिक्रमा मार्ग पहले से ही तय हैं और उसी रास्ते से होकर श्रद्धालु परिक्रमा करते हैं। कीचड़, कंकड़-पत्थर के रास्तों पर ही चलकर श्रद्धालु परिक्रमा पूरी करते हैं। कोई भी श्रद्धालु दूरी कम करने के लिए शॉर्टकट या दूसरे रास्तों से होकर नहीं गुजरता और ऐसा करने पर उसकी परिक्रमा अधूरी मानी जाती है। 5-ब्रज चौरासी कोस में पड़ने वाली प्रमुख सरोवर;- कृष्ण की लीलाओं की साक्षी और उनसे जुड़ी प्रमुख सरोवरों में जो प्रमुख सरोवरें है, उनमें सूरज सरोवर, कुसुम सरोवर, विमल सरोवर, चंद्र सरोवर, रूप सरोवर, पान सरोवर, मान सरोवर, प्रेम सरोवर, नारायण सरोवर, नयन सरोवर आदि हैं। परिक्रमाथी इन सरोवरों के दर्शन करने के साथ ही आचमन लेकर और इनमें स्नान कर स्वयं को धन्य मानते हैं। 6-ब्रज में विद्यमान 16 देवियां;- कात्यायनी देवी, शीतला देवी, संकेत देवी, ददिहारी, सरस्वती देवी, वृंदादेवी, वनदेवी, विमला देवी, पोतरा देवी, नरी सैमरी देवी, सांचैली देवी, नौवारी देवी, चौवारी देवी, योगमाया देवी, मनसा देवी, बंदी की आनंदी देवी। 7-ब्रज क्षेत्र के प्रमुख 12 महादेव मंदिर;- भूतेश्वर महादेव, केदारनाथ, आशेश्वर महादेव, चकलेश्वर महादेव, रंगेश्वर महादेव, नंदीश्वर महादेव, पिपलेश्वर महादेव, रामेश्वर महादेव, गोकुलेश्वर महादेव, चिंतेश्वर महादेव, गोपेश्वर महादेव, चक्रेश्वर महादेव।
8-ब्रज के सुप्रसिद्ध 12 बनों के नाम
(1) मधुबन, (2) तालबन, (3) कुमुदबन, (4) बहुलाबन, (5) कामबन, (6) खिदिरबन, (7) वृन्दाबन, (8) भद्रबन, (9) भांडीरबन, ( 10) बेलबन, ( 11) लोहबन और ( 12) महाबन हैं।इनमें से आरंभ के 7 बन यमुना नदी के पश्चिम में हैं और अन्त के 5 बन उसके पूर्व में हैं। इनका संक्षिप्त वृतांत इस प्रकार है; -
1- मधुबन; -
यह ब्रज का सर्वाधिक प्राचीन वनखंड है। इसका नामोल्लेख प्रगैतिहासिक काल से ही मिलता है। राजकुमार ध्रुव इसी बन में तपस्या की थी। सत्रत्रुध्न ने यहां के अत्याचारी राजा लवणासुर को मारकर इसी बन के एक भाग में मथुरा पुरी की स्थापना की थी। वर्तमान काल में उक्त विशाल बन के स्थान पर एक छोटी सी कदमखंडी शेष रह गई है और प्राचीन मथुरा के स्थान पर महोली नामक ब्रज ग्राम बसा हुआ है, जो कि मथुरा तहसील में पड़ता है।
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1-आर्य ग्रन्थों के अनुसार मानवजाति के आदि पिता स्वायम्भुव मनु थे, जो मनुओं की परम्परा में प्रथम माने जाते है। उनके समय में यमुना तट का यह प्रदेश विशाल सधन वनों से अच्छादित था। कालान्तर में यह बन्य प्रदेश ॠषि-मुनियों की तपो-भूमि के रूप में परिणित हो गया, जहां अनेक सिद्ध रूप यमुना के तट के आश्रमों में तपस्या करते हुए ब्रम्ह का चिन्तन मनन करते थे। उस बन को 'मधुबन' कहा गया है। वेदों में ब्रम्हविद्या अथवा अत्मविद्या की संज्ञा 'मधुविद्या' है। कदाचित इसीलिये उस सिद्ध बन को 'मधुबन' का नाम प्राप्त हुआ था।समस्त भू-भाग के प्राचीन नाम, मधुबन, मधुरा, मधुपुरी, मथुरा और मथुरा मंडल थे। 2-मधुबन के विशिष्ट भाग में यमुना नदी के तट पर एक सुन्दर नगरी का निर्माण किया गया। वह नगरी पहिले मधुपुरी अथवा मधुरा और बाद में मथुरा के नाम से विख्यात हुई। उसके एक ओर यमुना पुलिन और उसके तट की सधन कूंजों का मनोरम दृष्य था तथा तीन ओर बन-उपबन, लता और गुल्मों का प्राकृतिक वैभव था। उसके पश्चिम में कुछ दूर गोवर्धन पहाड़ी का नैसंगिक सौन्दर्य था। इस प्रकार यमुना नदी और गोवर्धन पहाड़ी से परिवेष्ठत वह रमणीक पुरी 'मथुरा' के नाम से लोक में प्रसिद्ध हुई। इसके निर्माण और विकास के लिये मधु और उसके पुत्र लवण, रामानुज, शत्रुधन और उसके पुत्र सवाहु-शूरसेन तथा सत्वत से लेकर उग्रसेन और उनके पुत्र कंस तक क्रमशः दैत्यवंशी, सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी कई राजा-महाराजाओं के नाम पुराणों में प्रसिद्ध सहित वर्णित हैं। 3-मथुरा गोवर्धन मार्ग पर शांतनुकुण्ड नामक एक प्राचीन सरोवर है, जो पौख वंश के प्रतापी महाराज शांतनु का स्मृति स्थल माना जाता है। शांतनु के पुत्र भीष्म थे, जो श्री कृष्ण के सम्बधी और कृपापात्र पाण्डवों के पितामह थे। शांतनु ने अपनी बृद्धावस्था में एक केवट कन्या सत्यवती से विवाह किया था। शांतनु कुंड के समीप का सतोहा ग्राम उक्त सत्यवती के नाम पर ही प्रसिद्ध हुआ कहा जाता है। 4-मथुरा में यमुना नदी के जो प्राचीन धाट हैं, उनमें सोम (वर्तमान गोधाट) वैकुंठ धाट और कृष्ण गंगा नामक धाट उल्लेखनीय हैं। वाराह पुराण में कृष्ण गंगा धाट की स्थिति सोमधाट और वैकुंठ धाट के मध्य में वर्णित की गयी है और उसे महार्षि व्यास का तपस्थल कहा गया है। उक्त स्थल पर किसी काम में कृष्ण गंगा नामक एक नदी यमुना में मिलती थी। व्यास जी का नाम द्वेैपाथन कृष्ण था। उनके नाम पर कृष्ण गंगा और यमुना के संगम का वह धाट कृष्ण गंगा धाट कहा जाने लगा था। ब्रज में यह अनुश्रुति प्रसिद्ध है कि व्यास जी ने इसी स्थल पर पुराणों की रचना की थी। वर्तमान काल में कृष्ण गंगा नदी तो नहीं है, किन्तु इस नाम का धाट अब भी विधमान है। 5-मथुरा के मधुबन में मात्र 6 महीने में ही भगवान विष्णु ने भक्त ध्रुव को दर्शन दिए थे। उस जगह पर अभी भी भारी भीड़ होती है। ध्रुव टीला के नाम से स्थान प्रसिद्ध है। यह ध्रुव टीला बहुत ही प्राचीन समय का बना है। मधुबन के महत्व की प्राचीनतम स्वीकृति उस पौराणिक उल्लेख में है, जिस में कहा गया हैं कि ध्रुव ने नारद मुनि के उपदेश से उसी बन में तपस्या की थी। नारद जी ने ध्रूव को वतलाया था कि मधुबन की पुण्य भूमि को भगवान श्री हरि: का नित्य सानिध्य प्राप्त है। अतः यहां पर तप आराधना करने से इच्छित फल की सीध्र उपलब्धि होती है। राजा अंबरीष को भी विष्णु के चक्र के द्वारा इसी भूमि पर अभय प्रदान करने की अनुश्रति प्रलित है। 6-भगवान ध्रुव ने इस किले पर 5 वर्ष की अवस्था में यहां आए थे।उन्होंने ओम नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप किया।छह माह तक भगवान विष्णु की घोर तपस्या के बाद उन्हें भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर दर्शन दे दिए।इस टीले के चारों तरफ घना जंगल है।एक अरब 84 करोड़ 32 लाख वर्ष पहले ध्रुव जी महाराज यहां आए थे। पूरी दुनिया में सबसे प्राचीन जगह जो है वह है ध्रुव टीला। यही से 84 कोस की परिक्रमा का पहला पड़ाव शुरु होता है। 7-पौराणिक जगत् के उन प्राचीन भक्तों की स्मृति रक्षार्थ ब्रज के वर्तमान मधुबन ग्राम में ध्रुव आश्रम और ध्रुव गुफा तथा मथुरा नगर में ध्रुव टीला, अंबरीष टीला, और चक्र तीर्थ जैसे पुण्य स्थल विधमान हैं, जो ब्रज की प्राचीनता और पवित्रता के साक्षी हैं।भांदौ एकादशी पर मेला लगता है! चतुर्भुज जी का मंदिर ध्रुव टीला पर ध्रुवजी महाराज के साथ है ! मधु कुण्ड पर ही शत्रुघ्न महाराज का प्राचीन मंदिर है! मधु कुण्ड भी है और संरक्षित भी है!
2- ताल बन;-
प्राचीन काल में यह ताल के बृक्षों का यह एक बड़ा बन था और इसमें जंगली गधों का बड़ा उपद्रव रहता था। भागवत में वर्णित है, बलराम ने उन गधों का संहार कर उनके उत्पात को शांत किया था। कालान्तर में उक्त बन उजड़ गया और शताब्दियों के पश्चात् वहां तारसी नामक एक गाँव बस गया, जो इस समय मथुरा तहसील के अंतर्गत है।
3- कुमुद बन;-
प्राचीन काल में इस बन में कुमुद पुष्पों की बहुलता थी, जिसके कारण इस बन का नाम 'कुमुद बन' पड़ गया था। वर्तमान काल में इसके समीप एक पुरानी कदमखड़ी है, जो इस बन की प्राचीन पुष्प-समृद्धि का स्मरण दिलाती है।
4- बहुलाबन;-
इस बन का नामकरण यहाँ की एक बहुला गाय के नाम पर हुआ है। इस गाय की कथा 'पदम पुराण' में मिलती है। वर्तमान काल में इस स्थान पर झाड़ियों से घिरी हुई एक कदम खंड़ी है, जो यहां के प्राचीन बन-वैभव की सूचक है। इस बन का अधिकांश भाग कट चुका है और आजकल यहां बाटी नामक ग्राम बसा हुआ है।
5- कामबन;-
यह ब्रज का अत्यन्त प्राचीन और रमणीक बन था, जो पुरातन वृन्दाबन का एक भाग था। कालांतर में वहां बस्ती बस गई थी। इस समय यह राजस्थान के भरतपुर जिला की ड़ीग तहसील का एक बड़ा कस्बा है। इसके पथरीले भाग में दो 'चरण पहाड़िया' हैं, जो धार्मिक स्थली मानी जाती हैं।
6- खिदिरबन;-
यह प्राचीन बन भी अब समाप्त हो चुका है और इसके स्थान पर अब खाचरा नामक ग्राम बसा हुआ है। यहां पर एक पक्का कुंड और एक मंदिर है।
7- वृन्दाबन;-
06 P0INTS;-
1-प्राचीन काल में यह एक विस्तृत बन था, जो अपने प्रकृतिक सौंदर्य और रमणीक बनश्री के लिये विख्यात था। जब मथुरा के अत्याचारी राजा कंस के आतंक से नंद आदि गोपों को वृद्धबन (महाबन) स्थित गोप-बस्ती (गोकुल) में रहना असंभव हो गया, तब वे सामुहिक रूप से वहां से हटकर अपने गो-समूह के साथ वृन्दाबन में जा कर रहे थे।
2-भागवत् आदि पुराणों से और उनके आधार पर सूरदास आदि ब्रज-भाषा कावियों की रचनाओं से ज्ञात होता है कि उस वृन्दाबन में गोबर्धन पहाड़ी थी और उसके निकट ही यमुना प्रवाहित होती थी। यमुना के तटवर्ती सघन कुंजों और विस्तृत चारागाहों में तथा हरी-भरी गोबर्धन पहाड़ी पर वे अपनी गायें चराया करते थे।वह वृन्दाबन पंचयोज अर्थात बीस कोस परधि का तथा ॠषि मुनियों के आश्रमों से युक्त और सघन सुविशाल बन था।
3- वहाँ गोप समाज के सुरक्षित रूप से निवास करने की तथा उनकी गायों के लिये चारे घास की पर्याप्त सुविधा थी।
4-उस बन में गोपों ने दूर-दूर तक अने बस्तियाँ बसाई थीं। उस काल का वृन्दाबन गोबर्धन-राधाकुंड से लेकर नंदगाँव-वरसाना और कामबन तक विस्तृत था।संस्कृत साहित्य में प्राचीन वृंदाबन के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं, जिसमें उसके धार्मिक महत्व के साथ ही साथ उसकी प्राकृतिक शोभा का भी वर्णन किया गया है। महाकवि कालिदास ने उसके वन-वैभव और वहाँ के सुन्दर फूलों से लदे लता-वृक्षों की प्रशंसा की है। उन्होंने वृन्दाबन को कुबेर के चैत्ररथ नामक दिव्य उद्यान के सदृश वतलाया है।
5-वृन्दाबन का महत्व सदा से श्रीकृष्ण के प्रमुख लीला स्थल तथा ब्रज के रमणीक बन और एकान्त तपोभूमि होने के कारण रहा है। मुसलमानी शासन के समय प्राचीन काल का वह सुरम्य वृन्दाबन उपेक्षित और अरक्षित होकर एक बीहड़ बन हो गया था। पुराणों में वर्णित श्रीकृष्ण-लीला के विविध स्थल उस विशाल बन में कहाँ थे, इसका ज्ञान बहुत कम था। जव वैष्णव सम्प्रदायों द्वारा राधा-कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब उनके अनुयायी भक्तों का ध्यान वृन्दाबन और उसके लीला स्थलों की महत्व-वृद्धि की ओर गया था। वे लोग भारत के विविध भागों से वहाँ आने लगे और शनै: शनै: वहाँ स्थाई रूप से बसने लगे।
6-इस प्रकार वृन्दाबन का वह बीहड़ वन्य प्रदेश एक नागरिक बस्ती के रूप में परणित होने लगा। वहाँ अनेक मन्दिर-देवालय वनाये जाने लगे। बन को साफ कर वहाँ गली-मुहल्लों और भवनों का निर्माण प्रारम्भ हुआ तथा हजारों व्यक्ति वहाँ निवास करने लगे। इससे वृन्दाबन का धार्मिक महत्व तो बढ़ गया किन्तु उसका प्राचीन वन-वैभव लुप्त प्रायः हो गया।
NOTE;-
उपर्युक्त सातों बन यमुना नदी की दाहिनी ओर अर्थात पश्चिम दिशा में हैं। निम्न पाँच बन यमुना की बायी ओर अर्थात पूर्व दिशा में स्थित हैं
8- भद्रबन, 9- भांडीरबन, 10- बेलबन
ये तीनों बन यमुना की बांयी ओर ब्रज की उत्तरी सीमा से लेकर वर्तमान वृन्दाबन के सामने तक थे। वर्तमान काल में उनका अधिकांश भाग कट गया है और वहाँ पर छोटे-बड़े गाँव बस गये हैं। उन गाँवों में टप्पल, खैर, बाजना, नौहझील, सुरीर, भाँट पानी गाँव उल्लेखनीय हैं।
11- लोहबन;-
यह प्राचीन बन वर्तमान मथुरा नगर के सामने यमुना के उस पार था। वर्तमान काल में वहाँ इसी नाम का एक गाँव बसा है।
12- महाबन;-
प्राचीन काल में यह एक विशाल सघन बन था, जो वर्तमान मथुरा के सामने यमुना के उस पार वाले दुर्वासा आश्रम से लेकर सुदूर दक्षिण तक विस्तृत था। पुराणों में इसका उल्लेख बृहद्बन, महाबन, नंदकानन, गोकुल, गौब्रज आदि नामों से हुआ है। उस बन में नंद आदि गोपों का निवास था, जो अपने परिवार के साथ अपनी गायों को चराते हुए विचरण किया करते थे। उसी बन की एक गोप बस्ती (गोकुल) में कंस के भय से बालक कृष्ण को छिपाया गया था। श्रीकृष्ण के शैशव-काल की पुराण प्रसिद्ध घटनाएँ - पूतना बध, तृणवर्त बध, शंकट भंजन, चमलार्जुन पतन आदि इसी बन के किसी भाग में हुई थीं। वर्तमान काल में इस बन का अधिकांश भाग कट गया है और वहाँ छोटे-बड़े कई गाँव वस गये हैं। उन गावों में बलदेव, महाबन, गोकुल और रावल के नाम से उल्लेखनीय है। 9-ऐसे होती है परिक्रमा;- 02 P0INTS;- 1-वाहनों से :- आजकल लोगों के पास समय का अभाव है। उनके लिए तमाम आश्रमों और संस्थाओं की ओर से ब्रज चौरासी कोस की यात्रा वाहनों के जरिए करवाई जाती है। इसके लिए परिक्रमा कराने वाले संचालकों की तरफ से सुविधानुसार एक तय शुल्क प्रति श्रद्धालु लिया जाता है। वाहनों से कराई जाने वाली यह ब्रज चौरासी कोस यात्रा में 3 से 5 दिन का समय लगता है। इसमें श्रद्धालुओं को प्रमुखस्थलों, वनों, मंदिरों आदि के दर्शन कराए जाते हैं। 2-पैदल परिक्रमा;- पैदल यात्रा का अपना अलग ही आनंद है। इसमें श्रद्धालु किसी मंदिर या आश्रम की ओर से कराई जाने वाली यात्रा में शामिल होकर अपने रुकने और ठहरने का शुल्क आश्रम या मंदिर संचालक को देता है।इस परिक्रमा को पूरा करने में 30 दिन का समय लगता है। चलने वाले जत्थे के ऊपर तय होता है कि वह एक दिन में कितनी दूरी तय कर सकता है। देश के विभिन्न राज्यों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां इस परिक्रमा के लिए आते हैं। जय श्री राधे जय श्री राधे जय श्री राधे-- जय श्री वृन्दावन जय श्री वृन्दावन जय श्री वृन्दावन
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