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क्या कुण्डलिनी जागरण में सूर्य वेधन जैसे प्राणायामों की भी आवश्यकता होती है।


क्या शांभवी महामुद्रा में वह क्षमता है जो आपको उस आयाम को स्पर्श करा सकती है, जो सबका आधार है?- 11 FACTS;- 1-शांभवी मुद्रा में सांस की एक बहुत सरल प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इसका संबंध सांस से नहीं है। शांभवी महामुद्रा में वह क्षमता है जो आपको उस आयाम को स्पर्श करा सकती है, जो इन सबका आधार है। लेकिन आप इसे सक्रिय तौर पर नहीं कर सकते। आप केवल माहौल को तय कर सकते हैं। हम शांभवी को हमेशा स्त्रीवाचक मानते हैं। उसके फलदायी होने के लिए आपके भीतर श्रद्धा का भाव होना चाहिए। आप सृष्टि के स्रोत के केवल संपर्क में आ सकते हैं - आपको इससे और कुछ नहीं करना। 3-शांभवी में प्राणायाम का एक तत्व भी मौजूद होता, जो कई तरह से लाभदायक है। शांभवी क्रिया के बारे में अहम बात यह है कि यह सृष्टि के स्रोत को छूने का एक साधन है, जो प्राण से परे है। यह पहले दिन भी ही हो सकता है या यह भी हो सकता है कि आपको छह माह में भी कोई नतीजा न मिले। पर अगर आप इसे करते रहे, तो एक दिन आप इस आयाम को छू लेंगे।अगर आप इसे छू लेंगे, तो अचानक सब कुछ रूपांतरित हो जाएगा।अगर आपकी सांस को बाहर निकाल दिया जाये ,तो आप और आपका शरीर अलग-अलग हो जाएंगे क्योंकि जीव और शरीर कूरमा नाडी से बंधे हैं।

शांभवी मुद्रा की विधि;- 02 FACTS;- 1-ध्यान के आसन में बैठें और अपनी पीठ सीधी रखें। आपके कंधे और हाथ बिलकुल ढीली अवस्था में होने चाहिए। इसके बाद हाथों को घुटनों पर चिंमुद्रा, ज्ञान मुद्रा या फिर योग मुद्रा में रखें। आप सामने की ओर किसी एक बिंदु पर दृष्टि एकाग्र करें। इसके बाद ऊपर देखने का प्रयास करें। ध्यान रखिए आपका सिर स्थिर रहे। इस बीच आप अपने विचारों को भी नियंत्रित करने की केशिश करें। सिर्फ और सिर्फ ध्यान रखें। इस बीच कुछ न सोचें। 2-शांभवी मुद्रा के दौरान आपकी पलकें झपकनी नहीं चाहिएं और आपकी दृष्टि एक वस्तु की ओर टिकी हुई होनी चाहिए।इसके तहत आपकी आंखें खुली रहती हैं लेकिन फिर भी आप कुछ देख नहीं पाते । 3-यह मुद्रा एक कठिन साधना की तरह होती है इस आसन को शुरुआती दिनों में कुछ ही सेकेंड तक करें। यानी जैसे-जैसे आपकी ध्यान लगाने की और अपने विचारों पर नियंत्रण करने की क्षमता में विकास हो, वैसे वैसे इस आसन को करने के समय सीमा भी बढ़ाती रहें।

शक्ति चालन क्रिया-विधि;-

1-पाँचों प्राण कैसे काम करते हैं, इसे जानने के लिए आपको सजगता के निश्चित स्तर की जरूरत होगी।शरीर में प्राण के पाँच रूप हैं, जिन्हें पंच वायु कहते हैं। इनमें हैं - प्राण वायु, समान वायु, उदान वायु, अपान वायु, व्यान वायु। ये मानव-तंत्र के विभिन्न पहलू हैं। शक्ति चालन क्रिया जैसे यौगिक अभ्यासों की मदद से, आप पंच वायु की डोर अपने हाथ में ले सकते हैं।

2-शक्ति चालन क्रिया एक अद्भुत प्रक्रिया है, पर आपको सजग होना होगा। आपको पूरे चालीस से साठ मिनट तक केन्द्रित रहना होगा। अधिकतर लोग एक पूरी साँस पर अपना ध्यान नहीं टिका सकते। बीच में कहीं उनके विचार कहीं और चले जाते हैं, या फिर वे गिनती भूल जाते हैं। उस बिंदु पर आने के लिए महीनों और सालों के अभ्यास की जरूरत होगी जिस पर आ कर, अपनी श्वास पर ध्यान केंद्रित करने के सारे चक्रों को पूरा कर सकें। 3-यही वजह है कि शक्ति चालन क्रिया को शून्य-ध्यान के साथ सिखाया जाता है। यह ध्यान आपको उस जगह ले आता है, जिसमें आंखें बंद करते ही आप दुनिया से दूर हो जाते हैं। यह अपने-आप में किसी वरदान से कम नहीं है। अगर आप ऐसा कर लें तो आप किसी भी चीज पर कुछ समय तक एकाग्र रह सकेंगे। अगर आप ऐसा जबरन करना चाहें तो उससे कोई लाभ नहीं होगा। अगर आप अपनी आंखों को बंद करें तो आपके लिए मौजूद होना चाहिए - सिर्फ आपकी सांस, धड़कन, शरीर की कियाएं और आपके प्राण के क्रियाकलाप। सिर्फ वही जो भीतर घटित हो रहा है, वही जीवन है। जो कुछ भी बाहर घटित हो रहा है, वह सिर्फ छाया है।

महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित विधि :

पदमासन अथवा सिद्धासन में बैठ जाएँ |हथेलियों को पृथ्वी पर टिका कर धीरे-धीरे दोनों नितम्बों को पृथ्वी से उठा – उठा कर ताड़न करें |20-25 बार ताड़न करने के बाद मूलबन्ध लगा लें एवं दोनों नासिकाओं से या वायीं नासिका या फिर जो स्वर चल रहा हो उससे श्वास अंदर भरकर जालंधर बन्ध लगा लें तथा प्राणवायु को अपानवायु के साथ मिलाने की धारणा करते हुए अश्वनी मुद्रा करें (गुदाद्वार को बार-बार संकुचित कर ढीला छोड़ने की क्रिया को अश्वनी मुद्रा कहते हैं )|आराम से जितनी देर रोक सकते हैं उतनी देर श्वास अन्दर ही रोककर रखें,तत्पश्चात जालंधर बन्ध खोलकर यदि दोनों नासिका से श्वास अन्दर भरी थी तो दोनों नासिका से और यदि एक नासिका से श्वास अंदर भरी थी तब उसके विपरीत नासिका से श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकाल दें एवं कुछ देर एकाग्र होकर शांत बैठ जाएँ |

महर्षि घेरंड ने इस मुद्रा की विधि इस तरह से बताई है;-

आठ अंगुल लंबा और चार अंगुल चौड़ा मुलायम वस्त्र लेकर नाभि पर लगाएं और कटिसूत्र में बांध लें| फिर शरीर में भस्म रमाकर सिद्धासन में बैठें और प्राणवायु को अपानवायु से मिलाएं | जब तक गुदा द्वार से चलती हुई वायु(अपान) प्रकाशित न हो, तब तक गुदा द्वार को संकुचित रखें (मूलबन्ध लगायें)| इससे वायु का जो निरोध होता है, उसमें कुम्भक के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती हुई सुषुम्ना मार्ग से सहस्रार में अवस्थित हो जाती है| प्राण-अपान को संयुक्त करने की क्रिया प्राणवायु को पूरक द्वारा भीतर खींचने और उड्डीयान बंध से अपान वायु को ऊपर की ओर आकर्षित करने से पूर्ण होती है| इसमें गुह्य प्रदेश के संकोच और विस्तार का अभ्यास (अश्वनी मुद्रा) होने से अधिक सरलता दोनों वायु का मिलन हो जाता है | प्राण तत्त्व एक है वही ब्रह्माण्ड में व्यापक रूप से संव्याप्त है और ब्रह्माग्नि कहा जात है। वही पिण्ड सत्ता में समाया हुआ है और आत्माग्नि कहलाता है। इस प्रकार एक होते हुए भी विस्तार भेद से उसके दो रूप बन गये। आत्माग्नि लघु है और ब्रह्माग्नि विभु। तालाब में जब वर्षा का विपुल जल भरता है तो वह परिपूर्ण हो जाता है। यह अनुदान न मिलने पर तालाब सूखता और घटता जाता है। पानी में मलीनता भी आ जाती है। जिस प्रकार तालाब को भरा-पूरा और स्वच्छ रखने के लिए नये वर्षा जल की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार आत्माग्नि में ब्रह्माग्नि का अनुदान पहुँचाना पड़ता है औरइसी का नाम प्राणायाम ।

प्राण शक्ति के अभिवर्धन में -कुण्डलिनी जागरण में सूर्य वेधन जैसे प्राणायामों की भी आवश्यकता होती है। योगशास्त्र में व्यक्ति-प्राण और ब्रह्म-प्राण के सम्बन्ध और समन्वय की चर्चा इस प्रकार की है प्राण एक है। पर वह दो देवताओं में -दो पात्रों में भरा हुआ है। प्राणायाम अगर्भ और सगर्भ दो प्रकार का होता है। जप और ध्यान से युक्त प्राणायाम सगर्भ होता है और इनके बिना अगर्भ कहा जाता है।”

उसके दो साधन मुख्य हैं- (1) सरस्वती (सुषुम्ना) का चालन (2) प्राणरोध । अभ्यास से यह कुण्डली मारे बैठी कुण्डलिनी सीधी हो जाती है।आध्यात्मिक प्राणायाम वे हैं जिनमें ब्रह्माण्डीय चेतना को जीव चेतना में सम्मिश्रित करके जीव सत्ता का अन्तःतेजस जागृत किया जाता है।

कुण्डलिनी साधना में इसी स्तर के प्राणयोग की आवश्यकता रहती हैं सूर्य-वेधन इसी स्तर का है। उसमें ध्यान धारणा अधिकाधिक गहरी होनी चाहिए ओर प्रचण्ड संकल्प शक्ति का पूरा समावेश रहना चाहिए। श्वास खीचते समय महाप्राण को विश्वप्राण को-पकड़ने और घसीट कर आत्मसत्ता के समीप लाने का प्रयत्न किया जाता है। श्वास के साथ प्राण तत्त्व की अधिकाधिक मात्रा रहने की भाव-भरी मान्यता रहनी चाहिए। साँस में आक्सीजन की जितनी अधिक मात्रा होती है उतनी ही उसे आरोग्यवर्धक माना जाता है।

आक्सीजन की न्यूनाधिक मात्रा का होना क्षेत्रीय प्रकृति परिस्थितियों पर निर्भर है। किन्तु प्राण तो सर्वत्र समान रूप में संव्याप्त है। साँस खीचते समय प्राण ऊर्जा का वायु के साथ प्रचुर मात्रा में समावेश होना, उसका सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करना- सुषुम्ना (मेरुदंड) मार्ग से इड़ा धारा (बाम भाग के ऋण विद्युतीय शक्ति प्रवाह) द्वारा मूलाधार तक पहुँचना -वहाँ अवस्थित प्रसुप्त चिनगारी को झकझोरना, थपथपाना जागृत करना यह सूर्य-वेधन प्राणायाम पूर्वार्ध है। उत्तरार्ध में प्राण को पिंगला मार्ग से (मेरुदंड से दक्षिण भाग के धन विद्युत प्रवाह) में होकर वापिस लाया जाता है। जाते समय का अन्तरिक्षीय प्राण शीतल होता है, ऋण धारा भी शीतल मानी जाती है इसलिए इड़ा को -पूरक को चन्द्रवत् कहा गया है। चन्द्रनाड़ी कहने से यही प्रयोजन है। लौटते समय अग्नि उद्दीपन -प्राण प्रहार की संघर्ष क्रिया से ऊष्मा बढ़ती और प्राण में सम्मिलित होती है। लौटने का पिंगला मार्ग धन विद्युत का क्षेत्र होने से उष्ण माना गया है । दोनों ही कारणों से लौटता हुआ प्राण वायु उष्ण रहता है इसलिए उसे सूर्य की उपमा दी गई है।

इड़ा, चन्द्र और पिंगला सूर्य है। पूरक चन्द्र और रेचक सूर्य है। ऐसा ही प्रतिपादन साधना विज्ञान के आचार्य करते रहे है।सोई हुई शक्ति का जगाना-लेटी हुई गिरी पड़ी क्षमता को सक्रिय बनाना शक्ति चालन है। यों मुद्रा प्रसंग में एक शक्तिचालिनी मुद्रा भी है और उसका प्रयोग भी कुण्डलिनी जागरण उपचार में किया जाता है। साथ ही शक्ति चालन का अर्थ वह भी है जो कुण्डलिनी जागरण शब्द से प्रति ध्वनित होता है ।

मूलाधार चक्र में स्थित प्रसुप्त पड़ी हुई कुण्डलिनी शक्ति को प्राण वायु द्वारा चलाने और जगाने वाली शक्ति चालन क्रिया सर्व शक्ति प्रदायिनी है। जो योगी सिद्धि की इच्छा से शक्ति चालन का नित्य अभ्यास करता है, उसके शरीर में सो रही सर्पिणी कुण्डलिनी जागृत होकर स्वयं ही ऊर्ध्वमुख हो जाती है । सदा अभ्यास करने पर उसे सिद्धि मिलती है तथा अणिमादि विभूतियाँ प्राप्त हो जाती हैं। कुण्डलिनी ही मुख्य शक्ति है, ज्ञानी साधक उसका चालन करके दोनों भौहों के मध्य में ले जाता है तो वही शक्ति चालन है।

कुण्डलिनी को चलाने के दो मुख्य साधन हैं, सरस्वती का चालन और प्राण निरोध, अभ्यास द्वारा लिपटी हुई कुण्डलिनी सीधी हो जाती है। इसलिए सुखपूर्वक सो रही अरुन्धती (कुण्डलिनी) का नित्य संचालन आवश्यक है। इस शक्ति चालन से योगी रोगों से मुक्त हो जाता है। जिसने शक्ति-संचालन कर लिया, वह योगी सिद्धि-भाजन है। वह कालजित् कहा जा सकता है।

प्राण के प्रहार से अग्नि के उद्दीपन प्रज्ज्वलन का उल्लेख साधना ग्रन्थों में जगह-जगह पर हुआ है। यह वही अग्नि है जिसे योगाग्नि, प्राण ऊर्जा, जीवनी शक्ति या कुण्डलिनी कहते हैं । आग में ऐसा ही ईंधन डाला जाता है जिसमें अग्नि तत्त्व की प्रधानता वाले रासायनिक पदार्थ अधिक मात्रा में होते हैं। कुण्डलिनी प्राणाग्नि है उसमें सजातीय तत्त्व का ईंधन डालने से उद्दीपन होता है। प्राणायाम द्वारा इड़ा-पिंगला के माध्यम से अन्तरिक्ष से खींचकर लाया गया प्राण-तत्त्व मूलाधार में अवस्थित चिनगारी जैसी प्रसुप्त अग्नि तक पहुँचाया जाता है तो वह भभकती है और जाज्वल्यमान लपटों के रूप में सारी जीवन सत्ता को अग्निमय बनाती है। यही कुण्डलिनी जागरण है। अग्नि का उल्लेख मूलाधार स्थित प्राण ऊर्जा के लिए ही हुआ है- निम्न भाग में अग्नि स्थान है। वह सिन्दूर के रंग का है। उसमें पन्द्रह घड़ी प्राण को रोक कर अग्नि की साधना करनी चाहिए। नाभि से नीचे कुण्डलिनी का निवास है। यह आठ प्रकृति वाली है। इसके आठ कुण्डल है। यह प्राण वायु को यथावत करती है। अन्न और जल को व्यवस्थित करती है। मुख तथा ब्रह्मरन्ध्र की अग्नि को प्रकाशित करती है। बिजली की बेल के समान, तपते हुए चन्द्रमा के समान, अग्निमय वह शक्ति दृष्टिगोचर होती है मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक सूर्य के प्रकाश जैसी सुषुम्ना नाड़ी फैली हुई है। उसी के साथ कमल तन्तु से सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति बंधी हुई है।

उसी के प्रकाश से अन्धकार दूर होता है और पापों की निवृत्ति होती है। देह में ब्रह्मनाड़ी सुषुम्ना परम प्रकाशवान है। वह मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र तक जाती है। उसके साथ सूक्ष्म तन्तु में जुड़ी अति ज्वलन्त कुण्डलिनी शक्ति है। उसका भावनात्मक दर्शन करने से मनुष्य सब पापों से और बंधनों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। मूलाधार में निवास करने वाली आत्म तेजरूपी अग्नि, जीव शक्ति है। प्राण रूपी आकाश में प्रकाशवान कुण्डलिनी है।जब वह दिव्य अग्नि ऊपर जाती है तो उसकी अनुभूति अन्तः उत्साह के रूप में तो होती ही है साथ-साथ शरीर में भी ऐसा लगता है कि मेरुदंड के निकटवर्ती भाग में अथवा शरीर के अन्य किसी अवयव में स्फुरण जैसी विचित्र हलचलें होती हैं- जब कुण्डलिनी देह में स्फुरण करती है तो त्वचा पर भ्रमर, कमल विचरने जैसे मृदुल दिव्य स्पर्श का अनुभव होता है। म्जैसे किसी अंग में चींटी के चढ़ने का स्पर्श प्रतीत होता है, वैसे ही मेरुदण्ड में ऊपर चढ़ने वाले प्राण का स्पर्श प्रतीत होता है।म्कुछ दिन तक इस प्रकार अभ्यास करने पर निश्चय ही प्राण मेरुदंड में उसी प्रकार प्रविष्ट होते हैं, जिस प्रकार बाँस की पोल में हवा।प्राण का अग्नि पर प्रहार-यही है कुण्डलिनी जागरण की प्रधान प्रक्रिया। मेरुदंड के वाम भाग के विद्युत प्रवाह को इडा कहते हैं। नासिका से वायु खींचते हुए उसके साथ प्रचंड प्राण प्रचुर मात्रा में घुला होने की भावना की जाती है। खींचे एक श्वाँस को मेरुदंड मार्ग से मूलाधार चक्र तक पहुँचने की संकल्पपूर्वक भावना की जाती है। यह मान्यता परिपक्व की जाती है कि निश्चित रूप से इस प्रकार अन्तरिक्ष से खींचा गया और श्वाँस द्वारा मेरुदण्ड मार्ग से प्रेरित किया गया प्राण मूलाधार तक पहुँचता है और उस पर आघात पहुँचा कर जगाने का प्रयत्न करता है।

बार-बार लगातार प्रहार करने की भावना श्वास-प्रश्वास के द्वारा की जाती है। मेरुदंड मार्ग से मूलाधार तक इडा शक्ति के पहुँचने का विश्वास दृढ़ता पूर्वक चित्त में जमाया जाता है।प्रहार के उपरान्त प्राण को वापिस भी लाना पड़ता है। यह वापसी दूसरी धारा पिंगला द्वारा होती है। पिंगला मेरुदंड में अवस्थित दक्षिण पक्ष की प्राण धारा को कहते हैं। इड़ा से गया प्राण मूलाधार की प्रसुप्त सर्पिणी महा अग्नि पर आघात करके -झकझोर कर -पिंगला मार्ग से वापिस लौटता है। यह एक प्रहार हुआ।दूसरा इससे उलटे क्रम से होगा। दूसरी बार दाहिनी ओर से प्राण वायु का जाना और बाई ओर से लौटना होता है। इस बार पिंगला से प्राण का प्रवेश और इडा से वापिस लौटना है। प्रहार पूर्ववत्। एकबार इडा से जाना-पिंगला से लौटना। दूसरी बार पिंगला से जाना इडा से लौटना । यही क्रम जब तक प्राणायाम प्रक्रिया चलानी हो तब तक चलना चाहिए। इसे अनुलोम-विलोम क्रम कहते हैं। यही कुण्डलिनी जागरण के लिए प्रयुक्त होने वाला सूर्यभेदन प्राणायाम ।सूर्यभेदन प्राणायाम का महत्त्व माहात्म्य बताते हुए हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है- यह कपाल शोधन, वात रोग निवारण, कृमि दोष विनाशक है। इस सूर्यभेदन प्राणायाम को बार-बार करना चाहिए। ...SHIVOHAM....


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