क्या है पंचकोशी साधना का रहस्य ?
क्या है पंचकोश ?-
10 FACTS;-
1-मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के, विभिन्न तल समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।
2-शरीर पाँच तत्त्वों का बना है। इन तत्त्वों की सूक्ष्म चेतना ही पञ्चकोश कहलाती है। यह पाँचों पृथक्-पृथक् होते हुए भी एक ही मूल केन्द्र में जुड़े हुए हैं।विसंगतियों का एकीकरण ही जीवन है; इन भिन्नताओं के कारण ही जीवन में चेतना, क्रियाशीलता, विचारशीलता, मन्थन और प्रगति का सञ्चार होता है।
3-सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने अपने योगबल से जाना कि मनुष्य के शरीर में पाँच प्रकार के व्यक्तित्व, पाँच चेतना, पाँच तत्त्व विद्यमान हैं। इस देह के अन्दर कई प्रकृतियों,
स्वभावों और रुचियों के अलग-अलग व्यक्तित्व रहते हैं। एक ही घर में रहने वाले कई व्यक्तियों की प्रकृति, रुचि और कार्य-प्रणालियाँ अलग-अलग होती हैं। इसी तरह मनुष्य की अन्तरंग प्रवृत्तियाँ भी अनेक दिशाओं में चलती हैं।
4-सिर एक है, पर उसमें नाक, कान, आँख, मुख, त्वचा की पाँच इन्द्रियाँ अपना काम करती हैं। हाथ एक है, पर उसमें पाँच उँगलियाँ लगी रहती हैं, पाँचों का काम अलग-अलग है। वीणा एक है, पर उसमें कई तार होते हैं। इन तारों की सन्तुलित झंकार से ही कई स्वर लहरी बजती हैं। हाथों की पाँचों उँगलियों के सम्मिलित प्रयत्न से ही कोई काम पूरा हो सकता है। सिर में यदि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ जुड़ी न हों, तो मस्तक का कोई मूल्य न रह जाए, तब खोपड़ी भी कूल्हों की तरह एक साधारण अंग मात्र रह जाएगी।
5- मानव प्राणी की पाँच प्रकृतियाँ हैं । यह पाँचों प्रकृतियाँ/मुख एक ही गर्दन पर जुड़े हुए हैं। इसका तात्पर्य यह है कि पाँचों कोश एक ही आत्मा से सम्बन्धित हैं।महाभारत के आध्यात्मिक गूढ़ रहस्य के अनुसार पाँच पाण्डव शरीरस्थ पाँच कोश ही हैं। पाँचों की एक ही स्त्री द्रौपदी है। पाँच कोशों की केन्द्र शक्ति एक आत्मा है। पाँचों पाण्डवों की अलग-अलग प्रकृति है, पाँचों कोशों की प्रवृत्ति अलग-अलग है। इस पृथकता को जब एकरूपता में, सन्तुलित समस्वरता में ढाल दिया जाता है तो उनकी शक्ति अजेय हो जाती है।
6-पाँचों पाण्डवों की एक पत्नी, एक निष्ठा, एक श्रद्धा, एक आकांक्षा हो जाती है, तो उनका रथ हाँकने के लिए स्वयं भगवान् को आना पड़ता है और अन्त में उन्हें ही विजयश्री मिलती है।पाँच कोशों को मनुष्य की पञ्चधा प्रकृति कहते हैं ..
1-शरीराध्यास, 2-गुण, 3-विचार, 4-अनुभव, 5-सत्।
7-इन पाँच चेतनाओं को ही अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश कहा जाता है। साधारणतया इन पाँचों में एकस्वरता नहीं होती। कोई किधर को चलता है,तो कोई किधर को। स्वास्थ्य, योग्यता, बुद्धि, रुचि और लक्ष्य में एकता न होने के कारण मनुष्य ऐसे विलक्षण कार्य करता रहता है जो किसी एक दिशा में उसे नहीं चलने देते।
8-उदाहरण के लिए, किसी रथ में पाँच घोड़े जुते हों, वे पाँच अपनी इच्छानुसार अपनी इच्छित दिशा में रथ को खींचें, तो उस रथ की बड़ी दुर्दशा होगी।कोई घोड़ा पश्चिम को घसीटेगा तो कोई दक्षिण को खींचेगा। इस प्रकार रथ किसी निश्चित लक्ष्य पर न पहुँच सकेगा, घोड़ों की शक्तियाँ आपस में एक-दूसरे के प्रयत्न को रोकने में खर्च होती रहेंगी और इस खींचातानी में रथ बेतरह टूटता रहेगा।यदि घोड़े एक निर्धारित दिशा में चलते, सबकी शक्ति मिलकर एक शक्ति बनती तो बड़ी तेजी से, बड़ी आसानी से वह रथ निर्दिष्ट स्थान तक पहुँच जाता।
9-वीणा के तार बिखरे हुए हों तो उसको बजाने से प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, पर यदि वे एक स्वर-केन्द्र पर मिला लिए जाएँ और निर्धारित लहरी में उन्हें बजाया जाए तो हृदय को प्रफुल्लित करने वाला मधुर संगीत निकलेगा। जीवन में पारस्परिक विरोधी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, मान्यताएँ इस प्रकार क्रियाशील रहती हैं जिससे प्रतीत होता है कि एक ही देह में पाँच आदमी बैठे हैं और पाँचों अपनी-अपनी मर्जी चला रहे हैं। जब जिसकी बन जाती है, तब वह अपनी ढपली पर अपना राग बजाता है।
10-इस पृथकता को, विसंगति को एक स्थान पर केन्द्रित करने, एक सूत्र से सम्बन्धित करने के लिए पञ्चकोशों का, सम्विधान प्रस्तुत किया गया है। पाण्डव पाँच होते हुए भी एक थे।इन पाँचों की दिशाएँ, आकृतियाँ, चेष्टाएँ देखने में अलग मालूम पड़ती हैं, परन्तु वह एक ही मूल केंद्र से सम्बद्ध होने के कारण एकस्वरता धारण किए हुए हैं। एक ही ‘पाण्डव’ शब्द कह देने से युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव पाँचों का बोध हो जाता है। ऐसी ही एकता हमारे भीतरी भाग में रहनी चाहिए। क्या है पंचकोश जागरण एवं अनावरण ?-
15 FACTS;- 1-पांच कोश आत्मा पर चढे़ हुए आवरण हैं। प्याज की, केले के तले की परते जिस प्रकार एक के ऊपर एक होती हैं उसी प्रकार आत्मा के प्रकाशवान स्वरूप को अज्ञान आवरण से ढंके रहने वाले यह पांच कोश हैं।
2-शिव गीता के अनुसार:- '' जो साधक चित्त को समाहित करके पंच कोशों की उपासना करता है- उसके अन्तःकरण पर से केले के तने जैसी- कषाय कल्मषों की परतें उतरती चली जाती हैं। उसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है और सार तत्व आत्मा की उपलब्धि सम्भव होती है।'' 3-वास्तव में पाँच कोशों का जागरण ..पाँच दृश्य शक्ति संस्थानों के उदगम केन्द्रों की निष्क्रियता को सक्रियता में बदल देता है।यह पांच अग्नि शिखाऐं- पाँच ज्वालाऐं- पाँचकोशों में सन्निहित दिव्य क्षमताऐं ही समझी जा सकती हैं। 4-पंच कोश सीमित साधन हैं इससे आगे के असीम साधन और हैं जिन्हें अदृश्य शक्ति स्त्रोत कहा गया है। इनसे बने शरीर यदि ठीक तरह काम करने लगें तो समझना चाहिए कि एक व्यक्तित्व पाँच गुना सामर्थ्यवान बन गया है।पाँच पाण्डवों ने एक सूत्र में बंध कर स्वल्प साधनों से महाभारत में विजय पाई थी। किसी को सफलता मिलती चली जाय तो कहते हैं कि "" पाँचों उंगलियाँ घी में हैं।" 5-पाँच कोशों के पाँच देवताओं का पृथक से भी वर्णन मिलता है। अन्नमय कोश का सूर्यदेव- प्राणमय का यमदेव- मनोमय का इन्द्रदेव- विज्ञानमय का पवनदेव और आनन्दमय का देवता वरूण माना गया है। कुन्ती ने इन्हीं पाँचों देवताओं की साधना करके पाँच पाण्डवों को जन्म दिया था। वे देवपुत्र कहलाते थे। 6-इन पाँच कोशों एवं देवताओं की पाँच प्रत्यक्ष सिद्धियाँ हैं- अन्नमय कोश की सिद्धि से निरोगता, दीर्घ जीवन एवं चिर यौवन का लाभ है। प्राणमय कोश से साहस, शौर्य, पराक्रम, प्रभाव, प्रतिभा जैसी विशेषताऐं उभरती हैं। प्राण विद्युत की विशेषता से आकर्षक चुम्बक व्यक्तित्व में बढ़ता जाता है। और प्रभाव क्षेत्र पर अधिकार बढ़ता जाता है। मनोमय कोश की जागृति से विवेक शीलता, दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता बढ़ती है और उतार- चढा़वों में धैर्य सन्तुलन बना रहता है।
7-विज्ञान मय कोश में सज्जनता का; उदार सहृदयता का विकास होता है और देवत्व की उपयुक्त विशेषताऐं उभरती हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान अपरोक्ष अनुभूति, दिव्य दृष्टि जैसी उपलब्धियाँ विज्ञानमय कोश की हैं। आनन्दमय कोश के विकास से चिन्तन तथा कर्तृत्व दोनों ही इस स्तर के बन जाते हैं कि हर घडी़ आनन्द छाया रहे ..संकटों का सामना ही न करना पडे़। ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार, स्वर्ग मुक्ति जैसी महान उपलब्धियाँ आनन्दमय कोश की ही देन हैं। 8-ईश्वर एक ही है किंतु आत्माएँ अनेक। यह अव्यक्त, अजर-अमर आत्मा पाँच कोषों को क्रमश: धारण करती है, जिससे की वह व्यक्त हो जाती है (दिखाई देना) और जन्म-मरण के चक्कर में उलझ जाती है। यह पंच कोष ही पंच शरीर है। कोई आत्मा किस शरीर में रहती है यह उसके ईश्वर समर्पण और संकल्प पर निर्भर करता है।
9-छांदोग्य उपनिषद के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है-(1)जाग्रत (2) स्वप्न (3) सुषुप्ति (4) तुरीय अवस्था।इसमें तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहाँ न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सुषुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं-जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।
10-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्था व्यक्त (प्रकट) होने के क्रमशः कोष है ....जड़, प्राण, मन, बुद्धि और आनंद।वेदों में जीवात्मा के पाँच शरीर बताए गए हैं- जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद। इस पाँच शरीर या कोष के अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग नाम हैं जिसे वेद ब्रह्म कहते हैं उस ईश्वर की अनुभूति सिर्फ वही आत्मा कर सकती है जो आनंदमय शरीर में स्थित है। देवता, दानव, पितर और मानव इस हेतु सक्षम नहीं।
11-अंतत: जड़ या अन्नरसमय कोष दृष्टिगोचर होता है। प्राण और मन का अनुभव होता है किंतु जाग्रत मनुष्य को ही विज्ञानमय कोष समझ में आता है। जो विज्ञानमय कोष को समझ लेता है वही उसके स्तर को भी समझता है।अभ्यास और जाग्रति द्वारा ही उच्च स्तर में गति होती है।
12-अकर्मण्यता से नीचे के स्तर में चेतना गिरती जाती है। इस प्रकृति में ही उक्त पंच कोषों में आत्मा विचरण करती है किंतु जो आत्मा इन पाँचों कोष से मुक्त हो जाती है ऐसी मुक्तात्मा को ही ब्रह्मलीन कहा जाता है।
यही मोक्ष की अवस्था है।आत्मा के ऊपर पाँच आवरण चढे़ हुए हैं। फूलों में जिस प्रकार रंग, आकृति, गन्ध, रस, नाम आदि समग्र रूप से समाहित होते हैं, उसी प्रकार काय सत्ता में पाँचकोशों का समग्र समावेश कहा जा सकता है।
13-केले के तने की अथवा प्याज की परतों की तरह इन्हीं आवरणों से आच्छादित रहने के कारण आत्मा का प्रकाश प्रत्यक्षतया प्रस्फुटित नहीं
होने पाता।इन्हें उघाड़ दिया जाय तो आत्मा के परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन अपने ही अन्तराल में होने लगते हैं और आत्मा के बीच समर्पण के आधार पर एकात्मता स्थापित हो जाने के कारण भक्त और भगवान एक ही स्तर के हो जाते हैं। नाला गंगा में मिलने के बाद गंगाजल ही बन जाता है और वैसा ही प्रभाव दिखाने लगता है। 14-जागरण एवं अनावरण शब्द पंच कोशों के परिष्कार की साधना में प्रयुक्त होते हैं। इन प्रसुप्त संस्थानों को जागृति सक्रिय सक्षम बना कर चमत्कार दिखा सकने की स्थिति तक पहुँचा देना जागरण है। अनावरण का तात्पर्य है आवरणो का हटा दिया जाना। किसी जलते बल्ब के ऊपर कई कपडे़ ढंक दिए जायें तो उसमें प्रकाश तनिक भी दृष्टिगोचर न होगा।
15-इन आवरणों का एक- एक परत उठाने लगें तो प्रकाश का आभास क्रमशः बढ़ता जाएगा। जब सब पर्दे हट जायेंगे तो बल्ब अपने पूरे प्रकाश के साथ दिखाई पड़ने लगेगा। आत्मा के ऊपर इन पाँच शरीरों के - पाँच आवरण पडे़ हुए हैं उन्हीं को भव बन्धन कहते हैं। इनके हट जाने या उठ जाने पर ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार एवं बन्धन मुक्ति का लाभ मिलता है। मनुष्य के पाँच आवरण, पाँच शरीर या पाँच लोक;-
07 FACTS;-
1-त्रिगुणमयी(सत्व,रज व तम ) माया से मोहित होने की वजह से ईश्वर के अंश आत्मा पर विकारों का एक आवरण चढ जाता है, जिसकी वजह से आत्मा ही जीवात्मा कही जाने लगती हैं। हमारे प्राचीन मनीषियों ने हमारी विशुद्ध आत्मा पर पडने वाले उन आवरणों को कोश या शरीर भी कहा है जिनकी संखया पांच बतलायी गयी है। इन्हें पंचकोश कहकर ही इंगित किया करते हैं।
2-वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है ।
3-इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की स्थिति क्या है।
4-सर्वोच्च स्तर आनंदमय है और निम्न स्तर जड़।जो भी दिखाई दे रहा है उसे जड़ कहते हैं और हमारा शरीर जड़ जगत का हिस्सा है।जड़ बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने का होश
नहीं जैसे पत्थर और पशु।चेतना या आत्मा के रहने के पाँच स्तर हैं...जड़ में प्राण; प्राण में मन; मन में विज्ञान और विज्ञान में आनंद।आत्मा इनमें एक साथ रहती है। यह अलग बात है कि किसे किस स्तर का अनुभव होता है। यह पाँच स्तर आत्मा का आवरण है। कोई भी आत्मा अपने कर्म प्रयास से इन पाँचों स्तरों में से किसी भी एक स्तर का अनुभव कर उसी के प्रति आसक्त रहती है।
5-जो लोग शरीर के ही तल पर जी रहे हैं वह जड़ बुद्धि कहलाते हैं, उनके जीवन में कामवासना और भोग का ही महत्व है। शरीर में ही प्राणवायु है जिससे व्यक्ति भावुक, ईर्ष्यालु, क्रोधी या दुखी होता है। प्राण में ही स्थिर है मन। मन में जीने वाला ही मनोमयी है। मन चंचल है। जो रोमांचकता, कल्पना और मनोरंजन को पसंद करता है ऐसा व्यक्ति मानसिक है।मन में ही स्थित है विज्ञानमय कोष अर्थात बुद्धि का स्तर।
6-जो विचारशील और कर्मठ है वही विज्ञानमय कोष के स्तर में है। इस विज्ञानमय कोष के भी कुछ उप-स्तर है। विज्ञानमय कोष में ही स्थित है-आनंदमय कोष। यही आत्मवानों की तुरीय अवस्था है। इसी स्तर में जीने वालों को भगवान, अरिहंत या संबुद्ध कहा गया है। इस स्तर में शुद्ध आनंद की अनुभूति ही बच जाती है। जहाँ व्यक्ति परम शक्ति का अनुभव करता है। इसके भी उप-स्तर होते हैं। और जो इस स्तर से भी मुक्त हो जाता है-वही ब्रह्मलीन कहलाता है। 7-थियोसोफिकल मान्यता के अनुसार पांचकोश मनुष्य के पाँच आवरण, पाँच शरीर या पाँच लोक हैं। इन्हें क्रमशः (1) फिजिकल बॉडी (2) ईथरीक बॉडी (4) एस्ट्रल बॉडी (4) मेंटल बॉडी (5) कॉजल बॉडी कहा गया है और इनमें पाँच प्रकार की विभूतियों का समावेश बताया गया है। अध्यात्म शास्त्रों में इन्हें क्रमशः (1)अन्नमय कोश (2)प्राणमय कोश (3)मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनन्दमय कोश के नाम से सम्बोधित किया गया है।ये पांचों इस प्रकार हैं -
मनुष्य के पाँचकोश का विवेचन;-
05 FACTS;- 1-अन्नमय कोश;- 08 POINTS;-
1-आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी - इन पंच महाभूतों से निर्मित हमारे भौतिक स्थूल शरीर का यह पहला आवरण अन्नमय कोश नाम से प्रसिद्ध है। हमारे स्थूल शरीर की त्वचा से लेकर हड्डियों तक सभी पृथ्वी तत्व से संबंधित हैं। संयमित आहार-विहार की पवित्रता, आसन-सिद्धि और प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से अन्नमय कोश की आवश्यक शुद्धि होती है। जब हमारे अन्नमय कोश की शुद्धि हो जाती है तब हमारे स्थूल शरीर का समुचित विकास होता है। 2-सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथ्वी , आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। यह दिखाई देने वाला जड़ जगत.. जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नरसमय कहलाता हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है। यह प्रथम कोश है जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है।
3-जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले ,प्राणियों से पहिले , वृक्ष और समुद्री लताओं से पहिले का है। पहिले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ को ही शक्ति कहते हैं- अन्न रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है।
4-इस शरीर को पुष्टा और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है। अन्न से उत्पन्न और अन्न के आधार पर रहने के कारण शरीर को अन्नमय कोष कहा गया है।जो अन्न के रस से उत्पन्न होता है, जो अन्नरस से ही बढ़ता है और जो अन्न रूप पृथ्वी में ही लीन हो जाता है, उसे अन्नमय कोश एवं स्थूल शरीर कहते हैं।
5-प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान- इन पाँचों वायुओं के समूह और कर्मेन्द्रिय पंचक के समूह को प्राणमय कोश कहते हैं। संक्षेप में यही क्रियाशक्ति है। मनोमय कोश मनन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों के समूह के मिलने से बनता है। इसे इच्छाशक्ति कह सकते हैं। बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियों का समन्वय विज्ञानमय कोश है। यह ज्ञान शक्ति है। इसी प्रकार कारण रूप अविद्या में रहने वाला.. रज और तम से मलिन सत्व के कारण मुदित वृत्ति वाला, आनन्देच्छु कोश आनन्दमय कोश है। 6-इस प्रकार शरीर को पाँच तत्वों की- चेतना को पाँच प्राणों की मिश्रित संरचना माना जाता है, पर यह दृश्यमान शरीर की विवेचना है। शरीर और मस्तिष्क के क्रिया- कलापों से संलग्न एक विशेष विद्युतीय चेतना है। अध्यात्म की भाषा में उसी को अन्नमय कोश कहा गया है। इसे ही वैज्ञानिक भाषा में जैवीय विद्युत- बायो इलेक्ट्रिसिटी कहा जाता है। इसका कार्य शरीरगत क्रिया पद्धति को सुनियोजित और सुनियन्त्रित बनाए रहना है। 7-शरीर की हर इकाई हर कोशिका सेल काया की सबसे छोटी इकाई मानी जाती है। हर सेल में एक 'नाभिक' होता है। इसकी बहुमुखी कार्य प्रणालियाँ हैं। कोशों के टूटते रहने पर उनके स्थानापन्न कोशों की निर्माण पद्धति न्यूक्लियोलस एवं क्रोमैटिन नेटवर्क सम्भालते हैं। भोजन निर्माण "गॉल्गी बॉडीज" के अधीन रहता है। इसी प्रकार की अन्यान्य शरीरगत सूक्ष्म संचालक पद्धतियाँ अन्नमय कोश के अन्तर्गत आती हैं। 8-इस कोश का स्थान यों मुख है, क्योंकि मुख से होकर ही वह पेट में जाता है और रक्त- मांस बनता है, तो भी इसके परिष्कार की साधना मुख तक सीमित नहीं है। व्रत, उपवास विशेष आहार या अमुक मात्रा में निर्भरता के कारण समूचे शरीर का ढाँचा बनता है और जैसा अन्न होता है, वैसी ही प्रकृति एवं प्रवृत्ति का सारा शरीर बनता है। काया का कण- कण अन्न से विनिर्मित है। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि मुख ही अन्न का आधार क्षेत्र है।
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10 POINTS;-
1-हमारे शरीर का दूसरा सूक्ष्म भाग प्राणमय कोश कहा जाता है।पंच कर्मेंद्रियों सहित प्राण, अपान आदि पंचप्राणों को, जिनके साथ मिलकर शरीर सारी क्रियाएँ करता हैं, प्राणमय कोष कहते हैं। हमारे स्थूल शरीर और हमारे मन के बीच में ..प्राणमय कोश है जो एक माध्यम का काम करता है। ज्ञान और कर्म के सम्पादन का समस्त कार्य ;प्राण से बना प्राणमय कोश ही संचालित किया करता है।
2-हमारे द्वारा श्वांसों को लेने व छोड़ने की प्रक्रिया में भीतर-बाहर आने-जाने वाला प्राण हमारे शरीर के समस्त क्रियाशीलता को बनाये रखने और आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने के महत्वपूर्ण कार्य को संपादित किया करता है जो स्थान तथा कार्य के भेद से 10 प्रकार का माना जाता है। उनमें व्यान, उदान, प्राण, समान और अपान मुखय प्राण हैं तथा धनंजय, नाग, कूर्म, कृंकल और देवदत्त उपप्राण कहे जाते हैं।
3-हमारे प्राणों द्वारा संपादित होने वाले प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं - भोजन को सही ढंग से पचाना, शरीर में रसों को समभाव से विभक्त करना तथा उन्हें वितरित करते हुए देहेन्द्रियों को पुष्ट करना, खून के साथ मिलकर देह में हर जगह घूम-घूम कर वैसे मलों का निष्कासन करना, जो देह के विभिन्न भागों में एकत्रित होकर अथवा खून में मिल कर उसे दूषित कर दिया करते हैं।
4- देह के माध्यम से विविध विषयों के भोग का कार्य भी हमारे प्राण ही संपादित किया करते हैं। प्राणविद्या की साधना के नियमित अभ्यास से हमारे प्राणमय कोश की कार्यशक्ति में भी समुचित वृद्धि होती है।
प्राणमय कोष अथार्त प्राण उर्जा। आप अनुभव कर सकते हैं कब उर्जा कम है और कब उर्जा अधिक है।यह एक प्रकार की 'चार्जर' पद्धति है जिसके द्वारा अन्नमय कोश की अन्तरंग क्षमताओं में शक्ति व्यय होते रहने पर उन्हें खोखला नहीं होने देती। वरन बैटरी को डिस्चार्ज होने के पूर्व ही चार्ज कर देती है। इस प्रकार यह एक डायनुमो सिस्टम बन जाता है। 5-प्राणतत्व को चेतन ऊर्जा लाइफ एनर्जी कहा गया है। ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व, विद्यत शब्द आदि ऊर्जा के विविध रूप हैं। आवश्यकतानुसार एक प्रकार की एनर्जी दूसरे प्रकार में बदलती भी रहती है। इन सबका समन्वय ही जीवन है। इस विश्व- ब्रह्माण्ड में मैटर- पदार्थ की तरह ही सचेतन प्राण विद्युत भी भरी पडी़ है। प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा शक्ति का प्राणाकर्षण करके मनुष्य अपने अन्तराल में उसकी अधिक मात्रा को प्रविष्ट कर सकता है।
6-प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ है प्राण का आयाम अथार्त प्राण को एकसमान गति में करना ।यह प्राण यों तो साधारणतया नासिका द्वारा खींची गई वायु शरीर में प्रवेश करता है, पर उसके साथ संकल्प और चुम्बकत्व भी जुडा़ होता है तभी प्राण की मात्रा बहुलता के साथ शरीर में पहुँचती है और टिकती है।प्राणमय कोश की शुद्धि में प्राणायाम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
6-यह प्राण ही विभिन्न अवयवों द्वारा फूटता है। नेत्रों से, वाणी से, भुजाओं, निर्धारणों से व्यवहार से प्राण की न्यूनता एवं बहुलता परिलक्षित होती है। इस प्रकार वह नासिका द्वारा प्रवेश करने पर भी क्षेत्र में सीमित नहीं किया जा सकता। वह समस्त शरीर व्यापी है। 7-प्राणायाम का अर्थ है श्वास की गति को कुछ काल के लिये रोक लेना । साधारण स्थिति में श्वासों की चाल दस प्रकार की होती है - पहले श्वास का भीतर जाना , फिर रुकना , फिर बाहर निकलना ; फिर रुकना , फिर भीतर जाना , फिर बाहर निकलना इत्यादि । प्राणायाम में श्वास लेने का यह सामान्य क्रम टूट जाता है । श्वास (वायु के भीतर जाने की क्रिया ) और प्रश्वास (बाहर जाने की क्रिया ) दोनों ही गहरे और लम्बे होते हैं और श्वासों का विराम अर्थात् रुकना तो इतनी अधिक देर तक होता है कि उसके सामने सामान्य स्थिति में हम जितने काल तक रुकते है वह तो नगण्य ही है ।
8-योग की भाषा में श्वास खींचन को ‘पूरक ’ बाहर निकालने को ‘रेचक ’ और रोक रखने को ‘कुम्भक ’कहते हैं ।पूरक , कुम्भक और रेचक के इन्हीं भेदों को लेकर प्राणायाम के अनेक प्रकार हो गये हैं ।पूरक , कुम्भक और रेचक कितनी -कितनी देर तक होना चाहिये , इसका भी हिसाब रखा गया हैं । यह आवश्यक माना गया है कि जितनी देर तक पूरक किया जय , उससे चौगुना समय कुम्भक में लगाना चाहिये और दूना समय रेचक में अथवा दूसरा हिसाब यह है कि जितना समय पूरक में लगाया जाय उससे दूना कुम्भक में और उतना ही रेचक में लगाया जाय ।
9-प्राणायाम के अभ्यास के लिये कोई -सा उपयुक्ति आसन चुन लिया जाता है , जिसमें सुखपूर्वक पालथी मारी जा सके और मेरुदण्ड सीधा रह सके ।प्राणायाम में सबसे अधिक प्रचलित आसन हैं सिद्धासन व पद्मासन ।शरीर न हिले , न डुले , न दुखे , न चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग हो , ऐसी अवस्थामें बैठने को आसन कहते हैं।आसन करने का मतलब यही है कि शरीर स्वस्थ रहे। परंतु आसन का सबसे मुख्य उद्देश्य यहहै कि मेरूदंड ( पीठ की रीढ़ ) सदा सीधा रहे।
10-प्रत्येक बार कम से कम आधा घंटा अवश्य आसन लगाना चाहिए। इसके लिए सिद्धासन श्रेष्ठ है। सिद्ध योगी सिद्धासन तथा मुक्तपद्मासन की ही सलाह देते हैं।सिद्धासन का अभ्यास करने से योग में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है।इसके कारण वायुपथ सरलहोता है। पद्मासन लगाने से निद्रा , आलस्य , जड़ता और देह की ग्लानि निकल जाती है।
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3-मनोमय कोश;-
07 POINTS;-
1-मनोमय कोश पूरी तरह अन्तःकरण के क्रिया-कलापों के संपादन में अपनी महती भूमिका अदा करता है।मनोमय कोश में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त को परिगणित किया गया है, जिन्हें अन्तःकरण चतुष्टय भी कहते हैं। पांच कर्मेन्द्रियां (वाणी,पैर,हाथ,गुदा व उपस्थ) हैं, जिनका संबंध संसार के बाहरी व्यवहार से अधिक रहता है।
2-स्थूल शरीर की सूक्ष्म चेतना ‘मन’ कहलाती है यों मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय भी माना गया है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ सर्व विदित हैं। मन इन सब का संचालक होने के कारण उसे भी ग्यारहवीं संचालक इन्द्रिय मानते हैं। मन का सारे शरीर पर साम्राज्य है।
3-प्राण तो जीवन तत्व है उसके ऊपर जीवन मरण निर्भर रहता है। मन में इतनी शक्ति तो नहीं है कि जीवन मृत्यु की समस्या उत्पन्न करे पर इतना अवश्य है कि दसों इन्द्रियों की तथा सारे चेतना संस्थान की गति−विधियाँ उसी के आधार पर संचालित होती हैं।
4-देखने में मनुष्य हाड़ माँस का बना मालूम होता है। पर ध्यान पूर्वक देखा जाय तो वह विचार और विश्वासों का बना होता है। हाड़−माँस सभी मनुष्यों का प्रायः एक समान होता है। नाक, कान की बनावट में बहुत थोड़ा अन्तर पाया जाता है। आहार−विहार भी प्रायः एक सा ही देखा जाता है। इतने पर भी व्यक्तियों में इतना अन्तर होता है कि उसे आकाश−पाताल कहा जा सकता है। यह अन्तर शारीरिक स्थिति का नहीं, वरन् मानसिक स्थिति का होता है।
5-मानसिक स्थिति का आधारविचार, विश्वास, अभिरुचि, आकाँक्षा और दृष्टिकोण का निर्धारण हमारी मानसिक स्थिति के आधार पर होता है और उन्हीं तथ्यों में भिन्नता रहने से हर मनुष्य का व्यक्तित्व पृथक-पृथक प्रकार का बनता है। मानसिक स्थिति ही व्यक्तित्वों के अन्तर का प्रधान कारण है। धन, विद्या, वैभव, सत्ताशक्ति आदि के उपार्जन में भी मनोभूमि की उत्कृष्टता एवं निकृष्टता प्रधान आधार रहती है। 6-मनोमय कोश यों मस्तिष्क में केन्द्रित माना जाता है। कल्पनाऐं, विचारणाऐं, इच्छाऐं, गतिविधियाँ उसी क्षेत्र में विनिर्मित होती हैं, तो भी वह उस क्षेत्र तक सीमित नहीं। पंच ज्ञानेन्द्रियों की अपनी- अपनी भूख है। शरीरगत और मनोगत आवश्यकताऐं चिन्तन की अमुक सीमा निर्धारित करती हैं। इसलिए वह भी आत्मसत्ता के हर क्षेत्र में संव्याप्त माना जाता है।
7- मन के क्रिया-कलापों के प्रति जाग्रत रहकर जो विचारों की सुस्पष्टता और शुद्ध अवस्था में स्थित हो पूर्वाग्रहों से मुक्त होता है वही विज्ञानमय कोश में स्थित हो सकता है।मन को उच्चतर रूपों में रूपांतरित कहने के लिए प्रत्याहार और धारणा को साधने का प्रावधान है।मन की मनमानी के प्रति जाग्रत रहने और इसके सधने पर ही आत्मा विज्ञानमय कोश के स्तर में स्थित होती है। 4-विज्ञानमय कोश;-
02 POINTS;-
1-हमारे सूक्ष्म शरीर का दूसरा भाग ज्ञान प्रधान है और उसे हमारे प्राचीन मनीषियों ने विज्ञानमय कोश कहा है। इसके मुख्य माध्यम ज्ञानयुक्त बुद्धि एवं ज्ञानेन्द्रियां(श्रवण,त्वचा,चक्षु,जिह्वा व नासिका ) हैं। जो मनुष्य पूरी समग्रता से समझ बूझ कर विज्ञानमय कोश का उचित ढंग से इस्तेमाल करता है और असत्य, भ्रम, मोह, आसक्ति आदि से पूरी तरह दूर रहकर हमेशा ध्यान आदि योगक्रियाओं का अभ्यास किया करता है, उसको उचित-अनुचित का निर्णय करने वाली विवेक युक्त बुद्धि बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है।
2- विज्ञानमय कोश बिल्कुल अलग प्रकृति का है। अंग्रेजी में इसके लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं है, इसलिए इसे आम तौर पर ईथरिक बॉडी (सूक्ष्म शरीर) या आध्यात्मिक काया कहते हैं। यह एक अस्थायी शरीर होता है क्योंकि यह स्थूल से सूक्ष्म प्रकृति में विचरण करता है। मध्यवर्ती स्थान या मध्यवर्ती स्थिति को व्योम या “विज्ञान” कहा जाता है। 5-आनन्दमय कोश;-
08 POINTS;-
1-पाँचवाँ कोश आनन्दमय कोश है। इसका उदगम यों मस्तिष्कीय मध्यभाग सहस्त्रार चक्र को माना गया है, जिसे कैलाश मानसरोवर की, शेष शैय्या और क्षीर सागर की, कमल पुष्प पर तप करते ब्रह्मा की उपमा दी गई है। यह आनन्द वस्तुतः दृष्टिकोण के परिष्कृत होने से सम्बन्धित है।जिस आवरण में पहुँचने पर आत्मा को आनंद मिलता है, जहां उसे शांति, सुविधा, स्थिरता, निश्चिन्तता एवं अनुकूलता की स्थिति प्राप्त होती है, वही आनंदमय कोष है ।
2-गीता के दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ की जो परिभाषाएं की गयी हैं और समाधिस्थ के जो लक्षण बताये गए हैं , वे ही गुण ,कर्म ,स्वभाव ..आनंदमयी स्थिति में हो जाते हैं।आनंदमय कोश में पहुंचा हुआ जीव अपने पिछले सारे चार शरीरों अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय कोश को भली प्रकार समझलेता है ।आनन्दमय कोश की स्थिति पञ्ज भूमिका है।इसे समाधि अवस्था भी कहते हैं।
3-गीता के दूसरे अध्याय में भगवन श्रीकृष्ण ने बताया है कि स्थितप्रज्ञ मनुष्य अपने भीतर की आत्म स्थिति में रमण करता है। सुख दुःख में समान रहता है, न प्रिय से राग करता है, न अप्रिय से द्वेष करता है। इन्द्रियों को ईन्द्रियों तक ही सिमित रहने देता है, उसका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता, कछुआ जैसे अपने अंगों को समेटकर अपने भीतर कर लेता है , वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में न फैलाकर अपनी अंतः भूमिका में ही समेट लेता है, जिसकी मानसिक स्थित ऐसी होती है उसे योगी, ब्रह्मभूत, जीवन मुक्त, या समाधिस्थ कहते हैं ।
4-समाधि अनेक प्रकार की हैं। काष्ठ या जड़- समाधि, भाव-समाधि, ध्यान-समाधि, प्राण-समाधि, सहज- समाधि आदि 27 समाधियाँ बताई गई हैं। मूर्छा, नशा एवं क्लोरोफॉर्म आदि सूंघने से आई हुई समाधि को काष्ठ-समाधि कहते हैं। किसी भावना का इतना अतिरेक हो कि मनुष्य की शारीरिक चेष्टा संज्ञाशून्य हो जायें उसे भाव-समाधि कहते है।
5-ध्यान में इतनी तन्मयता आ जाय कि उसे अदृश्य एवं निराकार सत्ता साकार दिखाई पड़ने लगे, उन्हें ध्यान समाधि कहते हैं, इष्ट देव के दर्शन जिन्हें होते हैं, ध्यान-समाधि की अवस्था में ऐसी चेतना आ जाती है कि वह अन्तर उन्हें विदित होने पाता है कि हम दिव्य नेत्रों से ध्यान कर रहे हैं या आँखों से स्पष्ट रूप से अमुक प्रतिमा को देख रहे हैं। प्राण-समाधि ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकत्रित करके की जाती है। हठयोगी इसी समाधि द्वारा शरीर को बहुत समय तक मृत बनाकर भी जीवित रहते हैं। अपने आपको ब्रह्म में लीन होने का जिस अवस्था में बोध होता है उसे ब्रह्म समाधि कहते हैं।
6-इस प्रकार 27 समाधियों में से वर्तमान देशकाल पात्र की स्थिति में सहज समाधि सुलभ और सुख साध्य है। महात्मा कबीर ने सहज समाधि पर बड़ा बल दिया है। अपने अनुभव से उन्हें सहज समाधि को सर्व सुलभ देखकर अपने अनुयायियों को इसी साधना के लिए प्रेरित किया है।
महात्मा कबीर का वचन है-
साधो ! सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप भयो जा दिन ते सुरति न अनत चली ॥
आँख न मूँदूँ कान न रूँदूँ काया कष्ट न धारूँ।
खुले नयन से हँस- हँस देखूँ सुन्दर रूप निहारूँ ॥
कहूँ सोईनाम, सुनूँ सोई सुमिरन खाऊँ सोई पूजा।
गृह उद्यान एक सम लेखूँ भाव मिटाऊँ दूजा ॥
जहाँ- जहाँ जाऊँ सोई परिक्रमा जो कुछ करूँ सो सेवा।
जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत पूँजू और न देवा ॥
शब्द निरन्तर मनुआ राता मलिन वासना त्यागी।
बैठत उठत कबहूँ ना विसरें, ऐसी ताड़ी लागी ॥
कहैं ‘कबीर’ वह अन्मनि रहती सोई प्रकट कर गाई।
दुख सुख के एक परे परम सुख, तेहि सुख रहा समाई ॥
7-उपरोक्त पद में सदगुरु कबीर ने सहज की समाधि की स्थिति का स्पष्टीकरण किया है। यह समाधि सहज है, सर्व सुलभ है, सर्व साधारण की साधना शक्ति के भीतर है इसलिए उसे सहज समाधि का नाम दिया गया है। हठ-साधनायें कठिन हैं। उनका अभ्यास करते हुए समाधि की स्थिति तक पहुँचना असाधारण कष्ट-साध्य है। चिरकालीन तपश्चर्या षट्कर्मो की श्रम- साध्य साधना सब किसी के लिए सुलभ नहीं है। अनुभवी गुरु के सम्मुख रहकर विशेष सावधानी के साथ वे क्रियायें साधनी हैं, फिर यदि उनकी साधना खण्डित हो जाती है तो संकट भी सामने आ सकते हैं।
8-कबीर ने उसी समाधि का उपरोक्त पद में उल्लेख किया है, कहते हैं- हे साधुओं ! सहज समाधि श्रेष्ठ है जिस दिन से गुरु की कृपा और वह स्थिति प्राप्त हुई है, उस दिन से सूरतु दूसरी जगह नहीं गई, चित्त डावाँडोल नहीं हुआ, मैं आँख मूँदकर, कान मूँदकर कोई हठयोगी की तरह काया में कष्टदायिनी साधना नहीं करता। मैं तो आँख खोले रहता हूँ और हँस- हँसकर परमात्मा की पुनीत कृति का सुन्दर रूप देखता हूँ। जो कहता हूँ सो नाम जप है, जो सुनाता हूँ सो सुमिरन है, जो खाता-पीता हूँ सो पूजा है। घर और जंगल एक -सा देखता और अद्वैत का अभाव मिटाता हूँ जहाँ- जहाँ जाता हूँ सोई परिक्रमा है, जो कुछ करता हूँ सोई- सोई सेवा है। जब सोता हूँ तो वह मेरी दण्डवत् है। मैं एक को छोड़कर अन्य देव को नहीं पूजता। मन की मलिन वासना छोड़कर निरन्तर शब्द में, अन्तःकरण की ईश्वरीय वाणी सुनने में रत रहता हूँ। ऐसी ताली लगी है, निष्ठा जमी है कि उठते- उठते वह कभी नहीं बिसरती। कबीर कहते हैं कि “मेरी यह उनमनि- हर्ष शोक से रहित स्थिति है, जिसे प्रकट करके गाया है। दुख-सुख से परे जो एक परम सुख है, मैं उसी में समाया रहता हूँ।”
8-यह सहज समाधि उन्हें प्राप्त होती है ‘जो शब्द में रत’ रहते हैं। भोग एवं तृष्णा की क्षुद्र वृत्तियों का परित्याग करके जो अन्तःकरण में प्रतिक्षिण ध्वनित होने वाले ईश्वरीय शब्दों को सुनते हैं, सत् की दिशा में चलने की ओर दैवी संकेतों को देखते हैं और उन्हीं को जीवन- नीति बनाते हैं वे ‘शब्द रत’ सहसज योगी उस परम आनन्द की सहज समाधि में सुख को प्राप्त होते हैं। चूँकि उनका उद्देश्य ऊँचा रहता है, दैवी प्रेरणा पर निर्भर रहता है, इसलिए उनके समस्त कार्य पुण्य रूप बन जाते हैं। इन सभी कोषों का समाप्त होना ही आध्यात्मिक अर्थों में उनका शुद्ध होना है क्यूंकि इससे ही जीवात्मा अपने स्वरुप में और सहजता से व्याप्त हो भगवत्पथ पर दृढ रहता है ।
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15 FACTS;- 1-यह पाँचों कोश दिव्य शक्तियों के भाण्डागार हैं। जिस प्रकार पंच रत्न, पंच देव, पंच गव्य पंचाग, वातावरण के पंच आयाम एवं ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म पंचकणों आदि की गणना होती है, उसी प्रकार पंचकोशों की महत्ता समझी जाती है।इन्हें जागृत करने के लिए साधक को उच्चस्तरीय तपश्चर्याऐं करनी होती हैं। तपाने से मनुष्य कुछ से कुछ हो जाता है।
2- सामान्य अर्थों में सीमित सन्तुलित और सात्विक भोजन करना, अन्नमय कोश की साधना कही जाती है। साहस, संकल्प, पराक्रम अनुसन्धान को कडा़ई से अपनाने पर प्राणमय कोश सधता रहता है। श्रेष्ठ ही देखने खोजने और सोचने विचारने से मनोमय कोश सध जाता है। इसी तरह संकीर्णता छोड़कर विशालता के साथ जुड़ जाने पर विज्ञानमय कोश सधता है और सादा जीवन उच्च विचार की, बालकों जैसी निश्छलता की आदत डालने पर, हार- जीत में हँसते रहने वाले प्रज्ञावानों की तरह हर किसी अवसर में आनन्दित रहने पर आनन्दमय कोश सध जाता है।
3-यह सर्वसाधारण की अतिशय सुगम पंचकोशी साधना हुई, पर उच्चस्तरीय पंचकोश साधना के लिए एकान्त मौन, स्वल्पाहार, संयम, लक्ष्य के प्रति तन्मयता जैसे अनुबन्ध अपनाने पड़ते हैं। तप- तितीक्षा का स्तर ऊँचा करना पड़ता है। और 'स्व' को 'पर' में पूरी तरह समर्पित करना पड़ता है। इस सन्दर्भ में ऐसी कष्ट साध्य तपश्चाऐं करनी पड़ती हैं। जिसके सम्बन्ध में अनुभवी मार्गदर्शकों की सहायता से ही योजनाबद्ध कार्यपद्धति निर्धारित की जाती है। 4-मानव जीवन की क्षमताऐं पाँचकोशों की पाँच धाराओं में विभाजित हैं। इस सन्दर्भ में इन तथ्यों को भी जान लेना आवश्यक है कि अन्नमय कोश का अर्थ है इन्द्रिय चेतना। प्राणमय कोश अर्थात जीवनी शक्ति। मनोमय कोश विचार बुद्धि। विज्ञानमय कोश अचेतन सत्ता एवं भाव प्रवाह। आनन्दमय कोश- आत्मबोध। 5-प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप ही विकसित होता है। कृमि कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द गिर्द घूमती रहती है। शरीर ही उनका सर्वस्व होता है। उनका 'स्व' काया की परिधि में ही सीमित रहता है। इससे आगे की न उनकी इच्छा होती है, न विचारणा, क्रिया। इस वर्ग के प्राणियों को अन्नमय कह सकते हैं। आहार ही उनका जीवन है। पेट तथा अन्य इन्द्रियों का समाधान हो जाने पर वे सन्तुष्ट रहते हैं। 6-प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होती है। संकल्प, बल साहस आदि स्थिरता और दृढ़ता बोधक गुणों में इसे जाना जा सकता है। जिजीविषा के आधार पर ऐसे प्राण मनोबल का सहारा लेकर भी अभावों और कठिनाइयों से जूझते हुए जीवित रहते हैं जबकि कृमि कीटक ऋतु प्रभाव जैसी प्रतिकूलताओं से प्रभावित न होकर बिना संघर्ष किए प्राण त्याग देते हैं। सामान्य पशु पक्षी इसी स्तर के होते हैं। इसलिए साहसिकता के अनुरूप उन्हें प्राणी कहा जाता है।
7-निजी उत्साह पराक्रम करने के अभ्यास को प्राण शक्ति कहते हैं यह विशेषता होने के काराण कृमि कीट्कों की तुलना में बडे़ आकार के पुरूषार्थी जीव प्राणधारियों की संज्ञा में गिने जाते हैं। यों जीवन तो कृमि कीटकों में भी होता है पर वे प्रकृति प्रेरणा की कठपुतली भर होते हैं। निजी संकल्प विकसित होने की स्थिति बनने पर प्राणतत्व का आभास मिलता है। यह कृमि कीटकों से ऊँची स्थिति है। 8-मनोमय स्थिति विचारशील प्राणियों की होती है। यह और भी ऊँची स्थिति है। मनन अर्थात चिन्तन। यह पशु- पक्षियों से ऊँचा स्तर है। इस पर पहुँचे हुए जीव को मनुष्य संज्ञा में गिना जाता है। कल्पना, तर्क, विवेचना, दूरदर्शिता जैसी चिन्तनात्मक विशेषताओं के सहारे औचित्य- अनौचित्य का अन्तर करना सम्भव होता है। स्थिति के साथ तालमेल बिठाने के लिए इच्छाओं पर अंकुश रख सकना इसी आधार पर सम्भव होता है। 9-विज्ञानमय कोश इससे भी ऊँची स्थिति है। इसे भाव संवेदना का स्तर कह सकते हैं। दूसरों के सुख दुख में भागीदार बनने की सहानुभूति के आधार पर इसका परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आत्मभाव का आत्मियता का विस्तार इसी स्थिति में होता है। अन्तःकरण विज्ञानमय कोश का ही नाम है। दयालू, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन और परोपकार परायण व्यक्तियों का अन्तराल ही विकसित होता है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है। महामानवों का यही स्तर समुन्नत रहता है। 10-चेतना का यह परिष्कृत स्तर, सुपर ईगो, उच्च अचेतन आदि नामों से जाना जाता है। इसकी गति सूक्ष्म जगत में होती है। वह ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म चेतना के साथ अपना सम्पर्क साध सकती है। अदृश्य आत्माओं, अविज्ञात हलचलों और अपरिचित सम्भावनाओं का आभास इसी स्थिति में मिलता है। अचेतन ही वस्तुतः व्यक्तित्व का मूलभूत आधार होता है। इस अचेतना का अभीष्ट उपयोग कर सकना परिष्कृत विज्ञानमय कोश के लिए ही सम्भव होता है। 11-आनन्दमय कोश आत्मा की उस मूलभूत स्थिति की अनुभूति है, जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरूप कह सकते हैं, जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरूप कह सकते हैं। सामान्य जीवधारी यहाँ तक कि अधिकांश मनुष्य भी अपने आपको शरीर मात्र मानते हैं और उसी के सुखदुख में सफलता असफलता अनुभव करते रहते हैं। आकांक्षाऐं, विचारणाऐं एवं क्रियाऐं इसी छोटे क्षेत्र तक सीमाबद्ध रहती हैं। यही भवबन्धन है। इसी कुचक्र में जीव को विविध विधि त्रास सहने पड़ते हैं।
12-आनन्दमय कोश जागृत होने पर जीव अपने को अविनाशी ईश्वर अंश, सत्य, शिव, सुन्दर मानता है। शरीर, मन और साधन एवं सम्पर्क परिकर को मात्र जीवनोदेश्य के उपकरण मानता है। यह स्थिति ही आत्मज्ञान कहलाती है। यह उपलब्ध होने पर मनुष्य हर घडी़ सन्तुष्ट एवं उल्लसित पाया जाता है। जीवन मंच पर वह अपना अभिनय करता रहता है। उसकी संवेदनाऐं भक्तियोग, विचारणाएं, ज्ञान और क्रियाऐं कर्म योग जैसी उच्च स्तरीय बन जाती हैं। 13-ईश्वर मानवी सम्पर्क में आनन्द की अनुभूति बन कर आता है।ब्रह्म की उच्चस्तरीय सरसता के रूप में व्याख्या की गयी हैं। सत चित, आनन्द की संवेदनाऐं ही ईश्वर प्राप्ति कहलाती हैं, अपना और संसार का वास्तविक सम्बन्ध और प्रयोजन समझ में बिठा देने वाला तत्व दर्शन हृदयंगम होने पर ब्रह्मज्ञानी की स्थिति बनती है। इसी को जीवन मुक्ति देवत्व की प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन आदि के नामों से पुकारते हैं।
14-आत्म परिष्कार के इस उच्च स्तर पर पहुँच जाने के उपरान्त अभावों, उद्वेगों से छुटकारा मिल जाता है। परम सन्तोष का परम आनन्द का लाभ मिलने लगने की स्थिति आनन्दमय कोश की जागृति कहलाती है। ऐसी ब्रह्मवेत्ता अस्थि मांस के शरीर में रहते हुए भी ऋषि, तत्वदर्शी, देवात्मा एवं परमात्मा स्तर तक उठा हुआ सर्व साधारण को प्रतीत होता है। उसकी चेतना का, व्यक्तित्व का, स्वरूप, सामान्य की तुलना में अत्यधिक परिष्कृत होता है। तदनुसार वे अपने में आनन्दित रहते हैं और दूसरों को प्रकाश बाँटते हैं। 15-कोशों के जागृत होने पर व्यक्तित्व का स्तर कैसा होता है..शिव गीता के अनुसार... ''काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर्य ..यह छः शत्रु और ममता, तृष्णा आदि दुष्प्रवृत्तियाँ मनोमय कोश में छिपी रहती हैं। कोश साधना से उन सब का निराकरण होता है। मानसिक स्थिरता आने पर चित परब्रह्म परमात्मा में लग जाता है।''
NOTE;-
पंचकोशों का जागरण जीवन चेतना के क्रमिक विकास की प्रक्रिया है। यह सृष्टि क्रम के साथ मंद गति से चल रही है। यह भौतिक विकासवाद है। मनुष्य प्रयत्न पूर्वक इस विकास क्रम को अपने पुरूषार्थ से अधिक तीव्र कर सकता है और उत्कर्ष के अन्तिम लक्ष्य तक इसी जीवन में पहुँच सकता है।यही पंचकोशी साधना है।जप से ध्यान में सौगुना अधिक फल मिलता है।और ध्यान की अपेक्षा सौगुना अधिक लाभ होता है लय योग से।इन सभी कोषों का समाप्त होना ही आध्यात्मिक अर्थों में उनका शुद्ध होना है क्यूंकि इससे ही जीवात्मा अपने स्वरुप में और सहजता से व्याप्त हो भगवत्पथ पर दृढ रहता है ।
...SHIVOHAM.......