क्या है... आत्मा का अस्तित्व?वह परमात्मा सत्ता का प्रतीक कैसे है?आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कैसे
आत्मा क्या है?-
17 FACTS;-
1-हमारा शरीर पंच तत्वों यानी जल, आकाश, वायु, अग्नि और पृथ्वी से मिलकर बना है। जब किसी की मृत्यु होती है, तो शरीर इन्हीं पंचतत्वों में विलीन हो जाता है और आत्मा अदृश्य रूप में मौजूद रहती है। यदि मर चुके व्यक्ति ने जिंदगी भर अच्छे कर्म किए हैं, तो वैदिक ग्रंथों के अनुसार उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। तब आत्मा जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है।
2-सृष्टि की रचना व पालन, मनुष्य आदि प्राणियों की विधि विधान पूर्वक उत्पत्ति व जन्म मरण तथा सुख दुख की व्यवस्था देख कर ईश्वर की सत्ता का ज्ञान व अनुभव होता है। मनुष्य में हम दो प्रकार के पदार्थ वा पदार्थों का अस्तित्व देखते हैं। एक जड़ पदार्थ है और दूसरा चेतन पदार्थ है। मनुष्य का शरीर जब मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह मृत्यु होने पर निर्जीव व आत्मा विहिन होने से पूर्णतया जड़ व अचेतन हो जाता है। उसे कोई कांटा चुभाये, अंगों को काटे या फिर अग्नि को समर्पित कर दे, उसे किंचित पीड़ा नहीं होती जबकि उसके जीवनकाल में एक छोटा सा कांटा चुभने पर भी मनुष्य तड़फ उठता है। यह जो तड़फ व पीड़ा होती है यह मनुष्य शरीर में चेतन तत्व की विद्यमानता है। जब तक आत्मा शरीर में रहती है शरीर सुख व दुःख, भूख, प्यास, रोग व शोक आदि का अनुभव करता है और जब आत्मा निकल जाती है तो उसे ही मृत्यु कहते हैं। उसके बाद जो जड़ शरीर बचता है उसे किसी प्रकार की संवेदना वा सुख, दुःख की अनुभूति नहीं होती है।
3-श्रीमद्भागवत् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘आत्मा कभी नहीं मरती’। आत्मा अमर है, आत्मा ना जन्म लेती है ना मरती है। आत्मा एक ऐसी ऊर्जा है, जो एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है और समय आने पर उस शरीर को छोड़कर चली जाती है और तब तक किसी नए शरीर में प्रवेश नहीं करती.. जब तक ईश्वरीय आदेश ना हो।
4-आत्मा का कोई धर्म नहीं, ना ही वह पुरुष है और न ही वह स्त्री, वह तो परमात्मा का अंश मात्र है। परमात्मा न हिंदू है, ना मुस्लिम है, ना सिख, ना ईसाई है ना ही यहुदी और ना ही बौद्ध, परमात्मा से सारा संसार जन्म लेता है। आत्मा एक ऐसी जीवन-शक्ति है, जिसके कारण हमारा शरीर जिंदा रहता है। यह एक दैवीय शक्ति है, यह कोई व्यक्ति नहीं है। इस जीवन-शक्ति के बिना हमारे प्राण छूट जाते हैं और हम मिट्टी में फिर मिल जाते हैं। जब शरीर से आत्मा या जीवन-शक्ति निकलती है, तो शरीर मर जाता है और वहीं लौट जाता है, जहां से वह निकला था यानी पृथ्वी के पंचतत्वों में। उसी तरह जीवन-शक्ति भी वहीं लौट जाती है, जहां से वह आई थी यानी परमात्मा के पास।
5-महाभारत युद्ध के पहले जब अर्जुन हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि, ‘मैं अपने सामने खड़े पितामह, गुरु, चाचा, ताऊ, भाई को नहीं मारूंगा। तब अर्जुन को यूं शोक करते देख कर श्रीकृष्ण ने समझाया कि इस संसार में कोई शोक करने योग्य नहीं है, क्योंकि यहां कोई मरता ही नहीं है। सभी आत्माएं हैं और आत्मा कभी नहीं मरती।
6-जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से फिर पूछा, ‘वह कौन है जो अमर आत्मा और नश्वर शरीर का बार-बार संयोग करवाता है?’ तब श्रीकृष्ण बोले, ‘एक और शरीर है, जो आत्मा के लिए भीतर का वस्त्र है। वह है सूक्ष्म शरीर। उसे अंत:वस्त्र भी कह सकते हैं। वह शरीर एक प्रकार के विद्युत कणों से ही निर्मित है। वह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से बना है। इसे ‘कारण शरीर’ या जीवात्मा भी कहते हैं। यह शरीर पिछले जन्म से साथ आता है। स्थूल शरीर मिलता है माता-पिता से, सूक्ष्म शरीर मिलता है पूर्वजन्म से, लेकिन आत्मा तो सदा शाश्वत ही है। सूक्ष्म शरीर न हो, तो स्थूल शरीर ग्रहण नहीं किया जा सकता। सूक्ष्म शरीर छूटने का अर्थ है ‘मोक्ष’। सारी साधनाएं इस सूक्ष्म शरीर को छोड़ने के लिए, इससे मुक्ति के लिए ही की जाती हैं।’
7-कठोपनिषद्( द्वितीय अध्याय)केअनुसार;-
''यह आत्मा ही वह परमेश्वर है, जिसे जान लेने पर मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। वह परम पुरुष अंगुष्ठ मात्र देह में स्थित होकर भूत भविष्यत् आदिकाल में सब पर शासन करता है। यही वह परमेश्वर है, जो आज भी है, कल भी रहेगा। वह अमुख प्रमाण परिणाम वाला पुरुष निर्धूम ज्योति (अत्यन्त उज्ज्वल प्रकाश) के समान है एवं भूत, भविष्यत् सब कालों पर शासन करता है।''
8-श्वेता श्वतरोपनिषद के अनुसार श्वेता श्वतरोपनिषद में दो ऋचाओं में ,शास्त्रकार ने जीवन के विराट-दर्शन को सूत्र-रूप में पिरो दिया है।एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया ..''विद्या और अविद्या में भेद क्या है''? उत्तर है— ‘‘ ''हे तात! नाशवान् जड़ पदार्थ हैं ,वही अविद्या है तथा अविनाशी आत्मा ही विद्या रूप है।''
इसी उपनिषद् में अविनाशी आत्मा की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि ...
''परमात्मा सभी में आत्मा के रूप में देहधारियों में निवास करता हुआ भी अपनी माया से आच्छादित रहने के कारण प्रकट नहीं होता। केवल सूक्ष्म दर्शियों को ही सूक्ष्म बुद्धि द्वारा दर्शन देता है। अविवेकी बुद्धि और असंयत मन वाला अपवित्र हृदय मनुष्य जन्म मृत्यु के चक्र में घूमता रहता है और परमपद को कभी प्राप्त नहीं कर सकता।''
9-शरीर और आत्मा की प्रथकता को जानते बहुत हैं, पर मानते कोई-कोई ही हैं। मरने के बाद भी जीवन का अस्तित्व बना रहता है, इसे प्रत्येक धर्मावलम्बी मानता है। हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता को पूरी तरह स्वीकार किया गया है। ईसाई, मुसलमान पुनर्जन्म तो नहीं मानते पर मरणोत्तर जीवन स्वीकार करते हैं। शरीर न रहने पर भी आत्माओं का बना रहना और ब्रह्म-लोक में प्रलय के दिन उनके क्रियाकलाप को उचित-अनुचित ठहराया जाना उनके यहां भी स्वीकारा गया है। इन सभी स्थितियों में मृत्यु हो जाने के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहने की बात को माना गया है।
10-परामनोविज्ञानी पुनर्जन्म की घटनाओं को पदार्थ का रूपान्तर मानता है। उनके अनुसार शरीर में जो जीन्स होते है, उनमें स्मृतियाँ विद्यमान् रहती है। मरने के बाद शरीर नष्ट हो जाता है पर जीन्स नहीं होते। उनका रूपान्तर होता है। राख बन जाते है। राख मिट्टी में मिल जाती है, मिट्टी से वही जीन्स किसी वृक्ष में चले जाते है, वृक्ष के पत्ते फल या दानों में वही जीन्स पहुँच जाते है। फल कोई मनुष्य खा लेता है और जीन्स वीर्य में परिवर्तित हो जाते है फिर उससे किसी बालक का जन्म होता है। बालक के स्मृति पटल (सेरोबोलम) में पहुँचकर वही जीन्स जब जागृत हो उठता है तो संयोग वश यदाकदा उसे वह घटनायें भी याद हो आती है, जो पूर्व जन्म के शरीर में थीं।
11-इस तरह परामनो-विज्ञान की मान्यता यह है कि पुनर्जन्म जीन्स का होता है, आत्मा नामक कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इस तरह पुनर्जन्म के सिद्धान्त को पाश्चात्य अनुसंधान केन्द्रों ने काट दिया और उसके द्वारा आत्मा के अस्तित्व को मानने के इनकार कर दिया।कितने ही बालक संगीत आदि की ऐसी अद्भुत प्रतिभा अतिन्यून आयु में ही प्रदर्शित करते हैं, जिसका मानव मस्तिष्क-विकास के स्वाभाविक विकास के साथ कोई ताल-मेल नहीं खाता। इन अद्भुत उदाहरणों का समाधान ‘‘पूर्व जन्मों की विद्या का अनायास प्रकटीकरण’’ मानने के अतिरिक्त और किसी प्रकार नहीं होता। 12-भूत-प्रेतों के अस्तित्व को विज्ञ-समाज में अन्ध विश्वास और वहम भर माना जाता रहा है।पर यत्र-तत्र ऐसे भी प्रमाण सामने आते हैं ,जिन्हें देखते हुए मरण के उपरान्त भी आत्माओं के किसी रूप में बने रहने और हलचलें करने की बात को स्वीकार करना ही पड़ता है। किसी न किसी आधार पर प्रायः हर वर्ग का व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि मृत्यु के बाद ही जीवन का अन्त नहीं हो जाता, वरन् पीछे भी बना रहता है। शरीर के बिना भी जो जीवित रहता है, उसे आत्मा ही कहा जायगा। इस प्रकार यह मरणोत्तर जीवन की मान्यता आस्तिकों तक ही सीमित नहीं रही, वरन् नास्तिक वर्ग भौतिक प्रमाणों के आधार पर इस तथ्य को क्रमशः स्वीकार करता चला जा रहा है। 13-हिन्दू पौराणिक कहानियों के अनुसार आत्मा मरने के बाद विभिन्न पड़ाव पार करती है। यमलोक जाने के लिए वह कई तरह की अड़चनों को पार करती हुई जाती है। और यमलोक पहुंचने पर ही उस आत्मा के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा होने के बाद, उसे स्वर्ग या फिर नर्क की प्राप्ति होती है। 14-इस एक मनोवैज्ञानिक चक्रव्यूह ही कहना चाहिए कि हम अपने आपको अर्थात् आत्मा को भूल बैठे हैं। शरीर प्रत्यक्ष है, आत्मा अप्रत्यक्ष। चमड़े से बनी आंखें और मज्जा-तन्तुओं से बना मस्तिष्क केवल अपने स्तर के शरीर और मन को ही देख-समझ पाता है। जब तक चेतना-स्तर इतने तक ही सीमित रहेगा, तब तक शरीर और मन की सुख सुविधाओं की बात ही सोची जाती रहेगी। उससे आगे बढ़कर इस तथ्य पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर सकना सम्भव ही न होगा कि हमारी आत्मा का स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है और आन्तरिक प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए क्या किया जाना चाहिए?या क्या किया जा सकता है? 15-सूक्ष्म तत्वों को देखने -समझने के लिए एक विशेष दिव्य दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है, अध्यात्म की भाषा में उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं। यह दिव्य-दृष्टि जगे तो शरीर और मन्त्र के घेरे से ऊंचे उठकर वस्तु स्थिति को देखना -समझना सम्भव हो सकता है।मोटी दृष्टि हमें शरीर और मन की परिधि तक ही सीमित रखती है। स्थूल पदार्थों के चिन्तन तक ही उसकी पहुंच है।तभी स्थूल दृष्टि से आत्म-कल्याण की बात पंच-तत्वों से बने धर्मोपकरण, तीर्थ ,मन्दिर दान, उपवास जैसे साधनों तक ही सीमित रहती है। 16-लोग सुख के लिए उछल-कूद करते रहते हैं, किन्तु शान्ति के सम्बन्ध में सोचते भी नहीं। फिर वह मिले कैसे? अशान्त अन्तःकरण की जलन-सुख साधनों की कुछ बूंदों से शान्त नहीं हो सकती। यही कारण है की धनाधीश, सत्ताधारी और सम्मानित व्यक्ति आन्तरिक दृष्टि से विक्षुब्ध ही बने रहते हैं।आत्म-शान्ति का स्वरूप क्या हो सकता है? उसकी कल्पना स्वर्ग में आहार निवास उपभोग के प्रचुर साधनों की परिधि तक ही कल्पना करती है। मानो मरने के उपरान्त भी आत्मा वर्तमान शरीर को ही धारण किये रहेगी और उन्हीं प्रसाधनों के उपभोग से काम चलेगा। 17-यह बात सूझती ही नहीं कि जब वासना-तृष्णा की साधन-सामग्री इस लोक में तृप्ति न दे सकी तो तथाकथित स्वर्ग में बताई गई सुख-सामग्री से आत्मा का क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? इस चिन्तन को बचपन ही कहना चाहिए कि आत्म-शान्ति की आन्तरिक तृप्ति के सन्दर्भ में भी वासना-तृष्णा के साधना जुटाने वाले तथाकथित स्वर्गीय परिस्थितियों में ही आनन्द और सन्तोष मिलने की बात सोचें।
क्या हैं असत्य से सत्य की ओर जाने का मार्ग ?-
08 FACTS;-
1-पूरी दुनिया में, मानव समाज पर नियंत्रण करने के लिये स्वर्ग और नर्क की धारणायें फैलाई गई हैं। जब वे समझ नहीं पा रहे थे कि लोगों पर व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कैसे काबू पाया जाये तो उन्होंने यह तरकीब निकाली, "अगर हम तुम्हें अभी सजा नहीं दे सकते, तो हम तुम्हें वहाँ पकड़ लेंगे। आपके अच्छे कामों के लिए अगर हम आपको यहाँ ईनाम नहीं दे सकते, तो हम आपको वहाँ ईनाम देंगे"।
2-लेकिन अगर सत्य अस्तित्व की वास्तविकता से थोड़ा सा भी अलग है तो वहाँ जाने का कोई मतलब नहीं है। जब हम कहते हैं, "असतो मा सद्गमय" तो इसका अर्थ है, "असत्य से सत्य की ओर यात्रा"। वास्तव में यह कोई यात्रा नहीं है। यात्रा शब्द से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई दूरी पार करनी है पर असलियत में कोई दूरी पार नहीं करनी होती। 'जानना' दूर नहीं है, क्योंकि आप को जो जानना है वो कहीं दूर पर्वत के शिखर पर नहीं है, वह आप के अंदर ही है।
3- योग जिसे नकारता है, वह है - स्वर्ग और नर्क। जब तक स्वर्ग और नर्क की मान्यता है, तब तक भीतरी ख़ुशहाली की तकनीकों और मुक्ति की ओर बढ़ने की प्रक्रिया का कोई मतलब नहीं है क्योंकि आखिरकार आप इन दो जगहों में से ही कहीं जाएँगे - या तो एक बुरी जगह या एक अच्छी जगह। अगर आपको किसी तरह से अच्छी जगह जाने का टिकट मिल जाता है, तो आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है कि आप कैसे जी रहे हैं। 4-मानवता के इतनी बुरी तरह से जीने का एक मुख्य कारण ये है कि इसमें उन्हें धर्म की मदद मिली है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या करते हैं, अगर आप बस ये, ये और ये मानते हैं, तो आपका स्वर्ग जाने का टिकट पक्का है। 5-आप के अंदर जो स्वर्ग और नर्क काम कर रहे हैं, अगर आप उनका नाश नहीं करते तो फिर आप किसी भी प्रकार से सत्य की ओर नहीं बढ़ सकते। फिलहाल, आप का शरीर और मन आप के अंदर ही स्वर्ग या नर्क बना सकते हैं। उनमें ये दोनों ही बनाने की योग्यता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कहाँ हैं, वे स्वर्ग या नर्क का निर्माण कर ही रहे हैं। 6-जिस तरह से आप की उर्जायें काम करती हैं, एक पूर्ण स्वर्ग या नर्क बनाने की सभी सामग्री आप के पास ही है। ये हमेशा इसी क्षेत्र में होगा पर ये स्वर्ग का ब्रह्मांड या नर्क का ब्रह्मांड भी हो सकता है। आप अगर अपने खुद के विवेक से काम करें तो आप का निर्णय होगा, "मुझे नर्क को समाप्त कर के स्वर्ग को रखना चाहिये"। पर ये कभी नहीं होने वाला क्योंकि निर्माण सामग्री एक ही है, एक ही कक्ष है।
7-कोई भी नर्क को समाप्त कर केवल स्वर्ग को नहीं रख सकता, मगर आप अपनी विवेक शक्ति को ज्यादा मजबूत बनाकर ..हर समय आनंदमय रह सकते हैं । आप यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि नर्क का फैलाव आप के अंदर कभी न हो। इसके प्रति सजग रह कर आप ऐसा कर सकते हैं वरना नर्क के फैलाव की संभावना तो हर समय है ही।ये सजग रहने की योग्यता भी एक सीमा तक ही होती है। 8-तो असत्य से सत्य की ओर जाने का मतलब किसी भौगोलिक दूरी को पार करना नहीं है। यह तो एक अंडे के बाहरी खोल की तरह है - अभी आप खोल के बाहर हैं। अगर आप अंदर की ओर मुड़ना चाहते हैं तो आप को लगता है कि जब ये टूट जायेगा तो आप अंदर चले जायेंगे, पर नहीं, चूज़ा बाहर आएगा – पूरी बात यही है।जब आप इसे तोड़ लेते हैं तो कोई अंदर नहीं जाता, एक पूरी तरह से नई संभावना बाहर आती है। इसीलिये, योग में जो प्रतीक चिन्ह है वो सहस्त्रार है -- एक हज़ार पंखुड़ियों वाला पुष्प, जो बाहर आ रहा है, खिल रहा है। आप जब खोल को तोड़ते हैं तो आप ने जिसकी संभावना की कभी कल्पना भी नहीं की थी... वह चीज़ बाहर आती है।
विज्ञान के अनुसार..आत्मा का अस्तित्व
(आत्मा का अस्तित्व है या नहीं... किए गए प्रयोग);-
06 FACTS;-
1-आधुनिक समय में ऐसे कई प्रयोग किए गए, जिनसे यह पुष्टि हो सके कि आत्मा का
अस्तित्व सचमुच है। कैलीफोर्निया के वैज्ञानिक एफएम स्ट्रॉ ने तो इस तरह का एक सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया, जिसमें उन्होंने अखबार के रिपोर्टर को बुलाया। उन्होंने वहां साधारण कैमरों से कुछ रहस्यमय किरणों के चित्र लिए थे। इस प्रयोग के बाद अमूमन वैज्ञानिकों ने यह माना कि मनुष्य शरीर में कोई चैतन्य तत्व, कुछ रहस्यमय किरणें, कोई विलक्षण तत्व और प्रकाश अवश्य है पर उसका रहस्य वे नहीं जान पाए।
2-अमेरिका के विलियन मैक्डूगल का ध्यान भी इस ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने भी आत्मा के अस्तित्व को जानने के लिए प्रयोग प्रारम्भ कर दिये उन्होंने रोगियों का वजन लेने के लिए एक ग्राम से भी सैकड़ों अंश कम भार को भी तौल सके। एक बार एक मरणासन्न रोगी को उसमें लिटाकर वजन लिया। उसके फेफड़ों में कितनी साँस रहती है, उसका तौल पहले ले लिया। कपड़ों सहित पलंग का वजन भी तैयार था। रोगी को जो भी औषधि दी गई, उसका तौल तराजू की सुई बराबर बताती रहती थी।
3-जब तक रोगी जीवित रहा तब तक वह सुई बराबर एक स्थान पर टिकी रही पर जिस क्षण उसके प्राण निकले सुई पीछे हटकर टिक गयी और जब अंक पड़े गये तो वह यह देखा गया कि 1 ओस (आधी छटाँक) वजन कम हो गया है। बाद में भी उन्होंने जितने भी मरणासन्न रोगियों पर यह प्रयोग किया, चौथाई औसत से लेकर डेढ़ औसत तक वजन कम पाया। उन्होंने इस सिद्धान्त की पुष्टि की कि शरीर में कोई अत्यन्त सूक्ष्म तत्व निश्चित रूप से है, वह जीवन का आधार है, उसकी तौल भी उन्होंने उपरोक्त प्रकार के परीक्षणों से प्राप्त की।
4-लाँस एन्जिल्स के प्रोफेसर टवाहनिंग और कार्नल विश्व विद्यालय के डा. ओटो रान ने भी ऐसे प्रयोग किया 1936 में डा. रान ने अपने प्रयोगों के आधार पर लिखा कि इसमें सन्देह नहीं है कि प्रत्येक जीवित मनुष्य के चारों ओर कुछ रहस्य मय किरणों का आवरण रहता है पर वे मृत्यु के उपरान्त लुप्त हो जाती है। विज्ञान जब तक इन अतिसूक्ष्म प्रकाश कणों को नहीं जान पाता, तब तक वह अधूरा और भ्रामक ही रहेगा, क्योंकि जीवन का आधार इन सूक्ष्म किरणों में सन्निहित है और उसके विकास एवं अनुभूति की प्रणाली भिन्न है। 5-आज का विज्ञान यों आत्मा के अस्तित्व तक पहुंच गया है पर इसी ध्यान और अनुभूति (ज्ञान) के अभाव में वह इस तत्व को मानने को तैयार नहीं होता। मनुष्य शरीर जिन छोटी-छोटी प्रोटोप्लाज्मा की ईंटों से बना है वह दो भागों में विभक्त है ...
1. नाभिक (न्यूक्लियस) 2. साइटोप्लाज्म
5-1-वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि नाभिक में ही मनुष्य की सारी बौद्धिक चेतना काम करती है। उसमें न केवल अमर व अविनाशी गुण सूत्र विद्यमान हैं वरन् वह सूत्र सारे ब्रह्माण्ड को नाप सकने की क्षमता से परिपूर्ण हैं।आहार के नियमों तथा जलवायु में परिवर्तन के फलस्वरूप हमारे शरीरों के स्थूल भाग में अन्तर आ सकता है पर अभी तक चेतन की अर्थात् नाभिक की क्रियाओं पर विज्ञान कोई नियन्त्रण नहीं पा सका है।
5-2- साइटोप्लाज्म के अन्तर्गत जल, कार्बन, नाइट्रोजन, आकाश आदि सभी पंच भौतिक ठोस द्रव तथा गैस अवस्था वाले पदार्थ पाये जाते हैं विभिन्न प्राणधारियों का यहां तक कि मनुष्य-मनुष्य के साइटोप्लाज्म में फर्क होता है। यह वंशानुगत आहार पद्धति और जलवायु आदि पर आधारित है और परिवर्तनशील भी है। 6-इसी सिद्धान्त से आज यह भी पुष्ट किया जा सकता है यह आत्मा ही जड़ व चेतन सर्वत्र गतिशील है ।यह चेतना जड़ में भी जाती है इसका प्रमाण है वृक्ष, वृक्ष को शास्त्रों में जड़ व चेतन की सन्धि योनि माना गया है।पेड़, पौधों को जड़ और चेतन के बीच की नीचे की कड़ी कहा जा सकता है और जीवित-ग्रहों को उच्च कड़ी। यह प्रतिपादन ही जड़ता से असीम चेतनता के विकास का प्रमाण माना जा सकता है।
क्या है जड़ चेतन?-
03 FACTS;- 1-शरीर दो प्रकार के परमाणुओं से बनता है एक होते हैं जड़ दूसरे चेतन। जड़ परमाणु चूंकि स्थूल हैं इसलिये वह दिखाई देते हैं किन्तु चेतना एक प्रकार की तरंग, शक्ति और प्रकाश रूप है और देह में इस प्रकार सोखी हुई है जिस प्रकार सूखी मिट्टी का ढेला.. जल सोख लेता है । उसके अस्तित्व का प्रमाण बुद्धि है उसी के न रहने पर शरीर सोचने विचारने की क्रियायें बन्द कर देता है।
2-इस शक्ति का सांसारिक प्रयोजनों में खर्च करते रहने से वह नष्ट होती रहती है ।सारे शरीर में यह चैतन्य तत्व एक शक्ति, एक तरंग की भांति विद्यमान है उसी के न रहने पर शरीर नहीं रहता। यह चेतना ही है जो मनुष्य शरीर से लेकर सृष्टि के स्थूल कणों तक में व्याप्त हो रही है।
3-यह भी कहा गया है कि ज्ञानियों ने उसे देखा है—''ज्ञानियों ''संबोधन का अर्थ ही है 'ज्ञान' अर्थात् वह ज्ञान से ही देखा जा सकता है। ज्ञान कोई पदार्थ नहीं है वह निरपेक्ष अवस्था है अर्थात् जिस समय पदार्थ, समय, गति और कारण सभी एकाकार हो जाते हैं ध्यान की उसी अनुभूति का नाम ज्ञान है। ध्यान द्वारा ही वह आत्मा अपने प्रकाश रूप में दिखाई देता है। क्या है प्लाज्मा?
06 FACTS;- 1-प्लाज्मा ‘‘प्राण शक्ति’’ का वैज्ञानिक नाम है। इसे सूक्ष्म शरीर या प्रकाश शरीर कहा जाता है। विज्ञान के अनुसार प्लाज्मा कोई विशिष्ट वस्तु न होकर ठोस-द्रव तथा गैस की तरह ही पदार्थ की चौथी-अवस्था है। जीवित ग्रहों में प्लाज्मा की उपस्थिति...जीवात्मा के उच्च श्रेणी विकास का प्रमाण है।
2-पृथ्वी के सभी जीवधारियों के शरीर ठोस और द्रव पदार्थों से
बने हैं और इन्हीं की एक अवस्था है 'गैस'।जीवन केवल ठोस स्थिति में ही नहीं द्रव व गैस की अवस्था में भी रह सकता है। वैज्ञानिकों को वह प्रमाण मिले हैं कि जब पृथ्वी तप्त तवे के समान जल रही थी तब भी एक कोषीय जीव पृथ्वी पर उपलब्ध थे। और अब एक नई शक्ति ‘‘प्लाज्मा’’ के ज्ञान ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि यदि गैस स्थिति में जीवन रह सकता है तो प्लाज्मा में भी रह सकता है। 3-प्लाज्मा अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी अत्यन्त शक्तिशाली पदार्थ है। एक पौण्ड नाइट्रोजन का प्लाज्मा से एक इंजिन पूरे एक वर्ष तक चल सकता है। गैस को अत्यधिक गर्म करने से इलेक्ट्रान तीव्र गति करते हैं और एक परमाणु का इलेक्ट्रान हट कर अलग हो जाता है व अन्य परमाणु आयन बन जाता है। यह आयनीभूत गैस ही प्लाज्मा कहलाती है।
4-आजकल विद्युत तारों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थानों पर ले जाई जाती है। पर प्लाज्मा के बारे में ज्ञान से वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि यह विज्ञान जब पूरी तरह विकसित हो जायेगा तो तारों के झंझट से मुक्ति मिल जायेगा तक केवल चुम्बकीय आकर्षण द्वारा कहीं भी शक्ति पैदा कर ली जा सकेगी। 5-प्लाज्मा एक प्रकार का प्रकाश और ताप युक्त प्राण ही है। मनुष्य शरीर से लेकर अन्य चेतन धारियों में वही शक्ति जीवन का आधार है। इसी शक्ति के पतन से मनुष्य लघुतम बनता है तो इसी के विकास से वह सूर्य जैसी महान् गुणों वाली चेतना में अपना विकास करके विराट बन जाता है। इसी का नाम विद्या है इस विद्या की प्राप्ति के लिये भारतीय आचार्यों ने अनेक साधनायें विकसित की हैं।
6-प्लाज्मा की शक्ति से ही अनुमान किया जा सकता कि आत्म-शक्ति के सूक्ष्म या प्रकाशीय विकास द्वारा मनुष्य कितना समर्थ व शक्तिशाली बन सकता है। जबकि आज का विज्ञान केवल जड़ की व्याख्या और उसी को यांत्रिक नियंत्रण में लगा है यही अविद्या है। अविद्या को हटाकर विद्या की प्राप्ति कर सकें तो शास्त्रकार के कथन के अनुसार अंगुष्ठ मात्र प्राणी सूर्य जैसा विराट् बन सकता है। आत्मा न नर है न नारी;-
09 FACTS;- 1-आत्मा न नर है न नारी। वह एक दिव्य सत्ता भर है। समयानुसार या आवश्यकतानुसार वह तरह-तरह के रंग-बिरंगे परिधान पहनती बदलती रहती है। इसी को लिंग व्यवस्था समझना चाहिए। सर्दी की ऋतु में गरम और भारी कपड़े पहनने की आवश्यकता अनुभव होती है और गर्मी में हलके वस्त्र पहनने की इच्छा होती है। नर-मादा रूपों दो आवरण दो ऋतुओं के लिए हैं। आत्मा की जब जैसी रुचि होती है तब वह वैसे वस्त्र पहन लेता है। कभी गरम भारी, कभी ठंडे तो कभी झीने।कभी खट्टा स्वाद चखने की इच्छा होती है कभी मीठा। 2-जब स्नेह वात्सल्य, समर्पण सेवा की प्रवृत्तियां उभारने की शिक्षा लेनी होती है तो नारी के शरीर में प्रवेश करके उस तरह का अध्ययन, अनुभव, अभ्यास करना होता है और जब शौर्य, साहस, पुरुषार्थ श्रम की कठोरता का शिक्षण आवश्यक होता है तब उसे नर कलेवर पहनना पड़ता है। मृदुलता और कठोरता के उभयपक्षीय समन्वय से जीवधारी की समग्र शिक्षा हो पाती है यदि वह एक ही योनि में पड़ा रहे तो उसके आधे ही गुणों का विकास हो पायेगा और उस अपूर्णता के रहते सर्वांगीण पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त न हो सकेगा।
3-अस्तु भगवान ने यह व्यवस्था बना रखी है कि जीवधारी कभी मादा शरीर में रहा करे कभी नर में।यह परिवर्तन धूप-छांह जैसे उभयपक्षीय आनन्द की अनुभूति कराता है और जीवन के दोनों पहलुओं से परिचित ही नहीं अभ्यस्त भी रखता है।यों प्रकृति के नियमानुसार बिना किसी प्रयत्न
के भी यह परिवर्तन होते रहते हैं।शास्त्रों के अनुसार 9 जनमो में 4 जनम नर,4 जनम नारी तथा एक जनम हिजड़े का मिलता है। हर जीवधारी में नर और नारी की उभयपक्षीय सत्ता बीज रूप में विद्यमान रहती है।
उसका जो पहलू उभरा रहता है उसी को समर्थ एवं सक्रिय रहने का अवसर मिलता है..और दूसरा पक्ष प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है।
4-यदि उभार दूसरी दिशा में वह निकले तो सुप्त पक्ष जागृत हो सकता है और जागृत को सुषुप्ति में चला जाना पड़ता है।यह सोचना ठीक नहीं कि नर जन्म-जन्मांतरों तक नर ही रहेगा और नारी को नारी ही रहना पड़ेगा।नर यदि नारी जैसी मनोभूमि और गतिविधियां अपना कर उस तरह की उत्कण्ठा तीव्र करे तो अगला जन्म उसे नारी के रूप में भी मिल सकता है इसी प्रकार नारी के लिए यह सर्वथा सम्भव है कि वह पुरुषोचित गतिविधियां और मनोवृत्तियां अपनाकर अगला परिवर्तन अपनी अभिलाषा के अनुरूप कर ले। 5-सृष्टि में ऐसे अगणित जीवधारी विद्यमान हैं जिनमें नर और नारी के दोनों पक्ष समान रूप से सक्रिय होते हैं। वे एक ही जीवन में कभी नर और
कभी मादा बनते रहते हैं। आज का नर कल नारी बन कर अपने पेट में गर्भ धारण करेगा और परसों बच्चे जनेगा यह बात विचित्र लगती है, पर है सर्वथा सत्य।कितने जीवों में यही प्रवृति है और वे एक ही जीवन में इस प्रकार के उभय-पक्षीय आनन्द की अनुभूतियां लेते रहते हैं।
6-उनके जीवन समुद्र में कभी नर का ज्वार आता है तो कभी नारी का भाटा। प्रकृति ने उन्हें इच्छानुसार आवरण बदलने की जो सुविधा दी है वैसी ही यदि मनुष्यों को भी मिली होती तो वे भी इस प्रकार का आनन्द, लाभ करते। इतना ही नहीं नर और नारी के बीच असमानता की जो खाई बन गई है उसके बनने का कोई कारण न रहता। फिर न कोई छोटा समझा जाता न कोई बड़ा। किसी को किसी पर आधिपत्य जमाने की खुराफात भी न सूझती। 7-कीट विज्ञानी प्रो. ओरटन ने ऐसे जीवों की खोज की थी जो एक ही जन्म में कभी नर रहते हैं कभी नारी। ओइस्टर ऐसे जन्तुओं में अग्रणी हैं। वे मादा की तरह अण्डे देने के बाद ही नर बन जाते हैं। और उभयपक्षीय लिंग में रहने वाली विभिन्नताओं का आनन्द लूटते हैं।सृष्टि में ऐसे जीव -जन्तुओं की संख्या कम नहीं जो उभयलिंगी होते हैं। एक ही शरीर में शुक्र और डिम्ब उत्पन्न करने वाली ग्रन्थियां होती हैं।
8-जब उनमें प्रौढ़ता आती है तो प्रजनन स्राव आप प्रवाहित होते हैं और रक्त संसार के सहारे उनको आत्मरति का आनन्द- प्रजनन का लाभ मिल जाता है। ड्रोसोफिला मक्खी हैव्रो ब्रेकन ततैये, सिल्क व्रम मोथ, वैनस मोथ, जिप्सी मोथ, ओलोकेसपिस जैसे अनेक पतंगे उभयलिंगी होते हैं। पुराणों में इस प्रकार के अगणित उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें व्यक्तियों ने अपने संकल्प बल एवं साधना उपक्रम के द्वारा लिंग परिवर्तन में सफलता प्राप्त की है। 9-आत्मा की स्थिति दोनों से ऊपर है अथवा उभयपक्षीय सम्भावनाओं से भरपूर है। जो आज नर है कल नारी बनना पड़ सकता है। इसी प्रकार नारी को नर की भूमिका सम्पादित करने का अवसर भी मिलता है। जब यह आवरण सामयिक है तो नर और नारी के बीच ऐसी दीवारें क्यों खड़ी की जाये .. जिनमें अधिकार और कर्तव्य की खाई हो। किसी को छोटा, किसी को बड़ा माना जाय। दोनों को मिलजुल कर ऐसी समाज व्यवस्था बनानी चाहिए जिससे बदलते रहने वाली लिंगीय परिस्थिति में किसी आत्मा को असुविधा अथवा अन्याय का अनुभव न करना पड़े।
आत्मा ..परमात्मा सत्ता का प्रतीक कैसे है?-
10 FACTS;-
1-केनोपनिषद केअनुसार;-
''यह आत्मा धूप के साथ जुड़ी हुई छाया की तरह है। उसको अस्तित्व परमात्मा सत्ता पर अवलम्बित है। सूर्य की धूप चन्द्रमा को प्रकाशित करती है। चन्द्रमा की चाँदनी से धरती प्रकाशवान होती है। उसी तरह परमात्मा की सत्ता आत्मा पर प्रतिबिंबित होती है और फिर उसकी ज्योति इन्द्रियों को आलोकित करके उन्हें सम्वेदनाएँ अनुभव करने योग्य बनाती है।
यथार्थ ज्ञान के शोधकर्ता इन्द्रिय ज्ञान से ऊपर उठकर आत्म ज्ञान का प्राप्त करते हैं और फिर उससे ऊंची परमात्मा सत्ता में अपने आपको विलीन करते हुए ऊपर उठते हैं और अमृत को प्राप्त करते हैं।''
2-आत्म-ज्ञानी, धीर पुरुष इन्द्रियों के प्रेरक जीवात्मा का अतिक्रमण करके इस लोक से अर्थात् जन-साधारण के द्वारा अपनायें गये निष्कृष्ट स्तर से ऊपर उठ कर अमृतत्व को
प्राप्त करते हैं।यहाँ अमृतत्व का अर्थ है अनन्त जीवन को मान्यता और तद्नुरूप दृष्टिकोण अपनाकर तद्नुरूप चिन्तन एवं कर्तृत्व का निर्धारण।अध्यात्म शास्त्र में ‘धीर’ शब्द निर्विकारी के लिए और ‘मूढ’ सविकारी के लिए प्रयुक्त होता है। धृति को धर्म का प्रथम चरण इसीलिए माना गया है कि मनुष्य निर्विकार रह सकने की अपनी अविचल अध्यात्म निष्ठा का परिचय देता है। इसके विपरीत विकारों को अपनाने में उतावली करने वाले अधीर कहलाते हैं। उन्हीं अदूरदर्शियों को ‘मूढ’ संज्ञा दी गई है।
3-विकारग्रस्त होने की परिस्थितियाँ रहने पर भी अविचल बने रहते हैं वे ही ‘धीर’ है।धीर व्यक्ति आत्मबोध प्राप्त करते हुए जिस परमात्म सत्ता में प्रवेश करते है; उसे इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। आत्मानुभूति ही उसे उपलब्ध करने का एकमात्र साधन है। यदि इन्द्रियों से उसे देखने का प्रयत्न किया जाय तो निराशा अथवा भ्रान्ति ही हाथ लगेगी। इस संदर्भ में केनेपनिषद का अगला प्रतिपादन है- ''उसे आंखें नहीं देख सकती, वाणी नहीं कह सकती, मन नहीं जान सकता।अरे, उस जानने वाले को किसके सहारे जताया जाय?
4-हम नहीं जानते कि उसे जिज्ञासाओं को किस प्रकार समझाया जाय। हमने जो सुना जाता है उससे वह ब्रह्म विलक्षण है। वह इन्द्रियातीत होने पर भी नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता।
सूर्य को दीपक से कैसे देखे? वह तो स्वयं ही प्रकाशवान है। प्रकाश को प्रकाश से देखने की क्या आवश्यकता? दृष्टि की सत्ता अनुभव करने के लिए नई बुद्धि कहाँ से लाई जाय? अंधेरे को देखने के लिए दीपक और अन्यान्य पदार्थों को जानने के लिए बुद्धि की आवश्यकता रहती है, पर दीपक और बुद्धि तो स्वयं ही प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष को फिर किस प्रत्यक्ष से जाने?
5-लोग अपने का मरणधर्मा मानते हैं, तात्कालिक लाभों को अवाँछनीय होते हुए भी उन्हें ही सब कुछ समझ कर टूट पड़ते हैं और भविष्य को भूलकर उसे अन्धकारमय बनाते हैं। खाओ, पियो मौज उड़ाओ। कर्ज लेकर मद्यपान करते रहो की नीति अपना कर लोभ, मोह में ग्रसित वासना, तृष्णा के लिए आतुर मनुष्यों का दृष्टिकोण मरणधर्मा है। उसे अपनाने वाले जीवित मृतक है। इसके विपरीत जो अनन्त जीवन का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए आज कष्ट उठाने की तपश्चर्या का स्वागत करते हैं वे दूरदर्शी विवेकवान् अमर कहलाते हैं अमृतत्व को प्राप्त होना इसी परिष्कृत दृष्टि-कोण को अपनाने के साथ जुड़ा हुआ है।
6-हम है और इन्द्रियों को प्रेरणा देने वाले है- इन्द्रियों के कारण हम चैतन्य नहीं, वरन् हमारे कारण इन्द्रियों में चेतना है, यह जान लेने पर आत्मा का अस्तित्व प्रत्यक्ष हो जाता है। आत्मा पर मल आवरण विक्षेप के कषाय कल्मष चढ़ जाने से वह मलीन बनता है। मलीनता की इन आवरण परतों को उतार फेंकने पर उसका निर्मल स्वरूप प्रकट होने लगता है। दर्पण पर जमी हुई धूलि हटा देने से उसमें अपना प्रतिबिम्ब सहज ही देखा जा सकता है।
आत्म-साक्षत्कार इसी का नाम हैं- इसे ही परमात्मा का दर्शन एवं परब्रह्म की प्राप्ति कहते हैं।
7-आँखों से किसी देवावतार के स्वरूप को देखने की लालसा एक भ्रान्ति मात्र है- जिसका पूरा हो सकना सम्भव नहीं। ईश्वर को धर्म चक्षुओं से नहीं, ज्ञान चक्षुओं से ही देखा जा सकता है। आंखें पंच भौतिक पदार्थों की बनी होने के कारण अपने सजातीय जड़ पदार्थों को ही देख सकती है। उनके लिए चेतन को उसकी गतिविधियों को देख सकना सम्भव नहीं न अन्य इन्द्रियों से उसकी अनुभूति हो सकती है। आत्मा को देख सकना तो दूर उसकी अनुभूतियों को प्रसन्नता-अप्रसन्नता, आशा-निराशा, स्नेह-द्वेष, संतोष-असन्तोष तक की इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता तब सर्वव्यापी नियामक सत्ता को-परमात्मा को इन्द्रियों से सहारे कैसे देखा सुना या जाना जा सकेगा?
8-आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है। जीवात्मा वह जो लोभ, मोह से- वासना, तृष्णा से प्रभावित होकर स्वार्थ-परता एवं संकीर्णता के बन्धनों में जकड़ा पड़ा है। अपना चिन्तन, कर्तृत्व शरीर और कुटुम्ब के भौतिक लाभों तक सीमित रखने वाला भव-बन्धनों में जकड़ा जीव है। मुक्त उसे कहा जायगा जिसने अपनेपन की, आत्म-भाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत बना लिया है। जिसके लिए समस्त विश्व अपना परिवार है। समस्त प्राणी जिसके अपने कुटुम्बी है। औरों के सुख को अपना दुख मानकर जो उसके निराकरण का प्रयास करता है। औरों को सुख देकर सुखी होता है। अपने और औरों के बीच की दीवार तोड़कर सर्वत्र एक ही आत्मा का विस्तार देखता है वह दिव्यदर्शी ही दूसरे शब्दों में परमात्मदर्शी कहा जाता है। आत्मा का परिष्कृत एवं विकसित रूप ही परमात्मा है। परमात्मा स्तर को प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
9-आत्मा प्रत्येक प्राणीमात्र में परमात्मा का प्रतिबिंब (चैतन्य लहरियों के रूप में) विद्यमान है। जब यह जागृत होकर ब्रह्मरन्ध्र (तालू क्षेत्र) को भेदकर सर्वव्यापी परमात्मा के निराकार, निर्गुण स्वरूप परम चैतन्य में मिलती है तब इसे 'योग' कहते हैं और यह संपूर्ण घटना 'आत्म साक्षात्कार' कहलाती है। इसे ही 'पुनर्जन्म' कहा गया है।इसका प्रमाण चैतन्य लहरियों का सिर के तालू भाग और हाथों पर शीतल रूप में अनुभव है।
10-यह एक वास्तविक घटना है जो केवल मानव शरीर स्थित कुण्डलिनी के जागरण से ही संभव है।केवल कुण्डलिनी जागरण द्वारा ही मानव के अंतःस्थित धर्म जागृत होकर अंतर-परिवर्तन कर सकता है और इसी से मानव जाति का उत्थान संभव है।गृहस्थ जीवन में ,सर्वसाधारण रूप में रहते हुए ,बिना किसी त्याग के इसे अपने अंदर पाना है तभी हम धर्म के वास्तविक मर्म को जान पाएंगे।
आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कैसे करती है?-
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...SHIVOHAM...