क्या है वेद के चार परम सत्य,उपनिषद और उसके महावाक्य ?
महावाक्य का क्या अर्थ होता है? अगर आप उस एक वाक्य को ही अनुसरण करते हुए अपनी जीवन की परम स्थिति का अनुसंधान कर लें, तो आपका यह जीवन सफलता पूर्वक निर्वाह हो जाएगा। इसलिए उसको महावाक्य कहते हैं। कैसे बने उपनिषद्? 03 FACTS;- 1-हिन्दुओं का धर्मग्रंथ है वेद। वेद के 4 भाग हैं- ऋग, यजु, साम और अथर्व। चारों के अंतिम भाग या तत्वज्ञान को वेदांत और उपनिषद कहते हैं। उपनिषदों की संख्या लगभग 1,000 बताई गई है। उसमें भी 108 महत्वपूर्ण हैं। ये उपनिषद छोटे-छोटे होते हैं। लगभग 5-6 पन्नों के।इन उपनिषदों का सार या निचोड़ है भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कही गई गीता। इतिहास ग्रंथ महाभारत को पंचम वेद माना गया है। 2-उपनिषद् को वेदांत भी कहा जाता है. वेदांत माने वेदों का अंत. दरअसल वेदों के अध्ययन के दौरान उपनिषद् का नंबर सबसे अंत में आता है. सबसे पहले संहिता पढ़ाई जाती है, उसके बाद ब्राह्मण आते हैं. इसके बाद आरण्यक और सबसे अंत में उपनिषद्. 3-उपनिषद् को किसने लिखा, ये आज भी पहेली है. ये एक किस्म की विचार परंपरा है जिसमें कई लोगों का वैचारिक परिश्रम शामिल है. दरअसल हमें उपनिषद् को भारतीय दर्शन परंपरा का प्रस्थान बिंदु मानना चाहिए. कितने तरह के है ये उपनिषद्? 04 FACTS;- 1-उपनिषदों की कुल संख्या 200 बताई जाती है. शंकराचार्य के समय 108 उपनिषद् का जिक्र मिलता है. इनमें से 13 उपनिषद् मुख्य माने गए हैं. शंकराचार्य ने इनमें से 10 का भाष्य लिखा था.ये थे ईश, ऐतरेय, कठ, केन, छांदोग्य, प्रश्न, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, मांडूक्य और मुंडक. 2-108 उपनिषदों को कई तरह से बांटा गया है. इसमें सबसे प्रचलित वर्गीकरण वेदों से जोड़ कर किया गया है. ऋग्वेदीय उपनिषदों की संख्या 10 बताई जाती है. 3-यजुर्वेद से जुड़े हुए उपनिषद् दो भागों में बांटा गया है. पहला है शुक्ल यजुर्वेदीय जिसके तहत 19 और कृष्ण यजुर्वेदीय के तहत 32 उपनिषद् रखे गए हैं. सामवेद से जुड़े 16 उपनिषद् हैं और अथर्ववेद से जुड़े कुल 31 उपनिषद् हैं. इसमें से कुछ गद्य हैं और कुछ पद्य हैं. 4-ये महत्वपूर्ण वाक्य उपनिषद् से आए हैं;- 07 POINTS;- 1-“असतो मा सदगमय. तमसो मा ज्योतिर्गमय. मृत्योर्मामृतम् गमय.” -वृहदारण्यक उपनिषद् 2-“अहम् ब्रह्मास्मि” -वृहदारण्यक उपनिषद् 3-ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ -वृहदारण्यक उपनिषद 4-“अतिथि देवो भव” -तैत्तिरीय उपनिषद् 5-“ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्.” -वृहदारण्यक उपनिषद् 6-“सत्यमेव जयते” -मांडूक्य उपनिषद् 7-ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
-कठोपनिषद ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; महावाक्यो का विवेचन ;- 1-असतो मा सदगमय ॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥ मृत्योर्मामृतम् गमय ॥ 05 POINTS;- 1-हिन्दी रूपांतरण:- (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो । अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो ।। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ॥। 2-स्वयं को जानने की इच्छा ही 'असतो मा सद्गमय' के मूल में निहित है जो एक अच्छी प्रार्थना का मूल तत्त्व है। हम चाहे अमृत की इच्छा करें अथवा प्रकाश की -मृत्योर्तंगमय/ तमसो मा ज्योतिर्गमय -यह सब सत्य को ही जानने की इच्छा है और स्वयं को जाने बिना सत्य को जान पाना संभव ही नहीं है। 3-असत्य के रूप में मृत्यु, अंधकार अथवा अज्ञान से मुक्ति के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से जानना जरूरी है। बिना भावना के उद्देश्य प्राप्ति संभव नहीं। अत: हमारी भावना भी शब्दों के अनुरूप हो। जो बोलें वही चाहें। यदि न बोलें तो भी कोई बात नहीं, क्योंकि भावना से ही उद्देश्य पूर्ति संभव है। अपने मन के भावों को प्रार्थना के अनुरूप रखें। 4-यदि हमें भावना का पोषण करना आ गया तो प्रार्थना के शब्दों की भी आवश्यकता नहीं। यही प्रार्थना की सफलता का मूल है। कई बार हम नहीं जानते कि क्या प्रार्थना करें। हम शब्दों के जाल में उलझ जाते हैं। भाव शब्दों का साथ नहीं दे पाते। 5-भाव और शब्दों में साम्य बना रहे, इसके लिए सरल से सरल प्रार्थना का चयन करना अनिवार्य हैं। सरल प्रार्थना और सरल भाव मन में लाने के लिए 'असतो मा सद्गमय' से सरल, आदर्श और उत्तम प्रार्थना क्या होगी?. ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 2-चार महावाक्य;- 03 FACTS;- 1-उपनिषद के यह महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते है। यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहीं-वहीं उसकी पहुंच है। वह परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है। 2-उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महोषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है।कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद "शुकरहस्योपनिषद " में महर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये हैं- 2-1-प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद -ऋग्वेद) 2-2-अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद- यजुर्वेद) 2-3-तत्वमसि - "वह ब्रह्म तू है" ( छान्दोग्य उपनिष -सामवेद ) 2-4-अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है" ( माण्डूक्य उपनिषद -अथर्ववेद ) 2-5-सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" ( छान्दोग्य उपनिषद -सामवेद ) 3-वेद की चार घोषणाएं हैं- ‘प्रज्ञानाम ब्रह्मा’ अर्थात् ब्रह्मन परम चेतना है, यह ऋग्वेद का कथन है। यजुर्वेद का सार है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूं। सामवेद का कथन है ‘तत्वमसि’ अर्थात् वह तुम हो। अथर्ववेद का सारतत्व कहता है ‘अयम आत्म ब्रह्म’ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है। ये सारे महान कथन भिन्न-भिन्न हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार से उनकी व्याख्या की गई है, किंतु वे सब एक ही दिव्यता की ओर इशारा करते हैं और उनका विषय केवल दिव्यता है। 1-''प्रज्ञानाम ब्रह्म'' ;- 03 POINTS;- 1-पहला कथन है, प्रज्ञानाम ब्रह्म, प्रज्ञान क्या होता है? क्या वह केवल बुद्धि और चातुर्य है?वास्तव में प्रज्ञान शरीर में, मन में, बुद्धि में, अहम में, सब में विद्यमान होता है। प्रज्ञान जड़ और चेतन दोनों में रहता है। उसे हम निरंतर संपूर्ण चेतना कहते हैं। 2-इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। 3-वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है। 2-चेतना क्या होती है? चेतना का अर्थ है जानना। क्या जानना? थोड़ा कुछ या टुकड़े टुकड़े में जानने को चेतना नहीं कहते हैं। यह संपूर्ण ज्ञान होता है। यह उस दिव्य तत्व जो जड़ और चेतना दोनों में निहित है, उसका ज्ञान होना ही संपूर्ण चेतना है। वास्तव में प्रज्ञान और ब्रह्म एक दूसरे के पर्यायवाची हैं, वे दो अलग वस्तुएं नहीं हैं। ब्रह्मन क्या है? ब्रह्मन वही है जो सर्वव्यापी हैं, यह वृहद तत्व का सिद्धांत है। संपूर्ण सृष्टि ही वृहद है या शक्तिशाली विशाल सूत्र है। 3-इस संपूर्ण ब्रह्मांड में ब्रह्मन व्याप्त है। सरल भाषा में ब्रह्मन का अर्थ होता है, सर्वत्र फैला हुआ। वह चारों ओर व्याप्त है । 2-अहं ब्रह्मास्मि;- 04 POINTS;- 1-दूसरा कथन है ‘अहम् ब्रह्मास्मि।’ सब सोचते हैं कि अहम् होता है 'मैं'। अहम् का अन्य अर्थ होता है आत्मा। अहम् ही आत्मा का स्वरूप होता है जो चेतना के चारों ओर उपस्थित होती है, वह मनुष्य में आत्मा के रूप में स्थापित की गई है। 2-‘अहम् ब्रह्मास्मि 'भारत के पुरातन हिंदू शास्त्रों व उपनिषदों में वर्णित चार महावाक्यों में से एक है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - "मैं ब्रहम हूँ।"यह आत्मा सबके अंदर साक्षी रूप में अवस्थित होती है। आत्मा, चेतना और ब्रह्मन ये सब भिन्न नहीं हैं। अहम् ब्रह्मास्मि का अर्थ है- मेरे अंदर भी आत्मा या मेरे अंदर का ‘मैं’ ही सनातन साक्षी है, वही ब्रह्म है। 3-इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है। 4-यह मंत्र रामेश्वरम धाम या वेदान्त ज्ञानमठ का भी महावाक्य है, जो कि दक्षिण दिशा में स्थित भारत के चार धामों में से एक है। 3-‘तत्वमसि';- 03 POINTS;- 1-तीसरा कथन है- ‘तत्वमसि।’ यह सामवेद का सार है। तत् का अर्थ है ‘वह’ और त्वम् का अर्थात् ‘तू, तुम’, असि का अर्थ है ‘हो।’ जब तक मैं और तुम का भेद होता है तब तक मैं और तुम दो अलग-अलग रहते हैं, पर जब मैं और तुम इकट्ठे हो जाते हैं तब ‘हम’ बन जाते हैं, दोनों मिलकर एक अस्तित्व बन जाता है। 2-इस महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है। 3-जहां दुविधा है वहां ‘तुम’ है और जहां उपाधि (द्वैत का छल) नहीं है वहां ‘तत् है। एक जीव है, दूसरा देव है। सामवेद में यह बहुत स्पष्ट ढंग से समझाया गया है कि जीव और देव दोनों एक ही हैं। 4-‘अयम् आत्म ब्रह्म’;- 04 POINTS;- 1-‘अयम् आत्म ब्रह्म’ यह चौथा कथन है।इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। 2-वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है। 3-इसमें तीन शब्द हैं- अयम्, आत्म तथा ब्रह्म।परंतु वे तीन नहीं हैं। पहला व्यक्ति जो तुम अपने आपको समझते हो, एक वह जो और लोग तुम्हें समझते हैं और एक वह जो वास्तव में तुम हो, जिससे अभिप्राय है शरीर, मन (चित्त) और आत्मा। 4-हम अपने शरीर से काम करते हैं, मन से विचार करते हैं और इन दोनों की साक्षी रूप में हमारी आत्मा होती है। जागृत अवस्था में तुम व्यक्तिगत रूप से पूरा विश्व होते हो, स्वप्नावस्था में तुम तेजस होते हो और निद्रावस्था में तुम प्रज्ञास्वरूप होते हो। प्रज्ञानाम ब्रह्मा अर्थात् ब्रह्मन् ही परम चेतना होती है। प्रज्ञान ही आत्मा होती है। NOTE;- अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं-'हे शुकदेव! इस सच्चिदानन्द- स्वरूप 'ब्रह्म' को, जो तप और ध्यान द्वारा प्राप्त करता है, वह जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है।' भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये। उन्होंने भगवान को प्रणाम किया और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 3-ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ -वृहदारण्यक उपनिषद 02 POINTS;- 1-हिन्दी रूपांतरण:- अर्थात वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है। 2-प्रत्येक पूर्ण है। चाहे वह व्यक्ति हो, जगत हो, पत्थर, वृक्ष या अन्य कोई ब्रह्मांड हो, क्योंकि उस पूर्ण से ही सभी की उत्पत्ति हुई है। स्वयं की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए ध्यान जरूरी है। जिस तरह एक बीज खिलकर वृक्ष बनकर हजारों बीजों में बदल जाता है, वैसी ही मनुष्य की भी गति है। यह संसार उल्टे वृक्ष के समान है। व्यक्ति के मस्तिष्क में उसकी पूर्णता की जड़ें हैं। ऐसा उपनिषदों में लिखा है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 4-ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ -कठोपनिषद 02 POINTS;- 1-हिन्दी रूपांतरण:- परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें। 2-उक्त तरह की भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है।जो व्यक्ति परस्पर सह-अस्तिव की भावना रखता है, मनुष्यों में वह श्रेष्ठ है। सभी के स्वास्थ्य और रक्षा की कामना करने वाला ही खुद के मन को निर्मल बनाकर श्रेष्ठ माहौल को प्राप्त होता है। जो व्यक्ति निम्नलिखित भावना को आत्मसात करता है, उसका जीवन श्रेष्ठ बनता जाता है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 5-सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्। ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः-वृहदारण्यक उपनिषद् 02 POINTS;- हिन्दी रूपांतरण:- ॐ सब सुखी हों सब स्वस्थ हों । सब शुभ को पहचान सकें कोई प्राणी दुःखी ना हो ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ Om, May All become Happy, May All be Healthy (Free from Illness) May All See what is Auspicious, May no one Suffer in any way . ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 6-ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥ 02 POINTS;- 1-हिन्दी रूपांतरण: हे परमात्मा स्वरुप शांति कीजिये, वायु में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हों, जल में शांति हो, औषध में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवतागणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारों और शांति हो, हे परमपिता परमेश्वर शांति हो, शांति हो, शांति हो। 2-शांति मंत्र शांति के लिए की जाने वाली हिंदू प्रार्थना है, आमतौर पर धार्मिक पूजाओं, अनुष्ठानों और प्रवचनों के अंत में यजुर्वेद के इस मंत्र का प्रयोग किया जाता है। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; 7-'सत्यमेव जयते' - मुण्डक-उपनिषद 03 FACTS;- 1-''सत्यमेव जयते'' भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है।इसका अर्थ है : सत्य ही जीतता है / सत्य की ही जीत होती है। यह भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित है। यह प्रतीक उत्तर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई.पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, लेकिन उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। 2-'सत्यमेव जयते' को राष्ट्रपटल पर लाने और उसका प्रचार करने में पंडित मदनमोहन मालवीय की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। वेदान्त एवं दर्शन ग्रंथों में जगह-जगह सत् असत् का प्रयोग हुआ है। सत् शब्द उसके लिए प्रयुक्त हुआ है, जो सृष्टि का मूल तत्त्व है, सदा है, जो परिवर्तित नहीं होता, जो निश्चित है। इस सत् तत्त्व को ब्रह्म अथवा परमात्मा कहा गया है। 3-'सत्यमेव जयते' मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र 3.1.6 है। पूर्ण मंत्र इस प्रकार है: सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः। येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्॥ अर्थात अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
8-आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ यमराज नचिकेता से -(कठोपनिषद्, अध्याय -1 ) 11 FACTS;- 1-तू आत्मा को रथी जान, शरीर को रथ समझ, बुद्धि को सारथी जान और मन को लगाम समझ।विवेकी पुरुष इन्द्रियों को घोड़े बतलाते हैं तथा उनके घोड़े रुप से कल्पना किए जाने पर विषयों को उनके मार्ग बतलाते हैं और शरीर, इन्द्रिय एवं मन से युक्त आत्मा को भोक्ता कहते हैं। 2आत्मा - कर्मफल भोगने वाला संसारी - रथ का स्वामी है। और शरीर तो रथ ही है, क्योंकि शरीर रथ में बँधे हुए अश्व रूप इन्द्रियों द्वारा खींचा जाता है। 3-निश्चय करना ही जिसका लक्षण है वह बुद्धि ही सारथी है, क्योंकि सारथी रूप नेता के सभी कार्य प्रायः बुद्धि के ही कर्तव्य हैं। संकल्प-विकल्पादि रूप मन लगाम है क्योंकि जिस प्रकार घोड़े लगाम से नियंत्रित होकर चलते हैं उसी प्रकार आँख, कान, नाक, आदि समस्त इन्द्रियाँ मन से नियन्त्रित होकर ही अपने विषयों रूप, रस, आदि में प्रवृत होती हैं। 4-आँख, कान, नाक, आदि इन्द्रियों को घोड़े बतलाया गया है, क्योंकि इन्द्रियों और घोड़ों की क्रमशः शरीर और रथ को खींचने में समानता है। इस प्रकार उन इन्द्रियों को घोड़े रूप से परिकल्पित किए जाने पर रूप, रस, गंध, आदि विषयों को उनके मार्ग बतलाया गया है। 5- शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि के सहित अर्थात उनसे युक्त आत्मा को विवेकी पुरुष "यह भोक्ता - संसारी है" ऐसा बतलाते हैं।केवल (शुद्ध) आत्मा भोक्ता नहीं है।उसका भोक्तृत्व तो इन्द्रिय, मन, बुद्धि, आदि उपाधि के कारण ही है। वास्तव में इसका नाम "जीवात्मा" है। 6-जो बुद्धि रूप सारथी अकुशल अर्थात् इन्द्रियरूप घोड़ों की प्रवृत्ति - निवृत्ति के विवेक से रहित है तथा विक्षिप्त/असंयत चित्त से युक्त है । उस अनिपुण बुद्धि रूप सारथी के इन्द्रियरूप घोड़े दुष्ट अर्थात बेकाबू घोड़ों के समान हो जाते हैं। 7-जो अविज्ञानवान्, असंयतचित्त और इसीलिए सदा अपवित्र रहने वाला होता है उस सारथी के द्वारा वह रथी अक्षर परम पद को प्राप्त नहीं कर सकता है। वह कैवल्य को प्राप्त नहीं होता है। इतना ही नहीं, बल्कि जन्म-मरण रूप संसार को भी प्राप्त होता है। 8-जो बुद्धि रूप सारथी पूर्वोक्त सारथी से विपरीत विज्ञानवान् - कुशल तथा मन को नियंत्रित रखनेवाला अर्थात संयतचित्त होता है उसके इन्द्रिय रूप घोड़े प्रवृत्त और निवृत्त किए जाने में इस प्रकार समर्थ होते हैं जैसे सारथी के लिए अच्छे घोड़े। 9-जो विज्ञानवान् - कुशल, संयतचित्त/युक्तचित्त और इसीलिए सदा पवित्र रहनेवाला होता है उस सारथी के द्वारा वह रथी उसी पद को प्राप्त कर लेता है, जिस प्राप्त हुए पद से च्युत न होकर वह फिर संसार में उत्पन्न नहीं होता है। 10-यह विद्वान पुरुष विवेकयुक्त बुद्धि - सारथी से युक्त एकाग्र मनवाला होने से पवित्र है। वह सम्पूर्ण संसार बन्धनों से मुक्त हो जाता है और प्राप्तव्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। 11-उपरोक्त कुशल सारथी से युक्त रथी ही महारथी है; जिसके सारथी ने रथ की दिशा को पलट दिया है। "महारथी" = महा + रथी = महा + आत्मा = "महात्मा" !! यही 'महात्मा' है। क्योंकि केवल यही हमें मोक्ष/कैवल्य प्राप्त करने में सहयोग कर सकता है।
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