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क्या है आत्मज्ञान का रहस्य ?क्या हैआत्म-साधना के तीन चरण?


आत्‍मज्ञान क्या है ? 14 FACTS;-

1-राजा जनक अष्टावक्रजी से प्रथम तीन प्रश्न पूछते है-

1. हे प्रभो ! पुरुष आत्मज्ञान को कैसे प्राप्त होता है?

2. संसार बंधन से कैसे मुक्त होता है अर्थात जन्म-मरणरूपी संसार से कैसे छूटता है?

3. एवं वैराग्य को कैसे प्राप्त होता है?

राजा का तात्पर्य यह था कि ऋषि वैराग्य के स्वरूप को, उसके कारण को और उसके फल को ,ज्ञान के स्वरूप को, उसके कारण को और उसके फल को;मुक्ति के स्वरूप को, उसके कारण को और उसके भेद को मेरे प्रति विस्तार से कहें ।

राजा के प्रश्नों को सुनकर अष्टावक्रजी ने अपने मन में विचार किया कि संसार में चार प्रकार के पुरुष हैं ...

एक ज्ञानी, दूसरा मुमुक्षु, तीसरा अज्ञानी और चौथा मूढ़ ।चारों में से राजा तो ज्ञानी नहीं है क्योंकि जो संशय और विपर्यय से रहित होता है और आत्मानंद करके आनंदित होता है वही ज्ञानी होता है परंतु राजा ऐसा नहीं है, किन्तु यह संशय से युक्त है ।एवं अज्ञानी भी नहीं है क्योंकि जो विपर्यय ज्ञान और असंभावना आदि को करके युक्त होता है उसका नाम अज्ञानी है परंतु राजा ऐसा भी नहीं है । तथा जिसके चित्त में स्वर्गादिक फलों कि कामनाएँ भरी हों उसका नाम अज्ञानी है परंतु राजा ऐसा भी नहीं है ।

यदि ऐसा होता तो यज्ञादिक कर्मों के विषय में विचार करता, सो तो इसने नहीं किया है एवं मूढ़बुद्धि वाला भी नहीं है क्योंकि जो मूढ़बुद्धि वाला होता है वह कभी भी महात्मा को दंडवत प्रणाम नहीं करता है किन्तु वह अपनी जाति और धनादिकों के अभिमान में ही मरा जाता है, सो ऐसा भी राजा नहीं क्योंकि हमको महात्मा जानकर हमारा सत्कार कर अपने भवन में लाकर संसार बंधन से छूटने कि इच्छा करके जिज्ञासुओं कि तरह राजा ने प्रश्नों को किया है । इसी से सिद्ध होता है कि राजा जिज्ञासु अर्थात मुमुक्षु है और आत्मविद्या का पूर्ण अधिकारी है, और साधनों के बिना आत्मविद्या कि प्राप्ति नहीं होती, इस वास्ते अष्टावक्रजी प्रथम राजा के प्रति साधनों को कहते हैं ।

2-अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति कहते है कि हे तात! यदि तुम संसार से मुक्त होने कि इच्छा करते हो तो चक्षु, रसना आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के जो शब्द, स्पर्श आदि पाँच विषय है उनको तू विष कि तरह त्याग दे क्योंकि जैसे विष के खाने से पुरुष मर जाता है वैसे ही इन विषयों के भोगने से भी पुरुष संसार चक्र रूपी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसलिए मुमुक्षु को प्रथम इनका त्याग करना आवश्यक है और इन विषयों के अत्यंत भोगने से रोग आदि उत्पन्न होते है और बुद्धि भी मलिन होती है एवं सार-असार वस्तु का विवेक नहीं रहता है इसलिए ज्ञान के अधिकारी को अर्थात मुमुक्षु को इनका त्याग करना ही मुख्य कर्तव्य है ।

जनकजी प्रश्न पूछते है – हे भगवन् ! विषय भोग के त्यागने से शरीर नहीं रह सकता है और जीतने बड़े-बड़े ऋषि, राजर्षि हुए है उन्होने भी इनका त्याग नहीं किया है और वे आत्मज्ञान को प्राप्त हुए है और भोग भी भोगते रहे है फिर आप हमसे कैसे कहते है कि इनको त्यागो ।

3-उत्तर में अष्टावक्रजी कहते है कि हे राजन् ! आपका कहना सत्य है एवं स्वरूप से विषय भी नहीं त्यागे जाते है परंतु इनमें जो अति आसक्ति है अर्थात पांचों विषयों में से किसी एक के अप्राप्त होने से चित्त में व्याकुलता होना और सदैव उसी में मन का लगा रहना आसक्ति है। उसके त्याग का नाम ही विषयों का त्याग है एवं जो प्रारब्धभोग से प्राप्त हो उसी में संतुष्ट होना, लोलुप न होना और उनकी प्राप्ति के लिए सत्य-असत्य भाषण आदि का न करना किन्तु प्राप्तिकाल में उनमें दोष दृष्टि और ग्लानि होनी और उसके त्याग कि इच्छा होनी और उनकी प्राप्ति के लिए किसी के आगे दीन न होना, इसी का नाम वैराग्य है । यह जनक जी के एक प्रश्न का उत्तर हुआ ।

4-जनकजी प्रश्न पूछते है कि हे भगवन् ! संसार में नंगे रहने को, भिक्षा मांगकर खानेवाले को लोग वैराग्यवान् कहते है और उसमें जड़भरत आदिकों के दृष्टांत देते हैं , आपके कथन से लोगों का कथन विरुद्ध पड़ता है ।उत्तर में अष्टावक्रजी कहते है कि

संसार में जो मूढ्बुद्धिवाले हैं वे ही नंगे रहनेवालों और मांगकर खानेवालों को वैराग्यवान जानते है और नंगों से कान फूकवाकर उनके पशु बनते है परंतु युक्ति और प्रमाण से यह वार्ता विरुद्ध है ।यदि नंगे रहने से ही वैराग्यवान होता हो तो सब पशु और पागल आदिकों को भी वैराग्यवान् कहना चाहिए पर ऐसा तो वे नहीं देखते हैं और यदि मांगकर खाने से ही वैराग्यवान हो जावे तो सब दीन दरिद्रियों को भी वैराग्यवान कहना चाहिए पर ऐसा तो नहीं कहते है। इन्ही युक्तियों से सिद्ध होता है कि नंगा रहने और मांगकर खानेवाले का नाम वैराग्यवान् नहीं ।

5-यदि कहो कि विचारपूर्वक नंगे रहनेवाले का नाम वैराग्यवान है तो यह भी वार्ता शास्त्रविरुद्ध है क्योंकि विचार के साथ इस वार्ता का विरोध आता है। जहां पर प्रकाश रहता है वहाँ पर तम नहीं रहता । ये दोनों जैसे परस्पर विरोधी है वैसे ही सत्वगुण का कार्य-सत्य और मिथ्या का विवेचनरूपी विचार है और तमोगुण का कार्य नंगा रहना है । देखिये- वर्ष के बारहों महीनों में नंगे रहनेवालों के शरीर को कष्ट होता है । सर्दी के मौसम में सर्दी के मारे उनके होश बिगड़ते है और उनके हृदय में विचार उत्पन्न भी नहीं हो सकता है एवं गर्मी और बरसात में मच्छर काट-काट खाते है । अतः सदैव उनकी वृत्ति दुःखाकार बनी रहती है, विचार का गंधमात्र भी नहीं रहता है तथा श्रुति से भी विरोध आता है।यदि विद्वान ने आत्मा को जान लिया कि यह आत्मा, ब्रह्म मैं ही हूँ तब किसकी इच्छा करता हुआ और किस कामना के लिए शरीर को तपावेगा ?वह कदापि नहीं तपावेगा और ‘गीता’ में भी भगवान ने इसको तामसी ताप लिखा है । इसी से साबित होता है कि नंगे रहनेवाले का नाम वैराग्यवान् नहीं है और नंगे रहने का नाम वैराग्य नहीं है किन्तु केवल मूर्खों को पशु बनाने के वास्ते नंगा रहना है एवं सकामी इस तरह के व्यवहार को करता है, निष्कामी नहीं करता है तथा जड़ भरतादिकों को अपने पूर्वजन्म का वृतांत याद था ।एक मृगी के बच्चे के साथ स्नेह करने से उनको मृग के तीन जन्म लेने पड़े थे, इसी वास्ते वे संगदोष से डरते हुए असंग होकर रहते थे ।

6-पंचदशी में लिखा है कि-जड़भरतादिक खान-पहरान आदिकों को त्याग करके कहीं भी नहीं रहे है किन्तु पत्थर और लकड़ी कि तरह जड़ होकर संग से डरते हुए उदासीन हो करके रहे है। जब तक देह के साथ आत्मा का तादात्म्य-अध्यास बना है तब तक तो नंगा रहना दुःख का और मूर्खता का ही कारण है। जब अध्यास नहीं रहेगा तब इसको नंगे रहने से दुःख भी नहीं होगा। आत्मा के साक्षात्कार होने से, जब मन उस महान ब्रह्मानन्द में डूब जाता है तब शरीरादिकों के साथ अध्यास नहीं रहता है और न विशेष करके संसार के पदार्थों का उस पुरुष को ज्ञान रहता है। मदिरा करके उन्मत्त को जैसे शरीर की और वस्त्रादिकों की खबर नहीं रहती है वैसे ही जीवन्मुक्त ज्ञानी कि वृत्ति केवल आत्माकार रहती है। उसको भी शरीरादिकों कि खबर नहीं रहती है, ऐसी अवस्था जीवन्मुक्त कि लिखी हुई है। मुमुक्षु वैराग्यवान कि नहीं लिखी क्योंकि उसको संसार के पदार्थों का ज्ञान ज्यों का त्यों बना रहता है। संसार के पदार्थों में दोष-दृष्टि और ग्लानि का नाम ही वैराग्य है और खोटे पुरुषों के संग से डरकर महात्माओं का संग करने वाला क्षमा, कोमलता, दया और सत्यभाषणादिक गुणों को अमृतवत पान करने अर्थात धारण करने वाले का नाम वैराग्यवान है और वही ज्ञान का अधिकारी है।

7-अष्टावक्रजी जनकजी के प्रति वैराग्यी के स्वकरूप को कहकर राजा के द्वितीय प्रश्न के उत्तर को कहते है कि-तू न पृथ्वि है न जल है न अग्नि है न वायु है न आकाश है पर मुक्ति के लिये इन सबका साक्षी चैतन्यहरूप अपने को जान। दूसरा प्रश्न‍ राजा का यह था कि पुरूष आत्म ज्ञान को कैसे प्राप्त होता है अर्थात ज्ञान का स्वरूप क्या है ?इसके उत्तर में ऋषिजी कहते है कि अनादि काल से देहादिकों के साथ जो आत्मा का तादात्म्य अध्यास हो रहा है उस अध्यास से ही पुरूष देह को आत्मा मानता है और इसी से जन्म मरण रूपी संसार चक्र में पुन: पुन: भ्रमण करता रहता है । उस अध्यास का कारण अज्ञान है । उस अज्ञान की निवृत्ति आत्मज्ञान से होती है और अज्ञान की निवृत्ति से अध्या:स की निवृत्ति भी होती है । इसी वास्ते ऋषिजी प्रथम कार्य के सहित कारण की निवृत्ति का हेतु जो आत्म ज्ञान है, उसी को कहते है- हे राजन् ! तुम पृथ्वि नही हो और न तुम जलरूप हो, न अग्निरूप हो, न वायु रूप हो और न आकाशरूप हो । अर्थात इन पॉंचो तत्वों में से कोई भी तत्व तुम्हारा स्वंरूप नहीं है और पॉंचो तत्वों का समुदायरूप इंद्रियों का विषय जो यह स्थूल शरीर है वह भी तुम नहीं हो क्योंकि शरीर क्षण क्षण में परिणाम को प्राप्त होता जाता है ।

8-जो बाल अवस्था का शरीर होता है वह कुमार अवस्था में नहीं रहता है । कुमार अवस्था वाला शरीर युवावस्था में नहीं रहता । युवावस्था वाला शरीर वृद्धावस्थां में नहीं रहता और आत्मा सब अवस्थाओं में एक ही ज्यों का त्यों रहता है । इसी वास्ते युवा और वृद्धावस्था में प्रत्यभिज्ञाज्ञान भी होता है अर्थात पुरूष कहता है कि मैनें बाल्यावस्था में माता और पिता का अनुभव किया । कुमारावस्था में खेलता रहा, युवावस्थां में स्त्री के साथ शयन किया । अब देखिये – अवस्थाऍं सब बदली जाती है पर अवस्था का अनुभव करने वाला आत्मा् नहीं बदलता है किंतु एकरस ज्यों का त्यों ही रहता है । यदि अवस्था के साथ आत्मा भी बदलता जाता तब स्मृति जन्य ज्ञान कदापि नहीं होता क्योंकि ऐसा नियम है कि जो अनुभव का कर्ता होता है वही स्मृति और प्रत्य‍भिज्ञा का भी कर्ता होता है । दूसरे के देखे हुए पदार्थों का स्मरण दूसरे को नहीं होता है । इसी से सिद्ध होता है कि आत्मा् देहादिकों से भिन्न् है और देहादिकों का साक्षी भी है । हे राजन! उसी चिद्रूप को तुम अपना आत्मा् जानो ।जैसे घरवाला पुरूष कहता है – मेरा घर है, पलंग है और मेरा बिछौना है और वह पुरूष घर और पलंग आदि से जैसे जुदा है वैसे पुरूष कहता है – यह मेरा शरीर है, ये मेरे इंद्रियादिक है । जो शरीर और इंद्रियों का अनुभव करने वाला आत्मा है वह शरीर, इंद्रियादिकों से भिन्न है और उनका साक्षी है । 9-श्रुति कहती है - अयमात्मा ब्रह़म् । जो यह प्रत्यक्ष तुम्हारा आत्मा है यही ब्रहम् है, यही ईश्वर है ।अष्टावक्रजी कहते है कि हे जनक ! पृथ्वि आदिक पॉंच भूत और उनका कार्य स्थूल शरीर तथा इंद्रिय और उनके विषय शब्दादिक, इन सबसे तू न्या‍रा है और तू सबका साक्षी है, ऐसे निश्चय का नाम ही आत्मज्ञान है। आत्मज्ञान जहां कठिन है वहां सरल भी बहुत है। दूसरी वस्तुएं दूर भी हैं और उनका सीधा सम्बन्ध भी अपने से नहीं है। किसी के द्वारा ही संसार में बिखरा हुआ ज्ञान पाया और जाना जा सकता है। पर अपना आपा अर्थात स्वयं सबसे निकट है, हम उसके अधिपति हैं—आदि से अन्त तक उसमें समाये हुए हैं, इस दृष्टि से आत्मज्ञान सबसे सरल भी है। शोध करने योग्य ,आविष्कृत किये जाने योग्य एक ही तथ्य है ..वह है स्वयं की खोज । जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। बाहर की चीजों को ढूंढ़ने में मन इसलिए लगा रहता है कि अपने को ढूंढ़ने के झंझट से बचा जा सके। क्योंकि जिस स्थिति में आज हम हैं उसमें अंधेरा और अकेलापन दिखता है। यह डरावनी स्थिति है। सुनसान या खालीपन किसे भाता है। स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और उससे भयभीत होकर स्वयं ही भागते हैं। अपने को देखने खोजने और समझने की इच्छा इसी से नहीं होती और मन बहलाने के लिए बाहर की चीजों को ढूंढ़ते फिरते हैं कैसी है यह विडम्बना। क्या वस्तुतः भीतर अंधेरा है? क्या वस्तुतः हम अकेले और सूने हैं? नहीं प्रकाश का ज्योति-पुंज अपने भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही अपने भीतर विराजमान है। उसे पाने और देखने के लिए आवश्यक है कि मुंह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने से तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता और हिमालय तथा समुद्र भी दिखना बन्द हो जाता है। फिर अपनी ओर पीठ करके खड़े हो जायें तो शून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखेगा । 10-बाहर केवल पंच भूतों का बना हुआ निर्जीव जड़ जगत है। बहिरंग दृष्टि से तो हम मात्र जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आंखों से दिखता है कानों से सुनाई पड़ता है ..जड़ है। ईश्वर को भी यदि बाहर देखा जायगा तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दृष्टिगोचर होगी। अन्दर जो है वही सत् है। इसे अन्तर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुड़े हुए परमात्मा को देखने के लिए अन्तःदृष्टि की आवश्यकता है। इस प्रयास में अन्तर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, शान्ति आदि विभूतियों की खोज में कहीं अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है। बाहर भरी हुई जड़ता में चेतना नहीं पाई जा सकेगी। जिसे ढूंढ़ने की प्यास और पानी की चाह है वह तो भीतर ही भरा पड़ा है। जिसे कुछ मिला है यहीं से मिला है। कस्तूरी वाला हिरन तब तक उद्विग्न और अतृप्त ही फिरता रहेगा जब तक कि अपने ही नाभि केन्द्र में कस्तूरी की सुगन्ध सन्निहित होने पर विश्वास न करेगा, बाहर जो कुछ भी चमक रहा है सब अपनी आंखों का प्रकाश प्रतिबिम्ब मात्र है। श्रुति कहती है—अपने आपको जानो; अपने को प्राप्त करो और अमृतत्व में लीन हो जाओ। उसी को ऋषियों ने दुहराया और तत्वज्ञानियों ने उसे ही सारी उपलब्धियों का सार कहा है। क्योंकि जो बाहर दिख रहा है वह भीतरी तत्व का ही विस्तार है। अपना आपा जिस स्तर का होता है संसार का स्वरूप भी वैसा ही दीखता है। बाहर हमें जैसा देखना पसन्द हो उसे भीतर से खोज निकालें। यही अन्वेषण की चरम सीमा है। 11-दुःख, दारिद्र्य, शोक, सन्ताप और अभाव, उद्वेग का निवारण करने के लिए इन अनात्म तत्वों की अन्तरंग में जमी हुई जड़ों को खोदना पड़ेगा। भीतर का दीपक जलने पर ही बाहर फैले हुए अन्धकार का समाधान होगा। जो कुछ हमारे लिए अभीष्ट और आवश्यक है उसकी समस्त सम्भावनायें अपने भीतर सुरक्षित रखी हुई हैं। आवश्यकता उन्हें प्रयोग करने की है। अपने आपे का प्रयोग करना यदि हमें आया होता तो हम दूसरे ईश्वर बन सकने में समर्थ होते। अपने को खोकर हमने खोया ही खोया है। बाहर ढूंढ़ने में जीवन गंवा डाला, पर मिला कुछ नहीं, मिलता तब जब बाहर कुछ होता।अनात्म तत्वों की जो गन्दगी भीतर भर गई है उसे निकाल दें तो शेष वही रह जाता है जो हमारा स्वरूप है। कुछ पाने के लिए कुछ खोने के लिए तप साधन किये जाते हैं। आत्मा तो स्वयं उपलब्ध ही है। उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है। करने की बात इतनी ही है कि जो अनुपयुक्त और अवांछनीय अपने भीतर भर लिया है उसे निकाल कर फेंक दें। यह परिशोधन ही उपलब्धि का निमित्त बन जाता है। किसी तत्ववेत्ता से एक जिज्ञासु ने पूछा—गुरुदेव, तप साधना से आपने क्या पाया? उन्होंने उत्तर दिया—खोया बहुत पाया कुछ नहीं।

12-जिज्ञासु ने आश्चर्य से पूछा—ऐसा क्यों? ज्ञानी ने कहा—जो पाने लायक था वह तो पहले से ही प्राप्त था। जो खोने लायक विषय, विकार और अज्ञान, अन्धकार के अनात्म तत्व भीतर घुस पड़े थे, उन्हें साधना ने निकाला भर है। इस तरह साधक—साधना में खोता ही खोता है पाता कुछ नहीं। मनुष्य के यह जानने से पहले कि वह वास्तव में क्या है, अब तक के जाने हुए को भूलना होगा। वर्तमान नकारात्मक मान्यताओं के कारण मानव अपने भीतर स्थूल अहंवाद के साथ जुड़ी हुई मिथ्या मान्यताओं से ही परिचित हो पाया है। आत्मिक प्रगति के लिए हमें आत्म-बोध का प्रशिक्षण आरम्भ से ही करना होगा। क्योंकि उन तथ्यों को जिन पर आत्मोन्नति निर्भर है एक प्रकार से हमने भुला ही दिया है।’कालीदास ने कहा है—अपने को जानने का प्रयत्न करो। अपने स्वरूप को समझो और जिस लिये जन्मे हो उस पर विचार करो। तुम्हें दिशा मिलेगी और सही दिशा में कदम उठ गये तो वह प्राप्त करके रहोगे जिसके पाये बिना अपूर्णता और अतृप्ति घेरे ही रहेगी।स्वामी विवेकानन्द ने एक कथा सुनाई—एक तत्व ज्ञानी अपनी पत्नी से कह रहे थे, सन्ध्या आने वाली है, काम समेट लो। एक सिंह कुटी के पीछे यह सुन रहा था उसने समझा सन्ध्या कोई बड़ी शक्ति है जिससे डर कर यह निर्भय रहने वाले ज्ञानी भी अपना सामान समेटने को विवश हुए हैं। सिंह चिन्ता में डूब गया और उसे सन्ध्या का डर सताने लगा।

13-पास के घाट का धोबी दिन छिपने पर अपने कपड़े समेट कर गधे पर लादने की तैयारी करने लगा। देखा तो गधा गायब। उसे ढूंढ़ने में देर हो गई। रात घिर आई और पानी बरसने लगा। धोबी को एक झाड़ी में खड़खड़ाहट सुनाई दी समझा गधा है। सो लाठी से उसे पीटने लगा—धूर्त यहां छिपकर बैठा है। सिंह की पीठ पर लाठियां पड़ीं तो उसने समझा यही सन्ध्या है सो डर से थर-थर कांपने लगा। धोबी उसे घसीट लाया और कपड़े लाद कर घर चल दिया। रास्ते में एक दूसरा सिंह मिला उसने अपने साथी की दुर्गति देखी तो पूछा—यह क्या हुआ? तुम इस प्रकार लदे क्यों फिर रहे हो। सिंह ने कहा—सन्ध्या के चंगुल में फंस गये हैं वह बुरी तरह पीटती है और इतना वजन लादती है।’’ सिंह को कष्ट देने वाली संध्या नहीं उसकी भ्रांति थी जिसके कारण धोबी को कोई बड़ा देव दानव समझ लिया गया और उसका भार एवं प्रहार बिना शिर हिलाये स्वीकार कर लिया गया। हमारी यही स्थिति है अपने वास्तविक स्वरूप को न समझने और संसार के साथ—जड़ पदार्थों के साथ अपने सम्बन्धों का ठीक तरह ताल-मेल न मिला सकने की गड़बड़ी ने ही हमें उन विपन्न परिस्थितियों में धकेल दिया है जिनमें अंधकार के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं। इस भ्रान्ति को ही माया कहा गया है। माया को ही बन्ध न कहा गया है और दुःखों का कारण बताया गया है। यह माया और कुछ नहीं वास्तविकता से अपरिचित रखने वाला अज्ञान ही है। 14-गीता में माया की व्याख्या और प्रतिक्रिया समझाते हुए भगवान ने कहा है ''ज्ञान अज्ञान के द्वारा ढक दिया गया है, इस कारण सब प्राणी मोह को प्राप्त होते हैं।अपनी योग माया से ढके हुए होने के कारण मैं सबके लिए दृश्य नहीं हूं।तीन गुणों से युक्त इस मेरी माया को पार करना बड़ा कठिन है।''शरीर को आत्मा समझ बैठने—शरीर के सुख-दुःख, हानि-लाभ और संयोग-वियोग को आत्मा पर घटित हुई मान लेने से मनुष्य दुःखी होता है, उपलब्धियों की उपेक्षा यदि अपना ध्यान आत्मा के निर्मल निर्विकार स्वरूप में बना रहे और जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए कर्तव्य कर्मों को करते रहने एवं दिव्य विचारों में रमण करने की प्रवृत्ति अपना ली जाय तो न दुःख की गुंजाइश रहे न शोक की। अपने को आत्मा बना इस संसार की परमेश्वर का स्वरूप मानकर परमात्मा के लिए आत्मा द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले अनुदानों—कर्त्तव्य कर्मों को अपनाते हुए जीवन यात्रा पूरी करने लगे तो सारे दुःख दूर हो जायं जिन्हें अज्ञानता के कारण मायाबद्ध जीव पग-पग पर भुगतता रहता है। क्या है आत्म-साधना के तीन चरण? 07 FACTS;- 1-मानवीय अस्तित्व को तीन भागों में बांट सकते हैं (1) स्थूल (2) सूक्ष्म (3) कारण। अध्यात्म शास्त्र में इन्हें ही मनुष्य के तीन शरीर कहा गया है। केले के तने की तरह अथवा प्याज की तरह परत-दर-परत उधेड़ते जाने पर हमें रक्तमांस निर्मित स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर और उसके भी भीतर कारण शरीर का बोध होता है। मानो शरीर के ऊपर क्रमशः बनियान, शर्ट , जैकेट पहन रखी गई हों।स्थूल शरीर मां के पेट से प्रारम्भ होकर श्मशान घाट में समाप्त हो जाता है। इहलौकिक क्रिया-कलापों का यही माध्यम है। खाने, सोने, चलने, रोटी कमाने, शुभ-अशुभ कर्म करने, इन्द्रिय-सुख भोगने आदि के प्रयोजन इसी शरीर से पूरे होते हैं।सूक्ष्म शरीर चिन्तन-मनन, आकांक्षा, अभिरुचि आदि मानसिक गतिविधियों का केन्द्र व माध्यम है। इसका प्रधान कार्यस्थल मस्तिष्क ही है, यद्यपि सामान्यतः यह पूरे स्थूल शरीर में उसी तरह व्याप्त हैं, जैसे दूध में घी।तीसरा कारण शरीर आत्मा के अति समीप है तथा उच्चस्तरीय दिव्य भावनाओं का आधार है। दया, प्रेम कर्त्तव्यनिष्ठा, संयम, करुणा, सेवा धर्म, कोमल संवेदनादिक उच्चभाव इसी में उठते रहते हैं। जो लोग क्रूरता और दुष्टता में ही परिपक्व हो जाते हैं, उनका कारण शरीर भी क्रूर चेष्टाओं हेतु सहमत हो जाता है। 2-साधना का अर्थ है इन तीनों ही शरीरों की समुचित साज-सम्हाल और उत्कर्ष की व्यवस्था। साधना की दिशा में प्राथमिक पग है ...उपासना। भजन-पूजन, जप-ध्यान व्रत-उपवास आदि उपासना-अभ्यास मन की प्रवृत्ति को पदार्थ परक से चेतना की ओर मोड़ते हैं। विश्वव्यापी चेतना के स्मरण और अनुभूति की आकांक्षा जागृत हो जाने पर मनोवृत्तियों का वासना और तृष्णा की दिशा में भटकाव, समय शक्ति और पुरुषार्थ का भयानक दुरुपयोग प्रतीत होने लगता है। तब मनःशक्ति को संयमित कर परमार्थ में नियोजित करने की प्रवृत्ति दृढ़ होती जाती है। यही साधना है। उपासना दिन के एक छोटे से अंश में, निश्चित समय तक की जाती है, साधना एक अविच्छिन्न प्रक्रिया है। वह पूरे जीवन का ही नाम है। साधनामय जीवन आन्तरिक पवित्रता को निखरता जाता है और ईश्वरीय प्रकाश का दिव्य दर्शन कराता है। मानवीय व्यक्तित्व में देवत्व के अवतरण की यही प्रक्रिया है। 3-साधना के दो वर्ग हैं -(1) विशिष्ट लोगों की विशिष्ट प्रयोजन हेतु विशिष्ट प्रक्रिया। (2) सर्वसाधारण के लिए सहज ,सुगम, सौम्य पद्धति।विशिष्ट प्रक्रियाएं असाधारण मनोबल-सम्पन्न, कठोर तपश्चर्या के लिए समुद्यत, सांसारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त लोगों—योगी यती एकान्तवासी लोगों के लिए हैं। हठयोग, षट्चक्र वेधन, कुण्डलिनी जागरण लययोग, प्राणयोग आदि की साधनाएं इसी वर्ग की हैं। पर यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। भूल होने पर इस राह में खतरे ही खतरे हैं। निश्चय ही इसमें ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है। पर उन उपलब्धियों से चमत्कार-प्रदर्शन द्वारा लोगों को विस्मित-चकित कर देने की बात-आकांक्षा मात्र अहंकार ही बढ़ाती हैं। सिद्धियों द्वारा किसी का तात्कालिक कष्ट निवारण भी सम्भव है और उसमें थोड़ा बहुत आत्मसन्तोष भी प्राप्त हो जाता है। लेकिन यह मार्ग जोखिम भरा ही है ।चमत्कारों के लोभ से इस राह पर चल पड़ने वाले अधिकांश साधक साधना-पथ की कठिनाइयों और लम्बाई से निराश होकर या तो विरत हो जाते हैं या फिर अपनी असफलता की झेंप मिटाने के लिए धूर्तता के द्वारा लोगों को चमत्कृत करने का निकृष्ट व्यवसाय अपनाकर स्वयं भी पतित होते और दूसरों को भी गड्ढ़े में धकेलते हैं। मात्र असामान्य साहसी व्यक्ति ही इस मार्ग में बढ़ सकते हैं। 4-सौम्य साधना पद्धति का राजमार्ग सर्वसाधारण के लिए सुगम है। आजीविका-उपार्जन तथा सामान्य गृहस्थ जीवन-यापन करते हुए इस साधना क्रम को अपनाया जा सकता है। इस पथ पर सहज ही गतिशील रहा जा सकता है।इसीलिए शास्त्रकारों और ऋषियों ने सर्वसाधारण को इसी पथ के अवलम्बन हेतु प्रोत्साहित किया है। इस मार्ग द्वारा जादूगरी जैसे चमत्कार भले न प्राप्त हो, पर नर को नारायण की स्थिति तक पहुंचा देने का वास्तविक चमत्कार निश्चित ही सम्भव है।इस सौम्य साधना पद्धति द्वारा स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीरों का संस्कार-परिष्कार, परिमार्जन और परिवर्धन किया जाता है। इसके तीन प्रयोग हैं—(1) कर्मयोग (2) ज्ञानयोग (3) भक्तियोग। तीनों की संतुलित क्रियापद्धति का सहारा लेना ही श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवद् गीता में इसी का प्रक्रिया विवेचन है। धर्मशास्त्र भी इसी त्रिविधि तत्वज्ञान की विवेचना में ही खड़ा करते है। सृष्टि के आरम्भ से आज तक समय समय पर ऋषियों ने इसी त्रिविध साधना का—विभिन्न विधि-विधानों के रूप में, अपने समय के साधकों की मनोभूमि तथा सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मार्ग-निर्देश किया है। इस क्रिया-विधान में कर्मयोग, भक्तियोग एवं ज्ञान-योग तीनों का इस ढंग से समावेश किया गया है कि व्यक्ति के तीनों शरीर परिपुष्ट होते चलें और समाज में विकास के पुण्य-प्रयोजन का कार्य होता चले। 5-कर्मयोग की आधार-शिला है प्रातःकाल आंख खुलते ही चारपाई पर पड़े-पड़े ‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’ की विचारणा—प्रक्रिया को अपनाना तथा प्रस्तुत दिन के सर्वोत्तम सदुपयोग की तैयारी कर निश्चित कार्यक्रमों-गतिविधियों एवं विचार-प्रक्रिया का निर्धारण। सम्पूर्ण दिन मन में किस स्तर की भावनाएं किस काम के साथ संयोजित की जाएगी, यह भी निश्चित कर लेना अनिवार्य है। दिनभर इसी निर्धारण का दृढ़ता से पालन सामान्य जीवन क्रम को ही कर्म-योग की साधना का फल प्रदान करेगा।फिर रात्रि में शयन पूर्व बिस्तर पर पहुंचते ही दिन की गतिविधियों का लेखा-जोखा कर सफलताओं के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना तथा भूलों के लिए सच्चे पश्चात्ताप के साथ क्षमा प्रार्थना कर, पूर्ण निश्चिन्तता के साथ, शान्तिपूर्वक माता निद्रादेवी की गोद में सो जाना।कर्मयोग की इस साधना के साथ ही ज्ञानयोग की साधना भी जुड़ी है। उस हेतु मन में उत्कृष्ट विचारों का अनवरत समावेश आवश्यक है। प्रेरक स्वाध्याय ही इसका मार्ग है। रूढ़िवादी रीति से किन्हीं पुरानी, किस्से कहानी जैसी किताबों को पढ़ना स्वाध्याय नहीं। व्यावहारिक जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता की दिशा दिखलाने वाला स्वाध्याय ही आवश्यक है और उसे दैनिक जीवन का एक नित्य कर्म मानकर किया ही जाना चाहिए। व्यक्ति एवं समाज के नव-निर्माण हेतु उपयोगी उत्कृष्ट साहित्य के प्रतिदिन स्वाध्याय के लिए समय अनिवार्यतः निकालना ही चाहिए।यह है ज्ञान-योग की निजी साधना और युग-परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम ।साधक का आत्म-कल्याण एवं विश्व-कल्याण दोनों ही ज्ञान-यज्ञ द्वारा सहज सम्भव हैं। 6- भक्तियोग का अर्थ है अन्तरात्मा में दिव्य भावनाओं का अनवरत प्रवाह। परम ब्रह्म से अपने अनन्य प्रेम का स्मरण, तादात्म्य की प्रचण्ड अनुभूति और प्रभु- प्रेम की प्रखर अनुभूति का स्मरण-अभ्यास अवरुद्ध आन्तरिक स्रोत को पुनः मुक्त करता है। सच्चा प्रेमी, सच्चा भक्त मात्र ईश्वरीय ध्यान-छवि को प्यार नहीं करता अपितु ब्रह्माण्ड में संव्याप्त ईश्वरीय से अर्थात प्राणिमात्र से अनन्य आत्मीयता भरा प्रेम सम्बन्ध प्रस्थापित कर लेता है। यह तादात्म्य भावना पग-पग पर करुणा, उदारता, सहृदयता, सहानुभूति, सेवा, सज्जनता के रूप में कार्यरूप में प्रकट परिणत होती रहती है। ईश्वर भक्त स्वार्थी नहीं हो सकता है ।उसके लिए तो एक ही मार्ग है ..अपनी समस्त उपलब्धियों को विश्व मानव के चरणों में व्यवहारतः समर्पित कर देना। इससे कम में कभी भी ईश्वरीय अनुकम्पा प्राप्त भी नहीं हो सकती। लोकमंगल में अपना सर्वस्व समर्पण करने वाला परमार्थ-परायण व्यक्ति ही सच्चा ईश्वर भक्त कहा जा सकता है। अपने परिवार का पालन भी वह इसी भावभूमि के आधार पर ही करता है। सभी लोगों के साथ उसके व्यवहार का भी यही आधार होता है। वासना-तृष्णा से सर्वथा रहित, निर्मल-निश्चिन्त अन्तःकरण वाला व्यक्ति ही, भक्ति योग का अधिकारी है। शबरी, मीरा, सूर, तुलसी आदि भक्तों ने तथा सभी ऋषि मुनियों ने इसी भावभूमि पर पहुंच कर ईश्वर दर्शन ,आत्म साक्षात्कार का परमानन्द प्राप्त किया था और सभी दूसरों के लिए भी वही राजमार्ग खुला है। 7-बनियान-शर्ट -जाकेट पहने हुए कोई भी व्यक्ति अपना शरीर नहीं देख सकता। आत्मा भी इसी तरह तीन आवरणों में बन्द है इन आवरणों को खोलने के लिये जप, तप ध्यान, मुद्रा, आसन प्राणायाम प्रत्याहार आदि का इतना विशाल क्षेत्र खड़ा कर दिया है कि प्रत्येक स्थिति का व्यक्ति, हर परिस्थिति और वातावरण का निवासी उनमें से अपने अनुकूल साधना विधान चयन कर आत्मा के मार्ग में चल पड़ सकता है तो भी साधना का मार्ग अति दुष्कर है। इसे युद्ध की संज्ञा दी गई है। युद्ध में लोग विजयी ही नहीं होते पराजित भी होते हैं और मृत्यु के घाट भी उतर जाते हैं । अतः योद्धा गण आत्म-सुरक्षा की ढाल लेकर ही मैदान में उतरते हैं। अपने अनुसार साधना उपासना का निर्धारण हर किसी से सम्भव नहीं होता। अतएव योग्य मार्ग दर्शन की आवश्यकता पड़ती है जो समय समय पर उस मार्ग में आने वाली अड़चनों का समाधान करते रहें। जिन्हें इस तरह का सुयोग मिल जाये उन्हें मनुष्य शरीर देने के बाद इसे परमात्मा का दूसरा अनुग्रह समझना चाहिये।किन्तु सामान्यतः योग्य मार्ग दर्शन का मिलना कठिन कार्य है। इस युग में तो धर्म के नाम पर सिवाय जन श्रद्धा के दोहन और साधनाओं के नाम पर एक दो आसन प्राणायाम सिखाकर जिज्ञासु साधक का धन हड़प लेने की युक्ति ही योग साधना स्थलों में दिखाई देती है। इनसे बचाने के लिये ही आत्म बोध की साधनाओं का प्रशिक्षण चलता रहता है किन्तु वह हर व्यक्ति के लिये सुलभ हो ..यह आवश्यक नहीं । कर्म योग द्वारा स्थूल शरीर का परिष्कार ,ज्ञान योग द्वारा सूक्ष्म की अनुभूति करते हुये भक्ति, श्रद्धा और निष्ठा विकसित कर हर कोई कारण शरीर आत्मा का अन्तःदर्शन कर सकता है। उस स्थिति में मिलने वाली शान्ति ,प्रसन्नता ,आत्म बल और आत्म विभूति की तुलना में संसार में बड़े से बड़े भौतिक सुख तुच्छ ही ठहरते हैं।

...SHIVOHAM....



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