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तीन महाग्रंथियों का क्या रहस्य हैं?क्या ग्रन्थि भेद से ही कुण्डलिनी जागरण संभव है?


तीन महाग्रंथियों का रहस्य;-

09 FACTS;-

1-योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पाँच भागों में बंटा है जिन्हें पंचकोश कहते हैं। ये कोश एक साथ विद्यमान अस्तित्व के विभिन्न तल के समान होते हैं। विभिन्न कोशों में चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन की अनुभूति होती है। प्रत्येक कोश का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।वे एक दूसरे को प्रभावित करती और होती हैं।

2-ये पाँच कोश हैं...

2-1-अन्नमय कोश - अन्न तथा भोजन से निर्मित... शरीर और मस्तिष्क

2-2-प्राणमय कोश - प्राणों से बना

2-3-मनोमय कोश - मन से बना

2-4-विज्ञानमय कोश - अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना

2-5-आनंदमय कोश - आनन्दानुभूति से बना

3-योग मान्यताओं के अनुसार चेतन और अवचेतन मान का संपर्क

प्राणमय कोश के द्वारा होता है।विज्ञानमय कोश के अन्तर्गत तीन बन्धन हैं जो पंच भौतिक शरीर न रहने पर भी देव, गंधर्व, यक्ष, भूत, पिशाच आदि की योनियों में भी वैसा ही बन्धन बांधे रहते हैं जैसा कि शरीरधारी को होता है।

4-साधक की जब विज्ञानमय कोश में स्थिति होती है तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानों उसके भीतर तीन कठोर, गठीली, चमकदार, हलचल करती हुई, हलकी, गांठें हैं। इनमें से एक गांठ मूत्राशय के समीप, दूसरी आमाशय के ऊर्ध्व भाग में और तीसरी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में विदित होती है।

5-यह तीनों ही पीठ के मध्य भाग में मेरुदंड के समीप होती हैं। इन गांठ में से मूत्राशय वाली ग्रन्थि को रुद्र ग्रन्थि, आमाशय वाली को विष्णु ग्रंथि और सिर वाली को ब्रह्म ग्रन्थि कहते हैं। इन्हीं तीन को दूसरे शब्दों में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती भी कहते हैं। 6-यह तीन बन्धन-ग्रन्थियां, रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि, ब्रह्म ग्रन्थि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन्हें तीन गुण भी कह सकते हैं रुद्र-ग्रंथि-अर्थात् तम, विष्णु ग्रन्थि अर्थात् रज, ब्रह्म ग्रन्थि अर्थात् सत। इन तीनों गुणों से अतीत हो जाने पर, ऊंचा उठ जाने पर आत्मा शान्ति और आनन्द का अधिकारी होता है। 7-इन तीन ग्रन्थियों को खोलने के महत्वपूर्ण कार्य को ध्यान में रखने के प्रतीकस्वरूप कन्धे पर तीन तार का यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि तम, रज, सत के तीन गुणों द्वारा स्थूल, सूक्ष्म, कारण, शरीर बने हुए हैं। यज्ञोपवीत के अन्तिम भाग में तीन ग्रन्थियां लगाई जाती है इसका तात्पर्य है कि रुद्र ग्रंथि ,विष्णु ग्रंथि तथा ब्रह्म ग्रंथि से जीव बंधा पड़ा है। इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ ऋण, ऋषि ऋण देव ऋण है। तम को प्रकृति, रज को जीव, सत को आत्मा कहते हैं।

8-जीव को तीन भवबंधनों में बँधा हुआ माना जाता है। हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी और कमर में रस्सी से बँधे हुए चोर-तस्कर इधर से उधर ले जाए जाते है। घोड़े के पैरों में पिछाड़ी, गले में रस्सी और मुँह में लगाम लगी रहती हैं भवबंधन भी वासना, तृष्णा और अहंता के तीन ही है। इन्हीं के कारण निरंतर खिन्न-उद्विग्न रहना पड़ता है। इन तीन के अतिरिक्त मानव जीवन में अशाँति छाई रहने का और कोई कारण नहीं है। इन्हीं को काम, क्रोध, लोभ कहा गया है।

9-इन्हीं तीनों के सम्मिश्रण में अनेकों प्रकार के मनोविकार उठते है और इन्हीं की प्रेरणा से अनेकानेक पापकर्म बन पड़ते है। इन तीनों बंधनों को खोला-काटा जा सके तो समझना चाहिए, बंधनमुक्ति का सौभाग्य बन गया। साधना विज्ञान में इन तीन बंधनों के खुलने पर तीन दिव्य शक्तियों के दर्शन एवं अनुग्रह का लाभ मिलने की बात कही गई है। पितृ ऋण, ऋषि ऋण देव ऋण क्या है?-

02 FACTS;- 1-व्यवहारिक जगत में तम को-सांसारिक जीवन, रज को, व्यक्तिगत जीवन, सत को-आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं। देश जाति और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना ...पितृ ऋण से, पूर्ववर्ती लोगों के उपकारों से उऋण होने का मार्ग है।

2-व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से सुसम्पन्न बनाना, अपने को मनुष्य जाति का एक सदस्य बनाना ऋषि ऋण से छूटना है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन निदिध्यासन आदि आत्मिक साधनाओं द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि अपवित्रताओं का हटाकर आत्मा को परम निर्मल-देव तुल्य बनाना यह देव ऋण से उऋण होना है। त्रिगुणातीत अवस्था क्या है?-

04 FACTS;-

1-दार्शनिक दृष्टि से विचार करने पर तम का अर्थ होता है—शक्ति । रज का अर्थ होता है—साधन । सत् का अर्थ होता है—ज्ञान । इन तीनों की न्यूनता एवं विकृत अवस्था-बन्धन कारक, अनेक उलझनों कठिनाइयों और बुराइयों को उत्पन्न करने वाली हो जाती है। इसलिए जब इन तीनों की स्थिति संतोश जनक होती है तब त्रिगुणातीत अवस्था प्राप्त होती है। 2-सारा संसार तीन गुणों से व्याप्त है - सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण. सृस्टि की उत्पत्ति से लेकर प्रलय तक सबकुछ त्रिगुण मय है। सतोगुण की अधिक मात्रा होने पर सुख में आसक्ति रहती है। मन में शांति का अनुभव होता है, ईश्वर में श्रद्धा रहती है। पाप कर्म करने में भय लगता है या पाप कर्म नहीं करता। रजोगुण की अधिकता होने से कर्मो में आसक्ति रहती है ।

3-तमोगुण अधिक होने पर आलस, हिंसक वृत्ति बनती है, ईश्वर की तरफ मन नहीं जाता । यदि व्यक्ति सतोगुण बढ़ जाने पर शरीर छोड़ता है तो वह स्वर्ग आदि उच्च लोकों में जाता है। यदि रजोगुण बढ़ जाने पर शरीर छोड़ता है तो वह कर्म करने वाले लोकों में जन्म लेता है। यदि तमोगुण बड़ जाने पर शरीर छोड़ता है तो वह साँप बिच्छू आदि निम्न योनियों में जन्म लेता है. 4-आध्यात्मिक क्षेत्र में सूक्ष्म अन्वेषण करने वाले ऋषियों ने यह पाया है कि तीन गुणों, तीन शरीरों, तीन क्षेत्रों का व्यवस्थित या अव्यवस्थित होना अदृश्य केन्द्रों पर निर्भर रहता है सभी दिशाओं को उत्तम बनाने से यह केन्द्र उन्नत अवस्था में पहुंच सकते हैं। दूसरा उपाय यह भी है कि अदृश्य केन्द्रों को आत्मिक साधना विधि से उन्नत अवस्था में ले जाया जाय तो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों को ऐसी स्थिति पर पहुंचाया जा सकता है कि जहां उनके लिए कोई बन्धन या उलझन शेष न रहे। रुद्र ग्रन्थि का आकार;-

06 FACTS;-

1-रुद्र ग्रंथि का स्थान नाभि स्थान माना गया है, इसे अग्निचक्र भी कहते हैं। माता के शरीर से बालक के शरीर में जो रसरक्त प्रवेश करता है। उसका थान यह नाभि स्थान ही है। प्रसव के उपराँत नाल काटने पर ही माता और तान के शरीरों का संबंध विच्छेद होता है इस नाभिचक्र द्वारा ही विश्वब्रह्माँड का वह अग्नि प्राप्त होती रहती है जिसके कारण शरीर को तापमान मिलता और जीवन बना रहता है।

2-स्थूल शरीर को प्रभावित करने वाली प्राण क्षमता का केंद्र यही है। शरीर शास्त्र के अनुसार नहीं, अध्यात्म शास्त्र के सूक्ष्म ज्ञान के अनुरूप प्राण धारण का केंद्र यही है। कुँडलिनी शक्ति इसी नाभिचक्र के पीछे अधोभाग में अवस्थित है।

3-मूलाधार चक्र का मुखद्वारा नाभि स्थान में है और अधोभाग में मल-मूत्र छिद्रों के मध्य केन्द्र है। इस केंद्र के जागरण-अनावरण का जो विज्ञान-विधान है यह त्रिपदा गायत्री के प्रथम चरण का क्षेत्र समझा जा सकता है। 4-रुद्र ग्रन्थि का आकार बेर के समान ऊपर को नुकीला नीचे को भारी, पेंदे में गड्ढा लिए हुए होता है, इसका वर्ण कालापन मिला हुआ लाल होता है। इस ग्रन्थि के दो भाग हैं दक्षिण भाग को रुद्र और वाम भाग को काली कहते हैं। दक्षिण भाग के अन्तरंग गह्वर में प्रवेश करके जब उसकी झांकी की जाती है तो ऊर्ध्व भाग में श्वेत रंग की एक छोटी सी नाड़ी हलका सा श्वेत रस प्रवाहित करती है, एक तन्तु तिरछा पीत वर्ण की ज्योति सा चमकता है।

5-मध्य भाग में एक काले वर्ण की नाड़ी सांप की तरह मूलाधार से लिपटी हुई है, प्राण वायु का जब उस भाग से सम्पर्क होता है तो डिम डिम जैसी ध्वनि उसमें से निकलती है। रुद्र ग्रन्थि की आन्तरिक स्थिति की झांकी करके ऋषियों ने रुद्र का सुन्दर चित्र अंकित किया है।

6-मस्तक पर गंगा की धारा, जटा में चन्द्रमा, गले में सर्प, डमरू की डिम डिम ध्वनि, ऊर्ध्व भाग नुकीलापन त्रिशूल के रूप में अंकित करके भगवान शंकर का एक ध्यान करने लायक सुन्दर चित्र बना दिया। उस चित्र में अलंकारिक रूप से रुद्र ग्रन्थि की वास्तविकताएं ही भरी गई हैं। उसी ग्रन्थि का वाम भाग जिस स्थिति में है उसकी वायु शृंखलाएं कोण, स्फुल्लिंग, तरंगें, नाड़ियां जिस स्थिति में हैं उसी स्थिति के अनुरूप काली का सुन्दर चित्र सूक्ष्म दर्शी आध्यात्मिक चित्रकारों ने अंकित कर दिया है। विष्णु ग्रन्थि का आकार;-

07 FACTS;-

1-दूसरी ग्रंथि है-विष्णु ग्रंथि। यह मस्तिष्क मध्य ब्रह्मरंध्र में है। आज्ञाचक्र, द्वितीय नेत्र इसी को कहते है। पिट्यूटरी और पीनियल हारमोन ग्रंथियों का शक्तिचक्र यहीं बनता है। मस्तिष्क के खोखले को विष्णुलोक भी कहा गया है। इसमें भरे हुए भूरे पदार्थ को क्षीरसागर की उपमा दी गई है। सहस्रार चक्र को हजार फन वाला शेष सर्प कहा गया है। जिस पर विष्णु भगवान सोए हुए है।

2-ब्रह्मरंध्र की तुलना पृथ्वी के ध्रुवप्रदेश से की गई हैं अनंत अंतरिक्ष में अंतर्ग्रही प्रचंड शक्तियों की वर्षा निरंतर होती रहती है। ध्रुवों में रहने वाला चुँबकत्व इस अंतर्ग्रही शक्ति वर्षा में अपने लिए आवश्यक संपदाएँ खींचता रहता है। पृथ्वी के वैभव की जड़ें इसी ध्रुव प्रदेश में है। वहाँ से उसे आवश्यक पोषण निखिल ब्रह्माँड की संपदा में उपलब्ध होता रहता हैं।

3-ठीक इसी प्रकार मानवी काया एक स्वतंत्र पृथ्वी है। उसे अपनी अति महत्वपूर्ण आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर इसी ब्रह्मरंध्र के माध्यम द्वारा उपलब्ध होता रहता हैं। यह ध्रुवप्रदेश अवरुद्ध रहने से, मूर्च्छित स्थिति में पड़े रहने से सूक्ष्मजगत के अभीष्ट अनुदान मिल नहीं पाते और पिछड़ेपन की आत्मिक दरिद्रता छाई रहती है।

4-विष्णुग्रंथि के जाग्रत होने पर ही वह द्वार खुलता है। दूरदर्शन, दूर-श्रवण, भविष्य-ज्ञान, विचार-संचालन, प्राण-प्रहार आदि अनेक योग और तंत्र में वर्णित शक्तियों का निवास इसी क्षेत्र में हैं। सिद्धियों की चौंसठ योगनियाँ यहीं समाधि जैसी बनकर लेटी हुई है। उन्हें यदि जगाया जा सके तो मनुष्य सहज ही सिद्ध पुरुष बन सकता है, उनकी अविज्ञात क्षमता विकसित होकर देवतुल्य समर्थता का लाभ दे सकती है। 5-विष्णु ग्रन्थि किस पर्ण की किस गुण की, किस आकार की, किस आन्तरिक स्थिति की, किस ध्वनि की, किस आकृति की है यह सब हमें विष्णु के चित्र से सहज ही प्रतीत हो जाता है। नील वर्ण, गोल आकार, शंख ध्वनि, कौस्तुभ मणि, बन माला यह चित्र उस मध्य ग्रन्थि का सहज प्रतिबिम्ब हैं। 6-जैसे मनुष्य को मुख की ओर से देखा जाय तो उसकी झांकी दूसरी प्रकार की होती है और पीठ की ओर से देखा जाय तब वह आकृति दूसरी ही प्रकार की होती है। एक ही मनुष्य के दो पहलू दो प्रकार के हो जाते हैं। इसी प्रकार एक ही ग्रन्थि दक्षिण भाग से देखने में पुरुत्व प्रधान उसी आकार प्रकार की और बांई ओर से देखने पर स्त्रीत्व प्रधान आकार प्रकार की होती है।

7-विष्णुग्रंथि के जागरण से मिलने वाली सफलता के अनुपात से इस प्रकार के अनेकों दिव्यज्ञान साधना प्रयोगों द्वारा सहज ही उपलब्ध होने लगते है।एक ही ग्रन्थि को रुद्र या शक्ति ग्रन्थि कहा जा सकता है। विष्णु लक्ष्मी, ब्रह्मा और सरस्वती का संयोग भी इसी प्रकार है। ब्रह्म ग्रन्थि का आकार;-

06 FACTS;-

1-ब्रह्मग्रंथि का स्थान हृदयचक्र माना गया हैं। इसे ब्रह्मचक्र भी कहते है। भावश्रद्धा, संवेदना एवं आकाँक्षाओं का क्षेत्र यही है। शरीरशास्त्र के अनुसार भी रक्त का संचार एवं संशोधन करने वाला केंद्र यही है। इस धड़कन को ही पेंडुलम की खट-खट की तरह शरीर रूपी घड़ी का चलना माना जाता है। अध्यात्मशास्त्र की मान्यता इससे आगे की है। उसके अनुसार हृदय की गुहा में प्रकाश ज्योति की तरह यहाँ आत्मा का निवास है।

2-परमात्मा भावरूप में ही अपना परिचय मनुष्य को देते है। श्रद्धा और भक्ति के शिकंजे में ही परमात्मा को जकड़ा जाता है। यह सारा मर्मस्थल यहीं है। किसी तथ्य का हृदयंगम होना, किसी प्रियजन का हृदय में बस जाना जैसी उक्तियों से यह प्रतीत होता है। कि आत्मा का स्थान-निरूपण इसी क्षेत्र में किया गया है। ''हृदय चक्र'' ब्रह्मग्रंथि हैं। वहाँ से भावनाओं का, आकाँक्षा-अभिरुचि का परिवर्तन होता है। जीवन की दिशाधारा बदलती है।

3-वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अंबपाली, विल्वमंगल, अजामिल आदि का प्रत्यावर्तन-हृदय परिवर्तन ही उन्हें कुछ-से कुछ बना देने में समर्थ हुआ। जीवन का समग्र शासनसूत्र यहीं से संचालित होता है। आकाँक्षाएँ विचारों का निर्देश देती है ओर मनःसंस्थान को अपनी मरजी पर चलाती है। मन के अनुसार शरीर चलता है। शरीर कर्म करता हैं कर्म के अनुरूप परिणाम और परिस्थितियां सामने आती है। परिस्थितियों में सुधार करना हो तो कर्म ठीक करने होंगे। शरीर पर नियंत्रण का और मस्तिष्क का अधिपति हृदय है।

4-प्रियतम को हृदयेश्वर और हृदयेश्वरी कहा जाता है। मानवी सत्ता पर स्वामित्व हृदय का ही है।तेज प्रवाह में बहती हुई नदी के मध्य जो भँवर पड़ते है, उनकी शक्ति सामान्य प्रवाह की तुलना में सैकड़ों गुनी अधिक होती है। सुदृढ़ नावों, जहाजों और मल्लाहों को भँवर में फंसकर डूबते देखा गया है।

5-हवा गरम होने पर चक्रवात उठते है। उनकी तूफानी शक्ति देखते ही बनती है। मजबूत छत, छप्पर, पेड़ और मकानों को वे उठाकर कहीं से कहीं पटक देते है। रेत को आसमान में छोड़ते है और आँधी-तूफान के बवंडर उठकर अपने प्रभावक्षेत्र को बुरी तरह अस्त-व्यस्त कर देते हैं ऐसे ही कुछ चक्रवात केंद्र भंवर चक्र अपने शरीर में भी है। उनकी गणना षटचक्रों ओर नवचक्रों के रूप में की जाती हैं। छोटे चक्र और भी है।इन सब में तीन ग्रंथियां प्रधान है। 6-ब्रह्म ग्रन्थि मध्य मस्तिष्क में है। इससे ऊपर सहस्रार शतदल कमल है, यह ग्रन्थि ऊपर से चतुष्कोण और नीचे से फैली हुई। इसका नीचे का एक तन्तु ब्रह्म रंध्र से जुड़ा हुआ है। इसी को सहस्र मुख वाले शेष नाग की शय्या पर लेटे हुए भगवान के नाभि कमल से उत्पन्न चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है।वाम भाग में यही ग्रन्थि चतुर्भुजी

सरस्वती है। वीणा की झंकार से ॐकार ध्वनि का यहां निरन्तर गुंजार होता है।

तीन महाग्रंथियों का चक्र से संबंध और वेधन का महत्व;-

05 FACTS;- 1-इन तीन महाग्रंथियों की दो दो सहायक ग्रंथियां भी होती हैं। जो मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना नाड़ी के मध्य में रहने वाली ब्रह्मनाड़ी के भीतर रहती है इन्हें ही चक्र भी कहते हैं। रुद्र ग्रन्थि की शाखा ग्रन्थियां मूलाधार चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र कहलाती हैं। विष्णु ग्रन्थि की दो शाखाएं मणिपूर चक्र और अनहद चक्र हैं। मस्तिष्क में निवास करने वाली ब्रह्म ग्रन्थि के सहायक ग्रन्थि चक्रों को विशुद्ध चक्र और आज्ञा चक्र कहा जाता है। हठयोग की विधि से षट् चक्रों का वेधन किया जाता है। 2-यह तीनों ग्रन्थियां जब तक सुप्त अवस्था में रहती हैं बंधी हुई रहती हैं तब तक जीव साधारण दीन हीन दशा में पड़ा रहता है, अशक्ति, अभाव और अज्ञान उसे नाना प्रकार से दुख देते रहते हैं पर जब इनका खुलना आरम्भ होता है तो उनका वैभव बिखर पड़ता है। मुंह बन्द कली में न रूप है न सौंदर्य न गंध है आकर्षण, पर जब वह कली खिल पड़ती है और पुष्प के रूप में प्रकट होती है तो एक सुन्दर दृश्य उपस्थित हो जाता है।

3-जब तक खजाने का ताला लगा हुआ है थैली का मुंह बन्द है, तब तक दरिद्रता दूर नहीं हो सकता पर जैसे ही रत्न राशि का भंडार खुल जाता है वैसे ही अतुलित वैभव का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है।रात को कमल का फूल बन्द होता है तो भौंरा भी उसमें बंद हो जाता है पर प्रातःकाल वह फूल फिर खिलता है तो भौंरा बन्धन मुक्त हो जाता है। यह तीन कलियां, तीन तीन ग्रन्थियां, जीव को बांधे हुए हैं जब यह खुल जाती हैं तो मुक्ति का अधिकार स्वयमेव ही प्राप्त हो जाता है। इन रत्न राशियों का ताला खुलते ही शक्ति सम्पन्नता और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हस्तगत हो जाता है। 4-चिड़िया अपनी छाती की गर्मी से अंडों को पकाती हैं, चूल्हें की गर्मी से भोजन पकता है, सूर्य की गर्मी से वृक्षों, वनस्पतियों और फलों का परिपाक होता है। माता नौ महीने तक बालक को पेट में पका कर उस को इस स्थिति में लाती है कि वह जीवन धारण कर सके।

5-विज्ञानमय कोश की यह तीन ग्रन्थियां भी तप की गर्मी से पकती हैं। तप द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश—सरस्वती, लक्ष्मी, काली सभी का परिपाक हो जाता है। यह शक्तियां समदर्शी हैं। न उन्हें किसी से प्रेम है न द्वेष। रावण जैसे असुर ने भी शंकर जी से वरदान पाये थे और अनेक सुर भी कोई सफलता नहीं प्राप्त कर पाते। इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है। श्रम और प्रयत्न ही परिपक्व होकर सफलता बन जाता है।

ग्रन्थि भेद करने के दो मार्ग;-

06 FACTS;-

1-तीन ग्रंथियां प्रधान है। रुद्रग्रंथि, विष्णुग्रन्थि और ब्रह्मग्रंथि तीनों ही शरीर को परस्पर जोड़े हुए है ओर सूक्ष्म जगत के साथ आदान-प्रदान का सिलसिला भी बनाए हुए हैं। स्थूल शरीर नाभिचक्र के नियंत्रण में है। सूक्ष्मशरीर पर आज्ञाचक्र का, कारण शरीर पर हृदय चक्र का आधिपत्य हैं ताले खोलने को चाबी डालने के छिद्र यही तीन है। योगाभ्यास इन्हीं की साधना को रुद्र, विष्णु और ब्रह्मा की साधना माना गया है। इसी समूचे सत्ता क्षेत्र को त्रिपदा की परिधि कहा गया है।

2-गुणों की दृष्टि से त्रिपदा को निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा कहा गया है। निष्ठा का अर्थ है-तत्परता-दृढ़ता। प्रज्ञा कहते है-विवेकशीलता-दूरदर्शिता को, श्रद्धा कहते है आदर्शवादिता और उत्कृष्टता को। कर्म के रूप में निष्ठा गुण के रूप में प्रज्ञा और स्वभाव के रूप में श्रद्धा। श्रद्धा की गरिमा सर्वोपरि हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के परिष्कार का परिचय इन्हीं तीनों के आधार पर मिलता है। गुण, कर्म, स्वभाव ही किसी व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के परिचायक होते है।

3-त्रिपदा का एक पक्ष सृजनात्मक है दूसरा ध्वंसात्मक। एक आध्यात्मिक है दूसरा भौतिक। अध्यात्म के सृजन पक्ष को दक्षिण मार्ग कहते है और भौतिक विज्ञान पक्ष को वाममार्ग ।दक्षिण मार्ग को देवयान भी कहते है।

यह देवत्व का लक्ष्य प्राप्त कराती है। दक्षिण मार्ग को निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा कहा गया है। निष्ठा का अर्थ है-तत्परता-दृढ़ता। प्रज्ञा कहते है-विवेकशीलता-दूरदर्शिता को, श्रद्धा कहते है आदर्शवादिता और उत्कृष्टता को। कर्म के रूप में निष्ठा ...गुण के रूप में प्रज्ञा और स्वभाव के रूप में श्रद्धा। श्रद्धा की गरिमा सर्वोपरि हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के परिष्कार का परिचय इन्हीं तीनों के आधार पर मिलता है। गुण, कर्म, स्वभाव ही किसी व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के परिचायक होते है।

4-त्रिपदा का वाममार्ग तंत्र हैं। उसे अपनाने से भौतिक पक्ष सुदृढ़ होता है। दैत्य शब्द वैभव, बड़प्पन, विस्तार बल का बोधक है। पुराणों में दैत्यों की भौतिक और देवताओं की आत्मिक शक्ति का वर्णन हैं दूरदर्शी ऋषि दक्षिणमार्गी साधना /उपासना करते थे और भौतिक लाभों के लिए लालायित को वाममार्गी साधना करनी पड़ती थी। देवपक्ष के आचार्य वृहस्पति थे। दैत्य पक्ष का प्रशिक्षण शुक्राचार्य करते थे।

5-तप-साधना दोनों को ही करनी पड़ती थी, ऋषि और देवताओं का सात्विक तप होता था, दैत्यों का तामसिक। कुँभकरण, मेघनाद, मारीच, हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, भस्मासुर, वृत्रासुर, सहस्रबाहु, महिषासुर आदि अनेक दुर्दांत दैत्यों के वैभव और पराक्रमों का वर्णन पुराणों में मिलता हैं। यह वाममार्गी साधना की उपासना का परिणाम है। एकाँकी दुष्टता को निरस्त करने के लिए आक्रमण अस्त्र के रूप में त्रिपदा के दक्षिण मार्ग का प्रयोग होता है। इस प्रकार के प्रयोग-उपचार को ब्रह्मास्त्र कहते है।

6-रिवाल्वर आदि प्रचंड अस्त्रों के लाइसेंस हर की को नहीं मिलते। प्रामाणिक व्यक्तियों को ही उन्हें रखने की आज्ञा मिलती है। ठीक इसी प्रकार ताँत्रिक प्रयोगों की शिक्षा सर्वसुलभ नहीं की गई किन्तु है वह त्रिपदा का एक महत्वपूर्ण पक्ष।दक्षिण मार्ग का ज्ञान पक्ष ब्रह्मा विद्या कहलाता है और विज्ञान पक्ष ब्रह्मतेजस्। दोनों के समन्वय से ब्रह्मवर्चस शब्द बना है। इसमें आत्म-ज्ञान और आत्मबल दोनों का समन्वय कह सकते है। अथर्ववेद में इस विद्या की सात सिद्धियाँ गिनाई गई है। सबसे अंतिम सोपान ब्रह्मवर्चस कहा गया है। उसकी उपलब्धि के लिए जो संतुलित यात्रा करनी पड़ती है, उसमें दक्षिण और वाममार्ग का ब्रह्मयोग और तंत्रयोग दोनों का समन्वय सम्मिलित है। इसी से उसे पूर्णयोग की संज्ञा दी गई है।

विज्ञानमय कोश में ग्रन्थि भेद करने की विधि (हठयोग का षट चक्र बेधन अथवा महायोग का ग्रन्थि भेद);-

1-रुद्र ग्रन्थि भेद

07 FACTS;- 1-साधना विज्ञान के तत्वदर्शी वैज्ञानिकों ने तीन ग्रंथियों का विस्तृत विवेचन एवं निरूपण किया है। उन्हें खोलने के साधन एवं विधि-विधान बताए हैं। रुद्र, विष्णु और ब्रह्म ग्रन्थियों को खोलने के लिए उस ग्रन्थि के मूल भाग में निवास करने वाली बीज शक्तियों का संचार करना पड़ता है। रुद्र ग्रन्थि के अधोभाग में बेर के डंठल की तरह एक सूक्ष्म प्राण अभिप्रेत होता है जिसे ''क्लीं ''बीज कहते हैं।

2-विष्णु ग्रन्थि के मूल में ''श्रीं'' बीज का निवास है और ब्रह्म ग्रन्थि के नीचे ''ह्रीं'' तत्व का अवस्थान है। मूल बन्ध बांधते हुए एक ओर से अपान और दूसरी ओर से कूर्म प्राण को चिमटे की तरह बनाकर रुद्र ग्रन्थि को पकड़ कर रेचक प्राणायाम द्वारा दबाते हैं। इन दबाव की गर्मी से ''क्लीं'' बीज जागृत हो जाता है। वह नोकदार डंठल आकृति का बीज अपनी ध्वनि और रक्त वर्ण प्रकाश ज्योति के साथ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है। 3-इस जागृत ''क्लीं'' बीज की अग्रिम नोंक से कंचुकी क्रिया की जाती है। जैसे किसी वस्तु में छेद करने के लिए कोई नोकदार कील कोंची जाती है इस प्रकार की वेधन साधना को कंचुकी क्रिया कहते हैं। रुद्र ग्रन्थि के मूल केन्द्र में ''क्लीं'' बीज की अग्र शिखा से जब निरन्तर कंचुकी होती है तो प्रस्तुत कालिका में भी भीतर ही भीतर एक विशेष प्रकार के लहलहाते हुए तड़ित प्रवाह उठने लगते हैं। इनकी आकृति एवं गति सर्प जैसी होती है इन तड़ित प्रवाहों को ही शंभु के गले में फुसकारने वाले सर्प बताया है।

4-जिस प्रकार ज्वालामुखी पर्वत के उच्च शिखर पर धूम मिश्रित अग्नि निकलती है उसी प्रकार रुद्र ग्रन्थि के ऊपरी भाग में पहले ''क्लीं'' बीज की अग्नि जिह्वा प्रकट होती है। इसी को काली की बाहर निकली हुई जीभ माना गया है। इस को शंभु का तृतीय नेत्र कहते हैं। 5-मूल बन्ध, अपान और कूर्म प्राण के आघात से जागृत हुए ''क्लीं ''बीज की कंचुकी क्रिया से धीरे धीरे रुद्र ग्रन्थि शिथिल होकर वैसे ही खुलने लगती है जैसे कली धीरे धीरे खिलकर फूल बन जाती है। इस कमल पुष्प के खिलने को पद्मासन कहा गया है। त्रिदेवों के कमलासन पर विराजमान होने के चित्रों का तात्पर्य यही है कि वे विकसित रूप से परिलक्षित हो रहे हैं। 6-साधक के प्रयत्न के अनुरूप खुली हुई रुद्र ग्रन्थि का भीतरी भाग जब प्रकटित होता है तब साक्षात् रुद्र का, काली का, अथवा रक्त वर्ण सर्प के समान लहलहाती हुई क्लीं घोष करती हुई अग्नि शिखा का, साक्षात्कार होता है। यह रुद्र जागरण साधक में अनेक प्रकार की गुप्त प्रकट शक्तियां भर देता है।

7-संसार की सब शक्तियों का मूल केन्द्र रुद्र ग्रन्थि ही है। उसे रुद्र लोक या कैलाश भी कहते हैं। प्रलय काल में संसार संचालिनी शक्ति व्यय होते होते पूर्ण शिथिल होकर जब सुषुप्त अवस्था को चली जाती है तो रुद्र का ताण्डव नृत्य होता है उस महा मंथन से इतनी शक्ति फिर उत्पन्न हो जाती है जिससे आगामी प्रलय तक काम चलता रहे। घड़ी में चाबी भरने के समान रुद्र का प्रलय तांडव होता है। रुद्र शक्ति की शिथिलता से ही जीवों की तथा पदार्थों की मृत्यु हो जाती है इसीलिए रुद्र को मृत्यु का देवता माना गया है। 2-विष्णु ग्रन्थि भेद;-

05 FACTS;- 1-विष्णु ग्रन्थि को जागृत करने के लिए जालन्धर बन्ध बांधकर ‘समान’ और ‘उदान’ प्राणों द्वारा दबाया जाता है तो उसके मूल भाग का ''श्रीं ''बीज जागृत होता है यह गोल गेंद की तरह और इसकी अपनी धुरी पर द्रुत गति से घूमने की क्रिया होती है। इस घूर्णन क्रिया के साथ साथ एक ऐसी सनसनाती हुई सूक्ष्म ध्वनि होती है जिसको दिव्य श्रोत्रों से ‘श्रीं’ जैसा सुना जाता है। 2-श्रीं बीज को विष्णु ग्रन्थि की वाह्य परिधि में भ्रामरी क्रिया के अनुसार घुमाया जाता है। जैसे पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है उसी प्रकार परिभ्रमण करने को भ्रामरी कहते हैं। विवाह में वर वधू की भांवरिया फेरे पड़ना, देव मन्दिरों के यज्ञ की परिक्रमा या प्रदक्षिणा होना भ्रामरी क्रिया का ही एक रूप है। विष्णु की उंगली पर घूमता हुआ चक्र सुदर्शन चित्रित करके योगियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अनुभव किये गये इसी रहस्य को प्रकट किया है कि ''श्रीं'' बीज जब विष्णु ग्रन्थि की भ्रामरि गति से परिक्रमा करने लगता है तब उस महातत्व का जागरण होता है। 3-पूरक प्राणायाम की प्रेरणा देकर समान और उदान द्वारा जागृत किये गये ''श्रीं'' बीज से जब विष्णु ग्रन्थि के वाह्य आवरण की मध्य परिधि में भ्रामरी क्रिया की जाती तो उसके गुंजन से उसका भीतरी भाग चैतन्य होने लगता है इस चेतना की विद्युत तरंगें इस प्रकार उठती है जैसे पक्षी के पंख दोनों बाजुओं में हिलते हैं। उसी गति के आधार पर विष्णु का वाहन गरुण निर्धारित किया गया है। 4-इस साधना से विष्णु ग्रन्थि खुलती है और साधक की मानसिक स्थिति के अनुरूप विष्णु, लक्ष्मी या पीत वर्ण अग्नि शिखा की लपटों के समान महान् ज्योति पुंज का साक्षातकार होता है विष्णु का पीताम्बर इस पीत ज्योति पुंज का ही प्रतीक है।

5-इस ग्रन्थि का खुलना ही बैकुंठ, स्वर्ग, एवं विष्णु लोक को प्राप्त करना है। बैकुंठ या स्वर्ग को अनन्त ऐश्वर्य का केन्द्र माना जाता है वहां सर्वोत्कृष्ट सुख साधन जो संभव हो सकते हैं वे प्रस्तुत हैं। विष्णु ग्रन्थि वैभव का केन्द्र है जो उसे खोल लेता है उसे विश्व के ऐश्वर्य पर परिपूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है। 3-ब्रह्म ग्रन्थि भेद;-

05 FACTS;- 1-ब्रह्म ग्रन्थि मस्तिष्क के मध्य भाग में सहस्र दल कमल की छाया में अवस्थित है। उसे अमृत कलश भी कहते हैं। बताया गया है कि सुरलोक में अमृत कलश की रक्षा सहस्र फनों वाले शेष नाग करते हैं। इसका अभिप्राय इसी ब्रह्म ग्रन्थि से है। 2-उड्डियान बन्ध लगाकर व्यान और धनंजय प्राणों द्वारा ब्रह्म ग्रन्थि को पकाया जाता है। पकने से उसके मूलाधार में वास करने वाली'' ह्रीं'' शक्ति जागृत होती हैं। इसकी गति को प्लाविनी कहते हैं। जैसे जल में लहरें उत्पन्न होती हैं और निरन्तर आगे को ही लहराती हुई चलती है उसी प्रकार ''ह्रीं'' बीज की प्लाविनी गति से ब्रह्म ग्रन्थि में दक्षिणायन से उत्रायण की ओर प्रेरित करते हैं।

3-चतुष्कोण ग्रंथि के ऊर्ध्व भाग में यह ''ह्रीं'' तत्व रुक रुक कर गांठें सी बनाता हुआ आगे की ओर चलता है और अन्त में परिक्रमा करके अपने मूल स्थान को लौट आता है।गांठ बनाते चलने की नीची ऊंची गति के आधार पर माला के दाने बनाये गये हैं। 108 दचके लगाकर तब एक परिधि पूरी होती है इसलिए माला में 108 दाने होते हैं। इस ''ह्रीं'' तत्व की तरंगें मन्थर गति से इस प्रकार चलती है जैसे हंस चलता है। ब्रह्मा या सरस्वती का वाहन हंस इसीलिए माना गया है। वीणा के तारों की झंकार से मिलती जुलती ‘ह्रीं’ ध्वनि सरस्वती की वीणा का परिचय देती है। 4-कुंभक प्राणायाम की प्रेरणा से ''ह्रीं ''बीज की प्लाविनी क्रिया आरम्भ होती है। यह क्रिया निरन्तर होते रहने पर ब्रह्म ग्रन्थि खुल जाती है। तब उसका ब्रह्म के रूप में, सरस्वती के रूप में, अथवा श्वेत वर्ण प्रकम्पित शुभ्र ज्योति शिखा के समान साक्षात्कार होना है। यह स्थिति आत्मज्ञान ब्रह्म प्राप्ति, ब्राह्मी स्थिति की है। ब्रह्म लोक एवं गो लोक भी इसे कहते हैं।

5-इस स्थिति को उपलब्ध करने वाला साधक ज्ञान बल से परिपूर्ण हो जाता है। उसकी आत्मिक शक्तियां जागृत होकर परमेश्वर के समीप पहुंचा देती है, अपने पिता का उत्तराधिकार उसे मिलता है और जीवन मुक्त होकर ब्राह्मी स्थिति का आनन्द, ब्रह्मानन्द उपलब्ध करता है।

षट चक्र बेधन का हठयोग अथवा महायोग का यह ग्रन्थि भेद, दोनों ही समान स्थिति के हैं। साधक अपनी स्थिति के अनुसार उन्हें अपनाते हैं दोनों से ही विज्ञानमय कोश का परिष्कार होता है।

....SHIVOHAM....


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