श्रीमद भगवद्गीता में कर्म - योग,भक्तियोग और ज्ञान योग का क्या महत्व है?
श्रीमद भगवद्गीता का महत्व;-
09 FACTS;-
1-गीता भारतीय संस्कृति की आधारशिला है । हिन्दू शास्त्रों में गीता का सर्वप्रथम स्थान है । गीता में 18 पर्व और 700 श्लोक है ।इसकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी।गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही एक अंग है ।सभी ग्रंथों में से श्रीमद भगवद्गीता को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है ,क्योंकि इसमें व्यक्ति के जीवन का सार है।भगवद्गीता पूर्णतः अर्जुन और उनके सारथी श्रीकृष्ण के बीच हुए संवाद पर आधारित है।
2-गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही ब्रह्मविद्या कहा गया है।
3-गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढ़कर उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था।
4- गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।
5- गीता में सांख्य के निवृत्ति मार्ग और कर्म के प्रवृत्तिमार्ग की व्याख्या और प्रशंसा पाई जाती है। एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा गीता का अभिमत नहीं, दोनों मार्ग दो प्रकार की रुचि रखनेवाले मनुष्यों के लिए हितकर हो सकते हैं और हैं। संभवत: संसार का दूसरा कोई भी ग्रंथ कर्म के शास्त्र का प्रतिपादन इस सुंदरता, इस सूक्ष्मता और निष्पक्षता से नहीं करता। इस दृष्टि से गीता अद्भुत मानवीय शास्त्र है।
6-इसकी दृष्टि एकांगी नहीं, सर्वांगपूर्ण है। गीता में दर्शन का प्रतिपादन करते हुए भी जो साहित्य का आनंद है वह इसकी अतिरिक्त विशेषता है। तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता। इसीलिए इसका नाम भगवद्गीता पड़ा, भगवान् का गाया हुआ ज्ञान। ते हैं।
7-भारत वर्ष के ऋषियों ने गहन विचार के पश्चात जिस ज्ञान को आत्मसात किया उसे उन्होंने वेदों का नाम दिया। इन्हीं वेदों का अंतिम भाग उपनिषद कहलाता है। मानव जीवन की विशेषता मानव को प्राप्त बौद्धिक शक्ति है और उपनिषदों में निहित ज्ञान मानव की बौद्धिकता की उच्चतम अवस्था तो है ही, अपितु बुद्धि की सीमाओं के परे मनुष्य क्या अनुभव कर सकता है उसकी एक झलक भी दिखा देता है
8-श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। जिस प्रकार एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं में उलझकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और उसके पश्चात जीवन के समरांगण से पलायन करने का मन बना लेता है उसी प्रकार अर्जुन जो महाभारत का महानायक है अपने सामने आने वाली समस्याओं से भयभीत होकर जीवन और क्षत्रिय धर्म से निराश हो गया है, अर्जुन की तरह ही हम सभी कभी-कभी अनिश्चय की स्थिति में या तो हताश हो जाते हैं और या फिर अपनी समस्याओं से उद्विग्न होकर कर्तव्य विमुख हो हो जाते हैं।
9--गीता में ज्ञानयोग, कर्म योग, भक्ति योग, राजयोग, एकेश्वरवाद आदि की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा की गई है। आज के संदर्भ में गीता मनुष्य को कर्म का महत्व समझाती है।गीता में श्रेष्ठ मानव जीवन का सार बताया गया है।
गीता में योग का अर्थ;-
05 FACTS;-
1-योग का अर्थ है-मिलना । एक वस्तु में जब कोई दूसरी वस्तु मिलती है तो उस मिलन को योग कहते हैं । हमारा मन एकांगी है, उसमें पाशविक संस्कार जमे रहते हैं । इन संस्कारों में दैवी ज्ञान का, सत्तत्व का समावेश जिन उपायों से कराया जाता है, उन्हैं योग साधना कहते हैं ।
2-आज भ्रमवश ऐसा समझा जाता है कि योग साधना किन्हीं विशेष व्यक्तियों का काम है । जो घर-बार छोडकर जंगलों बनों में रहें, जटा रखें, भभूत लपेटें, भिक्षा मांगें, कमंडल, चिमटा, मृगछाला धारण करें, उन्हैं ही योग साधना करनी चाहिए पर वास्तविक बात ऐसी नहीं है ।
3-जीवन को समुन्नत, सुसंस्कृत और सुविकसित करने के लिए एक शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होती है, यह शिक्षा पढ़ने-लिखने की नहीं वरन जीवन में उतारने की-'गुनने' की होती है । यही व्यावहारिक सार्वभौम योग है ।गीता वह विद्या है जो आत्मा को ईश्वर से मिलाने के लिए अनुशासन तथा भिन्न-भिन्न मार्गां का उल्लेख करती है। गीता का मुख्य उपदेश योग है इसीलिए गीता को योग शास्त्र कहा जाता है।
4-जिस प्रकार मन के तीन अंग हैं- ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक। इसीलिए इन तीनों अंगों के अनुरूप गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग, और कर्मयोग का समन्वय हुआ है। आत्मा बन्धन की अवस्था में चल जाती है। बन्धन का नाश योग से ही सम्भव है। योग आत्मा के बन्धन का अन्त कर उसे ईश्वर की ओर मोड़ती है। गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति को मोक्ष का मार्ग कहा है। इस प्रकार गीता ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग का सम्भव होने के कारण योग की त्रिवेणी /योगत्रयी कही जाती है।
5-योग के मुख्यत: छह प्रकार माने गए है। छह प्रकार के अलग-अलग उपप्रकार भी हैं। यह प्रकार हैं:- (1)अष्टांग योग राजयोग, (2) हठयोग, (3) लययोग, (4) ज्ञानयोग, (5) कर्मयोग और (6) भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, मंत्र योग, कुंडलिनी योग और स्वर योग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है, लेकिन मुख्यत: तो उपरोक्त छह योग ही माने गए हैं।
5-(1) अष्टांग योग/राजयोग :- यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है। 5-(2) हठयोग :- षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है। 5-(3) लययोग :- यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।
5-(4) कर्मयोग :- कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है। 5-(5) भक्तियोग :- भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति अपनी रुचि, प्रकृति, साधना की योग्यतानुसार इनका चयन कर सकता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।
5-(6) ज्ञानयोग :- साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।
गीता में कर्म - योग,भक्तियोग और ज्ञान योग का महत्व;-
05 FACTS;-
1-गीताज्ञान का मुख्य उद्देश्य है मनुष्य को सुख शान्ति से जीवन व्यतीत करने का मार्ग बताना और परमानन्द प्राप्ति के रास्ते पर ले जाना। उसके लिये भगवान ने मुख्य तौर से तीन रास्ते बताए हैं। इन्हें तीन योगों का नाम दिया गया है।भगवद गीता के अनुसार कोई भी एक पथ जीवन को चला नहीं सकता , इसलिए भगवान् कृष्ण ने इन तीनो का समन्वय श्रेष्ठ बताया है।
1-1-कर्मयोग
1-2-भक्तियोग
1-3-ज्ञानयोग
2-यह माना जा सकता है कि गीता के 6-6अध्यायों में इन योगों का वर्णन है। लेकिन ऐसा नही है कि स्पष्ट तौर से यह बताया जा सके कि किन 6 अध्यायों में किस योग का वर्णन।अलग अलग अध्यायों में अलग अलग योगों का वर्णन भी आता है।वास्तव में कर्मयोग.. निष्काम भाव से भौतिक वस्तुऔं का भोग संतुलित ढंग से उचित मात्रा में करते हुए, सबकी भलाई को धयान में रख कर, शास्त्रों में बताए गये कर्मों को करने को कहते हैं।भक्तियोग मानने का है और ज्ञानयोग जानने का है ।
3-भगवान कृष्ण कहते हैं भक्तियोग तभी सफल होता है जब मनुष्य यह मान लेता है कि इस संसार का आदि और अंत भगवान ही है। जो कुछ हो रहा है उसके द्वारा ही संचालित है।ईश्वर को ज्ञान से भी अपनाया जा सकता है, कर्म से भी अपनाया जा सकता है तथा भक्ति से भी अपनाया जा सकता है। जिस व्यक्ति को जो मार्ग सुलभ हो वह उसी मार्ग को चुनकर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।
4-ईश्वर में सत्, चित् और आनन्द है। जो ईश्वर को ज्ञान से प्राप्त करता है उसके लिये वह प्रकाश है, जो ईश्वर को कर्म के द्वारा पाना चाहते हैं उसके लिये वह शुभ है, जो भावना से अपनाना चाहते हैं उसके लिए वह प्रेम है। इस प्रकार तीनों मार्गों से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
5-जैसे विभिन्न रास्तों से एक लक्ष्य पर पहुँचा जा सकता है उसी प्रकार विभिन्न मार्गों से ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है। जब मनुष्य कर्मयोग का पालन करता है ,तब भक्तियोग सफल होता है ।और जब दोनों योग परिपक्य अवस्था में होते हैं ,तब ज्ञानयोग का उदय होता है।त्रिगुण की तरह योगत्रयी भी हमेशा एक साथ रहते हैं।उचित मात्रा में संतुलन स्थापित करना ही एक साधक के लिए महत्वपूर्ण है।
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1-कर्मयोग का क्या महत्व है?-
04 FACTS;-
1-इस योग में कर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति की जाती है। श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग अधिक उपयुक्त है। हममें से प्रत्येक किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है, पर हममें से अधिकांश अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग व्यर्थ खो देते हैं; क्योंकि हम कर्म के रहस्य को नहीं जानते।
2-जीवन की रक्षा के लिए, समाज की रक्षा के लिए, देश की रक्षा के लिए, विश्व की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है। किन्तु यह भी एक सत्य है कि दु:ख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है। सारे दु:ख और कष्ट आसक्ति से उत्पन्न हुआ करते हैं। कोई व्यक्ति कर्म करना चाहता है, वह किसी मनुष्य की भलाई करना चाहता है और इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि उपकृत मनुष्य कृतघ्न निकलेगा और भलाई करने वाले के विरुद्ध कार्य करेगा। इस प्रकार सुकृत्य भी दु:ख देता है। फल यह होता है कि इस प्रकार की घटना मनुष्य को कर्म से दूर भगाती है। यह दु:ख या कष्ट का भय कर्म और शक्ति का बड़ा भाग नष्ट कर देता है।
3-कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो, आसक्तिरहित होकर कर्म करो। कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है कि कर्म करना उसे अच्छा लगता है और इसके परे उसका कोई हेतु नहीं है। कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है। उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता। वह जानता है कि वह दे रहा है और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसीलिए वह दु:ख के चंगुल में नहीं पड़ता। वह जानता है कि दु:ख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है।
4-गीता में कहा गया है कि मन का समत्व भाव ही योग है जिसमें मनुष्य सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, संयोग-वियोग को समान भाव से चित्त में ग्रहण करता है। कर्म-फल का त्याग कर धर्मनिरपेक्ष कार्य का सम्पादन भी पूजा के समान हो जाता है। संसार का कोई कार्य ब्रह्म से अलग नहीं है। इसलिए कार्य की प्रकृति कोई भी हो... निष्काम कर्म सदा ईश्वर को ही समर्पित हो जाता है। पुनर्जन्म का कारण वासनाओं या अतृप्त कामनाओं का संचय है। कर्मयोगी कर्मफल के चक्कर में ही नहीं पड़ता, अत: वासनाओं का संचय भी नहीं होता। इस प्रकार कर्मयोगी पुनर्जन्म के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है।
1-1-कर्मयोग का प्रतिपादन गीता में;-
07 FACTS;-
1कर्मयोग का प्रतिपादन गीता में विशद् से हुआ है। भारतीय दर्शन में कर्म, बंधन का कारण माना गया है। किंतु कर्मयोग में कर्म के उस स्वरूप का निरूपण किया गया है जो बंधन का कारण नहीं होता। योग का अर्थ है समत्व की प्राप्ति । सिद्धि और असिद्धि, सफलता और विफलता में सम भाव रखना समत्व कहलाता है।
2-योग का एक अन्य अर्थ भी है। वह है कर्मों का कुशलता से संपादन करना । इसका अर्थ है, इस प्रकार कर्म करना कि वह बंधन न उत्पन्न कर सके। अब प्रश्न यह है कि कौन से कर्म बंधन उत्पन्न करते हैं और कौन से नहीं? गीता के अनुसार जो कर्म निष्काम भाव से ईश्वर के लिए जाते हैं वे बंधन नहीं उत्पन्न करते। वे मोक्षरूप परमपद की प्राप्ति में सहायक होते हैं। इस प्रकार कर्मफल तथा आसक्ति से रहित होकर ईश्वर के लिए कर्म करना वास्तविक रूप से कर्मयोग है।
3-गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर, परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ और मिथ्या आचरण करनेवाला कहा गया है।
4-कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है। उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएँगे। इससे लोकस्थिति के लिए किए जानेवाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनुष्य को भी, जो प्रकृति के बंधन से मुक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए।
5-अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फलप्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही, गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है। सम्पूर्ण गीता कर्त्तव्य
के लिए मानव को प्रेरित करती है। परन्तु निष्काम कर्म भाव अर्थात् फल प्राप्ति की भावना का त्याग करके कर्म करना ही परमावश्यक है ।
6-इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कर्मयोग ही गीता का मुख्य उपदेश है। सकाम कर्म मानव को बनधन की ओर ले जाते हैं परन्तु इसके विपरीत निष्काम कर्म मानव को स्थितप्रज्ञ की अवस्था को प्राप्त करने में सक्षम सिद्ध होते हैं। गीता में बार-बार दोहराया गया है कि कर्म से सन्यास न लेकर कर्म के फलों से सन्यास लेना चाहिए। कर्म का प्रेरक फल नहीं होना चाहिए।
7-यद्यपि गीता कर्मफल के त्याग का आदेश देती है फिर भी गीता का लक्ष्य त्याग या सन्यास नहीं है। इन्द्रियों का दमन करने का आदेश नहीं दिया गया है बल्कि उन्हें विवेक के मार्ग पर नियन्त्रित करने का आदेश दिया गया है। निष्काम कर्म की शिक्षा गीता की अनमोल देन है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति का अनुपम समन्वय है।
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2-भक्तियोग का क्या महत्व है?-
09 FACTS;-
1-यह योग भावना प्रधान और प्रेमी प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए उपयोगी है। वह ईश्वर से प्रेम करना चाहता है और सभी प्रकार के क्रिया-अनुष्ठान, पुष्प, गन्ध-द्रव्य, सुन्दर मन्दिर और मूर्ति आदि का आश्रय लेता है और उपयोग करता है।
2-प्रेम एक आधारभूत एवं सार्वभौम संवेग है। यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से डरता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसे अपने जीवन से प्रेम है। यदि कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो इसका तात्पर्य यह है कि उसे स्वार्थ से प्रेम है। किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र आदि से विशेष प्रेम हो सकता है। इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है। यदि यही प्रेम परमात्मा से हो जाय तो वह मुक्तिदाता बन जाता है।
3-ज्यों-ज्यों ईश्वर से लगाव बढ़ता है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से लगाव कम होने लगता है। जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य लेकर ईश्वर का ध्यान करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता। पराभक्ति ही भक्तियोग के अन्तर्गत आती है जिसमें मुक्ति को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होती।
4-भक्तियोग शिक्षा देता है कि ईश्वर से, शुभ से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ति के लिए। वह यह सिखाता है कि प्रेम का सबसे बढ़ कर पुरस्कार प्रेम ही है और स्वयं ईश्वर प्रेम स्वरूप है।
5-विष्णु पुराण में भक्तियोग की सर्वोत्तम परिभाषा दी गयी है।‘‘हे ईश्वर!अज्ञानी
जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी तुझमें हो और तेरा स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे।’’ भक्तियोग सभी प्रकार के संबोधनों द्वारा ईश्वर को अपने हृदय का भक्ति-अर्घ्य प्रदान करना सिखाता है- जैसे, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी आदि।
6-सबसे बढ़कर वाक्यांश जो ईश्वर का वर्णन कर सकता है, सबसे बढ़कर कल्पना जिसे मनुष्य का मन ईश्वर के बारे में ग्रहण कर सकता है, वह यह है कि ‘ईश्वर प्रेम स्वरूप है’। जहाँ कहीं प्रेम है, वह परमेश्वर ही है।मानव जाति की सहायता करने में भी ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट होता है। यही भक्तियोग की शिक्षा है।
7-भक्तियोग भी आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता आदि गुणों की अपेक्षा भक्त से करता है क्योंकि चित्त की निर्मलता के बिना नि:स्वार्थ प्रेम सम्भव ही नहीं है। प्रारम्भिक भक्ति के लिए ईश्वर के किसी स्वरूप की कल्पित प्रतिमा या मूर्ति (जैसे दुर्गा की मूर्ति, शिव की मूर्ति, राम की मूर्ति, कृष्ण की मूर्ति, गणेश की मूर्ति आदि) को श्रद्धा का आधार बनाया जाता है। किन्तु साधारण स्तर के लोगों को ही इसकी आवश्यकता पड़ती है।भक्तियोग मानव मन के संवेगात्मक पक्ष का पुष्ट करता है। भक्ति ‘भज’ से बना है। ‘भज‘ का अर्थ है ईश्वर सेवा। इसीलिये भक्ति का अर्थ अपने को ईश्वर के प्रति समर्पण करना कहा जाता है।
8- गीता में चार प्रकार के भक्तों को स्वीकारा गया है- भगवान ने स्वयं कहा है ''चार प्रकार के भक्त जन मुझे भजते हैं। यह चार प्रकार के भक्त इस प्रकार हैं-(1) आर्त्त (2)अर्थार्थी(3)जिज्ञासु (4) ज्ञानी।
रोग से पीड़ित व्यक्ति अपने रोग निवारण हेतु ईश्वर भक्ति करता हैं ऐसे भक्त को आर्त्त भक्त कहा जाता है।अर्थार्थी ऐसे भक्त को कहा गया है ,जो ईश्वर की वन्दना द्रव्यादि अर्थात् सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति के उद्देश्य से करते हैं। जो भक्त ज्ञान पाने की इच्छा रखते हैं वह जिज्ञासु कहलाते हैं।ज्ञानी उस भक्त को कहा गया है जो परमेश्वर का ज्ञान पाकर कृतार्थ हो जाता है। ज्ञानी भक्त निष्काम बुद्धि से भक्ति करते हैं। जबकि अन्य तीन प्रकार के भक्त सकाम भाव से भक्ति करते हैं।
9-गीता में बार-बार ज्ञानी भक्त की महिमा की चर्चा हुई है। वह भक्तों की कोटि में श्रेष्ठतम् है भगवान ने कहा है कि-‘‘ ज्ञानी भक्त अति उत्तम है। ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हुँ और वह ज्ञानी मेरे को (अत्यन्त) प्रिय है। ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है। '' गीता में ज्ञान और भक्ति में निकटता का सम्बन्ध दर्शाया गया है। यहाँ ज्ञान में ही भक्ति तथा भक्ति में ही ज्ञान को गूँथ दिया गया है। इसके कारण यहाँ ज्ञान और भक्ति में परस्पर विरोध नहीं दिखता है। परमेश्वर के ज्ञान के साथ ही प्रेम रस की अनुभूति होने लगती है।
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ज्ञानयोग का क्या महत्व है?-
03 FACTS;-
1-गीता के अनुसार मानव अज्ञानवश बन्धन की अवस्था में पड़ जाता है। अज्ञान का अन्त ज्ञान से होता है इसीलिये गीता में मोक्ष पाने के लिये ज्ञान की महत्ता पर प्रकाश डालती है। गीता के अनुसार ज्ञान दो प्रकार के हैं-
(1) तार्किक ज्ञान;-
तार्किक ज्ञान वस्तुओं के बाह्य रूप को देखकर उनके स्वरूप की चर्चा बुद्धि के द्वारा करता है।
(2)आध्यात्मिक ज्ञान ;-
आध्यात्मिक ज्ञान वस्तुओं के आभास में व्याप्त सत्यता का निरूपण करने का प्रयास करता है। 2-बौद्धिक अथवा तार्किक ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहा जाता है। जबकि आध्यात्मिक ज्ञान को ज्ञान कहा जाता है। तार्किक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत विद्यमान रहता है। परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत नष्ट हो जाता है। ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन से होने वाला आत्मा का ज्ञान है जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर लेता है व सब भूतों में आत्मा को और आत्मा में सब भूतों को देखता है। वह विषयों में ईश्वर को और ईश्वर में सब को देखता है।
3-ज्ञान की प्राप्ति के लिये मानव को अभ्यास करना पड़ता है। इन्द्रियाँ और मन स्वभावतः चंचल होते हैं जिसके फलस्वरूप वे विषयों के प्रति आसक्त हो जाते हैं।मन और इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर ईश्वर पर केन्द्रीभूत कर देने से, मन की चंचलता नष्ट हो जाती है और वह ईश्वर के अनुशीलन में व्यस्त हो जाता है ।जब साधक को ज्ञान हो जाता है तब आत्मा और ईश्वर में तादात्म्य का सम्बन्ध हो जाता है।वह समझने लगता है कि आत्मा ईश्वर का अंग है। इस प्रकार के तादात्म्यता का ज्ञान इस प्रणाली का तीसरा अंग है।
ज्ञान योग के चार सिद्धांत;- एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, शेष अन्य सभी असत्य एवं मिथ्या है यही ज्ञानयोग की आधारभूत अवधारणा है।ज्ञान का अर्थ परिचय से है। ज्ञान योग वह मार्ग है जहां अन्तर्दृष्टि, अभ्यास और परिचय के माध्यम से वास्तविकता की खोज की जाती है।ज्ञानयोग की साधना के किन साधनों एवं गुणों की आवश्यकता होती है, उन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया गया है ।
1-बहिरंग साधना
2-अन्तरंग साधना
1-बहिरंग साधना ;-
जब साधक ज्ञानयोग के मार्ग अग्रसर होता है तो प्रारंभ में उसे कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक होता है, उन्हीं नियमों की बातों को ‘बहिरंग साधन’ कहते है। इन बहिरंग साधनों को संख्या में चार होने की वजह से ‘‘साधन चतुश्टय ‘‘ भी कहा जाता है, इन साधनों का विवेचन निम्नानुसार है -
चार बहिरंग साधन ;- 1-विवेक-(गुण-दोष का अन्तर कर पाना)
2-वैराग्य-(त्याग, आत्म त्याग, संन्यास)
3-षट संपत्ति-(छ: कोष, संपत्तियां)
4-मुमुक्षत्व-(ईश्वर प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास)
1-विवेक-(गुण-दोष का अन्तर कर पाना)-
विवेक ज्ञान का सही रूप है। इसे हमारी चेतना की सर्वोच्च सभा भी कहा जा सकता है। हमारी चेतना हमें बताती है कि क्या सही है क्या गलत है। अधिकांशत: हम भली-भांति जानते हैं कि हमें क्या करना चाहिये, तथापि हमारी अहंकारी इच्छाएं अधिक दृढ़तर रूप में प्रगट होती हैं और हमारे भीतर की अंतर्रात्मा की आवाज को दबा देती है।
2-वैराग्य--(त्याग, आत्म त्याग, संन्यास);-
वैराग्य का अर्थ किसी भी सांसारिक सुख या स्वामित्व के लिए इच्छा को त्याग कर आन्तरिक रूप से स्वयं को मुक्त कर लेना है। ज्ञान योगी ने यह अनुभव कर लिया है कि सभी सांसारिक सुख अवास्तविक हैं और इसलिये मूल्यहीन हैं। ज्ञान योगी अपरिवर्तनकारी, शाश्वत, सर्वोच्च, ईश्वर को खोजता है। इस पार्थिव शासन की सभी वस्तुएं परिवर्तनशील हैं और इसीलिए अवास्तविकता का रूप हैं।
2-1-वास्तविकता है आत्मा, दिव्य आत्मा, जो अनश्वर, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। आत्मा आकाश से तुलनीय है। आकाश सदैव आकाश है - कोई इसे जला या काट नहीं सकता। यदि हम दीवार बना देते हैं तो हम एकाकी "व्यक्तिगत" हिस्से सृजन करते हैं। तथापि आकाश इस कारण स्वयं को नहीं बदलता और जिस दिन दीवारें हटा ली जाती हैं उस दिन केवल अविभक्त, असीम आकाश शेष रह जाता है।
3-षट संपत्ति-(छ: कोष, संपत्तियां) ;-
ज्ञान योग के इस सिद्धान्त में छ: सिद्धान्त सम्मिलित हैं :
3-1-शम;-
शम का अर्थ है..इन्द्रियों और मन का निग्रह/अंतःकरण तथा इन्द्रियों को वश में रखना।इस विषय में गीता में भगवान ने कहा है ‘‘हे महाबाहो अर्जुन, निश्च्य ही मन बड़ा चंचल है। किन्तु अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।’’ इस प्रकार स्पष्ट है कि मन के निग्रह का नाम ही ‘शम’ है।
3-2-दम;-
दम का अर्थ है..इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण। निषेधात्मक कार्यों से स्वयं को संयमित करना - जैसे चोरी करने, झूंठ बोलने और निषेधात्मक विचारआदि।
3-3-उपरति;-
उपरति का अर्थ है..वस्तुओं से ऊपर उठना।कर्मफलों का परित्याग करते हुए आसक्ति रहित होकर कर्म करना तथा उन्हें ईश्वर को समर्पित करना ही उपरति है।
3-4-तितिक्षा;-
तितिक्षा का अर्थ है..अटल रहना, अनुशासित होना ,सभी कठिनाइयों में धैर्य रखना और उन पर विजय प्राप्त करना।साधना के मार्ग में आने वाले सभी प्रकार के कष्टों को बिना किसी प्रतिक्रिया के प्रसन्नता पूर्वक सहन करते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु निरन्तर साधना करने का नाम ही तितिक्षा है।
3-5-श्रद्धा;-
पवित्र ग्रन्थों /शास्त्र वाक्य (वेद-वेदान्त इत्यादि के )एवं और गुरू वाक्य में अटूट निष्ठा एवं विश्वास का नाम ही क्षद्धा है।
3-6-समाधान;-
निश्चय करना और प्रयोजन रखना। चाहे कुछ भी हो जाये हमारी अपेक्षाएं उसी लक्ष्य की ओर निर्धारित होनी चाहिये। चित्त को सर्वदा ब्रह्मा में स्थिर एवं एकाग्र करने का नाम ही समाधान है न कि चित्तं की इच्छापूर्ति का नाम समाधान है।
4-मुमुक्षत्व..(ईश्वर प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास);-
दुख रूपी संसार सागर को पार करके मोक्ष रूप अमृत को प्राप्त करने की साधक की जो तीव्र इच्छा होती है, उसे ही ‘मुमुक्षुत्व’ कहा जाता है।मुमुक्षत्व हृदय में ईश्वर की अनुभूति और ईश्वर के साथ समाहित हो जाने की ज्वलन्त इच्छा ही है। सर्वोच्च और शाश्वत ज्ञान ही आत्मज्ञान, (स्व-आत्मा की अनुभूति)है। स्व-अनुभूति वह अनुभव है कि हम ईश्वर से भिन्न नहीं हैं, बल्कि ईश्वर और जीवन सब कुछ एक ही है। व्यक्ति को जब यह अनुभूति हो जाती है, तब बुद्धि के कपाट खुल जाते हैं और वह परम सत्ता हो जाता है।
4-1-सर्व सम्मिलित प्रेम हमारे हृदय में भर जाता है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जो भी कुछ अन्य लोगों को दु:ख देते हैं, अन्ततोगत्वा उससे हमें भी हानि होती है, इसलिये अन्त में हम समझ जाते हैं और अहिंसा के शाश्वत भाव की आज्ञा पालन करते हैं। इस प्रकार ज्ञानयोग का मार्ग भक्ति योग, कर्म योग और राजयोग के सिद्धान्तों से जुड़ जाता है।
चारअन्तरंग साधन;-
बहिरंग साधनों के समान,अन्तरंग साधनों की संख्या भी चार ही है, जो निम्न है-
1-श्रवण;-
शास्त्रों में आत्मा और ब्रह्म के बारे में भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन होने के कारण हो सकता है कि साधक को अनेक प्रकार के संशय उत्पन्न हो जाये। अत: इस संशय को दूर करने हेतु एक उपाय बताया गया, जिसका नाम है श्रवण।
1-1-श्रवण का अर्थ मात्र सुनना नहीं है,बल्कि भीतर जो चैतन्य(चेतना) है उस तक भी गुंज पहुंच जाए। सरल शब्दों में कान भी वहां हो और आप भी वहां हो। अतः जब आप सुनते हों तो आपकी सारी चेतना कान हो जाए, यही श्रवण कहलाता है ।
2-मनन; -
श्रवण के बाद दूसरा अन्तरंग साधन है ‘मनन’। मनन का अर्थ है ईश्वर के विषय में गुरूमुख से जो कुछ सुना है, उसको अपने अन्त:करण में स्थापित कर लेना ,सम्यक प्रकार से बिठा लेना। जो कहा गया हो उसकी प्रमाणिकता की अनुभवात्मक जांच कर मान लेना ।
2-1-अब ध्यान देने वाली बात है- जिससे परिचय है, उसी का तो मनन हो सकता हैं। जब हम उसे स्मरण रखेंगे और उसका चिंतन करेंगे तो यह एक प्रक्रिया है- श्रवण - स्मरण - चिंतन - मनन ।
2-2-मनन के अंतर्गत हम विचार को जांचते है, समालोचना करते है, उसके प्रति जागरूक होते है, तुलना करते है, प्रश्न- प्रतिप्रश्न करते है , बार-बार दोहराते है, आदि-आदि।जब हम श्रवण की गई बातों का स्मरण करके उसके पक्ष और विपक्ष में चिंतन करते है तब हमारा मन उसे स्वीकार कर लेता है।
3-निदिध्यासन;-
निदिध्यासन का अर्थ है- मनन की गई बातों का निरंतर ध्यान करना, अर्थात उन्हें अपने आचरण में उतारना। जब कोई बात आचरण में उतर जाती है तब वो हमारा स्वभाव बन जाता है और तब हमें उसे याद रखना नहीं पड़ता, वो स्वयं याद रहती है।
3-1-निदिध्यासन से आशय है अनुभव करना अथवा बोध होना या आत्म साक्षात्कार करना। देह से लेकर बुद्धि तक जितने भी जड़ पदार्थ है, उनमें पृथकत्व की भावना को हटाकर सभी में एकमात्र ब्रह्म को ही अनुभव करना निदिध्यासन है।
4-समाधि;-
ध्याता, ध्येय एवं ध्यान का भेद मिटकर एकमात्र ध्येय की प्रतीति होना तथा आत्म स्वरूप में प्रतिष्ठित होने का नाम ही समाधि है।
NOTE;-
गीता में ज्ञान को पुष्ट करने के लिए योगाभ्यास का आदेश दिया जाता है। ज्ञान से अमृत की प्राप्ति होती है। कर्मों की अपवित्रता का नाश होता है और व्यक्ति सदा के लिये ईश्वरमय हो जाता है, ज्ञानयोग की महत्ता बताते हुए गीता में कहा गया है, ‘‘जो ज्ञाता है वह हमारे सभी भक्तों में श्रेष्ठ है।’’ जो हमें जानता है वह हमारी आराधना भी करता है। ‘‘आसक्ति से रहित ज्ञान में स्थिर हुए चित्त वाले यज्ञ के लिये आचरण करते हुए सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’’ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसन्देह (कुछ भी) नहीं है।
...SHIVOHAM...
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