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क्या है पंचांग के 5 अंग ?क्या है अशुभ जन्म समय जिनके उपाय करने जरूरी है?

भारतीय पंचांग;-

सभी विषय या वस्तु के प्रमुख पाँच अंग को पंचांग कहते हैं। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के पाँच अंगों की दैनिक जानकारी पंचांग में दी जाती है। ये अंग तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण हैं। सूर्य एवं चंद्र के अंतर से तिथि का निर्माण होता है। पूर्णिमा को सूर्य-चंद्र एक-दूसरे के सामने एवं अमावस्या को एक साथ रहते हैं। पूर्ण ग्रह सात होने के कारण सप्तवारों की रचना की गई है।यह सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय पूर्व तक रहता है। जिस दिन चंद्रमा जिस स्थान पर होता है उस दिन वही नक्षत्र रहता है। सूर्य-चंद्र के 13 अंश 20 कला साथ चलने से एक योग होता है। ये कुल 27 हैं। तिथि के अर्द्ध भाग को करण कहते हैं। इनकी संख्या ग्यारह है। स्थिर करण 7 एवं चर करण 4 होते हैं।

ज्योतिष की चर्चा में राशि का स्थान प्रमुख रूप से होता है। इसी से सभी ग्रह की स्थिति जानी जाती है। ये बारह होती हैं। इनका क्रम भी निश्चित है। अर्थात मेष राशि के पश्चात वृषभ राशि तथा पूर्व में मीन राशि आती है। राशियों का प्रारंभ मेष राशि से होकर अंत मीन राशि पर होता है। इस राशि के समूह को राशि चक्र या भाग चक्र कहते हैं।

यह ग्रहों के मार्ग के हिस्सों में रहता है। यह मार्ग 360 अंश का है। इसके सम बारह हिस्से अर्थात 30-30 अंश की जगह खगोल में एक-एक राशि के हैं। अर्थातसरल शब्दों में कहें तो ग्रह पथ पर राशियाँ स्थान का नाम है। इनका क्रम है- मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, मीन।

जन्माक्षर कैसे निकलता है। राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। इस प्रकार बारह राशियों में सत्ताईस नक्षत्र होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के चार हिस्से होते हैं, जिन्हें उनके चरण कहा जाता है। प्रत्येक चरण का एक अक्षर होता है। जिस दिन एवं समय जातक का जन्म होता है, उस समय जिस नक्षत्र में चंद्रमा गमन कर रहे होते हैं, उस नक्षत्र के पूरे काल को ज्ञात करके उसके चार हिस्से करते हैं। जिस हिस्से में जातक का समय आता है, उस हिस्से (चरण) के अक्षर से ही प्रथमाक्षर जान सकते हैं। प्रत्येक समय सिर्फ एक अक्षर होता है। यह अक्षर वर्तनी (मात्रा) युक्त या रहित दोनों हो सकता है। अक्षर की मात्रा के अनुसार ही उसका नक्षत्र या राशि होती है। जैसे 'च' अक्षर को लें, लो, च, चा, ची अक्षर मीन राशि के रेवती नक्षत्र के हैं, जबकि चू, चे, चो मेष राशि के अश्विनी नक्षत्र के हैं। अर्थात अक्षर की मात्रा के अनुसार उसके नक्षत्र व राशि बदल जाते हैं।

मूलादि नक्षत्र क्या हैं?

किसी बालक का जन्म होता है तो सामान्यतः यह पूछा जाता है कि बालक को मूल तो नहीं है। इसके उत्तर के लिए जन्मकाल के नक्षत्र को देखें, यदि यह इन 6 में से एक नक्षत्र है तो बालक मूल में हुआ है। अश्वनी, ज्येष्ठा, अश्लेषा, मूल, मघा, रेवती जन्म लिए बालक प्रारंभ में परिजनों के लिए कष्टकारक होते हैं, लेकिन बड़े होकर ये बहुत भाग्यशाली होते हैं। कर्मकांड के अंतर्गत मूल नक्षत्र की शांति भी होती है, जो कि आगे वही नक्षत्र आने पर इसकी शांति करते हैं। वही नक्षत्र लगभग सत्ताईस दिन बाद आता है।

प्रत्येक राशि 30 अंश की है। इनके नाम उस स्थान की भौगोलिक आकृति पर ऋषियों ने अथवा आदि ज्योतिषियों ने दिए हैं। अर्थात प्रथम शून्य से लेकर 30 अंश तक की भौगोलिक स्थिति भाग चक्र में मेष के (भेड़ के) आकार की होने के कारण उसे मेष नाम दिया गया है।

पंचांग :-पंचांग के मुक्य पांच अंग होते है ...1- तिथि 2- वार 3- नक्षत्र ४- योग 5- करण

पंचांग में तिथि निकालने का तरीका

तिथि = चन्द्र स्पष्ट अंशो में – सूर्य स्पष्ट अंशो में / 12

उदहारण :- 8 राशि 5 अंश 43 कला २७ विकला – 6 राशि 28 अंश 1 कला 46 विकला / 12

1 राशि 7 अंश 31 कला / 12

37.5 /12 =3 1.5/12 यहाँ तृतीय तिथि निकल कर आती है

भाग फल यदि १५ अंश से कम आए तो कृष्ण पक्ष

भाग फल यदि १५ अंश से अधिक आए तो शुक्ल पक्ष

भाग फल यदि शुन्य आये तो अमावस्या

भाग फल यदि 1 आये तो पूर्णिमा तिथि मणि जाती है

कृष्ण पक्ष की अंतिम दिन अमावस्या

शुक्ल पक्ष का अंतिम दिन पूर्णिमा

पूर्णिमा के नक्षत्र से ही मॉस का निर्धारन किया जाता है /

तिथियों के स्वामी ----

प्रतिपदा का स्वामी = अग्नि ,

द्वितीय का = ब्रह्मा ,

तृतीया का स्वामी = पार्वती शिव ,

चतुर्थ का स्वामी = गणेशजी ,

पंचमी का स्वामी =सर्पदेव ( नाग ) ,

षष्ठी का स्वामी = कार्तिकेय ,

सप्तमी का स्वामी = सूर्यदेव ,

अष्टमी का स्वामी = शिव ,

नवमी का स्वामी = दुर्गाजी ,

दशमी का स्वामी = यमराज ,

एकादशी का स्वामी = विश्वदेव ,

द्वादशी का स्वामी = विष्णु भगवान ,

त्रयोदशी का स्वामी = कामदेव ,

चतुर्दशी का स्वामी = शिव ,

पूर्णिमा का स्वामी = चन्द्रमा ,

अमावस्या का स्वामी = पित्रदेव |

नोट -- जिस देवता की जो विधि कही गई है उस तिथि में उस देवता की पूजा ,प्रतिष्ठा , शांति विशेष हितकर होती है |

मास शुन्य तिथिया :-ये तिथि ज्योतिष में शुभ नहीं मणि गई है /

सिद्ध तिथिया :- ये तिथिय उत्तम मणि गई है

3,8,13 मंगलवार 2,7 ,12,बुधवार 5,१०,15 गुरूवार 1,6,11 शुक्रवार

४,9 , 14 शनिवार

मुहूर्त: पंचांग शुभ मुहूर्त;-

25 FACTS;-

1-मुहूर्त काल अर्थात समय के ज्ञान की इकाई है। इसका प्रयोग मुख्य रूप से शुभ कार्यों को करने के लिए किया जाता है। हिंदू वैदिक ज्योतिष विज्ञान के अनुसार हर शुभ और मंगल कार्य को आरंभ करने का एक निश्चित समय होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उस विशेष समय में ग्रह और नक्षत्र के प्रभाव से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और शुभ फल की प्राप्ति होती है।

अभिजीत मुहूर्त

दो घटी मुहूर्त

लग्न तालिका

गौरी पंचांगम

गुरु पुष्य योग

रवि पुष्य योग

अमृत सिद्धि योग

सर्वार्थ सिद्धि योग

वाहन खरीद मुहूर्त

प्रॉपर्टी खरीद मुहूर्त

नामकरण मुहूर्त

मुण्डन मुहूर्त

गृह प्रवेश मुहूर्त

पंचक

भद्रा(विष्टि करण)

चौघड़िया

राहु काल

होरा कैलकुलेटर

2-काल अर्थात ऐसा समय जो शुभ क्रियाओं अर्थात शुभ कार्यों के योग्य हो, मुहूर्त कहलाता है। इसी को हम शुभ मुहूर्त, उत्तम मुहूर्त अथवा शुभ समय भी कहते हैं।

ज्योतिष के द्वारा काल ज्ञान होता है और प्राचीन काल से सभी शुभ कार्यों के लिए हमारे महान ऋषियों ने शुभ समय का विचार किया। समय सबसे शक्तिशाली माना जाता है क्योंकि इसका प्रभाव सभी पदार्थों पर पड़ता है चाहे वह जड़ हो अथवा चेतन, इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने व्यक्ति के गर्भ से मृत्यु उपरांत 16 संस्कारों तथा अन्य सभी मांगलिक कार्यों के लिए मुहूर्त ज्ञान को आवश्यक बताया है।

3-मुहूर्त शास्त्र फलित ज्योतिष का ही एक अंग है। इसकी सहायता से हिंदू धर्म के अंतर्गत किसी व्यक्ति के जीवन में होने वाले सोलह संस्कारों जैसे कि गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन अथवा चूड़ाकरण, उपनयन, समावर्तन, विवाह आदि के लिए शुभ समय का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य शुभ कार्य को करने के लिए जैसे कि यात्रा के लिए, नया मकान बनाने और उस की नींव रखने के लिए, गृह प्रवेश के लिए, नया वाहन अथवा प्रॉपर्टी खरीदने के लिए, नया व्यापार शुरू करने के लिए, मुकदमा दाखिल करने के लिए, नौकरी के आवेदन के लिए आदि शुभ कार्यों के लिए शुभ समय ज्ञात करने के लिए मुहूर्त का उपयोग किया जाता है।

4-फलित कथन में अनेक प्रकार की समस्याओं के निवारण हेतु लघु रूप में गहन विषयों को स्पष्टता प्रदान करने के लिए महान व्यक्तियों ने मुहूर्त मार्तंड, मुहूर्त चिंतामणि, मुहूर्त चूड़ामणि, मुहूर्त माला, मुहूर्त गणपति, मुहूर्त कल्पद्रुम, मुहूर्त सिंधु, मुहूर्त प्रकाश, मुहूर्त दीपक इत्यादि महान ग्रंथों की रचना की है जिनके द्वारा मुहूर्त संबंधित किसी भी जानकारी को प्राप्त किया जा

सकता।एक मुहूर्त लगभग दो घटी अर्थात 48 मिनट का होता है। यह तब होता है जब दिन और रात दोनों बराबर होते हैं अर्थात 30 घटी (12 घंटे) का दिन और 30 घटी (12 घंटे) की रात्रि। इस प्रकार दिन में लगभग 15 मुहूर्त और रात्रि में भी 15 मुहूर्त होते हैं।

5-यहां दिन की अवधि को दिन मान के द्वारा तथा रात्रि की अवधि को रात्रिमान के अनुसार ज्ञात किया जाता है। जब दिन और रात का अंतर अलग-अलग होता है अर्थात ये बराबर नहीं होते तब मुहूर्त की अवधि कम अथवा ज्यादा होती है क्योंकि तब दिनमान और रात्रि मान में

अंतर आ जाता है।किसी भी मुहूर्त की गणना के लिए हमें पंचांग की आवश्यकता होती है। पंचांग अर्थात जिसके पांच अंग हैं। पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र, योग तथा करण आते हैं। इन्हीं के आधार पर शुभ समय की गणना की जाती है।

6- मुहूर्त के द्वारा हम दैनिक चौघड़िया, दैनिक राहु काल, होरा, चंद्र बल, तारा, ग्रहण जैसी महत्वपूर्ण गणनाओं का अध्ययन कर सकते हैं और अनेकों शुभ कार्यों को सम्पन्न करने के मुहूर्त जैसे कि मुण्डन मुहूर्त, वाहन ख़रीद मुहूर्त, नींव रखने का मुहूर्त, व्यापार आरम्भ करने का मुहूर्त, विवाह का मुहूर्त, ग्रह प्रवेश हेतु उत्तम समय, यात्रा मुहूर्त तथा ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण तथा शुभ समय को भी जान सकते हैं।

7-इसके अतिरिक्त अग्निवास, 12 राशियों का घात चक्र, सोलह संस्कार के लिए शुभ समय तथा कुछ विशिष्ट योगों जैसे कि सर्वार्थ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग, द्विपुष्कर योग, त्रिपुष्कर योग, रवि योग, हुताशन योग, गुरु पुष्य योग, रवि पुष्य योग तथा नल्ला नेरम - गौरी पंचांगम आदि पर भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण कब पड़ेगा अथवा शुक्र और बृहस्पति ग्रह के अस्त होने का समय भी हम जान सकते हैं। इनके बारे में जानना इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि जिस नक्षत्र में ग्रहण पड़ता है उस नक्षत्र में छः महीने तक शुभ कार्य करना वर्जित होता है तथा शुक्र और बृहस्पति सर्वाधिक शुभ ग्रहों के अस्त समय में शुभ कार्यो को नहीं किया जाता।

8-तिथियों को पांच भागो में बाटा गया है....

तिथि का नाम>>> तिथि>>> पक्ष >>>फल

नन्दा >>>1,6,11>>> दोनों पक्ष>>> आन्नद प्रद कार्य हेतु

भद्रा >>>2,7 ,12>>>दोनों पक्ष शुभ कार्य हेतु

जया>>> 3,8,13>>> दोनों पक्ष>>>विजय कार्य हेतु

रिक्ता >>>४,9 ,१४>>> दोनों पक्ष>>>शुभ कार्य में निषेध ..तंत्र मंत्र हेतु

पूर्णा >>>5,१०,15 >>>दोनों पक्ष>>>शुभ कार्य में उत्तम

अमावस्या निषेध

9-हमारे जीवन मे कुछ कार्य ऐसे भी आ जाते हैं जो हमे अचानक करना होता है जैसे यात्रा आदि कार्य ऐसे है जो अचानक भी करना पड़ता है ऐसे ही बहुत से ऐसे कार्य है जिसके लिए हम शुभ मुहूर्त का इंतजार नही कर सकते है हमे वह कार्य तत्काल करना होता है ऐसी परिस्थितिमें हमे कोई शुभ मुहूर्त तुरंत मिल जाएं तो हम अपना कार्य शुभ मुहूर्त मे कर सकते है । इसी बात को विचार मे रखकर हम एक ऐसे मुहूर्त चक्र का वर्णन करने जा रहे है जिसमें प्रतिदिन 16 मुहूर्त होता है हम इनमें से शुभ मुहूर्त का निर्धारण करके यात्रादि शुभ कार्य कर सकते है । 9-ये सभी मुहूर्त वार +नक्षत्र अथवा तिथि आदि के संयोग से बनता है । प्रतिदिन बनने वाले इन 16 योगों के नाम इस प्रकार है .....

1-अमृत सिद्ध योग 2- सर्वार्थ सिद्धि योग 3- सिद्धि योग नक्षत्र 4- सिद्धि योग तिथि 5- रत्नांकुर योग 6- मृत्यु योग 7-मृत्युदा तिथि 8- क्रकच योग 9- दग्ध योग 10- उत्पात योग 11- काल योग 12- यमघण्ट योग- 13- यमद्रष्टा योग 14- मुसल या वज्र योग 15- राक्षस योग और 16- कोण योग है ।इनमें पहले के पांच (5)मुहूर्त शुभ होते है और शेष 11 मुहूर्त अशुभ होते हैं जिनका त्याग करना जरूरी होता है । 10-मगर कुछ शुभ मुहूर्त भी तिथि आदि के संयोग से दूषित हो जाते है जो सामान्य व्यक्ति को पता नहीं चलता है और दूषित मुहूर्त मे ही कार्य कर जाते है जिससे कार्य की सिद्धि संदेहास्पद हो जाता है या तो फल नष्ट हो जाता है या फल बदल जाता हैं ।जैसे रविवार हो और हस्त नक्षत्र हो तो अमृत सिद्धि योग होता है मगर यदि उस दिन 5 अर्थात् पंचमी तिथि हो तो अमृत सिद्धि योग मे विषयोग तिथि होने से इसमें शुभ कार्य नही करना चाहिए।इसी प्रकार सोमवार का दिन हो मृगशिरा नक्षत्र होने पर अमृत सिद्धि योग होता है मगर षष्ठी तिथि होने पर यह अमृत सिद्धि योग दूषित हो जाता है अतः इस मुहूर्त मे शुभ कार्य नही करने चाहिए।म्रत्यु योग में यात्रा विशेष रूप से निषेध मणि गई है /साथ ही शुभ कार्यो में भी इनको निषेध मन गया है / 11-शुभ योगों के नाम;-

ज्योतिष शास्त्र में पंचांग से तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण के आधार पर मुहूर्तों का निर्धारण किया जाता है। जिन मुहूर्तों में शुभ कार्य किए जाते हैं उन्हें शुभ मुहूर्त कहते हैं। इनमें सिद्धि योग, सर्वार्थ सिद्धि योग, गुरु पुष्य योग, रवि पुष्य योग, पुष्कर योग, अमृत सिद्धि योग, राज योग, द्विपुष्कर एवं

त्रिपुष्कर यह कुछ शुभ योगों के नाम हैं।

06 POINTS;-

1-अमृत सिद्धि योग :- अमृत सिद्धि योग अपने नामानुसार बहुत ही शुभ योग है। इस योग में सभी प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं। यह योग वार और नक्षत्र के तालमेल से बनता है। इस योग के बीच अगर तिथियों का अशुभ मेल हो जाता है तो अमृत योग नष्ट होकर विष योग में परिवर्तित हो जाता है। सोमवार के दिन हस्त नक्षत्र होने पर जहां शुभ योग से शुभ मुहूर्त बनता है लेकिन इस दिन षष्ठी तिथि भी हो तो विष योग बनता है।

2-सिद्धि योग :- वार, नक्षत्र और तिथि के बीच आपसी तालमेल होने पर सिद्धि योग का निर्माण होता है। उदाहरण स्वरूप सोमवार के दिन अगर नवमी अथवा दशमी तिथि हो एवं रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, श्रवण और शतभिषा में से कोई नक्षत्र हो तो सिद्धि योग बनता है।

3-सर्वार्थ सिद्धि योग :- यह अत्यंत शुभ योग है। यह वार और नक्षत्र के मेल से बनने वाला योग है। गुरुवार और शुक्रवार के दिन अगर यह योग बनता है तो तिथि कोई भी यह योग नष्ट नहीं होता है अन्यथा कुछ विशेष तिथियों में यह योग निर्मित होने पर यह योग नष्ट भी हो जाता है। सोमवार के दिन रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, अथवा श्रवण नक्षत्र होने पर सर्वार्थ सिद्धि योग बनता है जबकि द्वितीया और एकादशी तिथि होने पर यह शुभ योग अशुभ मुहूर्त में बदल जाता है।

4-पुष्कर योग :- इस योग का निर्माण उस स्थिति में होता है जबकि सूर्य विशाखा नक्षत्र में होता है और चन्द्रमा कृतिका नक्षत्र में होता है। सूर्य और चन्द्र की यह अवस्था एक साथ होना अत्यंत दुर्लभ होने से इसे शुभ योगों में विशेष महत्व दिया गया है। यह योग सभी शुभ कार्यों के लिए उत्तम मुहूर्त होता है।

5-गुरु पुष्य योग :- गुरुवार और पुष्य नक्षत्र के संयोग से निर्मित होने के कारण इस योग को गुरु पुष्य योग के नाम से सम्बोधित किया गया है। यह योग गृह प्रवेश, ग्रह शांति, शिक्षा सम्बन्धी मामलों के लिए अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। यह योग अन्य शुभ कार्यों के लिए भी शुभ मुहूर्त के रूप में जाना जाता है।

6-रवि पुष्य योग :- इस योग का निर्माण तब होता है जब रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र होता है। यह योग शुभ मुहूर्त का निर्माण करता है जिसमें सभी प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं। इस योग को मुहूर्त में गुरु पुष्य योग के समान ही महत्व दिया गया।

12-पंचक :-

घनिष्ठा के उतरार्ध से रेवती के पूर्वार्ध तक को पंचक माना गया है / इनमें शुभ कार्य नहीं करते है /

13-वार और अमृत योग;-

हर वार का एक नक्षत्र होता है . यदि वार के दिन ही वही नक्षत्र हो तो उसे अमृत योग कहते हैं , जो निम्नवत है

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार निम्न संयोगों से अमृत सिद्धि योग बनता है-

1. हस्त नक्षत्र - रविवार 2. मृगशिरा नक्षत्र - सोमवार 3. अश्विनी नक्षत्र - मंगलवार 4. अनुराधा नक्षत्र - बुधवार 5. पुष्य नक्षत्र - गुरुवार 6. रेवती नक्षत्र - शुक्रवार 7. रोहिणी नक्षत्र - शनिवार

ऐसा सयोंग कुछ ही घंटों के लिए बनता है।

14-तिथि;-

जिस प्रकार अंग्रेजी कैलेंडर में तारीखें दी होती हैं उसी प्रकार पंचांग में चंद्रमा तथा सूर्य के भूगोल के आधार पर तिथियों की गणना की जाती है। तिथियां कुल 30 होती हैं जिनमें से चंद्रमा की कलाओं के आधार पर शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में 15-15 तिथियां आती हैं। वास्तव में कोई तिथि सूर्य और चंद्रमा के कोणीय आधार से बनती है। जब सूर्य और चंद्रमा एक ही भोगांश पर होते हैं तब वह तिथि अमावस्या कहलाती है और यहीं से शुक्ल पक्ष प्रारंभ होता है। चंद्रमा और सूर्य का 12 अंश का अंतर एक तिथि बनाता है। चंद्रमा और सूर्य के बीच के अंतर को 12 से भाग देने पर एक तिथि निकलती है। अमावस्या और पूर्णिमा के अलावा 14 तिथियां दोनों पक्षों में एक ही नाम से जानी जाती हैं। वैसे प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी और चतुर्दशी अतिथियों के अलग-अलग स्वामी भी होते हैं।

15-तिथियों को पांच भागों में बांटा जाता है जो इस प्रकार हैं:

1. नंदा - प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी 2. भद्रा - द्वितीया, सप्तमी, द्वादशी 3. जया - तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी 4. रिक्ता - चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी 5. पूर्णा - पंचमी, दशमी, पूर्णिमा

16-वृद्धि तिथि तथा तिथि क्षय;-

जब कोई तिथि सूर्य उदय से पहले उपस्थित होती है और अगले सूर्योदय के बाद तक उपस्थित रहती है ऐसे में वृद्धि तिथि कहलाती है। इसके विपरीत यदि कोई तिथि सूर्य उदय के समय नहीं उपस्थित होती और अगले सूर्योदय से पहले ही समाप्त हो जाती है उसे तिथि क्षय कहते हैं।

नोट :- शुभ कार्यो के लिए तिथि क्षय व तिथि वृधि वर्जित है /

17-चंद्र मास;-

चंद्र मास चंद्रमा की कलाओं पर आधारित होता है। ये शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के संयोग से बनता है। इसे दो प्रकार से माना जाता है- शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारंभ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला 'अमांत' मास मुख्य‍ चंद्रमास कहलाता है। वहीं कृष्ण‍ पक्ष की प्रतिपदा से 'पूर्णिमांत' पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की घट-बढ़ के अनुसार 29, 30 व 28 एवं 27 दिनों का भी हो सकता है। पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण माना गया है। चैत्र मास प्रथम चंद्रमास है और फाल्गुन अन्तिम। विभिन्न चंद्र मास के नाम इस प्रकार हैं: चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ फाल्गुन। एक चंद्र वर्ष लगभग 355 दिनों का होता है। इस प्रकार एक चंद्र वर्ष, एक सौर वर्ष से लगभग 11 दिन 3 घड़ी 48 पल छोटा होता है। इसी कारण प्रत्येक 3 वर्ष के उपरान्त चंद्र वर्ष में एक महीना जोड़ दिया जाता है और उसी मास को अधिक मास कहा जाता है।

18-अयन;-

सूर्य अपने मार्ग में लगभग आधे वर्ष तक उत्तरी गोलार्ध में रहता है और शेष आधे वर्ष तक दक्षिणी गोलार्ध में। दक्षिण गोलार्ध से उत्तरी गोलार्ध में जाते समय सूर्य का केंद्र आकाश के जिस बिंदु पर रहता है उसे वसंत विषुव कहते हैं, इसी को अयन कहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक वर्ष में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में कुल 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं।

19-उत्तरायण;-

जब सूर्य धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करता है तो इस मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है। ये समय तब तक रहता है जब तक कि सूर्य मिथुन राशि से न निकल जाये। सूर्य उत्तरायण के दौरान हिंदू धर्म अनुसार यह तीर्थ यात्रा व उत्सवों का समय होता है। इस समय में विवाह और उपनयन आदि संस्कार भी किये जाते हैं। लेकिन विवाह केवल मीन सौर मास को छोड़कर ही किये जाते हैं।

20-दक्षिणायन;-

जब सूर्य मिथुन राशि से निकलकर कर्क राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य दक्षिणायन होता है। दक्षिणायन व्रतों का और उपवास का समय होता है। दक्षिणायन में विवाह और उपनयन आदि संस्कार वर्जित माने गए हैं। लेकिन विशेष संयोग में वृश्चिक सौर मास में ये कार्य भी किये जाते

हैं।इन सभी मुख्य बिंदुओं के अतिरिक्त भी कई ऐसे प्रमुख सूचक हैं जिनका उपयोग व्यापक रूप से मुहूर्त में किया जाता है क्योंकि उनका बड़ा महत्व है। उनमें से कुछ मुख्य सूचक इस प्रकार हैं :

21-भद्रा;-

मुहूर्त के अंतर्गत भद्रा का मुख्य रूप से विचार किया जाता है। वास्तव में उपरोक्त वर्णित विष्टि करण ही भद्रा कहलाता है। इसको शुभ कार्यों में त्याज्य माना जाता है अर्थात भद्रा के समय शुभ कार्य नहीं किए जाते। इसके लिए भद्रा का वास किस स्थान पर है यह देखना अति आवश्यक होता है। जब चंद्रमा मेष वृषभ मिथुन और वृश्चिक राशि में हो तो भद्रा स्वर्ग लोक में मानी जाती है। जब चंद्रमा कर्क सिंह कुंभ तथा मीन राशि में हो तो ऐसे में भद्रा मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी पर मानी जाती है तथा जब चंद्रमा कन्या तुला धनु मकर में हो तो भद्रा का वास पाताल लोक में माना जाता है। इसमें मृत्युलोक में भद्रा का वास विशेष रूप से हानिकारक माना जाता है। मुद्रा के दोष से बचने के लिए भगवान शिव की आराधना की जाती है। केवल कुछ कार्यों जैसे कि होलिका दहन, जातकर्म संस्कार, अदला-बदली से संबंधित व्यापार आदि में भद्रा शुभ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त भद्रा के मुख्य और भद्रा की पूँछ का विचार भी किया जाता है।

22-अभिजीत मुहूर्त;-

दिन के मध्य भाग अर्थात दिन मान के आधे भाग से आधा घटी अर्थात 12 मिनट पहले और 12 मिनट पश्चात का समय अभिजीत मुहूर्त कहलाता है। इस मुहूर्त में किए जाने वाले सभी कार्य सफल होते हैं और व्यक्ति को विजय प्राप्त होती है। इसी को आठवाँ मुहूर्त भी कहा जाता है।

23-दो घटी मुहूर्त;-

मुहूर्त जिसका मान घटी होता है इसलिए इसको ही हम दो घटी मुहूर्त भी कहते हैं। एक दिन में 24 घंटे होते हैं जिनका ज्योतिषीय मान 60 घटी होता है। इस प्रकार 1 घंटे अर्थात 60 मिनट में 2.5 घटी होती हैं। एक मुहूर्त लगभग 48 मिनट का होता है जिसका मान 2 घटी होता है। इस प्रकार 2 घटी समय की ऐसी इकाई है जिसका विचार किसी भी शुभ कार्य को सम्पादित करने के लिए किया जाता है।

24-लग्न तालिका;-

मुहूर्त का विचार करते समय लग्न का विचार करना भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। लग्न का निर्धारण किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए तथा किसी व्यक्ति विशेष के कार्यों के लिए भी किया जाता है।

25-दिशा शूल (दिक् शूल);-

हम सभी को किसी न किसी कार्य हेतु यात्रा करनी ही पड़ती है। कभी-कभी यात्रा सफलतादायक और सुखमय होती है, तो कभी यह असफलतादायक और कष्टमय होकर हमें परेशान भी करती हैं। इससे बचने के लिए हमें प्रतिदिन दिशा शूल का ध्यान ज़रूर रखना चाहिए।

दिशा शूल ले जाओ बामे, राहु योगिनी पूठ।

सम्मुख लेवे चंद्रमा, लावे लक्ष्मी लूट।

किसी विशेष दिन किसी विशेष दिशा में यात्रा करना त्याज्य माना गया है। क्योंकि ऐसा करने पर हानि और कष्ट उठाने पड़ते हैं। विभिन्न दिनों का दिशा शूल निम्नलिखित तालिका से समझा जा सकता है :

● सोमवार और शनिवार को पूर्व दिशा में दिशा शूल माना जाता है। ● रविवार और शुक्रवार को पश्चिम दिशा में दिशा शूल माना जाता है। ● मंगलवार और बुधवार को उत्तर दिशा में दिशा शूल माना जाता है। ● गुरूवार को दक्षिण दिशा में दिशा शूल माना जाता है। ● सोमवार और गुरूवार को दक्षिण-पूर्व कोण में दिशा शूल माना जाता है। ● रविवार और शुक्रवार को दक्षिण-पश्चिम कोण में दिशा शूल माना जाता है। ● मंगलवार को उत्तर-पश्चिम कोण में दिशा शूल माना जाता है। ● बुधवार और शनिवार को उत्तर-पूर्व कोण में दिशा शूल माना जाता है।

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अशुभ जन्म समय जिनके उपाय करने जरूरी है।

हम जैसा कर्म करते हैं उसी के अनुरूप हमें ईश्वर सुख दु:ख देता है। सुख दु:ख का निर्घारण ईश्वर कुण्डली में ग्रहों स्थिति के आधार पर करता है। जिस व्यक्ति का जन्म शुभ समय में होता है उसे जीवन में अच्छे फल मिलते हैं और जिनका अशुभ समय में उसे कटु फल मिलते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह शुभ समय क्या है और अशुभ समय किसे कहते हैं

अमावस्या में जन्म

ज्योतिष शास्त्र में अमावस्या को दर्श के नाम से भी जाना जाता है। इस तिथि में जन्म माता पिता की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डालता है। जो व्यक्ति अमावस्या तिथि में जन्म लेते हैं उन्हें जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना होता है। इन्हें यश और मान सम्मान पाने के लिए काफी प्रयास करना होता है।

अमावस्या तिथि में भी जिस व्यक्ति का जन्म पूर्ण चन्द्र रहित अमावस्या में होता है वह अधिक अशुभ माना जाता है। इस अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए घी का छाया पात्र दान करना चाहिए, रूद्राभिषेक और सूर्य एवं चन्द्र की शांति कराने से भी इस तिथि में जन्म के अशुभ प्रभाव को कम किया जा सकता है।

संक्रान्ति में जन्म

संक्रान्ति के समय भी संतान का जन्म अशुभ माना जाता है। इस समय जिस बालक का जन्म होता है उनके लिए शुभ स्थिति नहीं रहती है। संक्रान्ति के भी कई प्रकार होते हैं जैसे रविवार के संक्रान्ति को होरा कहते हैं, सोमवार को ध्वांक्षी, मंगलवार को महोदरी, बुधवार को मन्दा, गुरूवार को मन्दाकिनी, शुक्रवार को मिश्रा व शनिवार की संक्रान्ति राक्षसी कहलाती है।

अलग अलग संक्रान्ति में जन्म का प्रभाव भी अलग होता है। जिस व्यक्ति का जन्म संक्रान्ति तिथि को हुआ है उन्हें ब्राह्मणों को गाय और स्वर्ण का दान देना चाहिए इससे अशुभ प्रभाव में कमी आती है। रूद्राभिषेक एवं छाया पात्र दान से भी संक्रान्ति काल में जन्म का अशुभ प्रभाव कम होता है।

भद्रा काल में जन्म

जिस व्यक्ति का जन्म भद्रा में होता है उनके जीवन में परेशानी और कठिनाईयां एक के बाद एक आती रहती है। जीवन में खुशहाली और परेशानी से बचने के लिए इस तिथि के जातक को सूर्य सूक्त, पुरूष सूक्त, रूद्राभिषेक करना चाहिए। पीपल वृक्ष की पूजा एवं शान्ति पाठ करने से भी इनकी स्थिति में सुधार होता है।

कृष्ण चतुर्दशी में जन्म

पराशर महोदय कृष्ण चतुर्दशी तिथि को छ: भागों में बांट कर उस काल में जन्म लेने वाले व्यक्ति के विषय में अलग अलग फल बताते हैं। इसके अनुसार प्रथम भाग में जन्म शुभ होता है परंतु दूसरे भाग में जन्म लेने पर पिता के लिए अशुभ होता है, तृतीय भाग में जन्म होने पर मां को अशुभता का परिणाम भुगतना होता है, चौथे भाग में जन्म होने पर मामा पर संकट आता है, पांचवें भाग में जन्म लेने पर वंश के लिए अशुभ होता है एवं छठे भाग में जन्म लेने पर धन एवं स्वयं के लिए अहितकारी होता है।

कृष्ण चतुर्दशी में संतान जन्म होने पर अशु प्रभाव को कम करने के लिए माता पिता और जातक का अभिषेक करना चाहिए साथ ही ब्राह्मण भोजन एवं छाया पात्र दान देना चाहिए।

समान जन्म नक्षत्र

ज्योतिषशास्त्र के नियमानुसार अगर परिवार में पिता और पुत्र का, माता और पुत्री का अथवा दो भाई और दो बहनों का जन्म नक्षत्र एक होता है तब दोनो में जिनकी कुण्डली में ग्रहों की स्थिति कमज़ोर रहती है उन्हें जीवन में अत्यंत कष्ट का सामना करना होता है। इस स्थिति में नवग्रह पूजन, नक्षत्र देवता की पूजा, ब्राह्मणों को भोजन एवं दान देने से अशुभ प्रभाव में कमी आती है।

सूर्य और चन्द्र ग्रहण में जन्म

सूर्य और चन्द्र ग्रहण को शास्त्रों में अशुभ समय कहा गया है। इस समय जिस व्यक्ति का जन्म होता है उन्हें शारीरिक और मानसिक कष्ट का सामना करना होता है। इन्हें अर्थिक परेशानियों का सामना करना होता है।

सूर्य ग्रहण में जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु की संभवना भी रहती है। इस दोष के निवारण के लिए नक्षत्र स्वामी की पूजा करनी चाहिए। सूर्य व चन्द्र ग्रहण में जन्म दोष की शांति के लिए सूर्य, चन्द्र और राहु की पूजा भी कल्यणकारी होती है।

सर्पशीर्ष में जन्म

अमावस्या तिथि में जब अनुराधा नक्षत्र का तृतीय व चतुर्थ चरण होता है तो सर्पशीर्ष कहलाता है। सार्पशीर्ष को अशुभ समय माना जाता है। इसमें कोई भी शुभ काम नहीं होता है। सार्पशीर्ष मे शिशु का जन्म दोष पूर्ण माना जाता है।

जो शिशु इसमें जन्म लेता है उन्हें इस योग का अशुभ प्रभाव भोगना होता है। इस योग में शिशु का जन्म होने पर रूद्राभिषेक कराना चाहिए और ब्रह्मणों को भोजन एवं दान देना चाहिए इससे दोष के प्रभाव में कमी आती है।

गण्डान्त योग में जन्म

गण्डान्त योग को संतान जन्म के लिए अशुभ समय कहा गया है। इस समय संतान जन्म लेती है तो गण्डान्त शान्ति कराने के बाद ही पिता को शिशु का मुख देखना चाहिए। पराशर महोदय के अनुसार तिथि गण्ड में बैल का दान, नक्षत्र गण्ड में गाय का दान और लग्न गण्ड में स्वर्ण का दान करने से दोष मिटता है।

संतान का जन्म अगर गण्डान्त पूर्व में हुआ है तो पिता और शिशु का अभिषेक करने से और गण्डान्त के अतिम भाग में जन्म लेने पर माता एवं शिशु का अभिषेक कराने से दोष कटता है।

त्रिखल दोष में जन्म

जब तीन पुत्री के बाद पुत्र का जन्म होता है अथवा तीन पुत्र के बाद पुत्री का जन्म होता है तब त्रिखल दोष लगता है। इस दोष में माता पक्ष और पिता पक्ष दोनों को अशुभता का परिणाम भुगतना पड़ता है। इस दोष के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए माता पिता को दोष शांति का उपाय करना चाहिए।

मूल में जन्म दोष

मूल नक्षत्र में जन्म अत्यंत अशुभ माना जाता है। मूल के प्रथम चरण में पिता को दोष लगता है, दूसरे चरण में माता को, तीसरे चरण में धन और अर्थ का नुकसान होता है। इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1 वर्ष के अंदर पिता की, 2 वर्ष के अंदर माता की मृत्यु हो सकती है। 3 वर्ष के अंदर धन की हानि होती है।

इस नक्षत्र में जन्म लेने पर 1वर्ष के अंदर जातक की भी मृत्यु की संभावना रहती है। इस अशुभ स्थित का उपाय यह है कि मास या वर्ष के भीतर जब भी मूल नक्षत्र पड़े मूल शान्ति करा देनी चाहिए। अपवाद स्वरूप मूल का चौथ चरण जन्म लेने वाले व्यक्ति के स्वयं के लिए शुभ होता है।

अन्य दोष

ज्योतिषशास्त्र में इन दोषों के अलावा कई अन्य योग और हैं जिनमें जन्म होने पर अशुभ माना जाता है इनमें से कुछ हैं यमघण्ट योग, वैधृति या व्यतिपात योग एव दग्धादि योग हें। इन योगों में अगर जन्म होता है तो इसकी शांति अवश्य करानी चाहिए।

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