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प्रेम और मोह में क्या अंतर है?क्या प्रेम ही परमेश्वर है ?


मोह क्या है ?-

06 FACTS;-

1-भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। ६३।।--क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। और मोह से स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है। और स्मरणशक्ति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है। और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है।वास्तव में,मनुष्य के मन की भी अपनी शृंखलाएं हैं।मन के भी ऊर्ध्वगमन और अधोगमन के नियम हैं।मन का अधोगमन कैसे होता है, कैसे वह पतन के मार्ग पर एक-एक सीढ़ी उतरता है, श्री कृष्ण उन सीढ़ियों का पूरा ब्योरा दे रहे हैं।प्रारंभ सूक्ष्मतम होता है ,अंत स्थूलतम हो जाता है।सूक्ष्म उठी इस लहर को इसके स्थूल तक पहुंचने की जो पूरी प्रक्रिया है, जो उसे पहचान लेता है, वह उससे बच भी सकता है, उसके पार भी जा सकता है।तो श्री कृष्ण ने कहा है कि जो पहला वर्तुल, जहां से पकड़ा जा सकता है, वह है विचार का वर्तुल--सूक्ष्मतम, जहां से हम पकड़ सकते हैं।मन में विषय की इच्छा उठती है । वह पहली लहर है, जहां से सब शुरू होता है। काम की जो बीज-स्थिति है, वह विषय का विचार है।पहले चाह पैदा होती है , तो पसंद और नापसंद के रूप में झलकती है, फिर बढ़ती है। अभी बीज है, इसीलिए पहचानना बहुत मुश्किल है। अभी तो कोई बुद्ध ही पहचान सकेगा। हम तो तब पहचानेंगे, जब वृक्ष हो जाएगा।

2-लेकिन बीज से मुक्त हुआ जा सकता है, वृक्ष से मुक्त होना अति कठिन है।बीज फेंके जा सकते हैं,लेकिन वृक्षों को काटना और उखाड़ना पड़ता है।और वृक्ष तो काटने से भी नहीं कटते है।एक शाखा कटती है और चार शाखाएं निकल आती हैं। जड़ों तक काट डालने से भी जड़ें नए अंकुर और नई कोंपलें छोड़ जाती हैं और एक वृक्ष के अनेक वृक्ष भी हो जाते हैं। और जड़ों को उखाड़ना बहुत कठिन है, क्योंकि जड़ें मनुष्य के मन के अचेतन गर्भों में फैल जाती हैं। उन तक पहुंचना भी मुश्किल हो जाता है।इसलिए श्री कृष्ण का यह सूत्र साधक के लिए बहुत समझने जैसा है। इसमें मन के रूपांतरण का पूरा कारण, उसका राज छिपा है।कामी क्रोधी हो जाता है।स्थितप्रज्ञ को क्रोध नहीं होता, तो उसका कारण यही है कि स्थितप्रज्ञ को काम नहीं होता; वह निष्काम है।ये अनिवार्य सीढ़ियां हैं, जो एक के पीछे चली आती हैं। और एक को लाएं, तो दूसरे को लाना पड़ता है। वह दूसरा उससे इतना बंधा है कि वह एक को लाते वक्त ही उसके साथ छाया की तरह भीतर प्रवेश कर जाता है।काम के पीछे आता है क्रोध। अगर चित्त में क्रोध हो, तो जरा भीतर खोजने से पता चलेगा, कहीं काम है।श्रीकृष्ण कहते हैं, काम से क्रोध पैदा होता है।

3-जैसे-जैसे क्रोध बढ़ता है, वैसे-वैसे मोह बढ़ता है। जिसे हम चाहते हैं और नहीं पा पाते, उसके प्रति मोह और गहरा हो जाता है।जो नहीं मिलता, उसी के प्रति मोह होता है; जो मिलता है, उसके प्रति मोह नहीं रह जाता। क्रोध मोह को जन्म दे जाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं, क्रोध से मोह पैदा होता है अर्जुन! क्योंकि क्रोध का मतलब ही यह है कि जिसे चाहा था, वह नहीं मिल सका, इसलिए क्रोध आया।मोह क्रोध से भी सबल है।क्रोध पागल करता है, मोह अंधा कर देता है।और जब चित्त अंधा होता है, तभी स्मृति क्षीण होती है।क्रोध तक सिर्फ मन गरम है, मोह पर भाप बन जाता है।मन की नई अवस्था शुरू हो गई ;गुणात्मक अंतर हो गया। क्रोध तक गुणात्मक अंतर नहीं है, परिमाणात्मक अंतर है। इसलिए क्रोध से वापस लौट जाना आसान है, मोह से वापस लौट जाना बहुत मुश्किल हो जाता है।मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है।मनुष्य के मन में स्मृति का जो काम है, मोह का उससे विपरीत काम है। स्मृति तथ्यगत है। स्मृति / मेमोरी का मतलब ही यही है कि जो जाना, उसे वैसा ही याद रखना । मोह सृजनात्मक है। वह वही नहीं देखता, जो है; वह प्रोजेक्ट करता है ..जो चाहता है कि हो। मोह स्वप्न-निर्माता है। मोह में वह बिलकुल अंधा होकर वही देखने लगता है, जो देखना चाहता है।

4-इसलिए अक्सर हम कहते हैं कि जब कोई मोहग्रस्त होता है, कोई प्रेम में पागल हो जाता है, तो फिर उसे तथ्य दिखाई नहीं पड़ते। वह आग में चल सकता है, वह पहाड़ों से कूद सकता है। उसे फिर कुछ दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए प्रेमी को मनुष्य हमेशा से पागल कहता रहा है। और प्रेम को सदा से अंधा कहता रहा है। परन्तु मोह अंधा है, प्रेम दूसरी बात है।प्रेम को मोह के साथ एक कर लेने से गहरा नुकसान हुआ है। प्रेम एक बहुत ही अलग बात है। प्रेम तो उसी के जीवन में घटित होता है, जिसके जीवन में मोह नहीं होता। लेकिन हम प्रेम को ही मोह और मोह को प्रेम कहते रहे हैं।हमारे जीवन में प्रेम होता ही नहीं है। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन में प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि मोह मांगता है, प्रेम देता है। बिलकुल अलग अवस्थाएं हैं।प्रेम उस चित्त में फलित होता है, जिसमें कोई काम वासना नहीं रह जाती। क्योंकि दे वही सकता है, जो मांगता नहीं।वासना भिखारी है, प्रेम सम्राट है।प्रेम दान है तो वासना भिक्षावृत्ति है.. मांग है।मोह पैदा होता है वासना की अंतिम कड़ी में, और प्रेम पैदा होता है निर्वासना की अंतिम कड़ी में।मोह के बाद विक्षिप्तता है, प्रेम के बाद विमुक्ति है।

5-मोह से स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है। और स्मरणशक्ति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है।स्मृति और बुद्धि में फर्क है। स्मृति बुद्धि नहीं है, स्मृति केवल बुद्धि का कोषागार है।बुद्धि/इंटलेक्ट और बुद्धिमानी /इंटेलिजेंस में फर्क है। बुद्धि का वह रूप जो वास्तविक हो गया है, जिसका आप प्रयोग कर चुके, जो सक्रिय हो गया है, वह इंटलेक्ट है।बुद्धि ने जो-जो जाना है, वह स्मृति में संगृहीत कर दिया है। बुद्धि का अतीत है ..स्मृति । स्मृति का अर्थ ही है .. बीता हुआ।बुद्धि/इंटेलिजेंस का वह रूप जो वास्तविक हो गया है, जिसका आप प्रयोग कर चुके, वह इंटलेक्ट है।बुद्धि का जो रूप अभी भी निष्क्रिय पड़ा है, -केवल संभावना है--बुद्धि में, वह भी सम्मिलित है।बुद्धि की पकड़ सबसे ज्यादा अतीत पर स्पष्ट होती है।जो अतीत है, वह व्यक्त हो गया है।जो हो चुका, वह स्पष्ट ही होगा । घटनाएं घट चुकीं। जो होना था, उसने पूरा रूप ले लिया । जो हो रहा है, अभी निराकार से आकार में आ रहा है। जो होगा, वह अभी निराकार है। जो भविष्य है, वह अव्यक्त है। जो वर्तमान है, वह व्यक्त होने की प्रक्रिया में है।पहले अतीत नष्ट हो जाएगा, फिर वर्तमान, फिर भविष्य। पहले इतिहास विकृत हो जाएगा, फिर जीवन, और फिर संभावना।बुद्धिमानी का वर्तुल बुद्धि के बड़े वर्तुल में छोटा है। वह बुद्धिमानी का वर्तुल बड़ा और बड़ा होता जाए और किसी दिन बुद्धि के पूरे वर्तुल को छू ले, तो व्यक्ति स्थितप्रज्ञ हो जाता है।

6-श्रीकृष्ण कहते हैं, बुद्धि विकृत हो जाती है। क्योंकि बुद्धिमानी यानी स्मृति / मेमोरी। नोइंग यानी बुद्धि, जानने की क्षमता ।जो जान लिया, वह बुद्धिमानी; और भीतर जो जानने की शक्ति है ;वह बुद्धि। बुद्धि सदा जानने की शक्ति से बड़ी है।स्मृति पहले विकृत हो जाती है। स्मृति अर्थात इंटलेक्ट विकृत हो गई। और फिर, श्रीकृष्ण कहते हैं, वह जो अव्यक्त में पड़ी बुद्धि है, उस तक भी भंवर पहुंचने लगते हैं। वह जो गहरे में छिपी प्रज्ञा है, वह भी कंपित होने लगती है। क्योंकि जब स्मृति की आधारशिलाएं गिर जाती हैं, तो उसके ऊपर अव्यक्त का जो भवन है, शिखर है, वे भी कंपने लगते हैं। वह अंतिम पतन है।श्रीकृष्ण कहते हैं, ''अर्जुन, जब बुद्धि-नाश हो जाता है, तो सब खो जाता है। फिर कुछ भी बचता नहीं''। अगर अध्यात्म के अर्थों में समझें, तो ऐसी स्थिति आध्यात्मिक दारिद्रय है।यह जो मोह पैदा हुआ, यह स्मृति को नष्ट कर देता है। क्योंकि स्मृति अब तथ्य को अंकित नहीं कर पाती कि क्या है। स्मृति का काम सिर्फ ही है लेकिन मोह के कारण तथ्य दिखाई नहीं पड़ता। मोह के कारण हम एक जाल अपनी तरफ से प्रोजेक्ट करते हैं।लेकिन हम भौतिक दारिद्रय से बहुत डरते हैं, आध्यात्मिक दारिद्रय से जरा भी नहीं डरते। हम बहुत डरते हैं कि एक पैसा न खो जाए। आत्मा खो जाए--हम नहीं डरते। हम वस्तुओं को बचा लेते हैं,और स्वयं को खो देते हैं।

प्रेम और मोह में क्या अंतर है?-

07 FACTS;-

1-प्रेम आत्मा की अभिव्यक्ति है। इसे रत्नाकर सिन्धु/ के सदृश समझा जा सकता है। जिस तरह गंगा, यमुना, कावेरी, नर्मदा आदि नदियाँ सरिता के रूप में स्थलो में जब तक इधर-उधर भटकती हैं, तब तक उन्हें सरिताओं के अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जाता है, पर जब ये सरिता-प्रवाह महासागर में समा जाते हैं, तब उनकी समूची शक्ति सामर्थ्य भी केन्द्रीभूत हो जाती है। अब उनका अस्तित्व सागर जैसा विशाल हो जाता है। मनुष्य के गुण भी इन नदियों की तरह हैं और इन सद्गुणों का पुंजीभूत रूप है.. प्रेम; वह प्रेम जो आत्मा की विशेषता है।इसमें सारे गुण स्वतः ही समाये रहते हैं अथवा यों कहा जाय कि यहाँ सारे गुण विलीन हो निर्गुणत्व पा लेते हैं। इसी स्थिति को स्पष्ट करते हुए नारद भक्ति सूत्र में ‘सः हि अनिर्वचनीयो प्रेम रूप' कह कर परमेश्वर को प्रेम रूप घोषित किया है। यह ही परम तत्व है। इसी का बोध होने में ज्ञान की सार्थकता है। इसी आशय को संत कबीर अपनी वाणी में कहते हैं ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।’ अर्थात् ढाई अक्षरों में ही निहित प्रेम के इस तत्व को प्राप्त कर लेने में ही पाण्डित्य की सार्थकता है।

2-इसमें ऐसा कौन-सा तत्व निहित है, जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है? सामान्यतः तो सब यही कहते हैं कि अमुक को पत्नी से प्रेम है .. बच्चों से प्रेम है, माँ से प्रेम है। इस सबसे कोई और श्रेष्ठ दूसरा प्रेम है क्या?इस पर चिन्तन करने से ज्ञात होता है कि पत्नी बच्चों का अन्य किसी से किया जाने वाला प्रेम-प्रेम नहीं मोह होता है। इस मोह और प्रेम में विरोधाभास जैसी स्थिति है। यदि प्रेम को काया कहा जाय, तो मोह को छाया कहा जाना उचित होगा। दोनों में अंतर भी वही होता है, जो काया और छाया में है। एक सजीव होती है, दूसरी निष्प्राण। छाया को देखकर सजीवता का भ्रम तो होना संभव है, पर उससे काया का प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता।प्रेम और मोह में एक अंतर और है। प्रेम चेतन से होता है मोह जड़ से। पत्नी आदि से किया जाने वाला तथाकथित ‘प्रेम’ उसके रूप लावण्यमय जड़ शरीर से होता है न कि चेतन स्वरूप आत्मा से, अतएव यह मोह ही है।

3-इसकी जड़ की ओर उन्मुखता मात्र हाड़-माँस वाले शरीर तक ही सीमित नहीं रहती, वरन् मकान से लेकर विभिन्न प्रकार के सामानों तक बढ़ जाती है।पर इसके विस्तार का क्षेत्र रहता जड़ ही है। जबकि प्रेम तत्व के जानकार महर्षि याज्ञवल्क्य ने बृहदारण्यक उपनिषद् में स्पष्ट किया है कि पत्नी-पत्नी होने के कारण नहीं, अपितु आत्मा के कारण प्रिय हो, सन्तान-सन्तान के कारण नहीं, आत्मा के कारण प्रिय हो, यही प्रेम की सच्ची परिभाषा है। यह स्थिति गीता के शब्दों में ..''जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता''।सर्वत्र व्याप्त चेतन तत्व के कारण वह ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ ..'सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान मानो' -की स्थिति में रहता है। मोह जहाँ विभेद उत्पन्न करता है, प्रेम वही अभेद की स्थिति पैदा करता है, प्रेम व्यापक तत्व है, जबकि मोह सीमित-परिमित।प्रेम का प्रारंभ सम्भव है किसी एक व्यक्ति से हो पर उस तक सीमित नहीं रह सकता। इसका चरमोत्कर्ष ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में होता है। यदि यह सीमित रह जाता है, कुछ पाने की कामना रखता है, तो समझना चाहिए कि यह मोह है।

4-प्रेम में तो पाने की नहीं, देने की उमंग रहती है, जबकि मोह में लेने की स्वार्थपरता-संकीर्णता ही पनपती है। इसमें अनुदान की नहीं, प्रतिदान की अपेक्षा रहती है। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, व्यक्तियों से जुड़कर उनके कल्याण की और विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में व्यक्ति, पदार्थ, संसार से किसी न किसी प्रकार के स्वार्थ सिद्धि की अभिलाषा रहती है। जिसके प्रति मोह रहता है, मात्र उसे ही अपनी इच्छानुसार चलाने उठाने की आगे बढ़ाने की वह बात सोचता है। इसमें तनिक-सा व्यवधान उत्पन्न होने पर खीज असंतोष का उद्वेग उमड़ता है और व्यक्ति को असंतुलित बना देता है। प्रेम में इस तरह की कोई बात नहीं है।इसका अंकुर निकट परिवार से आरम्भ होता है, पर जब यही विकसित होता है, तो इसकी शाखा-प्रशाखाएँ समस्त समाज-विश्व में फैल जाती हैं। घर परिवार तो प्रेम-साधना की पाठशाला मात्र है। इसमें उनकी प्रसन्नता और विकास की बात सोची जाती है। इसमें उठाये गये कष्ट में संतोष की अनुभूति होती है। यह आरम्भिक प्रशिक्षण है, पर जब अपने सगे संबंधियों की प्रसन्नता-समृद्धि के लिए उचित अनुचित का ध्यान नहीं रहता और आदर्शों की बलि दे दी जाती है, तो वह प्रेम नहीं रहता, मोह बन जाता है। इसे ही गोस्वामी तुलसीदास ने ‘मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला’ कहा है। सचमुच, यह स्वयं व जुड़े हुए व्यक्तियों, दोनों के लिए हानिकारक है।

5-प्रेम तो गंगा की जल की तरह पवित्र व निश्चल है, जिसे जहाँ भी डाला जाय पवित्रता ही पैदा करता है। उसमें आदर्शों की अविच्छिन्नता जुड़ी रहती है। विवेकशीलता, सहृदयता, पवित्रता, सदाशयता जैसे गुण इसमें समाये रहते हैं। प्रेमी जिससे भी प्रेम करता है, उसमें इन गुणों के वर्धन के लिए सतत् प्रयत्नशील रहता है।भाव-संवेदनाएँ नित्य-निरंतर उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति समर्पित रहें, यही प्रेम है। इसकी सीमा की संकीर्णता अपने में आबद्ध नहीं कर सकता। यह तो सूर्य की तरह है, जो उदयकाल के समय तो मात्र पूर्व को ही प्रकाशित करता है, पर मध्याह्न में इसके प्रकाश से समस्त दिशायें प्रकाशित हो जाती हैं। जिसके अंतराल में प्रेम प्रस्फुटित होता है, वह व्यक्ति देश, धर्म, संस्कृति और मानव जाति की सेवा-साधना में निरत हो जाता है।

जीवन के उत्कृष्टतम रूप में अभिव्यक्ति इसी माध्यम से होती है। यदि इसे हटा दें, तो मानव जीवन में फिर कोई विशेषता नहीं रह जाती। संत कबीर के शब्दों में-'जा घट प्रेम न संघरै सो घट जान मसान’ सचमुच उस भक्ति का हृदय श्मशान की ही तरह होता है, जिसमें विभिन्न दुर्गुण चिन्ता, संताप, असंतोष के भूत मंडराया करते हैं, ऐसा जीवन स्वयं के लिए एवं धरती के लिए भार स्वरूप ही होता है।

6-प्रेम की ज्योति सामान्य दीपक की ज्योति नहीं, जिसमें ताप हो,बल्कि यह दिव्य चिन्तामणि की शीतल स्निग्ध ज्योति है, जिससे शरीर, मन, बुद्धि, अन्तःकरण प्रकाशित होते व सारे संताप शांत होते हैं। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य में जो भी आता है, उसे भी निर्मलता शीतलता का अनुभव हुए बिना नहीं रहता।इसकी परिपूर्णता परमेश्वर में है या दूसरे शब्दों में इसकी पराकाष्ठा ही ईश्वर-प्राप्ति है। तत्ववेत्ताओं ने इसीलिए उसे ‘रसो वै सः’ कह कर वर्णित किया है, अर्थात् वह परम सत्ता रसवत् है, प्रेम व आनंद स्वरूप है। अतः प्रेम के शुभारम्भ को भगवद्-प्राप्ति का प्रथम चरण भी कह सकते हैं। आध्यात्मिक पुरुषों के विश्व इतिहास पर यदि दृष्टि डाले तो सभी का व्यक्तित्व इस दिव्य तत्व से ओत-प्रोत दिखाई पड़ेगा। गौरांग महाप्रभु ने जब प्रेम को परमेश्वर रूप में ग्रहण किया, तो वे ‘चैतन्य’ बन गये। रामकृष्ण ने जब इस तत्व के कर्म को आत्मसात् किया, तो वे ‘परमहंस’ बन गये। ऐसे ही जितने भी महापुरुष हुए हैं, सभी के हृदयों में इसका प्रवाह बहता रहता था। बुद्ध का प्रेम जब उमड़ा, तो उनने अंगुलिमाल जैसे दुर्दान्त दस्यु को भी क्षमा-दान कर अपने धर्म में दीक्षित कर लिया। व्यक्ति जब प्रेम को परमेश्वर की अभिव्यक्ति के रूप में ग्रहण करता है, तो उसे सर्वत्र सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् के ही दर्शन होते हैं और उसकी सारी शक्तियाँ विश्व-वसुधा को वैसी ही बनाने में नियोजित होती हैं।

7-परम सत्ता के स्थूल स्वरूप-विराट् ब्रह्म के प्रति इस प्रकार की घनिष्ठता से स्वतः ही वह क्षुद्र से महान, लघु से विभु, पुरुष से पुरुषोत्तम जैसी स्थिति में पहुँच जाता है। प्रेम की इस दिव्यता के जीवन में अवतरित होने पर उदात्त भावनाएँ उमड़ने लगती हैं। इस स्थिति में अन्तराल में सत्-चित्त-आनंद की वह त्रिवेणी बहती है, जिसमें डुबकी लगाकर व्यक्ति ऐसा दिव्य आनन्द प्राप्त करता है, जो प्रत्यक्ष त्रिवेणी-संगम में स्नान करने से भी सम्भव नहीं। ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’, ‘वासुदेवः सर्वमिति’ वेदान्त में वर्णित यही अद्वैत स्थिति है। गीता में इसे ही दूसरे प्रकार सब में अपनी अनुभूति करना कहा गया है। इस चरम स्थिति को पाना ही मनुष्य जीवन का ध्येय है। यहाँ तक पहुँचने के लिए मनुष्य को मोह रूपी छाया को छोड़ना तथा प्रेम की जीवन्त काया को पकड़ना होगा। यही जब परिपक्व होकर व्यापक विस्तार करता है, तो परमेश्वर स्वरूप धारण कर लेता है। इसीलिए प्रेम को परमेश्वर भी कहा गया है। श्री गुरु ग्रंथ साहब में कहा गया है-'जिन्हें प्रेम कियो तिन्हहिं प्रभु पायो, साँच कहौं सुन लेहौ सबही।’ प्रेम किया है, उसने ही प्रभुत्व का साक्षात्कार किया है व यह प्रेम अंतर्जगत से निकलने वाली वह अनुभूति है जो करुणा, स्नेह, संवेदना, आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना के रूप में प्रकट होती है। इसी प्रेम को आधार बनाकर स्वयं को प्रभुमय बनाया जा सकता है।

....SHIVOHAM....


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